Quantcast
Channel: लिखो यहां वहां
Viewing all 222 articles
Browse latest View live

युगवाणी का जून २०२१ विशेषांक

$
0
0


 दिनेश चंद्र जोशी


समाजिक सरोकारों व जनपक्षधरता से आंखें न चुराने वाली पत्रिका 'युगवाणी'का जून २०२१ अंक विशेष रूप से ध्यानाकर्षित करता है।

अब इसे सुयोग कहें या दुर्योग कि इस अंक की नब्बे फीसदी सामग्री करोना काल में दिवंगत हो गई उत्तराखंड की महान विभूतियों की जीवन यात्रा,उनके संघर्षों, उपलब्धियों,सामाजिक हस्तक्षेप व योगदान को ले कर है।

इस लिहाज से यह अंक उन महानुभावों के प्रति श्रद्धा,कृतज्ञता व आत्मीयता से परिपूर्ण रचनाओं का खजाना तो है ही, साथ ही उनके निर्माण, विकास,सक्रीयता, सरोकारों व योगदान का प्रामाणिक जानकारी पूर्ण दस्तावेज भी है।इस लिहाज से यह पत्रिका के इधर प्रकाशित गिने चुने यादगार संग्रहणीय अंकों में से एक बन पड़ा है।

पर्यावरणविद सुंदरलाल बहुगुणा उत्तराखंड को कर्मभूमि बना कर देश दुनिया में पर्यावरण जागरूकता की मिशाल व मशाल बन कर उभरे, उनके निधन से न सिर्फ उत्तराखंड बल्कि,सर्वोदयी गांधीवादी विचारधारा के अंतरराष्ट्रीय युगपुरुष का अवसान हो गया।उन पर सम्पादकीय भूमिका सहित,डा.शेखर पाठक का महत्वपूर्ण, प्रामाणिक तथ्यों से युक्त आधार लेख,'एक लम्बी यात्रा का रूक जाना'शीर्षक से प्रकाशित है,साथ ही संजय कोठियाल का आलेख 'उनके लेखन ने उन्हें लक्ष्य  तक पंहुचाया' , बहुगुणा जी के पत्रकार,लेखक व रिपोर्टर वाली भूमिका के पक्ष को लक्षित करता हुआ श्रद्धांजलि पेश करता है।

प्रसिद्ध इतिहासकार,जनचेतना के पैरोकार प्रोफेसर लाल बहादुर वर्मा पिछले पांच छह वर्षों से देहरादून में रह कर सक्रिय बुद्धिजीवी की भूमिका निभा रहे थे, करोना ने उन्हें भी अपना निवाला बना लिया।उनके रचनाकर्म व सांस्कृतिक, साहित्यिक सरोकारों पर अरविंद शेखर का सारगर्भित आलेख भी इस अंक की उपलब्धि है। 

लोक-भाषा कुमाऊनी के सृजन,सम्पादन,संरक्षण व प्रचार प्रसार में एकनिष्ठता से जुटे समर्पित साहित्यकार मथुरा दत्त मठपाल जी को श्रद्धांजलि स्वरूप 'दुधबोली कुमाऊनी को समर्पित मथुरा दत्त मठपाल'शीर्षक से प्रकाशित हरिमोहन 'मोहन'का लेख बड़ी आत्मीयता से रचा गया है।

पिछले दिनों ही,उत्तराखंड के ओजस्वी युवा पत्रकार,व हिंदी की महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिका आधारशिला के सम्पादक दिवाकर भट्ट भी इस महामारी से हार कर हमारे बीच नहीं रहे। उन पर आधारित जगमोहन रौतेला का लेख दिवाकर भट्ट के जुझारू व्यक्तित्व ,साहित्यिक लगाव व सम्पादकीय कौशल की बानगी पेश करता हुआ उनको श्रद्धा सुमन अर्पित करता है।

इनके साथ ही पिछले दिनों दिवंगत हुए उत्तराखंड के महत्वपूर्ण जनों में प्रोफेसर रघुबीर चंद्र,शेर सिंह बिष्ट, लोक कलाकार  रामरतन काला, इतिहासवेत्ता

शिव प्रसाद नैथानी, राजनीतिज्ञ, बची सिंह रावत, नरेंद्र सिंह भंडारी, गोपाल रावत, सामाजिक कार्यकर्ता अजीत साहनी, गजेन्द्र सिंह परमार,दान सिंह रौतेला की स्मृति स्वरुप विशेष सामग्री प्रकाशित कर युगवाणी ने अपने युगधर्म का निर्वाह किया है। नियमित स्थाई स्तम्भों व विविध सामाग्री से युक्त युगवाणी का यह विशेष अंक मर्मस्पर्शी,जानकारी पूर्ण,श्रद्धा भाव से सम्पृक्त रचनाओं के बावजूद वस्तुपरक विश्लेषणों से युक्त संग्रहणीय अंक हैं।

                       *******


मेरी सार्वभौमिकता, तेरी सार्वभौमिकता

$
0
0

 रणनीति को राजनीति मान लेने वाली समझदारी की दिक्कत है कि वह विचारक को स्वयं ही एक ऐसे गढढे में धकेल देती है कि उससे बाहर निकलने का रास्ता ढूंढना मुश्किल हो  जाता है। बल्कि होता यह है कि गढढे से बाहर निकलने का रास्ता नजर नहीं आने पर वह विचार को ही गलत मानने लगती है, या फिर उसके उलट ही व्यवहार करने लगती है। फिर चाहे वहां रोज की तरह "कभी-कभार"लिखने वाले अशोक बाजपेयीहो और चाहे 'सार्वभौमिक'रूप से पहचाने जाने वाले मार्क्सावादी आलोचक वीरेन्द्र यादव । 

विचार की सार्वभौमिकता पर बात करते हुए यदि अशोक बाजपेयी लिखते हैं, ''यह बात पहले भी कही जा चुकी है कि हमारे समय में विचार की गति शिथिल हो गयी है।''और इस शिथिलता की क्रोनालॉजी को  इस तर्क में बांधते हैं, ''रचना आगे चलती है और अकसर आलोचना थोड़ा पीछे चलती है, विचार और विचारधाराएं आलोचना से भी पीछे चलती है, रचना जिस गति से बदलती है, आलोचना नहीं और विचार तो बहुत धीरे बदलता है,''  तो देख सकते हैं कि वे उसी गलतफहमी को तर्क बनाकर आगे बढ़ा रहे हैं जिसका बिगुल कभी कथा सम्राट प्रेमचंद ने बजाया था ओर जिसको थामते हुए ही हिदी की रचनात्महक दुनिया साहित्य् को राजनीति की मशाल मानती रही। 

वीरेनद्र यादव चाहते तो आम जन की राजनीति की कोई स्पाष्ट‍ दिशा न होने पर भाषा और शिल्प की कलाबाजी में गोते लगतो साहित्य के कारणों की पड़ताल करते हुए किसी बेहतर निष्कर्ष पर पहुंच सकते थे। लेकिन ऐसा करने के लिए तो पहले उन्हें खुद भी अपने से टकराना होता और देखना होता कि राजनैतिक दिशा के अभाव में साहित्य जन आकांक्षाओं का कोई नया विकल्पख नहीं खोज सकता है। यानी साहित्य राजनीति की मशाल नहीं हो सकता। लेकिन वे तो सार्वभौमिकता की चाहत को ही वर्चस्वतवादी करारे देने लगते हैं।

उनको पडते हुए अफसोस तो हो रहा, साथ ही यह भी सोचने को मजबूर होना पड़ रहा कि सार्वभौमिकता की अपनी उस समझ का क्या करूं जो मूल्य , व्यावहार, संस्कृति, लिंग ओर अन्य सामाजिक पहचान के साथ सभी समूहों के बीच एका के रूप में देखती रही है। सार्वभौमिकता को समझने के लिए तो मेरा यकीन नोम चॉमस्कीम के उस सिद्धांत पर भी है, जो बताता है कि कोई मातृभषी अपनी मातृभाषा के अव्यातख्यायित व्याकरण को स्वतत: ही सीख जाता है। या, फिर शिक्षा में वर्गवादी दृष्टि के विरूद्ध सार्वभौमिक शिक्षा की बात का भी मैं हिमायती हूं।

स्थानिकता को छिन्न  भिन्न करते हुए दुनिया भर के संघर्ष की सार्वभौमिकता को विभाजित करने वाली तकनीकी आंधी से इत्तिफाक कौन रखना चाहेगा। लेकिन उस आंधी की मुखालफत में यह भी कैसे भूल जायें कि सार्वभौमिकता तो हर स्थानिकता के सम्मान के साथ ही जन्म लेती है। वरना तो उसका कोई अस्तित्व ही नहीं।

गोम्‍बो रांगजन

$
0
0

यात्रा श्रृंखला की येे कुछ कविताएं जांसकर के उस भू-भाग पर केन्द्रित हैं, जिसके बारे में कल ही अपने आत्‍मीय रंजीत ठाकुर जी से मालूम हुआ कि दो दिन पहले ही वे सिंकुला दर्रे के रास्‍ते जांसकर होकर लौटे हैं। मेरे लिए वह कम आश्‍चर्य की बात नहीं थी कि यात्रा उन्‍होंने वाहन से की। मेरा देखा हुआ सिंकुला तो जोखिम भरे रास्‍तों वाला दर्रा रहा। गोम्‍बो रांगजनपर्वत की तस्‍वीर उन्‍होंने ही लगायी थी। उसी पर्वत की एक दूसरी तस्‍वीर जो यात्रा के मेरे साथियों के साथ सुरक्षित है, 1997 की है। 


  


उसी तस्‍वीर के साथ प्रस्‍तुत हैं वे कविताएं जो 1997 से 2005 तक की चार बार की गई पैदल यात्राओं के अनुभव से उपजी थी। सोचा था कभी एक साथ ही प्रकाशित हों। 







देखो सखी, देखो-देखो। 

छुमिग मारपो[1]रजस्वला स्त्री की

देह से बह आये रक्त का नाम है

 

उर्वरता से बेसुध पड़े पहाड़

ढकी हुई बर्फीली चाटियों के

बहुत नीचे तक खिसक आये

ग्लेश्यिरों से भरे हैं

 

जीवन की संभावनाओं को सँजोये

पाद में गुद-गुदी कर

सरक जाती हैं,

इठलाती, बलखाती कितनी ही जलधाराएँ

 

बदन पर जमी

मैल को रगड़ देने के लिए

मजबूर करते हैं पहाड़

 

छुमिग नाकपो[2]का काला जल

देह की मैल में रल कर

पछार खाता बहता चला जाता है

तटों पर छूट जाती है रेत

लौट नहीं पाता दूधियापन

 

कितना रोना रोएँ

गले मिलकर साथ बढ़ती जल-धाराएँ

निर्मोही, कैसे तो ठुकराता है

हवाओं के बौखों से

कैसे तो उठ आयी हैं दर्प की मेहराबें

देखो-देखो, देखो सखी, देखो तो।  

 

कितना चिह्ना अचिह्ना रह गया  

कितना चिह्ना अचिह्ना रह गया

लौट-लौटकर आऊँगा

फिर-फिर जाँसकर

 

सिंकुला की चढ़ाई पर

मनाली स्कूल से घर लौटते

कारगियाक गाँव के बच्चे के निशान

घोड़ों के पाँव की छाप से मिट नहीं पायेंगे

 

थाप्ले, तांग्जे और इचर गाँव के

बच्चों की किलकारियाँ

पिता के कँधों को झुलाती रहेंगी

अगली बार जब आऊँगा

तुम्हारे मुँह में झाग बनकर चिपके

डिमू के दूध की गँध से ही

पहचान लूँगा तुम्हें, तुम्हारे गाँव से

 

गहरे गर्त में उतरते बर्फ के नाले पर

तेजी से भाग निकलने को आतुर रहते हैं

जहाँ घोड़े वाले,

तुम्हारे साथ फिसल-पट्टी का खेल खेलूँगा

चड़कताल पड़ती धूप में पिघलती बर्फ पर

 

कैसे तो बेखौफ तुम

फिसलते हुए उतर जाते हो गहरी खाई में

सीखना ही चाहूँगा

 

हाँ वहीं, वो ही जगह है जाँसकरी दोस्तों

जहाँ डर गये थे उतरने से हम

ढूँढते हुए कोई आसान-सा पथ, जो था ही नहीं,

भटक गये थे बर्फीले विस्तार में

जानते हो, उस वक्त कितने शुष्क हो गये थे हमारे गले

शायद सूखी हवाओं ने

ऊपरी त्वचा ही नहीं, बल्कि

अंतड़ियों पर भी

छोड़ दिये थे अपने निशान

हम चिह्न ही नहीं पाये थे वो रास्ता

तुम्हारे पदचिह्न की छाप से

जो सीधे-सीधे हमें लाकोंग तक पहुँचा देता

कैसे तो जैसे तैसे उतरे थे

काँपते, डरते और गहरे-गहरे

बर्फ में डूबते हुए।  

 

सलामत रहे दुनिया

 मेरे कान

वेगवान नदी की

उछाल मारती धारा को सुन रहे हैं

मेरी आँखें

सूखे पहाड़ों पर तृण की तरह

उग आई हरियाली को मचल रही है

 

घुटनों के जोर पर

ऊँचाई दर ऊँचाई चढ़ते हुए

मेरे फेफड़े लगातार उस वायु को

सोखते जा रहे हैं,

जिसके स्वच्छ रहने की संभावना

विकास का सतरंगी माडल खत्म किए दे रहा है

 

पिट्ठू का भार उठाते हुए

जिस्म की ताकत का भरोसा दिला रहे हैं कँधें

सूखी हवाओं के थपेड़ों को

झुलसते हुए भी झेलती जा रही है मेरी त्वचा

संगीत चेहरे पर ऐसे ही हो रहा है दर्ज

अपनी लड़खड़ाहट भरी पहचान छोड़ते हुए

 

सलामत रहे दुनिया

सलामत रहे अंग प्रत्यंग के साथ

गुजरते हुए कोई भी राहगीर।  

 

मेरे घोड़े

जाँसकर सुमदो के गड़-गड़ से होकर

मैं हाँकता चला जाता हूँ

अपने घोड़े सिंकुला की ओर

 

पीठ पर लदे टैन्ट, राशन और तेल के भार

झुका देते हैं कमर

छल-छला जाता है पेट में इक्‍कट्ठा द्रव,

किसी बड़े से पत्थर के ऊपर अगला पाँव रखते

जब उठता है पिछला तो

फस्स के साथ बह आता है बाहर

 

मेरी सीटी की लम्बी सटकार पर

पंक्तिबद्ध बढ़ जाते हैं मेरे घोड़े

गड़-गड़ के बीच झाँकता पौधा

मचल रहा होता उनके भीतर,

मुँह मारने से पहले ही

मेरी सीटी की फटकार पर

झुकते झुकते भी ऊपर उठ जाती है गर्दन 

 

अये, हाऊ क्यूट

 

व्हेरी ओबीडियन्ट गाई,

 

हाथ झुलाते हुए चल रहे

पार्टी के सदस्य की आवाज

गुदगुदा जाती है मुझे

मेरे घोड़ों की चाल भी

होती है उस वक्त मस्त।

  

नदी पर झूला पुल 

झूला पुल से गुजरते हुए

निगाह पहुँच ही जाती है बहाव तक

खतरे के अनजानेपन से गुजरते हैं घोड़े

 

एक छोर से दूसरे छोर तक थमा है पुल जिन रस्सियों पर

पकड़ने की कोशिश बेहद खतरनाक है

निगाहों में डोलता है नदी का बहाव

 

घोड़ों ने जो देख लिया नीचे

तो कैसे समझाऊँगा,

सिर्फ सामने देखो दोस्त

पुल तो स्थिर है, पर बहाव

पर टिकी आँखें उड़ा रहीं उसे। 

 

डूबने डूबने को होते हुए 

डूबते हुए भी घोड़े

तैरने का अभ्यास करते हैं

नदी भी होती है अपने बहाव में

अभ्यास करती हुई - और तेज

और तेज बहने का

 

दृश्य वाकई लुभावना है

तालियाँ पीटते हैं पार्टी के लोग जब

जैसे तैसे तो पार लग

शरीर को झिंझोड़ कर

झटक रहे होते हैं

बदन पर लिपट गया

पिघलती बर्फ का गीला पन

 

हडि्डयों के भीतर सरक गई ठंड

लाख झटकने के बाद भी

गिरती ही नहीं

जैसे नहीं गिरा होता पीठ पर लदा सामान

बहाव के बीच डगमगाते हुए भी

 

कितनी बार उतरना होगा अभी और

बहते हुए दरिया में

पन्द्रह साल तो हो ही चुकी है उम्र अब।  

 

जैसे गुजरे घोड़े  

नीचे बहते पानी को मत देखो यात्री

झूलने लगेगा पुल

चर खा जाओगे

झूलती हुई रस्सियों को तो पकड़ने की

बिल्कुल भी गलती न करना ऐसे में

वे वहाँ पर होंगी नहीं, न ही हाथ आएंगी 

 

सीधे, एकदम सामने देखो वैसे ही

जैसे निर्विकार भाव से देखते हुए

घोड़े गुजर गए।   

 

बर्फीला उजाड़  

हरियाली को चट कर चुकी

सूखी बर्फानी हवाएँ क्या बाताएंगी-

यूँ तो भीगी बरसात का मौसम है ये,

 

गद्दियों के माथे की सिकुड़न को पढ़ लो,

ऊँची उठती हुई पहाड़ी पर

रोज-रोज आगे बढ़ जा रही भेडें को ताकने में

कितनी मिच-मिचाहट है। 

  

तृण-तृण घास  

ऊँचाइयों के खौफ से नहीं

पानी की प्यास के चलते

उतर आए हैं जेदाक्स नीचे

 

तृण-तृण घास की खातिर

भेड़ और घोड़े तीखी होती जा रही

चढ़ाई तक चढ़ते जा रहे हैं,

जैसे उल्के लटके हों अब

कदम-भर के फासले पर है आकाश ।

 

गुजरेंगे तो जान पाएंगे 

जानने की जितनी भी जगह हैं

हैं सफेद, बर्फ-सी उजास

अँधेरे कोनों में महाकाल है

 

घास बर्फीली सफेदी के साथ नहीं

हरेपन की चित्तीदार पहाड़ियाँ हैं

 

दूर से देखो तो ढकी हुई है

चित्तियाँ

कुछ कम दूर से देखने पर

बिखरी हुई भेड़े नजर आती हैं

गदि्दयों से पूछो तो बता देंगे -

उस तरफ तो भेड़े हो ही नहीं सकती सहाब

वे तो कठोर चट्टाने हैं

वो हरियाता हुआ मँजर

जली हुई चट्टानों से है

जो इतनी दूर से ऐसे ही दिखता है

 

भेड़ जाँसकरी थोड़े ही है जो झाँसे में आ जाएँ

चारागाह पहचान लेती हैं

पहाड़ी के पार भी,

जिसे इस तरफ से तो देखा ही नहीं जा सकता

 

गुजरेंगे तो जान पाएंगे

वे उसी ओर बढ़ी हैं।  

 

आश्वस्ति  

बहुत थक गए हो यात्री

आओ विश्राम करो

ठहर जाओ आज की रात हमारे ही डेरे पर

मौसम साफ नहीं है

छुमिग नाकपो तक भी आ सकता है गल

 

पर चिन्ता न करो

ठहर जाओ आज की रात हमारे डेरे पर

वैसे भी हम तो अगले दो माह तक

यहीं हैं अपने माल के साथ। 

  

हमारा जीवन 

अये, सी दैट पीक,

वट्स नेम ?

 

गोम्बोरांगजन है साब,

महाकल का वास

टणा-मणा की आवाज गूँजती है उस पर

 

वट्स कूँजता ?

 

वायस सर वायस

 

ओ के

 

टिमटिमाती है रोशनी कभी-कभी रात को,

यूँ तो मैंने देखा नहीं पर

बलती तो है ही

 

व्हू फ्लेम द लाईट...हा, हा, हा ?

 

हँसे नहीं सर

महाकाल नाराज हो सकता है

आपका तो कुछ नहीं

हम तो महाकाल के ही भरोसे हैं पर। 

 

भीगे हुए कपड़े  

दरिया में न उतरे तो क्यों जी भीगेंगे ?

जब भीगेंगे ही नहीं तो

बदलेंगे भी क्यों फिर

और फिर बदलने को भी इतने तो नहीं

 

आपका तो आना-जाना रहता है कहीं-कहीं

ठौर ठिकाना अपना तो है बस यहीं

फिर क्या करेगें कई-कई जोड़ों का

यूँ भी है तो नहीं

अभी पिछली पार्टी आयी थी जो

उसके मुखिया ने ही दिया था ये, जो पहना हुआ

आप भी तो भेंट करेंगे ही न सर

तब देखिए बदलूँगा ही खिल-खिलाते हुए

आपके पास तो

इससे भी ज्यादा खिल-खिलाते हुए और हैं

बदल लीजिये इन्‍हें

वैसे भी भीगने से तो दिख ही रहे धूसर से।

  

यह कैसा गिरिभाल

सिंकुला की चढ़ाई पर निकलते हैं जाँसकरी

मनाली पहुँचना है

नमक, चीनी, कपड़ा-लत्ता

बोरी-राशन भर कर

लौटते हैं कुल्लू दारचा वाली बस से

 

मनाली की इस भागम-भाग में

बदन पसीने से चिप-चिपाने लगते हैं

मनाली की गरम हवाऐं काटने लगती है

घर का रास्ता रोके खड़ी 

रोहतांग की चढ़ाई बहुत चिढ़ाती है

 

कम्बख्त...

कितना तो दूर हो जाता है मनाली बाजार

लाहौल वाले भी

जाँसकरियों के स्वर में ही बोलते हैं।

   

रुक ही जाओ

आप जितना चलेंगे आज

हमें तो उतना चलना ही है

कहें तो थम्जै फलांग पहुँच जाऊँ ?

पर पैलामू पर ठहरना ही ठीक होगा साब

घोड़ों को भी आराम चाहिए

और घास भी

 

एक दिन में दारचा से चलकर जाँसकर-सुमदो

पहुँच तो सकते हैं,

गर गड़-गड़ के बीच होकर बहता पानी न बढ़ा हो

शाम तक तो बढ़ ही जाता है दरिया का बहाव

सुबह-सुबह ही पार कर सकते हैं

फिर घास भी तो है नहीं उधर

थम्जै फलांग दो घंटे से कम तो क्या ही होगा साब।

 

 कैद स्वच्छंदता 

ऐसा नहीं है कि ऊँचाइयों पर चढ़ने का

शऊर नहीं

कितने ही उजाड़ और वीराने में

बीता देती हैं जिन्दगी

जाँसकर की स्त्रियाँ

 

ऊँचाई-दर-ऊंचाइयों के पार

फिरचेन लॉ की चढ़ाई को चढ़कर

डोक्सा तक पहुँचते हैं

तांग्जे गाँव के बच्चे अपनी माँओ के साथ

 

लेह रोड़ दूर है बहुत,

खम्बराब दरिया के भी पार

डोक्सा से कैसे तो देखेगीं  ?

 

मोटर-गाड़ी तो कोई सुना गया शब्द है

किसी चीज का नाम

जैसे सुना है - मनाली एक शहर है

जहाँ के बाजार से मर्द खरीद लाते हैं

कपड़ा, लत्ता, राशन

 

डोक्सा में याक की पीठ पर सवारी करती

जाँसकरी स्त्री को देख 

चौरु, याक, सुषमो, गरु, गिरमो[3]को

देखने आने वाले

स्वच्छंदता की तस्वीर को कैद करने का उतावलापन

संभाल नहीं पाते

तन जाते हैं कैमरे। 

 

मत करो बहाना 

जौ, गेहूँ की बालियाँ

जितनी भी हैं

छँग हैं

बदरँग पहाड़ियों को रँग देती है

रंगत उनकी झीनी-झीनी

झीना, जैसे बुना हुआ कपड़ा

उससे भी झीना क्या हो सकता है ?

 

नशा छँग का झीना-झीना होता है

सूखेपन की बर्फानी हवाओं के बावजूद

जड़े सोख लेती हैं धरती से सत

सत्तू हो जाता है

ठंड में लिपटा दाना-दाना

बड़ी मुश्किलों से होता है पैदा

 

सत्तू है बड़ा पुराना

खा लो खा लो

मत करो बहाना।  

 

फिसलन भर चमक 

डिब्बाबंद, पैकेटों के

रंगबिरंगेपन में छोड़ दिये गए उच्छिष्ट को

जितना भी जलाओ

राख के रंग में भी न दिखेंगे

तो राख तो होंगे ही क्या

 

हवाओं में घुलते अंश के साथ

खड़ी होती जा रही टीले दर टीले ऊँचाई

संजोती रहेगी फिसलन भर चमक

मुनाफे की लोलुप निगाहें

फैलाने लगे भ्रम कि सदियों से यूँही

धातु के ठोसपन का नाम है ग्लेशियर   

तो आश्चर्य क्या। 

 

यात्रा में होने जैसा 

यात्रा पर निकलने से पहले

सब कुछ तय कर लेते हैं

कहाँ, कहाँ जाना है, क्या-क्या देखना है

मिलना है किस-किस से

 

रुकना है कितने दिन कहाँ पर

और, और आगे बढ़ जाना

कितना खाना, खाना है

कितने कपड़ों की जरूरत होगी

हर दिन के हिसाब से

धो-पोंछ कर पहनने के बाद भी

आपात स्थिति यदि कोई आ जाए तो

निपटने के लिए

 

इतना मेरा देखा-देखा है

उनका देखा इससे भी ज्यादा है

 

यात्रा पर निकलने से पहले वे तो

कुछ भी नहीं सोचते

बस तैयार मिलता है सब कुछ वैसा-वैसा

मानो यात्रा में हों ही नहीं घर पर ही हों

उनका देखना तो मुझ जैसे के देखने से

बहुत-बहुत अलग है

पूछो तो कहेंगे ही नहीं यात्रा में हैं

बस बिजनेश के सिलसिले में

या कोई-कोई सरकारी यात्रा पर हैं,

मुंबई, चैन्ने, दिल्ली, कलकत्‍ता

कभी-कभी तो अरब भी

अमेरिका, ब्रिटेन में तो है ही घर

खुद का ही समझो, बच्चे हैं तो

आना-जाना लगा ही रहता है

यात्रा में तो होते ही नहीं वे

यात्रा में होने जैसा भी होता नहीं

कुछ उनके पास

न गठरी न ठठरी

 

गठरी और ठठरी से लदे फंदे

यात्रा करने वालों पर तो,

जिनकी उपस्थिति उछलता शोर होती है,

न जाने किन-किन की निगाहें हैं

गठरी में ढोते रेहड़ी, खोमचा, रिक्शा

या टैक्सी में बैठे हुए ड्राइवर की सीट पर

वे मान ही लेते हैं कि उनका नाम

बस ओये टैक्सी है

 

मेरा देखा-देखा तो बस इतना है

सलाम उनको जो इससे ज्यादा देखते हैं।

 



[1]छुमिग मारपो  - जगह का नाम, फिरचेन ला का बेस

[2]छुमिग नाकपो - जगह का नाम, सिंकुला का बेस

 

[3]चौरु, याक, सुषमो, गरु, गिरमो - जाँसकरी पालतू जानवर

    

एक तीर से दो निशाने

$
0
0

 

पिछले दिनों अनिल कुमार यादव और अखिलेश विवाद के बाद मैंने फेसबुक पर दोनों से ही असहमत होते हुए एक पोस्‍ट लगाई थी। मित्रों ने कमेंट किये। बहुत से मित्र संदर्भ को पकड़ नहीं पाये। कुछ ने संदर्भ पकड़ लिया था। मेरा अनुमान है कि संदर्भ न पकड़ पाने वाले मित्रों में निश्चित ही दो तरह के लोग हैं। एक वे,जो वाकई अनजान थे और दूसरे वे जो संदर्भ से वाकिफ होते हुए भी चाहते रहे होंगे कि मैं स्‍पष्‍ट तरह से कुछ कहूं। हालांकि उनके लिए भाई शशिभूषण बडूनी के कमेंट का जवाब देते हुए मैंने एक इशारा छोड़ दिया था। खैर, जो फिर भी नहीं समझ पाये तो मैं अब इस उधेड़बुन में नहीं पड़ना चाहता कि वे वाकई नादान थे, या वे मेरे पक्ष को स्‍पष्‍ट जानने के लिए कुछ कह रहे थे। वैसे एक दिलचस्‍प वाकया भी घटा था, मीना चुग नाम की कोई एक पाठक (जिसका नाम उससे पहले मैंने कभी नहीं जाना),  जो संदर्भों से पूरी तरह वाकिफ रही, कुछ मित्रवत संवाद में अनिल कुमार यादव का पक्ष लेते हुए जरूर आयीं। लेकिन अफसोस की संवाद समाप्ति पर उस श्रृंखला का अब कोई कमेंट मेरी पोस्‍ट पर नहीं दिख रहा। और खोजने पर मीना चुग नाम की उस प्रोफाइल को ढूंढना संभव नहीं हो रहा।संभवत: छद्म नाम की उस प्रोफाइल के पीछे कोई करीबी मित्र ही होना चाहिए। चूंकि पोस्‍ट के मूल में वह सिर्फ अनिल कुमार यादव का विरोध देख रही/रहे थी/थे, इसलिए उन्‍हें मेरे जवाबी कमेंट सिर्फ अनिल कुमार यादव के विरोध में ही दिख सकते थे। लिहाजा जरूरी हो गया कि मुझे खुलासा कर देना चाहिए कि मेरा पक्ष आखिर क्‍या है।

 

सर्वप्रथम तो यह स्‍पष्‍ट है कि लम्‍बे समय तक खामोशी का प्रकरण, जिसे लेखक अनिल कुमार यादव ने एक पत्रिका 'तदभव'के संपादक अखिलेश के विरुद्ध दर्ज किया, मैं उसे हिंदी की दुनिया (पत्र पत्रिकाओं सहित अन्‍य जगहों पर भी) के भीतर व्‍याप्‍त अलोकतांत्रिक और गैर पेशेवर मानता हूं और इस बिना पर पत्र पत्रिकाओं के संपादकों के व्‍यवाहर में उस चेहरों को देखता हूं जिसका अक्‍श अकसर ब्‍यूरोक्रेटिक व्‍यवाहर वाला रहता है। लेकिन अनिल कुमार यादव के स्‍वर में जो विरोध मुझे दिखता है, उसके चेहरे को इससे भिन्‍न भी नहीं पा रहा हूं। यानी, इसे दो ब्‍यूरोक्रेट के बीच के झगड़े से भिन्‍न नहीं मान रहा हूं। दिक्‍कत यह है कि दोनों ही अपने-अपने कारण से मुझे पसंद हैं और दोनों से ही असहमति है।

थोड़ा विस्‍तार में कहने से पहले स्‍पष्‍ट करता चलूं कि संपादकों के अलोकतांत्रिक, गैरपेशेवर और ब्‍यूरोक्रेटिक व्‍यवाहर के बावजूद अकार, पहल (अब बंद हो गई), तदभव, हंस, कथादेश, परिकथा, समयांतरआदि कुछ हिंदी पत्रिकाएं मेरी पहली पसंद है। सवाल यह नहीं कि एक लेखक के रूप में मैं इनमें से किसी में कभी प्रकाशित हुआ, या, नहीं। उसके पीछे सीधी वजह है कि ये ऐसी पत्रिकाएं हैं जिनसे मुझे देश, दुनिया को देखने की तमीज मिलती रही है और मिलती रहती है। साथ ही यह भी कहना चाहता हूं कि कंटेट की खूबियों के बावजूद हिंदी की अलोकतांत्रिक दुनिया का असर इन पत्रिकाओं में भी भरपूर है। जिनमें कंटेट ही न भाये, उनके बाबत तो क्‍या ही कहूं, उनकी अलोकतांत्रिकता तो उस कारण भी दिख जाती है।

संपादकों का गैरपेशेवर व्‍यवाहर और झूठी अकड़ इनमें प्रकाशित होने वाली सामाग्री के संग्रह करने के तरीकों और उनके चयन में बरती गई व्‍यवाहरिकता को इतना अपारदर्शी बनाये रहती है कि एक आम पाठक उस प्रक्रिया को कभी भी और कहीं से भी,नहीं जान सकता। अपने सीमित अनुभव से कहूं तो लेखक और संपादक के बीच एक हद तक व्‍यक्तिगत संबंध ही वहां प्रभावी रहता है। रचना के आमंत्रण की बहुत औपचारिक सी घोषणा के बावजूद प्रकाशन के लिए रचना के चयन में संपादक-लेखक संबंध ही महत्‍वूपर्ण हो उठता है। इन सब स्थितियों की मार हमेशा उस रचनाकार पर पड़ती है जो नया-नया लिखना शुरु कर रहा है,या जो व्‍यक्तिगत संबंधों को बनाने में उतना माहिर नहीं, या उस तरह के व्‍यवाहर से परहेज रखता हो। जबकि वातावरण के झूठ से तैयार किये जा चुके 'स्‍टार'लेखकों के लिए छपना-छपाना कभी कोई प्रश्‍न ही नहीं रहता। जिसका जो 'गुट'वह हमेशा वहां का प्रका‍शित लेखक। बल्कि इतनी सहज स्थिति कि बेशक अभी किसी रचना का विचार भर कौंधा हो, और अपने 'प्रिय'संपादक से लेखक ने जिक्र भर कर दिया हो,तो अगले अंक में रचना की घोषणा हो चुकी होती है। जबकि पहले से रचना भेजा हुआ कोई अनाम/संकोची रचनाकार संपादक की स्‍वीकृति के इंतजार में सालों गुजारते हुए रहता है। ऐसे में 'स्‍टार'लेखक क्‍यों नहीं फिर अतिमहत्‍वाकांक्षाओं के झूले पर झूलें। वह दम्‍भ जो एक संपादक के भीतर है, वे उसे ही क्‍यों न वहन करें।

अनिल कुमार यादव के विरोध से मेरा विरोध का कारण उनके इस अंदाज में ही है। क्‍योंकि वहां भी संपादकीय अलोकतांत्रिकता का सवाल निजी वजहों की उपज है। खुद अनिल बताते हैं कि संपादक ने उनसे प्रकाशन के लिए कुछ मांगा। अब वह किंही कारणों से,मांगे जाने के बाद भी ताजे-ताजे प्रकाशित हो चुके अंक में नहीं दिखा होगा तो उनके अहम को जो चोट लगी, उसे संपादक सहलाये भी नहीं तो यह तो नहीं चलेगा। और फिर जो हो सकता था हुआ। उस होने का भी अपना मजा तो यह है न कि अतिमहत्‍वाकांक्षाओं के झूले की पेंग बढ़ाना और भी आसान है! एक तीर से दो निशाने। 'अलोकतांत्रिक'संपादक की हेकड़ी भी निकल जाये और ऐसा प्रचार भी हो जाये कि प्रकाशित होने से पहले ही अपना लिखा 'चर्चा'में आ जाये। क्‍योंकि हिंदी में पुस्‍तक प्रकाशन भी तो उसी गैरपेशेवराना अंदाज का खेला है,जहां चयन की प्रक्रिया का मानदण्‍ड रचना से नहीं,अकसर किंही अन्‍य वजहों से ही रंगा हुआ है।  

बदलते दौर में बदलते रिश्तों और संवेदनाओं की कहानियाँ : "रिश्तों के शहर"

$
0
0

 




गीता दूबे


कहानीकोपरिभाषितकरतेहुएएकआलोचकनेलिखाथा, "Story is a slice of life"अर्थातकहानीजिंदगीकाएकटुकड़ाहै, पूरीजिंदगीनहीं।कहानीजिंदगीयासमयकेकिसी विशेष कालखंड, स्थितिविशेषयाघटनायाफिरअनुभवपरआधारितहोतीहै।हररचनाकारअपनेअलग-अलगजीवनानुभवोंपरबहुतबारएकजैसीकहानियाँलिखताहैअथवाएकहीतरहकेप्लॉटपरअलग-अलगशैली, शिल्पया सरोकारों कीकहानियाँ लिखता है।एकदौरमेंयहप्रयोगभीचलाथाकिसमकालीनकथाकारएकहीप्लॉटकाचयनकरके,उसपरकहानियाँलिखतेथेऔरकहानीअपनी बुनावट और बनावट में प्रायःएकदूसरेसेअलगहोतीथी।वस्तुतःकिसीभीघटनाकोदेखने, समझनेऔरव्याख्यायितकरनेकाहररचनाकारकाअलगनजरियाहोताहैऔरउसीनजरिएकेकारणकहानीअलगदिशामेंमुड़तीदिखाईदेतीहै।इसीकेसाथहीयहसवालस्वाभाविकरूपसेउठखड़ाहोताहैकिक्याएकहीकालखंडमेंरचनाकरनेवालेएकहीदेशकेभिन्न-भिन्नजाति, धर्मयालिंगकेरचनाकारोंकाजिंदगीकेटुकडोंकोदेखनेकाअलगनजरियानहींहोसकता।हालांकिआजकेदौरकेबहुतसेआलोचकोंकायहमाननाहैकिलेखन,लेखनहोताहै, उसे अलग -अलग खाँचों में बाँटनासहीनहींहैलेकिनअगरइसबातकोपूरी तरह से स्वीकार करलियागयातोसाहित्यकेबहुतसेविमर्शखुद ब खुदखारिजहोजाएँगे।जबएकस्त्री लिखतीहैतोजिसतरहउसकेअनुभवकिसीभीपुरूषरचनाकारसेजुदाहोतेहैंउसीतरहउसकवर्णनशैलीऔरभाषाभीअलगहोतीहै।शायदइसीलिएमजाजलिखतेहैं -
"तेरेमाथे पे ये आँचल, बहुत ही खूब है लेकिन, तू इस आँचल से एक परचम बना लेती तो अच्छा था।"
औरजबएकशायराअनादेहलवीलिखतीहैंतोकीतकलीफ़कुछस तरहबयांहोतीहै-
"फूलों ककाँटों पचलनापड़ताहै, इश्कमेंजीनाइश्कमेंमरनापड़ताहै।
औरत बनकर रहना कोई खेल नहीं, सूरज बनकर रोजनिकलनापड़ताहै।"
शायरँचकोपरचमबनानेकासंदेशजरूरदेताहैपरउसमुश्किलसफरसेऔरतकोहीगुजरनाहोताहैऔर इसकीचुनौतियोंकोवहीबखूबीसमझभीसकतीहैऔरदुनियाकेसामनेरखभीसकतीहैशायदयहीकारणहैकिकिसीभीलेखिकाकालेखनपुरूषलेखनसेथोड़ासाहीसही,जुदाजरूरहोताहै।संभवतःइसीलिएहरलेखिकाकेलिएयहबड़ीचुनौतीहोतीहैकिवहअपनेइसतथाकथितकच्चेपनसे (दुनियाकीनजरोंमें) याऔरतानालेखनसेजल्दसेजल्दकिसतरहमुक्तहोपाए।हालांकिस्त्रीलेखनकीअपनीविशेषताहैऔरवहजराभीकमतरनहींहै,भलेहीकतिपयप्रतिष्ठितआलोचकोंकेलिएवहरोजमर्राकारोना-धोनायासोना-होनासेकुछज्यादाहो।अबयहविशेषतातोस्त्रियोंमेंहोतीहीहैकिवहअपनेरोनेकोभीअपनीरचनात्मकतासेसाधकरसुर-तालमेंबाँधकरमार्मिकऔरकर्णप्रियगीतमेंबदलदेतीहैं, जिसे दुनिया सदियों तक याद रखती है।
ऐसीहीएककवि-कथाकारहैंनिर्मलातोदी,जिनकेताजाकहानीसंग्रह "रिश्तोंकेशहर"मेंस्त्रीजीवनकीकहानियोंकेसाथअलगआस्वादऔरअनुभवोंकीकहानियाँभीसंकलितहैं।एकस्त्रीरचनाकारजबरचनेऔरकहनेबैठतीहैतोअपनेनिजीजीवनकेदुख-सुख, सफलताओंयाअसफलताओंकीकहानियाँहीनहींकहती बल्किअपनेनिकटऔरदूरकेलोगोंकेजीवनकोभीसूक्ष्मदृष्टिसेदेखती-परखतीहुई उन्हेंअपनीकहानियोंमेंबड़ीसहजतासेढाललेतीहै।यहीएकरचनाकारकाकमालहोताहैकिवहअपनेद्वाराभोगेयाझेलेहुएयथार्थकोहीनहीं, दूरयापाससेदेखेहुएयथार्थकोभीइतनीशिद्दतसेबयाकरताहैकिउसकेद्वारालिखीगईकहानियाँउसकीअपनीजिंदगीकीसच्चीकहानियोंसीमहसूसहोनेलगतीहैनिर्मलातोदीकेपहलेकहानीसंग्रहकीसारीसहीलेकिनकुछकहानियोंकाकथ्यहीनहींशिल्पभीइतनासधाहुआहैकिउन्हेंपढ़तेहुएकहींभीयहअहसासनहींहोताकिनिर्मलाजीनेकहानीलेखनकेजगतमेंअभी अभी पग धरेहैं। संग्रहकीसबसेखूबसूरतऔरपरिपक्वकहानीकीबातकरूंतोअनायासहीशीर्षक कहानी "रिश्तों के शहर"पर दृष्टि केन्द्रित हो जाती है। बदलते दौर में कहानियों के रंग और मिजाज के साथ उनके कहन का ढंग और शैली किसतरह से बदल रही है, उसका खूबसूरत उदाहरण है, यह कहानी। इसमें मूल कथा भले ही एक है लेकिन उस कथा को कहानी के मुख्य तीन किरदार अपनी- अपनी तरह से कहते, बुनते या आगे बढ़ाते है। कहानी में इस तरह काप्रयोग एकदम नया नहीं है। हिंदी कथा साहित्य के क्षेत्र में इस तरह के प्रयोग पहले भी हुए हैं। सुधा अरोड़ा ने अपने कहानी संग्रह "बुत बोलते हैं"में एक ही प्लॉट को तीनअलग-अलग अंदाज में पेश किया है या फिर मृदुला गर्ग के उपन्यास"बिसात :तीन बहनें तीन आख्यान" में एक ही प्लॉट पर,तीन अलग-अलगरचनाकारों अर्थात मृदुला जी और उनकी दो बहनों मंजुल भगत और अचला बंसलने अपने- अपनेअंदाज मेंकथाबुनी है।राजेंद्र यादव कउपन्यास "एकइंच मुस्कान"भी तो उनके और मन्नू जी द्वारा संयुक्त रूप सेिखा गयाथा। "रिश्तोंके शहर"में मुंबई,कोलकाता,बेंगलुरु,इन तीनों शहरों को न केवल रिश्तो की डोर से आपस में जोड़ा गया है बल्कि यहाँरहने वाले अलग-अलग किरदारों की जिंदगी और उनके बीच में उलझे हुए रिश्तो की डोर को सुलझानेकी कोशिश भी हुई हैपरिवारसंयुक्तहो या एकल,हर कहीं रिश्ते आपस में उलझते जरूर हैंलेकिनइस कहानी में एकउम्मीदकी लौदिखाई देती हैजिससे उन केसुझाव की कोई ना कोई राह निकल ही आतीहै। इसेसिर्फ इसलिए आधुनिककहानी नहीं कहजा सकतक्योंकि इसमें एक आधुनिक परिवार की विडंबना,उसका बिखराव, उसकटूटन के चित्रण के साथ उसपर पसरी हुईकड़वाहटऔर बिछी हुईनिराशा की गहरी चादर का चित्रण गहराई से हुआहै,बल्कि इस मायने में आधुनिक कहजाना चाहिए कि यह नयी पीढी के प्रति हमारी पारंपरिक सोच को पूरी तरह से बदल कर रख देती है। जिनबच्चों या युवाओंकोहमबिल्कुल नासमझ समझते हैं और सोचते हैं किनयीपीढ़ी बिल्कुल बिगड़ी हुई है तथाउसे रिश्तो की कोई परवाह नहीं है, उसका एक सकारात्मक चेहरा इस कहानी में नजर आता है। नासमझबच्चे अपने परिवेश के दबाव में,रिश्तोंकी उलझन में उलझ कर बेहद समझदार और परिपक्वहोजाते हैंकभी-कभार माता-पिता को भी पता नहीं चलता कहानी की दोमा जायीधीबहनें जिन्हेंअंग्रेजी में half-sistersकहा जाता है,अनीशा और मिस्टी,न केवल अपने माँ कीउलझनेंसुलझादेतीहैं बल्कि दूर-दूर तक बिखरे हुए अपने परिवार को और नई पीढ़ीके अपने भाई- बहनोंको पुनः एक साथ जोड़कर एक नया परिवार बनालेतीहैं,ाँपुरानी कोई कड़वाहट बाकी नहीं बचतीरिश्तो मेंकोई उलझाव या अवसादनहीं बचतबल्कि रिश्ते बेहद मधुर हो जातहैंमाँ ने पारिवारिकसमस्योंमें उलझ कर,जीवन सेहताश हो उदासी की चादरओढ़ने के बावजूदचेहरे पर एक नकली खुशी का मुखौटा लगा रखा था, जिसे उसकी संवेदनशील बेटियाँ अपनीसमझदारी से नोच कर फेंक देतहैं औरनकलीमुस्कुराहट को असली में बदल देती हैं।वस्तुत: संबंधों को लेकर जो उलझनें पिछली पीढ़ी के मन में होती थीं या टूटे हुए रिश्तों से उपजी जिस कड़वाहट को पुरानी पीढ़ी वर्षों तक ढोती रहती थी, नयी पीढ़ी उसे मिठास में भले ही न बदल सके लेकिन कोशिश जरूर करती है कि बीच का कोई रास्ता जरूर निकल आए और रास्ता निकल भी आता है। इन उलझनों को सुलझाने में एक बड़ी भूमिका सोशल मीडिया ने भी निभाई है जो दूरियों को इस तरह चुटकियों में पाट देती है कि दूरी का अहसास मिट जाता है, दूरी भले न मिटे। यह कहानी नयी पीढ़ी के भटकाव या बिखराव का रोना नहीं रोती, उनकी समझदारी और संवेदनशीलता को चिह्नित करती है।

और जब यह नई पीढ़ी बदलती है तो उस बदलाव का सकारात्मक असर पुरानी पीढ़ी पर भी होता है। शायद इसी कारण आयशा की माँ उसके भविष्य को एडजस्टमेंट या समझौते से उत्पन्न निराशाजन्य  अँधेरे में डूबने नहीं देती बल्कि उसके सामने उम्मीद का एक ऐसा सूरज उगाने का निर्णय लेती है जो उसकी सारी निराशा और हताशा को लीलकर उसे एक नयी जिंदगी जीने का हौसला दे। (अंधेरे को निगलता हुआ सूरज) हालांकि इस तरह की घटनाएँ अपवादस्वरूप ही घटती हैं, अन्यथा अब भी तथाकथित आधुनिक माएँ भी अपनी पढ़ी- लिखी स्वावलंबी बेटियों को पति के साथ एडजस्ट करने की सलाह देती ही नजर आती हैं, बाद में भले ही बेटी अवसाद ग्रस्त हो जाए या आत्महत्या ही क्यों ना कर ले और तब कुछ भी करने को बाकी न रहे। लेकिन इस कहानी का एक सकारात्मक पक्ष यह है कि आयशा के लिए मायके का दरवाजा बंद नहीं होता, वही दरवाजा जिसे खुला रखने की सलाह सुधा अरोड़ा अपनी कविता में देती हैं -
"बेटियों को जब सारी दिशाएं
बंद नजर आएं
कम से कम एक दरवाजा
हमेशा खुला रहे उनके लिए।"
रिश्तों की और भी कई खूबसूरत कहानियाँ इस संग्रह में शामिल हैं जिनका कथ्य और कहन कहन की शैली वैविध्यपूर्ण है। वस्तुतः आलोच्य संग्रह की तमाम कहानियाँ, मानवीय रिश्तों, संपर्कों और संवेदनाओं की कहानियाँ हैं। कहीं ये रिश्ते आपस में इतने उलझ जाते हैं कि उनके सुलझने की कोई गुंजाइश नहीं दिखाई देती और उसमें छटपटाती  हुई आत्मा उससे मुक्ति का रास्ता तलाशने लगती है।"आई एम मी"कहानी की शैलजा भी अपने वैवाहिक जीवन की एकरसता से मुक्त होकर अपने अस्तित्व या "मैं"की तलाश में निकल पड़ती है। एकदम किसी आधुनिक फंतासी कथा की नायिका की तरह, एक दिन अचानक वह अपने दोस्तों की भीड़ से गायब हो जाती है। बहुत दिनों के बाद किसी एक दिन, अप्रत्याशित रूप से जब वह अपनी प्रिय सखी से मिलती है, तब अपने आपकी उसकी तलाश पूरी हो चुकी थी। उसने अपने जिंदगी में घुट- घुट कर मरने और निःशेष हो जाने की जगह खुल कर जीने का विकल्प चुना और अपने शर्तों पर अपनी खुशी हासिल करने में सफल हुई। जरूरी नहीं कि वह सफल होती ही, कुछ साल पहले की कहानियों में शायद उसकी नियति विमल मित्र के उपन्यास "साहब बीबी गुलाम"की छोटी बहू की तरह होती जो घर की अन्य बहुओं की तरह गहने तुड़वाने और बनवाने में ही खुशी नहीं ढूंढ सकती थी या फिर संपन्न घर में एक सामान की तरह नहीं रह सकती थी और इसीलिए अपने पति की सच्ची संगिनी बनने की चाह में अपने विलासी जमींदार पति के हाथों ही मृत्यु को प्राप्त होती है। लेकिन शैलजा अपना रास्ता चुनती भी है, उसपर चलती भी है और अपनी मंजिल भी हासिल करती है। यही वह परिवर्तन का बिंदु है जिसे लेखिका रेखांकित करती हैं। यह कहानी मात्र स्त्री विमर्श की कहानी नहीं  है बल्कि मानव मुक्ति की कहानी भी है जिसमें अपने बंद परिवेश में छटपटाता हुआ आदमी अपनी सुख संपन्न जीवन की बंधी बंधाई लीक को छोड़कर, बंधनों को तोड़कर, निकल पड़ता है, अपने लिए एक नया रास्ता ढूँढने, एक नयी मंजिल की तलाश में।
बचपन में जो रिश्ते मन पर अपनी अमिट छाप छोड़ जाते हैं, आजीवन हमारे सोचने- समझने के ढंग को प्रभावित करते हैं, इसका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण "ग्राफोलॉजी"में गहराई से हुआ है। किसी भी व्यक्ति का बचपन बहुत महत्वपूर्ण होता है। उसके अंदर संस्कारों की नींव बचपन में ही पड़ जाती है। मानव मन की बहुत सी गांठें ऐसी होती हैं जो उसका बचपन उसके मन में टांक देता है और वह ताउम्र उन गांठों या उलझनों को लिए -लिए फिरता है। मानसी के साथ भी ऐसा ही होता है। बचपन में घटी घटनाएँ, मां को मिली उपेक्षा और उसके पीछे निहित कारण अर्थात "वह"की छाप उसके जीवन को निर्णायक मोड़ देती है। वह जब कुछ लिखती है तो कहीं हाशिए की जगह या खाली स्थान नहीं छोड़ती क्योंकि बचपन का दुस्वप्न हमेशा पीछा करता है कि कहीं उस खाली जगह को कोई कब्जा ना ले। ग्राफोलॉजिस्ट से मिलने और उन अवांक्षित गांठों के खुलने के बाद वह अपनी आदत को बलपूर्वक बदलती है।  "नीले फूलोंवाली गुलाबी साड़ी"भी ऐसी ही कहानी है जिसमें तीन बहनों में से मंझली बहन अपने बचपन की अवांछित स्मृतियों और दुस्वप्नों को याद करती हुई घर के अन्य अवांछित सामानों की तरह, उन्हें अपने स्मृति मंजूषा से निकाल बाहर फेंकने का निर्णय लेती है। जिस तरह फालतू सामान घर में सकारात्मक उर्जा की आवक को बाधित करते हैं, ठीक उसी तरह नकारात्मक विचार भी मनुष्य के मानस को रुग्ण बना देते हैं और उनसे मुक्ति ही जीवन को सही दिशा दे सकती है। बहुधा देखा जाता है कि बेटियाँ अपने पिता से बहुत ज्यादा जुड़ी होती हैं या उनके प्रति अधिकार बोध से भरी होती हैं, इतनी ज्यादा कि अपनी माँ के अतिरिक्त किसी दूसरी स्त्री से उनकी जरा भी निकटता बर्दाश्त नहीं कर पातीं। यह कहानी ऐसी ही एक लड़की के मानसिक उधेड़बुन की कहानी है जो अपने किशोर मन की सारी आशांकाएँ अपनी विवाहित बड़ी बहन से साझा करना चाहती है, उससे ढेर सारे सवाल पूछने के लिए चिट्ठियाँ लिखती हैं लेकिन वे चिट्ठियाँ कभी भेजी ही नहीं जातीं। उसके मानस को नीले फूलोंवाली गुलाबी साड़ी के आँचल की संदेहपूर्ण सरसराहट व्यथित करती रहती है लेकिन उम्र के एक परिपक्व पड़ाव पर आकर वह इन आशंकाओं से मुक्त होकर सहज जीवन में रम जाती है। यह कहानी किशोर वय की लड़की की मानिसक उथल- पुथल और उसकी बेचैनी को बड़ी ही गंभीरतापूर्वक बयान करती है।
प्रायः यह मान लिया जाता है कि स्त्री रचनाकार सिर्फ स्त्री की ही बात कर सकती है लेकिन समकालीन साहित्य की बहुत सी सशक्त लेखिकाओं ने इस लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन कर नये क्षितिजों की तलाश की है। निर्मला तोदी भी स्त्री मन की बात तो बखूबी करती हैं लेकिन तकरीबन उसी दक्षता के साथ अन्य विषयों पर भी कलम चलाती हैं और अपने आस- पास के परिवेश के अन्य किरदारों की कथा भी सहजता से बयां करती हैं। "हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता एक स्त्री के उस दर्द को तो गहराई से उकेरती है जहाँ वह तथाकथित सामाजिक नैतिकता की रक्षा हेतु अपने ही हाथों अपनी संतान का गला घोंटने को बाध्य की जाती थी। कुंती ने तो अपनी संतान को जन्म देने के बाद कलेजे पर पत्थर रखकर त्याग दिया था लेकिन आधुनिक माएँ आधुनिकीकरण की बदौलत अपनी ही संतानों को कोख से निष्कासित कर देती हैं और इसे बेहद सहज स्वाभाविक और दस मिनट में निपटा दिया जानेवाला काम माना जाता है। यह एक स्त्री की पीड़ा ही नहीं है पूरे समाज का दुख या विडंबना है जिसमें "एक माँ दूसरी माँ को माँ बनने से रोक"देती है क्योंकि वह अविवाहित मातृत्व की पीड़ा और दुष्परिणामों से परिचित ही नहीं है, उसके भय से व्यथित भी है। ऐसी तमाम अजन्मी संतानें अपनी -अपनी व्यथा कथा इस कहानी में साझा करती हैं। यह कहानी सिर्फ स्त्री की पीड़ा को ही नहीं उकेरती, समाज की थोथी मान्याताओं और कुंद होती नैतिकता पर भी जोरदार प्रहार करती है। मानव जीवन के कुछ ऐसे वर्जित प्रदेशों पर भी लेखिका अपनी कलम चलाती हैं, जिनपर लोग चर्चा करने से बचते हैं। हालांकि समलैंगिकता को अब कानूनी स्वीकृति मिल चुकी है लेकिन सामाजिक स्वीकृति अब भी दूर दूर ही है। लोग अभी भी न केवल इस पर खुलकर बात करने से कतराते हैं बल्कि इसे अपराध भी मानते हैं और इसी वजह से ऐसे कई स्त्री पुरुषों को स्वाभाविक या प्राकृतिक जिंदगी देने के नाम पर, बेमेल बंधन में बाँध दिया जाता है, जहाँ वह ताउम्र छटपटाते रहते हैं या फिर सामाजिक लोकलाज के भय से रिश्तों को निभाते हैं। "पहली और आखिरी चिट्ठी" की माँ ऐसे ही एक अनमेल बंधन में बंधकर जीती तो है लेकिन फिर उससे निकल आने का साहस भी करती है और चिट्ठी लिखकर अपने बेटे के समक्ष आत्मस्वीकार भी करती है "मुझे शादी नहीं करनी चाहिए थी, मेरे बच्चे (पृ 117)
निर्मला तोदी की कहानियों में परिवर्तनशील समय की बहुत सी घटनाएँ कहानियों की शक्ल में ढलकर इस तरह दर्ज हुई हैं कि ये तमाम कहानियाँ स्त्री मन और जीवन में क्रमशः आनेवाले महत्वपूर्ण बदलावों को ही शिनाख्त नहीं करतीं बल्कि समाज में उसके प्रति बदलती सोच को भी दर्शाती हैं। मूलतः ये कहानियां एक स्त्री की कहानियाँ हैं, उसी स्त्री की कहानियाँ जो अपने सुख दुख के बारे में बाद में सोचती, कहती या लिखती है, पहले अपने परिवार की समस्याओं, तकलीफों और संघर्षों के बारे में सोचती और लिखने की कोशिश करती है। यह बात और है कि बहुत बार उसकी पहुँच परिवार और समाज के बहुत से पात्रों या लोगों के अहसासात तक नहीं हो पाती। यह उसकी विशिष्टता भी है और सीमा भी। उदाहरण के लिए "रिश्तों के शहर"की कथा कहानी की तीन स्त्री पात्रों की मुँहजबानी बड़ी रवानी से आगे बढ़ती है लेकिन पुरूष पात्रों विशेषकर एक पात्र का पक्ष अवर्णित ही रह गया है। यह लेखिका का अपना चयन हो सकता। यह बात और है कि एक और कहानी में वह इस सीमा का अतिक्रमण करती हुई दिखाई देती हैं जहाँ वह पुरूष मन की कथा भी उसी सहजता से बयां करती हैं। मै"...इन थोड़े से शब्दों में" एक ऐसे व्यवसायी की कहानी है जो जीवन के साठवें पड़ाव पर बच्चों के अनुरोध पर अपनी आत्मकथा लिखने की कोशिश में अपने अतीत के एलबम के पन्ने पलटता है। वस्तुतः यह एक ऐसे सफल व्यवसायी का बयान या आत्मस्वीकार है जिसने अपने जीवन में संघर्ष के साथ एक मुकाम तो हासिल किया लेकिन बहुत कुछ पीछे छोड़ आया। वह अपने संघर्षों और उपलब्धियों के साथ विचलनों के बारे में भी खुलकर लिखता है। यहाँ निर्मला तोदी बेहद कुशलता से कहानी के मुख्य चरित्र में परकाया प्रवेश कर, उसकी कथा को बेबाकी से बयान करती हैं।
निर्मला जी की कहानियों की एक खूबी यह भी है कि वह बेहद सहज भाषा में सरलता के साथ अपने पाठकों से संवाद करती हैं। भाषा के साथ शिल्प को सायास दुरूह बनाने की कला को बहुत से आधुनिक कथाकार जिस कौशल से साधते हैं, उसका निर्मला जी में अभाव है और यही उनकी विशेषता या पहचान है। पाठक उनकी कहानियों में अनायास ही रम जाता है और उन्हें पढ़ते हुए उसे यह अहसास होता है कि वह अपने टोले- मोहल्ले के जाने -पहचाने किरदारों की कथा पढ़ रहा है।

रिश्तों के शहर, कहानी संग्रह, निर्मला तोदी, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण 2020, मूल्य- 299

नई संभावना लिए अंत की कहानियां

$
0
0

 विजय गौड़

कथाकार मोहन थपलियाल की कहानियों को पढ़ते हुए मुझे देहरादून में आयोजित हुए संगमन कार्यक्रम की याद अनायास ही आ गई। कार्यक्रम के दौरान उठे बहुत से प्रसंगों की याद। संगमन का वह कार्याक्रम इस सदी के शुरूआती दिनों में हुआ था। ध्‍यान रहे कि उसी दौरान ‘पहल’ का मार्क्‍सवादी आलोचना विशेषांक भी प्रकाशित हुआ था। दलित राजनीति के तीव्र उभार ने भी उस दौरान जनवादी राजनैतिक धारा के भीतर भी उथल-पुथल मचायी हुई थी। भारतीय राजनीति में अस्थिर सरकारों के उस दौर में धार्मिक आधार पर समाज को बांटने वाली राजनीति भी अपने नम्‍बर बढ़ाने में सफल होती जा रही थी। दूसरी ओर हिंदी में दलित विमर्श एंव स्‍त्री विमर्श का वह किशोर होता दौर था। कार्यक्रम के दौरान कविता पोस्‍टर की प्रदर्शनी भी लगी थी। एक पोस्‍टर में कवि धूमिल की कविता का वह मुहावरा- 80 के दशक में जिसे खूब सराहना मिली थी, लिखा हुआ था- ‘’जिसकी पूंछ उठाकर देखी, वही मादा निकला’’। धूमिल की कविता पंक्तियों की तीखी आलोचना वहां कई साथियों ने एक स्‍वर में की थी। आयोजकों को इस बात के लिए घेरा था और सवाल उठाए थे कि स्‍त्री विरोधी ऐसी कविता को पोस्‍टर पर देने का क्‍या अैचित्‍य ? वे धूमिल के दौर की उस आधुनिकता को प्रश्‍नांकित कर रहे थे जिसका वास्‍ता उस गंवईपन से था जो भाषा के स्‍तर पर भी व्‍याप्‍त रहती ही है। इसी तरह का एक अन्‍य वाकया 'वर्तमान साहित्‍य'एवं 'समकालीन जनमत'में चली बहस का जिसमें प्रेमचंद की कहानी 'कफन'को लेकर दलित रचनाकारों ने बहस छेड़ी कि कहानी दलित विरोधी है। क्‍योंकि कहानी के पात्र घीसू और माधव को दलित वर्ग का दर्शाया गया है। यह बहस विवाद के रूप तक भी पहुंची। इन दोनों संदर्भों के आधार पर ही यह कह सकने का साहस बटोरा जा पा रहा है कि जब हिंदी में दलित साहित्‍य की आवाज सुनाई देने लगती है, सामाजिक मुक्ति के स्‍वर में स्‍त्री विमर्श शामिल होना शुरू होता है, उसी वक्‍त धूमिल की कविता पंक्ति प्रशनांकित होती है। दरअसल अमानवीयता की हद तक पहुंचा देने वाले कारणों ने ही मुक्ति की राह को दलित एवं स्‍त्री चेतना संपन्‍न होने की सीख दी है। धूमिल हो चाहे प्रेमचंद, उन्‍होंने दलित शोषित के पक्ष को अपना पक्ष माना है लेकिन जो चूक फिर भी चिह्नित हुई हैं, उन्‍हें अनसुना नहीं किया जा सकता।

अपने पक्ष को रखने में यह कहना उचित लग रहा है कि सामाजिक यथार्थ को चित्रित करने में रचनाओं की भूमिका क्‍या हो ? दरअसल इस प्रश्‍न का जवाब तलाशना इसलिए जरूरी लग रहा है, क्‍योंकि उपरोक्‍त दोनों घटनाएं  सदाचार/व्‍यवहार(ethic)एवं नैतिकता (morality)के बीच स्‍पष्‍ट विभेद की मांग करते हुए हैं। समझने के लिए इस पहलू को देखना जरूरी है कि निरीह, दारूण और सताए हुए लोगों के किस रूप को और किस तरह से रचना में जगह मिली है। दुनिया भर के लोगों के जीवन को दारूण स्थितियों में पहुंचा देने वाले कारकों को किस तरह से चिह्नित किया गया है। कहीं ऐसा तो नहीं कि जीवन संघर्ष में उलझे लोगों को ही, उनके द्वारा ही अमानवीयता का वरण कर लेने वाली मजबूरी को, जो बेशक सहज जैसा व्‍यवहार भी हो गई हो, निशाने पर लिया जा रहा है ? प्रेमचंद की कहानी ‘कफन’ पर एतराज उठाती दलित आवाज को इस रूप में ही सुना जाना चाहिए। कहानी में घीसू-माधव के चित्रण में जाति विशेष का जिक्र हो जाना एक चूक मानी जानी चाहिए। इस बिना पर कि लगातार के गलीच जीवन में रहने वाला कोई भी व्‍यक्ति संवेदन शून्‍यता का वैसा शिकार हो सकता है, जिसने घीसू-माधव को एक ऐसे व्‍यवहार में लपेटा जो निश्चित ही क्रूर  है। यह भी ध्‍यान रखने की जरूरत है कि प्रेमचंद की कहानी ‘कफन’ का यह पाठ भी वही दलित चेतना उठा पा रही थी, जिसे अपनी बात कहने का कुछ मौका उस वक्‍त तक मिलने लगा था। मोहन थपलियाल की कहानियों पर बात करने से पूर्व इन दोनों प्रसंगों और उनसे उठते सवाल को रखने का औचित्‍य सिर्फ इतना ही है कि मोहन थपलियाल की कुछ कहानियों में आधुनिकता का गंवईपन यदि झलक जाता है तो वह भी प्रश्‍नांकित होना जरूरी है। साथ ही हिंदी आलोचना के उस पहलू को भी तलाशा जा सके कि जिसके चलते किस तरह की कहानियों को गंवई आधुनिक आलोचना ने महत्‍वपूर्ण माना और उनका ही जिक्र किया। क्‍यों ऐसी कहानियां, जो उनसे इतर बात तरह से यथार्थ को रखने में सक्षम रही, आलोचना के दायरे बाहर रह गईं। यह कहना कतई असंगत नहीं कि सिर्फ मोहन थपलियाल ही नहीं अन्‍य रचनाकारों की भी बहुत-सी वैसी और महत्‍वपूर्ण रचनाएं आलोचना के दायरे से बाहर रहीं हैं।   

हिंदी कहानी आलोचना के यदा-कदा जिक्र में मोहन थपलियाल की जिन कहानियों को प्रमुखता से याद किया गया है, उनमें - ‘छज्‍जूराम दिनमणि’, ‘पमपम बैंड मास्‍टर की बारात’, 'शवासन'एवं 'सालोमान ग्रुंडे'आदि हैं। परिस्थितियों की विकटता और ऊब से मुक्ति की इच्‍छाओं में रची गई कहानी ‘’पमपम बैण्‍ड मास्‍टर की बारात’’ में जो भूगोल पुन:सृजित होता हुआ है, साफ हो जाता है कि रचनाकार उसकी स्‍मृतियों में राहत महसूस कर रहा है। लेकिन दूसरे ही क्षण वह उबाऊ और थकाऊ परिस्थितियां हैं जो अनायास ही लौट लौट आती हैं, ‘’बहरहाल क्‍योंकि पमपम बैंड मास्‍टर अपनी बारात में शामिल नहीं है, लौटते हुए तमाली की इस बारात में डमाऊ की डंग-डंग के साथ तमाली के पांवों में बंधे खांदी के झिंवरों की छपाक शामिल हो गई है। बाकी सब कुछ वैसा ही सन्‍नाटा-भरा और एकरस है, ठक-ठक बजती लाठी, छतरी और चढ़ाई पर गले से निकल रही खुम-खुम खांसी की आवाज के साथ- नौ आदमियों की छोटी-सी कतार।‘’ पहाड़ी प्रदेशों को ‘देवभूमि’ में बदलने वालों ने पहाड़ी जनमानस के संघर्ष को अनदेखा किया है और करने की ठानी हुई है। संस्‍कृति का झूठ और संसाधनों की लूट मचाने वाले लगातार ऐसे षड़यंत्र जारी रखे हैं कि आम जन के लिए यह अनुमान लगाना मुश्किल ही हो जाता है कि पुरातनपंथी मान्‍यताओं का महिमा मण्‍डन करने वालों को अपना दोस्‍त माने या दुश्‍मन। क्‍योंकि एक ओर उनकी सीख है, दूसरी ओर उनका अपना जीवन व्‍यवहार है। कथाकार मोहन थपलियाल की कहानियों का विश्‍लेषण इस दृष्टि से भी जरूरी है कि उसमें उत्‍तराखण्‍ड का भूगोल और समाज स्‍वत: प्रविष्‍ट होता हुआ है। जीवन में रचे बसे सीमित भूगोल के बावजूद कथाकार मोहन थपलियाल का अनुभव विशाल भूगौलिक क्षेत्र के उस समाज से है जहां आपाधापी, मारकाट, शोषण, प्रताड़ना की स्थितियां कुछ भिन्‍न है और उस भिन्‍नता ने ही पहाड़ी जन मानस की सी सरलता, ईमानदारी भरे व्‍यवहार वाले मनुष्‍य से भिन्‍न थोड़े चालाक आदमी को गढ़ा है। शुरू की कहानियों में जो कच्‍चापन-सा दिखता है, उसका एक कारण यह भी हो सकता है कि रचनात्‍मक सौन्‍दर्य की बजाय जीवन अनुभवों का संसार कथाकार के भीतर ज्‍यादा सघन बैचेनी पैदा करता हुआ रहा हो और जिसको खुद से परखने एवं व्‍याख्‍यायित करने के लिए प्रभावी राजनैतिक औजार उतने पैने नहीं हो पाए हों। लेकिन संबंधों की कसावट की समूचित पड़ताल में एक रचनाकार अपनी यात्रा शुरू कर चुका हो। यदि कोई ठीक-ठाक राह बनी हुई होती तो आधुनिकता के लक्ष्‍य को पहचान लेना आसान होता। लेकिन वैसा न होने की स्थिति में भटकाव की पगडंडियों पर पांवों का पड़ जाना लाजिमी है। फिर भी उन पगडंडियों के महत्‍व को कम करके नहीं आंका जा सकता जिन पर बढ़ते हुए ही एक रचनाकार दिशा ज्ञान को हांसिल करता गया। मोहन थपलियाल की बाद के दौर की कहानियां आधुनिकता के लक्ष्‍यों तक पहुंचने में मदद करने से तो चूक जाती हैं लेकिन हिंदी कहानियों की भटकी हुई राह- ‘भ्रष्‍ट आधुनिकता’ से छिटक कर अपना रास्‍ता खोज लेने की प्रेरणा तो देती रहती हैं।

परिभाषाओं के दायरे में फिट न हो पाना आधुनिकता की पहली शर्त है। समय के प्रवाह की तरह गतिमान तार्किक प्रणाली का निर्बाध प्रवाह- यहां तर्क का अभिप्राय ज्ञात ज्ञान-विज्ञान के साक्ष्‍य हैं। यानी आज जो तर्क-सत्‍य है जरूरी नहीं कि कल भी वह सत्‍य ही बना रहे। प्रकृति के नये स्रोतों और अव्‍याख्‍यायित घटनाओं के कारणों को जान चुका मनुष्‍य नये साक्ष्‍यों के साथ जैसे ही सामने हो तो अप्रसांगिक हो जा रहे पुरातन को छोड़कर नये एवं प्रासंगिक सत्‍य को स्‍वीकारना ही आधुनिकता है। यूं गंवई आधुनिकता को इसके उलट तो नहीं कहा जा सकता। बल्कि कई बार तो वह भी इतनी समानांतर दिखती है कि बहुत दूर जा कर पुरातन से मिलने वाले उसके कौनों को किसी एक जगह की स्थिरता पर पहचानना ही मुश्किल होता है। मोहन थपलियाल की कहानियों की यह समानंतरता ही चौंकाती है। उनकी कहानियां पूरी तरह से गंवई आधुनिकता का वरण तो नहीं करती हैं लेकिन अपने अंदाज में उससे मुक्‍त भी नहीं दिखती हैं। यद्यपि यह बात भी उतनी ही सही है कि गंवई आधुनिकता की मुख्‍य प्रवृत्ति, संवेदना के जागरण, से मुक्‍त होने की राह की ओर बढ़ती हैं। यानी, गंवई आधुनिकता और निश्छ्ल आधुनिकता के संक्रमण की राह बनाती हैं। इतना ही नहीं चालाकी से जगह बनाती जा रही भ्रष्‍ट आधुनिकता से दूरी भी बनाती चलती है। 'शवासन'की चर्चा यहां समीचीन होगी। यह एक ऐसी कहानी है जिसमें कोई घटनाक्रम केन्‍द्रीय नहीं है। केन्‍द्र में समय है और उस समय में घटती अनेक घटनाएं हैं। कथापात्र ऋषिकेश के एक घाट पर चल रहे घटनाक्रम के मार्फत स्थितियों को बयां करता जाता है। इस पाये की एक अन्‍य खूबसूरत कहानी है- 'सिद्धहस्‍त'। कथाकार का उददेश्‍य साफ है- उभार लेता वह बाजार जिसने खेती किसानी को चौपट करना शुरू किया है और उसके साथ कदमताल मिलाता एक ऐसा मध्‍यवर्ग जिसने गैर जरूरी चीजों ग्राहक होकर गैर जिम्‍मेदार बाजार को स्‍थापित होने में मदद की है। भैंस पाल कर जैसे तैसे अपना जीवन यापन करने वाला मेहनतकश और विदेशी प्रजाती के कुत्‍ते का व्‍यवसाय करके आराम की जिन्‍दगी जीने वाले व्‍यक्ति के मार्फत कहानी बुनने की यह अनूठी कोशिश ही कहानी को महत्‍वपूर्ण बना दे रही है।

गंवईपन से मुक्‍त हुए बगैर आधुनिकता का वरण करने वाली प्रवृत्ति को पहचानना हो तो ‘’लौटते हुए’’ और ‘’छज्‍जूराम दीनमणि’’ जैसी कहानियों के पाठों से फिर फिर भी गुजरा जा सकता है। फतेसिंह के पोस्‍टर भरे यथार्थ पर काल्‍पनिक रूप से उभर आने वाला आजादी के संघर्ष के नायक सुभाष चंद बोस का चे‍हरा और नारा जयहिंद, कथाकार के भीतर बैठी कोरी भावुकता के प्रति अतिशय मोह का कारण बनता है। अतिशय भावुकता से मुक्ति की राह बनाता यथार्थ यहां अनुपस्थित है और फतेसिंह के पोस्‍टर पर उभरती इबारत के साथ ही काल्‍पनिक यथार्थ जन्‍म लेता हुआ है। कल्‍पना के विन्‍यास में वहां एक अपने तरह की लाचारी भी उभार लेती है, ‘’इससे ज्‍यादा मैं कर ही क्‍या सकता हूं।‘’ निरीहता का बयान करती यह कहानी गंवई आधुनिक कहानी है।

उपरोक्‍त जिक्र की गई आलोचना की प्रिय कहानियों के आधार पर ही बात की जाए तो कहा जा सकता है कि कथाकार मोहन थपलियाल की इन कहानियों के कथानक भी हिंदी की गंवई आधुनिक कहानियों की संगत सरीखे हैं। यहां यह मानने में कोई संकोच नहीं कि समय समय पर शुरू हुए विमर्शों का पाठ होती बहुत से दूसरे रचनाकारों की कहानियां भी इस दायरे में ही रही हैं। लेकिन मोहन थपलियाल के सम्‍पूर्ण रचनात्‍मक लेखन से गुजरें तो पाएंगे कि वे मूल रूप से उस मिजाज के रचनाकार नहीं हैं जिनके कारण आज वे जाने जाते हैं। उपरोक्‍त कहानियों  के प्रकाशन वर्ष स्‍पष्‍ट है कि ये कहानियां उनके अंतिम दौर की कहानियां है। ऐसी कहानियों में संवेदना के जागरण करता कहानियों का अंत रचनाकार के गंवई आधुनिक मिजाज की तरफदारी करता है। एक ही रचनाकार की लेखानी से उतरी इन दो भिन्‍न तरह की कहानियों के संदर्भ से यह सवाल उठना लाजिमी है कि एक संतुलित कहानी को कैसा होना चाहिए ? यहां संतुलित कहानी से आशय है, ऐसी कहानी जो जमाने की रंगत को तार्किकता के आधार पर पकड़े- ऐसा हो सकता है कि अभी तक अज्ञात रह गए प्रकृति के रहस्‍यों की स्थितियां आने पर कथाकार बेशक किसी अकल्‍पनीय घटना का सृजन करने लगे, फैंटेसी का वरण कर ले, लेकिन तब भी तर्क की स्‍वाभाविकता पर कायम रहे। इस सवाल का जवाब तलाशने के लिए पहले कथाकार मोहन थलियाल की उन शुरूआती कहानियों से गुजर लेना जरूरी लग रहा है जो आलोचना और उसके कारण ही लोकप्रियता के दायरे बाहर छूट-सी गई हैं।

उन छूटी हुई कहानियां का एक प्रबल पक्ष है कि तर्क की स्‍वभाविकता यहां अनवरत बनी रहती है। कविता के से अंदाज में बहुआयामी भाषा के सहारे बढ़ती मोहन थपलियाल की ऐसी कहानियों के घटनाक्रमों से यह अनुमान लगाना मुश्किल रहता है कि वे किस मोड़ से किधर मुड़ जाएंगी। यूं तो उनकी ज्‍यादतर कहानियों के अंत एक तरह से मुक्‍कमिल जैसे नहीं ही है। वे जहां समाप्‍त हो रही होती हैं, उन्‍हें वहीं पर समाप्‍त मान लिया जाना मुश्किल बना रहता है। उनकी खूबी है कि वे वहीं से एक नयी कथा के उदय होने की संभावना लिए अंत की कहानियां हैं। उनके पाठ यह अनुमान लगा सकने के अवसर देते है कि क्षण विशेष में रचनाकार के भीतर कौंधि कोई स्थिति ही रचना के उदभव का कारण रही होगी और उस स्थिति को कहने के लिए कथाकार को कथा गढ़नी पड़ी है। इस तरह से देखें तो उनकी कहानियां एक रचनाकार के विस्‍तृत अनुभवों के दायरे की भी गवाह बनती हैं। यूं तो यह तत्‍व उनकी लोकप्रिय कहानियों में भी दिखता है लेकिन वैसा प्रभावी नहीं बना रहता है। आलोचना के लोकप्रिय दायरे में समाई ‘सालोमन ग्रुंडे’ को उस संतुलित कहानी के रूप में देखा जा सकता है, जिसकी अपेक्षा इस आलोचना की चिंताओं का स्‍वर मानी जा सकती है। मात्र पांच दिनों के अल्‍प जीवनकाल को प्राप्‍त एक नवजात शिशु ‘सालोमन ग्रुंडे’ का कथा नायक हो जाना इस बात की पुष्टि करता है। यह कहानी सालोमन के इस परिचय के साथ शुरू होती है, ‘’बच्‍चों को पढ़ाई जाने वाली एक अंग्रेजी पाठ्य-पुस्‍तक के अनुसार सालोमन ग्रुंडे का जन्‍म सोमवार को हुआ था और नामकरण मंगलवार को। सालोमन ग्रुंडे की हालत बुधवार को नाशाद थी और गुरूवार को वह बीमार पड़ गया। शुक्रवार को उसकी हालत एकदम पस्‍त हुई और शनिवार को वह मर गया। इतवार को सालोमन ग्रुंडे को दफना दिया गया और उसकी कहानी बस यहीं पर खत्‍म हो गयी।‘’ यह उस सालोमन ग्रुंडे की कहानी है जो मुक्ति की चाह में पीढि़यों पहले ईसाइ हो गए जाति से डोम लेकिन ईसाइ धर्म धारण कर चुके अपने पिता एडवर्ड का पुत्र है। कहानी में भाषायी सवाल और अस्मिता के प्रश्‍न हैं लेकिन वे पूरे कथानक में उस तरह से कहीं दिखाई नहीं देते जिसे कहानी अंत में प्रकट करती है, ‘’इस आजादी ने, जिसने बहुत सारे रंगीन ख्‍वाबों की दिलासा एडवर्ड को दिलाई थी, उसे दी थी- सिर्फ एक बच्‍चे की उदास नीले रंग की मौत । यह दुख बहुत बड़ा था, लेकिन इससे भी ज्‍यादा दुख एडवर्ड को तब हुआ जब उसने कान में किसी ने एक दिन यह बताया कि तुम्‍हारे बच्‍चे की मौत पर मोटी तोंद वालों ने अपने बच्‍चों को अंग्रेजी के दिन रटाने के लिए सुंदर राइम बना डाली है, जिसे बचचे मक्‍खन-चुपड़ी रोटियां चुबलाते हुए तोते की तरह रटते रहते हैं।‘’

मोहन थपलियाल ने बहुत-सी ऐसी कहानियां भी लिखी हैं जिनमें न सिर्फ वह फ्रेम टूटता है अपितु, वे संवेदना के जागरण की मुख्‍य प्रवृत्ति का निषेध करते हुए अंत की कहानियां हो जाती हैं। लेकिन कहानी का फ्रेम तोड़ती ये कहानियां मोहन थपलियाल के शुरूआती लेखन की है, जैसे ‘जकड़न’, ‘छद्म’, ‘खाका’ आदि। बाद के दौर में लिखी गई कहानियों से इनके पाठ थोड़ा भिन्‍न हैं। भारतीय मध्‍यवर्ग के भीतर जमी खूबियों और खामियों की बर्फ किस तरह से ठोस है उसे समझने के लिए मोहन थपलियाल की शुरूआती कहानियां ज्‍यादा कारगर हैं। धार्मिक बाने में कसी मानसिकता के बीच उछाल लेता क्रांतिकारिता का उभार किस तरह से रोमांटिसिज्‍म में जकड़े रहता है, ज्‍यादातर कहानियों में दिख जाता है। क्रांति के प्रति झुकाव के बावजूद सामंती अहंकार ने आज ही नहीं बल्कि अपने उदभव के दौर में विकसित होते भारतीय मध्‍यवर्ग को किस तरह से बांधें रखा, ‘’मांस खाने की इच्‍छा’’ से लेकर ‘’घेरे’’ तक में ऐसी ही सामाजिक स्थितियों के प्रति लेखकीय टिप्‍पणियां जगह पाती हैं। लेखक का आलोचनात्‍मक तेवर इन कहानियों का प्रस्‍थान बिन्‍दु बना रहता है। स्‍त्री स्‍वतंत्रता का हल्‍ला पीटती वर्तमान मध्‍यवर्गीय मानसिकता का वह सच जिसमें बलात्‍कार, हत्‍या और दुत्‍कारों की आवाजें बहुत तेज सुनाई दे रही हैं, ‘’मांस की इच्‍छा’’ की कथावस्‍तु बनी रहती है। एक तरफ आधुनिकताबोध की हिमायत और दूसरी तरफ वैश्‍यालय में वापिस लौटकर जिस्‍म को ही सब कुछ मानने वाली मानसिकता का खुलासा करती कहानी ‘’मांस की इच्‍छा’’ इस कारण से एक महत्‍वपूर्ण कहानी है।

यथार्थ के नाम पर अतियथार्थ जुगुप्‍सा जनित होता है। उसका वरण करती गंवई आधुनिकता के लिए यह जरूरी हुआ कि इस तरह से पैदा हो रही जुगुप्‍सा से निपटा जाए। संवेदना के जागरण के जरिये उस जुगुप्‍सा को मिटाने की नीति ने सुखद अंत, या दमित, शोषित मनुष्‍य की जीत के संकेतों के प्रगतिशील दिखने की युक्ति के साथ शोषण के तरीकों का समूचित विश्‍लेषण प्रभावित हुआ और चलताऊ नजरिये का जगह मिली। किसी तार्किक संगति को तलाशने की बजाय गैरबराबरी को व्‍याख्‍यायित करने में मनोगतवादी रूझान को प्रश्रय मिला। फलस्‍वरूप जमाने में गैर बराबरी और अन्‍य तरह से भी समाज को बांटे रखने के षड़यंत्र और उन षड़यंत्रों को अंजाम देने वालों के खिलाफ किसी सामूहिक कार्रवाई की चेतना का ढ़ांचा विकसित होना असंभव हुआ। साहित्‍य की जनपक्ष भूमिका, जो निर्बल, असहाय, हार और प्रताड़ना को झेल रहे मानव समूहों के भीतर आत्‍मविश्‍वास पैदा करने वाली होनी चाहिए थी, सक्षम साबित नहीं हो पाई। जैसे तैसे खुद को बचा लेने की जुगत लगाने को मजबूर रचनाकार का जीवन भी समाज को प्रेरित करने में विफल हुआ। फलस्‍वरूप ऐसे मध्‍यवर्गीय वातावरण का निर्माण हुआ जिसकी नैतिकता और आदर्श बुरे के प्रति खामोश रहने और भले भले दिखने को ही नागरिक गुण मानने वाले हुए। यदि आग्रह-दुराग्रह मुक्‍त होकर अपने प्रिय रचनाकारों की रचनाओं के पाठ किये जाएं और तटस्‍थ विश्‍लेषण भी तो निश्चित ही ऐसी रचना को तलाश जा सकता है जो एक रचनाकार के उत्‍स एवं उसके विस्‍तार को जान समझने में सहायक हो सकती है।

दो भिन्‍न तरह के मिजाज में रची मोहन थपलियाल की कहानियों को ठीक से परिभाषित करने के लिए ‘’त्रिकोण’’ उनके कथाकार मन को जानने के लिए सबसे उपयुक्‍त कहानी हो सकती है। यह इत्तिफाक है कि इस कहानी का रचनाकाल 1982 का वह वर्ष है जब 1970-71 के आस-पास अपने लेखन की शुरूआत करने वाला कहानीकार अपने रचनात्‍मक जीवन के लगभग मध्‍य में है। यह कहानी भारतीय समाज व्‍यवस्‍था  और आर्थिक ढ़ांचे के विस्‍तार के बाबत लेखकीय समझदारी का सबसे स्‍पष्‍ट प्रमाण बनती है। रचनाकार की राजनैतिक दिशा और सरोकार का पता भी यहां सहजता से मिल जाता है। ‘’त्रिकोण’’ कहानी के जज पिता का न चाहते हुए भी मॉडलिंग की ओर बढ़ रही पुत्री की सफलता को देखना किस तरह से एक मूल्‍य की तरह है, कहानी में वह साफ दिखता है। इतना ही नहीं सत्‍ता को ही सर्वशक्तिमान मान लेने की स्थितियां किस तरह से कामगार तबकों को भी जैसे तैसे उन स्थितियों को लपक लेने के लिए प्रेरित करती हैं, यह भी कहानी स्‍पष्‍ट करती जाती है। खुले बदन के साथ गैर जरूरीर उत्‍पादों पर उंगली फिराती लड़कियां माल बेचने को ही जब स्‍वतंत्रता का पर्याय मान रही हो तो पैसे वाले घरानों के लिए अनुकूल स्थिति बनती है। वे उन्‍हें खूब पैसे देते हैं ताकि लड़कियां अपने जिस्‍म के गोपनीय से गोपनीय अंगों पर आंख मिचौली को आमंत्रित करते हुए तमाम गैर जरूरी उत्‍पादों को बेचने में ही अपनी मुक्ति तलाशती रहें। संदर्भित कहानी का एक अन्‍य पात्र विक्रमदास जो शहर की एक वीरानी सड़क के किनारे एक नीम के पेड़ के नीचे साइकिलों की मरम्‍मत करते हुए जीवन संघर्ष में जुटा है। साइकिल के पंक्‍चर लगाने से मिलने वाले मेहनातने के बावजूद रुतबेदारर लोगों गाडि़यों के टायरों में हवा भरने से मिलने वाली बख्‍शीश उसको लुभाती है। उन बड़े लोगों की कृपा का पात्र हो जाने पर ही वह अपने मामूली जीवन से छलांग लगाकर ऐसा ‘महान’ बन जाता है कि देखते ही देखते सांसद और मंत्री बनकर राज करने की स्थिति में नजर आता है और ता उम्र उन ‘कृपालू’  पूंजीपतियों के हितों को साधने वाले कायदे कानूनों को पास करनवाने में अहम भूमिका निभाना शुरू कर देता है।

गंवई आधुनिकता की जकड़न सामाजिक मुक्ति के रास्‍ते तलाशने में हमेशा बाधा बनती रही है। उन जकड़नों के उत्‍स को ठीक से पहचाने बिना रचना में उनकी उपस्थिति के जरिये उसे तोड़ने की कोशिशें गंवई आधुनिक हिंदी कहानी में हमेशा होती रही हैं। आलोचना में प्रगतिशीलता के मानक ऐसी आधी अधूरी कोशिशों तक ही बहुधा केंद्रित रहे हैं। मोहन थपलियाल की कहानियों में चूंकि यह कोशिश उन तय मानदण्‍डों से थोड़ा ज्‍यादा हैं और आधुनिकता की ओर संक्रमण करती हुई हैं, इसीलिए नाम गिनाऊं आलोचना से उनका बाहर रह जाना स्‍वभाविक-सी बात है। ‘’मांस खाने की इच्‍छा’’, अस्‍सी के दशक में लिखी गई उनकी यह कहानी मध्‍यवर्गीय खीझ, बोझिल और सुस्‍त-सुस्‍त से जीवन की तरावट को स्‍त्री देह में ढूंढ़ने की कोशिश करती मर्द मानसिकता से साक्षात्‍कार करने का अवसर देती है। अपनी नाकमयाबी के चेहरे को स्‍त्री देह में धंसा कर सकुन ढूंढ़ता पुरूष जंगली जानवर की तरह संभोगरत होना चाहता है। इस कहानी की खूबी है कि दयनीय और असहाय स्‍त्री जीवन को स्‍थापित करने की बजाय ललकार और गुर्राहट यहां सुनने को मिलती है। अपने दौर में ऐसी स्थितियों पर लिखी जा रही कहानियों से अलग यह कहानी इस बात की गवाह है कि जो मूल्‍य, नैतिकता और आदर्श गढ़े जा रहे, कहानी का रचनाकार उनसे असहमत है। रचनाकार की असहमति उस भौंडेपन से भी साफ है जिसमें उसी दौर में सिगरेट पीती लड़की को आधुनिक मान लिये जाने का मुगालता पाल लिया जा रहा है। इसके लिए जेएनयू की पृष्‍ठभूमि में लिखी गई कहानी ‘घेरे’ को देखा जा सकता है।  यहां जेएनयू की आलोचना को उस स्‍वर से भिन्‍न माना जाये जो शिक्षा, स्‍वास्‍थय और राजेगार से आंख मींच लेने वालों के प्रति भक्‍तवत्‍सल होकर जेएनयू जैसे महाविद्यालय को उजाड़ देना चाहते है। मोहन थपलियाल जेएनयू के छात्र रहे और उनके करीबी जानते हैं कि जेएनयू का यह छात्र किस कदर अपने विद्यालय से प्रेम करता है। जेएनयू संस्‍कृति में जन्‍म लेता स्‍त्री विमर्श इसीलिए मोहन थपलियाल की कहानी में आलोचनात्‍मक तरह से जगह पाता है। दिलचस्‍प है कि क्रांति के सवाल पर दो लाइनों के संघर्ष पर बात करने वाली कथा नायिका और सिगरेट के धुएं को आधुनिकता के प्रतीक के रूप में देखने वाली असहजता कहानी में अनायास नहीं है। अन्‍तत: देश की नौकरशाही के रंग में रंग जाने वाली यह आधुनिकता जेएनयू की विरासत रही है।

 

मोहन थपलियाल हिंदी के ऐसे रचनाकार हैं जिन्‍होंने वैसे बहुत ज्‍यादा कहानियां नहीं लिखी। हाल ही में ‘समय साक्ष्‍य’ देहरादून से प्रकाशित उनकी सम्‍पूर्ण कहानियों की किताब में कुल 20 कहानियां हैं। उपरोक्‍त वर्णित जिन कहानियों से हिंदी समाज कथाकार मोहन थपलियाल की कहानियों से परिचति होता रहा है, कमोबेश हिंदी कहानियों की उस प्रचलित धारा के साथ नजर आती हैं जिनका उददेश्‍य आधुनिक होने की चाह से तो भरा रहता है लेकिन आधुनिकता का अर्थ जहां नूतन पर ही अटक जाता है। आलोचना की अभी तक की स्थिति की यह सीमा रही है कि उसने उन कहानियों को ही छुआ है जिनमें नूतन से नूतन कथानक भी तय फ्रेम का निर्वाह करता रहा है और करता रहता है। आलोचना का यह पक्ष कहानी के फ्रेम को यथावत बना रहने देने की दृढ़ता का इस हद तक समर्थन करता है कि चाहे जटिल सामाजिक यथार्थ को व्‍यक्‍त करने के लिए कथाकार को असंगत कथानक और अतार्किक विस्‍तार तक जाना पड़ जाए। यानी एक फार्मूलाबद्ध कहानी। तर्क के अभाव में भी लेखकीय मंशाएं ऐसी कहानियों की ताकत तो होती है लेकिन यही इनकी कमजोरी भी है। ऐसी कहानियां, जिनकी प्रकृति थोड़ा भिन्‍न किस्‍म की है, उनके बारे में आलेचना की खामोशी के कारणों को तलाशा जाए तो दिखाई देगा कि हिंदी में गंवई आधुनिकता के बने रहने देने में आलोचना की भूमिका महत्‍वपूर्ण रही है। क्‍योंकि उसने उन्‍हीं कहानियों पर बात करने में सहजता महसूस की है जिनमें कथानकों के घटनाक्रम या तो एक रैखीय रहे या जिनमें स्‍पष्‍ट रूप से दिखाई देते किसी एक रैखीय घटनाक्रम को ही प्रमुख मान लिया गया। वे कहानियां जो अपने पाठ में बहुस्‍तरीय हुई, उन्‍हें कथारस की अनुपस्थिति का हवाला देते हुए मुक्‍कमिल कहानी मानने से ही परहेज किया गया। किसी रचना और रचनाकार का इकहरा पाठ करती ऐसी आलोचना में ही निहित गंवई आधुनिकता ने हिंदी कहानी को काफी हद तक प्रभावित किया है। ध्‍यान रहे इस आलेख के लेखक की निगाह में, गंवई आधुनिक कहानियों की सबसे प्रबल प्रवृत्ति संवेदना का जागरण है- वे कहानियां जिनके कथानक विभिन्‍न पड़ावों से गुजरते हुए, सामाजिक अंतरद्वंद्व के सहारे आगे तो बढ़ते हैं, लेकिन संवेदना के जागरण पर  विश्राम पा जाते हैं।

मेरा मानना है कि कथाकार मोहन थपलियाल की कहानियों पर बात करना आसान है भी नहीं। क्‍योंकि समकालीन यथार्थ वहां बेहद गझिन है, इस कदर गझिन कि जिसको समूचित रूप से पकड़ना मुश्किल है- किसी एक घटना को केन्‍द्र बनाकर लिखी गई कहानी में तो संभव ही नहीं। फिर यथार्थ की जटिलता को रेशे दर रेशे पकड़ने के लिए उस वक्‍त तक इधर के दौर में लिखी गई लम्‍बी कहानियों का विन्‍यास भी प्रचलन में नहीं हो जब। मोहन थलियाल की कहानियों के पाठ इस बात को पुख्‍ता करते हैं कि वस्‍तुगत यथार्थ एक रैखीय नहीं होता। जटिल स्थितियों में उलझे उसके तारों को बहुत मेहनत से और सधे हुए हाथों से खोलने की जरूरत है। वरना सफलता की सीढि़यों पर विराजमान हो चुके व्‍यक्ति के काले कारनामों को पहचानना मुश्किल हो जाए। सिर्फ जय जय कार में खुद भी हाथ उठायी भीड़ का हिस्‍सा हो जाने वाले कितने ही असंतुष्‍ट आपको अपने आस पास नजर आ सकते हैं। उनकी कहानी 'चालाक लोमडि़यों के बिना'का यह पाठ ही सर्वथा उपयुक्‍त पाठ है।

मोहन थपलियाल का कौशल चमत्‍कृत करता है कि वे प्रचलित प्रारूप के भीतर ही उसे पकड़ने का प्रयास करते हैं। उनकी एक अन्‍य कहानी ‘छद्म’, सामाजिक राजनैतिक वातावरण और उसके साथ उभार ले रहे सांस्‍कृतिक वातावरण का जिस तरह से बयां करती है उसमें न सिर्फ पीढि़यों के अन्‍तरविरोध पर पाठक का ध्‍यान खुद ब खुद जाता है अपितु निरर्थक और फालतू किस्‍म की चीजों के बारे में दिलचस्‍पी पैदा करते इश्‍तहारी वातावरण की चालाकियां उघड़ने लगती हैं। दिखावटी चीजों से बुने जाने वाली नेहरूवियन सांस्‍कृतिकता का छद्म पूरी कहानी में बहुत बारीक विवरणों के साथ उभरता रहता है। बेरोजगारी की भीड़ को झूठी दिलासा देते एवं निरर्थक साक्षात्‍कार की पोल पट्टी खोलती यह एक राजनैतिक कहानी है। दिलचस्‍प है कि सीधे तौर पर राजनैतिक स्थितियों का जिक्र कहानी में कहीं नहीं किया गया है। हिंदी की यदि ऐसी कहानियों को चुना जाए जो अभी तक आलोचना के सामने चुनौति खड़ी करती है तो ‘छद्म’ उनमें बेहद महत्‍वपूर्ण कहानी की तरह ही दिखाई देगी। इस आलेख की सीमा है कि यहां मोहन थलियाल की कहानियों की प्रवृत्तियों पर बात करन के लिए उनकी अन्‍य कहानियों को भी आधार बनाया जा रहा है। इसलिए ‘छद्म’ के पाठ के संबंध में सिर्फ यह इशारा भर छोड़ दिया जा रहा है कि बिना वाचाल हुए राजनैतिक पक्ष को संभाले रहने वाली कहानियां हिंदी आलोचना की निगाह से बाहर बनी रही हैं। एक अन्‍य कहानी है, ‘’जकड़न’’, लम्‍बी कविता के से अंदाज में लिखी गई यह ऐसी कहानी है जिसमें यूं तो कोई घटना साक्षात नहीं है लेकिन पाएंगे कि घटना वहां ऐसा फल है जो गुच्‍छों में लगा होता है। चाहकर भी चाहत का सिर्फ एक ही दाना जिससे अलग करना मुश्किल होता है। अनचाहा भी टूट कर गिरने को उतावला रहता है। गहन काव्‍य संवेदना से रची गई यह अदभुत कहानी है। आपाधापी और हुल्‍लड़ मचाकर दौड़ते समय में भी यह कहानी गहुत धैर्य से किए जाने वाले पाठ की आस जगाती है। 1979 में लिखी गई कहानी ‘’खाका’’ इस बात का अदभुत साक्ष्‍य है।

1857 के सिपाही विद्रोह को भारत के प्रथम स्‍वतंत्रता संग्राम के रूप में माना जाए या नहीं, यह बहस का विषय हो सकता है। इतिहास की भिन्‍न–भिन्‍न व्‍याख्‍याओं की संगति रचनात्‍मक साहित्‍य में भी अवधारणा विशेष पर यकीन करते रचनाकारों की दृष्टि से भिन्‍न नहीं रही है। लेकिन मोहन थपलियाल की कहानी ‘’युद्ध और प्रेम’’ में  वह सिपाही विद्रोह कुछ भिन्‍न तरह से प्रकट होता है और राजनैतिक रूप से ज्‍यादा जरूरी पक्ष की पुष्टि करता है। यह तथ्‍य उल्‍लेखनीय है कि कहानी में 1857 के सिपाही विद्रोह का वाकया 5 अगस्‍त 1993 को याद किया जा रहा है। स्‍पष्‍ट सुना जा सकता है कि कहानी में उस घटना को अंग्रेजो के खिलाफ हिंदू-मस्लिम बागियों की पहली भीषण घटना की तरह याद किया जा रहा है। याद करने वाले दो करीबी मित्र हैं- सौमित्र और शाहीन। अपने करीबी मित्र के साथ शा‍हीन उस खण्‍डहर में गई है जहां कभी युद्ध हुआ था। 1857 का खूनी गदर। 1992 के विध्‍वंस का घटनाक्रम गुजर चुका है और भाईचारे से गुंथा सामाजिक ताना-बाना एक हद तक जख्‍मी किया जा चुका है। शाहीन के छोटे भाई अकबर की टांग में लचक आ गई है। जाने कोई छर्रा उसकी टांग को बेध गया है। मां-बाप के पास घायल बेटे की टांग का इलाज कराने के लिए पैसे नहीं हैं।

सौमित्र बताता है, उसी खण्‍डहर में, जो कभी रेजीडेंसी हुआ करता था, 86 दिनों तक बागियों का कब्‍जा रहा। वे तोप के गोलों की बौछार करते रहे। इमारतों के भीतर रूदन गूंजता था और बाहर आकाश में तोप के गोलों का अट्टाहास। बागी पूरी तरह से हावी थे। 86 दिनों तक रेजीडेंसी के सुरक्षा कवच का एक-एक तार उन्‍होंने ढीला कर दिया था। रेजीडेंसी में मौत ही मौत थी। गिरते-पड़ते, कटते शरीर थे और था खून ही खून। रेजीडेंसी में रहने वाले दो हजार नौ सौ चौरानबे लोगों की नींद बागियों ने हराम कर दी। उनकी संख्‍या घटकर सिर्फ नौ सौ नवासी रह गई थी। बाद में अंग्रेजो का एक कमांडर रेजीडेंसी को मुक्‍त करवा पाने में सफल हुआ था। लेकिन जीतने के बाद भी रेजीडेंसी के निवासी पस्‍त थे। उनमें जान फूंकने के लिए लार्ड टेनीसन ने कविता लिखी थी। खण्‍डहर के, एक कमरे में ही पहली जुलाई 1857 को 19 साल की युवा सूसाना पामेर तोप का गोला फटने से मर गई थी। सूसाना लार्ड टेनीसन की बेटी थी। एक तरफ घायल भाई की चिंता और दूसरी ओर सूसाना के मौत की दर्दनाक सूचना शाहीन को जिस तरह से नितांत अपने भीतर ले जाती है, वहां जीत और हार, शत्रु और मित्र जैसे सभी सवाल बेमानी हो जा रहे हैं। सिर्फ युद्ध और उसकी छाया में फैलती जा रही उदासी पाठक को बेचैन करती है। आश्‍वस्ति की स्थिति फिर भी बनी रहती है, क्‍योंकि उस खामोश उदासी का प्रतिकार दोनों मित्र कुछ इस तरह से करते हैं कि मनुष्‍य और मनुष्‍य के बीच विभेद करने वाली लक्षित होने लगती है। खण्‍डहर के बाहर की दीवार पर जहां टेनीसन की कविता टंगी थी, उसी के ठीक नीचे कुछ फासले पर दोनों करीबी मित्र मेंसिल से अपने दस्‍तखत बनाकर ‘प्‍लस’ के निशान से उसे जोड़ देते हैं और दर्ज करते है 5 अगस्‍त 1993 जो 6 दिसंबर 1992 के बाद की तिथी को चुनौति देती हुई है।   

मोहन थ‍पलियाल के लेखन की शुरूआती कहानियों में जो आंच है, देखेंगे कि कविता और कहानी का भेद वहां मिटता हुआ है। लेखकीय संवेदनाएं भाषा और शिल्‍प को वहां मारक बनाये हैं। विधाओं के विभेद को दरकिनार करती ये कहानियां एक कहानीकार के भीतर मौजूद रचनात्‍मक स्रोत तक पहुंचने को मजबूर करती हैं। इन कहानियों के पाठ इस बात को भी यहां संदिग्‍ध बना दिया जा रहा है कि रचनाकार की कलात्‍मक भूख ही उसे कुछ रचने को मजबूर करती होगी। उदासी भी कोहराम मचाने वाली होती है। सामाजिक, आर्थिक विभाजन का वाचाल संगीत विसंगति की ऐसी ही दीवार खड़ी करता है। मोहन थपलियाल की कहानियां उस दीवार पर की गई लिपाई-पुताई के बीच खप गए चूने की तरह हैं। यात्रा विवरण का सा आनंद देता उनका विन्‍यास जिस जगह विश्राम पाता है, वहां तक पहुंचा पाठक, जो उछलते-कूदते हुए कथा विस्‍तार के साथ आगे बढ़ता जा रहा था, खुद को गहरी उदासी में डूबा हुआ पाने लगता है। ‘मछकुंड’ को देखने की उत्‍सुकता से भरा- पिरमू ऊर्फ पम पम बैंड मास्‍टर की दुल्‍हन तमाली के छोटे भाई की तरह। तमाली जिस तरह अपने छोटे भाई को मछकुंड के बारे में सही-सही और ठीक-ठीक कुछ भी नहीं बताना चाहती, कथाकार भी कुछ-कुछ उसी तरह पेश आता है। उसका कारण भी स्‍पष्‍ट है कि मछकुंड की गहराई में जाने कितने दुख छुपे पड़े हैं। किसी सुखद अंत के झूठ को रखने की बजाय दुख और उदासी के वातवरण को अभिव्‍यकत करने की यह निराली तकनीक कथाकार मोहन थपलियाल की कहानियों को विशिष्‍ट बनाती है। पाठक को खुद से अनुभव करने का मौका देती है कि मछकुंड के रहस्‍य को जान सके। मछकुंड के उस गहरे नीलेपन वाली गहराई में जब-तब जान गंवा चुकी किसी स्‍त्री के शव को बाहर निकाल लेने वाली व्‍यवस्‍था के उस कुचक्र को समझ सकें जो मुसीबतों की मार झेलते आत्‍मीयों को ही प्रताडि़त करना चाहती है।

लोग घृणा करते भी नहीं लजाते

$
0
0

   

दुख अपनी संरचना में जितना मजबूत होता है,प्रेम की छत जीवन की  दीवारों को उतना ही लचीला बना देने को उकसाती हैं। निर्मिति की प्रौद्योगिकीका यह वस्‍तु सत्‍य इल्‍म की इबारत होने से पहले अनुभव के जोर की परख का परिणाम होना चाहता है। कविताओं में सुख और प्रेम को पर्यायवाची की तरह संयोजित करने के आग्रह बहुत आम दिखते हैं। लेकिन सपना भट्ट की कविताओं में यह संयोजन संकोच के तार से स्‍वाभिमान की एडियों को बांधे हुए रहता है।  

प्रेम के बारे में प्रिय कथाकार राजेन्द्र दानी कहते हैं,’’ प्रेम नहीं कहना चाहिए , प्यार कहना चाहिए । प्रेम कहने से अभिजात महसूस होता है । प्यार ही सर्वांगीण है और सार्वभौमिक है । यह अभी भी विद्यमान है और भरोसा है कि रहेगा । किसी दार्शनिक ने कहा था कि आपकी हर हरकत में "सेक्स"है । अब इसका स्थानापन्न प्यार हो सकता है प्रेम नहीं । खुशहाली प्यार में निहित है ।

देह से मुक्त हुए बगैर, प्रेम एक भुलावा ही है। देह के बंधन जीवन की आपाधापी से निपटने नहीं देते, दुख के बादलों से घेरने लगते हैं। कुछ दिखाई नहीं देता। जीवन में आड़े आ रहे दुखों से लड़ने में प्रेम एक ताकत की तरह है। सपना भट्ट की कविताओं से गुजरते यह और भी साफ दिखाई देता हैं। सामाजिक महौल में बहुत करीब मौजूद बिम्‍बों का जैसा इस्‍तेमाल सपना भट्ट अपनी कविताओं में करती हैं, उसके कारण ही अपने समकालीनों में उनकी कवितायें अलग से पहचानी जाती हैं।    

प्रस्‍तुत हैं सपना भट्ट की कुछ चुनिंदा कवितायें 

वि.गौ.
परिचय:
सपना भट्ट का जन्म 25 अक्टूबर को कश्मीर में हुआ।
 शिक्षा-दीक्षा उत्तराखंड में सम्पन्न हुई। सपना अंग्रेजी और हिंदी विषय से परास्नातक हैं  और वर्तमान में उत्तराखंड में ही शिक्षा विभाग में शिक्षिका पद पर कार्यरत हैं। 
साहित्य, संगीत और सिनेमा में गम्भीर रुचि। 
लंबे समय से विभिन्न ब्लॉग्स और पत्र पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित।
बोधि प्रकाशन से पहला कविता संग्रह 'चुप्पियों में आलाप' 2022 में प्रकाशित ।

1

 जबकि इतनी 

चिंताएं हैं इस विपुला पृथ्वी पर 

 

और 

मुझ पर अपनी 

उम्र से अधिक सालों का ही कर्ज़ नहीं

अपने छोटे बच्चों और अपनी ही 

रुग्ण देह से असीम काम लेने का भी निर्दयी कर्ज़ है

मैं प्रेम कविताएँ लिखती हूँ...

 

जबकि दुनिया में सुलग रही है

अन्याय की राजनैतिक सामाजिक आग 

तिस पर जब एक भीषण महामारी का 

प्रकोप सह रही है यह दुनिया

मैं प्रेम कविताएँ लिखती हूँ

 

कितनी निर्लज्ज हूँ

मेरे अस्तित्व से समाज को क्या लाभ !

 

फिर सोचती हूँ 

पैरों से लिपटी माटी भी

ढल जाती है भांडे बर्तनों,

मूर्तियों खिलौनों और दीपदानो में एक दिन

 

बेढंगे अटपटे पत्थर भी 

एक दिन सहारा देते हैं 

किसी मकान की गहरी नींव में पैठकर

काम आते हैं 

ऊखल जांदर सिलबट्टों और घराटों में ढलकर

 

लोहा लोखर 

से चाहें तो गढ़ सकते हैं 

चिमटे सरिए हथियार  

या कुदाल गेंती फावड़े जैसे औजार ही 

 

ईंधन के बाद बची राख से भी 

मले और घिसे जा सकते हैं बासन

बनाई जा सकती है भभूत माथे और देह के लिए

 

और तो और 

कांटा भी कभी काम आता है कांटा निकालने के 

विष भी औषधि के काम आता है । 

 

इतना व्यर्थ नहीं होता

दुनिया मे किसी का भी अस्तित्व

जितना तुमने मेरा मान लिया है  ....

 

2

मेरी देह इन दिनों 

अक्सर अपने पते पर नहीं मिलती

 

क्षितिज पर 

अहर्निश टँगे सुरंगे दृश्यों 

और मतवाले चैत का अखूट सौंदर्य मुझे पुकारता है 

 

मैं घाटी के 

निचाट रस्तों पर भटकती रहती हूँ

 

मेरी तरसी हुई दीठ

केवल पहाड़ बादल नदी 

और बांज देवदारों के लकदक पेड़ ही नहीं देखती

मौल्यार के धानी वैभव का आह्लाद भी देखती है 

 

चाय की छोटी धूसर दुकानों पर 

सस्ते बिस्कुट और मैगी के पैकेट ही नहीं देखती

थके हारे लोगों की तृप्ति भी देखती है 

 

इधर मैं एक दृश्य में

ठिठक कर प्रवेश करती हूँ 

चौरंगीनाथ के मुख्य द्वार पर 

चार हमउम्र बूढ़ों की चमत्कृत करती फसक सुनती हूँ

देर तक मुस्कुराती हूँ 

 

किसी कुल देवी की 

फिरकियों चर्खियों और 

फ्योंली बुरांश से सजी वह डोली देखती हूँ 

जिसके शीर्ष पर

मनौती वाली चिट्ठियां बंधी हैं 

 

क्षमता से अधिक

घास लकड़ियाँ ढोती स्त्रियों का 

मुझ देसवाली को देख 

खिस्स करके हँस देने का कौतुकपूर्ण उल्लास देखती हूँ

उन मृदुल मीठे ठहाकों पर न्योछावर होती हूँ। 

 

चैत में मायके आई 

बेटियों के अछोर सुख की तरह 

एक निश्चिंतता मेरी पूरी आत्मा में पसर जाती है 

 

फेफड़ों में ख़ूब गहरी सांस भरकर

मैं इस कविता के सहारे 

धीरे धीरे अपने एकांत में लौट आती हूँ।

 

 3


देखती हूँ 

कि यह बैरन शीत 

इन दिनों मेरे कमरे में ही आकर रहने लगी है ।

 

माघ का क्रूर तुहिन 

दुःख की खपरैलों से टपकता हुआ

सीधे मन की उन्मन भीत पर झिरता है 

 

ज्वर का भीषण ताप 

खोखली देह की ठठरी सुलगाता है 

प्राणों की धौंकनी को

श्वास का ईंधन पूरा नहीं पड़ता 

 

आंखें अश्रु ही बनाती है 

याद का बीज याद ही उपजाता है 

 

यह धड़ 

बेवजह एक उदास चेहरा उठाए फिरता है 

 

प्रीत का सुख 

इतना बेढब और विविक्त है 

कि अब अपने पर्यायों में भी नहीं मिलता

 

दुःख इतना सुघड़ और सलीकेदार 

कि अंधेरे में हाथ बढ़ाने पर भी

अपनी नियत जगह पर रखा मिलता है

 

फूलों के नाम याद रह जाते हैं

उनका सौरभ भूल जाती हूँ

तुम्हे बिसराने की जुगत में

तुम्हे और अधिक याद करने लगती हूँ

 

स्मृतियों के विलोम में 

बरसों पीछे लौटती हूँ 

वहां भी विस्मृति नहीं मिलती 

 

किसी और के लिए लिखी हुई

तुम्हारी विह्वल और रुआँसी कविताएँ मिलती हैं 


4

धैर्य के चूकने से निमिष भर पहले 

शिराओं में घुले 

दुःख की लयात्मकता टूट जानी चाहिए ।

 

जिस तरह

पुराने बूढ़े दुःख की जगह 

कोई मीठा तरुण दुःख 

कातर अनुभूतियों को कांधा दे देता है,

 

ठीक उसी तरह,

एक निश्चित अंतराल पर

स्मृतियों की निर्मम चोट मंथर हो कर

फूलमार में बदल जानी चाहिए।

 

चुम्बन का अन्वेषण किसी अधीर प्रेमी ने नहीं

अकेलेपन से घबराए 

ईश्वर ने किया होगा ।

 

उधर स्वप्न में तुम मुझे चूमते हो 

इधर मंगसीर का तीव्र ज्वर

निर्विघ्न इस देह की सांकलें बजाता है। 

एक ठंडी आंच आठो पहर आत्मा के भीतर सुलगती है। 

 

तुम्हारा नाम पुकारती हूँ 

एक आदिम प्यास से जिव्हा जलती रहती है।

 

इस दरिद्र तलहटी में 

नशे से बेसुध होने के लिए भांग भी हैमदिरा भी 

मैं मगर हर बार अपनी प्यास 

तुम्हारे कंठ में भूल आती हूँ।

 

तुम ठहरे कवि 

कविता में आलोचना का पक्ष देखते हो ।

प्रेमी होते तो बूझते

कि प्रेम से च्युत कवित्व आख़िर किस प्रयोजन का।

 

मैं कोई कवि ववि नहीं,

नियम और बंधन 

मुझमें असम्भव अचरज भरते हैं। 

 

मेरे पास तुम तक अपने दुःख पहुंचाने का

अन्यंत्र कोई मार्ग होता

तो कोई कविता कदापि सम्भव न होती।

 

रात के इस पहर 

देह इस देह के ऋण से मुक्त हो भी जाए 

स्मृतियों का एक अर्धनष्ट टुकड़ा 

मन को मुक्त नहीं होने देता। 

 

भीड़ में ठहाके लगाता 

मेरा नीरव एकांत मेरे भीतर बेतरह रोता है ।

 

तुम जो मांगते हो मुझसे

मुठ्ठी भर मेरा जूठा संताप

तुम्हे कैसे दे दूं! 

 

यह प्रेम का दुःख 

मेरी बरसों की पूँजी है जिसे

अबोध कामनाओं को 

रेहन पर रख कर खरीदा है मैंने।

 

5

 भीतर कहीं एक कोमल आश्वस्ति उमगती है 

कि सुख लौट आएंगे । 

 

उसी क्षण व्यग्रता सर उठाती है 

कि आख़िर कब ?

 

जो कहीं नहीं रमता वह मन है,

जो प्रेम के इस असाध्य रोग 

से भी नहीं छूटती वह देह ।

 

अतृप्त रह गयी इच्छाएं 

आत्मा के सहन में अस्थियों की तरह

यहां वहां बिखरी पड़ी हैं,

जिनका अन्तर्दन्द्व तलवों में नहीं 

हृदय में शूल की तरह चुभता है । 

 

अपनी देह में तुम्हारा स्पर्श

सात तालों में छिपा कर रखती हूँ। 

मेरी कंचुकी के आखिरी बन्द तक आते आते

तुम्हे संकोच घेर लेता है।

 

हमारा संताप इतना एक सा है 

ज्यों कोई जुड़वां सहोदर।

 

जानते हो न 

बहुत मीठी और नम चीजों को 

अक्सर चीटियाँ लग जाती हैं,

मेरे मन को भी धीरे धीरे

खा रही हैं तुम्हारी चुप्पी अनवरत। 

 

प्रेम करती हूं सो भी

इस मिथ्या लोक लाज से कांपती हूँ ।

जबकि जानती हूं कि 

लोग घृणा करते भी नहीं लजाते। 

 

किसी को दे सको तो अभय देना 

मुझ जैसे मूढमति के लिए

क्षमा से अधिक उदार कोई उपहार नहीं। 

 

पहले ही कितनी असम्भव यंत्रणाओं से 

घिरा है यह जीवन। 

 

सौ तरह की रिक्तताओं में 

अन्यंत्र एक स्वर उभरता है। 

देखती हूँ इधर स्वप्न में कुमार गन्धर्व गा रहे हैं 

उड़ जाएगा हंस अकेला।

 

मैं एकाएक अपने कानों में 

तुम्हारी पुकार पहनकर 

हर ऋतु से नङ्गे पांव तुम्हारा पता पूछती हूँ। 

 

कैसी बैरन घड़ी है 

किसी दिशा से कोई उत्तर नहीं आता। 

 

तुम कहाँ हो 

मुझे तुम्हारे पास आना है

 

6

इधर इस बूढ़े पहाड़ पर 

पावस ढुलता है मेरी पीठ पर धारासार

उधर विस्मृति के देवता

मधुर स्मृतियों के सब चिह्न धो देते हैं

 

कपास से भी हल्का तुम्हारा चुम्बन

मेरे माथे पर दीपक सा जलता तो है 

आलोक नहीं देता

 

तुम्हारे घुटने की तिकोनी अस्थि पर

टिके सामर्थ्य का सूर्य

पच्छिम में ऐसे डूबता है 

कि कोमल आश्वस्ति का एक समूचा शहर

पृथ्वी के नक़्शे से भटक जाता है 

 

प्रणय के मुरझाए फूलों को

निःश्वास भरकर देखती हूँ 

 

तुम्हारे पीछे जाती हूँ 

तो संकोच का एक तारा

मेरे स्वाभिमान की एड़ियों में गड़ता है 

 

स्पर्श और गन्ध के अलंकार 

स्मृतियों में ठिठकते हैं 

मेरे एकांत की मिट्टी में 

तुम्हारी छाया छूने की कामनाएँ उगती हैं 

 

अप्रासंगिक हो चुके उदाहरणों में 

विवेक और करुणा नहीं

बस शोक बचता है 

 

अकूत धैर्य बरतकर भी

बार-बार आत्मा के घावों की 

गिनती भूल जाती हूँ। 

 

देह का नमक 

नए आँसू ईजाद करता है 

क्षण भर का संवाद 

अपरिमित चुप्पियाँ बनाता हैं

 

तुम्हे भूलने की 

कोई तरक़ीब काम नहीं आती

 

तुम ज़रा देर को चश्मा क्या हटाते हो

मेरी बिसरी कामनाओं को 

तुम्हारी आंखों की भाषा

फिर फिर कंठस्थ हो जाती है

 

7

आत्मालाप का उन्मादी अभ्यास ही है

इस घाटी के माइनस तीन डिग्री पर

ज्वर में मेरा बड़बड़ाना 

 

अधकच्चे स्वप्न में देखती हूँ 

इत्र में भीगी एक नीली अंतर्देशीय चिठ्ठी

अपने नाम वाली

 

सोचती हूँ 

इस वन सरीखे गांव में ही होना था स्थानांतरण

जहाँ डाकखाना तो क्या 

कोई नीली लाल डाकपेटी भी नहीं आसपास

 

जहां डाकिए 

साइकिल की घण्टी बजाते हुए न गुज़रते हों

ऐसे अभागे स्थान पर रह कर क्या लाभ

 

आत्मा 'प्रियजैसे मृदुल 

सम्बोधनों को तरसती हो जहां 

ऐसी अप्रिय जगह हरगिज़ न रहना चाहिए

 

कैसा अटपटा है यह गांव

जहां पुरखे तो स्वप्न में 

पाप पुण्य की कहकर कान खाते हैं

आदमी आदमी से मगर

दिल की बात नहीं कह सकता

 

वैचारिकी और विमर्शों के लिए

अखबार पहुंच ही जाते हैं तीसरे दिन मुझ तक

कोई चिठ्ठी मगर नहीं आती 

 

यह लोभ आख़िरी इच्छा की तरह

मर्मान्तक संताप बनकर

मन के अभावों में पैठ गया है

 

ज्वर में देह का 

आवां धधकता रहता है

मन चिठ्ठी की आहट पोसता रहता है

 

अचेतन मन स्वप्न में 

तुम्हारी चिठ्ठियों के आखर चुगता है 

 

न चिठ्ठी आती है

न ज्वर उतरता है ....

 

8

निद्रा

दयार्द्र ईश्वर का

सबसे करुण उपहार है 

जो मैं बेध्यानी में कहीं रख कर भूल गयी हूँ । 

 

पुरानी स्मृतियाँ 

आंखों को इस तरह काटती हैं

ज्यों काटता हो कोई नया जूता सुकोमल पांव को

 

मैं रात भर जागती हूँ

पलकों के क्षितिज पर 

नींद का रुपहला तारा टिमटिमाता रहता है

 

किसी दिन 

अचानक चौंकाती है यह बात 

कि उसकी सूरत भूल रही हूं 

 

लाज से गड़ती हूँ कि

अब स्वप्न में उसे नहीं

स्वयं ही को सुख से सोते हुए देखना चाहती हूँ 

 

रोज़ रात गुलाबी पर्ची पर

लिखती हूँ अपनी एकशब्दीय कामना 'नींद'

सुबह तक उसका रंग उड़ कर सफ़ेद हो जाता है 

 

अपने खुरदुरे स्वर से 

अपनी बंजर पलकों पर 

बेग़म अख़्तर की ठुमरी का मरहम रखती हूं

"कोयलिया मत कर पुकार

करेजवा लागे कटार"

 

जब पूरा गांव 

निस्तब्धता में खो जाता है 

मैं उनींदी आत्मा लिए

मन ही मन बुदबुदाती हूँ एक निर्दोष प्रार्थना 

 

कि हे ईश्वर ! 

मेरी सब प्रेम कविताओं के बदले

मुझे बस एक रात की गाढ़ी और मीठी नींद दे दो ! 

द्वंदात्मकता ही वैज्ञानिकता है

$
0
0

    

अवैज्ञानिकता के कारण चारों ओर फैली सामाजिक अफरातफरी, राजनैतिकअराजकता, व्‍यवहारिक झूठ, अंधविश्‍वास, हिंसकता, आत्‍ममुग्‍धता, अहंकार, लोभ-लालच आदि सेहर वक्‍ त बेचैन रहने वाले एवं ऐसी गडबडों को ठिकाने लगाने के लिए जिद्द की हद तक बहस मुबाहिसों में उलझे रहने को उतारू भाई गजेन्‍द्र बहुगुणा ने पिछले कुछ समय से यह तय किया है कि वैज्ञानिक समझदारी केेप्रसार केे लिए अब वे कुछ गम्‍भीरता से काम करेंगे। इसी समझ के साथ पिछले दिनों उन्‍होंने कुछ मित्रों को जुटाकर कुछ जरूरी बातें शेयर करने का प्रयास किया था। वे बातें कुछ व्‍यवस्थित तरह से समाज के बीच जायें, इधर वे उसी की तैयारी में जुटे हैं। इस बात को ध्‍यान में रखते हुए ही उन्‍होंने एक छोटी सी टिप्‍पणी मुझे शेयर की थी। उनकी अनुमति से वह टिप्‍पणी इस ब्‍लाग के पाठकों के साथ शेयर है। 



गजेन्‍द्र बहुगुणा साहित्‍य,इतिहास, राजनीति एवं विज्ञान के अध्‍येता हैं। पेट्रोलिय इंस्‍टीटयूट में वरिष्‍ठ तकनीकी अधिकारी के रूप में कार्यरत रहे हैं। खेतीबाड़ी एवं बागबानी में इनका दिल रमता है।  

वि.गौ.



गजेन्‍द्र बहुगुणा

vigyan-विज्ञान सत्य का वास्तविक रहस्योद्घाटन करता ही जा रहा है ! विज्ञान पूर्वाग्रह, leaning, preconceived idea से परे observe किए आंकड़ो के आधार पर निष्कर्ष निकलता है ! जहां datapoint या प्रयोग या नमूने  के आंकड़े  नहीं होते ! वहाँ उपलभ्द जानकारी के आधार पर निष्कर्ष निकले जाते हैं ! ब्रह्माण्ड-Universe, जीवन का जन्म कैसे हुआ ?? इस पर बहुत से आंकड़े उपलभ्द नही हैं ! इसीलिए विज्ञान ज्ञात जानकारी के आधार पर prediction, निष्कर्ष निकालता है ! 

सबसे बड़ी बात विज्ञान मे विश्वास रखने वाले कठमुल्ले या fundamentalist नहीं होते ! वे observe किये गये तथ्यों के आधार पर अपने विचार बदलने को तैयार रहते हैं !  आधुनिक विज्ञान के स्तम्भ चार्ल्स डार्विन, आइज़ेक न्यूटन हों या एल्बर्ट आइन्स्टाइन सभी ईश्वर को किसी प्रकार, किसी रूप से मानते थे ! और कई सालों तक अपने शोध को जनता के बीच लाने मे हिचकिचाते रहे ! चार्ल्स डार्विन की पत्नि ईश्वर की सत्ता मे अंधभक्ति जैसा घनघोर विश्वास करती थी ! जब डार्विन ने पाया कि उनका शोध ईश्वर कि ईक्षा के विरुद्ध प्राकृतिक चुनाव कि ओर ले जा रहा है ! तो कई सालों तक उन्होने अपनी रिसर्च को छापा नहीं, यह सोचकर कि घर मे क्लेश हो जाएगा  ! पर जब उनके दूसरे साथियों, जूनियर शोधकर्ताओं ने वह बात सार्वजनिक करना प्रारम्भ कर दिया तो डार्विन को अपनी  "नयी प्रजातियों द्वारा प्राकृतिक चुनाव "वाली रिसर्च प्रकाशित करनी पड़ी ! और विश्व को पता चला कि नयी प्रजातियाँ कैसे पैदा हो जाती हैं ! इसी प्रकार अल्बर्ट आइन्सटाइन भी ब्रह्मांड के चार बलों -जिनसे दुनिया टिकी और चलती है-स्ट्रॉंग न्यूक्लियर फोर्स, वीक न्यूक्लियर फोर्स, एलेक्ट्रो -मेग्नेटिक फोर्स और गुरुत्वाकर्षण-gravitational Force को एकीकृत करके एकएकीकृत समीकरण बनाना चाहते थे , तो बार-बार उसमे ऐक constant डालते रहे ! और फेल हो गये ! Einstein सपने मे भी सोच नहीं पाये कि ब्रह्माण्ड मे कुछ भी स्थिर नहीं है ! हर कण-कण गतिशील और चलाएमान है ! सम्पूर्ण ब्रह्मांड फैल रहा है ! इसके गृह, ऐक दूसरे से दूर भागते जा रहे हैं ! आइन्सटाइन कहते थे ! God doesn't play dice ! यानि ईश्वर पासे नहीं खेलता .... और यह अस्थिर नहीं हो सकता ! इस तरह से आइन्सटाइन विश्व-ब्रह्मांड  को जोड़कर चलाने वाले बलों को ऐक करके नया समीकरण नहीं दे पाये ! कुछ हद तक इस काम को आगे बढ़ाने के लिए  1979 में पाकिस्तानी वैज्ञानिक डॉ. अब्दुस सलाम को फिजिक्स के लिए नोबेल पुरस्कार से नवाज़ा गया क्योंकि पार्टिकल फिजिक्स में उनके बेहतरीन काम की वजह से ही ‘हिग्स बोसॉन’ की खोज सम्भव हुई, जिसे ‘गॉड्स पार्टिकल’ कहा जाता है। नोबेल पुरुस्कार विजेता आइन्सटाइन गलत साबित हुवे !  उसके बाद स्टीफन हव्किंग जैसे वैज्ञानिक ने तो कहा कि ब्रह्मांड के जन्म के लिए किसी ईश्वर की जरूरत ही नहीं है ! अपनी पुस्तक मे हाकिंग ने इन बातों का जिक्र किया है ! चर्च ने गैलीलियो के साथ हुए दुर्व्यवहार के माफी भी मांगी है ! पर भारत के किसी धार्मिक परंपरा के मत-मन्दिर परम्परा ने आजतक चरवाक या अनीश्वरवादियों पर हौवे जुल्म के लिए कोई माफी नहीं मांगी ! कार्ल मार्क्स ने जिस dailectic  materialism principle द्वंदात्मक भौतिकवाद सिद्धान्त का प्रतिपादन किया ! सभी वैज्ञानिक उस सिधान्त का अनुसरण करते हैं ! इसीलिए वैज्ञानिक मूलतः 
वामपंथी ही होते हैं ! वे नए निष्कर्षों को स्वीकार करने मे कठमुल्लपन नहीं दिखाते ! द्वंदात्मक भौतिकवाद नए तथ्यों को अपने पुराने निष्कर्ष मे जोड़ता जाता है !  हर बार   " Thesis + Anti Thesis = Synthesis "के आधार पर नए प्रतिवादन जुडते जाते हैं और नए  प्रतिपादन स्वीकार कर लिए जाते हैं ! इसीलिए विज्ञान दिशा भी दे रहा है ! और विजेता भी है ! विज्ञान ही भविष्य भी तय करेगा ! कठमुल्ले कहीं भी हों, उनका भविष्य अंधकारमय है ! जनता कभी न कभी उनको नकार ही देगी !

चैत की ऋतु गाने वाली हुड़क्या

$
0
0

मोहन मुक्त की कविताओं को पढ़ना, एक जिरह से गुजरना है। जिरह करती हुई, ये ऐसी कविताएं हैं जो मजबूर करती हैं कि इन कविताओं को पढ़ते हुए हमें कविता के उस पाठ से मुक्‍त होकर इन्‍हें पढ़ना चाहिए जिसका फलक बताता है कि स्‍पेश क्रियेट करती अभिव्‍यक्ति ही कविता के दायरा बनाती है। स्‍पेश को सीमित कर देने के लिए नहीं बल्कि एक बड़ी आबादी के लिए सीमित कर दिये गये स्‍पेश की जिरह को सामने लाती इन कविताओं से गुजरना एक युवा रचनाकार के भीतर की बेचैनियों का खुलासा है। ऐसा खुलासा जिसमें वर्तमान की विसंगतियों के विश्‍लेषण के लिए इतिहास में झांकना जरूरी है।

खुद भी अफसोस ही जाहिर कर सकता हूं कि अपने आस-पास की इस आवाज को अचानक से सुनना हुआ। अफसोस इस बात का भी हमारा आस-पास ऐसी आवाज को सुनाने के लिए अवसर मुमकिन करा पाने से बचता रहा है। वरना क्‍यों जी ऐसा होता कि जिस कवि ओमप्रकाश वाल्‍मीकि को बाद में हिंदी में दलित साहित्‍य का प्रणेता माना गया, उनकी पहली कविता पुस्तक ''सदियों का संताप''की कविताओं के चयन करते हुए और पुस्तिका का रूप देते हुए मैं ही नहीं, भाई ओमप्रकाश वाल्‍मीकि भी दलित रचनाओं की संज्ञा से विभूषित नहीं कर पाये।

आभारी हूं कथाकार बटरोही जी का जिनकी एक टिप्‍पणी से कवि का नाम जाना और खोज कर फिर जिसकी कविताओं को पढ़ने का अवसर जुटाया।

मोहन मुक्‍त की कविताओं में पहाड़ का वह चेहरा आकार ले रहा है जिसे हर वक्‍त के 'ऐ गुया, ऐ कुता'वाले प्रेम के झूठ से सने काका, बोडा वाली संज्ञाये जन समाज में व्‍याप्‍त विसंगतियों को छुपा लेना चाहती रही हैं। यह खुशी की बात है कि जल्‍द ही इस कवि की कविताओं को एक जिल्‍द में देखना संभव होने जा रहा है। भविष्‍य के इस कवि की कुछ कविताओं को यहां देते हुए यह ब्‍लॉग अपनी विषय सामाग्री को समृद्ध कर रहा है।

 वि.गौ.  

 

कवि मोहन मुक्‍त का परिचय:

मध्य हिमालय के पिथौरागढ़ ज़िले में गंगोलीहाट के निवासी और रहवासी यह कविपिछले 13 साल से पत्र पत्रिकाओं में वैचारिक लेखन करता आ रहा है।

 'हिमालय दलित है 'पहला कविता संग्रह शीघ्र प्रकाश्य.


 

फूल


बगीचे नहीं मेरे पास

होने भी नहीं चाहिए

जंगल पर मेरा हक़ नहीं

होना भी नहीं चाहिए

मैं फूल खरीद सकता हूँ

लेकिन वो तो बुके होगा फूल नहीं

मेरी प्यारी....

सच बात तो ये है

कि मुझे फूल तोड़ना पसंद नहीं

मैं तुम्हें किताब नहीं दूंगा

जिसके बीच सूखते फूल रखे हों

वो किताब है इस दुनिया की सबसे दुःखी जगह 

उस बंद किताब के भीतर

कागज़ और फूल दोनों गले मिलकर

अपने अपने पेड़ को याद करते हैं

रोते हैं...

और सारी लिपियाँ हो जाती हैं अस्पष्ट

दुःख की नदी में बहकर नहीं

सुख के घोड़े पर सवार नहीं 

मैं आना चाहता हूँ तुम्हारे पास

बिना किसी माध्यम के 

आदिम .... बेनक़ाब... ज़ाहिर और स्पष्ट

सुनो मेरी प्यारी...

मैं फूल नहीं भेजूंगा 

मैं ख़ुद आऊंगा

ख़ुशबू की तरह... 


मेरा पहाड़ ?????

 

मुंडा कोल

गोंड नाग

बौद्ध द्रविड़

या हडप्पन बाद के

जो कोई भी थे मेरे पुरखे

उन्होंने कभी नहीं कहा ....'मेरा पहाड़'

कम से कम रिकॉर्ड तो यही बताते हैं

अगर कहा भी हो

तो कैसे जानें 

उनकी तो बची नहीं भाषा भी कोई

जो कुछ बच गया 

उनकी भाषा का 

वो गाली बन गया

भाषाविद कहते हैं

कि 'डूम'शब्द आर्य भाषा का नहीं है 

खशो ने बनाया 'खशदेश'

उन्होंने जरूर कहा ....'मेरा पहाड़'

गुप्तों के अधीन कत्यूरियों ने  कहा....'मेरा पहाड़'

आर्यों ने कहा गंगा मेरी तो..... 'मेरा पहाड़

नीलगिरी पर  कब्ज़ा छोड़े बिना 

विंध्य को लांघकर 

सारी बुद्ध प्रतिमाओं को

शिव बनाकर

शंकराचार्य ने कहा .....'मेरा पहाड़'

मैदानी चन्दो ने कत्यूरियों को कहा खदेड़कर अब ...

.....'मेरा पहाड़'

नेपाली गोरखाओं ने चंदों से छीनकर कर कहा गरजते हुए

.......'मेरा पहाड़'

काली के इस तरफ़ ना आना 

सुगौली में अंग्रेज ने धमकाकर कहा गोरखों से.... 'मेरा पहाड़'

मल्ल पंवार कहते रहे ......'मेरा पहाड़'

गंगोली मड़कोटी राजा ने भी कहा... 'मेरा पहाड़ 

राजा का राजपुरोहित 

उप्रेती भी कहता रहा... 'मेरा पहाड़'

कहा जाता है कि उसने मार दिया था राजा 

उसकी जगह बैठाए

गुमानी के मराठी पुरखे भी बोले ...'मेरा पहाड़'

नेपाल के ज्योतिष 

जिन्हें राजा ने दी 

पोखरी की जागीर 

वो कहने लगे.... 'मेरा पहाड़

महाराष्ट्र से आये डबराल ने तो 

अपना नाम ही रखा हिमाल के डाबर गांव पर 

और कहा .......'मेरा पहाड़'

थानेश्वर कुरुक्षेत्र से आये 

जनार्दन शर्मा के वंशज 

मंदिर में पाठ करने के चलते कहलाये पाठक

वो सगर्व और साधिकार कहते हैं ...'मेरा पहाड़'

जो भी कहता है 'मेरा पहाड़'

वो प्यार नहीं करता 

वो जताता है दावा 

जीती गई 

लूटी गई 

छीनी गयी

कब्जाई गयी 

और बांटी गयी 

ज़मीनों पर 

जागीरों पर

बर्फ जंगल पानी और बुग्याल 

किसी के हो कैसे सकते हैं भला 

सारे कवि जो मुग्ध हैं पहाड़ों के सौंदर्य पर 

जो पहाड़ों को ऊंचाई और मजबूती का रूपक बताते हैं 

वो बेईमान हैं 

वो शिकार में मारे गए बाघ की लाश पर 

उसकी ताक़त का बखान कर

दरअसल गा रहे हैं हत्यारे की प्रशस्ति

सारे राजा

सारे विजेता

सारे हत्यारे 

सारे लुटेरे

सारे ज्योतिष

सारे पुरोहित 

सारे गुमानी

सारे धर्माधिकारी 

और सब के सब कवि एक साथ भी कहें अगर ...

.....'मेरा पहाड़'

तो भी मैं नहीं कहूंगा

मैं नहीं कहूंगा ....'मेरा पहाड़

मैं कह ही नहीं सकता कभी....'मेरा पहाड़'

दो वजहों के चलते

एक तो ...'मेरा पहाड़' ...ये भाषा नही मेरी

और ज़्यादा मज़बूत वज़ह 

मैं ही पहाड़ हूँ...................


जड़ों की ओर

 

लौटो जड़ों की ओर 

जब वे कहते हैं

तो आप लौट पड़ते हैं 

घर की ओर

रहवास की ओर

जमीन की ओर

भाषा की ओर 

संस्कृति धर्म सभ्यता की ओर

गांवो की ओर

कबीलों की ओर

और आखिरकार 

आप सिमट कर हो जाते हैं 

इंसानद्रोही 

जीवद्रोही 

चैतन्यद्रोही 

पदार्थद्रोही

जब मैं कहता हूँ लौटो जड़ों की ओर

तो मैं आपको समेटता नहीं

मैं कहता हूँ लौटो इतिहास की ओर

लेकिन पीछे नहीं

नीचे नहीं

आगे और ऊपर

आपका और मेरा साझा अतीत आकाश में है

आपकी और मेरी जड़ें एक हैं

और वो जमीन में नहीं

अंतरिक्ष में हैं

हम दोनों की जड़ें चेतन में नहीं जड़ में हैं

हम दोनों की जड़ें बिग बैंग में हैं 

जब मैं कहता हूँ लौटो जड़ों की ओर

तो उसका मतलब है लौटो 'जड़'की ओर

जो एक है...केवल एक

जब मैं कहता हूँ लौटो जड़ों की ओर

तो मैं उस जगह की बात करता हूँ

जहाँ विज्ञान और दर्शन में कोई विरोध नहीं

क्योंकि उनकी भी एक ही जड़ है

जैसे आपकी और मेरी

जैसे जड़ की और चेतन की

सबकी एक ही जड़ होती है

जब मैं कहता हूँ लौटो जड़ों की ओर

तो मैं इसी जड़ की बात करता हूँ

मैं पदार्थ की बात करता हूँ 


भू कानून 

 

किसने मांगा भू क़ानून 

 

टिहरी सोर या देहरादून 

किसे चाहिए भू कानून  

 

नौले पोखर ताल या सब्ज़ा

किसका पानी किसका कब्ज़ा 

 

डाने काने गाड़ गधेरे

किसके सेरे किसने घेरे 

 

कौन बाहरी कौन प्रवासी 

कौन यहाँ का मूल निवासी

 

किसके जंगल किसकी नदियां

कैद में बीती किसकी सदियां

 

चंद पंवार मल्ल कत्यूरी

कहो कहानी पूरी पूरी

 

कौन था पहला कब्ज़ाधारी

किसकी मारी हिस्सेदारी

 

किसकी लाठी कौन था गुंडा

खश आर्यन कोल या मुंडा

 

क्या आपने पीछे झांका

यहाँ पड़ा था भीषण डाका

 

लोग कटे थे लूट हुई थी

दान बंटा था छूट हुई थी

 

बुद्ध हुआ था कंकर कंकर

दक्षिण से आया था शंकर

 

धर्माधिकारी बना चौथानी

 घुसपैठी बन गया गुमानी 

 

चौथानी की सबने मानी

खसिया बामण राजा रानी

 

तभी बना था भू कानून

टिहरी सोर या देहरादून 

 

जल जंगल जमीन या सब्ज़ा

तब से अब तक किसका कब्ज़ा

 

छ्यौड छ्यौड़ियाँ ओड़ लुहार

लुटते  पिटते करें  गुहार

 

कब तक ऐसा जुलम चलेगा

कभी तो ये भी गुमां ढलेगा

 

खेत रास्ते नदियां सेरे

जंगल छोटे बड़े घनेरे

तेरे मेरे सबके डेरे

जिस जिस ने रखे हैं घेरे

 

पहले उनको करो बेदख़ल

ऊंच नीच को कर दो समतल

 

बिसरा देंगे पिछला किस्सा

सबको दे दो सबका हिस्सा

 

यही है असली भू  कानून

टिहरी सोर या देहरादून 

किसे चाहिए ये कानून

टिहरी सोर या देहरादून

 

हम चाहते ये क़ानून 

असली वाला भू क़ानून 

टिहरी सोर या देहरादून 

हमें चाहिए ये क़ानून

 

जिसका पहाड़

उसी का  नून

जो भेड़ चराये

उसी का ऊन

मुंडा कोलो का जो ख़ून

उसके लिये हो भू  क़ानून

उसके लिये जो भू क़ानून

सबके लिये वो भू क़ानून 

 

कब तक टालोगे क़ानून

फूट पड़ेगा कभी जूनून

दिल्ली तक जब बात उठेगी

कहाँ छुपेगा देहरादून

 

जल्द बनाओ वो कानून

असली वाला भू कानून

मुंडा कोलों का जो ख़ून

उसे चाहिए भू कानून

 

टिहरी सोर या देहरादून

असली वाला भू क़ानून....


होली और माँ

 

सफ़ेद साड़ी जिसका किनारा लाल है 

जिसमें जगह जगह सुर्ख फूल हैं 

रंग के धब्बे हैं 

मैं बचपन में

ऐसी ही दोपहरों में होली गाती इन साड़ियों के बीच

 अपनी माँ को ढूँढा करता था 

मैं बच्चा था सचमुच 

मुझे पता नहीं था कि उन औरतों में मेरी माँ हो ही नहीं सकती थी 

वहाँ माहौल बुरा नहीं था 

गुड़ और सौंफ मुझे भी दिया जाता था 

देने वाली कभी झिड़कती नहीं थी 

वो मुस्कुराती थी 

गुलाल वाले उसके चेहरे पर मुस्कुराहट देखते ही बनती थी 

हालांकि  उसके और मेरे हाथों के बीच बना रहे  कुछ  फ़ासला

वो ख़ास ध्यान रखती थी

ऊंचाई से देने पर कुछ सौंफ गिर जाती थी नीचे 

ऊंचाई से दी गई चीजें अक्सर गिर ही जाती हैं 

मुस्कराहट और फासला 

रंग और बदरंग 

गुड़ और सौंफ 

ये कॉम्बिनेशन मुझे आज भी समझ नहीं आये 

खैर मेरी माँ को वहाँ नहीं मिलना था 

वो मुझे वहाँ कभी नहीं मिली 

मेरी माँ ही नहीं वहाँ  मुझे मेरी अपनी कोई नहीं मिली 

ना चाची ना भाभी ना ताई ना बुआ ना बहनें 

मेरी ज़िन्दगी की सब औरतें उन फाग वाली दोपहरों में भी जंगल से घास और लकड़ियां ढो रही होती थीं 

मेरी ज़िन्दगी की औरतों के उत्सव अलग थे 

सफ़ेद साड़ी जिसका किनारा लाल है 

जिसमें जगह जगह सुर्ख फूल हैं 

रंग के धब्बे हैं 

मैंने पूरी ज़िन्दगी अपनी माँ को इस साड़ी में नहीं देखा 

उसके अपने कारण होंगे 

लेकिन मेरी माँ

मेरी एक और माँ को जला देने के उत्सव में 

कभी शामिल नहीं हुई.


काला बामण

एक 

शिल्पकार  जजमान खुश  है  बहुत  

आज  घर  पर  हो  रही  है सत्यनारायण  की  कथा  

काला  बामण कर  रहा  है कथापाठ और अनुवाद  

दोनों  कहानी  का  मर्म  समझने  की  करते  हैं  कोशिश

कहानी  में  अपनी  सही  जगह तय  करने  की  कोशिश

दोनो  होते  हैं  नाकाम  

एक  नजर  देखते  हैं  एक  दूसरे  की  ओर  

काला बामण बजा देता है सफेद  शंख जोर  से  ..

 

दो

कथा  के बाद  मैने  पूछा  काले  बामण से  

ये सत्यनारायण  तो  ब्लैक मेलिंग  है बड़ा 

हाथ  ना  जोडो  तो  डूबी  समझोनाव  

काला  बामण हंसा  जोर  से बोला 

''पूरा  धन्धा  ही  टिका  है  दरअसल ब्लैकमेलिंग  पर  ''

उसने  इतनी  सहजता से  ये कहा  कि  यकीन हुआ मुझे 

काले  बामण का  फिलहाल  तो नही  है वर्चस्व  कोई 

जिसके  टूट जाने  का  उसको डर  सताता  हो .

 

तीन                 

रामनामी ओढ़े रहता है 

करता है शिखा धारण 

साफ़ सुथरा रोज़ नहाता 

मुख पर भी है तेज 

काला बामण दशहरा द्वार पत्र चिपकाता है

ओड़ के घर पर 

ओड़ हाथ तो जोड़ता है पर उसमें लोच नहीं है 

काला बामण सबकी कुशल क्षेम पूछता हुआ

गुजरता है क़स्बे से

कोई उसे गुरुज्यू या पंड़ज्यू नहीं कहता 

लोग उसे हरदा या किड़दा ही कहते हैं 

'गोरे बामण 'को देखते ही वो बदल लेता है रास्ता 

मेहतर के सामने...

वो कुछ गोरा सा हो जाता है


चार

काले  बामण और  चैत  की  ऋतु  गाने  वाली  हुड़क्या 

औरत में  क्या  कोई  अंतर  होता  है  ?

हाँ  अंतर  तो  है  

स्त्री और पुरुष  का  पहला  शाश्वत  अंतर  

और  भी  बातें  हैं  कई  अलग  करने  वाली  

हुड़क्या  औरत  सभी  घरों  में  जाती  है  

काला  बामण जाता  है 

बस  शिल्पकार  के  घर  पर 

हुड़क्या औरत   जमीन  पर  बैठती  है  

दहलीज के  बाहर  

काला बामण घर के भीतर आता  है 

आसन सजाता है  

काले  बामण को  मिलता है 

सम्मान सत्कार और  दक्षिणा  

हुड़क्या औरत  पाती  है 

मडुवा ,भांग  के  बीज  और   बीडी का बंडल  

इतना  अंतर  होते  हुए  भी

इन  दोनो  में  एक  रिश्ता  है  

दोनों  माँ  बेटे  हैं  

एक  ही  घर  में  रहते  हैं .


आत्म सम्मान की चेतना

$
0
0
हिन्दी आलोचना का परिदृश्य इस कदर उदार है कि बहुत सामान्य रचना को भी असाधारण साबित कर देने में हर वक्त उपलब्ध रहता है। पाठकों को उसके लिए इंतजार नहीं करना पड़ता । जैसे ही किसी परिचित या दोस्त-रचनाकार की रचना के प्रकाशन की सूचना आती है, रचना के प्रकाशन के अगले दिन ही उसके असाधारण होने के प्रमाणपत्र जारी होने शुरु हो जाते हैं। लेकिन आलोचना की उदारता के ऐसे उपक्रम से जारी प्रमाणपत्र को पाना हर किसी रचनाकार के लिए आसान नहीं। वरना पाठक चंद रचनाकारों और उनकी ही रचनाओं से परिचित होते रहने को अभिशप्तन न होते।          खैर,अभी हम हिंदी के एक लगभग अज्ञात से लेखक की कहानियों से थोड़ा रुबरू होने की कोशिश कर लेते हैं। 85 वर्ष की उम्र से ऊपर के इस लेखक के उस पहले कहानी संग्रह से परिचित हो लेते हैं, जीवन भर लेखक द्वारा 400 से अधिक लिखी गयी कहानियों के बावजूद वह मात्र 22 कहानियों की एक जिल्दा के रूप में ‘’अन्तू से पूर्व’’ होकर देखने में आ रहा है। अलबत्ता इस संग्रह से पूर्व लेखक के आठ उपन्यास,एक लघुकथा संग्रह और आत्मकथा प्रकाशित है। तब भी इस साधारण से लेखक की साधारण-सी कहानियों में से एक असाधारण कहानी को ढूंढना और उस पर बात करना क्यों जरूरी है ? क्या यह कोशिश भी हिंदी आलोचना के उस परिदृश्य की ही तरह की कोशिश है, जिसका जिक्र ऊपर हो चुका है, या, इसके मायने इस धारणा पर निर्भर कर रहे कि आलोचना का कर्म एक जिम्मेदारी का कर्म बन सके ? इन सवालों के हल ढूंढने से पहले ''अन्त से पूर्व''कथा संग्रह के लेखक मदन शर्मा के नाम से परिचित हो जाना जरूरी है। उम्‍मीद की जा सकती है कि उनके द्वारा लिखे गये बेहद आत्मीय संस्मरणों से इस ब्लाग के पाठक अच्‍छे से परिचित होंगे।                                                    ‘सुबह होने तक’, ‘भीतर की चीज’, ‘बाबर’, ‘चोर’, ‘रफ ड्राफ्ट’, ‘देश’ एवं ‘मिस्टार और मिसेस सिन्हा्’, इस संग्रह में ये सात कहानियां ऐसी हैं जिनके कथ्य ही नहीं, बल्कि उसके ट्रीटमेंट का तरीका और उस ट्रीटमेंट से प्रकट होते कथा के आशय मदन शर्मा को अन्य किसी भी हिंदी लेखक से जुदा कर देते हैं। अपने आशयों के कारण इन कहानियों की मौलिकता अनूठी है। ‘भीतर की चीज’ इस ब्लाभग के पाठकों के लिए यहां बानगी के तौर पर पुन: प्रकाशित की जा रही है।            ‘भीतर की चीज’ का कथ्य इस बात की ताकीद कर रहा है कि आत्म सम्‍मान की रक्षा का पाठ कामगार की चेतना ही नहीं, बल्कि मालिक-दुकानदार की चेतना का भी वारिस हो सकता है। शोषण के प्रतिरोध में शोषित के प्रति सदइच्छााओं वाली रचनाओं के संसार के बीच उल्लेखित कहानी का यह कथ्य उस मौलिकता का स्प्ष्ट साक्ष्य है जिसके जरिये यह देखना संभव हो जा रहा है कि कहानी के मालिक-दुकानदार की शक्ल् ओ सूरत डिजीटल भाषा में संदेशों को दोहराने वाले उस मालिक-दुकानदार से भिन्न है, विकसित होती गयी तकनीक को जिसकी सेवादारी में तत्पर रूप से प्रयोग किया जा रहा है। कहानी का यह पात्र देशी बाजार का वह मालिक-दुकानदार है, बड़ी पूंजी ने जिस पर हमला इतना तीखा किया है कि आज उसको ढूंढना ही मुश्किल है। कहीं कस्बों, देहात में उसके रंग रूप की छटा दिख जाये, बेशक। प्रताड़ना को झेलने के अभ्यास ने कामगार को इस कदर सक्षम बनाया है कि वह तो बद से बदतर स्थितियों के बीच भी जीवन संघर्षों की राह में आज भी नजर आ जाता है, लेकिन बाजार के षडयंत्रों से पस्त हो चुका देशी दुकानदार आज लगभग विलुप्ति के कगार पर है। अपने चरित्र में मुनाफाखौर होते हुए भी कुछ छद्म नैतिकता और आदर्शों से वह खुद को बांधे रहता था। वह झलक कथाकार मदन शर्मा की एक अन्य कहानी, ‘’बाबर’’ में भी अपने तरह से आकार लेती है, जिसमें वह देशी बुर्जुवा, सरकारी कर्मचारी के रूप में मौजूद है। एक ऐसा पिता जो अपने पुत्र की बेरोजगारी के कारण चिंतित है और अनुकम्पा के आधार पर उसे नौकरी मिल सके यह सोचते हुए ही उस गल्प की स्मृति में है जो पाठ्य पुस्तकों में दर्ज होता रहा है कि असाधय रोग की गिरफ्त में पड़े बेटे  हुमायूं के स्वस्थ होने की कामना में ही बाबर यह दुआ मांगते हुए होता है कि बेटे का रोग उसे मिल जाये और रोगी बेटा पूरी तरह स्वस्थ हो जाये। आइये प्रस्‍तुत कहानी के पाठ से कथाकार मदन शर्मा की उस मौलिकता से साक्षात्‍कार करते हैं जो बेहद सामान्‍य होते हुए भी असाधारण हो जाने की ओर सरकती है।                     विगौ 


  

कहानी

भीतर की चीज़

                                             मदन शर्मा

      वह मेरे मुंह पर तमाचा-सा मारकर चला गया। चेहरा अभी तक तमतमा रहा है। दिल की धड़कन तेज़ है। शायद भीतरबनियान भी पसीने से तरबतर हो गई है।

 थोड़ा संतुलित होता हूं और याद करने की कोशिश करता हूं, कि बार-बार क्यों ऐसा हो जाता है।

 वह तीन महीने पहले मेरे पास आया था। उससे पहले मेरे बचपन के दोस्त रामदयाल का फोन आया था। कहा था, ‘‘एक मेहनती और जहीन लड़के को तुम्हारे पास भेज रहा हूं। आस-पास किसी दुकान पर इसे रखवा देना। यह काम करना ज़रूर है।’’

 मैंने उसे देखा। बातचीत से वह अच्छे घर का मालूम पड़ा। बी0एस0सी0सैकेण्ड डिवीजन में किया था। नौकरी कहीं नहीं लगी थी। पिता जी पिछले साल चल बसे, घर की हालत खस्ता है।

 मैंने कहा, ‘‘चाहो तो मेरी दुकान पर ही रह जाओ, जब तक कोई और काम नहीं मिलता, मैं समझता हूं, साढ़े चार सौ रूपये, कुछ बुरा नहीं रहेगा।’’

 मैं तुरन्त मान गया।

तीन में से एक सेल्समैन दो सप्ताह पूर्व बिना नोटिस दिये ही ग़ायब हो गया था। अब तक उसका पता नहीं था। इसलिये मुझे एक आदमी चाहिये ही था।

‘‘मुझे क्या काम करना होगा?’’ उसने भोलेपन से पूछा, मेरी हंसी निकल गई। कहा,‘‘इस की चिंता तुम क्यों करते हो? साढ़े चार सौ दूंगा, तो नौ सौ का काम लूंगा ही। यह सरकारी नौकरी तो है नहीं कि...’’

 ‘‘फिर भी..’’

  ‘‘बस, दुकान का हिसाब-किताब बनाना है और शाम को दो-ढाई घंटे काउंटर पर खड़े होकर, ग्राहकों क्राॅकरी दिखानी है और उनकी जेब से पैसे निकलवा कर मेरी जेब में डालने हैं। भई, तुम बी0एस0सी0हो, मेरे कोई लेबार्टरी तो है नहीं, जहां तुम्हें खड़े कर सकूं।’’

  ख़ैर, वह काम सीखने लगा। सभी रजिस्टर और कैशबुक का काम उसे बहुत जल्द समझ में आ गया। मगर मैंने महसूस किया, कि काउंटर पर खड़े उसे कुछ परेशानी हो रही है। सोचा, थोड़ा शर्मिला है दो-चार दिन में ठीक हो जायेगा।

  एक दिन, वह किसी ग्राहक को लेमनसेट दिखा रहा था। अचानक फ़र्श पर, कांच के टूटकर बिखरने की आवाज़ सुनकर मैं चैंका। दुकान पर, उस तरह का एक ही सेट था। मुझे बेहद अफ़सोस हुआ। उससे भी बढ़कर अफ़सोस इस बात का था, कि उसका कहना था, गिलास ग्राहक के हाथ से छूटा है और ग्राहक इसका उल्ट बता रहा था। जो भी था, नुकसान मेरा हुआ था। और मुझे बुरी तरह ताव आ रहा था। ग्राहक के जाते ही, मैंने आदतन, उसकी तबीयत हरी कर दी।

 लताड़ खाकर वह काफी सुस्त हो गया था। कुछ देर बाद मेरा पारा उतरा, तो मैंने उसे पास बुलाया और सस्नेह दुकानदारी की दो-एक बातें समझाने के बाद कहा, मेरी बात का बुरा मत माना करो, मेरे दिल में कुछ नहीं है।’’

  वह संतुष्ट हो गया। मैंने भी सोच लिया, लड़का भावुक है, ज़रा-सी बात का भी बुरा मान जाता है। मगर मेरी तरह शायद वह भी दिल का बुरा नहीं।

  किन्तु कुछ ही दिन बाद, एक अठारह-उन्नीस साल की गोरी-सी लड़की दुकान पर आई और उससे हंस-हंस कर बातें करने लगी। उसे क्रॉकरी खरीदनी थी इसलिये मुझे, उनकी जान-पहचान या हंसी पर कोई आपत्ति न थी। किन्तु जैसे ही वह क्रॉकरी का बंधा पैकेट संभाल दुकान से बाहर हुई, मैंने श्रीमान जी को दबोच लिया।

 ‘‘यह घाटे का सौदा किस खुशी में तय किया?’’

 ‘‘मेरे चाचा की लड़की थी।’’

 चचा की थी या मामा की, थूक तो मुझे लगा गई?

‘‘आप मेरे वेतन से काट लीजियेगा।’’

 ‘‘क्या कहा?’’

  मेरे लिये इतना पर्याप्त था। मेरा अपना लड़का होता, तो ऐसी बात कहने पर मैं मुक्के मार-मारकर उसकी पीठ तोड़ डालता। इसकी यह मजाल, कि मेरे सामने ऐसी बात कह जाये। उठा कर अभी दुकान से बाहर दे मारूंगा। समझता क्या है आपने को।

  तब मैं पिल ही पड़ा उस पर। बच्चू को दिन में ही तारे नज़र आ गये। उसकी आंखों में लगातार आंसू बह रहे थे। मुझे पछतावा हो रहा था, मैं क्यों इस तरह बेकाबू हो जाता हूं। डाक्टरों ने कितना समझाया है! खाने-पीने के कितने परहेज़ बताये हैं। जिनको मैं कभी नहीं भूलता। मगर यह दूसरा परहेज़, इस पर तो मैं बिल्कुल ध्यान नहीं दे पाता। डाक्टर कहता है, ऐसी हालत में कभी कुछ भी हो सकता है। मगर अपने इस स्वभाव का क्या करूं? पता ही नहीं चलता, अचानक क्या हो जाता है।

  उसकी आंखें अब खुश्क थीं। किन्तु अभी तक उनमें गहरी उदासी मौजूद थी। मैंने उसे पास बुलाया और समझाया, ‘‘तुम मेरे बेटे जैसे हो। मैंने तुम्हें पहले भी बताया था, मेरी बात का बुरा नहीं मानना चाहिये। तुम मुझे समझने की कोशिश करो। तुम तो पढ़े-लिखे हो। सब कुछ समझ सकते हो। मैं ज़बान का थोड़ा सख्त हूं। मगर इतना बता दूं, कि जो लोग जबान के मीठे होते हैं, वे भीतर से तेज़ छुरी होते हैं। समझ गये न?’’

   वह कुछ नहीं बोला, जैसे मुझे एक अवसर और देना चाहता हो। मैंने भी सोच लिया, आगे के लिये अपना क्रोध अन्य दो सैल्समैंनों पर निकाल लिया करूंगा। वे दोनों समझदार हैं। मेरी किसी भी बात का बुरा नहीं मानते। इसीलिये मज़े भी उड़ा रहे हैं। इसे कुछ भी नहीं कहा करूंगा। भले ही यह काउंटर पर कुछ ख़ास योग्य सिद्व नहीं हुआ। मगर हिसाब-किताब में काफी माहिर है। इसके यहां होते, सैल्सटैक्स और इन्कमटैक्स का कोई लफड़ा नहीं हो सकता।

   मगर थोड़े ही दिन बाद की बात है। दुकान पर एक अन्य लड़की आई। काफी गम्भीर लग रही थी। एक मिनट, दोनों के बीच धीरे-धीरे कुछ बात हुई। फिर पांच मिनट की छुट्टी लेकर, वह उस लड़की के साथ चला गया और लौटा पूरे चालीस मिनट बाद।

 ‘‘चली गई वह लड़की?’’ मैंने पूछा।

 ‘‘जी’’, उसने बिना मेरी ओर देखे सपाट-सा उत्तर दिया।

मैंने सोचा, छोड़ो, क्यों बात बढ़ाई जाये। किन्तु दो दिन बाद वही लड़की फिर चली आई। उसी तरह धीरे-धीरे बात हुई और अभी आ रहा हूं कहकर वह उसके साथ चला गया और काफी देर बाद लौटा।

आज भी वह पच्चीस मिनट बाद लौटा था, मैं देखते ही भड़क उठा।

‘‘यह अब हर रोज यहां आया करेगी?’’

‘‘जी?’’ वह तनिक गुर्राया।

‘‘जी क्या! यह दुकानदारी का टाइम है, या लड़कियों को बाज़ार घुमाने का?’’

उसके बाद कुछ याद नहीं, मैं क्या-क्या बोल गया। वह सुनता रहा। किन्तु इस बार वह रोया नहीं, बल्कि ग़ौर से मेरी ओर देखता रहा।

कुछ देर बाद मैं नार्मल हुआ। एक गिलास पानी पिया। चार चाय मंगवाई। एक स्वयं ली अन्य तीनों सैल्समैनों के पास पहुंच गई।

देखा, चाय उसके सामने पड़ी है और वह कुछ सोच रहा है। पूछा, ‘चाय क्यों नहीं पीते?’

उत्तर में वह मुस्करा दिया।

दुकान बढ़ाते हुए देखा, वह बेहद गम्भीर है

मैंने कहा, ‘‘सुनो’’।

‘‘जी’’

‘‘आज मैं तुम्हें बहुत कुछ कह गया। मुझे ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये थी। बहुत चाहता हूं, ऐसा न किया करूं। मगर पता नहीं, इच्छा के विरूद्व ज़रा-सी बात हो जाने पर मुझे क्या हो जाता है। मेरी इसी आदत की वजह से, मेरे दोनों लड़के और बहुएं, अपने बच्चों सहित अलग मकानों में रहने लगे हैं। पत्नी कभी मेरे पास आती है, तो कभी लड़-झगड़ कर बच्चों के पास चली जाती है। मगर तुम तो बहुत अच्छे लड़के हो। कोई बात दिल पर मत लाया करो। मैं स्पष्टवादी हूं, मगर भीतर से....’’

वह कहक़हा लगा कर हंसा और फिर पहले की तरह गम्भीर हो गया।

   अकस्मात ही वह निर्मम होकर बोला, ‘‘ठीक से सुन लीजिये मुझे स्पष्टवादी लोगों से सख्त नफरत है। आदमी, जो दूसरों के प्रति अपना व्यवहार ठीक न रख सके, वह आदमी नहीं पशु है। आप बार-बार दिल का रोना क्यों रोते रहते हैं? आपके दिल का किसी को क्या करना है?’’

‘‘यह तुम क्या कहे जा रहे हो!’’ मुझे जैसे अपने कानों पर विश्वास नहीें हो पा रहा था।

‘‘वही, जो बहुत पहले कह देना चाहिये था। मैं जा रहा हूं। मेरे जितने पैसे आपकी और निकलते हों, उनसे आंवले का मुरब्बा खरीद, उसे चांदी के वर्क लगाकर खाइयेगा, ताकि आपकी यह दिल नाम की चीज़, और भी मज़बूत और मुकम्मल बन जाये!’’

  वह चला गया। कोई अन्य सैल्समैन मुझे मिल ही जायेगा। किन्तु सोचता हूं, यह व्यक्ति, जो किसी की मामूली-सी बात भी सहन करने में असमर्थ है, जीवन में मेरी ही तरह धक्के खायेगा।                           

कहानी के बारे में

$
0
0

हिंदी कहानी में गंवई आधुनिकता की तलाश करते हुए अनहद पत्रिका के लिए कहानियों पर लिखे गये मेरे आलेखों की श्रृंखला का एक आलेख मुक्तिबोध की कहानि‍यों पर था। गंवई आधुनिक प्रवृत्ति के बरक्‍स जिन रचनाकारों की रचनाओं में मैंने आधुनिकता के तत्‍वों को पाया- भुवनेश्‍वर, यशपाल, रमाप्रसाद घिल्डियाल 'पहाडी’, मुक्तिबोध और रघुवीर सहाय, यह आलेख उसकी पूर्व पीठिका भी माना जा सकता है। । मुक्तिबोध की कहानियों पर लिखा गया आलेख वर्ष 2016 के अनहद में है और शेष रचनाकार  भुवनेश्‍वर, यशपाल, रमाप्रसाद घिल्डियाल 'पहाडीऔर रघुवीर सहाय कहानियों के मार्फत आधुनिकता को परिभाषित करने वाला आलेख सोवियत इंक्‍लाब के शताब्‍दी वर्ष को केन्‍द्रीय थीम बनाकर निकले अनहद के वर्ष 2017 में प्रकाशित है। 2017 वाले आलेख में ही अल्‍पना मिश्र की कहानी छावनी में बेघरको अपने समकालीन रचनाकारों की रचनाओं में आधुनिक मानते हुए उसके उस पक्ष को देखने की कोशिश की थी जो इधर के दौर में सैन्‍य राष्‍ट्रवाद के रूप में दिखता है। छावनी में बेघरउस सैन्य राष्‍ट्रवाद को ही निशाने पर लेती है। 2017 के उसी आलेख में युद्धरत कहानियों की अवधारणा की बात करते हुए ही चन्‍द्रधर शर्मा गुलेरी की गंवई आधुनिक कहानी उसने कहा थाके बरक्‍स युद्ध के सवालों पर रमाप्रसाद घिल्डियाल पहाडी, भुवनेश्‍वर और रघुवीर सहाय की कई कहानियों के जरिये आधुनिकता की तलाश करने की कोशिश हुई। बाद में युद्धरत कहानियों पर आलोचक गरिमा  श्रीवास्‍तव जी के आलेख में पहाडी जी कहानियों और अल्‍पना मिश्र की कहानी पर की गयी टिप्‍पणी को बिना किसी संदर्भ के साथ गरिमा जी ने जिस तरह से अपने आलेख में उसे अपनी मौलिक अवधारणा के साथ रखा और समालोचन के संपादक अरुण देव जी ने युद्धरत हिंदी कहानियों पर गरिमा जी के आलेख को पहला मौलिक काम कह कर प्रस्‍तुत किया था, वह देखकर ही मैं उस वक्‍त क्षुब्‍ध हुआ था।

खैर। यह टिप्‍पणी लिखने के पीछे के बात इतनी से है कि इस वक्‍त मैं 2016 में कथाकार सुभाष पंत द्वारा हिंदी कहानियों पर लिखी उस टिप्‍पणी को यहां प्रकाशित करके सुरक्षित कर लेना चाहता हूं जो उन्‍होंने मुक्तिबोध की कहानियों पर लिखे आलेख की प्रतिक्रिया में एक मेल के जरिये मुझे भेजी थी। आज उसे प्रकाशित करने का औचित्‍य सिर्फ इसलिए कि अपने उस मेल को फारवर्ड करते हुए सुभाष जी ने मुझसे कल फिर जानना चाहा कि उन्‍होंने यह टिप्‍पणी क्‍यों लिखी थी, इसका संदर्भ क्‍या था। वे स्‍वयं याद नहीं कर पा रहे। उनको दिये जाने वाले जवाब ने ही प्रेरित किया कि चूंकि हिंदी कहानियों पर यह सुभाष जी की एक महत्‍वपूर्ण टीप है, तो इसे सार्वजनिक करना ही ठीक है ताकि लम्‍बे समय तक सुरक्षित भी रखा जा सके।

विगौ














सुभाष पंत 
  

आलोचना 

                                      सुभाष पंत


      तुम्हारा आलेख बहुत अच्छा है और एक बार फिर से मुक्ति बोध के गद्य साहित्य को पढने को उत्साहित करता है। मुक्तिबोध की कहानियों के धूमिल से एक्सप्रैसन दिमाग़ होने की वजह से तुम्हारे आलेख पर कोई टिप्पणी जल्दबाजी होगी। लेकिन इसकी प्रस्तावना में कहानी पर भाषा और कहानीपन के जो मुद्दे तुमने उठाए हैं, उन पर एक कामचलाऊ, त्वरित टिप्पणी दे रहा हूं, इस पर विचार किया जा सकता है। यह संभवतः तुम्हारे अगले समीक्षाकर्म में किसी काम आ सके।

वह चाय सुड़क रहा था। वह चाय घकेल रहा था। वह चाय सिप कर रहा था। वह चाय पी रहा था। वह चाय नहीं, चाय उसे पी रही थी।’

 इतना कह देने के बाद मुझे नहीं लगता की चाय पीनेवाले पात्र के विषय में कुछ कहने की जरूरत नहीं रह जाती है। यह उसके वर्गचरित्र के साथ उसके संस्कार, मिजाज, शिक्षा के स्तर वगैरह के विजुअल्स निर्मित कर देती है। एक सार्थक भाषा वही है, जिसे पढ़ते हुए बिम्ब स्वयं ही निर्मित होते चले जाएं। यह ताकत हर भाषा में होती है लेकिन जैसे जैसे भाषा देसज से अभिजन में बदलती जाती है वैसे वैसे यह अपनी इस ताक़त खोती जाती है। जब एक पिता अपने बच्चे को डांट रहा होता है, ’अबे स्साले दिनभर चकरघिन्नी बना रहता है’-यहां स्साले गाली न रहकर पिता की बच्चे के भविष्य की चिंता और ममता है। और चकरघिन्नी शब्द तो हवा में घूमती फिरकी का अनायास आंखों के सामने नाचता हुआ बिम्ब है। हर शब्द का अपना एक बाहरी और भीतरी जगत, इतिहास, संस्कार, छवि, लय और ध्वनि है। स्थिर दिखते शब्द परमाणु में घूमते न्यूट्रॉन की तरह भीतर ही भीतर गतिमान रहते है और सही तरह से प्रयोग में लाए जाने से ऊर्जा प्रवाहित करते है। शब्दों से भाषा बनती है और भाषा से अभिव्यक्ति। अभिव्यक्ति साध्य है, भाषा अभिव्यक्ति का साधन है, लेकिन उसका सटीक प्रयोग लेखकीय जिम्मेदारी है, वह इस जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकता। हिन्दी भाषा की दूसरी ताकत उसके मुहावरे हैं। हर मुहावरे के भीतर कहन का एक संसार बसा होता है। ’नाच न जाने आंगन टेढ़ा’, ’राड़ से बाड़ भली’ बस दो ही उदाहरण है। इन्हें खोलकर देखिए कितनी बातें उनमें छिपी हुई हैं। हर लेखक के लिए जरूरी है कि वह रचना में अपने मुहावरे भी गढे। अफसोस है कि अपने मुहावरे गढ़ने की बात तो दूर लेखन से मुहावरे गायब हो रहे हैं और भाषा नंगी होती जा रही है। रचना में कोमल भाषा मुझे बहुत परेशान करती है। उसमें उसकी अक्खड़ता, अकड़, करेर और बांकपन होना चाहिए। जब जीवन ही कोमल नहीं है तो भाषा की कोमलता उसका गुण नहीं हो सकती, भले ही उसमें माधुर्य हो।

तुम्हारी इस बात से मैं पूरी तरह सहमत हूं कि रचनात्मक भाषा शब्दकोश से नहीं, उनसे सीखी जाती है, जो भाषा का व्याकरण नहीं जानते। मुझे एक्सप्लाइटर के लिए शब्दकोश ने ’शोषक’ शब्द सिखाया था लेकिन एक मजदूर ने मेरा शब्दसंस्कार करके बताया कि उसे ’नोचनिया’ कहते हैं। इस शब्द में ज्यादा ताकत है और अनायास बनता बिम्ब भी है।

सरलता भाषा का तीसरा गुण है, लेकिन इसे साधना उसी तरह मुश्किल है, जैसे फ्री हैंड सरल रेखा खींचना। किसी भी बच्चे के हाथ में पेंसिल पकड़ा दो तो वह फूल, पत्ती, चिड़िया वगैरह बना लेगा लेकिन फ्रीहैंड सरल रेखा खींचना तो पिकासो के लिए भी संभव न होता। मुक्तिबोध यहां मुझे कविता और गद्य दोनों में कमजोर दिखाई देते हैं। सरल भाषा का अर्थ सरलीकरण कतई नहीं है। मैंने तो आजतक जितने भी महान रचनाकारों-प्रेमचंद, गोगोल, दास्तोयास्की, चेखब, गोर्की, स्टेनबैक, हेनरी, हैमिंगवे, बक, सेस्पेडिस वगैरह की रचनाएं पढ़ी है, उनमें भाषा की सरलता में जादू रचने का कौशल देखा है।

भाषा पर और भी बातें हो सकती हैं। फिलहाल इतनी ही।

अब कहानी में कहानी की बात।

प्रेमचंद युग की कहानियों में कहानी का एक सुगठित ढांचा है। कहानी अपने मिजाज में बहुत संवेदनशील है। वह हर दशक में अपना मिजाज बदलती जाती है। नई कहानी के दौर में उसका शहरीकरण हुआ। जाहिर है जब कहानी गांव से शहर आई तो उसे अपना लिबास, भाषा, शिल्प, तेवर वगैरह बदलने ही थे। उसने बदले। प्रेमचंदीय कहानी के ढांचे पर प्रहार हुआ। यह ढांचा पूरी तरह से नहीं टूटा। यह कहीं संघन  और कहीं विरल रूप में मौजूद रहा। इन कहानियों में शिल्प और भाषा का नयापन है लेकिन इनकी सामाजिकता संकुचित है और भोगा हुआ यथार्थ का नारा देकर इन्होंने अपनी सामाजिकता को और भी ज्यादा संकीर्ण कर लिया और कहानियों के केंद्र में खुद स्थापित हो गए। कमलेश्वर की आरम्भिक कस्बे की कहानियों में कहानीपन मौजूद है और ये कहानिया जैसें-राजा निरबंसिया, नीली झील, देबा की मां आदि महत्वपूर्ण कहानियां हैं। दिल्ली और मुम्बई के दौर की उनकी कहानियों में कहीं यह ढांचा बना रहता है और कंहीं टूटता है और दोनों ही प्रकारो में उनके पास मांस का दरिया और जो लिखा नहीं जाता जैसी महत्वपूर्ण कहानियां हैं। यादव की कहानियों में कहानीपन कम है लेकिन उनके पास कोई अच्छी कहानी नहीं है सिवा जहां लक्ष्मी कैद है, उसमें कहानीपन मौजूद है। मोहन राकेश की सबसे महत्वपूर्ण कहानी-मलवे का मालिक में भी कहानीपन की रक्षा की गई है। इसके अलावा उस समय की अमरकांत और भीष्म साहनी की बड़ी और चर्चित कहानियां, हत्यारे, डिप्टी कलक्टरी, दोपहर का भोजन, अमृतसर आ गया, चीफ की दावत वगैरह में कहीं न कहीं कहानीपन है।

   कहानी का ढांचा तोड़ने की घोषणा के बावजूद नई कहानी में कहानीपन एक नए रूप में उपस्थित रहा। ये नेहरूयुग के मोहभंग की कहानियां हैं, लेकिन इनमें कोई नया रास्ता तलाश करने की तड़प या संघर्ष दिखाई नहीं देता। कुल मिलाकर ये राजनैतिक दृष्टिशून्य कहानियां हैं। इस दौर की कहानियों का सकारात्मक पक्ष यह है कि कहानी लेखन में महिलाएं भी हिस्सेदार हुई। मैं तो नई कहानी का प्रस्थानबिन्दू ही ऊषा प्रियंवदा की कहानी ’वापसी’ को ही मानता हूं। इस कहानी में भी कहानीपन है। नामवर इसका श्रेय निर्मल वर्मा की कहानी ’परिंदे’ को देते हैं। शायद इसके पीछे उनकी पुरुषवादी मानसिकता रही हो। बहरहाल इस कहानी  में कहानीपन गौण है और लतिका का अकेलापन ज्यादा मुखर है और भाषा-शिल्प का नयापन है। इसके अतिरिक्त उनकी लगभग सभी कहानियां कहानीपन से विरत मऩस्थितियों, अजीब सी उदासी और परिवेश की काव्यात्मक अभिव्यक्तियां है, जिनका एक बहुत बड़ा पाठक वर्ग है। मनोहरश्याम जोशी की कहानियों में लाजवाब भाषा, विलक्षण शिल्प, विट् के साथ कहानीपन है, लेकिन ये संवेदना का कोई धरातल नहीं छूतीं। इस दौर का सबसे बड़ा कहानीकार शैलेष मटियानी है, जिसके पास भाषा-शिल्प, विश्वसनीयता, कहानीपन, संवेदनशीलता का बेजोड संतुलन है। अगर प्रेमचंद के पास दो-चार विश्वस्तरीय कहानियां हैं, तो मटियानी के पास आधा दर्जन से ज्यादा ऐसी कहानियां हैं। महिला कथाकारों में मन्नूभंड़ारी और कृष्णा सोबती ने कहानीपन बनाए रखने के साथ बहुत सी लाजवाब कहानियां दी हैं। काशीनाथ की कहानियों में भाषा का करेर और विट है और वे कहानियां अपनी बात शिद्दत से कहती हैं। इसके विपरीत दूधनाथ के पास बहुत अच्छी भाषा और शिल्प नहीं होने के बावजूद बेहद सशक्त कहानीपन की अविस्मरणीय कहानियां है। शेखर जोशी के पास सामान्य भाषा और शिल्प होने के बावजूद बहुत अच्छी कहानियां है। उनके पास जहां एक ओर कोसी का घटवार जैसी विलक्षण प्रेम कहानी है तो दूसरी ओर दाज्यु जैसी संवेदनशील कहानी है और तीसरी ओर कारखाने के जीवन की बदबू जैसी कहानी है। इनकी सभी कहानियों में झीना ही सही पर कहानीपन देखा जा सकता है। नई कहानी आंदोलन के बावजूद प्रेमचंद परम्परा की कहानियां इस दौर में जीवित ही नहीं रहीं बल्कि रेणु ने तो उन्हें कलात्मक उत्कर्ष पर भी पहुंचाया। इस परम्परा की कहानियां शिवमूर्ति, यादव, वगैरह आज भी एक नई दृष्टि भाष और शिल्प में लिख रहे हैं। इस दौर में मुक्तिबोध ही एकमात्र ऐसे लेखक हैं जिन्होंने कहानी के कहानीपन को फैंटंसी में बदला है। लेकिन उनका रचना विधान जटिल है, जिसके कारण वे एक विशेष बौद्धिकता की मांग करती हैं। यहां एक विचारणीय प्रश्न यह है समतामूलक समाज के निर्माण में, जहां  आदमी के सम्पत्ति वगैरह के बराबर अधिकार की बात की जाती है साहित्य संरचना को इतना दूरूह बनाना न्यायोचित होगा कि वह सामान्य पाठक की पहुंच से दूर हो जाए। 

नई कहानी के बाद उसके समग्र विरोध में अकहानी का दौर आया। कहानी यहां पूरी तरह बदलती दिखाई देने लगी, उसका कहानीपन विरल होता चला गया और एक नई भाषा, कहन के तरीके और भावबोध में आमूलचूल परिवर्तन हो गया। इस दौर का सबसे महत्त्वपूर्ण लेखक ज्ञानरंजन है। उनकी कहानियां एक साथ भीतर और बाहर की यात्रा करती हैं। उनमें बिल्कुल अलग तरह की बोलती भाषा, अनोखा शिल्प और गजब की पठनीयता है। वे अपने वक्त के संकटों के साथ भविष्य के संकटों की ओर भी संकेत करती हैं।

अकहानी के बाद कहानियां पूरी तरह भटक गईं। वे सैक्स और स्त्री की जांधों के गिर्द घूमने लगी। ऐसी कहानियों के खिलाफ कमलेश्वर के घर्मयुग में ’अय्याश प्रेतों का विद्रोह’ नाम से तीन या चार बेहद महत्त्व आलेख प्रकाशित हुए। नक्सलवाड़ी का विद्रोह ने भी कहनियों में राजनैतिक चेतना विकसित की। इस बात को बहुत गहराई से महसूस किया जाने लगा कि कहानियों के केन्द्र में आम आदमी और उसके संकटों को जगह दी जानी चाहिए। एक तरह से इसे नई कहानी का ही विस्तार ही कहा जा सकता था। इसमें इतना ही परिवर्तन है कि कहानी के केन्द्र जहां पहले लेखक खुद स्थापित था, उसकी जगह सामान्यजन ने और भोगे हुए यथार्थ की जगह देखें ओर अनुभव किए यथार्थ ने ले ली। यह समान्तर कहानी आंदोलन था, जिसके साथ दलित पैंथर के प्रखर लेखक भी इसके साथ जुड़े जिन्होंने हिन्दी साहित्य में दलित लेखन का दरवाजा भी खोला। संयोंग से संमातर का मधुकर ऐसा लेखक था जिसका समस्त रचनाकर्म दलित चेतना के साथ राजनैतिक चेतना को समर्पित है, लेकिन उसने आत्मदया बटोरने के लिए अपनी आत्मकथा नहीं लिखी। वह निरंतर पाले बदलकर सीपीआई से एम और फिर एमएल की ओर जाता रहा और झगड़कर जाता रहा तो वामपंथ की साहित्यिक बिरादरी ने उसके साहित्यिक अवदान पर चुप रहीं। इसके बाद इस परिवर्तित साहित्य की राजनीति में उसे इसलिए कभी रेखांकित नहीं किया जिससे दलित साहित्य का सेहरा उसके सिर पर न बंध जाए। बहरहाल संमातर कहानियों में केंद्रित किया गया आम तो जाहिर था कि उसके साथ उसकी कहानियां भी आनी ही थीं। इसी के साथ प्रेमचंद का कहानीपन का मुहावरा भी कहानी में लौटा। संभवतः सुभाष पंत की कहानी ’गाय के दूध’ के साथ यह ठोस रूप में लौटा। यह पुराने ढांचे के पुनःस्थपित करनेवाली टै्रंड सैटर कहानी थी। संभवतः यही कारण था कि यह इतनी पसंद की गई कि इसके अंग्रेजी समेत भारत की विभिन्न भाषाओं में अनुवाद और नाट्य रूपान्तरण हुए। बाद में इस कहानी के ल लेखक ने कहानीपन की इस जकड़बंदी को विरल करने के लिए सेमी फैटेसी का सहारा लेना भी शुरू किया। इस कहानी आंदोलन में चिंरतर वाम की अवधारणा थी कि जब तक एक भी आदमी हाशिए के बाहर है तब तक लेखक की भूमिका निरंतर विरोध की भूमिका में रहेगा। इस आंदोलन का निराशाजनक पक्ष यह रहा कि यह आमआदमी की दयनीय अवस्था  और उसके लिए सहानुभूति तक सीमित रह गया। उसकी संधर्षकामी जिजीविषा पुष्ठभूमि में चली गई। सहानुभूति लिजलिजी होती है। जीवन सहानुभूति से नहीं संघर्ष से बदलता है। इसके अलावा सारिका में छपने के लिए अवरवादी लेखकों एक जमावड़ा भी इस आंदोलन में जुड़ता चला गया और कहानियां टाइप्ड़ होती चली गई। कमलेश्वर जी के सारिका से हटते ही यह सारा कुनबा बिखर गया। शायद मैं ही एक ऐसी बचा रहा, जो तब भी वैसा ही लिख रहा था और आज भी वैसा ही लिख रहा।          

सारिका के बंद होते ही यादवजी ने इस शून्य का लाभ उठाया और हंस के राइट्स खरीदकर इसे पुनर्जिवित किया। यह उनका हिन्दी साहित्य के लिए अविस्मरणीय योगदान है। उन्होंने स्त्री और दलित विमर्श का मुहावरा अपनाया लेकिन वे सिर्फ उसतक सीमित न रहकर दूसरी तरह की कहानियों को लिए भी अपने दरवाजे खुले रखे। कहानी के क्षेत्र में मार्केज का ’जादुई यथार्थवाद’ का सिक्का उछल रहा था। उदय प्रकाश की कहानियों को जादुई यथार्थवाद की कहानियों कहकर भी हंस ने उसे शीर्ष कहानीकार बना दिया। बहरहाल स्त्री विमर्श की कहानियों में कहानीपन का झीना ढांचा है, दलित विमर्श में सधन और जादुई यथार्थवाद की कहानियों में अतिशयोक्ति भरा।

   बाजार के आक्रमण के साथा कहानियांं में अनाश्यक विवरण, नेट से प्राप्त सूचनाओं, भाषा और शिल्प के चमत्कार से भरी कहानियां बड़ी कहानियां मानी जाने लगी और ऐसा लगने लगा कि अब कहानीयां लिचाने के नियम अब मल्टीनेश्नल ही ही निर्धारित करेंगी। लेकिन यह दौर बहुत छोटा रहा। यह पत्रिकाओं का दौर है। हर शहर से पत्रिकाएं निकल रही हैं। कहानियों का धरातल व्यापक हुआ और विविध मिजाज की कहानियां लिखी जा रही है। कहीं कहानी का पारम्परिक ढांचा मौजूद है और कहीं उसका अतिक्रमण भी हो रहा है।                               

क्रूर सलाहों के विरुद्ध

$
0
0
जीवन तकलीफों की खान है। तकनीक के विकास की जितनी भी कोशिशें हैं, तकलीफदेय स्थितियों को कम करते जाने और जीवन परिस्थितियों को सहज बनाने की अवधारणा उसके मूल में निहित दिखाई देती है। नैतिकता और आदर्श की स्थापनाओं के ख्यालों से भरा सारा मानवीय उपक्रम ही नहीं, बल्कि छल-छद्म को रचने वाले विध्वंसक कार्यरूप भी प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष में जीवन को सहज बनाने की अवधारणा से प्रे‍रित होकर ही किये जाते रहे हैं। यही मानवीय लीला है। मनुष्य और अन्य जीवों के बीच यही फर्क, चेतना के रूप में दिखायी देता है। इस फर्क ने ही मनुष्यं को खुद की गतिविधियों की आलोचना करने का भी सऊर दिया है। इसी से समझना आसान होता है कि जीवन को खुशहाल बनाने की बजाय उदास करने वाले उपक्रमों से असहमति एवं विरोध ही कला और साहित्य के कार्यभार हैं। यदि कोई रचना इस तरह के उददेश्य से निरपेक्ष है तो कला की कसौटी पर उसे रचना मानने से परहेज किया जाना चाहिए। रचना की शर्त ही है कि बेहतर जीवन स्थितियों के लिए बेचैनी का विचार वहां होना चाहिए। कान्ता घिल्डियाल की कविताओं में प्रकृति की जो छटाएं हैं, देख सकते हैं कि वे सिर्फ सौन्दीर्य की प्रस्तुति नहीं है, बल्कि मनुष्य जीवन की बेहतरी के लिए उस सौन्दर्य की भूमिका का आंकलन और उसकी अवश्यम्भाविता की पहचान वहां स्‍पष्‍ट है। उसको बचाने की बेचैनी है- ''मैं खोना नहीं चाहती,/ मन ही मन बतियाना पक्षियों से/ निहारना भिन्न्ता को''



हाल ही में कान्ता घिल्डियाल ने हिमांशु जोशी के उपन्यास 'कगार की आग'का गढवाली अनुवाद किया है जो 'बीस बीसि'शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। इससे पूर्व कान्ता घिल्डियाल दो अन्य पुस्तकों 'शहीद अब्दुल हमीद'अर 'मटकू बोलता है'का भी गढ़वाली भाषा में अनुवाद कर चुकी हैं। ये दोनों ही अनुवाद राष्ट्रीय पुस्तक न्यास (NBT) से प्रकाशित हैं। अनुवाद के ये काम कान्ता घिल्डियाल के उस व्याक्तित्वत से परिचित होने का अवसर देते हैं जिसमें एक व्यक्ति के लेखन की ओर उन्मुख होने के कारणों को तलाशा जा सकता है। अपनी धरती, अपनी भाषा और उस भाषा की समृद्धि का ख्याल, कान्ता घिल्डियाल के व्‍यक्तित्‍व की विशेषता बन रहा है। उनके व्याक्तित्व के इस पहलू को जानकर भी उनकी रचनाओं के पाठ तक पहुंचने के रास्ते पर चला जा सकता है।उनकी हिंदी कविताओं का संग्रह 'मुट्ठी भर रंग'शीर्षक से प्रकाशित है। 

प्रस्तुत हैं देहरादून में रहने वाली कान्ताा घिल्डियाल की कुछ नयी कविताएं।


विगौ

कान्ता घिल्डियाल


मेरा वसंत

 

अलसुबह रोज़ र्बोगेनवेलिया पर

आने लगी हैं

घिंडुड़ी, सिंटुली, बुलबुल, तोते,कौऔं

और नन्‍हीं चिड़ियां

 

सूरज की आमद से पहले

शुरू हो जाता है एक सुरीला ऑर्केस्ट्रा

अफसोस कि पड़ोस में है कसमसाहट

नींद में पड़ रहा खलल  

नहीं जानते वे

गाँव और शहर के बीच पुल बन रही बेल

मन-प्राणों पर छा सकती है

सुगंध की तरह,

 

अक़्सर मिलती हैं

बोनसाई बनाने की क्रूर सलाहें

 

मैं खोना नहीं चाहती,

मन ही मन बतियाना पक्षियों से

निहारना भिन्‍नता को

 

वैसे कभी-कभी तो मुझे भी हो ही जाती है शिकायत

बढ़ जाता है बोझ एक अतिरिक्त काम का

हवा से गलबहियां करती शाखें

जब झरती हैं फूल, पत्तियां

 

पर सच कहूं

बोगेनवेलिया के बेल

मेरा वसंत है

तकिया है ,नींद और सपने है

और हर सुबह की 

सुनहरी शुरुआत है।

 

 

मेरा हौंसला हो तुम

 

 

चिड़ियों !

क्या तुम्हें

धूल-धूसरित आसमान में उड़ते हुए

किसी बहेलिए का डर नहीं सताता ?

 

पुष्पकलिकाओं !

क्या तुम्हें खिलखिलाकर हँसते हुए

मसले जाने का ख़ौफ़ नहीं होता ?

 

गर्भ में पल रही,

जन्म लेने को आतुर बच्चियों !

क्या तुम नहीं जानती हो

बड़ी-बड़ी टोही आँखे

हाथों में हथियार लिए

कत्ल करने को तैयार हैं ?

 

नृशंस हत्याओं के धुंध इरादे

खून की लकीरें खींच रहे लगातार

मुझे तो हर पल डराता है

तुम सब मेरा हौंसला हो पर

तुम्‍हें बेखौफ बने रहना है इसी तरह।   

 

 

ए‍क जरूरी भाव

 

 

अपमान की अग्नि

नज़र नही आती

पर बढ़ तो जाता ही है

शरीर का ताप

अंतस की

भीतरी तहों को भेदकर

डस जाती है

सर्पजिभ्या

आत्मा का कोई भी हिस्सा

नहीं रहता घाव विहीन....

 

  

गुलाबी गाँव

 

एक

चैत के महीने भीटों पर

खिली फ्योंली को देख

भले ही पियरी पहने चहक उठता हो गांव

पर गुलाबी नहीं होता

 

रोटी की तलाश में जा चुके बेटों के

कभी-कभार लौटने से भले ही

हरी हो जाती हो गांव की रंगत

पर गांव ग़ुलाबी नहीं होता

 

खेतों को बिलाकर बनी सड़क पर

धूल उड़ाती गाड़ी से उतरती

नई-नवेली दुल्हन को देख

बेशक सतरंगी हो जाता है गाँव

पर गुलाबी नहीं होता

 

गुलाबी हो उठता है गाँव

जब उसे वर्षों बाद दूर धार में दिखती है

अपने पास आती हुई कोई ब्याही बेटी ,

अचानक हो जाते हैं हरे

उससे गलबहियां करने को आतुर

खेतों के किनारे खड़े

भीमल खड़ीक के पुराने पेड़,

चूडियों भरी हथेलियों को चूमकर

स्वागत गीत गाने को आतुर होता है

खुदेड स्वरों में बहता मंगरों का मीठा पानी ,

बरसों बाद उसकी छुअन महसूस कर

उसके पदचिन्हों को चूमती हैं

बचपन के खेलों की गवाह टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियाँ ,

खारे नमकीन पानी से भीग जाती हैं

तिबारी के छज्जे में

माथे पर झुर्रियों भरे हाथ टिकाए

बाट जोहती बूढ़ी आँखें ,

सूनी गलियां सुहागन बन पूछती हैं

कुटुंब-परिवार की कुशल-क्षेम ,

जंक लगे तालों संग

आँखों के कोरों को पोंछती हैं

सीलन और उदासी से नम हो चुकी

खाली खूंटों की पहरेदारी करती

गोबर मिट्टी से लिपी दीवारें ,

सुहाग की सलामती के साथ

दूधो नहाओ पूतो फलो के

आशीषों से नवाजते हैं

वीरान पड़े देवी-देवताओं के मंडुले ,

संबंधों में गरमाहट का गवाह

गांव के बीचोबीच खड़ा पीपल

अंग्वाळ बटोरकर पूछता है हाल

लाडो ! 

गाँव तो बेटियों के होते हैं

जब तक बेटियाँ न बिसराएँगी इसे

तब तक गुलाबी ही रहेंगे गाँव।

 

दो

गाँव से शहर ब्याही गयी

बेटियों के सपनों में रोज़ आते हैं

छूट चुकी नदी , पहाड़

और सीढ़ीनुमा खेत

 

नदी की गोद में गिरता झक्क सफ़ेद झरना

सुरों में बहने लगता है

कानों में संगीत घोलती है

गाँव को जाती सड़क

चीड़ , देवदार , काफ़ल और बुरांस

शहर की उमस भरी गर्मी को सोख लेना चाहते हैं

देह और आत्मा में ठंडक घोलता है

धारे-मंगरों का ठंडा-मीठा पानी

उदास मुख पर

उजास बिखेरता है

गाँव की सुबह का बाल सूरज

 

तीन

सूरज की किरणों से 

बिखरता है सोना पहाड़ पर

हवा संग गलबहियां कर

गीत गाते हैं पत्ते

उड़ती चिडियाँ

छज्जे पर आकर

घर के साथ जोड़ती है

पहला संवाद।

पहाड़ के हँसने , रोने , गाने

और नाराज़ होने की

पहली राज़दार होती हैं नदियाँ..


गैट अप, स्टेंड अप, ग्रो अप

$
0
0
पिछले दिनों अपनी निजी यात्रा से लौटे कथाकार और आलोचक दिनेश चंद जोशी के मुताबिक जुलाई 2022 के शुरुआती सप्ताह में आस्ट्रेलिया जोशो-खरोश से मनाये जाने वाले दृश्य व खबरों से रंगा रहा। 4 जुलाई से 11 जुलाई तक एबओरिजनल और टौरिस स्ट्रेट आइसलेंडर समुदाय की कमेटी ने सप्ताह भर के कार्यक्रमों से सराबोर एक उत्‍सव का आयोजन किया। बल्कि, उस पूरे सप्ताह आस्ट्रेलिया के समस्त आदिवासी समुदाय की संस्कृति,कला,सभ्यता एवं उनकी उपलब्धियों के प्रचार प्रसार और उनके संघर्षों के प्रति सम्मान जताने हेतु सरकारी,गैर-सरकारी तौर पर संचेतना कार्यक्रम आयोजित किए गये। कार्यक्रमों के श्रृंखला की वर्ष 2022 की थीम था,"गैट अप, स्टेंड अप,और ग्रो अप"। साथ ही आस्ट्रेलियन ब्राडकास्टिंग कारप़ोरेसन (ए.बी.सी) का 90 वां बर्ष मनाये जाने की धूम टी वी पर थी। इस रेडियो स्टेशन की शुरुआत 1932 में हुई थी।


दिनेश जोशी कहते हैं कि दिसम्‍बर और जनवरी माह के आस-पास उत्‍तर भारत में रिमझिम बारिश का जो मौसम होता है और जैसी कड़क ठंड होती है, जुलाई माह का आस्ट्रेलिया लगभग उसी रिमझिम बारिश के गीले मौसम सा होता है। उसी दौरान, स्कूलों में तीन सप्ताह का अवकाश रहा। भ्रमण व सैर-सपाटे की गहमागहमी चारों ओर थी। मौसम की वजह से ही नहीं बल्कि जाड़ों की लगातार बारिश के कारण आसपास के निचले इलाकों में बाढ़ व घरों में पानी भर जाने के जो दृश्य वहां दिख रहे थे, उस वक्‍त आट्रेलिया उन्‍हें हूबहू अपने भारतीय शहरों की बरसात के मंजर जैसे लग रहा था। यह प्रश्‍न उनके भीतर उठ रहे थे, 'जल निकासी की व्यवस्था यहां भी विश्वसनीय नहीं है क्या?'इन उठते हुए प्रश्‍नों के साथ जिस आस्‍ट्रेलिया से वे हमें परिचित कराते हैं, मेरे अभी तक के अनुभव में वैसा आस्‍ट्रेलिय शाश्‍द ही कहीं दर्ज हो। आइये पढ़ते हैं जोशी जी का वह संस्‍मरण।

विगौ

दिनेश जोशी 


आस्ट्रेलिया हमारे इतिहासबोध में सुदूर स्थित पृथ्वी के नक्शे से अलग एक बेढंगे गोल शरीफे जैसे भूखंड के आकार का महाद्वीप है। रोचक तथ्य यह भी है कि आज यही महाद्वीप एकमात्र ऐसा भूखंड है जिसमें सिर्फ एक ही देश है। हमारी मिथकीय जानकारी और कल्पना के अनुसार दुनिया की सबसे पुरातन जनजातियों के लोग कभी यहां रहते थे। ब्रिटिश उपनिवेश के प्रारम्भिक दौर से पहले तक उन मूल जनजातियों की संख्या लाखों करोड़ों में बताई जाती है।
लेकिन अब इस महाद्वीप में समायी पचानबे प्रतिशत आवादी ब्रिटिश,आइरिस,ग्रीक,यूरोपीय,चीनी,
जापानी,कोरियाई,ईरानी लेबनानी, वियतनामी तथा अपने भारत,पाकिस्तान, बंग्लादेश,श्रीलंका, मलेशिया, इंडोनेशिया आदि दक्षिण एशियाई देशों के मूल नागरिकों से अटी पड़ी है।

यहां अब मिश्रित व मूल आदिवासी समुदाय की जनसंख्या लगभग आठ लाख है जो महाद्वीप की कुल,ढाई तीन करोड़ की आबादी का चार प्रतिशत बैठता है।
इस आवादी से थोड़ा कम लगभग तीन प्रतिशत तो यहां भारतीय मूल के लोग ही रहते हैं।
तो,तीन करोड़ की कुल आवादी में इतने कम मूल निवासियों का बचा होना क्या दर्शाता है! निश्चित रूप से यह आंकड़ा हैरतअंगेज​ करने वाला भले ही न हो पर विचारणीय व विमर्श के लायक तो है ही।
यहां के महानगर व उपनगरों में शक्ल सूरत से पहचान में आने वाले मूल निवासी तो बिल्कुल नजर नहीं आते,हां,बताया जाता है कि सुदूर दक्षिण व उत्तरी क्षेत्र के भीतरी इलाकों में वे पहचान में आ जाते हैं। इतने वर्षों बाहरी लोगो के सम्पर्क में आने से,यूं भी शुद्ध जनजातीय रक्त वाले वंशजों का मौजूद होना नामुमकिन है। अभी पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट में जज नियुक्त हुए,पहले आदिवासी समुदाय से ताल्लुक रखने वाले सज्जन की फोटो टीवी पर देखी थी। वे रंग में गोरे,पर नाक नक्श से जरूर जनजातीय अन्वार लिए लग रहे थे।
मौसम के बरसाती तेवर के बीच बारिश के थोड़ा थमते ही बिल्कुल नीचे प्रतीत होते आसमान में बादलों के धुंए जैसे छल्ले हवा के वेग से चरवाहे की हांक से भागते भेड़ों के रेवड़ जैसे प्रतीत हो रहे हैं। प्रशान्त महासागर के इतने करीब के बादल ऐसे चलायमान नहीं होंगे तो कहां के होंगे,सोचता हुआ मैं यहां के औपनिवेशिक काल के शुरुआती इतिहास के प्रति जिज्ञासु हो उठा।


अफ्रीकी महाद्वीप से पुराआदि काल में हुए एकमात्र मानव प्रवास के प्रमाणिक सूत्र,आस्ट्रेलियाई​ जनजातीय समुहों के डी.एन.ए में पाये गये हैं,जोकि इसको विश्व की प्राचीनतम सभ्यता साबित करते हैं। आज से पचास साठ हजार वर्ष पुरानी जीवित संस्कृति के कस्टोडियन कहे जाने वाले लगभग तीन सौ विभिन्न भाषाई व रीति रिवाजों से भरे जन समूह वाले इस द्वीप के पूर्वी तट,यानी वर्तमान शिडनी में में जेम्स कुक नामक अंग्रेज नाविक ने सन् 1770 में कदम रख कर ब्रिटिश राज की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया था। सुदूर सागर के मध्य ऐसी खुली धरती पाकर ब्रिटिश उपनिवेशकों ने द्वीप पर कब्जे की योजना बना ली।शुरुआत में इंग्लैंड की जेलों में बढ़ी हुई कैदियों की संख्या को इस धरती पर बैरक बना कर,यहां भेज देने के साथ ही आगामी कब्जे का शिलान्यास कर दिया गया।इसीलिए आस्ट्रेलिया को ब्रितानी अभियुक्तों का ठिकाना कहा जाता है।
सन 1788 में कैप्टन आर्थर फिलिप अपने जहाज में अभियुक्तों, नाविकों व कुछ अन्य नागरिकों से भरे 1500 लोगों के साथ शिडनी कोस्ट में उतरा। उसके बाद,साल दर साल विधिवत अंग्रेजों की रिहाइशों का यहां के भिन्न-भिन्न तटों पर बसना प्रारंभ हो गया।मूल निवासियों के साथ हुए संघर्ष व हिंसा के अगले दस वर्षों में आदिवासियों की आवादी घट कर काफी कम हो गई। जिसके लिए जिम्मेदार, मुख्यतया बाहरी लोगों के आने से फैली नई बीमारियों,स्माल पाक्स,मिजिल्स, दिमागी बुखार व अन्य महामारियों के साथ उनकी जमीनों को हड़पने में हुए खूनी संघर्ष के दौरान हुई मौतें हैं।
जनजातीय लोग निर्ममता पूर्वक साफ कर दिये गये, उनको खाने हेतु आर्सेनिक जैसे जहरीले रसायनों से युक्त भोजन तक दिये जाने की बातें पढ़ने को मिलती हैं ।इन वर्षों में हुए संघर्षों में लगभग 20000 आदिवासियों तथा दो ढाई सौ यूरोपीय लोगों के मारे जाने के आंकड़े मिलते हैं।औपनिवेशिक काल के संघर्षों के बाद कुल सात आठ लाख मूल लोगों के बचे होने का अनुमान लगाया जाता है।
उत्तरोत्तर,औपनिवेशिक बसावट के बाद अगले सौ वर्षों में मूल निवासियों की जनसंख्या घट कर डेड़ लाख से भी कम आंकी जाती है। सन 1900 तक इनकी संख्या डेड़ लाख तक रह गई।
आखिरी शुद्ध रक्त वाले तस्मानियाई ,'एबओरिजनल'शख्स की मौत 1876 में हुई बताई जाती है।मतलब कि मिश्रित वर्णसंकरता पहले ही काबिज हो चुकी थी।
1850 के आसपास सोने की खानों के पता चलने तथा उसकी खुदाई के तरीके जान लेने के बाद तो इस द्वीप का आर्थिक रूप से कायाकल्प हो गया। यहां की अपार खनिज सम्पदा की भनक यूरोप,चीन,यू.एस.ए तक पंहुची। हजारों चीनी मजदूर गोल्ड माइंस में काम करने आये,जो प्रथम चायनीज सैटिलमैंट के कारक बने। उनके वंशज आज,यहां की आवादी में बहुतायत के रूप में मौजूद हैं।
इस गोल्ड रस परिघटना के कारण ही यहां बहुभाषी,बहुधर्मी,विविधतापूर्ण संस्कृति की शुरुआत होने लगी,जो आज परिपक्व हो कर एक आदर्श जनतांत्रिक देश के रुप में पल्लवित नजर आती है,इस देश का कोई सरकारी संवैधानिक धर्म नहीं है, पचासों भाषाओं व दर्जनों धार्मिक मान्यताओं के लोग यहां जितने अमन चैन सहकार व सहअस्तित्व के साथ रहते हैं, वैसे अन्य देश विरले ही होंगे। नागरिकता यानी 'सिटीजनशिप'ही यहां का परम नागरिक धर्म है।
बहरहाल,औपनिवेशिक शासकों ने बाद में मूल निवासियों के संरक्षण संवर्धन व उनकी सभ्यता संस्कृति कला को बचाये रखने हेतु सहानुभूति पूर्वक काम किये,क्योंकि इस महादेश में निर्विवाद रूप से उनका राज था।उन्हें हमारे देश,भारत जैसे किसी स्वतंत्रता संग्राम का सामना भी नहीं करना पड़ा। अगर इतनी पुरानी आस्ट्रेलियाई जनजाति की हमारे यहां जैसी,वैदिक,रामायण,महाभारतकालीन सभ्यतायें,राज्य साम्राज्य,सल्तनत,सूबे व शिक्षा,कला संस्कृति होती तो आजादी की मांग भी उठती तधा औपनिवेशिक शासकों को लौटना
पड़ता । दुर्भाग्य से यहां के समस्त आदिवासी समुदाय का बाहरी सम्पर्क से अभाव,व विशाल सागर के मध्य स्थित द्वीप में अलग थलग पड़े पड़े रहने के कारण ऐसा हुआ होगा।


1901में 6 विभिन्न ब्रिटिश उपनिवेशों,न्यू साउथ वेल्स,क्वींसलैंड, विक्टोरिया, तस्मानिया,साउथ कोस्ट व पश्चिमीआस्ट्रेलिया को मिला कर 'कामनवेल्थ आफ आस्ट्रेलिया'नाम से इस देश का संवैधानिक जन्म हुआ।उसके पश्चात आधुनिक राष्ट्र के सभी गुण यहां की सरकारों ने अंगीकार करने प्रारम्भ किये।
जनजातियों की घटी हुई जनसंख्या में भी संरक्षण संवर्धन नीतियों से वृद्धि होना प्रारम्भ हुई।उनके सम्मान व अधिकारों हेतु बने सुधारवादी ग्रुपों​ ने समय समय पर अपने पूर्वजों के साथ हुए अत्याचारों व वर्ताव पर नाराजी जाहिर की,आवाज उठाई तथा प्रतिकर व पश्चाताप की मांग के साथ भूमि अधिकारों सहित तमाम रियायतों व सुविधाओं के हक प्राप्त किये।
'आस्ट्रेलिया दिवस',जो कि 26 जनवरी 1788 को प्रथम औपनिवेशिक जहाज के इस धरती पर उतरने की स्मृति में मनाया जाता है,उस के विरोध में जनजातीय ग्रुपों ने 1938 से 1955 तक लगातार विरोध,बहिष्कार किये इस दिन को 'शोक दिवस'के रूप में मनाया। जनजातीय संगठनों के संघर्षों व मानव अधिकार समितियों के प्रयास के साथ ही
इशाई मिशनरियों के हस्तक्षेप के कारण सरकार के साथ सुलह समझौते के प्रयास फलीभूत हुए।रिकन्सीलियेसन कमेटी व विभाग बने।
1972 में सरकार ने अलग से 'डिपार्टमेंट आफ एबओरिजनल अफेयर्स'का गठन किया।
आज वे लोग शिक्षित,सम्पन्न व सरकारी नौकरियों में हैं। सरकारी व रिजर्व जमीनें,पार्क,फार्मलैंड आदि उनके निजी नाम पर भले ही न हों पर प्रतीकात्मक रुप से उनके पूर्वजों की मानी जाती हैं।
उनसे कोई हाऊसटैक्स,लगान,आदि नहीं ली जाती।
हां,कामनवैल्थ देश होने के कारण ब्रिटिश महारानी के क्राउन का सम्मान व परंपरा का पालन अवश्य किया जाता है।
सार्वजनिक स्थानों पर आस्ट्रेलियाई झंडे के साथ एबओरिजनल,व टौरिस स्ट्रेट द्वीप के प्रतीक दो और झंडे और फहराये जाते हैं। टौरिस स्ट्रेट,क्वींसलैंड और पापुआ न्यू गुइना के मध्य स्थित द्वीप है। जहां के मूल निवासी आस्ट्रेलियाई एबओरिजनल आदिवासियों से भिन्न माने जाते हैं।जगह जगह पार्कों ,भवनों आदि में "देश का आभार"शीर्षक से स्मृति पटों पर लिखा मिलता है,
'हम एबओरिजनल तथा टौरिर स्ट्रेट आइसलैंडर जातियों के अतीत,वर्तमान व भविष्य का सम्मान करते हैं,हम इस धरती पर उनकी जीवित संस्कृति,गाथाओं व परंपराओं को आत्मसात करते हुए साथ साथ मिल कर इस देश के उज्जवल भविष्य के निर्माण हेतु प्रतिबद्ध हैं।'
इशाई धर्म की मिशनरियों के प्रभाव व वैचारिक सोच वाले राष्ट्रों की यह खूबी है कि वे पश्चाताप व कन्फैशन वाली उदारता दर्शाने में पीछे नहीं हटते तथा समझौता,सुलह या 'रीकन्सलियेसन'जैसी नीति के माध्यम से पीड़ित,प्रताड़ित जनों के घावों पर मरहम फेर कर द्वंद से बचते हुए भविष्य को उज्जवल बनाने में यकीन रखते हैं।इसी कारण उनकी सरकारों में अलग से रीकन्सीलियेसन विभाग'बनाये जाते हैं।
यह नीति भले ही कूटनीति हो,अगर राष्ट्रों में अमन चैन और समुदायों के बीच भाईचारा बढ़ता हो तो क्या नुकसान है!
****

नमक की बूंदें

$
0
0

स्वाद की सबसे आधारभूत जरुरत की जब भी बात होगी, नमक के जिक्र के बिना वह बात पूरी नहीं हो सकती. बल्कि ऐसी कोई भी बात तो नमक का जिक्र करते हुए ही शुरु होगी. इस तरह से देखें तो जीवन के सत को यदि कोई परिभाषित कर सकता है तो निश्चित ही वह तत्व नमक हो सकता है. ॠतु डिमरी नौटियाल की कविता में यह नमक बार बार प्रकट होता है. उदासी के हर क्षण में स्त्री मन की भाव दशा को रेखांकित करने के लिए ॠतु उसको सबसे सहज और सम्प्रेषणीय प्रतीक के रूप में इस्तेमाल करती है. अपनी उपस्थिति से स्त्री और पुरुष के भीतर को प्रभावित कर देने की क्षमता संपन्न नमक की यह भी विशेषता है कि वह अपने सबसे करीबी के कंधों में टंगे थैलों में कुछ गैर जरुरी किताबों के साथ बैनर पोस्तर हो जाना चाहता है. प्रस्तुत है ॠतु की कुछ कविताएँ.

 
ऋतु डिमरी नौटियाल
शिक्षा : स्नातकोत्तर (सांख्यिकी) 
कृतित्व :

समर प्रकाशन द्वारा (प्रकाशानाधीन) सौ कवियों की कविताओं के साझा संग्रह में कविताएँ सम्मिलित

आजकल पत्रिका के जून अंक में कविताएँ प्रकाशित

इंदौर समाचार दैनिक पत्र में कविताएँ प्रकाशित 
मोबाइल नंबर : 9899628430


 

ॠतु डिमरी नौटियाल 




भार 

 

 जब तक हवा रही भीतर

 फेफडों में  आक्सीजन बनकर

 उड़ती रहीं गुब्बारे के मानिंद,

 

अब शून्य है

लेकिन भारी  इतना

कि उठने ही न दे

मानो कैद हो गयी देह

कोठरी में

 


निशान

 

नदी!!

मरने के बाद

गहराई छोड़ जाती है;

 

आंसू!!

ढुलकने  के बाद

लकीर छोड़ जाते हैं;

 

भाषा!!

विलुप्‍त कर दिये जाने के बाद भी

इतिहास छोड़ जाती है;

 

विछोह !! 

छोड जाता है स्मृतियाँ

उस घाव की तरह

जिसे कुरेद कुरेद के

हरा किया जा सकतता है प्रेम

 

कहाँ खतम हो पाता है सब कुछ यूंही  

 

   

पूरक

 

मेरा तुमको देखना

तुम्हारा मुझको देखना

कभीएक सा नहीं

 

मेरे भीतर के जंगल में

तुम बोन्साई ढूंढते हो,

कतरते हो एक एक टहनी

संभावित बाग के लिए

 

जब तुम पतझड़ बनते हो

मैं पेड़ बन जाने की कामना करती हूँ

जिसमें तुम अपना बसंत आना भी देख सको

 

 

जब मैं रेगिस्तान में 

ढूढती हूं प्‍यास

छायाएं भ्रम खडा कर देती हैं

तुम भी उस वक्‍त मेरे भीतर

बो देते हो कैक्टस

 

जब तुम अपने भीतर के समन्दर में

मोती होने का दावा करते हो

मुझे मिलती हैं सिर्फ नमक की बूंदें

प्यास बुझाने की झिझक में

जिन्‍हें मीठा कर देती हूँ मैं

 

 


 नमक

 

उतर गया शरीर का

सारा नमक

बचा रह गया

फिर भी आंसुओं में,

एक कतरा

सहेज लेना चाहती है

फिर से अपने भीतर

कहने और सुनने का बोध

$
0
0
कानपुर में रहने वाले युवा कवि योगेश ध्यानी की ये कविताएं यूं तो शीर्षक विहीन है. लेकिन एक अंतर्धारा इन्हें फिर भी इतना करीब से जोड्ती है मानो खंडों मे लिखी कोई लम्बी कविता हो. एक ऐसी कविता, जिसका पाठ और जिसकी अर्थ व्यापति किसी सीमा में नहीं रहना चाह्ती है. अपने तरह से सार्वभौमिक होने को उद्यत रहती है, वैश्विक दुनिया का वह अनुभव, पेशेगत अवसरों के कारण जिन्होंने कवि के व्यक्तित्व में स्थाई रूप से वास किया हो शायद. कवि का परिचय बता रहा है पेशे के रूप में कवि योगेश ध्यानी मर्चेंट नेवी मे अभियन्ता के रूप मे कार्यरत है. अपनी स्थानिकता के साथ गुथ्मगुथा होने की तमीज को धारण करते हुए वैश्विक चिंताओं से भरी योगेश ध्यानी की ये कविताएँ एक चिंतनशील एवं विवेकवान नागरिक का परिचय खुद ब खुद दे देती है. पाठक उसका अस्वाद अपने से ले सके, इस उम्मीद के साथ ही इन्हें प्रकाशित माना जाये.

परिचय:

आयु– 38 वर्ष

मर्चेंटनेवीमेअभियन्ताकेरूपमेकार्यरत

साहित्यमे छात्र जीवन से ही गहरी रुचि

कादम्बिनी, बहुमत, प्रेरणा अंशु, साहित्यनामा आदि पत्रिकाओं तथा पोषम पा, अनुनाद, इन्द्रधनुष, कथान्तर-अवान्तर, मालोटा फोक्स, हमारा मोर्चा, साहित्यिकी आदि वेब पोर्टल पर कुछ कविताओं का प्रकाशन हुआ।

कुछ विश्व कविताओं के हिन्दी अनुवाद पोषम पा पर प्रकाशित हैं।



कविताएं


योगेश ध्यानी


1

किसी के पूरा पुकारने पर
थोड़ा पंहुचता हूँ
ढूंढता हूँ कहाँ हूँ
छूटा बचा हुआ मैं

होने और न होने के बीच
वह क्या है जो छूट गया है
जिसमें पूर्णता का बोध है

पूरा निकलता हूँ घर से
और आधा लौटता हूँ वापस
थोड़ा-थोड़ा मन मार आता हूँ
इच्छाओं पर
खाली मन में
अनिच्छाएं लिये लौटता हूँ

कोई दाख़िल नहीं होता
समूचा भविष्य में
अतीत में छूटता जाता है थोड़ा
मैं छूटता जा रहा हूँ थोड़ा सा
स्वयं से हर क्षण

जीवन जब आखिरी क्षण पर होगा
सिर्फ सार बचेगा
उससे ठीक पहले पिछले क्षण में
छूट चुका हूंगा सारा मैं ।

 

2

अधूरी पंक्ति के पूरा होने तक
लेखक के भीतर रहता है
कुछ अधूरा

हर लेखक के भीतर रहते हैं
कितने अधूरे

हर अधूरा दूसरे अधूरों से
इतना पृथक होता है
कि सारे अधूरे मिलकर भी
नहीं हो पाते पूर्ण

एक लेखक
जीवन भर ढोता है अपूर्णताएं
और दफ्न हो जाता है
मृत्यु पश्चात
उन सारे अधूरों के साथ
जिनके भाग्य में नहीं थी पूर्णता ।

 

3

एक आदमी कुछ कह रहा है
बाकी सब समवेत स्वर में कहते हैं
"सही बात"

बतकही चलती रहती है
कुछ समय बाद
दूसरा आदमी कहता है
पहले से ठीक उल्टी बात
बाकी सब फिर कहते हैं समवेत
"सही बात"

ये सब किसी मुद्दे के हल के लिए नहीं बैठे
अपने-अपने सन्नाटों से ऊबकर
सिर्फ साथ बैठने के सुख के लिये
बैठे हैं साथ ।

4

गेंहू और पानी जितने अलग हैं,
बाहर से
तुम्हारे और मेरे दुख

मगर भीतर से इतने समान
कि यकीन जानो
गूंथा जा सकता है उन्हें,
बेला जा सकता है
और बदला जा सकता है
खूबसूरत आकार की
रोटियों में ।


5

कब चाही मैंने हत्या,
रक्त के पक्ष में कब सुनी
तुमने मेरी दलील

मैंने तो रोपना चाहा जीवन,
चाहा सदा फूलों का सानिध्य

किस सांचे में ढाली
तुमने मेरी धार

तुम तो समझ सकते थे
कुल्हाड़ी और कुदाल का फर्क

मेरे मन की क्यों नहीं सुनी
तुमने लोहार !


एक पारदर्शी प्रकाशकीय उपक्रम

$
0
0

कुत्ते का आत्म समर्पण
युवा कथाकार मितेश्वर आनन्द की एक ऐसी रचना है जिसका यथार्थ एक ऐसे पिता के चित्र को सामने लाता जो अपने भीतर की नफरत और सनक के लिए अपने पांच साल के बच्चे को इस कदर प्रताड़ित करता है कि अपनी नफरत और घृणा को तार्किक आधार देने के लिए पिता जब अपने बालक को गवाह की लिए इस्तेमाल करता है तो भयातुर बच्चे को एक झूठ को ही सच की तरह रखना होता है. बहुत ही सहजता से लिखी गई इस कहानी को यदि हम इस तरह से करते है कि यह अभी तक के एक अनाम-से लेखक की कहानी है तो तय है कि कहानी हमे इकहरे पाठ सी दिखेगी, और हो सकता है लेखक के निजि रूप से जानने के कारण भी हम उसका सीमित अर्थो वाला पाठ ही करें, लेकिन यदि काव्यांश प्र्काशन से प्रकाशित हुए मितेश्वर आनंद के कथासंग्र्ह हैंड्ल पैंडलकी अन्य रचनाओं को भी पढेगे तो पाएंगे कि देश दुनिया की राजनिति को देखने और समझने के लिए इन कहानियों के कथानक खासे सहायक हो रहे हैं और एक रचनकार की मौलिकता के स्पष्ट हस्ताक्षर हो जा रहे हैं.

संग्रह की एक अन्य कहानी, मद्दी का रावणको यहां इसी उद्देश्य के साथ पुन: प्रकाशित किया जा रहा है इस ब्लाग के पाठक एक उर्जावान रचनाकार की रचना से सीधे साक्षात्कार कर सके. इस कहानी की खूबसूरती को देखने के लिए कहानी को पूरा पढ जाने के बाद शीर्षक को दुबारा से पढने की जरुरत है. देख सकते है कि शीर्षक कथापात्र के पुतले की बात कर रहा. कथा पात्र को स्वयं रचनाकार के रूप में रख कर पढ़ें तो लिखी गई कहानी अपने उस औचित्य तक पहुंचने में मद्द कर सकती है जो कहानी के मर्म के रूप में उस अंतिम वाक्य में सिमटा हुआ है, “मेरे ख्याल से संसार में एकमात्र मद्दी ही ऐसा शख्स होगा जिसे रावण के मरने का दुःख मंदोदरी से भी ज्यादा होगा।
 “हे राम! हाय रे मद्दी! हाय रे तेरा रावण!

कहानी से बाहर जा कर रचनाकार के वक्तव्य को भी यहां देखा जा सकता है, “वैसे मुझे हर आम आदमी में मद्दी दिखाई देता है जो न जाने कब से मंगू एंड गैंग के हाथों ठगा जाता रहा है। उसे सब्ज़बाग दिखाकर उसका इस्तेमाल किया जाता है। बार-बार कोई मंगू उसको झूठे सपने दिखाने में कामयाब हो जाता है। मज़े की बात यह है कि हर दफा मद्दी मंगू झांसे में आ जाता है। अपनी मेहनत और विश्वास उस पर लुटाता है और हर बार मंगू उसकी मेहनत का श्रेय ले जाता है। मंगू मन मसोसकर रह जाता है। फिर एक नया मंगू आता है। फिर से मद्दी का रावण बनने लग जाता है।“

मितेश्वर आनंद के इस संग्रह से परिचित होने का अवसर पिछ्ले कुछ समय से ही दिखायी दिये काव्यांश प्रकाशन, ऋषीकेश के मार्फत सम्भव हुआ.

यह देखना दिलचस्प है कि हिंदी प्रकाशन की वर्तमान दुनिया को हाल ही में सामने आये दो प्रकाशकों ने काफी हद तक बदल कर रख दिया है. यह उल्लेखनीय है कि राष्ट्रीय स्तर पर न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन, नई दिल्ली ने और उत्तराखंड के स्तर पर काव्यांश प्रकाशन, ऋषीकेशने लेखकों की गरिमा को ससम्मान रखने का जो जेस्चर पोस्चर दिया, उसके कारण लेखक को ही ग्राहक मानने वाली प्रकाशकीय चालबाजियों पर कुछ हद तक लगाम लगी है. लेखक प्रकाशक सम्बंध ज्यादा पारदर्शी हो, हलांकि उस दिशा में यह अभी एकदम शुरुआती जैसी स्थिति है, लेकिन आशांवित कर रही है.



विगौ


कहानी


मितेश्वर आनन्द 



मद्दी का रावण



मद्दीएकबहुतहीकाबिल, सुसंस्कृतऔरगुणीलड़काथा।यारोंकायार।मंगू, मुरारी, बच्चीऔरलखनउसकेजिगरीयारथे।शैतानीमेंचारोंकेचारोएकसेबढ़करएक।मद्दीएकशरीफलड़काथाजोअपनेदोस्तोंकेबीचऐसेहीफँसगयाथाजैसेकौरवोंकेबीचकर्ण।मंगूइनकालीडरथा।येचारोंबैट-बॉलखेलतेरहतेतोमद्दीइनकेबस्तोंकीरखवालीकरता।दोस्तीकेचक्करमेंइसेभीपीरियडगोलकरनापड़ता।अक्सरइनचारोंकेचक्करमेंबेचारामद्दीमास्टरजीकेहाथोंधुनाजाता।मगरदोस्तीफिरदोस्तीठहरी।

 

येपांचोंसरकारीमिडिलस्कूलमेंपढ़तेथेजिसेतंबूवालास्कूलकहाजाताथा।  सरकारीस्कूलथासोदसियोंसालसेबिल्डिंगकानक्शाबजटकीराहदेखतेदेखतेफाइलोंमेंदमतोड़चुकाथा।उधरमंगूऔरगैंगजैसेबदमाशलड़कोंनेतंबुओंमेंनुकीलीचीज़ेमारमारकरअनेकोंछेदकरदिएथे।इनअसंख्यछिद्रोंमेंसेकुछेकछिद्रोंसेआनेवालीधूपजबगणितकेगुप्तासरजीकीगंजीचाँदपरनव्वेअंशकाकोणबनाकरपड़तीतोएकअद्भुतखगोलीयघटनाघटती।गुप्तासरगणितपढ़ानेसेज्यादाविद्यालयकेदफ्तरीकार्योंमेंज्यादामगनरहतेथे।अक्सरक्लासमेंवेअपनीकुर्सीपरबैठेबैठेफाइलोंकेपन्नेउलटतेपलटतेरहते।

 

तोहोताकुछयूँकिऊपरतंबूकेछेदसेउनकीचमकदारचाँदपरपड़नेवालीकिरणेउनकीशीतलचाँदकोअलगअलगकोणोंसेगरमकरतीरहतीथी।फाइलोंकेपन्नोंमेंडूबेगुप्तासरजीभीउसीहिसाबसेअपनीचाँदकोखुजातेरहते।उनकीचाँदकेदक्षिणीध्रुवकोगरमातीहुईधूपउत्तरीध्रुवकीजमाबर्फपिघलादेतीऔरगुप्तासरजीकीसिरखुजातीउंगलियांभीउसीअनुरूपयात्राकरती।बच्चेरोजघटितहोनेवालीइसअद्भुतखगोलीयघटनापरमनहीमनवाहवाहकरउठते।

 

दशहरानज़दीकरहाथाऔरइसदौरानयेलोगरोजरातकोरामलीलादेखनेजातेऔरलौटतेसमयरावणलीलाकरतेहुएलौटते।एकदिनसुबहस्कूलसेभागकरशैतानोंकीयहटोलीदशहरेपरघूमनेकीप्लानिंगकरनेलगीबातोंबातोंमेंगैंगकेलीडरमंगूनेसुझावरखाकिक्योंइसबाररावणकापुतलातैयारकरकेउसेमोहल्लेमेंहीजलायाजाए।सभीकोविचारभागया।उसीसमयमद्दीनेबड़ेगर्वकेसाथबतायाकिउसेपुतलेबनानेऔरफूँकनेकापुरानातजुर्बाथाक्योंकिउसनेअपनेपड़ोसीसुक्खीपहलवानकीशागिर्दीमेंकईनेताओंकेपुतलेबनायेऔरफूंकेथे।मंगूनेमद्दीकीपीठथपथपाईऔरऐलानकियाकिआजहीसेमोहल्लेकेसभीघरोंसेचन्दाइक्कठाकरकेरावणकेपुतलेकेलिएपैसेजुटालिएजाएं।दशहरेसेएकदिनपहलेमद्दीकीबनाईलिस्टकेमुताबिकततारपुरसेसारासामानलेआयागयाऔरदशहरेकेदिनसुबहसुबहमद्दीरावणकापुतलाबनानेमेंजुटगया।  

 

मद्दीनेसबसेपहलेसारेसमानकोखुदउठाकरपुतलाबनानेवालीजगहपरसहूलियतसेरखाफिरपूरेदमखमसेबांसचीरने, कागजकाटने, गोंदलगाने, रंगलगाने, लोहेकेतारसेबांसकेजोड़ोंकोबांधने, ढांचेमेंपटाखेलगानेजैसेकामकरनेमेंलगारहा।मंगूऔरबाकीदोस्तबहुततारीफभरीनजरोंसेमद्दीकोदेखतेरहतेऔरबीचबीचमें'शाबाशमद्दी, लगारह।तूतोछिपारुस्तमनिकलाबे।'कहकरसिर्फजुबानीजमाखर्चसेउसकीहोंसलाअफ़ज़ाईकरतेमगरमजालक्याकिसीएकनेभीमद्दीकीसुईउठानेजितनीमददकीहो।इधरमंगूनेऐलानकियाकिउसेभूखलगगयीहैसोवहघरजाकरनाश्तापानीकरकेआएगा।साथहीउसनेबाक़ियोंकोनिर्देशदियाकिमद्दीपरपैनीनज़रबनायेरखीजाएताकिवोइधरउधरहोनेपाए।

 

बेचारामद्दीजोघरसेकेवलएककपचायपीकरकामपरलगगयाथाउसकोकिसीनेकुछनहीपूछा।तकरीबनएकघण्टेबादमंगूवापिसलौटा।लौटतेहीउसनेपुतलानिर्माणमेंधीमेपनकीशिकायतकरतेहुएमद्दीकोफटकाराऔरउसेतेजी  कामकरनेकीहिदायतदी।मंगूकोनाराज़देखकरमद्दीकीनाश्ताकरनेकीप्रबलइच्छादबगई।इसीबीचएकएककरमद्दीकेबाकीदोस्तभीअपनेअपनेघरजाकरखापीकरलौटआयेपरकिसीनामुरादनेमद्दीकोएकगिलासपानीतकपूछा।वोतोभलाहोसामनेवालेशंटीचोखेकीमम्मीकाजिन्होंनेएकबारउसेचायपिलाई।

 

होतेकरतेमद्दीनेभूखप्यासऔरबीचबीचमेंमंगूकीफटकारझेलतेझेलतेदोपहरकेसाढ़ेचारबजेतकशानदारपुतलातैयारकरकेखड़ाकरदिया।सातफुटकाशानदाररावणकापुतलाबनाथा।पुतलेकोबांधकरअंतिमरूपसेगलीकेबीचोंबीचखड़ाकरदियागया।गैंगलीडरमंगूनेचमकभरीआंखोंसेपुतलेकोदेखाऔरशामकोसातबजेपुतलाफूँकनेकासमयमुकर्ररकिया।मद्दीको'शाबाशमद्दी'केअलावाकोईदूसराशब्दतारीफकासुननेकोनहीमिलाजैसेदिनभरमेंउसेशंटीचोखेकीमम्मीसेमिलीचायकेअलावाएकदानातकनसीबहुआथा।अबमद्दीकोजबरदस्तभूखसतानेलगी।पुतलादहनमेंढाईघण्टेकासमयशेषथा।वोघरकीओरदौड़पड़ा।

 

इधरमंगूऔरबाकीदोस्तपुतलेकेसामनेहीखड़ेरहे।गलीसेआतेजातेआंटी, अंकल, भैयाआदिपुतलादेखकरमंगूऔरटोलीकीतारीफकरते।उधरमद्दीज्योंहीघरपहुंचा, उसकीमाताजीउसपरटूटपड़ी।दिनभरबिनाबताएघरसेबाहररहनेपरउसेतमांचेजड़ेऔरजीभरकरडांटपिलाई।समय-समयपरअपनेऊपरहोनेवालेमाँकेबाहुबलऔरवाणीकेआक्रमणोंकामद्दीअभ्यस्तहोचलाथा।सोउसेकोईफर्कनहीपड़ा।दिनभरकामकरतेरहनेसेपसीनेऔरधूलमिट्टीसेउसकेकपड़ेबासमारनेलगेथे।मद्दीपहलेनहानेचलागयाउधरईजानेमद्दीपरबड़बड़ातेदिनकेबनेखानेकोगर्मकिया।नहाधोकरमद्दीनेजमकरखानाखायाऔरलेटगया।लेटेलेटेउसकीआँखलगगयी।

 

अचानकआँटीनेउसेझकझोड़करउठाया।उठतेहीउसकेकानोंमेंअपनीमाँकेकटुवचनोंकेसाथ-साथपटाखेफूटनेकीआवाज़ेसुनी।घड़ीदेखी, संतुष्टिहुईकिअभीसाढ़ेछहहीबजरहेथे।आधाघण्टाशेषथा।सोमद्दीइत्मीनानसेउठकरपुतलेकीओरचलपड़ा।जैसेहीवहपुतलास्थलपरपहुँचा, उसकेकदमोंतलेजमीनखिसकगई।पुतलाफूंकाजाचुकाथाउसकेअवशेषजमीनपरबिखरेपड़ेथे।मंगूऔरटोलीमोहल्लेकेलोगोंकेसाथवहीपरमौजूदथी।लोगमंगूकीतारीफकररहेथे।मंगूऔरबाकीदोस्तोंकीनज़रमद्दीपरपड़ीउन्होंनेउसेकोईखासभावनहीदिया।उल्टेउसेहड़कातेहुएकहा, 'कहांमरगयाथारे! सबनेजल्दीजल्दीपुतलाजलानेपरजोरदियाइसलिएहमनेसाढ़ेछहबजेहीपुतलाजलादिया।

 

हायराम! मद्दीकेदिलकेभयानकटीसउठी।सारादिनभूखेप्यासेरहकरउसनेपुतलाबनाया।दिनभरकामकरकरकेउसकेसभीअंगप्रत्यंगदुखरहेथे।तारीफकेदोशब्दतोछोड़ोमगरइनकमीनोंनेरावणफूंकतेसमयउसेबुलायातकनही।हेईश्वर! ऐसेदोस्ततोदुश्मनतककोमतदेना।हाय! मैंअपनेबनायेरावणकोएकबारठीकसेदेखतकपाया।मंगू, मुरारी, बच्चीऔरलखनकीशैतानियोंकेकिस्सोंपरकभीबादमेंबातकरेंगेमगरआजमद्दीएकबड़ीविदेशीकम्पनीमेंबड़ाअफसरहै।तबकादिनहैऔरआजकादिनहैअगरकोईबन्दागलतीसेभीमद्दीसेदशहरेऔररावणकेपुतलेकीबातकरताहैतोमद्दीउसकोमारनेउसकेपीछेदौड़पड़ताहै।उसकेजख्महरेहोजातेहैं।बेचारेमद्दीकीकिस्मत, हरसालकोईकोईनामुरादउसकेजख्मोंकोहराकरहीदेताहै।मेरेख्यालसेसंसारमेंएकमात्रमद्दीहीऐसाशख्सहोगाजिसेरावणकेमरनेकादुःखमंदोदरीसेभीज्यादाहोगा।

 

हेराम! हायरेमद्दी! हायरेतेरारावण!

स्मृतियों का शहर

$
0
0
पिछ्ले दिनों मेरा भोपाल जाना हुआ. वहां जाकर मुझे मालूम हुआ कि भोपाल भी देहरादून की तरह की ऐसी जगह है, रोजी रोजगार की वजह से भोपाल पहुुंचा शख्स एक उम्र गुजार लेने के बाद फिर कहीं दुसरी जगह जाना ही नहीं चाहता, यहां तक कि अपने गृह प्र्देश  लौटने की बजाय वहीं बस जाने के लिए एक छोटी सी झोपडी जुटा लेना चाहता है. यदि किन्हींं कारणों से गृह प्रदेेश लौटना भी हो गया तो जेहन से न तो देहरादून निकलता है और न भोपाल. 
भोपाल में ही मालूम हुआ कि भोपाल के बाशिंदा एवंं हिंदी गजल के पर्याय दुष्यंत के पूर्वज तो  पश्चिमी उत्तरप्रदेश निवासी रहे. मेरे मित्र, प्रशिक्षण क्षेत्र के राष्ट्रीय व्यक्तित्व एवं तुरंता हास्य को जन्म देने वाले कलाकार ओ पी द्विवेदी ने, जिनका युवा दौर दुष्यंत जी के सानिंध्य में बीता, वायदा किया है कि वे दुष्यंत के जीवन के अभी तक उधाटित न हो पाये कुछ चित्रों की स्मृतियोंं से हमेँ परिचित कराएंगे. उम्मीद है देहरादून शहर की स्मृतियों पर आधारित श्री प्रकाश मिश्र का संस्मरण भाई ओ पी द्विवेदी को उनके वायदे के स्मरण मेँ ले जा सकने में सक्ष्म होगा. श्री प्रकाश मिश्र, एक समय की महत्वपूर्ण लघु पत्रिका उन्नयन के संपादक रहे हैं. वर्तमान में इलाहाबाद में रहते हैं. ज़पनी स्मृति के शहर- देहरादून और वहाँ के लोगों के संग साथ हाँसिल अनुभवों को वे यहां सांझा कर रहे हैं. विगौ       

स्मृतियों में बसा नगर : देहरादून :


श्री प्रकाश मिश्र


इसी अगस्त की यही सोलहवीं तारीख थी,जब मैं १९७९ में देहरादून पहुंचा आइजाल से शिलांग , शिलांग से लखनऊ, लखनऊ से मेरठ ‌होकर। ट्रैन शाम को पहुंची, खूब बारिश हो रही थी, इसलिए मैंने स्टेशन पर पड़े रहने को ठानी , प्रथम श्रेणी के प्रतिक्षालय में स्थान लिया। पहले रिटायरिंग रूम का कमरा लेना चाहा, पर देनेवाला सक्षम अधिकारी नहीं मिला। शाम आठ बजे के बाद उपस्थित परिचारक परेशान हो गया। अब कोई ट्रेन आने -जाने वाली नहीं थी। यह‌ समय उसके घर जाने का था। वह मेरे पास आया और बोला,"कब जाएंगे साहब?"मैंने कहा,"कल दस बजे।"वह परेशान हो गया। कहा , "रात में यहां रुकने की इजाजत नहीं है साहब।""किसने ‌कहा "मैंने पूछा, तो उसने बेहिचक जवाब दिया, "स्टेशन मास्टर ने।""उन्हें बुलाओ", मैंने कहा, "उनका कहना गलत है।"मैं बिस्तर लगाने में लग गया। मेरी छरहरी काया और विशाल मूंछों के नाते वह मुझे फौजी समझ रहा था। कहा,"फौज की गाड़ी आई तो थी सात बजे। आप गये नहीं।""मैं क्यों जाता फौज की गाड़ी से?"मैंने कहा। वह और परेशान ‌हो गया और उसी परेशानी में कहा, "शैलानी हैं? शैलानियों को यहां रुकने की कोई इजाजत नहीं। पास में होटल हैं, वहां जाइए।"मैंने कड़ाई से कहा,"मैं आज रात यहीं रहूंगा।"वह कुछ देर तक घूरता रहा, फिर चला गया। आधे घंटे बाद आया और बोला, "स्टेशन मास्टर साहब बुला रहे हैं।"मैं उस वक्त खाना खा रहा था। मेरठ में मित्र बने ‌ स्टेनो टी.पी.सिंह ने शुद्ध घी की पूड़ी तरकारी बांध दी थी, जो वाकई बड़ी स्वादिष्ट थी। गुस्सा तो लगा, पर उस पर नियंत्रण कर उंगली से इशारा कर कह, "खा करि आता हूं।"
मैं खाना ‌खा कर स्टेशन‌मास्टर के कमरे में गया। वे रजिस्टर में आंख गड़ाए होने का नाटक करते मुझे आपाद-मस्तक कुछ देर तक देखते रहे। मैं भी उन्हें अपनी आर-पार चीर कर देखनेवाली आंखों से (जैसा कि मेरी प्रेमिकाएं कहती रही हैं) देखता रहा। फिर उन्होंने कहा, "आप हायर क्लास वेटिंग रूम में रुके हैं?"मैंने कहा,"जी हां।"उन्होंने कहा,"सुरक्षित नहीं ‌है, साहब। चोर-उचक्के रातभर घूमते हैं। वेटिंग रूम को भीतर से बंद करने की इजाजत नहीं ‌है।""मैं उनकी तलाश में रहता हूं।"मैंने कहा। "वे समूह में आते हैं , छुरा -चाकू रखते हैं।""मैं भी हथियार बंद हूं।"
आप हथियार लेकर रुके हैं?""जी।"उनके चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं। कहा,"आप क्या करते हैं?""सी.बी.आइ.में अफसरी।"साहब - साहब कहकर वह घिघियाने लगा, "पहले बताए होते।""आपने मौका‌ही बाद में दिया।"
वह उठ खड़ा हुआ। "मैं आप के दफ्तर फोन कर गाड़ी मंगा देता हूं या सवारी कर देता हूं।""नहीं मैं चुपचाप बिना बताए ही वहां जाना चाहता हूं कल दफ्तर के समय। आज यहीं रहने दीजिए। हां यदि रिटायरिंग रूम बुक कर दें तो कृपा होगी।""हां -हां "करते हुए उन्होंने एक कमरा बुक कर कहा कि आधा घंटा लगेगा कमरा ठीक करने में। चद्दर कंबल यहां रहता नहीं, लोग दुरुपयोग करते हैं।""ठीक है",‌मैंने कहा।

सुबह आठ बजे तैयार हुआ। सामान क्लाक रूम में जमा किया । जैसा कि मेरी आदत है नये नगर को पैदल चलकर देखना, उसके लिए निकल पड़ा।रात भर पानी बरसा था। सोचा कि सड़कें पानी और कीचड़ से भरी होंगी। पर वे धुलकर साफ चमक रही थीं। स्टेशन से बाहर निकल कर अपने दफ्तर का रास्ता पूछा और और चल पड़ा। अगले ही मोड़ पर जैन धर्मशाला और अग्रवाल धर्मशाला था, खूब भव्य। सामने मिठाई -पूडी की दुकान थी। दही -जलेबी का नाश्ता किया। स्वाद ऐसा था कि मजा आ गया। चलते चलते पलटन बाजार के चौक पर पहुंचा। शिलांग में पुलिस बाजार, गोरखपुर में उर्दू बाजार --सभी फौज से जुड़े। चौक पर घंटाघर है। ऊपर दो - तीन लोग चढ़े थे। उनके देखा - देखी मैं भी चढ़ गया। अजनवी को देखकर वे चौंक गये। पूछा,"कौन" ? मैंने कहा,"शहर में नया आदमी हूं। यहां से पूरे शहर को नजर घुमा कर एकसाथ देखना चाहता हूं।"वे सफाई वाले थे।एक खिड़की खोल दी। वहां से पूरे शहर को देखा। चारो तरफ छोटी छोटी पहाड़ियां थी, बीच में विस्तृत मैंदान में बसा शहर। तभी उत्तर तरफ से चल कर एक बादल का विशाल काला टुकड़ा नगर पर टंग गया। लगा कि कटोरी जैसी घाटी में दही की साढ़ी जैसे बादल जम गये ‌हों। वहां से उतर कर हाथीबड़कला चला। वहीं कालिदास रोड पर मेरा दफ्तर था,१३-ए बंगले में। तब कालिदास रोड देहरादून का सबसे पोश इलाका माना जाता था। टिहरी के राजा और तमाम सेवानिवृत्त बड़े फौजी अधिकारियों के बंगले वहां थे। जिस बंगले में मेरा दफ्तर था, उसे देख कर चकित रह गया। लगभग एक एकड़ में लीची का बाग था, कुछ आम के पेड़। गेट पर ही चन्दन और कपूर के क ई गाछ। बीच में दक्षिणी किनारे पर एकपलिया लाल बंगला, लंबोतरा। आधे से दफ्तर, आधे में मेरा आवास। देखकर तबीयत खुश हो गई।
मैं गेट खोलकर भीतर घुसा।दफ्तर में घुसते वक्त जिसने मुझे टोका उसका नाम दाता राम काला था। जैसा नाम, वैसा ही रूप। लम्बा, दुबला पतला, चुचका चेहरा, बेहद काला। बाद में पता चला कि वे पितांबर दत्त बड़थ्वाल के गांव के हैं। बड़थ्वाल हिंदी के प्रथम डी लिट् थे। नाथ संप्रदाय पर काम किया था। इसलिए बड़ा नाम था। उनके भतीजे के दो बेटे लखनऊ में मेरे विभाग में तैनात थे। पता चला कि उस गांव के अधिकांश लोग बड़े कुरूप होते हैं। पितांबर जी की संतानें भी बड़ी कुरूप हुईं, बिल्कुल बंदर जैसी और प्रतिभा से शून्य। वे कुछ कर नहीं पाईं। मैं तो उनसे कभी मिला नहीं।
ग्यारह बजे से ज्यादा हो रहा था, पर अठ्ठारह लोगों में सिर्फ तीन लोग हाजिर थे। तो मुझे ठीक बताया गया था कि लोग भरसक दफ्तर आते नहीं, और जो आते हैं, वे दो बजे के बाद दारू पीते हैं और घर चले जाते हैं। इसलिए वहां कुछ काम - घाम नहीं होता। पर बाद में पता चला कि लोग फिल्ड में काम पूरा करके लंच के बाद आते हैं। देहरादून बहुत फैला शहर है। फौज के अड्डे और तिब्बतियों के इलाके बहुत दूर-दूर हैं। इसलिए यह नियम बनाना कि लोग पहले दफ्तर आएं, फिर फिल्ड में जाएं, बहुत उपयोगी नहीं हो सकता था। ड्राइवर आया तो एक व्यक्ति को साथ लेकर स्टेशन गया और अपना सामान ले आया। इस बीच हमारे रहने के हिस्से को ‌साफ-सुथरा कर दिया गया था। रहने के साथ-साथ खाने-पीने की भी समुचित व्यवस्था तुरंत हो गयी।

उसी बंगले के आउटहाउस में बंगले के मालिक के सबसे छोटे बेटे ठाकुर रहते थे। उनका पूरा नाम याद नहीं आ रहा है। वे हम -उम्र थे , इसलिए तुरंत खूब पटने लगी। पता चला कि यह बंगला उनके पिता ने एक अंग्रेज से खरीदा था, जब अंग्रेज भारत छोड़ कर जाने लगे। पिता नेपाली मूल के भारतीय फौज में अफसर थे। बाद में रक्षा मंत्रालय में चले गए थे और डिप्टी सेक्रेटरी होकर सेवा निवृत्त ‌हुए थे और सपरिवार यहां रहने लगे थे। ठाकुर क ई भाई थे, जिनकी आपस में नहीं पटती थी। वे ठाकुर को देखना नहीं चाहते थे, क्यों कि वे एक दूसरी जाति की लड़की से शादी कर लिए थे। मकान किराए पर देने का कारण भी यही था कि वे घर छोड़ कर चले जांय। पर ऐसा हो नहीं पाया। वे आउटहाउस में बने रहे। वे‌ पहले नेपाल पौलिस में थे। कब वह काम छोड़ कर होटल प्रेसिडेंट में नौकरी करते थे। उनसे देहरादून के बारे में काफी कुछ पता चला। यह भी कि देहरादून की कुल जनसंख्या में एक तिहाई नेपाली हैं। उन्होंने कालिदास रोड के तमाम घरों में लेजाकर मेरा परिचय करवाया। ऐसे बहुत कम लोग होते हैं जो अपने पूरे मित्र समाज को नये मित्र को‌सौंप देते हैं।
उसी सड़क पर घूमते हुए मैंने एक दिन एक भव्य ब़गले के सामने नेमप्लेट पढ़ा , "एस.एम. घोष"।मैं चौंका, इसलिए नहीं कि उस सड़क पर किसी बंगाली का होना अजीब था, बल्कि इसलिए कि वह नाम कुछ कुछ जाना था। बांग्लादेश की लड़ाई समाप्त हो जाने के बाद मैं कुछ दिन धुबुड़ी में रुका। बंगाली की पुस्तक रमनी विक्षा में मैं धुबुड़ी की उत्पत्ति की कथा पढ़ चुका था कि नगर का यह नाम एक धोबिन के कारणि पड़ा था, जो यहां ब्रह्मपुत्र के तट पर कपड़ा धोती थी।उस जगह को देखने की मेरी बहुत इच्छा थी। पर कोई दिखा नहीं पाता था। एक दिन मेरे एक मातहत नन्दी (
पूरा नाम भूल रहा हूं ) ने घोषबाड़ी में ले जाने की बात कही। घोष लोग वहां के पुराने जमीनदार रहे हैं, जैसे गौरीपुर और लखीपुर के जमींदार। गौरीपुर घराने से प्रमथेश बरुआ हुए, जिन्होंने पहली देवदास फिल्म बनाई, जिसमें सहगल के गाये गानों को रेडियो सिलोन पर सुनकर हमारी पीढ़ी बड़ी हुई। लखीपुर के जमींदार मन से अंग्रेजों की मातहती स्वीकार नहीं कर पाए। वे दोनों घराने असमिया हैं। घुबुड़ी का घोष घराना बंगाली है। एस.एन.घोष उसी घराने के थे। वे संभवतः पहले आइ.पी.एस. बैच के थे,असम कैडर के। जब नागालैंड को अलग राज्य बनाने का निर्णय गृहमंत्रालय ने लिया तो उन्होंने उसका भरपूर विरोध किया। वे उस वक्त केंद्र के इंटेलिजेंस ब्यूरो में शिलांग में उपनिदेशक के रूप में नियुक्त थे। उनका कहना था कि इससे नगालैंड की समस्या नहीं सुलझेगी, ऊपर से असम के अनेक टुकड़े होने का का रास्ता खुल जाएगा। तत्कालीन आई बी के निदेशक भोला नाथ मलिक ने उनकी दूरदृष्टि की भूरी -भूरी प्रशंसा की है। घोष साहब इस निर्णय से इतना आहत हुए कि आई बी की नौकरी छोड़ दी। फिर असम ही छोड़ दिया। असम सरकार उन्हें आई जी बनाकर रखना चाहती थी। पर वे नहीं माने। देहरादून आकर बस गए। मर गये, पर असम नहीं गये। बोर्ड देखकर लगा कि यह उसी घोष साहब का घर है। इच्छा हुई कि तुरंत उनसे मिलूं। पर हिम्मत नहीं पड़ी। सोचा कि पहले दफ्तरवालों से पता करूंगा, फिर समय लेकर मिलूंगा। दफ्तरवालों को उनके बारे में कुछ पता नहीं था। क ई दिन उनके घर के सामने से गुजरा। फिर एक दिन ठान लिया कि मिलूंगा ही। शाम को उनके घर की कालबेल दबा दी। नौकर के हाथ में अपना परिचय पत्र थमा दिया। कहा कि साहब को देकर कहो कि मैं मिलना चाहता हूं। वे तुरंत बाहर आए। मुझे बैठक में ले गये । आने का उद्देश्य पूछा। वे अंग्रेजी में बोल रहे थे, हिंदी भाषी समझकर। मैं औपचारिकता के बाद बंगाली में बोलने लगा। इससे वे बहुत आकर्षित हुए। मैं चलने को हुआ तो वे बार-बार आने के लिए बोले। यह भी कहा कि क ई वर्षों से सुनता हूं कि आप लोगों का दफ्तर यहां है। पर कभी कोई नहीं आया। आप पहले आदमी हैं। फिर मैं अक्सर वहां जाने लगा।

महीने भर के भीतर मैंने उन तमाम लोगों से संबंध बना लिया जो मेरी नौकरी में काम आने वाले थे, फिर रुटीन काम में लग गया। मुझसे उम्मीद की गई थी कि मैं सेना से विशेष संबंध बना कर रखूंगा, जिसका मुझे विशेष अनुभव ‌था और देहरादून में इसकी बेहद कमी थी। इसी सिलसिले में मेजर प्रभाकर से‌मुलाकात हुई। वे मराठी मूल के इलाहाबादी थे। विद्यार्थी जीवन में बहुत अच्छ फुटबाल खेलते थे और क ई वर्षों तक यू.पी. एलेवेन में रहे। मुझे फुटवाल का खेल देखना बहुत अच्छा लगता था, क्योंकि स्वयं अच्छा खेल नहीं पाता था। प्रभाकर लेफ्ट आउट पोजीशन से खेलते थे और बहुत ही अच्छा ग्रासकट किक मारते थे। मैं उनका प्रशंसक था और थोड़ी जान-पहचान हो गयी थी। कोई ग्यारह वर्षों बाद मिलने पर लगा कि जैसे वह जान-पहचान दोस्ती हो। एकदिन दोपहर बाद वे अपने कलीग कप्तान के.पी.सिंह के साथ मिलने आये। हम उनको लेकर लान में बैठ गये और एक मातहत को चाय वगैरह की औपचारिकता के लिए सहेज दिया और कमरे से बिस्कुट वगैरह लाने के लिए भेजा। काफी देर हो गयी, पर वह आया नहीं। उधर प्रभाकर चलने की बात करने लगे। एक दूसरे आदमी को भेजकर सामान मंगा खातिरदारी की औपचारिकता पूरी की। उनके चले जाने के कुछ देर बाद वह आदमी मेरे सोने के कमरे से बाहर आया और हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। मुझे उसपर क्रोध तो बहुत आया पर, उस पर नियंत्रण कर कहा,"जाओ"। वह वैसे ही हाथ जोडे खड़ा रहा। मैंने फिर कहा कि जाओ। उसने कहा कि मैं एक बात कहना चाहता हूं साहब। मैंने कहा, "मैं समझ गया हूं, जाओ।""नहीं साहब आप मुझे क्षमा कर दें।"
"कर दिया "
वह थोड़ा खिसिया कर हंस कर कहा,"मैं क्षमा उसके लिए नहीं मांग रहा हूं कि चाय की व्यवस्था नहीं कर पाया। उसके लिए तो जो सजा दें, भुगतने के लिए तैयार हूं। मैं क्षमा दूसरी बात के लिए मांग रहा हूं।"
मैं चौंका और प्रश्नवाची निगाहों ‌से देखा। उसने कहा, "मैंनै आपकी डायरी पढ़ी है।"
मुझे ख्याल आया कि सुबह डायरी मेज पर खुली छोड़ दी थी। वही पढ़ा होगा। कहा, "कोई बात नहीं। उसमें तो बस इधर-उधर की बातें लिखीं हैं, कुछ प्रकृति के चित्र वगैरह..."
"नहीं साहब, यदि उनमें थोड़ा सुधार कर दिया जाय, थोड़ी सिमेट्री बदल दी जाय तो वे अद्भुत कविताएं बन जाएंगी।"
मैं उसके 'सिमेट्री'शब्द के प्रयोग पर चौंका, पर कहा कि तुम कविता के बारे में क्या जानते हो?
तभी दाता राम काला अपने स्थान से बैठे ही बोले,"यह बहुत अच्छा गाता है साहब!"
मैं क्षण भर के लिए सोचता रहा, फिर कहा, "ठीक है दफ्तर के ‌बाद इनका गाना सुनते हैं।"
जब वह जाने लगा तो मैंने उसे गौर से देखा : कंधे ‌से नीचे तक लटकते बाल, दुबली -पतली लचकती काया। ससुर नचनिया ही ‌होंगे--मन-ही-मन कहा।
दफ्तर बंद कर सभी ल़ोग लान में बैठे। शाम होने में देरी थी। पश्चिम तरफ आसमान साफ था, इसलिए वृक्षों की परछाइयों से लान ‌भरा था। पूरब तरफ से बादल का एक पारदर्शी टुकड़ा आ कर स्थिर हो गया था। उत्तर की तरफ से हवा बह रही थी, न ठंडी, न गर्म। दक्षिण तरफ के आम के पेड़ पर धामिन (घोड़ा पछाड़) सांप चिड़िया के पुराने घोंसले में जीभ डाल रहा था। उसने गाना शुरू किया,"जिंदगी है एक शिकन रुमाल की/देखते ही देखते उड़ जाएगी यह चिरैया डाल की'। गाना समाप्त किया तो मैंने कहा,"यह तो कुंवर बेचैन की कविता है।"
उसने कहा,"वे मेरे मित्र हैं।"
मैं चौंका, सहसा विश्वास ही नहीं हुआ। कहां वे पोस्ट-ग्रेजुएट कालेज में प्राध्यापक और कहां यह जुनियर अफसर! पूछा,"कैसे?"
उसने बताया कि हम एकसाथ मंचों पर जाते हैं।
"तुम खुद गीत लिखते हो?"
"जी हां।"
"सुनाओ"
उसने सुनाया : दर्द मेरा मनमीत बन गया
सुधियों के आंगन में पल कर
गंगाजल सा पुनीत हो गया.....
उसकी आवाज में जो खनक थी, वह अद्वितीय थी, जो वेदना थी उससे सबकी आंखें नम हो गई। मुझे विश्वास हो गया कि यह कोई सामान्य आदमी नहीं है। मुझे अपने अबतक के व्यवहार पर बड़ा पछतावा हुआ। मैं क्षमा तो नहीं मांग सका, पर आगे बहुत विनीत हो गया। उसका नाम राजगोपाल सिंह था।



एक दिन सुबह राजगोपाल सिंह आये और मेरी डायरी ले गये। दो-तीन घंटे तक पढ़ते रहे और निशान लगाते रहे। मुझे लौटाते हुए कहा कि जहां -जहां निशान लगाया है उनको यदि एक सिमेट्री में लिखा जाय तो अच्छी कविताएं बन जाने की संभावना है। मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि उसने निशान उन्हीं अंशो पर लगाया है, जिन्हें लेकर मैंने कुछ कविताएं अंग्रेजी में लिखी थीं शिलाङ में १९७४-७५ में जो इलुस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया में छपी थीं। पर तब मैंने कवि बनने के लिए नहीं सोचा था।(शिलाङ प्रसंग की चर्चा कभी मैं अलग से करूंगा। वैसे वह रघुवीर शर्मा को दिये साक्षात्कार में आया है और डा. सुरेश चंद्र संपादित 'रचनाधर्मिता की परख'में संकलित है।) इससे मुझे लगा कि उसे कविता के बारे में --कथ्य और शिल्प, दोनों स्तरों पर-- गहरी जानकारी है, मुझमें कवि बनने की प्रतिभा देख रहा है और उसे बाहर लाना चाह रहा है।
मैंने उसका विस्तृत परिचय पूछा। पता चला कि वह रूड़की के पास मंगलौर के एक गांव का रहनेवाला है। जाति का नाई है। पिता हमारे ही विभाग में अधिकारी हैं दिल्ली में तैनात। गाजियाबाद के एक कालेज से हिंदी साहित्य में एम.ए. प्रिवियस तक पढ़ा है। पढ़ाई पूरी नहीं कर पाया क्योंकि पिता की कमाई से घर नहीं चल पाता था। उन्होंने बड़े अधिकारियों से कह कर इस पद पर रखवा दिया। ट्रेनिंग के बाद पोस्टिंग काला पानी, धारचूला, माना आदि में होती रही। पिछले दो साल से देहरादून में है। तीन बच्चे हैं। उन्हें किसी तरह से जिला रहा हूं। कविता लिखना पढ़ते समय से ही शुरू कर दिया था। उसी समय से आज के गीतकारों से परिचय होने लगा था। पर महत्व सिर्फ कुंवर बेचैन को देता हूं। कविता ‌सिर्फ उनके गीतों में ‌है। दूसरे गला और चुटकुला के बल पर कमाते - खाते हैं। उसने यह भी बताया कि देहरादून में कुछ बड़े अच्छे साहित्यकार हैं। उन सबसे उसका परिचय है मैं चाहूं तो वह सबसे परिचय करा सकता है। उनसे मिलने - जुलने से रचना में निखार आएगा, उनके वजन का पता चलेगा, आज की प्रवृत्तियों का ज्ञान होगा, आगे बढ़ने का मौका मिलेगा। मैं साहित्य की इस दुनिया को देखने के लिए अपने को मन ही मन तैयार किया।

राजगोपाल ने प्रतिदिन किसी न किसी साहित्यकार के यहां चलने की योजना बनाई। राय दी कि उनसे भरसक उनके घर जाकर मिला जाय और घर सरकारी वाहन से न जाया जाय। घर पर मिलने से आत्मीयता बढ़ेगी। सरकारी वाहन से जाने पर एक तो अगल-बगल के लोगों का अनावश्यक ध्यान खिंचेगा, दूसरे जिसके घर जाएंगे वह महत्वपूर्ण आदमी आया जानकर स्वागत और औपचारिकता ‌ में लगा रहेगा, इससे आत्मीयता नहीं ‌‌स्थापित हो पाएगी , जो हमारा उद्देश्य है। मुझे उसकी बात में दम लगा। लगा कि वह सामाजिक व्यवहार के बारे में कितना अनुभव रखता है। वैसे भी उन दिनों सिर्फ तीस लीटर पेट्रोल मिलता था महीने भर में जो दफ्तर के काम के लिए भी पूरा नहीं पड़ता था। उन दिनों मेरे पास क्रुसेडर मोटरसाइकिल थी, फिरोजी रंग की चमकती हुई, जिसे मैं शिलाङ से लाया था। अभी चलाने में उतना पारंगत नहीं हुआ था। कुछ दिन अभ्यास करने में लगाया। राय दिया कि वह अपने बाल कटा डाले, रोज दाढ़ी बनाये। जमाना छायावाद का नहीं था कि सुमित्रानंदन पंत या रवींद्रनाथ टैगोर की तरह लंबे बाल रखे जांय और और उर्दू के कवियों की तरह गम में डूबा दिखा जाय। उसने मेरी बात पर अमल किया।
हम जिया नहटौरी से मिलने पहले गये कि सुखबीर विश्वकर्मा से, ख्याल नहीं आ रहा है। दोनों पल्टन बाजार के घंटाघर के दक्षिण काम करते थे। घंटाघर से जो सड़क सीधे दक्षिण जाती है, उसी पर कोई दो सौ मीटर चलकर जिया का स्टूडियो था, एक पुराने मकान की दूसरी मंजिल पर। फोटोग्राफी उनकी जीविका का साधन थी। हम पहुंचे तो लगा कि जैसे वे प्रतीक्षा कर रहे हैं। शायद राजगोपाल उन्हें सुबह दफ्तर आते वक्त बता आए थे। नाटा कद, दाढ़ी -मूंछ सफाचट, सफेद कुर्ता -पायजामा, पान से रंगे दांत और होठ। बड़ी गर्मजोशी से मिले। परिचय के बाद खुल कर बातें करने लगे, समकालीन उर्दू कविता के बारे में। अब मैं अमीर अली का उर्दू साहित्य का इतिहास अंग्रेजी में पढ़ चुका था, जिसमें अंतिम कवि के रूप में मोहम्मद इकबाल का जिक्र था। उसके आगे मेरे लिए सबकुछ नया था, इसलिए काफी जिज्ञासा थी। अंत में उन्होंने ग़ज़ल कहने का सुझाव दिया और उसका व्याकरण सिखा देने का वादा किया। पहली ही मुलाकात में हम इतने खुले कि आगे मुझे जब भी मौका मिलता था, नि: संकोच टाइम -बेटाइम उनके पास चला जाता था।
सुखबीर विश्वकर्मा से मुलाकात उनके वैंग्वार्ड प्रेस में हुई। घंटाघर से सीधे जो सडक पश्चिम जाती है, उसी पर कुछ दूर चलकर एक छोटा -सा खुला मैंदान था, जिसके दक्षिण तरफ वह प्रेस था, जहां वे काम करते थे।वैंग्वार्ड एक चार पेजी साप्ताहिक था, जिसके तीन पन्ने अंग्रेजी के होते थे, एक पन्ना हिंदी का, जिसमें कुछ साहित्य भी छपता था। बाद में वह दैनिक हो गया। सुखबीर विश्वकर्मा उस पन्ने के संपादक थे। पता चला कि वे स्वयं ठीक -ठाक कविताएं नहीं लिखते , पर कविता के बारे में उनका ज्ञान अच्छा-खासा है। नाटा कद, कुछ ज्यादे ही नीला रंग, ऊपर से ललछ ऊं, आगे के कुछ दांत गायब, बाकी पीक से रंगे, काफी हद तक गंजा सिर, चौकोर चेहरा लगभग सपाट, ठुड्डी नुकीली, नाक उठी हुई, काइयां आंखें, पूरे चेहरे पर सामने वाले के प्रति उपेक्षा का भाव। हम जब पहुंचे तो वे काम में व्यस्त थे, अखबार छप रहा था, वे फाइनल टच दे रहे थे। खाली हुए तो परिचय हुआ, कुछ बातें हुईं, चाय पीया गया। जब हम चलने लगे तो उन्होंने कहा,"जो भाषा आप बोलते हैं, उसमें कविता नहीं लिखिएगा। जो भाषा हम लोग बोलते हैं, उसमें लिखिएगा। मेरी जिज्ञासा स्वाभाविक थी, "क्यों?""यह भाषा छायावादी है।"मैंने पहली बार जाना कि भाषा भी बीरगाथाकालीन, भक्तिकालीन, रीतिकालीन, भारतेंदु कालीन, छायावादी आदि होती है और मुझे समकालीन सामान्य लोगों की भाषा में लिखना है। उन दिनों मैं संस्कृतनिष्ठ भाषा बोलता था, जिसे लोग चेस्ट हिंदी कहते थे।

छुट्टी का दिन था। राजगोपाल सिंह सुबह- सुबह आ गये। आते ही बोले, "भाई साहब एक ग़ज़ल हुई है"। इधर वे थोड़ा बेतकल्लुफ़ हो गये थे और अकेले में कभी-कभी भाई साहब कह देते थे, विशेषकर जब वे खुशी से उत्तेजित होते थे। पहले अपपटा लगता था, अब नहीं। मैं नाश्ता करके उठा ही था। आगे का काम स्थगित कर ग़ज़ल सुनी जा सकती थी। कहा,"सुनाएं।"जो ग़ज़ल उन्होंने सुनाई, वह यूं थी :
कुछ नया करके दिखाना चाहता है आदमी
मारकर खुद को जिलाना चाहता है आदमी
अपनी दीवारों को ऊंचा और करने के लिए
दूसरों के घर गिराना चाहता है आदमी
सौंप कर सत्ता समूची हाथ में अंधियार के
रोशनी के पर जलाना चाहता है आदमी
भाषणों की रोटियों को फेंक कर माहौल में
आग पानी में लगाना चाहता है आदमी
खींच कर जम्हूरियत से कुव्वते गुफ्तार को
अम्न की दुनिया बसाना चाहता है आदमी
शहर का इक खूबसूरत चित्र क्यों इसको दिखा
गांव को फिर बर्गलाना चाहता है आदमी
(बाद में उन्होंने जिआ नहटौरी के सुझाव पर पहले शै'र की दूसरी पंक्ति बदल दी --हाथ पर सरसों उगाना चाहता है आदमी। फिर इसे पहली पंक्ति बनाकर, पहले की पहली पंक्ति को दूसरा बना दिया। और बाद में साकिब बरेलवी के सुझाने पर पांचवा शे'र हटा दिया। ग़ज़ल शायद पांच शे'रों की ही स्तरीय मानी जाती है। इसी रूप में यह ग़ज़ल उनके संग्रह "ज़र्द पत्तों का सफर"में छपी है।)
मैंने उन्हें गाकर सुनाने के लिए कहा। उसे सुनकर कैंपस के सभी ल़ोग उपस्थित हो गये। उम्मीद थी कि उनकी फरमाइश पर यह सिलसिला लंबा चलेगा, पर बात यहीं थम गई जब उन्होंने तुरंत प्रस्तावित किया कि सुभाष पंत से मिलने चलते हैं। वे यहीं पास में रहते हैं। मुझे तुरंत जाना ठीक न लगा। छुट्टी का दिन है, देर से उठे होंगे, नहाना -धोना चल रहा होगा, कुछ घरेलू काम होगा। मैं टालना चाहता था, पर राजगोपाल सिंह ने कहा कि ऐसे सोचते रहेंगे तो कभी किसी से मिलना नहीं हो पाएगा। बात तो ठीक थी। मैं चलने के लिए तैयार हो गया।
डोभालवाला गांव कालिदास रोड के दक्षिणी छोर पर स्थित है, मेरे आवास से मुश्किल से हजार कदमों की दूरी पर। पहले वह गांव रहा होगा, अब पोश शहर का हिस्सा है। पंत जी का घर पाश ही था। उनकी दो-तीन कहानियां मैं सारिका में पढ़ चुका था और "गाय का दूध"की विशेष स्मृति थी। उसी के लेखक की छवि लिए मैं उनके घर पहुंचा। वे अपने कैंपस की झाड़ियां साफ कर रहे थे। राजगोपाल सिंह से परिचित थे। राजगोपाल ने छूटते ही कहा,"मैं मिश्र जी को ले आया हूं।"अभिवादन के बाद वे अपनी बैठक में ले गये। दुबली पतली काया, नाटा शरीर, फोकचिआए गाल, टिपिकल पहाड़ी रंग, खूब छोटे -छोटे बाल, दृढ आवाज, सधे कदम, हाथ की मुठ्ठी बंधी हुई, स्वयं आत्मविश्वास से भरे हुए।

सुभाष पंत उन दिनों एक कहानी लिख रहे थे 'समुद्र'या 'महासमुद्र'शीर्षक से। उसमें वे नेता और निचले तबके के लोगों की बढ़ती जा रही खाई का जिक्र किया था, जिसमें जनता का विशाल समुद्र भरता जा रहा था, जिसके परिणामस्वरूप न तो लोग अपनी जरूरत नेता को बता पा रहे थे और न ही नेता द्वारा प्रदत्त लाभ उनतक पहुंच पा रहा था। उसके कच्चे रूप को उन्होंने सुनाया। बताया कि वे कहानी को पहले मन ही मन पूरा लिख डालते हैं, फिर कागज पर उतारते हैं।यह मेरे लिए एक व्यावहारिक इशारा था। उन्होंने मुझसे कुछ कविताएं सुनाने के लिए कहा।कहा कि रचनाकार की पहचान रचना ही होती है। तबतक मेरे पास कोई कविता थी नहीं। याद नहीं है कह कर तोप-ढाक किया।
जिनसे अच्छा निभना होता है उसकी बुनियाद अक्सर पहली मुलाकात में ही पड़ जाती है। पंत जी के साथ भी ऐसा ही हुआ। वे इंडियन फारेस्ट इंस्टीट्यूट में वैज्ञानिक थे। बाटनी में एम. एससी. हैं । लिखने लगे तो हिंदी में भी एम.ए. कर लिया, जिससे कि दृष्टि साफ हो जाय। वह साफ दृष्टि उनकी रचनाओं में उजागर है। उपन्यास "पहाड़ चोर"उसका उत्तम उदाहरण है। खैर, दफ्तर से आने के बाद फ्रेश होकर वे अक्सर मेरी तरफ आ जाते थे, या मैं उनकी तरफ जला जाता था। हम टहलते हुए साहित्य पर बातें करते थे, जो मेरे लिए बहुत लाभदायक सिद्ध हुईं। ऐसी ही बातचीत के दौरान उन्होंने मुझे धूमिल और मुक्तिबोध की कविताओं को पढ़ने की राय दिया। दोनों का नाम मैंने सुन रखा था, पर पढ़ा कुछ नहीं था। कांग्रेस पार्टी के दफ्तर के पास ही किताबों की एक अच्छी दुकान थी, शायद अब भी ‌हो । करेंट या माडर्न बुक डिपो नाम था। धूमिल का संकलन "संसद से सड़क तक"वहां मिल गया। पर मुक्तिबोध की पुस्तक नहीं मिली। शुरू में ही तीन पंक्तियां उद्धृत थीं: "कविता भाषा में आदमी होने की तमीज है", "कविता भीड़ में बौखलाए हुए आदमी का एकालाप है", और एक पंक्ति थी जो फीलवक्त याद नहीं आ रही है। इन पंक्तियों को पढ़ कर मैं झन्न से रह जाता था। आकर्षित करती थीं, झटका देती थीं, पर उनका अर्थ गोचर नहीं होता था, एक-एक शब्द का अलग -अलग अर्थ जानने के बावजूद। मैंने फिर भी पुस्तक पढ़ी। राजगोपाल सिंह ने एक दिन उस पुस्तक को मेरी मेज पर देखा तो पूछा,"कुछ समझ में आता है?"मैंने नहीं कहा तो उन्होंने भी बताया कि वे क ई बार पढ़ चुके हैं, पर कुछ पल्ले नहीं पड़ा है। बल्कि सविता जी से भी पूछा है, पर वे भी कुछ ठीक से समझा नहीं पाये। कहे कि यह किसी बड़े ही प्रतिभा सम्पन्न आदमी की उल्टी है। सविता जी राजगोपाल के फूफा थे, जो रुड़की या मुजफ्फरनगर के किसी कालेज में अंग्रेजी साहित्य पढाते थे। स्वयं भी अंग्रेजी में कविताएं लिखते थे। बाद में जब वे संकलित होकर प्रकाशित हुईं त़ो उस पुस्तक की भूमिका मैंने लिखी थी। बाद में इन कविताओं का अर्थ तब गोचर हुआ जब मैं इलाहाबाद आया।



आलोचना का सकारात्मक पक्ष

$
0
0

 

पुलिस में नौकरी,यानी धौंस-पट्टी का राज. वाह जी वाह, क्या हसीन है निजाम. पुलिस ही नहीं, गुप्तचर पुलिस, वह भी आफिसर . फिर तो कुछ बोलने की जरूरत तो शयद ही आए कि उससे पहले ही चेहरे के रूआब को देखकर, यदि मूंछे हुई तो और भी, आपराधी ही क्या,अपनी नौकरी पर तैनात कोई साधारण कर्मचारी,बेशक ओहदेदारी में किसी रेलवे स्टेशन का स्टेशन मास्टर तक हो चाहे, बुरी तरह से चेहरे पर हवाइयां उडते हुए हो जाए और यदि ओफिसर महोदय ने अपना परिचय दे ही दिया तो निश्चित घिघया जाये. यह चित्र बहुत आम है लेकिन एक सम्वेदनशील रचनाकार इस चित्र को ही बदलना चाहता है. निश्चित तौर पर श्री प्रकाश मिश्र भी ऐसे ही रचनाकर हैं. अपनी स्मृतियों के देहरादून को खंगालते हुए वे इससे भिन्न न तो हैं और न ही होना चाहेंगे, यह यकीन तो इस कारण से भी किया जा सकता है कि एक दौर में वे उन्न्यन जैसी महत्वपूर्ण पत्रिका का स्म्पादन करते रहे हैं.   

देहरादून की स्मृतियों पर केंन्द्रित होकर लिखे जा रहे संस्मरण के उन हिस्सों की भाषा से श्री प्रकाश मिश्र के पाठकों को ही फिर एतराज क्यों न हो, जहाँ उनका प्रिय लेखक उन्हें दिखाई न दे रहा हो. एक मॉडरेटर होने के नाते इस ब्लॉग के पाठकों की क्षुब्धता के लिए खेद व्यक्त करना मेरी नैतिक जिम्मेदारी है. फिर संस्मरण की भाषा पर एतराज तो किसी यदा कदा के पाठक का नहीं है, बल्कि जिम्मेदार नागरिक चेतना से भरे एक ऐसे संवेदंशील रचनाकर, चंद्रनाथ मिश्र,का विरोध है,जिनके सक्रिय योगदान से यह ब्लाग अपनी सामग्री समृद्ध करता रहता है. चंद्रनाथ मिश्र के एतराज मनोगत नहीं बल्कि तथ्यपूर्ण है, “एक वरिष्ठ लेखक और 'उन्नयन 'जैसी लघु पत्रिका के संपादक रहे श्री प्रकाश मिश्र जैसे व्यक्ति से इस तरह के आत्म केंद्रित और नकारात्मक सोच की आशा नहीं की जा सकती. पूरे आलेख में प्रारंभ से अंत तक उन के सानिध्य में आने वाले व्यक्तियों के जीवन और व्यक्तिगत रूप रंग पर आक्षेप के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं. रेलवे के छोटे कर्मचारी से लेकर स्टेशन मास्टर तक , पीतांबर दत्त बड़थ्वाल जैसे शिक्षाविद और वरिष्ठ साहित्यकार, उनकी संताने,उनके गांव के सारे लोग प्रकाश मिश्र की इस आवानछनीय टीका टिप्पणी के दायरे मे शामिल हैँ. देहरादून के तात्कालिक साहित्यिक परिप्रेक्ष्य पर उनकी कोई उल्लेखनीय टिप्पणी तो कहीं भी नजर नहीं आती. यहां के वरिष्ठ साहित्यकारों के साहित्य कर्म पर लिखने के बजाय, वे उनके व्यक्तिगत, शारीरिक, जातिगत और स्थान विशेष में रहने वालों को सामूहिक रूप से कुरूप और अनाकर्षक घोषित करने का प्रयत्न करते हुए दिखाई देते हैं.”

 

यह सही है कि एक पात्र की पहचान कराने के लिए एक गद्य लेखक अक्सर पात्र के रूप रंग, उसकी चाल, हंसने-बोलने के अंदाज, वस्त्र विन्यास और बहुत सी ऐसी रूपाकृतियों का जिक्र करना जरुरी समझते है और यह भी स्पष्ट है कि उस हुलिये के जरिये ही वे प्रस्तुत हो रहे पात्र के प्रति लेखकीय मंशा को भी चुपके से पाठक के भीतर डाल देते है. वरिष्ठ कथाकार सुभाष पंत जी के द्वारा अक्सर कही गई बात को दोहरा लेने का मन हो रहा, जब वे कहते है, "जब कोई लेखक अपने किसी पात्र के बारे में लिखता है कि 'वह चाय सुडक रहा था'तो उसे अपने पात्र के परिचय के बारे में अलग से कुछ बताने की जरुरत नहीं रह जाती कि वह अमुक पात्र कौन है, किस वर्ग और पृष्ठभूमि का पात्र है."कथाकार सुभाष पंत की यह सीख हमें भाषा की ताकत से परिचित कराती है और साथ ही उसे यथायोग्य बरतने के लिए सचेत भी करती है. श्री प्रकाश मिश्र एक जिम्मेदार लेखक है. स्वयं देख सकते हैं,भाषा को बरतने वह  चूक उनसे क्यों हो गई कि जिन व्यक्तियों को प्रेम से याद करना चाह रर्है थे, उनके हुलिये के वर्णन पर ही पर चन्द्र्नाथ मिश्र और देहरादून के अन्य जिम्मेदार नागरिक एवं रचनाकारों को असहमति के स्वर में सार्वजनिक होना पडा है.

उम्मीद है श्री प्रकाश मिश्र जी चंद्रनाथ मिश्र के एतराजों को सकारत्मक रूप से ग्रहण करेंगे और पुस्तक के रूप संकलित किये जाने से पहले वे दोस्ताना एतराज एक बार लेखक को दुबारा से अपनी भाषा के भीतर से गुजरने की राह बनेगें.      


विजय गौड़ 

   

तर्क संगत पाठ

$
0
0

किसी रचना का पाठ कैसे किया जाए, बहसों के दौरान यह बात उस वक्त बहुत शिद्दत से सामने आती है, जब कोई स्थापित रचना बदले हुए संदर्भों में आलोचना के दायरे में होती है. हिंदी में दलित साहित्य की आहट के वक्त को याद कीजिये,कथा सम्राट प्रेमचंद की कहानी कफनपर किस तरह से सवाल उठे थे?याद कर सकते हैं कि विवाद की हद तक जाती बहस में पक्ष एवं विपक्ष के तर्क कहानी के पाठ को लेकर ही थे. दलित जीवन की चिंताओं को अपना पक्ष मानने वाली धारा जहां अपने पाठ से कफन को दलित विरोधी होने आरोप लगा रही थी, वहीं हिंदी की प्रगतिशील धारा का पक्ष कथाकार प्रेमचन्द के सम्पूर्ण रचनाकर्म की रोशनी में ही आलोच्य कहानी को भी पढे जाने की बात कर रहा था. दलित धारा के पक्ष क़ो एक हद तक तर्कपूर्ण मानने वालों के सामने संकट ज्यादा गहरा थाकि वह संतुलित बात कैसे रखी जाए जिससे आलोचना के दोनों खेमें एक सहमति का पाठ तैयार करने की ओर बढ़े. लिहाजा प्रगतिशील धारा के पक्ष को ही अपना पक्ष मानते हुए ऐसे समूह इस तर्क के साथ थेकि कहानी का पाठ कहानी के रचनाकाल और उस समय की सामजिक राजनैतिक चेतना को ध्यान में रखते हुए ही किया जाना चाहिए. विवाद के थमने में इस तीसरे पक्ष की भूमिका ही एक हद तक प्रभावी रही और इसके साथ ही न-नुकूर करते हुए हिंदी के आचर्यों को दलित धारा की रचनाओं की संवेदना को दलित साहित्य के रूप में स्वीकरना पड़ा.

परिकथा के ताजे अंक (जुलाइ-अगस्त/ सितम्बर-ओक्टूबर 2022) में प्रकाशित कथाकर शिवेंदु श्रीवास्तव की कहानी व्यूहको पढने के बाद ये बातें एकाएक ध्यान आयी. सुरक्षित भविष्य की चाह रखते हुए एक अदद सरकारी नौकरी को पा जाने की सुखद कल्पनाओं वाली यह कहानी उस वक्त लिखी और प्रकाशित हो रही है, जब सरकारी नौकरी के ऐसे ठिकाने एक एक करके निगमीकृत किये जा रहे हैं. निगमीकरण के तहत बदल रही सेवा शर्तोँ वाली इस प्रक्रिया के दौर को देखें तो कार्पोरेटिय मंशाओं के उदघाटित हुए वे सच भी दिखने लगेंगे जिससे यह समझना मुश्किल नहीँ रह जाता है कि कल्याण्कारी राज्य की कल्पना वाली शासन व्यवस्था किस रह ध्वस्त होती जा रही है. विशेष रूप से अपने शीर्षक के कारण अर्थवान हो रही यह कहानी अपने अंदाज से पाठक को अपने आस पास बदल रही दुनिया का सच दिखा रहीहै. दया,करुणाके साथ मद्दगार दिखने वाली निजी पूंजी के झूठ एवं षडयंत्रों को आसानी से देखना सँभव हो, लेखकीय चिंताओं का यह सच ही इस कहानी का ज्यादा तर्क संगत पाठ है.      


शिवेंदु श्रीवास्तव भारतीय वन सेवा से सेवानिवृत्त हैं
, एवं भोपाल मेँ रहते हैं. वानिकी में पी.एच-डी., शिवेंदु के अध्य्यन का क्षेत्र जैव विविधता रहा है. हिंदी साहित्य की दुनिया उनके मिजाज को विशेष रूप से प्रभावित करती रही हैं. अपने क्षेत्र जैव विविधता उनका गंभीर लगाव है, इस तरह के विषय पर प्रकाशित उनकी पुस्तक का शीर्षक है, “Commercial Use of Biodiversity: Resolving the Access and Benefit Sharing Issues” . यह पुस्तक वर्ष 2016में  सेज प्रकाशन से प्रकाशित है। 

कविता और कहानी विधाओं में समान रूप से दखल रखने वाले रचनाकार शिवेंदु श्रीवास्तव  की प्रकाशित रचनाओं के अड्डे वागर्थ,  नया ज्ञानोदय, वसुधा, पहल, दस्तावेज, कथादेश, परिकथा, वसंत मालती, कहन आदि रहे हैं.

कविता संग्रह ’’यहां से इस तरह’’ बोधि प्रकाशन, जयपुर से प्रकाशित है़. कहानियों की किताब अति शीघ्र सामने आए, शुभकामनाएं रचनाकार को।

प्रस्तुत है शिवेन्दु श्रीवास्तव की कहानी व्यूह.  

विगौ 

कहानी

शिवेन्दु श्रीवास्तव


व्यूह

 



आई.टी.आई. पास करने के बाद छोटेलाल महीने भर अपने माता-पिता के साथ गांव में रहा, उसके बाद नौकरी की खोज में वह शहर आ गया। गांव के बड़े पंडित जी की बड़ी बिटिया कृष्णा इसी शहर में रहती थीं। छोटेलाल को उन्होंने सहारा दिया और एक कमरे का आश्रय मिलते ही उसने अपनी पत्नी और दोनों बच्चों को साथ लाकर रख लिया। 

यों छोटेलाल की उम्र मात्र बाइस वर्ष थी, परंतु माता-पिता ने ब्याह जल्दी कर दिया था और ब्याह के बाद दो साल में ही उसके दो बच्चे भी हो गए थे। छोटे परिवार का नया चलन देखते हुए उसने सरकारी अस्पताल में जाकर पूर्ण विरामका आपरेशन भी करवा लिया था। उस समय वह गांव के पास वाले कस्बे में आई.टी.आई. में प्रवेश ले चुका था और दीन-दुनिया से वाकिफ हो रहा था।

कृष्णा बिटिया किस्मत वाली थीं। पति भारत सरकार के एक सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम मंे ऊंचे ओहदे पर आसीन, बड़ा-सा बंगला, बाग-बगीचा, नौकर-चाकर, गाड़ी, सब कुछ था, परंतु वे कुछ रचनात्मक करना चाहती थीं, खाली बैठे रहना पसंद नहीं था। बच्चों को स्कूल भेजने के बाद से लेकर उनके स्कूल से लौटने के बीच का वक्त वे किसी बौद्धिक कार्य में लगाना चाहती थीं। उन्होंने काशी में अपने चाचा के घर पर रहकर हिन्दू विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त की थी। उनके चाचा संस्कृत के प्रोफेसर थे और उनकी सोहबत में उनके अंदर भी पढ़ने-पढ़ाने की रूचि जग गई थी। लिहाजा, समय गुजारने के लिए उन्होंने बच्चों का एक स्कूल खोल लिया था।

छोटेलाल स्वभाव से अत्यंत सीधा-सादा, विनम्र, मितभाषी और सदा मुस्कुराने वाला व्यक्ति था। वह ईमानदार, परिश्रमी और लगनशील भी था। उसे सहारा देने वाली श्रीमती कृष्णा चतुर्वेदी, एम.ए. (संस्कृत), बी.एड., प्राचार्या, सरस्वती बाल निकेतन ने उसके समक्ष यह प्रस्ताव रखा कि जब तक उसे नौकरी नहीं मिलती, क्यों न वह उन्हीं के स्कूल में बच्चों की देखभाल करने का काम कर ले, वहीं पर रहते हुए वह चतुर्वेदी साहब के उपक्रम में भी काम पा सकता है, जगह होने पर।

छोटेलाल को यह प्रस्ताव भा गया और वह सरस्वती बाल निकेतन में बच्चों की देखभाल का काम करने लगा। वह चौकीदार, चपरासी, माली इत्यादि सभी का काम कर लेता था पर उसका काम करने का तरीका और सभी के प्रति व्यवहार कुछ ऐसा था कि पूरे स्कूल में कोई उसे चपरासी या चौकीदार नहीं मानता था। हर कोई उसे छोटेलालबुलाता था। स्कूल के बच्चे उसे भैयाकहकर पुकारते थे।

स्कूल के पिछले हिस्से में एक कमरा उसे श्रीमती चतुर्वेदी, उसकी कृष्णा दीदी ने दे दिया था। कभी-कभी किसी त्यौहार या बच्चों के जन्म-दिन आदि मौकों पर बुलाए जाने पर वह उनके बंगले पर भी जाने लगा। धीरे-धीरे उसे लगने लगा, कृष्णा दीदी उसका और उसके बच्चों का इतना ध्यान रखती हैं, अगर उसे इसी शहर में कहीं नौकरी मिल जाए तो वह दिन में नौकरी करेगा और सुबह-शाम स्कूल भी देखता रहेेगा। स्कूल से उसे महीने के महज़ चार हजार रूपए मिलते थे, हालांकि रहने के लिए कमरा और बगैर फीस के बच्चों की पढ़ाई की व्यवस्था से काफी राहत थी। उसने रोजगार दफ्तर में अपना नाम दर्ज करा लिया था। कहीं किसी खाली जगह का विज्ञापन दिखता अखबार में तो उसके लिए भी आवेदन पत्र डाल देता था।

दिन पर दिन आराम से बीतने लगे और साथ में पक्की नौकरी के लिए उसकी तलाश भी चलती रही। उसके जान-पहचान वाले उसे कोसते कि वह कैसा आदमी है, इतने बड़े इंजीनियर के घर आना-जाना है और उसे मन लायक एक नौकरी नहीं मिल रही है। छोटेलाल पर इस उलाहने का कोई असर न होता। उसे लगता, किसी और से कहकर नौकरी पाना खुद की तौहीनी होगी। मुझे अपनी शिक्षा के हिसाब से नौकरी तो मिल ही मिलेगी, देर-सबेर, यही सोचकर उसने किसी से सिफारिश नहीं की थी।

उसने सुन रखा था कि कुछ लोगों ने रिश्वत देकर नौकरी हासिल की है लेकिन ऐसा करना उसके उसूल के खिलाफ था। यह भी एक सच्चाई थी कि उसके पास रिश्वत देने के लिए धन भी नहीं था।

देखते-देखते वह अट्ठाईस साल का हो गया। ज्यादातर नौकरियों में आयु सीमा तीस वर्ष की होती है। तीस पार करने के बाद वह नौकरी के लिए बूढ़ा हो जाएगा। जो कुछ उसने आई.टी.आई. में सीखा था, सब भूल जाएगा। लेथ मशीन पर उसके सधे हुए हाथ, जो लोहे के नाम पर केवल स्कूल का गेट और ताला ही छू पाते हैं, लोहे की पहचान ही भूल जाएंगे। अब कुछ न कुछ करना होगा, यह विचार उसके मन में आने लगा।  

इस बीच चतुर्वेदी साहब की फैक्टरी में मेंटिनेंस डिपार्टमेंट में एक मेकैनिक की जगह खाली हुई। अखबार में देखते ही छोटेलाल ने झट आवेदन पत्र भेज दिया और यह सोचकर कि यह अवसर कहीं हाथ से न निकल जाए, उसने अपने उसूल ताक पर रखे और कृष्णा दीदी से सिफारिश करने के लिए मौका देखकर उनके पास पहुंच गया। कृष्णा दीदी स्कूल की छुट्टी के बाद अपनी कार में बैठने जा रही थीं। छोटेलाल लपक कर पहुंचा। कृष्णा दीदी के बच्चे सरस्वती बाल निकेतन में नहीं, शहर के कन्वेंट में पढ़ते थे और उनका ड्राइवर पहले बच्चों को कन्वेंट से लेता, फिर कृष्णा दीदी को लेने सरस्वती बाल निकेतन आ जाता।  

बच्चों को प्यार करते हुए उन्होंने छोटेलाल की ओर प्रश्नसूचक आंखों से देखा। छोटेलाल की नजर ड्राइवर पर पड़ी। वह छोटेलाल की ओर मुस्कुराकर देख रहा था। छोटेलाल को झेंप-सी लगी और उसने इतना ही कहा, ’’कृष्णा दीदी, कुछ काम था। शाम को घर पर आता हूं।’’

’’ठीक है,’’ उन्होंने कहा, ’’पांच बजे आना।’’ उनके बच्चों को घर जाने की जल्दी मची रहती थी इसलिए वे तुरंत कार में बैठ कर निकल गईं।

उनके बंगले तक साइकिल से जाने में घंटे भर का समय लगता था। छोटेलाल ठीक पांच बजे पहुंच गया। पहुंचते ही उसने सकुचाते हुए कहना शुरू किया, ’’कृष्णा दीदी, साहब की फैक्टरी में मेकैनिक की जगह निकली है। मैंने भी फार्म भर दिया है। कुल मिलाकर बारह हजार रूपये तक तनख्वाह बनेगी। कई साल निकल गए, अभीतक कहीं काम मिला नहीं। अगर आप साहब से कह देतीं तो ........’’

उसकी बात सुनकर कृष्णा दीदी के मन में यह विचार आया, कि बारह हजार की नौकरी के लिए इसके पास योग्यता तो है, जबकि मेरे यहां चार हजार रूपये में स्कूल की देखभाल का बेगार कर रहा है। इसके चले जाने पर स्कूल और बच्चों को कौन देखेगा? उन्होंने बड़े प्यार से कहा, ’’क्यों छोटेलाल, यहां मेरे पास तुम्हें कोई तकलीफ है? अपना स्कूल छोड़कर चले जाओगे?’’

’’नहीं दीदी,’’ छोटेलाल बोल पड़ा, ’’मैं रहूंगा यहीं पर और फैक्टरी से बचे समय में मैं स्कूल का काम कर दिया करूंगा।’’ उसे भय लगा, कहीं कृष्णा दीदी उसे कृतघ्न न समझती हों। 

उसकी बात सुनकर कृष्णा दीदी ने दिलासा देने वाले स्वर में कहा, ’’तुम्हें आगे तो जाना ही है छोटेलाल, तुम ऐसा करना, किसी रोज साहब घर पर होंगे तब आ जाना, मैं साहब से बात कर लूंगी।’’

छोटेलाल चलने को हुआ तो उन्होंने कहा, ’’रूको, चाय बन रही है, पी कर जाना।’’ 

चाय की बात सुनकर वह एक कोने में खड़ा हो गया। कृष्णा दीदी अंदर चली गईं। जाते-जाते वे सोचने लगीं - नौकरी की तलाश में ही तो आया था यह मेरे पास, और मैंने इसे अपने स्वार्थ में स्कूल में जोत दिया। कल को इसे नौकरी मिल गई तो यह मेरे पास क्यों रूकेगा? मुझे देख-परख कर एक-दो ढंग के चपरासी लगा लेना चाहिए था अब तक। दो दाईयां हैं, एक तो ठीक है पर दूसरी भरोसे वाली नहीं है। क्या करूं? कहां से ढूंढूं इसके जैसा दूसरा आदमी, जो दिनभर बच्चों की निगरानी करे, इतने प्यार से, खाली समय में माली का काम करे और रात की चौकीदारी भी कर ले? यह सही है कि मैंने इसे रहने की जगह दी है, बच्चों की पढ़ाई, स्कूल की ड्रेस आदि पर इसको कुछ नहीं खर्च करना पड़ता, फिर भी, है तो यह आई.टी.आई. पास, कितने दिन टिकेगा मेरे पास?  

भीतर किचन में पहुंच कर उन्होंने बिस्किट और नमकीन निकाल कर ट्रे में रख दिया और चाय बना रहे नौकर से बोलीं, ’’चाय के साथ यह बाहर छोटेलाल आया है, उसे दे देना।’’ फिर वहीं डाइनिंग टेबुल पर बैठकर सोचने लगीं, यह इतना परखा हुआ आदमी है, मायके के गांव का है। क्या कुछ ऐसा नहीं हो सकता कि किसी तरह यही मेरे स्कूल में बना रहे? इसे कुछ ऐसा दिलासा दे दें कि कल को हमारे स्कूल में दसवीं-बारहवीं तक कक्षाएं बढ़ीं तो इसे साइंस लैब में लैब असिस्टेंट बना देंगे? जब तक चार भरोसे वाले साथ में नहीं होंगे तबतक स्कूल संभालना मुश्किल होगा और अब मेरा स्कूल अच्छा चल रहा है, कल को मैं वाकई और कक्षाएं बढ़ाने की सोच सकती हूं। ठीक है, इसके हित का भी ध्यान रखूंगी।  

कृष्णा दीदी ने दुनियादारी अपने अनुभवों से सीखी थी और इसमें वे निपुण थीं। इस मामले में छोटेलाल भोला था। वह चाय पीने के बाद थोड़ी देर रूका रहा कि चतुर्वेदी साहब अभी आ गए तो उनसे भी बात कर लेगा। लेकिन अंधेरा होने तक चतुर्वेदी साहब नहीं आए तो वह वापस लौट आया।

दो दिन बाद रविवार था। छोटेलाल शाम चार बजे कृष्णा दीदी के घर फिरपहुंचगया।उसे देखते ही कृष्णा दीदी ने कहा, ’’अरे छोटेलाल, तुम बड़े मौके से आए। आज शंकर नहीं आया है, तुम जरा बाजार से सब्जी ला देना।’’ 

छोटेलाल तुरंत झोला लेकर बाजार चल दिया। बाजार से सब्जी लेकर वह लौटा और रास्ते भर यही सोचता रहा, वह साहब से कैसे क्या कहेगा। लौटने पर उसने देखा, साहब बाहर बरामदे में बैठे थे। वह पीछे आंगन के रास्ते चला गया सब्जी का झोला अंदर रखने के लिए, फिर बाहर आया। सामने आकर उसने नमस्ते किया, तो चतुर्वेदी साहब ने पूछा, ’’हां, छोटेलाल ! ठीक हो ?’’

’’जी, साहब जी।’’ बस इतना ही बोल पाया छोटेलाल, और चुपचाप किनारे खड़ा हो गया। तभी कृष्णा दीदी बाहर आईं, जिन्हें देखकर वह वहां खड़े रहने के लिए कुछ आत्मविश्वास जुटा सका। चतुर्वेदी साहब बहुत बड़े पद पर हैं, साल दो साल में जीएम बनने वाले हैं। उनसे अपनी छोटी-सी नौकरी के लिए वह कैसे विनती करे, इसी ऊहापोह में था, कि कृष्णा दीदी ने उसकी नौकरी की बात छेड़ दी। 

बात छिड़ गई, तब उसने अपनी पूरी बात कह दी, कि आई.टी.आई. में उसे प्रथम श्रेणी मिला था, लेथ मशीन पर उसने विशेष योग्यता हासिल की है, विज्ञापन में लेथ मशीन के पर्याप्त अनुभव और अभ्यास वाले को प्राथमिकता देने का उल्लेख है, उसके पास इंटर्नशिप का सर्टिफिकेट है, और यह भी कि बारहवीं तक उसने विज्ञान और गणित पढ़ रखा है। 

चतुर्वेदी साहब ने बड़ी सादगी से कहा, ’’जब इंटरव्यू के लिए बुलाया जाए तो एक रोज पहले मुझे याद दिला देना।’’ 

छोटेलाल आश्वस्त होकर लौट आया। उसकी नौकरी की चिंता थोड़ी कम हुई। जल्दी ही इंटरव्यू का बुलावा आ गया। उसने जाकर कृष्णा दीदी को बताया। इंटरव्यू की तारीख नजदीक आने लगी तो वह जी-जान से तैयारी करने लगा। पुरानी किताबें निकालकर उसने एक-एक बार दोहरा लीं। अपने हाथों की ओर वह नजरें भर-भर कर देखता - ये सधे हाथ फिर मेहनत करेंगे, लोहा पकड़ेंगे, लोहा तराशेंगे और कल-पुर्जे बनाएंगे। इन हाथों के कमाल से इतनी बड़ी फैक्टरी चलेगी। क्या-क्या वह सोचने लगा। मशीनों से उसकी पहचान कमजोर तो नहीं होने लगी? नहीं, एक बार मशीन पर पहुंचा, तो फिर से हाथ सध जाएंगे। उसे रेलवे के लोको शेड में अपने दो महीने के इंटर्नशिप के दिन याद आए। सुपरवाइजर ने उससे कहा था, ’’तेरे हाथ तो बड़े सधे हुए हैं!’’ 

इंटरव्यू के एक रोज पहले छोटेलाल ने कृष्णा दीदी को याद दिलाया, कि साहब से बताना है। कृष्णा दीदी ने उससे उसका नाम, पिता का नाम, जन्म तिथि, पता वगैरह और साथ में पद का नाम और कोड लिखवाकर ले लिया, साहब को देने के लिए।  

अगले दिन वह इंटरव्यू दे आया। इंटरव्यू अच्छा रहा, जो भी सवाल पूछे गए, सभी के उत्तर उसे मालूम थे। कुछ सवाल सामान्य ज्ञान के भी पूछे गए थे। उनके जवाब भी उसे मालूम थे। परंतु इस बार भी किस्मत तो साथ छोड़ ही गई, सिफारिश भी काम नहीं आई। दशहरे के पहले परिणाम आने की संभावना थी, पर दशहरा बीत गया, दीवाली पास आने लगी। 

मन में आया था, वह कृष्णा दीदी से ही परिणाम पूछेगा, परंतु किसी अचीन्हें भय के कारण उनसे न पूछ कर स्वयं ही उसने फैक्टरी के उपक्रम के मुख्यालय में जाकर परिणाम पता किया। आज से छः साल पहले जब वह आई.टी.आई. से निकला था, नकारात्मक परिणाम सुनकर अधिक दुखी नहीं होता था। ताज्जुब की बात है, कि आज भी वही परिणाम सुनकर वह जैसा आते समय था, वैसा ही शांत रहा। अधिक दुख उसे आज भी नहीं हुआ। हां, निराशा अवश्य हुई। उसने सोच लिया, अब इसी सरस्वती बाल निकेतन में चार हजार की नौकरी करते हुए यह जीवन गुजार देना है।

000

 

दीवाली की शाम को उसे कृष्णा दीदी के बंगले पर जाना था। दोपहर में उन्होंने खबर भिजवाई थी कि सभी नौकर छुट्टी पर हैं, इसलिए शाम को थोड़ी देर के लिए जरूरत पड़ेगी। छोटेलाल निस्पृह भाव से जापहुंचा बंगले की ड्यूटी पर। ड्राइंग रूम में मेहमान लोग बैठे थे। छोटेलाल किचन में कृष्णा दीदी की मदद करता रहा। बाद में खाली कप आदि उठाने के लिए ट्रे लेकर ड्राइंग रूम में गया तो उसे देखकर अचानक चतुर्वेदी साहब को जैसे कुछ याद आया। उन्होंने पूछा, ’’अरे, छोटेलाल! तुम्हारा इंटरव्यू कब है?’’ 

छोटेलाल ने आश्चर्य से उनकी ओर देखा। इससे पहले कि वह कुछ जवाब देता, कृष्णा दीदी ही तपाक से बोल पड़ीं, ’’अरे, आप भी कैसे भुलक्कड़ हैं? कोई महीना भर हो गया। आप से मैंने बात की, आप ही ने तो कहा था कि जीएम साहब का कोई आदमी है, इसलिए छोटेलाल का इस बार नहीं हो सकेगा।’’

चतुर्वेदी साहब दो-एक पल अपनी पत्नी की ओर देखते रहे, फिर एक समझदार पति की तरह बोल पड़े, ’’हां, हां। याद आया। फिर कोशिश करना।’’

छोटेलाल जब वहां से चलने लगा, तो कृष्णा दीदी ने उसे पटाखों-फुलझड़ियों का एक बड़ा सा पैकेट दिया उसके बच्चों के लिए और साथ में अपने बच्चों के छोड़े हुए पर अच्छी हालत में कुछ खिलौने भी दिए। छोटेलाल ने वह सब यों ले लिया, जैसे बीते हुए कल और आज के बीच में कुछ घटित न हुआ हो। उस दीवाली की रात वह अपने कमरे पर लौटा, बच्चों को पटाखे दिए और बच्चों की खुशी में खुश हो गया।

दीवाली की छुट्टियों के बाद पहली तारीख को स्कूल खुला। कृष्णा दीदी सुबह-सुबह स्कूल पहुंचीं तो पाया कि स्कूल की सफाई हमेशा की ही तरह हुई है। उनका कमरा हमेशा की तरह चमक रहा है, एक सप्ताह की छुट्टी का कोई नामो-निशान तक नहीं। मेज पर ताजा फूलों का गुलदस्ता, साफ चमकता पानी भरा गिलास, साफ धुले फिल्टर की सतह पर एक-दो पानी कीबूंदें- हां, ताजा पानी भरा गया है। 

वे कमरे से निकल कर बाहर आईं। नोटिस-बोर्ड से छुट्टियों की सूचना उतर चुकी थी, नया टाइम-टेबुल उन्होंने जैसा बताया था, लग गया था। गमलों की ओर नजर गई तो पाया कि एक भी पौधा मुर्झाया नहीं था। टहलते-टहलते वे पार्क की ओर गईं। कुछ बच्चे झूला झूल रहे थे। झूला, स्लाइडिंग शूट, सी-सॉ, सभी को छूकर मुआयना किया, सभी साफ पोंछे गए थे। बच्चों के कपड़े गंदे नहीं होंगे। छोटेलाल बहुत काम का आदमी है। पर वह है कहां?

तभी उन्हें दूर से भागता हुआ छोटेलाल नजर आया। पास आकर पहले की ही तरह हंसते हुए नमस्ते किया और कहा, ’’स्टोर में हथौड़ा नहीं मिल रहा था दीदी, कमरे तक चला गया था हथौड़ा लेने। ऊपर पांचवीं कक्षा में नक्शा गिर गया है, ठोंकना है।’’  

कृष्णा दीदी उसकी ओर देखती रहीं। कितना निश्छल इंसान है, कितना लगलशील। उस रोज चतुर्वेदी साहब ने हां-हां कहने में इतनी देर लगा दी, क्या समझा होगा इसने? क्या पता, इसकी किस्मत साथ दे जाती? तब तो मैं नहीं रोक सकती थी। फिर कौन बच्चों की और स्कूल की वह देखभाल करता, जिसके लिए मुझे पूरे शहर में गौरव हासिल है? बच्चों को बच्चा समझने की शक्ति कितनों में है? कहां से मैं ढूंढ़ूंगी दूसरा छोटेलाल?

उन्होंने कहा, ’’ठीक है जाओ, नक्शा लगाकर आ जाना।’’  

पार्क का मुआयना करते हुए उन्हें दीवाली वाले दिन की घटना याद आ गई और मन क्षोभ से भर गया। छोटेलाल के जाने के बाद उन्हें लगा था कि पति से कह दें कि वे छोटेलाल के बारे में बताना ही भूल गई थीं, लेकिन कुछ बोलीं नहीं - उन्हें जो सोचना होगा, वे सोचेंगे ही। अक्सर वे मुझे कहते भी रहते हैं कि अपने स्कूल को लेकर मैं बहुत स्वार्थी हो जाती हूं। उन्हें अगर सफाई देती तो सोचते कि मैं स्कूल के हित में अब उनसे झूठ भी बोलने लगी हूं। इसलिए जो समझना हो, समझें, मैं अब इसमें कर ही क्या सकती हूं?  

उन्हें बीती घटनाएं याद आने लगीं - पिछले महीने दूसरी कक्षा के लड़के ने कक्षा में सीट पर बैठै-बैठे टट्टी कर दी थी। दूसरे बच्चों के साथ ही उनकी शिक्षिका उषा भी नाक-भौं सिकोड़ कर कोने में ऐसे खड़ी हो गई थी, जैसे छः-सात साल के बच्चे ने कोई खून, कोई जुर्म कर दिया हो। मॉनिटर भेज कर मुझे बुलवाया था, कि सुक्खी दाई को मैंने छुट्टी दे दी है, अब इस समस्या का समाधान निकालूं। दुक्खी दाई, जिसका असली नाम रामसखी था, ऐसा कोई काम आते ही छिटक कर भागती थी। तभी छोटेलाल आ गया था। उसने बच्चे को गोद में उठाया, अपने कमरे पर ले गया, उसकी पत्नी ने बच्चे की निकर धो दी और दूसरी निक्कर पहनाकर मिनटों में बच्चे को वापस कक्षा में बिठा दिया। ऐसे सरल व्यक्तित्व को छोड़ना भी मुश्किल है और उसे अच्छी नौकरी पर न जाने देना भी तो अनुचित है, उसके प्रति अन्याय है।

वे एक बार फिर एक अंतर्द्वंद में घिर गईं, जिससे निकलने की राह नहीं सूझ रही थी। पार्क से निकल कर वे प्रार्थना स्थल पर आ र्गइं। प्रार्थना खत्म हुई, कक्षाएं प्रारंभ हो गईं, वे अपने कमरे में आकर बैठ गईं, पर उन्हें यह भावना उद्वेलित करती रही कि वे छोटेलाल के प्रति अन्याय कर रही हैं। सोचने लगीं, क्या करूं मैं? क्या कर सकती हूं इसके लिए मैं, कि यह हमारे पास ही बना रहे?  

बड़े बाबू तनख्वाह का रजिस्टर और बिल दस्तखत के लिए लेकर आए। कृष्णा दीदी ने रजिस्टर खोला और दस्तखत करने लगीं। आखिरी बिल पर पहुंच कर वे रूक गईं। चेहरा उठाकर उन्होंने बड़े बाबू की ओर एक पल देखा, फिर कहा, ’’ऐसा करिए, छोटेलाल का बिल दूसरा बना लाईए। उसकी तनख्वाह पांच हजार कर देते हैं।’’ 

बड़े बाबू मुस्कुराए - ’’जी, बराबर! आदमी काम का है।’’

कृष्णा दीदी को राहत-सी महसूस हुई। उन्होंने कुर्सी से पीठ टिकाकर एक गहरी सांस ली।

000

 

उस रोज अपने कमरे में पहुंच कर जब छोटेलाल ने अपनी पत्नी को बढ़ी हुई तनख्वाह दी तो उसकी पत्नी का एक नया रूप उसके सामने आया। इसके पहले उसकी पत्नी ने उसकी नौकरी या तनख्वाह को लेकर कभी कुछ नहीं कहा था। वह छोटेलाल के मन का दुख समझती थी लेकिन कभी उसे उलाहना नहीं देती थी, ना ही अपनी समझ उसपर थोपती थी। लेकिन अब उसे जीवन की विडंबनाएं दिखने लगी थीं। उसने कहा, ’’तुम्हें केवल एक हजार बढ़ाकर तनख्वाह मिली है। तुम्हें वह मेकैनिक वाली नौकरी मिली होती तो तुम इससे दोगुनी तनख्वाह पाते कि नहीं? दोगुनी से भी ज्यादा पाते। वह नौकरी जीएम के पहचान वाले को मिल गई। तुम्हें नहीं मिली, या तुम्हारे लिए कहा ही नहीं गया? जरा सोचो। तुम्हें दीवाली में बच्चों के लिए पटाखे दे दिए, तुम्हारी तनख्वाह एक हजार बढ़ा दी। तुम क्या इसी के लिए शहर आए थे? आराम से, बिना किसी उठक-पठक के, दिन कटते जा रहे हैं, यों ही धीरे-धीरे, और तुम संतुष्ट हो। तुम्हें नहीं लगता कि एक बंधन में बंध गए हो तुम? कहीं तुम दब्बू होकर तो नहीं रह गए हो? रोजगार दफ्तर में नाम लिखवा आए, इधर-उधर सब तरफ फार्म भरते रहे, आज तक हासिल क्या हुआ? तुम्ही बताते हो कि तुम्हारे साथ वाले कहीं न कहीं काम पकड़ लिए हैं। एक तुम्हीं रह गए हो।’’

पत्नी की बातें सुनकर छोटेलाल बड़ी देर तक उसकी ओर चुपचाप देखता रहा, फिर उसने कहा, ’’शायद तू ठीक कहती है। मुझे वह मिलना चाहिए, जो मेरा हक है। मुझे कुछ सोचना होगा।’’

अगले दिन उसने कृष्णा दीदी से पहली बार झूठ बोला। उसने उनसे यह कह कर छुट्टी ली कि उसके मामा का ऐक्सीडेंट हो गया है, उन्हें देखने उसे अस्पताल जाना है। इसके बाद वह अपने आई.टी.आई. सहपाठी संतोष के पास गया कि उससे कुछ सलाह-मशविरा करते हैं। संतोष को आश्चर्य हुआ कि छोटेलाल अभी तक खाली बैठा है, उसे कहीं काम नहीं मिला। उसने कहा, ’’देखो छोटेलाल, इस बजबजाते सिस्टम से तुम कोई उम्मीद मत रखो। तुम देखो कि रोजगार दफ्तर में कितने लोग अपना नाम दर्ज कराते हैं और उनमें से कितनों को नौकरी मिलती है। नौकरी मिलने की तो छोड़ो, कहीं से बुलावा भी नहीं आता है। तुम एक बार वहां जाओ और अपना अनुभव लेकर लौटो। तुम्हें जो फैक्टरी मेकैनिक वाली नौकरी नहीं मिली, वहां सूचना का अधिकार का एक एप्लीकेशन देकर आओ कि कितने पद थे, कितनी भरती कब-कब हुई। सारी जानकारी इकट्ठी करो। मैंने तो भईया, लड़ना सीख लिया है और मुझे पता है कि बिना लड़े किसी को उसका हक नहीं मिलता।’’

संतोष को रेलवे के सिग्नल डिपार्टमेंट में नौकरी मिल गई थी और पिछले तीन सालों से वह कर्मचारी यूनियन से जुड़ा हुआ था। उससे मिलने के बाद छोटेलाल को समझ में आ गया कि आगे का रास्ता इतना आसान नहीं है।   

अब उसके जीवन में उठा-पटक की शुरूआत हो गई। उसी कल्पित मामा के अस्पताल में भरती होने के बहाने से वह अगले दिन रोजगार दफ्तर पहुंच गया। पूरा दफ्तर खाली पड़ा था। कहीं कोई नजर नहीं आया, जबकि दफ्तर खुला हुआ था। थोड़ी देर बाद एक बाबू साहब आए और एक टेबुल की धूल झाड़कर बिराजमान हो गए। छोटेलाल उनके पास पहुंचा तो उन्होंने उसकी ओर यों देखा, जैसे वह कोई रास्ता भूला हुआ या किसी का पता पूछने वाला हो। छोटेलाल ने कहा, ’’मैंने अपना नाम लिखवाया था यहां, तीन साल पहले। उसी के बारे में पूछने आया हूं।’’ 

बाबू साहब ने कहा, ’’आप किसी और दिन आईए। आपको बड़े साहब से मिलना होगा। आज साहब नहीं हैं।’’ छोटेलाल उनसे थोड़ी देरतक बातें करता रहा कि उन्हें समझा-बुझाकर वह कहीं से जानकारी निकाल कर देने के लिए मना लेगा। लेकिन उसकी दाल नहीं गली। उल्टा यह हो गया कि अब दोबारा कुछ पूछने के लिए उनके पास गए तो खैर नहीं। 

इसके बाद छोटेलाल लगातार कई दिनों तक रोजगार दफ्तर गया लेकिन बड़े साहब नहीं मिले। जो बाबू साहब पहले दिन मिले थे, उनके दर्शन तीसरे दिन फिर हुए। दूसरे दिन जो बाबू वहां मिले, उन्होंने अगले दिन आने को कहा। अगले दिन वे खुद नहीं आए। यही क्रम चलता रहा। छोटेलाल स्कूल की छुट्टी के बाद रोजगार दफ्तर पहुंच जाता कि कुछ जानकारी मिल जाएगी, लेकिन उसे वहां न कोई और उम्मीदवार दिखता, न ही कोई साहब। दो-तीन बाबू साहब थे जो कभी-कभी भूले-भटके वहां आ जाते थे। 

छोटेलाल को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या सोचकर संतोष ने उसे यहां आने के लिए कहा था। पहली बार जब वह यहां अपना नाम दर्ज कराने आया था तो लगता था कि कुछ काम होता होगा यहां। अब यह दफ्तर ऐसा लग रहा था जैसे दीवार पर टंगा कई वर्षों पुराना कैलेंडर हो। नोटिस बोर्ड पर कुछ सूचियां टंगीं थीं, जो वर्षों पुरानी थीं। कुछ सूचनाओं के चीथड़े टंगे थे। वह इधर-उधर ताकता वहीं बाहर पड़े बेंच पर बैठ जाता कि शायद आज बड़े साहब आते हुए दिख जाएं लेकिन सामने सड़क से गुजरता कोई भी साहबनुमा इंसान उस दफ्तर की ओर रूख न करता।   

उसी दफ्तर में एक दिन अचानक एक बुजुर्गवार छोटेलाल को वहां दिख गए, हाथ में कागजों का पुलिंदा पकड़े हुए। वे उसकी ओर देखते रहे, फिर बोल पड़े, ’’तुम परेशान दिख रहे हो। सूचना का अधिकार की दरख्वास्त डालो। कुछ न कुछ जरूर मिलेगा। तीन साल पहले मेरे जवान भतीजे ने यहां के चक्कर लगाने के बाद रेल की पटरी पर कट कर खुदकुशी कर ली। वह अवसाद में आ गया था। तबसे मैं यहां दरख्वास्त डाल रहा हूं। मैंने दस हजार रूपए खर्च कर दिए, कागज इकट्ठा करने के लिए। इन्हीं कागजों को उलटता-पलटता रहता हूं। किसी दिन किसी कागज में उसका नाम दिख जाए, तो उसकी बदहवास मां को दिखाऊंगा कि देखो, तुम्हारा बेटा नाकारा नहीं था।’’

इतना कहकर वह बुजुर्गवार रोने लगे। छोटेलाल ने उन्हें बेंच पर बिठा दिया और उनका कंधा सहलाने लगा। वहां से घर लौटते-लौटते अंधेरा हो गया। घर लौटा तो बत्ती गुल थी। उस रात उसने न बच्चों से बात की, न पत्नी से। चुपचाप रोटी खाकर सो गया।

000

 

अब छोटेलाल गंभीर रहने लगा। उसके चेहरे पर हमेशा पसरी रहने वाली मुस्कान गायब हो गई। दिन गुजरे, सप्ताह गुजरे, महीना गुजरा, वह इसी तरह गंभीर बना रहा। कृष्णा दीदी ने सोचा, पूछेंगी कि उसे हुआ क्या है। लेकिन कोई सिरा नहीं मिल रहा था, जिसे थाम कर उससे सही कारण जान सकें। काम में उसके कोई कमी नहीं थी। हां, स्कूल बंद होने के बाद साइकिल उठाकर छोटेलाल जरूर कहीं न कहीं निकल जाता था।

उसे यह भय हुआ कि कहीं वह अवसादग्रस्त तो नहीं हो गया? लेकिन फिर एहसास हुआ कि नहीं, ऐसा नहीं है। वह अपनी पत्नी से खुलकर बातें करता है। उसकी पत्नी उसे कहीं बेहतर समझती थी। उसे यह एहसास था कि किसी की भी जिंदगी सपाट नहीं होती, जिंदगी मंे उतार और चढ़ाव दोनों आते हैं। चुपचाप वह उसके संघर्ष के रास्ते की हमसफर बनी रही। जब देखती कि छोटेलाल भाग-दौड़ में ही लगा हुआ है तो वह गमलों और फूलों की क्यारियों में गुड़ाई-सिंचाई कर देती।  

उससे सलाह करके छोटेलाल ने रूपए भी खर्च किए, सूचना का अधिकार के दरख्वास्तों और उनसे मिलने वाले कागजों को उठाने के लिए। उसका सिला यह हुआ कि सरकारी दफ्तरों के बाबुओं से उसकी दुश्मनी बढ़ गई। अब वे उससे सीधे मुंह बात नहीं करते थे। उसकी पत्नी ने उसे कोचिंग लेने की सलाह दी। एक समस्या कोचिंग की फीस जुटाने की थी। वह अपने गांव गया और साहस जुटाकर अपने पिता से रूपए उधार लिए। कोचिंग जाने लगा तो उसमें आत्मविश्वास आने लगा। इधर की सभी प्रतियोगी परीक्षाओं में सामान्य ज्ञान, करेंट अफेयर्स, लॉजिक-रीजनिंग आदि के प्रश्न आने लगे थे। वह जी-जान से जुट गया, रोज अखबार पढ़ने लगा और प्रतियोगी परीक्षाएं देने लगा। 

किसी ने सलाह दी कि सऊदी अरब जाने के लिए कोशिश करे। वहां तनख्वाह अच्छी मिलती है, पर उसके लिए भी भरती एजेंसी वाले पचास हजार रूपए मांगते थे। पासपोर्ट बनवाने की भी झंझट थी, और फिर अपने पिता से अब उधार वह नहीं ले सकता था, वह भी पचास हजार रूपए तो वे दे भी नहीं पाएंगे। इसलिए छोटेलाल तैयारी करता रहा और प्रतियोगी परीक्षाएं देता रहा।    

यह सब करते-करते दो साल गुजर गए। वह स्कूल के काम में लगा रहा और दो-तीन ऐसी प्रतियोगी परीक्षाओं में वह बैठने ही नहीं जा पाया, जिसके लिए उसकी तैयारी बहुत अच्छी थी। कभी स्कूल का इंस्पेक्शन आ जाता तो कभी कोई और कार्यक्रम। मौका चूकने पर वह कुछ कर नहीं पाता, चुपचाप दूसरी परीक्षा की तैयारी में लग जाता। कृष्णा दीदी को उसके गंभीर चेहरे की आदत-सी हो गई। उन्होंने उसकी तनख्वाह और नहीं बढ़ाई। संघर्ष करते-करते छोटेलाल इतना थक गया कि अंत में उसने हार मान ली। एक दिन उसने पत्रिकाएं और अखबार पढ़ना भी बंद करने का फैसला कर लिया।

इस बीच कृष्णा दीदी उसके बारे में कम और अपने स्कूल के बारे में अधिक सोचती रहीं। उन्होंने ठान लिया था कि उनका स्कूल शहर के हिन्दी मीडियम के प्राइवेट स्कूलों में सबसे अच्छा माना जाना चाहिए और इसके लिए वे कुछ भी करने को तैयार थीं। वे रोज ही सभी शिक्षिकाओं की एक बैठक लेतीं, हर दो-तीन महीने पर अभिभावकों को बुलातीं शिक्षिकाओं से मिलने के लिए, स्कूल में स्वच्छता और अनुशासन पर भी खास ध्यान देतीं। उन्होंने एजेंसी के माध्यम से एक वर्दीधारी गार्ड की ड्यूटी स्कूल के गेट पर लगवा ली। वही जो उनसे मिलने के लिए आते, उन्हें उनके कमरे तक लेकर आता। उनका खयाल था कि इससे उनका और उनके स्कूल का रौब बढ़ेगा। इसी धुन में उनसे कुछ क्रूरता भी हो गई। छोटेलाल के नाम से दो पत्र आए थे, जो उनके हाथ लग गए। एक किसी इंटरव्यू का बुलावा था और दूसरे लिफाफे में प्राइवेट कोल्ड स्टोरेज में सहायक की आठ हजार रूपए की नौकरी का नियुक्ति पत्र था। ये दोनों लिफाफे कृष्णा दीदी ने अपने पास रख लिए, छोटेलाल तक पहुंचने नहीं दिया। उन्होंने अपने मन को समझाया कि वे किसी का गला नहीं घोंट रही हैं, अपने स्कूल में ही छोटेलाल को धीरे-धीरे करके आठ हजार तक पहंुचा देंगी। 

छोटेलाल किस्मत का मारा-सा बस अपने काम में लगा रहा। जो भी ड्यूटी उसे दी गई थी उसे मशीनी भाव से निभाता रहा। वह ऐसे व्यूह में फंसा हुआ महसूस करने लगा, जिससे कभी बाहर नहीं निकल सकेगा। मन में कुछ ऐसा भाव आने लगा जैसे कि वह कृष्णा दीदी की कृपा के सहारे पर जी रहा है। उसके बच्चे जैसे किसी के दिए हुए टुकड़ों पर पल रहे हैं। वह भीतर ही भीतर घुलने लगा। उसके चेहरे से हंसी जैसे हमेशा के लिए गायब हो गई। उसके दोनों बच्चों को भी उसका गम्भीर चेहरा देखने की आदत हो गई।    

कुछ दिनों बाद की बात है। छोटेलाल अपने बच्चों को लेकर उनके लिए स्टेशनरी खरीदने गया। स्टेशनरी वाले ने उससे पूछा कि वह अब पत्रिकाएं क्यों नहीं ले जाता है? छोटेलाल ने कहा कि स्कूल के चपरासी को पत्रिका या अखबार पढ़कर क्या करना है? स्टेशनरी वाले ने उसे जबरदस्ती उस हफ्ते का रोजगार समाचार पकड़ा दिया। 

वह रविवार का दिन था। घर आकर वह बेमन से रोजगार समाचार के पन्ने उलटने लगा। रेलवे रिक्रूटमेंट बोर्ड के एक रिजल्ट पर उसकी नजर पड़ी। अरे, इसका तो उसने भी चार महीने पहले इम्तहान दिया था! उसके दिल की धड़कन बढ़ गई। 

अगले पल वह उछल पड़ा। उसकी पत्नी दौड़कर उसके पास आई तो वह लगभग चिल्ला पड़ा, ’’मैं टेक्नीशियन हो गया, कैरेज एंड वैगन वर्कशॉप में! ये मेरा नाम, मेरा रोल नंबर, रोजगार समाचार में!’’

उसकी पत्नी की आंखों में खुशी के आंसू छलक उठे। उसने ऊपर की ओर देखते हुए आंखें बंद कीं, हाथ जोड़े, और अपने को संयत करते हुए पूछा, ’’कहां जाना होगा?’’

’’जहां भी जाना हो, रेलवे की नौकरी है! रेलवे का पास मिलेगा! मेरा, तुम्हारा, बच्चों का!’’

’’सच?’’ उसकी पत्नी ने पूछा तो वह और भी चहक उठा - ’’और नहीं तो क्या! और हमें सरकारी क्वार्टर मिलेगा, बुढ़ापे में पेंशन मिलेगी। और भी बहुत कुछ!’’  

छोटेलाल के दोनों बच्चे उसके पास आकर उछलने-कूदने लगे। उसने उन्हें अपने कंधों पर बिठाया और गोल-गोल घूमने लगा। घूमते हुए ही उसने अपनी पत्नी से कहा, ’’चलो तैयार हो जाओ। आज बाजार चलेंगे और बच्चों के लिए खिलौने खरीदेंगे। नए-नए खिलौने!’’

’’और मेरे लिए भी कुछ!’’ उसकी पत्नी ने लरजते हुए कहा।

’’हां तुम्हारे लिए भी। सलवार-सूट!’’

एक अरसे बाद छोटेलाल का परिवार कहीं बाहर जाने के लिए तैयार हुआ। पत्नी और बच्चों को लेकर जैसे ही वह बाहर आया, उसने कृष्णा दीदी के ड्राइवर को आते हुए देखा। आते ही उसने आदेश किया कि शाम को पांच बजे तक वह बंगले पर पहुंच जाए, मेहमान आने वाले हैं।

छोटेलाल ने तुरंत जवाब दिया, ’’मैं अपने परिवार के साथ बाजार जा रहा हूं, आज नहीं आ पाऊंगा।’’

ड्राइवर ने कहा, ’’लेकिन छोटेलाल, शाम को मेहमान आने वाले हैं बंगले पर।’’

छोटेलाल ने कहा, ’’भाई साहब, मैं अब इस व्यूह से बाहर निकल रहा हूं। अब कोई दूसरा आदमी ढूंढ़ना होगा मेरी जगह। समझ गए ना! कृष्णा दीदी को मेरा संदेश दे देना।’’ इतना कहते हुए वह पत्नी और बच्चों के साथ स्कूल के गेट की ओर बढ़ गया।

ड्राइवर को माजरा समझते देर न लगी। उसने छोटेलाल और उसके परिवार को गेट से बाहर निकलते हुए देखा और मुस्कुरा दिया।  

मधुपुर आबाद रहे

$
0
0

 

वृहत्तरसरोकारोंसेजुड़ाकाव्यसंग्रह : मधुपुरआबादरहे

किरणसिपानी

 सहलेखन,सहसंपादन के अतिरिक्त गीता दूबे के स्वलेखन की पहली प्रकाशित काव्य कृति है —   'मधुपुर आबाद रहे।पहली संतान की तरह पहली मौलिक पुस्तक भी प्रिय होती है। इस सृजन के लिए गीता दूबे को बधाई।

बड़ीसंजीदगीसेअपनेयुगकेयक्ष- प्रश्नोंसेजूझतीकवयित्रीस्त्री-मनकेतहखानोंकीपड़तालभीकरतीहै।व्यापकमानवसमुदायसेजुड़ीविभिन्नभावोंऔरमूडोंकी 53 कविताएंँकवयित्रीकेउज्जवलभविष्यकाशंखनादकरतीहैं।कवयित्रीकेशब्दोंमें—"कविताकीव्यापकतामानवमात्रसेजुड़ीसंवेदनाकोखुदमेंसमेटकरउसेविस्तारदेतीहै ,शब्दबद्धकरतीहै।"उसकीकविताओंमेंकहींआतंकवादकाखौफपसराहै।कहींबेरोजगारीकाटीसतादर्दहै।कहींसिरउठाएआधुनिकजीवनशैलीकीविडम्बनाएँहैं।कहींइंसानियतकागलाघोटताबाजारवादहै।कहींप्रजातंत्रमेंखूनमखूनहोगएअरमानोंकीपड़तालहै।कहींबुद्धकेबहानेमूर्तिपूजाकीसाजिशकीपीड़ाहै।कहींप्रकृतिऔरमानवकेअंतर्संबंधोंकीपड़तालहै।कहींस्त्री-पुरुषकेसंबंधोंकेइंद्रधनुषी- सलेटीरंगहैं।कहींजीवनकेकेंद्रीयभावप्यारकेरंग-तरंग-व्यंगकीबौछारहैऔरकहींपरअपनेगुरुओंकाकृतज्ञतापूर्णस्मरण-नमनहै।संग्रहकीपहलीकविता'स्त्रीहोना'सेहीस्त्रीहोनेकीविडंबनाकाएहसासहौले -हौलेपाठककेजेहनमेंउतरनेलगताहै।चौंसठकलाओंमेंदक्षहोकरभीस्त्रीदेहकीधुरीपरहीटँगीहोतीहै।हकीकतकोबयांँकरतीकवयित्रीकेशब्दहैं:


स्त्रीहोना

विषैलेसांँपोंकीसंगतको

तनीहुईरस्सीसमझकरचलनाहोताहै।

 

परंपराऔरआधुनिकताकेबीच'चिड़ियाँ'सीझूलतीलड़कियांँआँधियोंकेवारसेतार-तारहोजातीहैं।मुक्तिकेलिएछटपटातीबेटियोंकोकवयित्रीछद्ममुक्तिकेभुलावेसेसावधानरहनेकीसीखदेतीहै।मुक्तिकेसंदर्भमेंकवयित्रीकीदृष्टिसाफहै :

मुक्तिकासहीआनंदऔरआस्वाद

अपनीनहीं, सबकीमुक्तिमेंहै।

जहांँमुक्तविचारऔरउदारआचारहो

हरएककेलिएविकासकाआधारहो।

 जहाँअर्गलाएँतनकीहीनहीं

मनकीभीकटकरगिरें....

 असहमतिकेलिएजगहमिले

निर्णयकाअधिकारमिले।

 

'मुक्तिकहांँहै'कवितापुरातनसेअधुनातननारीकीकहानीबयांँकरतीहै।नारीस्वयंसेहीप्रश्नकरतीहै :

मुक्तिकहांँहैअभी

पूरीसमग्रतामें।

 

अभीभीतोनारीचीजऔरवस्तुहै, द्वितीयश्रेणीकीनागरिकहै, वहमनुष्यकहांँहै ? अभीतोवहनएइतिहासकोरचनेकेलिएहुंकाररहीहै।अपनीसखियोंकोसंगठितहोनेकेलिएपुकाररहीहै।नएप्रतीकों, नएउपमानों  काएकनयासंसारगढ़नाचाहतीहैवह।सूरजकोअपनीहथेलीपरउतारलानाचाहतीहैवह।कोमलताकेरेशमीएहसासोंकीकैदसेमुक्तहो  पथरीलेरास्तोंपरचलकरअपनेसहीमुकामतकपहुंँचनेकीआकांक्षीहैवह।

 

प्यार-1, प्यार-2, इंतजार, प्रेम, फासला, सौंदर्य, सूरज, मंजिलआदिकविताएंँइसविश्वासपरमुहरलगातीहैंकिप्रेमहीजीवनकीधुरीहै।जीवनकीसमस्तपरिधियांँइसीसेसंचालितहोतीहैं, गतिमानरहतीहैं।इसधुरीकास्खलनजीवनकोएकाकीपनऔरउदासीकेरंगोंसेभरकरश्रीहीनकरदेताहै।किसीअपनेकेप्रेमकीनर्म-गर्मरोशनीसेसार्थकहैकवयित्रीकाजीवन:

सौभाग्यतिलकजोरचदिया

तुमनेमेरेमाथेपरअनायासही

उसकीऊष्मासेअबतक

घिराहुआहैमेराजीवन।

उससौभाग्यको

अपनेप्रशस्तभालपर

विजयपताकासीधारेहुए

सपनोंकेसंसारमेंविचररहीहूँमैं।

 

बसंतकीमादकबयारकीतरहप्रेमसांँस-सांँसकोमहकादेताहै।प्यारकीताजासुवासव्यक्तिकेपोर-पोरमेंघुलजातीहै।असीमसंभावनाओंकेद्वारखुलजातेहैं।जीवनकोएकमकसदमिलजाताहै।प्रकृतिकेअद्भुतसौंदर्यकोपीनेकेलिएप्रियकास्मरणकितनास्वाभाविकहोताहै :

इसअद्भुतअप्रतिमसौंदर्यकोनिहारतेहुए

जातीहै

अनायासतुम्हारीयाद।....

इससौंदर्यकोसंजोपाना

बटोरपाना

अकेलेमेरेवशकीबातभीतोनहीं।

 

प्यारकारंगसुरक्षितरहेतोदुनियाबेनूरनहींहोती।परआधुनिकसमयमेंमनुष्यपरस्वार्थइतनाहावीहोगयाहैकिवहअपनीजिंदगीकीतालकोबिखेरनेपरआमादाहोगयाहै।प्रेमकेशाश्वतपाठकोपढ़नेकेलिएमनुष्यकोप्रेमकेप्रतीकमधुपुरकेपासलौटनाहीहोगा:

मधुपुर

ऐसेहीरहनाआबाद

अपनेअंतरमेंसमेटे

प्रेमकाशाश्वतराग।

 हमआएंगे

फिर -फिरतुम्हारेपास

सीखनेप्रेमकाअद्भुतअनूठापाठ।

 

मनकीधरतीपरविचरनेवालीइससंग्रहकीढेरोंकविताएंँमानवीयसंवेदनाओंकोबड़ेजीवंतरूपमेंउकेरतीहैं।इनकविताओंमेंअभिव्यक्तव्यक्तिगतपीड़ा, थकान, विचलन,विराग ,विश्वास, आश्वस्तिपाठककोस्पंदितकरतेहैं :

ऐसाक्योंहोताहै

कभी-कभीमनबादलहोजाताहै

जरासीठेसलगीतोटपटपझड़जाताहै

.....

कतराकतरालहूजिगरका

बर्फ  साजमजाताहै।

 

लाजवंतीकेपौधेसादुखहदसेगुजरजाताहैऔर :

 जोदर्दसेदवाबननेकीतैयारीमेंघुटरहाथा

भीतरहीभीतर

भीतरहीभीतर।

 

इश्तिहार, काश, मनकीधरती, दुख, प्रतिकारस्वीकारोक्ति, ऐसाक्योंहोताहैआदिकविताएंँबहुतहीमर्मस्पर्शीहैं।

 

प्रकृतिकेविभिन्नउपादानोंकेरूप- सौंदर्यसेकवयित्रीआंदोलितहोतीहै।कभीचांँदचिरकालिकशाश्वतमैसेंजरकीतरहआजभीसंदेशपहुंँचातासाप्रतीतहोताहै।कभीकवयित्रीकोरुमानियतकाप्रतीकचाँदनहींचाहिए, वहतोअपनीहथेलीपरसूरजकोउतारलानेकीकामनाकरतीहै।तोकभीउसेदुलारताहुआजंगलपासबुलाताहै :

कहताहै, आओ

सुनोजराहमारीभीतान।

अनदेखे, अनछुए, अद्भुतसौंदर्यसेघिरा

जंगलकाजादुईपरिवेश

बांँधलेताहैमनको।

दूरहोजाताहै

अजनबियतकाअहसास।

 

कवयित्रीपीड़ितहैकिसभीफेसबुकऔरव्हाट्सएपपरव्यस्तहैं।किसीकोनन्हीगौरैयाकीचिंतानहींहै।आधुनिकविकासऔरविनाशजुड़वाँभाइयोंजैसेएकसाथपल्लवितहोरहेहैं।मोबाइल, कंप्यूटरऔरअनेकइलेक्ट्रॉनिकउपादानोंनेजीवनकीरफ्तारकईगुनातेजकरदीहै।परमोबाइलटावरोंकासंजालऔरइलेक्ट्रॉनिककचरेकाबेहिसाबजंगलविनाश-लीलारचरहाहै।लाखोंअवरोधोंकेबादभीप्रकृतिकावरदाननन्हीगौरैयादुगनेजोशसेअपनेनएसृजनमेंजुटजातीहै।

'घरबंदी'कीचारकविताएंँखाये-पीये-अघायोंकेसोशलाइजेशनकीखोज-खबरलेतीहुईभुखमरीकेविकरालप्रश्नपरजाटिकतीहै।कोरोनाकालमेंसरकारीफरमानोंकीबंदिशेंभीदिहाड़ीमजदूरोंकेसैलाबकोरोकनहींपातीं।'हथेलीपररखकरप्राण, पानेकोसजासेत्राण'  वेनिकलपड़तेहैंअपनेघरोंकीओर।जानेघरकीचौखटकबनसीबहोगीउन्हें।कबघरवालोंकेप्यारसेसनीरूखीरोटीमिलेगी।घरबंदीकेशिकारइनजैसेलोगोंकेप्रतियेकविताएंँकरुणाकीधारबरसातीहैं।उनकीखुशहालीकेलिएपाठकोंकेहाथदुआओंमेंउठजातेहैं।

 

शांतिनिकेतन, चंद्रामैडमकेसाठवेंजन्मदिनपर, सुकीर्तिदीकीमृत्युपरलिखीकविताएंँअपनेगुरुओं-साहित्यकारोंकेप्रतिप्रणति-निवेदनहै।यहस्मरणमनकोतृप्त- शांतकरताहै :

आकुलहमारामन

खोजताहैसमाधान

जबकिसीसमस्याका

शीषपररखहाथ

वात्सल्यका

दुलारदेतीहैंआप

नन्हेछौनेकीतरह।

 

सच्चेमित्रशब्दों-दूरियोंकेमोहताजनहींहोते।वेहमारीप्राण-वायुहोतेहैं।बड़ेमार्मिकअंदाजमें'गुइयां'कवितासख्यकेअद्भुतसंबंधकोकलमबद्धकरतीहै :

दोनोंहथेलियोंपरअपनामासूमउजलाचेहराटिका

बड़ेभोलेपनसेपूछतीतुम,

'गोंइयांबोलबूनाहीं ?'

इतनानिश्चलहोतातुम्हारास्वर

किबरबसहंँसपड़तीमैं

औरफिरशुरूहोजाताकिस्सोंकाअनंतसिलसिला।

 

विज्ञानऔरतकनीकनेहमारेआधुनिकजीवनमेंअकल्पनीयपरिवर्तनकियाहै।परपुरानेजीवनकीकुछरस्मेंआजभीहमारेदिलोंमेंकसकपैदाकरतीहैं।आज :

प्रेमकेसंदेशेभी

जोकईबार

पढ़लेनेकेतुरंतबाद

मिटाभीदियेजातेहैं।

जैसेडिलीटकरनेमात्रसे

डिलीटहोजातीहै

वहसूरतभी।

काश! फिरसेलिखेजातेखत,

सहेजेजातेउम्रभर।

 

व्यंग्यकापैनापनसिंदूर, कविगोष्ठी, राज़, न्याय, इंतजार, बाज़ारजैसीकविताओंकेमाध्यमसेहमारेअंतरकोभेदताचलाजाताहै।इंसानियतकागलाघोंटताबाजारहमारीमूलभूतआवश्यकताबनगयाहै।आजकेजीवनकाशाश्वतसत्यहैबेचनाऔरखरीदना:

व्यापारहमारेखूनमेंसमागयाहै

औरहममुग्धहैं

अपनेइसकौशलपरखुदही

आखिरकुछतोसीखाहै

हमनेअपनेप्रभुओं, आकाओं

औरतथाकथितलोकनायकोंसे,

जिन्होंनेहमारीहरसांँसकोगिरवीरखदियाहै

देशी-विदेशीतिजोरियोंमें।

शरीरकीनुमाइशमेंआत्ममुग्धस्त्रियोंकोलताड़नेमेंकवयित्रीकोईकोर-कसरनहींछोड़ती :

धड़कातीरहीतुम

सैकड़ोंयुवाओंकेदिल

बनावटीसौंदर्यकीमरीचिकामें

भटककरखोबैठे

वेअपनीमंजिल।

 

आतंकवाद, एसिडफेंकनेऔरबेरोजगारीजैसीसमस्याओंसेकवयित्रीविचलितहोतीहै।वहआलोचककीभूमिकामेंउतरजातीहै।सच्चेप्रेमीतोउदारहोतेहैं।उनमेंअहंकारकालेशमात्रभीनहींहोता।बड़ीबेबाकीसेवहकहतीहै :

 

फेंकतेहैंजोएसिड

प्रेमिकाकेचेहरेपर

नहींहोतेप्रेमी

होतेहैंशिकारी

याफिरपागल,वहमी

.........

भलाकैसाहैयहप्यार

झुलसाकर, जलाकर

अपनीहीप्रियाको

करदे, उसकासर्वनाश।

यहतोहै,

महजघातकअहंकार।

अहंकार, किसीकाभीहो

पुरुष, जाति, देशयाधर्मका

अपनेसाथलाताहै

सिर्फऔरसिर्फ

विध्वंसकविनाश।

 

युगकेतमामउतार-चढ़ावोंपरअपनीप्रतिक्रियाव्यक्तकरतीहुईकवयित्रीआनेवालेउजियारेकेप्रतिआश्वस्तहै:

जनचेतनाका, होगाजबविस्तार

अंधेराछंटजायेगा, छायेगाउजियार।

 

अतुकांतकविताओंकेसाथ, टेकलिएतुकबंदकविताएंँ, कुछमुक्तकऔरगजलेंप्रभावितकरतीहैं।इससंग्रहकीभाषाबहतेनीरसीहै, संतरणकरतेमनमेंमिश्रीसीघुलजातीहै।अक्सरस्त्रीसृजनात्मकताकोस्त्रीविमर्शकेचश्मेसेनिहारनेकाचलनहै।चश्माउतारकरदीदारहोनाचाहिए, बाततोतबबने!



पुस्तक: मधेपुर आबाद रहे

रचनाकार: गीता दूबे

प्रकाशक: न्यु वर्ल्ड पब्लिकेशन, नई दिल्ली

मूल्य: 175/-

Viewing all 222 articles
Browse latest View live