Quantcast
Channel: लिखो यहां वहां
Viewing all 222 articles
Browse latest View live

चलचित्र

$
0
0


काश कोई ऐसा तरीका मेरे पास हो, मैं कहानी का पाठ करूँ और आप उसे दृश्य में देख सकें तो सम्भव है कि नवीन नैथानी की कहानी हत वाकके बारे में मुझे अलग से कुछ कहना न पड़े। 'स्मार्ट सिटी'की अवधारणा में उधेड़ी जा रही भारतीय समाज की बुनावट तो दृश्य के रूप में सामने हो ही, अपितु तंत्र द्वारा विकास का झंडा गाड़ते हुए भूगोल की जो 'सीटी'बज रही है, वह भी सुनाई देने लगे।
मेरे देखे, समकालीन यथार्थ को इतने कलात्मक ढंग से दर्ज करती यह अभी तक कि यह पहली हिंदी कहानी होनी चाहिए। अभी तो कहानी को पाठकों तक पहुंचाने की कोशिश में यहां इसलिए लगा रहा हूँ कि कथादेश के फरवरी अंक में जो पढ़ न पाए हैं, पढ़ सकें।
कभी विस्तार से लिखने का अवसर निकाल पाया तो जरूर लिखूंगा। गंवई आधुनिकता से भृष्ट आधुनिकता के दो छोरों पर डोल रही हिंदी कहानियों के सामने यह कहानी ठीक मध्य में खड़े होकर आधुनिकता के सही रास्ते का मार्ग ढूंढने में सहायक हो रही है। 
वि गौ



                नवीन कुमार नैथानी


             मुझे अभी तक यकीन नहीं हो रहा कि मेरी आवाज फिर से बन्द हो गयी  थी.कहा जाता है कि हादसों  के वक्त ऐसा हो जाया  करता है .पर मेरे साथ तो कोई हादसा नहीं घटा. लोगों को  ऐसा लगता है.पुरानी ईमारतें गिरती रहती हैं.पुराने मकान भी ढह जाते हैं.सबका वक्त तय है.
          आवाज लौटने के बाद मुझे वह सब बता ही देना चाहिये.एक डर सा कुछ फिर भी बना रहता है- सुनेगा कौन? जो मैं कह रह हूँ , कोई उस पर यकीन भी करेगा? सब लोग जानते हैं कि डूबते हुए जहाजों के साथ पुराने जमानों के  कप्तान जहाज नहीं छोड़ दिया करते थे.पर टूटते हुए मकान कोई जहाज नहीं होते.मकानों को लोग बहुत आसानी से छोड़ देते हैं.जब लोग रहना छोड़ देते हैं तब भी मकान नष्ट होने लगते हैं. धीमे-धीमे...
         मुझे सादी नानी के मकान की याद है.उनका सही नाम क्या था? यह हममें से किसी को नहीं पता.उनका कोई और नाम रहा भी हो, यह जानने की शायद किसी ने कोशिश भी नहीं की.ननिहाल में नाना के घर से चार घर उत्तर की तरफ सादी नानी का मकान था – बहुत बड़ी और ऊँची दीवारों से घिरा हुआ ; मिट्टी और धूल और हवाओं मेम उड़ते हुए पत्तों से खड़खड़ाता हुआ.सादी नानी को हमने नहीं देखा.बहुत पहले वे अपनी बेटी के पास विदेश चली गयी थीं.जब तक नाना रहे,सादी नानी के मकान की देख-भाल होती रही. नाना एक हिलती हुई आरामकुर्सी की तरह स्मृतियों में दर्ज़ हैं.उनके हाथ में हमेशा एक अखबार रहा करता जो पिछली शाम को शहर से आने वाली इकलौती बस पर चलकर उनके पास पहुँचता.नाना के बाद वह मकान यतीम हो गया.उसकी चार-दीवारी पर यहाँ-वहाँ पीपल के मुलायम पत्ते निकलने लगे. बड़े दरवाजे पर मोटी और मजबूत साँकल आ टिकी.
        सादी नानी के घर की वह साँकल अब भी किसी बुरे सपने की तरह मेरी यादों में चली आती है.वह ननिहाल की मेरी आखिरी यात्रा थी.नाना के बाद नानी अकेली रह गयी थीं.वे आती हुई सर्दियों के नम दिन थे और आसमान जाती हुई बारिशों की धुलाई से बहुत साफ बना हुअ था.हम लोग हमेशा की तरह शाम की बस से पहुँचे थे.सफर की थकान के साथ सब लोग रात होने से पहले ही ऊँघने लगे थे.मैं सुबह होने से पहले ठीक से सो भी नहीं सका.सपने में भी सादी नानी का घर दिखायी देने लगा था.जब भी हम आते , नाना गोविन्द मामा को बुला लेते थे.गोविन्द मामा हमें सादी नानी का घर दिखाने ले जाते थे.उस घर की चार-दीवारी के भीतर एक बहुत बड़ा कुंआ था.हम दौड़ कर कुंए तक पहुँचते और तुलसी चौरे के पास आँख बन्द कर सूरज की पहली किरणों का इन्तज़ार करते.नाना के बाद गोविन्द मामा को बुलाने वाला कोई नहीं था.सुबह होते ही सादी नानी का घर मुझे पुकारने लगा.
      सादी नानी के घर की तरफ दौड़ते हुए दरवाजे की चौड़ी चौखट फलांगने में मुझे बहुत आनन्द आता था.उस सुबह जब मैं अकेला उस दरवाजे के पास पहुँचा तो स्तब्ध रह गया. वापस लौटा तो बहुत देर तक मेरी आवाज नहीं निकल पायी थी.वह आवाज बन्द होने का पहला हादसा था जो मेरे साथ घटा था.वह सच में एक हादसा था.सादी नानी के घर का दरवाजा बन्द था और उस पर एक मोटी साँकल लगी हुई थी.वे मेरे बचपन के दिन थे और मैंने पहले कभी बन्द दरवाजे नहीं देखे थे-बाहर से बन्द.अपने घरों में हम जब भी प्रवेश करते तो दरवाजे हमेशा खुले हुए मिलते.हम जब घरों से बाहर निकलते तो पूरा घर हमारे साथ खाली नहीं हो जाता था – घर के भीतर तब भी बहुत सारे लोग रह जाते थे.
मुझे बाद में बताया गया कि कुल चार घण्टे तक मेरी आवाज नहीं निकली थी.गोविन्द मामा को बुलाया गया.आवाज लौटने के बाद मेरी समझ में नहीं आया कि मेरे साथ क्या हुआ था?
“ तुम्हारी आवाज रूठ गयी थी” मनोज मामा ने मुझे बहलाते हुए कहा था.
“नहीं.यह सच नहीं है,”मुझे लगा जैसे आवाज का रूठना कोई बहुत बुरी बात हो,“मेरी आवाज नहीं रूठी थी.वह सादी नानी को ढूँढने चली गयी थी.”
“तुमने तो सादी नानी को देखा भी नहीं.”
“तो क्या हुआ!उनका घर तो देखा है.”
“ठीक है ,मान लेते हैं,”गोविन्द मामा की आँखों में अजीब तरह की चालाकी चली आयी थी,“तुम तो सादी नानी को पहचान लेते.तुम्हारी आवाज कैसे पहचानती ?”
एक बच्चे के लिये इस सवाल का जवाब देना मुश्किल था.गोविन्द मामा ने मुझे चुप देखा तो अपने होंठों से सीटी की तेज आवाज में एक धुन बजाने लगे.
“यह धुन मत बजाओ.” मैंने उन्हें टोक दिया था.
“क्यों”
“यह धुन सादी नानी को अच्छी नहीं लगेगी.”
“वे तो यहाँ नहीं हैं”
“जब वापस लौटेंगी तो उन्हें दिखायी दे जायेगी.”
“कैसे”
“तुम्हारे होंठों से निकल कर वह सादी नानी के दरवाजे की साँकल में छिप गयी है. वे लौटेंगी तो दरवाजे को खोलेंगी. जैसे ही साँकल हटायेंगी,धुन वहाँ से बाहर निकल जायेगी.”
बहुत देर तक वहाँ कोई आवाज नहीं निकली.सब लोग चुप होकर मुझे देखते रहे.शायद उन्हें लग रहा था कि एक छोटा बच्चा इस तराह की बातें क्यों कर रहा है.पर मेरे लिये इसमें अजूबे जैसा कुछ भी नहीं था.आज सोचता हूँ तो इस बात पर आश्चर्य नहीं होता.बचपन से अधिक सहज और सरल जीवन में और है भी क्या! वह ननिहाल की मेरी आखिरी यात्रा थी.उसके बाद कभी ननिहाल जाना नहीं हो सका.
आवाज के साथ दूसरा हादसा कोई पच्चीस साल बाद घटा .तब तक मैं पत्रकारिता को एक पेशे के तौर पर पूरी तरह अपना चुका था.लोगों से मिलना और नयी जगहें देखना मेरा शौक था.धीरे-धीरे यह शौक एक जुनून में बदलता गया. अनजाने इलाकों में जाना मुझे अच्छा लगता था. मैं कई दिनों तक घर से बाहर निकला रहता.मेरे आस-पास के ज्यादातर  लोग घरों में बने रहते.बाहर निकलते भी तो बहुत जल्दी अपने घरों में लौट आते.
“अरे , नरेन!” कहाँ निकल गये थे?” लोग मुझसे अक्सर कहते,“इस तरह भटकते हुए कहीं घर का रास्ता तो नहीं भूल जाओगे?”
मैं इस तरह के सवालों का जवाब अक्सर नहीं दिया करता था.एक रोज यही बात सावित्री चाची ने कही.
हाँ, सावित्री चाची! वही सावित्री चाची जो मेरे उस फ़ीचर की केन्द्रीय तस्वीर  में थीं .अधखुले और अधबन्द दरवाजे के बीच-दहलीज पर ठिठकी हुईं. सावित्री चाची से हमारा खून का रिश्ता नहीं था.लेकिन कभी हमने महसूस नहीं किया कि वे हमारे परिवार की सदस्य नहीं हैं.वे गली और मुहल्लों के दिन थे.तब कॉलोनियाँ सुदूर भविष्य में कहीं जन्म लेने की सोच रही थीं.
“नरेन!लोग तुम्हारे बरे में क्या-क्या बातें करते रहते हैं.”एक रोज उन्होंने कहा था,“तुम हमेशा भटकते रहते हो.अब यह भटकना बन्द करो.”
“चाची मैं भटकता नहीं हूँ.”मैंने कहा था,“जिसे लोग भटकन कहते हैं वह तो यात्रा है.आप को कहना था, मैं निरन्तर यात्रा में रहता हूँ.”
चाची सन्तुष्ट नहीं हुईं.उन दिनों वे सन्तुष्ट नहीं होती थीं.सन्तोष करने के लिये उनके पास बहुत कुछ था भी नहीं.वे उम्र के पचास बरस पार करने के बाद भी उसके इन्तज़ार में थी – जिसका उन्हें खुद भी पता नहीं था.
“आखिर मुझे भी पता चले कि तुम्हारी यात्रा में और भटकन में क्या फर्क है?” चाची बहुत संजीदा थीं.
“भटकता हुआ आदमी न कहीं पहुँचता और न कहीं लौटता है.” मुझे याद है, चाची यह जवाब सुनकर उदास हो गयी थीं.
थोड़ी देर हमारे बीच चुप्पी ठहर गयी.उसका भारीपन जमी हुई बर्फ की तरह महसूस किया जा सकता था.उसे सिर्फ आवाज की नमी से हटाया जा सकता था.
“देखो चाची,यात्रा में हम हमेशा किसी जगह पहुँचते हैं और फिर वापस लौट आते हैं.”
जो लोग कहीं पहुँच जाते हैं और वापस नहीं लौटते?
शायद चाची यह सवाल पूछना चाहती थीं.लेकिन वे चुप रहीं.उनकी उदासी और ज्यादा बढ़ गयी थी. एक सुबह चाचा घर से बाहर निकले तो कभी वापस नहीं लौटे.उनके कहीं भी होने की कुछ भी खबर नहीं मिल सकी.क्या चाचा अब भी कहीं भटक रहे होंगे.
“तो तुम एक काम क्यों नहीं करते?” चाची अचानक भीतर की यात्रा से बाहर लौट आयी थीं,“तुम जितनी जगहों पर जाते हो, जितने लोगों से मिलते हो ,जितनी बातें करते हो,उन्हें दर्ज कर लिया करो.”
तब मैंने सावित्री चाची की सलाह मान ली और अपनी यत्राओं के अनुभव लिखने लगा.शुरू में मैंने दो यत्राओं के अनुभव लिखे और चाची को सुनाये.
“इन्हें तो दुनिया के सामने आना चाहिये.तुम इन्हें अपने पास नहीं रख सकते.” बहुत देर तक चुप रहने के बाद वे बोलीं,“इन्हें छपने भेजो.”
सावित्री चाची निरन्तर मुझे लिखने और छपने के लिय उकसाती रहीं.वह एक तरह से  मेरे पत्रकार होने की शुरुअत थी.जैसे-जैसे मैं पत्रकारिता के दुनिया में रमता गया,वैसे-वैसे मेरा घर जाना कम होता गया.जब भी घर लौटता तो तीन गली पार कर सावित्री चाची के घर जरूर जाता.
“तो अब तुम्हारा भटकना बढ़ गया है.” चाची उलाहना देतीं.
“अर, कहाँ चाची.अब तो बस भागम-भाग है.बस, खबरोम के पीछे भागो,हादसों की जगहों पर भागो.”
“भागती हुई दुनिया भी भागती कहाँ है नरेन!जिसे तुम भागम-भाग कह रहे हो ना!वह और कुछ नहीं है.बस भटकन है”
उस वक्त सावित्री चाची की बात सुनकर मुझे अजीब सा अहसास हुआ था.उनका इकलौता बेटा एक अच्छी नौकरी पाकर दूसरे शहर में चला गया था.चाची एक स्कूल में पढ़ाया करती थीं.
अगली बार जब मैं घर गया तो आदतन,चाची के घर की तरफ चल दिया.जिस घर में चाची रहती थीं ,वहाँ ताला लगा हुआ था.मैं घर वापस लौटा तो कुछ बोल ही नहीं सका.मेरी आवाज कहीं चली गयी.तीन दिन तक मेरी आवाज नहीं लौटी.मैं कुछ बोलना चाहता तो बोलने के लिये आपनी आवाज को ढूँढता.वह कहीं दूर सादी नानी के कुंए में छिप जाती.मुझे सब कुछ साफ दिख रहा था.आस-पास लोग थे.उनकी आवाजें सुनायी देती थीं.
तीन दिन बाद जब मेरी आवाज लौटी तो मैंने सावित्री चाची के बारे में पूछा.माँ ने बताया कि एक महिना पहले उन्होंने अचानक नौकरी छोड़ दी.वे गाँव चली गयी हैं.वहाँ चाची का पुश्तैनी मकान है.उसमें कोई रहने वाला नहीं है.चाची त्क खब्र पहुँची थी कि मकान टूट रहा है.भारी मन के साथ मैं काम पर वापस लौटा.
गाँवों की बदलती दुनिया के बारे में एक फीचर तैयार करते हुए मुझे ननिहाल की याद आयी.सादी नानी के घर की याद आयी –उनके बन्द दरवाजे में पड़ी साँकल का दृश्य आँखों के सामने कौंध गया.नानिहाल जाने की इच्छा खत्म हो गयी.फिर मुझे सावित्री चाची का ध्यान आया – वे भी तो गाँव में रह रही हैं.मैंने तय कर लिया फीचर के लिये यात्रा की शुरुआत सावित्री चाची से मिलकर की जाये.
गरमियों की लम्बी और धूल भरी दुपहर पार कर मैं वहाँ पहुँच सका था.वह पुराना और बड़ा मकान था.बाहरी दीवार के पत्थर कई जगहों पर हिल रहे थे और टीन की छत बदरंग हो चुकी थी.बहुत बड़ा, लकड़ी का पुराना दरवाजा खुलने और बन्द होने के बीच की स्थिति में झूल रहा था-आधा बन्द और आधा खुला.
“दरवाजा बन्द है कि खुला?” मैंने सावित्री चाची से मिलते ही सवाल किया.
“कोई भी आता है समझ लेती हूँ कि दरवाजा खुला है.जब चला जाता है तो समझ लेती हूँ कि बन्द हो गया है.”
सावित्री चाची बहुत बूढी लग रही थीं. शायद चन्द सालों में वे दशकों की उम्र जी ली थीं.कद वही था,चेहरा वही था,आवाज भी वही थी.बस सावित्री चाची वह नहीं रह गयी थीं.उन्को देख कर लगा कि कुछ है जो बदल गया है. जाती हुई उम्र के छूटते हुए निशानों के अलावा भीतर कुछ है जो दरक रहा है-आहिस्ता-आहिस्ता.
“अचानक कैसे चले आये!खबर कर दी होती”
“आपसे मिलने का मन हो आया.”
“झूठ बोलना नहीम छोड़ा ,नरेन!”क्षण भर को लगा कि चाची वही हैं.
“अरे चाची! बदलती दुनुया के साथ गाँव भी तो बदल रहे हैं.पहले छूटते गाँवों की कहानी ढूँढते थे.अब बदलते गाँवों की कहानी पर काम कर रहा  हूँ”
“क्या बदलेगा नरेन!” चाची ने लम्बी सांस ली,“मैं तो ऊपर वाले से मना रही हूँ कि मेरे रहए तो हवा खराब न हो. सड़क किनारे के गाँव और घर दोनों अब पैसों में बदलते जा रहे हैं”
उनका बेटा चाहता था कि वे उसके पास रहने चली आयें.खाली मकान वैसे भी एक बोझ है.वह ढहा दिया जाये तो जमीन की ठीक कीमत मिल जायेगी.लौटते हुए आधे बन्द दरवाजे तक वे मुझे विदा करने आयीं.
“एक फोटो!” उस खुले-खुले से बन्द दरवाजे के फ्रेम में उनकी मौजूदगी जिन्दा साँसों की तरह महसूस हो रही थी.
“जानते हो नरेन!मेरी क्या इच्छा है?”उन्होंने रुकते हुए कहा था,“यही कि इस घर को भीतर से इतना सजा दूँ कियहाँ से कोई जाना ही न चाहे.”
“अरे! चाची ठीक ही है,”मुझे यह खयाल कुछ जमा नहीं.
“शृंगार तो बुढ़िया भी करती ही है.”विदाई के वक्त मैंने महौल को हलका बनाने के इरादे से कह दिया.
चाची के चेहरे के भाव जिस तरह से बदले ,उन्हें देखकर मुझे लग गया कि मैं बहुत बड़ी भूल कर चुका हूँ.उनके चेहरे में हैरानी,पीड़ा और गहरी हताशा के भाव एक के बाद एक आये और चले गये.
वे कुछ नहीं बोलीं.हलके से मुस्करायीं.उस मुस्कान में उदासी के तमाम रंग एक साथ उभर आये थे.मेरी हिम्मत नहीं हुई कि मैं एक बार फिर से मुड़कर सावित्री चाची की तरफ देखूँ.मैं चुपचाप बाहर निकल आया.
वह फीचर बहुत पसन्द किया गया.उस फीचर में मैंने सावित्री चाची का फोटो भी छापा था.वही-आधे खुले हुए दरवाजे के पास-उदासी से भरी हुई मुस्कराहट के साथ.वे भीतर थीं कि बाहर , पता नहीं चल पाता था.
उस फीचर के चार साल बाद मुझे एक बार फिर वहाँ जाना पड़ा.तब वहाँ भीड़ थी,बहुत सारे पत्रकार थे और टेलीविजन के कैमरों की चमक थी.सड़क को चौड़ा होना था और उसकी जद में आने वाले गिने-चुके मकानों को ध्वस्त किया जा चुका था.सिर्फ एक मकान बचा रह गया जिसमें रहने वाले इकलौते बाशिन्दे ने बाहर आने से मना कर दिया था.बहुत सारे पत्रकार उसका साक्षात्कार लेने की कोशिश में असफल हो चुके थे.मेरे पास यह खबर पहुँची तो मैं समझ गया कि जरुर सावित्री चाची होंगी.मैं तुरन्त रवाना हो गया.मैं सावित्री चाची से बात करने के लिये बेताब था.रास्ते में सोचता रहा कि उनसे किस तरह बात की शुरुआत करूंगा.सबसे पहले तो मुझे पिछली बार विदा के वक्त कही गयी बात के लिये माफी माँगनी होगी.मैं कई तरह के वाक्य सोचता रहा.हर वाक्य गलत लगता.मुझे अपनी शर्मिन्दगी को बयान करने वाले शब्द नहीं मिल रहे थे.आखिर मैंने कोशिश छोड़ दी.तय कर लिया कि उनके सामने जो शब्द निकलेंगे वे  ठीक ही होंगे.
भीड़ के बीच रास्ता बनाने में ज्यादा दिक्कत नहीं हुई.बाहर का दरवाजा पूरी तरह खुला हुआ था.भीतर का दरवाजा भी. वे सीढ़ियों के ऊपर वाले कमरे में थीं.लकड़ी के बने फर्श पर पुराना कालीन बिछाये बैठी हुई थीं.उन्हें देखकर मैं स्तब्ध रह गया.मैंने पहले कभी उन्हें इस रूप में नहीं देखा था.उन्होंने पूरा शृंगार किया हुआ था.वे डूबते हुए जहाज  की डेक पर एक दुल्हन की तरह बैठी थीं.
“आओ,नरेन!”उन्होंने मुझे पहचान लिया था,“मकान को तो मैं सजा नहीं सकी.खुद को सजा लिया है.”
उनकी आवाज और चेहरे की भंगिमा देखकर मैं अवाक रह गया.मैं कुछ नहीं कह पाया.मेरी आवाज बन्द हो गयी.
मैं कैसे मान लूँ कि वह हादसा था.वह दृश्य बहुत साफ दिखायी दे रहा है.अब शायद उसके बारे में न कह पाऊँ.मुझे डर है कि मेरी आवाज एक बार फिर बन्द हो रही है...
नवीन कुमार नैथानी
ग्राम+पोस्ट भोगपुर
जिला देहरादून
248143


हिटलरी चिन्तन-पथ

$
0
0
पूर्वी कुमांऊ तथा पश्चिमी नेपाल की राजी जनजाति (वनरावतों) की बोली का अनुशीलन (अप्रकाशित शोध् प्रबंध) डॉ. शोभाराम शर्मा का एक महत्वपूर्ण काम है। उत्तराखंड के पौड़ी-गढ़वाल के पतगांव में 6 जुलाई 1933 को जन्मे डॉ। शोभाराम शर्मा 1992 में राजकीय स्नाकोत्तर महाविद्यालय, बागेश्वर से हिंदी विभागाध्यक्ष के पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। 50 के दशक में डा। शोभाराम शर्मा ने अपना पहला लघु उपन्यास "धूमकेतु"लिखा था। पेशे से अध्यापक रहे डा.शर्मा ने अपनी रचनात्मकता का ज्यादातर समय भाषाओं के अध्ययन में लगाया है। सामान्य हिंदी, मानक हिंदी मुहावरा कोश (दो भाग), वर्गीकृत हिंदी मुहावरा कोश (दो भाग), वर्गीकृत हिंदी लोकोक्ति कोश (दो भाग) उनके इस काम के रूप में समय-समय पर प्रकाशित हुए हैं। पिछलों दिनों उन्होंने संघर्ष की ऊर्जा से अनुप्राणित कुछ महत्वपूर्ण पुस्तकों के अनुवाद भी किए जो जल्द ही प्रकाशन की प्रक्रिया से गुजरकर पुस्तकाकार रूप में देखे जा सकेंगे। इसी कड़ी में "जब व्हेल पलायन करते हैं"एक महत्वपूर्ण कृति है। इससे पूर्व 'क्रांतिदूत चे ग्वेरा" (चे ग्वेरा की डायरी पर आधरित जीवनी) का हिन्दी अनुवाद, लेखन के प्रति डा.शोभाराम शर्मा की प्रतिबद्धता को व्यापक हिन्दी समाज के बीच रखने में उल्लेखनीय रहा है। इसके साथ-साथ डॉ. शोभाराम शर्मा ने ऐसी कहानियां लिखी हैं जिनमें उत्तराखंड का जनजीवन और इस समाज के अंतर्विरोध् बहुत सहजता के साथ अपने ऐतिहासिक संदर्भों में प्रस्तुत हुए हैं। उत्तराखंड की ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और सामंतवाद के विरोध् की परंपरा पर लिखी उनकी कहानियां पाठकों में लोकप्रिय हैं। प्रस्तुत है डॉ शोभाराम शर्मा की दो व्यंग्य रचनाएं।
डॉ.शोभाराम शर्मा 



 (रचनाकाल 1989)
आर्य आर्यानन्द जी वर्मा (1)


ठिगना कद । नाक-नक्श कुछ-कुछ आदिवासियों से । एकदम काले नहीं तो गोरे भी नहीं। तोंद कुछ बाहर निकलती हुई और सिर इतना छोटा कि किसी बड़े से घड़े के संकरे मुंह पर रखे कटर जैसा । नस्ल नामालूम । आर्य शब्द से इतना लगाव कि पहले नाम के आगे लेकिन अब पुछल्ले के रूप में भी। बात इतनी सी थी कि कुछ शिल्पजीवी लोग भी अपने नाम के आगे आर्य लिखने लगे तो वर्मा जी ने उसे पुछल्ला बनाना ही बेहतर समझा। इस तरह आर्यानन्द आर्य जी, आर्य आर्यानंद वर्मा हो गए।  हमने पूछा भी कि, जब नाम के पहले ही आर्य शब्द है तो फिर दुहरा प्रयोग करने का क्या तुक है  
वे बोले-''गुरुजनो ने तो यों ही आर्यानन्द नाम रख दिया जैसे महानन्द या कार्यानन्द । मैं इस दुहरे प्रयोग से यह सन्देश देना चाहता हू कि हम आर्य हैयह देश आर्यावर्त है और जो आर्यावर्त में रहकर अपने को आर्य नहीं कहता उसे इस देश में रहने का कोई अधिकार नहीं है।"
"आपकी इस धारणा में तो हिटलरी सोच के दर्शन होते है। "- हमने कहा तो आर्य जी हत्थे से ही उखड़ गए बोले - " हिटलर न हुआ चिन्तन-पथ का रोना हो गया । ऐरा- गैरा जो भी आए ठोकर मारकर चला जाए । अरेहिटलर जैसे महानायक तो कभी-कभी ही जन्म लेते हैं एक पराभूत
निर्जीव राष्ट्र को उसने किस तरह एक शक्तिशाली राष्ट्र में बदल दिया- यह नहीं देख पाते क्यों   
"वह सब तो ठीक ले कि परिणाम क्या निकला ? "- हमने कह दिया ।
"परिणाम का भय कायरता को जन्म देता है और हिटलर कायर नहीं था । शक्ति-सम्पन्न स्वाभिमान के साथ जितना भी जिए वह व्यक्ति हो या राष्ट्र बस उतने में ही जीवन की सार्थकता है। दूसरो के तलुए चाटकर जीना भी क्या जीना है।" उन्होंने कहा और मेज पर पड़ी फाइल के ऊपर-नीचे 'ओम' लिखकर बीच में स्वस्तिक का चिन्ह बनाने लगे।
"लेकिन आर्यत्व के नाम पर पूरी यहूदी जाति पर जो अत्याचार किए गए, क्या आप उनका भी समथर्न करते हैं  क्या आप भी यह मानते है कि प्रतिभा केवल तथाकथित आर्यों की पूंजी है कार्ल मार्क्स, फ्रॉयड और आइंस्टाइन जैसे लोगों का मूल्य क्या आप नस्ली आधार पर आंकेंगे ? " -हमने पूछ लिया ।
" देखिएजब एक राष्ट्र की अस्मिता का सवाल हो तो पंचमांगियो को सहन करना, अपने विनाश को न्यौता देना है। जर्मन राष्ट्र को भितरघात से सुरक्षित रखना समय की मांग थी। क्या हमें भी अपने हिटलर की आवश्यकता नहीं है ? " यहां भी ऐसे लोग है जो खाते यहां का और गाते कहीं और का हैं। जिन्होंने देश का दोफाड़ किया, उन्हें यहां रहने का क्या अधिकार है ? ऐसे लोग अगर यहां से निकल जाते तो हमारी अधिकांश समस्याएं कब की हल हो गई होतीं ।" उन्होंने अपना आशय स्पष्ट करते हुए कहा।
"तो किसी हिटलर या सूर्यवंशी सम्राट की प्रतीक्षा है आप लोगों को । आपके हिसाब से यहां
सारी बुराइयां किसी मजहब विशेष के कारण उत्पन्न हुई है। अन्यथा अपना यह देश तो हर हर अच्छाई का घरथा पापों और अपराधों का उल्लेख तो शायद जायका बदलने के लिए हो गया होगाहै न ।"
हमने छेड़ दिया तो आर्य आर्यानन्दजी भेदभरी मुस्कान के साथ बोले-" देखिए, हमारे पूर्वजों ने मानव जाति के इतिहास को जिन चार काल-खण्डों में विभाजित किया है उनके अनुसार सतयुग में कहीं कोई पाप या अपराध नहीं होता था । त्रेता से अधोगति की सूचना मिलती है जो द्वापर और वर्तमान कलियुग में उत्तरोत्तर बढ़ती गई है। कलियुग में ही देवभूमि भारत की ओर विदेशी आक्रान्ता उन्मुख हुए और आज हमारी दुर्दशा का एकमात्र सबसे बड़ा कारण यही है।"
"अर्थात आप यह मानते है कि मानव जाति प्रगति की ओर नहीं अधोगति की और उन्मुख है।  लेकिन ज्ञान-विज्ञान में जो विस्फोट हुआ हैक्या उसे भी आप अधोगति में ही शुमार करते है ?"
हमने पूछा तो वे बोले- "यह सब पश्चिम की बकवास है । अरे, असली ज्ञान-विज्ञान तो धर्म और आध्यात्म्य है और इस क्षेत्र में कोई हमारे सामने नहीं ठहरता । भौतिक ज्ञान -विज्ञान के जिन चमत्कारों को आप लोग गिनते है, उनसे भी बड़े चमत्कार तो हमारे पूर्वज बहुत पहले ही दिखा घुके है। महाभारत और पुराणों में ऐसे-ऐसे चमत्कारों का उल्लेख है कि दाँतों तले उंगली दबानी पड़ती है। यहां ऐसे अस्त्र-शस्त्र थे कि नापाम बमअणुबम या हाइड्रोजन बम भी पानी भरें। हमारे पूर्वज चन्द्रलोक-सूर्यलोक और नक्षत्र लोक ऐसे आते-जातेजैसे पड़ोस में गप-शप करने जाते हों। आज का दूरदर्शन (टेलिविजन) भला हमारे पूर्वजों  की दिव्य दृष्टि के सामने कहीं टिकता है?
परखनली शिशु की बात करते हो तो यहां महर्षि अगस्त्य तो घड़े में जन्मे थे । आजकल बन्दर और भेड़ के प्रतिरूपों(क्लोन) की चर्चा जोरों पर है लेकिन हमारे यहाँ तो रक्तबीज का उदाहरण मौजूद है। जितनी रक्त की बूंद उतने ही रक्तबीज । है न आश्चर्य की बात । आज के शल्य- चिकित्सक क्या मानव-धड़ पर पशु का सिर जोड़ सकते है। गणेशजी और दक्ष प्रजापति के जैसे उदाहरण क्या आज कहीं देखने को मिल सकते है ?
अपने पूर्वजों के ये थोड़े से प्रमाण सिद्ध करते हैं कि भौतिक ज्ञान-विज्ञान में भी हम बहुत आगे थे । पश्चिम वाले क्या खाकर मुकाबला करेंगे ?- आर्य जी ने भाषण ही दे डाला।
इस पर हमने जड़ दिया-- " लेकिन आज हम स्वयं कहां है ? पश्चिम मे अगर कोई नया आविष्कार होता है तो हम अपने पौराणिक ग्रंथों के पन्ने उलटने लगते हैं और घोषित करते हैं यह सब तो हमारे पूर्वज पहले ही कर चुके थे । अगर यहा सब पका-पकाया है तो हम दूसरों से पहले ही दुनिया के आगे क्यों नही परोस देते ? "
" सही कहा आपने लेकिन....। वे कुछ झिझके और फिर बोले-"बात यह है कि हमारे असली ग्रन्थ लुटेरों ने पश्चिम में पहुंचा दिए और जो यहां रह भी गएउनमे केवल उल्लेख भर मिलता है। वास्तव में अपना यह देश तो जगत-गुरु था और आगे भी रहेगा। दुनिया को पढ़ना-लिखना इसी देश ने सिखाया है । संस्कृत वस्तुत: संसार भर की भाषाओं की ज़ननी है"। और देखिए कह कर उन्होंने एक अभ्यास पुस्तिका सामने रख दी बोले - "इसी देश में सर्व प्रथम लिपि का आविष्कार हुआ । सिन्धु लिपि का अगला विकास ब्राह्मी लिपि में हुआ। उसी से रोमन, अरबी, फारसी आदि संसार की अधिकांश लिपियां निकली हैं ।"
उन्होने विभिन्न लिपि-चिह्नों के विकास को समझाने का प्रयास उस अभ्यास-पुस्तिका में किया था। हमने कोई प्रतिकूल टिप्पणी करने से खुद को रोक लिया।


आर्य आर्यानंद जी वर्मा-- 2

रथ-यात्रा हमारे कस्बे में भी पहुंची थी और कस्बे के एकमात्र बड़े प्राचार्य होने के नाते आर्य
आर्यानन्द जी वर्मा को स्वागत-सभा की सदारत करने का अवसर मिला। गेरुवे वस्त्र धारी एक साधु रूपी नेता ने हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्थान’ को केन्द्र में रखकर जो आग उगलीउसका असर आर्य  जी पर कुछ ऐसा पड़ा कि अपने अध्यक्षीय भाषण में वे सारी सीमाएं भूलकर मुसलमानो और ईसाइयों पर बरस पड़े । उनका कहना था कि हिंदुस्थान बनाम भारत अर्थात आर्यावर्त एक लोकतंत्र है और लोकतन्त्र बहुमत के आधार पर चलता है। अब यहां के 83 प्रतिशत लोग हिन्दू है तो उन्हीं की बात मानी जानी चाहिए । अगर हम कहते है कि अयोध्या में मन्दिर की जगह मस्जिद बनी थी तो मुसलमान मान क्यों नहीं लेते ? उन्हे बहुमत का सम्मान करना चाहिए राम-मन्दिर तो वहीं बनेगा। काशी और मथुरा का भी सवाल है । और भी मुद्दे उभर सकते हैं जिनका निर्णय हिन्दू बहुमत के अनुरूप होना ही लोकतंत्र की मांग है अन्त में उन्होंने सामने मिशन स्कूल की ओर इशारा करते हुए ईसाइयों और मुसलमानों को हिन्दू बहुमत का सम्मान करने या भारत से निकल जाने तक का अल्टीमेटम दे दिया । सभा में खूब तालियां पिटी और वर्मा जी के उस दिन के हीरो बन गए।
और उस दिन तो कमाल ही हो गया। वे इण्टर कालेज के प्रधानाचार्य पसबोला जी के छज्जे पर बैठे थे। नीचे मुझ पर नजर पड़ी तो ऊपर बुला लिया। चाय तैयार थी। पसबोला जी बिस्कुट का
पैकेट खोलने लगे तो वर्मा जी ने टोक दिया --देखिए इस पर उर्दू में लिखा है इसका मतलब है कि ये बिस्कुट किसी मुसलमान के हाथों बने हैं, मैं तो नहीं लूगा । मैं और पसबोला जी आर्य जी का मुंह देखते रह गए।
अंत में मैंने ही चुप्पी तोड़ीबोला- "वर्मा जी इसका क्या गारण्टी है कि जिन पर उर्दू में न लिखा हो वे मुसलमानो के उत्पाद न हो। फिर तो आपको कुछ भी नहीं खाना चाहिए। उत्पादों में भी हम हिन्दू-मुसलमान का भेद करने तगे तो इस देश का बण्टाधार होने में क्या सन्देह है ? यह देश इण्डोनेशिया के बाद मुसलमानों का सबसे बड़ा देश है। करोड़ों मुसलमान यहां की हवा में सांस लेते और छोड़ते हैं । उसी हवा में आप भी सांस लेते है । अगर आप मुसलमानों को इतना अस्पृश्य समझते है तो मेरी माने आप साँस लेना ही छोड़ दीजिए आपकी पवित्र आत्मा अपवित्र होने से बच जाएगी और मुक्ति का लाभ मिलेगा सो अलग ।"
क्या कहा आपने मैं क्यो मरूं ? मरें वे जिन्होने इस देश का बेड़ा गर्क किया है । वे अपने पाकिस्तान क्यों नही चले जाते ?" आर्य जी विफर उठे ।
"अगर वे आपकी सताह मानकर पाकिस्तान को भी गए तो सांसों की समस्या तब भी बनी रहेगी। आप जानते है कि यहां (उत्तराखंड में )जाड़ों की वर्षा भूमध्य सागरीय चक्रवातों से सम्भव होती है । अर्थात ईरान-अफगानिस्तान और पाकिस्तान की ओर से बनती चक्रवाती हवाएं वहां के मुसलमान आबादी की सांसों को लेकर आती है। क्या आप उन पश्चिमोतरी हवाओं में सांस लेना बन्द कर देगे?
देखिए मेरे मन्तव्य को आपने व्यर्थ में इतना खींच लिया मै तो केवल अपना आक्रोश व्यक्त कर रहा था। चार-चार शादियां करेंगे और देश के सम्मुख बढ़ती आबादी की समस्या खड़ी करेंगे।-वे फिर बोले ।
"आप जैसे बुद्धिजीवियों का यह आक्रोश कितना अनर्थ कर सकता है, क्या आपने इस पर भी सोचा है कभीजरा अपनी ओर भी तो नजर डालें ।"(वर्मा जी को सात पुत्रों और एक पुत्री के यशस्वी पिता होने का गौरव प्राप्त था) -हमने कहा तो वर्मा जी बगलें झांकने लगे।
 वर्मा जी का व्यक्तित्व मेरे लिए एक पहेली बनकर रह गया । विचारों से इतने संकीर्ण और उग्र लेकिन व्यवहार में एकदम सीधे-सादे और नम्रता के अवतार। सादा जीवन लेकिन विचारों से उच्चता गायब । प्राचार्य जैसे उच्च पद पर कार्य करते हुए भी उनके रहन-सहन में कोई अन्तर नहीं आया। भोजन बिलकुल साधारण । पकौड़ी उनकी कमजोरी थी । कहीं भी जाते तो चाय के साथ पकौड़ी की मांग अवश्य करते । कोई विशेष लत-नहीं।  हां, छिपकर यदा-कदा बीड़ी का सुट्टा अवश्य लगाते । मुफ्तखोरी से उन्हें चिढ़ थी। वे न उत्कोच देते या लेते थे। कॉलेज के लेखा - परीक्षण के लिए एजी आफिस से लेखा-परीक्षक आए थे। कुछ विशेष अनियमितताएं पकड़ी गईं तो वर्मा जी ने टिप्पणी लिखी- भविष्य में ध्यान रखा जाएगा।
लेखा परीक्षक समझते थे कि प्राचार्य महोदय लीपा-पोती के लिए उनकी जेबें गरम अवश्य करेंगे । लेकिन वर्माजी ने उन्हें हनुमान चालीसा की प्रतियां भेंट की और वे देखते रह गए । कुछ कह भी नहीं पाए और चुपचाप चलते बने ।
पीठ पीछे लोग उन्हें मक्खीचूस भले ही कहते हो लेकिन सामने कुछ नहीं कह पाते । उनका यह रूप निश्चित रूप से श्लाघनीय है किन्तु विचारो का वह उग्र रूप......। कौन सा रूप वास्तविक है और कौन सा ओढ़ा हुआ ....आज तक समझ नहीं पाया।

अमेरिका और लॉकडाउन के मायने

$
0
0
कोविड-19 नामक वैश्विक महामारी से निपटने के लिए जहां दुनिया के ज्यादतर देश लॉकडाउन के स्तर पर हैं, वहीं यह सवाल भी है कि बुरी तरह से प्रभावित अमेरिका ने आखिर अभी तक इस रास्ते् को क्यों नहीं अपनाया ? सेंट लुईस में रहने वाले जे सुशीलइस सवाल से टकराते हुए अमेरिकी समाज का जो चित्र रखते हैं, वह गौरतलब है। वर्तमान में सुशील एक शोधार्थी है। पूर्व में बीबीसी हिंदी के पत्रकार रहे हैं।
‘’अमेरिका में लॉकडाउन क्यों नहीं होता है ये एक कठिन सवाल है.’’  जिन कारणों पर सुशील की निगाह अटकती है, वहां एक समाज की कुछ सभ्यतागत विशिष्टताएं नजर आती हैं और इसीलिए उन्हें कहना पड़ता है, ‘’सभ्यतागत चीज़ें एक्सप्लेन करना इतना आसान नहीं होता है.’’ उन सभ्यतागत विशिष्टताओं को पकड़ते हुए अमेरिका में लॉकडाउन के मायने को सुशील ने अच्छे से समझने की चेष्टा की है। जे सुशील के उस विश्लेषण को पाठकों तक पहुंचाते हुए जे सुशील का आभार। 

वि.गौ.


जे सुशील

अमेरिका में कोरोना से मरने वालों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी के बावजूद देश में लॉकडाउन नहीं किया गया है. ये बात कई लोगों को अचंभे की लग सकती है कि अमेरिका ने ऐसा क्यों नहीं किया है लेकिन इसका जवाब गूगल करने पर नहीं मिलेगा. इसके लिए इस देश की साइकोलॉजी को समझना होगा कि लॉकडाउन जैसे शब्दों को लेकर इस देश में धारणा क्या है और वो इसे कैसे देखते हैं. इन सवालों के जवाब में ही इसका उत्तर भी छुपा है कि इतनी मौतों के बावजूद भारत जैसा लॉकडाउन क्यों नहीं किया जा रहा है अमेरिका में. इसके मूल में तीन कारण हैं.

अमेरिका में अपनी पर्सनल आज़ादी या लिबर्टी की भावना इस गहरे तक पैठी हुई है कि अगर कोई भी सरकार कोई भी ऐसा फैसला लेती है जिसमें नागरिकों के निजी अधिकारों का हनन हो तो उसे पसंद नहीं किया जाता. लोग इसका जमकर विरोध करते हैं. ये विरोध करने वाला अल्पसंख्यक, अश्वेत या दूसरे देशों से हाल में आकर बसे लोग नहीं होते बल्कि खालिस गोरे अमेरिकी ही इसके खिलाफ खड़े हो जाते हैं.
पहला तकनीकी कारण है जो इस मुद्दे का एक पहलू है. अमेरिका की संघीय़ व्यवस्था का ढांचा ऐसा है कि नागरिकों के आम जीवन से जुड़े ज्यादातर फैसले खासकर उसमें अगर पुलिस की कोई भूमिका हो तो वो राज्य का प्रशासन ही करता है यानी कि गवर्नर. कई बार ऐसे भी उदाहरण हैं जब एक काउंटी यानी एक कोई इलाका गवर्नर की बात न माने. टेक्नीकली देखा जाए तो राष्ट्रपति अगर चाहें तो नेशनल लॉकडाउन की घोषणा कर सकते हैं लेकिन वो ऐसा नहीं करेंगे और इसका कारण तकनीकी नहीं है. इसका कारण है अमेरिका के लोगों की साइकोलॉजी जो लिबर्टी और पर्सनल स्पेस में गुंथी हुई है.

अमेरिका में अपनी पर्सनल आज़ादी या लिबर्टी की भावना इस गहरे तक पैठी हुई है कि अगर कोई भी सरकार कोई भी ऐसा फैसला लेती है जिसमें नागरिकों के निजी अधिकारों का हनन हो तो उसे पसंद नहीं किया जाता. लोग इसका जमकर विरोध करते हैं. ये विरोध करने वाला अल्पसंख्यक, अश्वेत या दूसरे देशों से हाल में आकर बसे लोग नहीं होते बल्कि खालिस गोरे अमेरिकी ही इसके खिलाफ खड़े हो जाते हैं. इसलिए ट्रंप को डर है कि अगर वो लॉकडाउन जैसा कोई कदम उठाएंगे तो उनके समर्थन में खड़े लोग ही उनका विरोध करने लगेंगे. दूसरा अगर उन्होंने कोशिश की तो राज्य सरकारें भी विरोध कर सकती हैं. तो फिर इस समय अमेरिका में जहां कोरोना तेज़ी से फैल रहा है वहां किया क्या जा रहा है.

केंद्र सरकार यानी ट्रंप सरकार की तरफ से एडवाइज़री है कि लोग सोशल डिस्टैंसिंग का पालन करें यानी कि दूर दूर रहें. रेस्तरां और क्लब या ऐसी जगहें जहां लोगों के जुटने की संभावना होती है उन्हें बंद करने के आदेश दिए गए हैं और वहां से ऑर्डर कर के खाना लिया जा सकता है. जहां थोड़े हालात और खराब हैं वहां स्टे एट होम के आदेश हैं यानी कि आप कुछ मूलभूत कार्यों (भोजन लाना, दवाई लेना, वाक करना और कुत्ते को घुमाना) को छोड़कर बेवजह बाहर नहीं निकल सकते हैं. निकलने पर पुलिस कारण पूछ सकती है.

ज्यादातर राज्यों में यही नियम राज्य के गवर्नर और मेयरों ने लागू किए हैं. मैं जिस इलाके में रहता हूं उससे थोड़ी ही दूर पर मेयर की पत्नी को करीब दो हफ्ते पहले पब में पाया गया जहां वो अपनी मित्रों के साथ बीयर पी रही थीं जबकि सोशल डिस्टैंसिंग का नियम लागू था. मेयर की पत्नी पर जुर्माना लगाया गया.

कैलिफोर्निया में सबसे सख्ती है लेकिन वहां भी लॉकडाउन शब्द का इस्तेमाल नहीं किया गया है क्योंकि इस शब्द का इस्तेमाल ही एक नेगेटिव भाव लिए हुए हैं अमेरिकी लोगों के लिए. कैलिफोर्निया राज्य के कुछ इलाकों में शेल्टर एट होम के आदेश हैं यानी कि आप अपने घरों में ही रहें और उन्हीं से मिले जिनसे आप पिछले दस पंद्रह दिनों में मिले हों. कहने का अर्थ ये है कि हर राज्य में अलग अलग नियम लागू किए गए हैं.

न्यूयार्क जो सबसे बुरी तरह प्रभावित है वहां भी लॉकडाउन नहीं है और लोग मेट्रो का इस्तेमाल कर रहे हैं. खबरों के अनुसार मेट्रो ट्रेनों की संख्या कम कर दी गई है और कई ट्रेनों में भीड़ भी हो रही है लेकिन जीवन अनवरत जारी है. आपको ये जानकर हैरानी होगी कि अमेरिका में घरेलू विमान सेवाएं अभी भी जारी हैं लेकिन इंटरनेशनल ट्रैवल पर रोक लगाई गई है. घरेलू विमान सेवाओं में न्यूयार्क और ज्यादा प्रभावित इलाके के लोगों से अपील की गई है कि वो पंद्रह दिनों तक ट्रैवल न करें ताकि बीमारी को फैलने से रोका जा सके.
तीसरा बड़ा कारण है इकोनोमी. अगर सादे शब्दों में कहा जाए तो अमेरिका पैसा जानता है और इकोनॉमी सबके लिए सर्वोपरि है. ट्रंप ने यूं ही नहीं कहा था कि अमेरिका इज़ नॉट मेड टू स्टॉप. शेक्सपियर का कहा हम जानते हैं कि द शो मस्ट गो ऑन. अमेरिका इकोनॉमी को लेकर ऐसी ही सोच रखता है. चाहे कुछ हो जाए इकोनॉमी ठप नहीं पड़नी चाहिए इसलिए काम जारी है. जो भी बिजनेस घर से हो सकता है वो घर से चल रहा है लेकिन बाकी जिस किसी भी काम के लिए कम लोगों की ज़रूरत है वो अबाध जारी है मसलन ई कामर्स, अमेजन और ऐसे ही तमाम ईशापिंग के काम. स्टॉक एक्सचेंज और तमाम बिजनेस को चलाए रखा जा रहा है. यूनिवर्सिटी, संग्रहालय, रेस्तरां और वो चीजें ही बंद की गई हैं जिससे इकोनॉमी को बहुत अधिक नुकसान न हो.

एक छोटा और महत्वपूर्ण कारण ये भी है कि अमेरिका की सुपरपावर की एक छवि है और वर्तमान विश्व में इमेज के इस महत्व को नकारा नहीं जा सकता. कल्पना कीजिए दुनिया भर के अख़बारों में अमेरिका ठपजैसा शीर्षक लगे तो उस छवि को कितना धक्का लगेगा. जो देश ग्यारह सितंबर के हमले में नहीं रूका वो एक वायरस से रूक जाए ये अमेरिकी जनता और नेताओं को बिल्कुल गवारा नहीं है. ये बात अमेरिकी मीडिया के बारे में भी कही जा सकती है कि मीडिया में भी लॉकडाउन को लेकर बहुत अधिक शोर नहीं है. मीडिया ट्रंप की आलोचना कर रहा है कि उन्होंने शुरूआती दौर में इसकी गंभीरता को नहीं लिया या फिर अभी भी वो ऐसी दवाओं पर भरोसा कर रहे हैं जिसका वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है लेकिन अखबारों में ऐसी तस्वीरें तक नहीं छप रही हैं जिसमें सुनसान सड़कें दिख रही हों. अखबारों की वेबसाइटों को भी देखें तो तस्वीरों में डॉक्टर हैं, मरीज़ हैं, संघर्ष करता शहर है. ठप शहर नहीं क्योंकि अमेरिका कभी रूकता नहीं एक ऐसा सूत्र वाक्य है जो यहां के लोगों में अंदर तक बसा हुआ है.

तीलै धारो बोला s s...

$
0
0
पूर्वी कुमांऊ तथा पश्चिमी नेपाल की राजी जनजाति (वनरावतों) की बोली का अनुशीलन (अप्रकाशित शोध् प्रबंध) डॉ. शोभाराम शर्मा का एक महत्वपूर्ण काम है। उत्तराखंड के पौड़ी-गढ़वाल के पतगांव में 6 जुलाई 1933 को जन्मे डॉ। शोभाराम शर्मा 1992 में राजकीय स्नाकोत्तर महाविद्यालय, बागेश्वर से हिंदी विभागाध्यक्ष के पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। 50 के दशक में डा। शोभाराम शर्मा ने अपना पहला लघु उपन्यास "धूमकेतु"लिखा था। पेशे से अध्यापक रहे डा.शर्मा ने अपनी रचनात्मकता का ज्यादातर समय भाषाओं के अध्ययन में लगाया है। सामान्य हिंदी, मानक हिंदी मुहावरा कोश (दो भाग), वर्गीकृत हिंदी मुहावरा कोश (दो भाग), वर्गीकृत हिंदी लोकोक्ति कोश (दो भाग) उनके इस काम के रूप में समय-समय पर प्रकाशित हुए हैं। पिछलों दिनों उन्होंने संघर्ष की ऊर्जा से अनुप्राणित कुछ महत्वपूर्ण पुस्तकों के अनुवाद भी किए जो जल्द ही प्रकाशन की प्रक्रिया से गुजरकर पुस्तकाकार रूप में देखे जा सकेंगे। इसी कड़ी में "जब व्हेल पलायन करते हैं"एक महत्वपूर्ण कृति है। इससे पूर्व 'क्रांतिदूत चे ग्वेरा" (चे ग्वेरा की डायरी पर आधरित जीवनी) का हिन्दी अनुवाद, लेखन के प्रति डा.शोभाराम शर्मा की प्रतिबद्धता को व्यापक हिन्दी समाज के बीच रखने में उल्लेखनीय रहा है। इसके साथ-साथ डॉ. शोभाराम शर्मा ने ऐसी कहानियां लिखी हैं जिनमें उत्तराखंड का जनजीवन और इस समाज के अंतर्विरोध् बहुत सहजता के साथ अपने ऐतिहासिक संदर्भों में प्रस्तुत हुए हैं। उत्तराखंड की ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और सामंतवाद के विरोध् की परंपरा पर लिखी उनकी कहानियां पाठकों में लोकप्रिय हैं। प्रस्तुत है उत्‍तराखण्‍ड के इतिहास की पृष्‍ठभूमि पर डॉ शोभाराम शर्मा द्वारा लिखीकहानी- तीलै धारो बोला s s..

वि.गौ.
इस कहानी में मौजूद स्थानीय शब्दों के अर्थ 
तीलै धारो बोलाः तूने वचन रख लिया
मकरैणः मकर संक्रांति
गड्वातः गाड़ यानी नदी तट पर बहने वाली हवा
सेराः सिचिंत भूमि
बगड़ः पथरीला व रेतीला नदी तट
सिसूणः बिच्छू घास, गढ़वाली में इसे कंडाली कहा जाता है
टिमूरः एक कंटीला औषधीय वन्य पौधा
डाँडीः  दो वाहकों वाली शिविका (पालकी)
दनः ऊनी कालीन का छोटा प्रकार
तीलूः राजा वीरमदेव की मामी तिलोत्तमा
तुरंखः  तुर्क
मालः भाबर
संख्या ढालः वाममार्गी भैरवी चक्र में पंच मकारों का सेवन (संखिया यानी विष ढालना)
मामी तीलू तीलै धारो बोलाः सुना है मामी तिलोत्तमा को तूने रख लिया । 
अणवाल- भेड़-बकरी चुगाने वाले
बोरा- कोथले बनाने वाली एक जाति
कोथले- भांग आदि के रेशों से बनी बोरी
घराटः पनचक्की
धुनार-नदी पार करने वाली जाति
नाली- लगभग दो सेर का वजन
थुलमे- ओढ़ने का मोटा रजाई सा ऊनी वस्त्र
चुटगे- ओढ़ने-बिछाने का एक उभरा हुआ ऊनी वस्त्र
आलः  शाखा
उड्यारः  गुफा
औजीः दर्जी या वाद्य बजाने वाला
छोरा-छोरीः  जूठन पर पलने वाले दास-दासियों
हुड़काः डमरू जैसा हाथ से बजाए जाने वाला वाद्य
हुड़्क्या बौलः हुड़के की थाप से के साथ रोपणी आदि का काम
बूढ़ाः मुखिया
बोक्साः बाघ का रूप धारण करने वाला काल्पनिक तांत्रिक, एक जनजाति का नाम भी
हथछीनाः ठंडे-मीठे पानी का वह स्रोत , जहां से प्रजा को राज-दरबार तक पानी ढोने की बेगार करनी पड़ती थी। लोक पंक्तिबद्ध होकर हाथों-हाथ पानी पहुंचाने को मजबूर होते थे।
कैनीः बैटन के अनुसार भू-स्वामियों के सेवक व डांडी बोकने वाले दास
हल्याः हल चलाने वाले कृषि दास
जूठन पर पलने वाली दास-दासियां
दाज्यूः बड़ा भाई
भाऊः छोटा भाई

कहानी

डॉ. शोभाराम शर्मा 


मकरैणी का पर्व दो दिन पहले आस-पास की पहाड़ियों पर भारी हिमपात हुआ था। सरयू और गोमती की निचली घाटियों को छोड़ शेष सारा क्षेत्र जैसे सफेद चादर से ढक गया था। बागेश्वर के दायें-बायें भीलेश्वर और नीलेश्वर की वर्फ तो गिरते ही पिघल गई थीलेकिन भुरचुनियाधार के ऊपर जौलकाण्डै और दूसरी ऊँची पहाड़ियां अभी भी बर्फ की चादर ओढ़े हुए थीं । सूर्यास्त अभी दूर था। आसमान खुलने से पिघलती बर्फ की छुअन क्या पाई कि हाड़ कंपाती गड्वात अपना असर दिखाने लगी थी। कठायतबाड़ा के नीचे सूरजकुण्ड पर एक छोटी-सी भीड़ जमा थी। कुछ लोग अपने बालकों का मुण्डन संस्कार सम्पन्न कराने में संलग्न थे तो कुछ कौतूहलवश संस्कार सम्पन्न होते देख रहे थे। अभी तक यहाँ के अधिकांश लोगों में संस्कारों का प्रचलन आम नहीं हो पाया था। बाहर से आकर कुछ गिने-चुने ब्राह्मण और राजपूत परिवारों तक ही संस्कारों का चलन सीमित था। तमाशबीन, छोटे-छोटे बालकों को भेड़ों की तरह मुंडा देखकर मुस्करा रहे थे। पुरोहितों के मंत्रादि तो उनकी समझ से बाहर थेलेकिन घुटमुण्डे बालकों को काँपते देखकर कुछ अच्छा भी नहीं लग रहा था भोथरे छुरे से छिल जाने के कारण जगह-जगह सिर पर खून रिस आने का नजारा तो और भी अरुचिकर था सरयू के वर्फीले पानी से रोते-बिखलते बच्चों को बलात् स्नान कराने का दृश्य तो पास खड़े बच्चों को भी बेचैन कर बैठा। किसी ने उँगली पकड़े अपने बच्चे से कहा-"चलो तुम्हारा भी मुण्डन करा दें। और बालक घबराकर सरयू के दूसरे किनारे मंडलसेरा की ओर भाग खड़ा हुआजहाँ गेहूँजौ और सरसों के नन्हें-नहें पौधे खेतों को अपनी हरियाली में सराबोर कर रहे थे।   
      दुपहरी कब की ढल चुकी थी। ठण्ड का प्रकोप बढ़ने लगा तो तमाशबीन ही नहींसंस्कार सम्पन्न कराने वाले लोग भी अपने-अपने पड़ावों की ओर लौट पड़े। पड़ावों में जहाँ-तहाँ अलाव जलने लगे उधर संगम के मध्य खुले बगड़ में तीन-चार चिताएँ जल रही थीं। चिताओं के अधजले कुन्दे इधर-उधर दूर-दूर तक बिखरे पड़े थे। अभी-अभी एक और शव लेकर कुछ लोग संगम पर उतरे थे चिता चुनी जा रही थी और कुछ लोग सरयू पर बने कठपुल से लकड़ी देने का अपना धर्म निभाने चले आ रहे थे। कुछ शोकार्थी फूल सिराने हेतु चिता की आग शान्त होने के इन्तजार में पत्थरों पर बैठे जीवन-जगत की निस्सारता पर बतिया रहे थे। ठीक वहीं पर गोमती की ओर श्मशान भैरव के एक छोटे से मन्दिर के आगे सिद्धबाबा के नाम से प्रसिद्ध कराली नामक कापालिक धूनी रमाए था। मन्दिर के छोटे से आंगन में सिसूण के आसन पर अधलेटा वह किसी की प्रतीक्षा में था। मानव-अस्थियों के बीच नर-कपाल वाली माला दीवार के सहारे टिकी टिमूर की लाठी पर लटक रही थी। धूनी के दोनों ओर कराली की अपनी भैरवी और कुछ शिष्य विराजमान थे। पीछे बाघनाथ के बड़े मन्दिर की ओर कुछ हलचल का आभास हुआ। एक शिष्य ने उधर कान लगाकर कहा- लगता है कत्यूरी-नरेश पहुँच गए हैं।
'हुमका गहरा घोष करते हुए कापालिक भी उसी ओर घूरने लगा। इतने में कत्यूरी नरेश वीरमदेव हाथ में तलवार लिए सामने प्रकट हुए। बाघनाथ मन्दिर के अहाते में डाँडी से उतरकर वे सीधे कापालिक के पास पहुँचे थे दो-अंग-रक्षक भी साथ थेलेकिन बीरमदेव के इशारे पर वे वापस अहाते की ओर लौट गए। प्रणाम के प्रत्युत्तर में कापालिक ने 'जय भैरवके गम्भीर घोष के साथ धूनी के पास बिछे दन की ओर संकेत किया और वीरमदेव उस पर बैठ गए। ऊनी अँगरखा पहने हुए भी वीरमदेव बर्फीली हवा के झोंकों से काँप-काँप उठता था। कापालिक ने अपनी लाल-लाल आँखों से वीरमदेव की ओर घूरा और बोला-"विरमवाअभी तेरी साधना कच्ची है। कैसा काँप रहा है रे ! यहाँ देखएक लंगोट के अलावा कुछ भी तो नहींलेकिन मात्र भस्म पुते इस शरीर को न शीत सालता है न ताप।

"गुरुदेवकहाँ आप और कहाँ मैं, तन की तो चिन्ता नहीं, लेकिन जिस मनस्ताप से गुजर रहा हूँउससे बच निकलने का कोई उपाय नहीं सूझता।''
तभी तो कहता हूँ तेरी साधना कच्ची है। निर्मूल शंकाएँ कच्चे साधक के मन में ही उपजती है। तीलू"के आत्मघात का प्रसंग तुझे खाए जा रहा है। अरेवह तो भगवान भैरव के ही इंगित पर तेरी भैरवी बनी। उसने आत्महत्या कर ली। वह भी दैवी संकेत ही तो था। अगर यह सब नहीं होता तो क्या तेरा मार्ग इतना निष्कंटक हो पाताअभयपाल तो बहुत पहले ही तेरे मार्ग से हट गया। कत्यूर छोड़ अस्कोट चला गया। यह सब भैरव की लीला है। जो हुआ सो हुआ। सोच-सोच कर जी हलकान मत कर भगत। अरे हाँक्या खेकदास मिला था ?”
उसी ने तो बताया कि राजमाता अप्रसन्न हैं।
-"अरेवह पगली जिया ! हेदमी तुरंख"की भैरवी बनने से तो बच गई. लेकिन उसका अब कत्यूर लौटना संभव नहीं। हमारी भैरवी से पूछ देखो। इनके दिव्य-चक्षु तो भूत-भविष्य सभी कुछ देख लेते हैं ।"
संकेत पाकर एक ओर बैठी भैरवी ने कहा-“ बिरमू ! दुनिया में जो भी होता हैसब भगवान भैरव और भगवती के इंगित पर ही होता है। जिया को बचाने में तुम्हारे मामा और भतीजा हंस कुँवर तुरंखों से लड़ते हुए चित्रशिला के पास मारे गए ये तुम्हारे लिए संकट बन सकते थे। भैरव ने उन्हें ऊपर तीलू के पास ही पहुँचा दिया। तुम भाग्य लेकर आए हो-यह मैं स्पष्ट देख रही हूँ। जिया तेरा मुँह नहीं देखना चाहतीलेकिन उसे क्या पता कि स्वयं उसके भाग्य में यहाँ लौटना नहीं लिखा है। वह चौघाणपाटा से हर की पैडी और वहाँ से ज्योतिर्मठ के लिए प्रस्थान कर चुकी है। उसका लाड़ला धामदेव तुरंखों का पीछा करता हुआ जंगलों की खाक छानता फिर रहा है। तेरा मुख तो वह नहीं देखना चाहती पर संसार छोड़ने से पहले वह अपने लाड़ले का मुख भी नहीं देख पाएगी। धामदेव भी अब कत्यूर नहीं लौट पाएगा। माल के बीहड़ जंगल उसे निगल जाएँगे। पश्चिम की ओर गया हैसमझ लो डूबता सूरज है।
 भैरवी के कथन पर वीरमदेव को विश्वास-अविश्वास के झूले में झूलते देख कापालिक कराली ने उसे आश्वस्त करते हुए कहा-"सुना वीरमदेव ! ये सब तुम्हारे भाग्योदय के लक्षण हैं। अब कत्यूरी सिंहासन किसी और की थाती नहींतेरा अपना हो चुका है। हाँपिछले संख्याढाल में तूने वचन दिया था, याद है ?"

“ क्यों नहीं गुरुदेवलेकिन राजगुरुमहामात्य और भीम कठायत जैसे सामन्त विरोध पर उतर आए है वे नहीं चाहते कि बैजनाथ के राजमन्दिर किसी वाममार्गी साधक को सौंप दिए जायें ।"
 
शासक तुम हो या वेसमझ में नहीं आता कि हमारा विरोध क्यों ? अरे ! वे जिस परम तत्व को शिव-शक्ति के नाम से जानते हैंहम उसी को भैरव-भैरवी कहते हैं हाँविदूषक ब्राह्मणों का आडम्बर हमें नहीं रुचता । मूढ़ परमतत्व की अनिवर्चनीयता से आक्रान्त मात्र रहते हैं और हम इसी विग्रह में उसे आत्मसात कर लेते हैं। भैरवी-चक्र के तंत्र-विधान की सम्पूर्ति में उसी अनिवर्चनीय परमतत्व की साक्षात् अनुभूति होती है। लौकिक जीवन में भैरवी-चक्र की निरन्तर साधना सम्भव नहींइसीलिए हमने संख्याढाल के रूप में उसे विशेष अवसरों पर करने की परम्परा डाली है। अब तो गोरखपंथी कनफड़े भी इसके रंग में रंग चुके हैं।"

      "लेकिन भैरवी ने आत्महत्या क्यों की ? क्या उसे उस तत्व की अनुभूति नहीं हो पाई ? अगर होती तो उसे लोकापवाद का भय क्यों सताताराजमहल की छत से लटक कर उसने अपनी जान दे दी। मुझे ही नहींउसने तो पूरे कत्यूरी वंश को शाप दिया है। लोग कहते हैं कि सती का शाप व्यर्थ नहीं जाता। क्या करूँ ? मेरी तो बुद्धि काम नहीं करती।

"क्या कहा ? सती का शाप मुझे तो तेरी बुद्धि पर तरस आता है। भैरवी-तंत्र का साधक सती-यती की थोथी धारणाओं पर विश्वास करेंयह तो तर्कसंगत नहीं । वैसे भी भैरवी बन चुकी सतीसती कहाँ रही। उसका शाप फले या न फले पर भैरवी-चक्र की साधना पर तेरी शंका कहीं किसी बड़े अनर्थ का कारण न बनेक्यों भैरवी तुम्हें क्या लगता है ?”

कापालिक के इस प्रश्न के उत्तर में भैरवी ने सारा दोष वीरमदेव के सिर मढ दियाबोली- “वह तेरी दुर्वलता थी बिरमू ! तू पशु का पशु ही बना रहा। उसके नारी-सुलभ सौन्दर्य के वशीभूत होकर लौकिक वासना के पाप-पंक से मुक्त नहीं हो पाया भैरवी इसीलिए तुझ पर कुपित हो बैठी। यह सब तेरी पाप-भावना और अविश्वास का ही परिणाम है।

हो सकता हैलेकिन मैं अब क्या करूं ?” वीरमदेव ने निराश होकर कहा।

करना क्या है रे ! साधना में कमी रह गई तो उसे पूरा कर। लोकापवाद का जो परिताप तुझे हैंउसे बिल्कुल भूल जा। हमारी साधना का मार्ग तो नदी-प्रवाह की उल्टी दिशा में तैरना जैसा है। लौकिक यम-नियमों के खूँटे से सच्चे साधक नहीं बँधे रहते। हमारा मानना है कि हर पुरुष भैरव है और हर स्त्री भैरवी। इस संख्याढाल के सम्पन्न होने पर तेरी साधना भी पूरी हो जाएगी। लोक-निन्दा या लोक-स्तुति की दुर्बलता से तू भी ऊपर उठ जाएगा।
उनमें यह वार्ता चल ही रही थी कि सरयू-पार से किसी कोकिल-कंठी का स्वर कानों में पड़ा-‘ मामी तीलै धारो बोला।’ सुनते ही वीरमदेव का मुरझाया मुख और भी पीला पड़ गयाउसे ऐसा महसूस हुआ जैसे गाया जा रहा हो ‘ मामी तीलै धारो बोला’  (कहते हैं कि तूने अपनी मामी तीलू को रख लिया)  लेकिन कराली और भैरवी मुस्करा उठे। कराली हँसते हुए बोल उठा-“ हो गया रेहो गया ! आज की भैरवी का चुनाव हो गया।” और फिर पास बैठे एक चेले को निर्देश दिया-बैतालीजाकर देख तो वह सौभाग्यवती कौन हैहाथ से न जाने पाए।

निर्देशानुसार चेले ने टिमरू का डंडा हाथ में लेकर एक ओर प्रस्थान किया तो दूसरी ओर से कत्यूरी सरदार पीथु गुंसाई एक व्यक्ति को पकड़ लाए। उसे वीरमदेव के चरणों में पटककर बोले- “महाराजहमने पटवास बनाने के लिए इनसे चटाइयों की माँग की, तो यह विरोध पर उतर आया। यह नरसिंह दाणो है। दाणो लोगों का मुखिया।

अच्छा, तो चींटी के भी पर उग आए। क्यों रे दाणो तेरा इतना साहस।” वीरमदेव गरजा ।

महाराजहमने एक-एक चटाई तो खुशी-खुशी दे दी थी। लेकिन ये तो सारी चटाइयाँ ले जाने पर उतारू हो गए यह तो अन्याय है महाराज। हम गरीबों के पेट पर तो लात न मारिएं। साल भर का गुड़नमक और कपड़ा तो हम चटाइयों के बदले ही जुटा पाते हैं। हम पर दया कीजिए महाराज।

नरसिंह की विनती के जवाब में तो तुम्हारी प्रकृति में ही है। संख्याढाल साथ बाँध नहीं ले जाएँगे। अनुष्ठान खुले में तो हो नहीं सकता। इतनी सी बात तुम्हारे भेजे में क्यों नहीं घुसती? ”

“ महाराज तो नहीं ले जाएँगे पर इनके लोग हमें हाथ भी लगाने देंगेमुझे तो विश्वास नहीं होता। जबर मारे और रोने भी न देयह तो न्याय नहीं है महाराज।

बार-बार न्याय-अन्याय की बात सुनकर वीरमदेव खीझ उठा। बोला- “न्याय-अन्याय की सीख हमें तुमसे नहीं सीखनी है रे दाणो ! राजाज्ञा का उल्लंघन तुम्हारे सिर वज्र बनकर न गिरेपहले इसकी चिन्ता कर।

"लेकिन हमारी चटाइयाँ महाराज ! ”

"मूर्ख चटाइयाँ कोई चट नहीं कर जाएगा-मैंने कह दिया। जापटवास खड़ा करने में सहायता कर।

कापालिक कंकाली बोल उठा-"दानव-वंशी है न ! धार्मिक अनुष्ठानों में विघ्न-बाधा डालना का अनुष्ठान पूरा होने पर तुम अपनी चटाइयों वापस ले जा सकते हो।

नरसिंह दाणो सिर झुकाकर एक ओर बैठ गया । कापालिक कराली ने फिर पीथु गुसांई से कहा- “गुसाई जीअनुष्ठान में मांसमछली. मदिरामुद्रा और मधुरादि पंच मकारों का ठीक-ठीक अनुमान कर लें। इतना बड़ा मेला हैसाधक-साधिकाओं की संख्या कम नहीं होगी।
जो आज्ञा गुरुदेव ! ” और पीथु गुसांई दाणों को साथ लेकर एक ओर निकल गया। इसी बीच एक अन्य कत्यूरी सरदार ने प्रवेश किया। हाथ जोड़कर बोला-महाराज
की जय हो ! मुझे कटायतबाड़ा भीमा जी के घर भेजा गया था कठायत मिले तो सही, लेकिन बड़े भाई का स्वर्गवास होने से अशौच में हैं वे तो इस अनुष्ठान में भाग नहीं ले पाएँगे-ऐसा उन्होंने कहला भेजा। ”

"यह तो बुरा हुआ। अनुष्ठान का दारोमदार तो उन्हीं पर निर्भर थाइसीलिए उन्हें पहले भेजा था। कुछ प्रबन्ध उन्होंने किया या नहींकुछ तो बताया होगा।

महाराजवे तो कह रहे थे कि हर काम में अडचन आ रही है। अणवालों ने एक-एक बकरा तो प्रसन्नता से दे दियालेकिन बाकी के लिए सख्ती बरतनी होगी। मछलियों का प्रबन्ध धुनारों को सौपा है। कुछ सैनिकों को आस-पास की चक्कियों और गाँवों से आटा जमा करने भेजा थावे अभी लौटे नहीं हैं। रास्ते में किसी ने बताया कि कुथलिया बोरे जंगलों में भाग गए हैं। उन्हें कोथले भर-भर कर आटा लाना था। घराट वाले भी आना-कानी कर रहे हैं। सैनिकों ने गुस्से में कुछ पनचक्कियाँ भी तोड़-फोड़ डाली हैं। गाँव वाले भी एक-आध नाली से अधिक देने को तैयार नहीं हैं। और तो और वे सैनिकों से उलझने का साहस भी कर रहे हैं। गुसांई जी ने कुछ और सैनिक उधर भेज दिए हैं।

सरदार ने इतना बताया ही था कि स्वयं पीथु गुसांई बदहवास आ टपके। चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं। कापालिक कराली ने उसकी ओर ध्यान न देकर वीरमदेव से कहा-बिरमवामैं यह क्या सुन रहा हूँ ? देखो ! संख्याढाल में कोई अपशकुन नहीं होना चाहिए।

पीथु गुसाई ने कराली को अनसुनाकर आवेश में वीरमदेव से कहा-"महाराजक्या आपने किसी सौक-कन्या को पकड़ लाने का आदेश दिया है?"

सिद्ध बाबा ने कहा तो आदेश ही समझो।

आदेश का पालन तो हो गया महाराज। लेकिन आगे क्या होगाकुछ समझ में नहीं आता। सौके विद्रोह पर उतर आए हैं। ऊपर से बादल फिर से घिरने लगे हैं कहीं बारिश हो गई तो रिंगाल की चटाइयों से बने पटवास चूने लगेंगे। सोचा था सौकों से थुलमे, चुटगेपंखी और दन आदि लेकर कुछ बचाव तो हो ही जाएगालेकिन अब यह भी सम्भव नहीं लगता। मदिरा की आपूर्ति भी उन्हीं से होनी थीलेकिन वे तो गुस्से में उबल रहे हैं गुप्तचरों ने बताया है कि स्थानीय खस-प्रजा भी उनका साथ देने को तैयार है। कहीं उपद्रव खड़ा हो गया तो लेने के देने पड़ जाएँगे महाराज हमारी छोटी-सी सैनिक टुकड़ी कुछ कर पाएगी, मुझे तो सन्देह है।
गुसांई के कथन में हताशा का स्वर भाँपकर कापालिक कराली उत्तेजित होकर बोल उठा-“ गुसांई जी, लगता है तुम्हें अपने बाहु-बल पर भरोसा नहीं रहा। लेकिन हमारे तंत्र-मंत्र तो अमोघ हैं। भगवान भैरव का जहाँ आह्वान किया नहीं कि सारी बाधाएँ छूमन्तर। आप लोग निश्चिन्त रहेंभगवान भैरव भक्तों का कल्याण ही करेंगे।
सो तो है गुरुदेवलेकिन अगर सारे लोग बिगड़ खड़े हुए तो सम्भालना कठिन होगा। शायद आप कुछ कर सकें।
गुसाई इतना ही कह पाया था कि बाघनाथ मन्दिर के पीछे से जोरदार कोलाहल कानों में पड़ा और वे सभी चौंक उठे। कई लोग विरोध की मुद्रा में सामने प्रकट हो गए। गुसाई जी और सैनिक राजा वीरमदेव की सुरक्षा में सतर्क हो गए। ऊनी वस्त्र पहने एक सौक पुरुष हाथ में तकली लिए आगे बढ़कर बोला-महाराज की जय हो ! महाराज मेरी बेटी को आपके सैनिक और कोई साधु पकड़ लाए हैं। हमें हर ओर से लूटा जा रहा हैं। आपके सैनिक हमारा नमक और मदिरा पहले ही छीन ले गए। अब ऊनी माल भी लूटजा रहा है। और तो और हमारी कुल ललनाओं की इज्जत पर भी हाथ डाला जा रहा है। अन्याय की हद हो गई महाराज। मेरी बेटी वापस मुझे सौंप दीजिए।
यह सुन कर कापालिक कराली ने नर-कपाल पर आघात करते हुए कहा-जय भैरव ! अरे मूढ ! अनुष्ठान के लिए अगर तुम्हें कुछ बलिदान करना पड़े तो इसे अन्याय की संज्ञा नहीं दे सकते। फल तो तुम्हें भी मिलेगा। यह तो अपना सौभाग्य समझ कि तुम्हारी कन्या आज के संध्या ढाल में प्रमुख भैरवी बनेगी। तुम्हें तो अपने पर अभिमान होना चाहिए।
हम तो सीधे-सादे लोग हैं महाराज। संख्याढालअनुष्ठानभैरवी और न जाने आप क्या-क्या कह रहे हैं। बाप के सामने उसकी अबोध कन्या छिन जायऐसा सौभाग्य मैं नहीं चाहता महाराज। मेरी बेटी मुझे सौंप दी जायबस यही विनती है।

मूर्ख की तरह क्या रट लगाए बैठा है ? एक रात ही की तो बात है. अगर भैरवी खरी उतरी तो सौभाग्य तुम्हारे चरण चूमेगा। क्यों महाराजसाधना की सफलता पर आप इन्हें एक-दो गाँव भेंट-स्वरूप देंगे न? ”

"आज्ञा शिरोधार्य है गुरुदेव।“ बीरमदेव ने कराली के सम्मुख सिर नवाते हुए कहा।

नहीं महाराजमुझे कुछ नहीं चाहिए। मेरी बेटी को छोड़ दीजिए. नहीं तो...।

नहीं तो ! नहीं तो क्या कर लेगा तूतेरी लाड़ली राज-बन्दिनी है। हमारे सम्बन्ध में जो अपवाद फैलायाउसका दण्ड तो भोगना ही पड़ेगा।

नहीं महाराजवह अवोध तो बिल्कुल निर्दोष है। दूसरों से जो कुछ सुनागा दिया। हमारी तो भाषा-बोली भी अलग है । गीत का अर्थ भी तो नहीं जानती वह। सभी गाते हैं तो उसने कौन-सा अपराध कर दिया। ? उस पर दया कीजिए महाराज।

मैं कुछ सुनना नहीं चाहता। मैंने स्वयं कानों से सुना है। लगता है तुम भी अपवाद फैलाने में पीछे नहीं हो तुम तो अर्थ जानते हो नगुसांई जी इस बदजात को भी बन्दी बनाओ।-बीरमदेव क्रोध में चिल्लाया

गुसांई ने उसे पकडना चाहा, लेकिन महामात्य के साथ राजगुरु के सहसा-आ जाने से संकोच में पड़ गया। राजगुरु ने कहा-गोसांई जी रुको । कहाँ तो संक्रान्ति का पवित्र स्नान करने आए थे और कहाँ यह सब देख-सुन रहे हैं। आए थे हरि-भजन कोओटन लगे कपास। यहाँ जो कुछ हो रहा हैगले नहीं उतरता। इस झंझट को किसी बड़े संकट का रूप धारण करने से पहले ही निपटा दें तो अच्छा है। इसी में हम सबका कल्याण है महाराज ।"

राजगुरु के इस कथन पर वीरमदेव ताव खा गएबोले-"लेकिन गीत के पीछे मुझे बदनाम करने की जो साजिश हैवह कुछ नहीं। आप दखल न दें राजगुरु। अपनी पूजा-पाठ से मतलब रखें तो यही आपके हक में अच्छा है।

"किस-किस को दण्ड देते फिरेंगे महाराज ? मैं तो जहाँ भी गयालोगों को रस ले-लेकर गाते पाया। रोकने का प्रयास करेंगे तो और भी प्रचार-प्रसार होगा। बेहतर है कि उस पर कान ही न दें महाराज।

राजगुरु की इस सलाह पर वीरमदेव ने कहा- वाह ! कैसे अनुसना कर दूँ जब कि बेवजह मुझे बदनाम किया जा रहा है। अरेउसने तो पति-शोक में आत्मघात किया था। रही संख्या ढाल में शामिल होने की बाततो वह अपने सुहाग की कल्याण-कामना की खातिर स्वेच्छा से शामिल हुई थी। लेकिन लोग तो कुछ और ही कहते हैं। आपकी दलील में दम नहीं लगता महाराज। हाँझूठ के पाँव भी तो नहीं होते। जो होना था।  हो चुका। अच्छा है इस सब पर मिट्टी डालो।
यह सुनना था कि वीरमदेव आपा खो बैठा। भड़ककर बोला-"तुम्हारा इतना साहस ! गिरिराज चक्र चूड़ामणियों के वंशज को तुम झूठा कहते हो। याद रखोब्राह्मण के पैर पूजे जाते हैंसिर नहीं।
मरना तो एक दिन सभी को है महाराज। यहाँ कोई अमरौती खाकर तो आता नहीं। मेरी मौत आपके हाथों लिखी हो तो वही सही। लेकिन जिस वंश की रोटियों पर मेरा वंश फूला-फलाउसके सम्मान को ठेस पहुँचेयह मुझसे नहीं देखा जाता।-राजगुरु बोले।

"अच्छा तो तुम समझते हो कि गिरिराज चक्र चूड़ामणियों की कीर्ति और मर्यादा के संरक्षक तुम होअपनी सीमा से बाहर आने का साहस मत करो राजगुरुनहीं तो पर कुतर दिए जाएँगे। लगता है यह आग तुम्हीं ने लगाई है। तभी तो इतने लोग विद्रोह की मुद्रा में मेरे सामने खड़े हैं। तुम राज्य के विरुद्ध षडयंत्र रचने के अपराधी हो। गुसाई जी राजगुरु को भी बन्दी बना लो।"- वीरमदेव ने आदेश दिया।
वीरमदेव और राजगुरु की तीखी नोक-झोंक से महामात्य में कोई हरकत होते न देखकापालिक राजगुरु से बोल उठा-बूढ़े ब्राह्मण तुम्हारे बुढ़ापे ने मुझे आज तक रोके रखावर्ना एक फूंक में उड़ गया होता। राज-मन्दिरों का प्रसाद खाते-खाते चरबी चढ़ गई है न, जो अपने को राज्य का नियामक मान बैठा है। चाहूँ तो तेरी खोपड़ी का भी ऐसा ही खप्पर बना डालूँ।"  नर-कपाल को नचाते देख उपस्थित लोग सिहर उठे।
राजगुरु बोले-"अपनी झूठी सिद्धि से आतंकित करना चाहता है करालीऐसा बड़ा सिद्ध है तो मेरे जैसों की सोच पर ही क्यों अंकुश नहीं लगा देतालोगों को चकमा देने के लिए सिसूण का आसन जमा कर बैठा है। छोटे-मोटे जादू दिखाकर लोगों की आँखों में धूल झोंकता है। तेरे तंत्र-मंत्रों और अभिचारों का रहस्य मैं अच्छी तरह जानता हूँ। राजमन्दिरों के चढ़ावे पर तेरी नजर है और संख्याढाल के नाम पर पाप की फसल बो रहा है। इन्हें प्रभाव में लाकर नियामक तो तू बन ही गया। जा पाप का अन्न तू ही खा। मैं राजगुरु का पद छोड़ रहा हूँ। तेरे भैरवी-चक्र के चक्कर में पड़े इस राजा का राजगुरुत्व तुझे ही शोभा देगा।
अब तक शान्त बैठे महामात्य अब और चुप नहीं रह सकेबोले-नहीं राजगुरुकत्यूरी राजवंश और आपके कुल के राजगुरुत्व का सम्बन्ध इतनी आसानी से नहीं टूट सकता। इसका निर्णय राजमाता महारानी जिया के लौटने पर होगा और महाराज वीरमदेवआप तो दूसरी आल से हैं। सही माने में कत्यूर आपका है भी नहीं। महारानी जिया ने इच्छा व्यक्त की थी कि महाराज धामदेव के विजय-अभियान से लौटने तक सिंहासन खाली न रहेइसलिए पाली-पछाऊँ से आपको बुला भेजा। राजमाता को आपकी योग्यता और सदाशयता पर पूरा भरोसा था। वे समझती थीं कि आप कत्यूरी राज्य को विघटित होने से बचा लेंगे। तुर्को के पिछले हमले को आपने जिस वीरता और साहस के साथ विफल किया थाउसका लोहा सभी मानते हैं लेकिन इधर सारे किए-घरे पर पानी फिर गया है महाराज। इस जोगटे के प्रभाव में आकर जब से आप वीरमदेव से बिरमवा बनेचारों ओर थू-थू होने लगी है। मेरी मानिए महाराजसंख्याढाल के इस अनुष्ठान को बन्द कीजिएऔर सौक-कन्या को तुरन्त माँ-बाप को सौंप देने का आदेश दीजिए, अन्यथा आप जानें। ”


महामात्य आप भी..! लेकिन यह तो अच्छा नहीं कि कोई अनुष्ठान का संकल्प ले और फिर बीच में ही छोड़ दें।” -वीरमदेव ने उद्विग्न होकर कहा।
इसी बीच कुछ और लोग भी शोर मचाते वहाँ पर जमा हो गए। घेरा जैसे और कसता चला गया। किसी ने पीछे से चिल्लाकर कहा-ये दोनों अपराधी हैं। यह जोगटा और चेला वीरमदेव भी। इन्हें जनता जनार्दन को सौंप दें। इनका संख्याढाल जनता ही पूरा कर देगी।

वह और कोई नहीं खेकदास था-रानी जिया का मुँह लगा गुलामलेकिन सर्वसाधारण में उसकी बड़ी इज्जत थी । सुनकर वीरमदेव आगबबूला हो उठा। उसने आदेश दिया कि वहाँ पर जमा भीड़ को मार भगाया जायलेकिन महामात्य के संकेत पर सैनिक हिले तक नहीं।
 वीरमदेव आवेश में उठ खड़ा हुआ और दाँत पीसकर बोला-अच्छा तो तुम सभी विद्रोहपर उतारू हो गए हो। एक-एक को देख लूँगा। तुम राजा के चाकर हो महामात्य के नहीं मै फिर से आदेश देता हूँ कि महामात्य को भी निहत्था कर पकड़ लो और वह खेकदासउसे तो मैं अभी यमलोक पहुँचाता हूँ।
         वीरमदेव का हाथ तलवार के हत्थे पर जाने से पहले ही महामात्य ने उसकी तलवार छीन ली। अपनी दुर्वलता भांपकर वह सिर के बाल नोचने लगा और चीखने-चिल्लाने लगा। गुस्से में मुँह से झाग भी निकलने लगा कुछ लोग यह देखकर- ‘ राजा पागल हो गया ! राजा पागल हो गया !’ चिल्लाते हुए मेला-स्थल की ओर दौड़ पडे और उधर मेले में पहले से ही कुहराम मचा हुआ था। वातावरण इतना गरम हो उठा कि अलाव तापते बूढे-बूदियों तक श्मशान भैरव की ओर दौड पडे। अलाव की जलती लकड़ियों उनके हाथों में थी। नृत्य-संगीत में खोयी युवा मंडलियों भी उसी ओर दौड़ पड़ी। तो और जीवन-साथी की खोज में जो विधुर-विधवाएं गीतों के माध्यम से प्रश्न उछालने में और उत्तर देने में मगन थे। उनका भी ध्यान बंट गया और वे भी भीड़ का अंग बनकर उसी ओर चल पड़े। जन-सैलाब इस तरह आगे बढ़ा जैसे सरयू की अनियंत्रित बाढ़ अपने कूल-कगारे तोड़कर बह निकली हो। उपद्रव और लूट की आशंका में दुकानें धड़ाधड़ बंद हो गईं और उनके मालिक भी उस भीड़ में शीमिल हो गए। भीड़ ने सबसे पहले अधूरे बने पटवासों को अपना निशाना बनाया। कत्यूरी सैनिकों ने उन्हें रोकने का प्रयास किया तो चारों ओर से पत्थर बरसने लगे। भीड़ ने सबसे पहले अधूरे बने पटवासों को अपना निशाना बनाया कत्यूरी सैनिकों ने उन्हे रोकने का प्रयास किया तो चारों ओर से पत्थर बरसने लगे। घायल सैनिकों को जान के लाले पड़ गए और वे भाग खड़े हुए। उसके बाद भीड़ उस मकान की ओर बढी जहाँ सौक-कन्या को दो सैनिकों और एक साधु की देख-रेख में रखा गया था। भीड़ को देखते ही दोनों सैनिक और साधु अपनी जान बचाकर न जाने कहाँ चम्पत हो गए। कन्या को मुक्त कर लिया गया । भीड़ में उसकी माँ उपस्थित थी और बेटी माँ की बांहों में समा गई।
   किसी ने अफवाह फैला दी कि यही एक लड़की नहींबल्कि बहुत सारी दूसरी लड़कियां भी पकड़ी गई हैं। क्या पता जवान लड़कों को भी पकड़ने का इरादा हो। संख्यादाल जैसे अनुष्ठानों के लिए धन चाहिए और वह धन दास-दासियों को बेचने से प्राप्त होना है। अफवाह एक कान से दूसरे कान तक पहुँची। लोग भीड़ में अपनी-अपनी बहन, बेटियों और बहुओं की सुरक्षा को लेकर चिन्तित हो उठे। इसी बीच कत्यूरी सैनिक पीथ गुसांई के नेतृत्व में एकत्र हो चुके थे। भीड़ के गुस्से को देखकर तो यही लगता था कि कत्यूरी नरेश वीरमदेवराजगुरु और महामात्य का जीवन खतरे में है। कत्यूरी सैनिक तलवारें खींचकर प्रतिरोध के लिए आगे बढ़े। लेकिन जहाँ चारों ओर से पत्थरों की वर्षा हो रही हो और विरोधी पहुँच से बाहर हो तो तलवारें क्या कर सकती थी। भीड़ चिल्ला रही थी-राजा पागल है। राजा पागल है मारो मारो। सिद्ध को भी मारो।
कोलाहल इतना बढ़ा कि संगम पर बैठे शोकार्थी तक फूल सिराने की परम्परा भूल गए और जो कुछ हाथ लगाउसी को लेकर भीड़ का साथ देने लगे। पत्थरों की मार से लहू-लुहान सैनिकों के पैर उखड़ने लगे। पीथु गुसाई ने उन्हें पीछे हटकर राज-पुरुषों की सुरक्षा सुनिश्चित करने का आदेश दिया। परिणाम यह हुआ कि भीड़ बाघनाथ के मन्दिर तक पहुँच गई। इस अफरा-तफरी में कापालिक करालीउसकी भैरवी और चेले-चाँटे सरयू किनारे उगी झाड़ियों और पत्थरों की आड़ लेकर खिसक गए। सभी को अपनी-अपनी जान बचाने की लगी थी। उनकी ओर किसी का ध्यान नहीं गया। जाता भी तो उन्हें धर-दबोचना सम्भव नहीं था, क्योंकि भीड़ के सारे पत्थर अब उसी ओर बरसने लगे थे। श्मशान भैरव के अहाते को भीड़ ने चारों ओर से घेर लिया था। महामात्य ने पीथु गुसांई को आदेश दिया कि वह कुछ सैनिकों को साथ ले गोमती के बायें किनारे के जंगली रास्ते से वीरमदेव को सकुशल कत्यूर पहुँचाने का प्रयास करे। दायीं ओर से द्यांगड़ और रवांईखाल होकर जो आम रास्ता थाउधर से जाना खतरे से खाली नहीं था।
उत्तेजित भीड़ कुछ भी कर गुजरने को तैयार बैठी थी। लोग माँग कर रहे थे कि अनाचारी वीरमदेव को उन्हें सौंप दिया जाए। इसी तकरार के चलते पीथु गुसाई वीरमदेव को लेकर गोमती के पार खिसक गए। हालत विस्फोटक होती देख राजगुरु एक ऊँचे से चौरस पत्थर पर खड़े होकर अपनी धीर-गम्भीर आवाज में लोगों को सम्बोधित करने लगे उनकी झक सफेद दाढ़ी और गरिमामय व्यक्तित्व का कुछ ऐसा प्रभाव पड़ा कि अनियंत्रित भीड़ शान्त होकर सुनने को तैयार हो गई। राजगुरु ने कहा -प्यारे भाइयों और बहिनो ! मैं मानता हूँ कि आपका गुस्सा बेवजह नहीं है। अनाचारी जो भी होउसे अपने किए का फल देर-सबेर तो भोगना ही है। लेकिन बिना सोचे-समझे क्रोध में आकर कुछ कर बैठना भी समझदारी नहीं है। वीरमदेव का यह अकेला अपराध नहीं है। और भी कई संगीन मामले हैं। जिनका हिसाब उसे राज-परिषद में देना है, याद रखिएवह कोई सामान्य अपराधी नहीं हैजो यहीं पर उसका फैसला कर दिया जाता। राज-परिषद को उसके अपराधों पर विचार करना है। इसीलिए उसे कत्यूर सुरक्षित पहुँचाने का दायित्व पीथु गुसांई को सौंपा गया है। विचारोपरान्त महादण्डनायक जो भी तय करेंगेवह तो उसे भोगना ही पड़ेगा। हाँएक बात और हैजिसे आप लोगों के ध्यान में लाना मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ। शायद आप जानते होंगे कि वीरमदेव पहले ऐसे नहीं थे। पाली-पछाऊँ के शासक के रूप में तुर्कों के आक्रमण का उसने जिस वीरता से मुँह तोड़ उत्तर दिया थाउसे भुलाया नहीं जा सकता। इधर कत्यूर के शासन की बागडोर हाथ में आने पर उसका ऐसा अधःपतन क्यों हुआइसकी छानबीन करना भी हमारा धर्म है लगता है इस अधःपतन की जड़ कहीं और है और उस तक पहुँचना भी न्याय के लिए आवश्यक है। ”
राजगुरु कुछ रुके तो भीड़ से आवाज आई- “राजगुरुवीरमदेव के पिछले इतिहास का हवाला देकर आप क्या सिद्ध करना चाहते है ? हमें तो उसके वर्तमान को देखना है। भूत के पीछे भागकर भूत नहीं बनना है हमें। आज तो वीरमदेव एक अनाचारी ही नहींघोर अत्याचारी भी है। उसका वर्तमान तो चीख-चीख कर यही कह रहा है। आप जिस जड़ की ओर इशारा कर रहे हैं। वह कापालिक कराली है और उसे भाग निकलने का अवसर देकर मामले की गम्भीरता को कम करने का अपराध किया गया है।
यह अपराध जानबूझकर नहीं हुआ है खेकदासअफरा-तफरी के इस माहौल में पता ही नहीं चला कि वह पाखण्डी सिद्ध कब और कैसे खिसक गया ? राजगुरु के कहने का भी वह अर्थ नहीं जो तुम समझ बैठे हो। हाँदण्ड निर्धारण से पहले जाँच-पड़ताल तो जरूरी है। जहाँ तक कापालिक का सम्बन्ध हैमैं कठायतबाड़ाआरेपन्दरपाली और हरबाड़ के मुखिया लोगों को आदेश दे रहा हूँ कि वे अपने आस-पास के जंगलों और गुफाओं की छानबीन करें। हो सकता है वह बालीघाटगौरी उड़यार या उनके समीप कहीं छिपने चला गया हो। विश्वास कीजिए।  वह जल्दी ही पकड़ लिया जायेगा और राज-परिषद दोनों गुरु-चेलों को एक साथ कठघरे में खड़ा करेगी। मैं वचन देता हूँ। ”-महामात्य ने भीड़ में खड़े खेकदास से कहा।
"अगर जल्दी कोई कार्रवाई नहीं हुई तो हम लोग चुप नहीं बैठेंगे और उसका सारा दायित्व कत्यूर में बैठे अधिकारियों पर होगा।” किसी नौजवान ने हाथ उठाकर कहा।

"बिल्कुल सहीबिल्कुल सही! ” भीड़ एक साथ चिल्ला उठी।
उसके बाद भीड़ धीरे-धीरे छँटने लगी। लोग अपने घावों को सहलाते हुए सरयू में स्नान करने लगे। व्यापारी सबसे अधिक दुखी थे। उस सारे उपद्रव में उनके सामान की अदला-बदली ना के बराबर हुई थी। निराश होकर वे सभी अपना-अपना सामान समेटने लगे। मकरैणी का वह पवित्र पर्व एक दुःखद स्मृति का दंश छोड़कर चला गया।
    उधर कत्यूर और उसके आस-पास के इलाके में विद्रोह के स्वर और भी मुखर होने लगे थे 'मामीतीलू तीलधारो बोला-इस गीत की गूंज यदा-कदा राजमहल तक पहुँचने लगी थी। वीरमदेव को लगता कि जैसे उसके कानों में उबलता सीसा उड़ेला
जा रहा हो। लेकिन करे तो क्या करे ? अधिकारी भी उससे कन्नी काटने लगे थे। उसके अपने दास-दासी तक भी उपेक्षा करने लगे थे। चौकोट से पत्नी का सन्देश आया था कि वह उसका कालिख-पुता मुँह नहीं देखना चाहती। जितने भी सगे बनते थेवे सभी किनारा करने लगे थे। और तो औरउस भाई से भी कोई आशा नहीं रहीजिसे वह पाली-पछाऊँ का भार सौंप आया था। सच है. दो दिन जब आते हैं तो कोई अपना नहीं होता।
वीरमदेव मकड़जाल में फंसा मक्खी की तरह फड़फड़ा रहा था। निजात पाने की कोई राह नहीं सूझी तो उसने होनी के आगे हथियार डाल देने में ही कुशल समझी। इस मकड़जाल का ताना-बाना बुनने में सबसे बड़ा हाथ खेकदास का था। औजी  परिवार में जनमा खेकदास बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा का धनी था। बाल-सुलभ खेलों में उसकी चपल निपुणता देखते ही बनती थी। सवर्ण बालक-बालिकाएँ मात खा जाते तो मिलकर उसे पीटते। लेकिन वह था कि हँसता ही चला जाता और उसकी निश्छल हँसी में सारा मनमुटाव न जाने कहाँ काफूर हो जाता। होश सम्भालने पर उसने खुद को जिस बेरहम दुनिया में पायाउसे उसका विद्रोही मन कभी स्वीकार नहीं कर पाया। उसके ममेरे भाई-बहिन को एक कत्यूरी सामन्त ने पहले तो छोरा-छोरी के रूप में अपने पास रखा और फिर उकताकर न जाने कहाँ बेच दिया। वे लोग फरियाद लेकर वीरमदेव के पास गए तो दुत्कार खाकर अपना-सा मुँह लेकर लौट आए। खेकदास के मन में तभी से प्रतिशोध की गाँठ निरन्तर कसकती रही। ढोल और हुड़का बजाने में उसका कोई सानी नहीं था। ढोल-सागर का उससे बड़ा जानकार भी उस इलाके भर में दूसरा नहीं था कहते हैं कि वह प्रतिपक्षी के बाजों को ही नहींउनकी आवाज को भी कैद कर लेता था। अपनी इसी योग्यता के कारण वह अपने समाज में काशंबरी गुरु नाम , जाना जाने लगा।  राज परिवार से संबंध जुड़ने में उसका यही हुनुर काम आया। कला-पारखी महारानी जिया ने उसे अपना निजी दास मान लियातो सवर्ण समाज में उसकी इज्जत बढ़ गई। लोग उसे अब खेकू की जगह दासजी कहकर पुकारने लगे थे। वीरमदेव भी
पर्व-त्यौहारों पर उसे बुला भेजता और दान-दक्षिणा देकर सम्मानित करता। जजमानी बढ़ी तो वह अपने वर्ग की एक ऐसी सशक्त आवाज बनकर उभर आया, जिसकी अनदेखी करना सरल नहीं था।
इधर राज-परिषद की बैठक होने वाली थी। खेकदास गोमती के किनारे बैजनाथ के मन्दिरों के पास लोगों के बीच हुड़के पर थाप देते हुए कत्यूरी-प्रताप का गायन इस प्रकार कर रहा था -

बलाण में चालौ खनीउठन म चाली खनी।
चाल जास चमकनीभूचाल जास हिलनी।।
जोत राजा कत्यूरां की।।
जै बिरमा ज्यू को आल बांकोढाल बांको ।
तसरी कमाण बंकीजीरो सेरो बांको।
नवाण को सेरो बांकोदखणपुर बाँको
लखनपुर बांकोआसन बाँकोसिंहासन बांको ।
सेज की कटरिया राणी बाकी!
खोली का भीखा पहरी बाँका।
गोदी का खिलान सात ललिया बांकी ।

(हिन्दी अनुवाद)
वे बोलते हैं तो बिजली चमकती हैं,
उठत है तो आँधी गरजती है,ये चाल (बिजली)
जैसे चमकते हैभूचाल जैसे हिलते है
कत्यूरियों के तेज का यही प्रभाव है।
वीरमदेव की जय हो ! जिसकी आल टेटी है ढाल टेढ़ी है
कमान टेढञी है, धानों के खेत टेढे हैं
आसन टेढा है. सिंहासन भी टेढ़ा है।
उसकी रानी बाँकी है,
पहुरुए बांके हैं और गोदी में खेलने वाली सात बेटियाँ भी बाँकी है।

और फिर

जो बिरमा को घट बौया छी।
जतिया-मारखुली छी।
जतिया-मारली छी, कुकरा खदुवा छी।
सुल्ट नाई लै लिनी पैंचा, उल्ट नाई लै दिनी।
सात खावा बतूनी चालनैल चाइ लिनी।
बाँजा घराट की भाग उंधूनी ।
माल मली सौकाण तली की दसौत उंधूनी ।
गरम पानीचौसिंग्या लाखाभोटियाल
कामला लिनी।
अचार करनीबिबी ढंकूनी।
तरुणी तिरियाहिटन नी दिनी।
बरड़ो बाकरो चरन नी दिनीं।
झड़िया लाखड-पातड़ लोगन नी
उठान दिनी।।

वीरमदेव की जय हो
जिसके अत्याचार की बावली चक्की
बन्द होने का नाम नहीं लेती।
जिसके भैसे मरखने और कुत्ते कटखने हैं।
उसने सुलटी नाली से पैंचा (उधार) लिया
और उलटी नाली से लौटाया।
सात खलिहानो मे फटककर और छलनी से छानकर अन्न बसूला।
बंजर पड़ी पनचक्की की पिसाई वसूली।
माल (भाबर) से लेकर भोट तक की
दसौंत (दश्मांश) वसूली।
गरम पंखियोंचौसिंगे बकरे और भोटिया कम्बल
कर के रूप में लिए। अनाचार-अत्याचार किया।
तरुण स्त्रियों को रास्ते में चलने नहीं दिया।
मोटी बकरियों चरने नहीं दी।
झड़ी हुई पत्तियों और गिरी हुई लकड़ियां तक
प्रजा को नहीं उठाने दी।।

वीरमदेव की यह यशोगाथा अभी पूरी भी नहीं हो पाई कि राज-परिषद से बुलावा आ गया । समाज के निचले तबके का प्रतिनिधित्व भी वहाँ आवश्यक समझा गया था। द्वाराहाटलखनपुर,रामपुर हाट और पाली-पछाऊँ आदि के सारे कत्यूरी शासक
और सामन्त उपस्थित थे । प्रजा-जनों की ओर से बोरा लोगों के बूढ़ादानपुर के दाणोंआस-पास के महराकैड़ा, गढ़िया, हरड़िया और किर्मोलिया आदि के मुखिया लोगों को भी आमन्त्रित किया गया था। जोहार-मुन्स्यार के सौकों के भी दो प्रतिनिधि परिषद में उपस्थित थे। महामात्य ने सबसे पहले सरयू-घाटी के गढ़िया और हरड़िया सरदारों से पूछा कि वे लोग कापालिक को पकड़ लाने में क्यों विफल रहे। उन्होंने जवाब में एक ग्वाले को परिषद के सामने उपस्थित कर दिया। ग्वाले ने बताया कि उसने सिद्ध को गौरी उडयार में घुसते हुए देखा था। लेकिन जब वह गुफा के दरवाजे पर पहुँचा तो सिद्ध बघेरा बनकर उस पर टूट पड़ा। वह अपनी जान बचाने सिर पर पैर रखकर नीचे पन्दरपाली की ओर भागा। तेजपात के एक पौधे की आड़ से जब गुफा की ओर मुँह किया तो गुफा में सिद्ध को हँसते हुए पाया। सिद्ध तो बोक्सा निकला। वह भला उससे कैसे पार पा सकता था?
   खेकदास को छोड़ शेष सभी ने मान लिया कि कापालिक शायद कोई बोक्सा अथवा रूपधारी बेताल है खेकदास का कहना था कि या तो ग्वाले की आँखें कापालिक की चाल समझने में धोखा खा गई या वह स्वयं कापालिक के प्रभाव में है और इसीलिए कहानी गढ़ लाया है। अधिकांश कत्यूरी सरदार भी जब यह कहने लगे कि कापालिक को पकड़े बिना मामले को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता तो जन-प्रतिनिधि भड़क उठे। उनका कहना था कि सिद्ध जाए भाड़ मे। हम तो महाराज बीरमदेव के कारनामों सेपरेशान हैंउनसे निजात मिले तो गंगा नहाएं । इस पर कत्यूरी सरदारों की भौंहें तन गई। तीन कौड़ी के खसियाकत्यूरी-नरेश के भाग्य का फैसला करें-यह उनसे कैसे सहा जाता। मामले को तूल पकड़ता देखराजगुरु ने बीच-बचाव की मुद्रा में कहा- “देखियेयह सच है कि अपराधी से अपराध का प्रेरक भी कम अपराधी नहीं होता। वीरमदेव के अनाचार के पीछे उसी पाखण्डी सिद्ध का हाथ हैइसमे कोई शक नहीं। लेकिन कत्यूर के लोग महाराज के दूसरे कारनामों से भी कम परेशान नही है। इसलिए मामले को यों ही टाल देना न्यायसंगत नहीं है। ” महामात्य ने आगे कहा- “अमानत में खयानत का एक मामला भी सामने आया है। गोपालकोट के कोषपाल ने बताया है कि उसकी आँख बचाकर राजकोष का आधा सोनाकुछ चाँदी और बहुत से जेवरात भी गायब कर दिए गए हैं उसका शक है कि संख्यादाल के खर्चे की पूर्ति के लिए यह अपराध हुआ है। ”
महामात्य के इस रहस्योदघाटन से कत्यूरी सरदार भी सकते में आ गए और
एक-दूसरे के मुंह पर ताकने लगे। पाली-पाछाऊँ के सामन्त को भीतर ही भीतर यह भय खाए जा रहा था कि अगर वीरमदेव को कत्यूर से हटा देने का फैसला हुआ तो उसका अपना क्या होगा उसने कहा-अगर कोषपाल का शक सही है तो इस अपराध में भी दोनो गुरु-चेले शरीक है। लेकिन मेरी समझ में तो मामी के सतीत्व से खेलने का मामला अधिक संगीन है । मै जानता हैं कि भाई वीरमदेव, परिहार-कुल में व्याही जाने से पहले उसके प्रति आकर्षण रखते थे । उसके लावण्य पर इतने लट्टू थे कि ब्याह का प्रस्ताव भी किया थालेकिन जीवन-संगिनी की जगह मामी बन जाने पर चुप्पी साध गए। उनमें चाहे जितनी कमियां होपर रिश्ते की पवित्रता भंग करने का साहस उनमें नहीं था। यह साहस आया कैसेमेरी तो समझ से बाहर है। ”
इस पर राजगुरु बोले-यह कोई अबूझ पहेली नहीं है सामन्त। कराली की करामात है । तुम कहते हो कि आकर्षण पहले से ही था। कराली ने हवा दी और आग भड़क उठी। सिद्ध के चोले में बसे उस पशु ने कहा होगा-सुन विरमवा,
जिमि बिस भक्खहिं बिसहिं पलुत्ता।
तिमि भुव भुजहिंभवहिं न जुत्ता।
अर्थात् विष-भक्षण से जैसे विष का प्रभाव मिट जाता हैवैसे ही सांसारिक भोग भोगने से लौकिक बन्धनों से भी मुक्ति मिल जाती है।

“ आप सही कह रहे होंगे राजगुरु लेकिन इससे इनका अपराध कम तो नहीं हो जाता। कहा गया है-यथा राजा तथा प्रजा। रिश्ते-नातों की मान्यता के पीछे तो हमारे युगों-युगो का अनुभव है। अगर यह मान्यता ही नष्ट हो गई तो समाज का क्या होगाइस पर तो गम्भीरता से सोचने की जरूरत है। एक बार के अपराध को भले ही नजरअंदाज कर लेंलेकिन यहाँ तो उसी अपराध को खुलेआम दुहराने का प्रयास था।

यह सुनना था कि खेकदास खड़ा हुआ और बोला- “”दुहराए नहीं, ठाकुरोंतिहराने का प्रयास था। इस नेक काम की शुरुआत तो शायद मेरी चचेरी बहिन के अपहरण के साथ हुई जो इनके चंगुल से छूटते ही पागल होकर मर गई । बहनोई ने छुडाने का प्रयास किया तो धक्का देकर चट्टान से लुढ़का दिया गयाताकि दुनिया समझे कि फिसलकर मर गया। यह सारा काण्ड गुरु-चेले के इशारे पर हुआ था। ये तीनों कारनामे तो छिप नहीं पाए। लेकिन कई ऐसे मामले और भी हैजिन्हें परिवार और कुल की बदनामी के डर से प्रकाश में नहीं आने दिया गया पीड़ित लोग खून के आंसू का घूंट पीकर चुप्पी साध गएष अनाचार परिणाम है कि आज गाँव-घरों में औरत-बच्चे साधु-सन्तों को देखते ही भीतर छिप जाते हैं। वीतराग सन्यासियों का ऐसा आतंक कैसी विडम्बना है ! ”
खेकदास इतना ही कह पाया था कि एक जन-प्रतिनिधि खड़ा हुआ और बोला-अनाचार के मामले तो खुलकर सामने आ ही गएलेकिन उन अत्याचारों पर अभी तक कोई कुछ नहीं बोला जिनके चलते हम लोगों का जीवन दूभर हो गया है । यहाँ उल्टी नाली से अन्न उधार दिया जाता है और उल्टी नाली से वापस लिया जाता है। करों के बोझ से तो हमारी कमर टूट गयी है। बच्चों का पेट काटकर घी-दूध राजमहल पहुँचाना पड़ता है। हथछीना का ठण्डा पानी ढोते-ढोते सिर के बाल उड़ गए हैं। बकरा हो या बेटीजिस पर भी नजर पड़ी। वह राजा या उसके अधिकारियों की। बंजर पड़ी चक्की की पिसाई तक देनी पड़ती है। गिरी-पड़ी लकड़ियाँ और पत्तियाँ तक बिना कुछ दिए, हम उठा नहीं सकते हमें तो डर है कि अगर यही सब चलता रहा तो एक दिन हमारे उठने-बैठने और साँस लेने पर भी कर थोप दिया जाएगा। लगता है हम आदमी नहींबेजान माल हैंजिसका ये जैसा चाहें उपयोग कर सकते हैं।

"यही तो रोना है भाई। यहाँ आदमी कमकैनीहलियों या छोरे-छारेही अधिक हैं अपने को आदमी समझने का भ्रम पालना तो हमारी मूर्खता है। सूरज और चन्द्रमा में अपने मूल की खोज करने वाले थोड़े से लोग ही तो यहाँ आदमी हैं। उनका मानना है कि ईश्वर ने उन्हें ही दुनिया पर राज करने के लिये पैदा किया है। ”-खेकदास फिर से कह उठा।

“ देखियेकर लगाना और उसे उगाहना तो राज्य व्यवस्था का पहला आधार है। प्रजा अगर कर चुकाने से मना करे तो कैसे काम चलेगाहाँकर के प्रकारमात्रा और उगाहने के तौर-तरीकों पर विचार किया जा सकता है। लेकिन कर तो प्रजा को चुकाने ही पड़ेंगे। इस मामले पर आगे ठण्डे दिमाग से विचार किया जा सकता है। इस समय तो कुछ उन बेजा हरकतों पर विचार किया जाना हैजिनके कारण लोगों में आक्रोश पैदा हुआ है।-महामात्य ने बहस को सीमा के भीतर समेटने के उददेश्य से कहा।
राजगुरु उठे और बोले-"महामात्य का कहना सही है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि राजा धरती पर ईश्वर का प्रतिनिधि होता है। वह जो भी चाहता या करता हैईश्वरीय प्रेरणा ही उसके मूल में होती हैशास्त्रों का तो यही कहना है गाहे-बगाहे कोई अपराध हो जाता है तो उसके निवारण के उपाय भी शास्त्रों में हैं। राजगुरु होने के नाते मैं व्यवस्था देता हूँ कि महाराज वीरमदेव यदि पाखण्डी कापालिक से सम्बन्ध तोड़ने का वचन दें और पाप-विमोचन के लिए एक विशाल यज्ञ का आयोजन करें तो प्रायश्चित हो जाएगा। संकट की इस घड़ी में कोई बड़ा उलट-फेर खतरे से खाली नहीं है। पश्चिम से पंवार ताक में बैठे हैं तो पूरब से चन्द सब कुछ हड़प जाने की फिराक में हैं। ऐसी स्थिति में राजमाता का जब तक स्पष्ट निर्देश नहीं आ जातावीरमदेव कत्यूर पर राज करते रहेंयही सबके हित में है। अगर कुछ कष्ट भी हो तो राज्य के हित में उसे सहन कर लेना हमारा कर्तव्य है।

"वाहराजगुरु महाराज ! खोदा पहाड़ और निकली चुहिया। एक मुँह में कितनी-कितनी जवान रखते हैं लोगपहले तो बहुत उछल रहे थे और अब ? मोटी दक्षिणा मिल गई होगी शायद । यज्ञ में तो बचे-खुचे राजकोष के भी खाली हो जाने का डर है। मेरी मानिए । गंगा नहाने की व्यवस्था देकर छुट्टी पाइए। सारे कुकर्म धुल जाएँगे।” -यह खेकदास था। .

"राजकोष खाली हो या न होलेकिन हमारे घर जरूर खाली हो जाएँगे। मार तो हमीं पर पड़नी है। वाह पण्डित जी ! अपने भाई-भतीजों के खाने-पीने की क्या अच्छी तरकीब सोची है। यज्ञ में माल उड़ाओगे तुम और भूखे मरेंगे हम। चाहे जो हो। चन्द आएँ या पंवार लेकिन इनसे तो छुटकारा मिले। ”-बोरों के बूढ़े ने अपनी तीखी आवाज में कहा।
     लोगों के ऐसे तेवर देखकर एक को छोड़ शेष कत्यूरी सामन्तों का धैर्य चुक गया। एक ने तलवार नचाते हुए कहा-“ तो अब तुम तय करोगे, कि कत्यूर के सिंहासन पर कौन रहे और कौन नहीं। और यह खेकदासजुबान बहुत चलती है मन करता है,
 काटकर फेंक दूँ। मुँह लगाई डोमनीनाचे ताल-बेताल। राजमाता की आड़ क्या पाई कि अपने को राज्य का नियन्ता मान बैठा हैनीच कहीं का।
उसी क्षण वीरमदेव अपने चार अंगरक्षकों के साथ राज-परिषद में पधारे । कत्यूरी सामन्तों को अपने पक्ष में खड़े देखकर उसका साहस लौट आया। आते ही बोला-यहाँ जो कुछ कहा गया और मुझ पर जो-जो आरोप मढ़े गए। मैं उन्हें सिरे से खारिज करता हूँ। मैंने तो राजधर्म निभाया है और राज-धर्म कठोर होता है। संख्याढाल में पंच मकारों का सेवन तो कोई पाप नहीं और उसी को मेरा अपराध गिना जा रहा है। मैंने कोई पाप नहीं किया। वह तो स्वेच्छा से मुद्रा बनी थी। साधना कच्ची निकली तो आत्महत्या कर बैठी। लोग नाराज हैं कि उनसे जबरन कर वसूले जाते हैं। अगर चन्द या पंवार आ गए तो क्या वे बिना करों के राज-काज चलाएँगेआँखें खोलकर अपने चारों ओर देखिए। जंगल में बड़े पेड़, छोटे पौधों को पनपने नहीं देते। बड़े जानवर, छोटों पर निर्भर हैं। बड़ी मछली, छोटी मछलियों को निगल जाती है। ईश्वरीय नियम ही जब यही है तो मनुष्य की क्या विसात जो इससे अलग आचरण करे। हाँयह कत्यूर अब तुम लोगों को मुबारक ! राजमाता का आदेश मुझ तक पहुँच चुका है। वे मेरा मुँह नहीं देखना चाहतीं। वे नहीं चाहती कि मैं धामदेव के लौटने की प्रतीक्षा कत्यूर में बैठकर करूँ। उन्हें शक हो गया है कि मैं कत्यूर को हड़पने की फिराक में हूँ। मैं वापस अपनी पाली लौट रहा हूँ। महामात्य और राजगुरु जैसा चाहें यहाँ की व्यवस्था करें। मैं अब एक क्षण के लिए भी यहाँ नहीं रुकना चाहता। वीरमदेव का यह कहना था कि राज-परिषद में सन्नाटा छा गया। कत्यूरी सामन्तों ने उसके इस अनपेक्षित निर्णय का विरोध कियालेकिन वीरमदेव टस से मस नहीं हुआ।
सभी चुप थे पर खेकदास चुप नहीं रह सकाबोला-महाराज क्षमा करें। मनुष्य पेड़-पौधा या जानवर नहीं है। उसका दिल और दिमाग भी होता हैलेकिन अफसोसडण्डों और पोथों के आगे दिल-दिमाग की नहीं चलती। डण्डे का काम है सख्ती बरतने का और पोथों का काम है उसे सही ठहराना। पोथे कहते हैं-अपना-अपना भाग्य है भाईकर्मों का फल तो सभी को भोगना पड़ता हैफिर किसी का क्या दोष ? भाग्य और कर्मों के इस चक्रव्यूह से मनुष्य कभी मुक्त भी हो पाएगाकौन जाने? ”


   वाद-विवाद ने फिर उग्र रूप धारण कर लिया। कत्यूरी सामन्त तलवारें खींचकर खड़े हो गए। राज-परिषद को एक तरह से बन्दी बना लिया गया, वीरमदेव ने आदेश दिया कि जिन लोगों ने उसे अपराधी बताने का दुस्साहस कियावे ही उसे अपने कन्धों पर पाली पहुँचाएँगे। उपस्थित प्रतिनिधियों में से दो तगड़े नौजवान छाँटे गए और शेष को चेतावनी के साथ छोड़ दिया गया। उन दो जवानों की जलती आँखें देखकर वीरमदेव भीतर से सहम गया। उसे लगा कि वे डांडी से गिराकर उसे मार डालने का प्रयास कर सकते हैं। अतः कुछ ऐसा उपाय सोचा गया कि डाँडी-वाहक अपनी जान जोखिम में डाले बिना कोई शरारत न कर सकें। उनकी काँख छेदकर रस्सी डालने का निर्णय लिया गया। निर्णय लिया गया महामात्य और राजगुरु ने हल्का-सा विरोध भी जताया किन्तु वीरमदेव किसी की कब सुनने वाला था। दोनों को एक अँधेरी कोठरी में ले जाया गया और तलवारों के साये में काँख-छेदन का अमानवीय कृत्य सम्पन्न कर दिया गया, वे बहुत चीखे-चिल्लाएहाथ जोड़ेपैरों पड़े लेकिन सब अरण्य-रोदन सिद्ध हुआ। खून रिसते छेदों में रस्सी डालते समय इतनी पीड़ा हुई कि बेचारे बेहोश होते-होते बचे। वीरमदेव की डाँडी पाली के लिए चल पड़ी। बोझ के कारण रस्सी का तनाव मरणान्तक पीड़ा देने लगा। कलपते-कराहते डाँडी-वाहक रास्ते पर चल तो पड़ेलेकिन एक-एक पग उठाना दूभर हो रहा था। बेचारे मौत की कामना के सिवाय और कर भी क्या सकते थे। तलवार , कोड़े लिए दो अंगरक्षक डौंडी के आगे और दो पीछे। ऊपर से वीरमदेव की फटकार कि वे मरी चाल से क्यों चल रहे हैं। घावों से लगातार खून रिस रहा था और वे हथछीना की खड़ी चढ़ाई चढ़ने लगे। आधी चढ़ाई पार करते-करते पीड़ा की तीव्रता में कमी आने लगी। कहते हैं कि जब दर्द हद से गुजर जाता है तो दवा बन जाता है। शारीरिक यातना पर अब मानसिक यातना भारी पड़ने लगी। डाँडी में बैठे-बैठे वीरमदेव को प्यास सताने लगी थी। अंगरक्षक भी बेहाल थे। उन्होंने विनती की कि उन्हें आगे हथछीना जाने की आज्ञा मिले तो वे महाराज के लिए भी पानी लेकर आ सकेंगे। वाहक डाँडी से जिस तरह बँधे थेउससे किसी खतरे की आशंका नहीं लगी। अतः आगे जाने की आज्ञा मिल गई। अंगरक्षक हथछीना पहुँचे और पानी पीकर कुछ देर के लिए पेड़ों की छाया में पसर गए। दूर जंगल से पहले तो बाँसुरी की धुन सुनाई पड़ी और फिर किसी नवयौवना का स्वर गूंज उठा-'मामी तीलूतीलै धारो बोला।डाँडी अब तक एक भयानक तंग चट्टान के पास रुक गई थी। कानों में गीत के बोल पड़े तो वीरमदेव चौक उठा। इधर-उधर देखा तो घबरा गया। ऊपर की ओर भयानक चट्टाननीचे गहरी खाई और ऊपर से डाँडी-वाहकों की भेदभरी फुसफुसाहट। एक कह रहा था- “दाज्यू ! अपना तो इहलोक-परलोक सब गया। मुझे नहीं लगता कि हम पाली तक जिन्दा भी पहुँच पाएँगे।
हांभाऊ। ”-दूसरे ने कहा- “इतना दर्द है कि पापी प्राण उड़ जाने की फिराक में हैं। बच भी गए तो किस काम के हाथ तो सड़-गल कर बेकार हो जाएँगे। इस पापी का नाश होजिसने हमें यह दिन देखने पर मजबूर किया।
“ एक बात कहूँ दाज्यू।-पहले ने कुछ आवेश में आकर कहा-“ हम तो बर्बाद हो ही गएफिर इस पापी को क्यों छोड़ दें। धरती का बोझ हल्का होगा तो दुनिया आशीष देगी।
फुसफुसाहट का अन्तिम अंश कानों में पड़ा तो वीरमदेव बच निकलने की राह ढूँढने लगा। कुछ नहीं सूझा तो हारकर डाँडी-वाहकों को सिर काट गिराने की धमकी दे बैठा। इस पर एक डाँडी-वाहक ने कहा-महाराजवे तो देर-सबेर गिरेंगे हीलेकिन आपका सिर कब तक अपनी जगह बना रहता हैहम इसी सोच में पड़े हैं।
दूसरे ने कहा-अपना-अपना भाग्य है महाराज । बुरे कर्म किए होंगे तो भोग रहे हैं। काँख में घाव और ऊपर से आपका बोझ । सोच रहे हैं कि हमारा तो जो हुआ सो हुआ। लेकिन अगले जनम में आपका क्या होगाबस इसी सोच में मरे जा रहे हैं।

पहले ने प्रसंग आगे बढ़ायाबोला-महाराजमामी ने तो आत्महत्या कर अपना वचन पूरा कर दिखायालेकिन आपने कुछ नहीं किया। सोचते हैं क्यों न हम ही इस पुण्य का श्रेय लूट लें।

"तो तुम मेरी हत्या करोगे ? वीरमदेव ने घबराकर पूछा।

"हरे राम ! हरे राम ! हम दो टके के खसिया कत्यूरी नरेश की हत्या करेंगेयह आपने कैसे सोच लिया ? हम तो अपनी हत्या की सोच रहे हैं महाराज। तलवार आपके हाथ में हैकर दीजिए हमारे सिर कलम और छलांग लगाकर निकल भागिए। कौन रोकता है आपको? ”

दुष्टो ! तुम जान-बूझकर इस चट्टान पर रुके हो। छलांग लगाऊँ तो कहाँ ? ” वीरमदेव ने रोनी आवाज में कहा।

"तो ठीक हैफिर हमारा साथ दीजिए महाराज। नीचे खाई कबसे प्रतीक्षा में है। अपने इष्ट को भी याद कर ले पापी।"
और दोनों वाहक डाँडी सहित खाई में कूद पड़े। वीरमदेव के मुँह से एक तीखी चीख निकली और फिर सब शान्त। उधर हथछीना से पानी लेकर अंगरक्षक नीचे उतरेलेकिन रास्ते में न डाँडी मिलीन डाँडी-वाहक और न डाँडी-सवार । एक ने कहा-आकाश खा गया या धरती निगल गई। आखिर गए तो गए कहाँ ?
इतने में नीचे खाई से गिद्धों की फड़फड़ाहट कानों में पड़ी। नीचे झाँका तो सन्न रह गए तीन लाशें खाई के पत्थरों पर छितरी पड़ी थीं।

रमाप्रसाद घिल्डियाल 'पहाड़ी'एवं भुवनेश्‍वर

$
0
0
झूठे अहंकार से मुक्ति का व्‍यवहार भी आधुनिकता का एक पर्याय है। अपने काम को विशिष्‍ट मानने के गुमान से भी वह झूठा अहंकार चुपके से व्‍यवहार का हिस्‍सा हो सकता है।
रमाप्रसाद घिल्डियाल 'पहाड़ी'एवं भुवनेश्‍वर की कहानियों में ऐसे झूठे गुमान निशाने पर दिखाई देते हैं। यहां तक कि लेखक होने का भी कोई गुमान न पालती उनकी रचनाएं अक्‍सर किसी महत्‍वपूर्ण बात को कहने के बोझ को भी वहन नहीं करती। बहुत ही साधारण तरह से घटना का बयान हो जाती हैं बस। बल्कि, यह कहना ज्‍यादा ठीक होगा कि समाज के भीतर घट रहे घटनाक्रमों के साथ सफर करती चलती हैं। पहाड़ी जी की कहानी सफरऔर भुवनेश्‍वर की कहानी 'लड़ाई'लगभग एक ही धरातल पर और एक ही मानसिक स्‍तर पर पहुंचे रचनाकारों के मानस का पता देती हैं। इन दोनों ही कहानियों को पढ़ना अनंत यात्रा पर बढ़ना है। वे जिस जगह पर समाप्‍त होती हैं, वहां भी रुकने नहीं देती। ऐसे में कहानियों के अंत से भी असंतुष्‍ट हो जाने की स्थिति पैदा होत तो आश्‍चर्य नहीं। क्‍योंकि कहानी की शास्‍त्रीयव्‍याख्‍या करने वाली आलोचना के लिए तो कथा और घटनाक्रम भी मानक हैं। आलोचना का ऐसा शास्‍त्र कैसे मान ले कि अधूरा आख्‍यान भी कहानी कहलाने योग्‍य है। लेकिन इंक्‍लाबी सफर तो कई अक्‍सर अधूरी यात्रा के ही घटनाक्रमों में नजर आते है। राजनैतिक नजरिये से उन्‍हें पड़ाव मान लिया जाना  चाहिए। फिर यही भी तो सच है कि वस्‍तुजगत भी तो कई बार पड़ाव डाले होता है।  


विजय गौड़

डॉ राजेश पाल की कहानी आट्टे-साट्टे का मोल

$
0
0
हिदी कहानी में गांव की कहानी, पहाड़ की कहानी आदि आदि शीर्षकों से पृष्ठभूमि के आधार पर वर्गीकरण कई बार सुनाई देता है। पृष्ठभूमि के आधार पर इस तरह के वर्गीकरण से यह समझना मुश्किल नहीं कि बहुधा मध्य वर्गीय जनजीवन को समेटती कहानी को ही केन्द्रिय मान लिया गया है।
इसके निहितार्थ बेशक भारतीय समाज की विभिन्नता को दरकिनार करने के न हो पर यह मानने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि वर्तमान में सक्रिय हिंदी लेखकों का अपना इर्दगिर्द ही रचनाओं में मौजूद रहता है। परिणामत: सम्पूभर्ण भारतीय समाज की जो भिन्नता है वह अनदेखी रह जा रही है।
डॉ राजेश पाल की कहानी आट्टे-साट्टे का मोलएक ऐसे ही अनदेखे समाज की कथा की तरह सामने आती है। ऐसा समाज जहां चौपाली पंचायतों का जोर मौजूद रहता है। इस कहानी में एक समाज की विसंगतियों से टकराने और उनको पाठक तक रखने की जितनी संभावनाएं हैं, वह लिखित पाठ में बेशक उतना दर्ज न हो पाई हों लेकिन मध्यवर्गीय मिजाज की हिंदी कहानी के बीच वह एक छूट जा रहे समाज को प्रतिनिधित्व करने की सामार्थ्‍य तो रखती ही है।

डॉ0 राजेश पाल
09412369876A
email: dr.rajeshpal12@gmail.com



वि गौ






मेसर और संजोग ना चाहते हुए भी भारी मन से दूसरी बार बिछुड़ रहे थे, संजोग की आंखों से टप-टप आँसू बह रहे थे उसने रूंधे गले से मेसर को आखिरी बार कहा-‘‘मिलने जरूर आइयो, नहीं तो मैं मऱ़़...............’’
            मेसर किस तरह मजबूर था, संजोग को अपनी ब्याहता पत्नी होते हुए भी अपने घर में रोक नहीं सकता था उसकी जीभ तालवे से चिपक गयी थी, मुँह से शब्द नहीं निकल रहे थे, वह लाचार था, बिरादरी की पंचायत का हुक्म था, परिवार की इच्छा और समाज की परम्परा के आगे वह मजबूर था वह अपने जिगर के टुकड़े चार साल के बेटे पंकज को बाहों में भरकर सुबक-सुबक कर रोने लगा जिसके लिए पंचायत का फरमान था कि अब वह भी माँ के साथ ही ननिहाल जायेगा।
            मेसर के ताऊ चैधरी बलजीत को इस बात का एहसास था कि बिछुड़ने के इन क्षणों में मेसर कमजोर पड़ सकता है इसलिए उसने उठकर मेसर के कन्धे पर हाथ रखकर प्यार से डांटने के अंदाज में कहा-’‘अर् बेट्टा मेसर! क्यूं पागल होरा, पागलों वाली बात्ता नी करा करते, भले आदमी, मरद होके रो रहा, कुछ घर-परिवार और समाज की लाज-शरम भी रखा करै, अर् समझदार आदमी पंचो की बात नू सिर माथ्थे रखा करैं, तौं मेरे यार इतना समझदार होके उँही पागलों की तरजो रो रहा, होर बेट्टा जिब तेरी ससुराल वालों ने म्हारी इज्जत नी रक्खी तो हम क्यूं रखें उनकी इज्जत, उन्होंने हमें नीच्चा दिखाया तो हम भी उन्हें दिखावेंगे नीच्चा, कहाँ जावेंगे वें शेखपुरे वाले बचके, इक्कर नी तो उक्कर बाज आवेंगे’’
                        मेसर ने अपने सारे तर्क और मन के भाव पंचायत में बयान कर दिये थे लोक लाज के कारण वह यह तो नहीं कह पाया था कि वह संजोग से बेहद प्यार करता है और संजोग भी उसे उतना ही प्यार करती है पर उसने साफ-साफ कह दिया था कि वह पंकज के बगैर नहीं रह सकता, उसने हिम्मत करके यह भी कह दिया था कि संजोग नौवीं तक पढ़ी-लिखी है  और वह अनपढ़ है फिर भी संजोग घर में उसकी मान-कान रखती है।
            पंचायत में मेसर की बातों को बेशर्मी और मर्दानगी पर बट्टा कहकर उसकी खूब मंजाई हुई थी, अब वह अपने ताऊ को कुछ और कहकर अपनी और जग हंसाई नहीं करवाना चाहता था। मेसर ने झिझकते हुए सिर्फ इतना ही कहा-ताऊ, पंकज यहीं रह लेत्ता तो.....?
            चैधरी बलजीत ऐसे भावनात्मक अवसरों पर अपनी पकड़ मजबूत करना अच्छी तरह जानते थे, वे समझ चुके थे ताबूत में आखरी कील ठोकने का यही अवसर है इसलिये उन्होंने अपनी बात को जारी रखा-‘‘अर् बेट्टा! बहुओं की कहीं कोई कमी थोड़़े ही आ री और बतेरी ले आवेंगे हम, तौं चिन्ता क्यू करे, अर् बिरादरी में नी मिलेगी तो कोई पहाड़न-घाड़न ले आवेंगे और नहीं तो आजकल बंगाल से तो ढेर आरी, एक से एक सोहणी, एक से एक पढ़ी-लिखी, हम भी दिखा देंगे शेखपुरे वालों को म्हारा बेट्टा असली मरद है कोई ऐसा-वैसा नी, जा बेट्टा पंचो की बात नू पाणी दिया करै, वहाँ बैठ चलकै चार आदमियों में’’                            
            दरअसल यह मामला आट्टे-साट्टे का था मेसर अपनी बहन मेमता के आट्टे-साट्टे में बियाहा था। मेमता, मेसर से तीन साल बड़ी थी, जब मेमता का रिश्ता तय किया गया तो उसके रिश्ते के बदले में मेसर के लिए भी मेमता की होने वाली ससुराल से रिश्ता मांगा गया, मतलब रिश्ते के बदले में रिश्ता यानी आट्टा-साट्टा।    
            मेसर के पिता चैधरी दलबीर ने साफ कह दिया था-‘‘अजी रिश्ता हम जभी करेंगे जब हमें लड़की के बदले लड़की मिलेगी, महाराज बिरादरी में लौंडियों का वैसे ही टोट्टा होरा, ढूंढने से भी नी मिलरी लौंडियाँ, अच्छे-खासे घरों के लौण्डे बिन ब्याहे फिररे, कोई पहाड़-घाड़ से लारा  कोई बंगाल से लारा बहू, पैसा खरच करके भी रिश्ता नी मिलरा, यो रिश्ता हम फ्री में नी दे सकते’’
            मेमता के होने वाले ससुर पिरथी सिंह ने माथे पर बल डालकर सोचने की मुद्रा में कहा-‘‘देख चैधरी! रिश्ते के बदले में रिश्ता तो हम दे देंगे पर दो बात्ते हैं- एक तो म्हारी लौंडी उमर में  थारे लौंडे से दो-चार साल बड़ी होगी और दूसरी बात म्हारी लौंडी जावे स्कूल में पढ़ने, थारा लौंडा जावे डन्गर चुगाने अगर तुम्हे कोई हरज ना हो तो म्हारी तो महाराज हाँ समझो’’
            चैधरी दलबीर थोड़ा मुसकुराया और ऐसे कहना शुरू किया जैसे कोई पते की बात निकाल कर लाया हो-’‘महाराज! मरद तो फूंस का भी मरद ही हो, जोड़ी भिड़ने की बात है थोड़ी-बहुत उमर कम-ज्यादा होने से क्या फरक पड़रा और बस म्हारी भी हाँ ही समझो, जोड़ियाँ तो उप्पर से बनके आवे हैं, म्हारा, थारा तो सिर्फ बहान्ना है’’
            चौधरी दलबीर ने जब अपनी लड़की मेमता की शादी कर दी तो उसने अपने लड़के मेसर की शादी करने के लिए भी पिरथी सिंह पर दबाव बनाना शुरू कर दिया, उसने साफ-साफ पिरथी सिंह को कह दिया-‘‘महाराज लौंडियों को ज्यादा पढ़ाना-लिखाना ठीक नी होत्ता, लौंडी-लारी को बाहर की हवा लगे, कल को कोई ऐसा-वैसा कदम उठात्ते पढ़ी-लिखी लौंडी को देर नी लगती’’
दरअसल उसे चिन्ता ये थी कि अगर संजोग ज्यादा पढ़-लिख गई तो उसके डंगर चुगाऊ बेटे से वह शादी के लिए मना भी कर सकती है। और चैधरी दलबीर अपनी योजना में सफल भी हो गया, उसने पिरथी सिंह पर शादी का दबाव बनाकर संजोग की पढ़ाई छुड़वा दी। जब मेसर पन्द्रह साल का था तो संजोग अट्ठारह साल की थी, दोनों की शादी हो गयी।
            मेमता की शादी को दो साल हो गये थे पर उसके पास कोई बच्चा नहीं हुआ। मेमता की सास को चिन्ता सताने लगी कि कहीं बहू की कोख बंजर तो नहीं, उसने गाहे-बगाहे मेमता को टोकना शुरू कर दिया, वह दूसरों की बहुओं का उदाहरण देती और मेमता को बताती कि-‘‘फलाँ की बहू तुम्हारे से एक साल बाद आयी थी, उसको भी लड़का हो गया, हम ही पोत्ते का मुँह देखने को तरसते रहेंग,पता नी कब आवेगा वो दिन जब मन की मुराद पूरी होगी’’
            मेमता की सास ने उसको मुल्ले-मौलवियों के धागे पहनाने शुरू कर दिये थे, पण्डितों से तरह-तरह के पूजा-पाठ शुरू हो गये और इस तरह एक साल और निकल गया पर मेमता की कोख हरी नहीं हुई अब स्थिति यहाँ तक आ गयी कि बात-बात में मेमता और उसकी सास में तल्खी शुरू हो गयी और सास ने कहना शुरू कर दिया कि बहू की कोख बंजर है तमाम इलाज के बावजूद उसको बच्चे नहीं होते। अब मेमता ने भी अपनी दबी जुबान खोलनी शुरू कर दी कि जब तुम्हारा लड़का ही बाप बनने के लायक नहीं है तो मैं क्या करूं। मेमता ससुराल के क्लेश व तानों से तंग आकर अपने मायके लम्बे समय तक रहने जाने लगी और सुबह-शाम अपने साट्टे में ब्याही अपनी भाभी संजोग के साथ उसके घरवालों को निशाना बनाकर लड़ने लगी। मेमता अपनी माँ की दुलारी थी इसलिए माँ भी उसी का पक्ष लेती और मेमता के ससुराल वालों को मेमता के साथ मिलकर कोसती।
            जब, माँ मेमता को कभी ससुराल जाने को पूछती तो वह तुनककर जवाब देती-‘‘क्या करूंगी मैं ससुराल जाकर, मैं तो ससुराल में भी ऐसी ही और यहाँ भी ऐसी ही हूँ’’ 
            मेमता की ससुराल वालों ने भी उसकी सुध लेनी छोड़ दी। चैधरी दलबीर को खबर लगी कि उसकी बेटी मेमता की छुट-छुटाव की बात चल रही है और पिरथी सिंह अपने बेटे सुखपाल की दूसरी शादी की तैयारी कर रहा है तो चैधरी दलबीर के तन-बदन में आग लग गई। आट्टे-साट्टे के मामले में वह इतना ढीला पड़ने वाला नहीं था, उसने तो जो दहेज मेमता की शादी में दिया था, अपने लड़के मेसर की शादी में उसका सवाया ही वसूल किया था। चैधरी दलबीर ने हुंकार भरी थी-‘‘पिरथी सिंह बिरादरी से बचकर कहाँ जावेगा? मैं भी देखता हूँ मेरी लड़की को ऐसे ही कैसे छोड़ देगा’’  
            चैधरी दलबीर और उसके बड़े भाई चैधरी बलजीत बिरादरी के पाँच-सात दबंगों को लेकर मेमता की ससुराल में पहुंच गये। पंचायत मास्टर बलमत की चैपाल पर बुलायी गयी, मास्टर बलमत की चैपाल पर तो पाँच-सात लोग वैसे भी जुड़े ही रहते हैं, सामने टी0वी0चलता रहता है मास्टर जी भी प्राइमरी के हैड़ से रिटायर हुए हैं। बिरादरी के कायदे-कानून में उनकी गहरी आस्था है। और वे भी जानते हैं कि रिटायरमेन्ट के बाद अगर पन्चों में अपनी पूछ और इज्जत बढ़ानी है तो समाज की धारा में ही बहने में ही फायदा है नहीं तो बिरादरी के लोग तुम्हे पूछना छोड़ पंचायत में बुलाना भी पसन्द नहीं करेंगे।
            एक-एक कर लोग आते जा रहे थे, पंचायत अभी जुड़ ही रही थी, टी0वी0के एक चैनल पर दिखाया जा रहा था कि कैसे भारतीय मूल की बहादुर लड़की सुनीता विलियम अन्तरिक्ष से सकुशल वापस लौटी’’। फिर कुछ देर बाद उन्होंने आमीर खान की प्रस्तुति सत्यमेव जयतेदेखा। उसे देखकर लोगों में खुसुर-पुसुर शुरू हो गयी ‘‘बताओ भाई! यो लोण्डियों का टोट्टा जिले हरिद्वार, सहारनपुर में ही नी है यो तो धुर दिल्ली, हरियाणा और पंजाब तक है अर और भी जाने कहाँ तक होगा, होर इसलिए यो आट्टा-साट्टा भी धुर दिल्ली, हरियाणा, पंजाब तक चलरा’’
            किसी ने तर्क दिया-‘‘भाई यो आट्टा-साट्टा शोहरा है बेकार ही जिनके यहाँ बदले में देने को लड़की है उनके लड़के तो ब्याहे जारे और जिनके लड़की है ही नहीं उनके फिर रे कुआँरे ही, और फिर अगर एक तरफ के लड़का, लड़की की सैटिंग ठीक नी बैट्ठी तो दूसरी तरफ के लड़का, लड़की भी दबाव में ही रेह’’
            मास्टर बलमत ने रिमोट से टी0वी0बन्द कर दिया और पन्चों की तरफ मुखातिब हुआ। आज पंचायत का पाँचवा और निर्णायक दिन था, बिरादरी के पाँच दबंग व इज्जतदार लोगों को पंच चुना गया था जिनके निर्देश अनुसार दिये गये समय पर पंचायत बैठती और उठती थी, गाँव का कोई भी व्यक्ति जो पंचायत में शामिल था, पन्चों की आज्ञा के बगैर पंचायत छोड़कर अपने घर नहीं जा सकता था, चैधरी बलजीत व मास्टर बलमत पन्चों में शामिल थे मास्टर बलमत को सरपंच चुना गया था। पन्चों ने दोनों पक्षों से दस-दस हजार रूपये अग्रिम जमा करवा लिए थे जिससे पंचायत में शामिल लगभग चालीस लोगों के खाने-पीने का प्रबन्ध रोज ठीक प्रकार से हो सके, आस-पास के गाँव से बिरादरी के गणमान्य लोगों को व्यक्तिगत बुलावा देकर बुलाया गया था इसलिए बिरादरी की पंचायत में पंचों के व्यक्तिगत बुलावे पर आना बिरादरी में सम्मान की बात थी।
            पंचायत में चैधरी दलबीर ने ये बात रखी थी कि-’’मेमता का पति सुखपाल नामर्द है और बच्चे ना होने का सारा दोष मेमता पर रखा जाता है इस बात के लिए मेेमता को प्रताडित भी किया जाता है, घर की इज्ज्त खराब ना हो इसलिए सुखपाल का कोई डाक्टरी इलाज भी नहीं करवाया जा रहा है।
            वक्त जरूरत पर बयान लेने के लिए मेमता को भी ससुराल में बुला लिया गया है तथा मेसर व संजोग को भी शेखपुरा बुला लिया गया है ताकि जरूरत पड़ने पर उनसे भी कोई पूछताछ की जा सके साथ ही बिरादरी के फैसले से वे भी अवगत रहें।
            चैधरी दलबीर ने इस बात को प्रबलता से रखा कि कमी पिरथी सिंह के लड़के में है और वे उनकी लड़की को छोड़कर चुपचाप अपने लड़के की दूसरी शादी करना चाह रहे हैं।
            दो दिन पंचायत जुड़ने में लगे, गणमान्य व्यक्तियों एवं विवाद से जुड़े लोगों को बुलाया गया, तीसरे दिन असली मुद्दे पर बहस शुरू हुई, आरोप चैधरी दलबीर की तरफ से लगाया गया, पन्चों ने पिरथी सिंह से जवाब-तलब किया, पिरथी सिंह हाथ जोड़कर पंचायत में खड़ा हो गया और अपनी विनम्र दलील रखते हुए बोला-
‘‘अजी पन्चों! जब बहू को घर में रहना नहीं होत्ता तो बली में साँप बतावै, महारी तरफ से कभी कोई कमी नी करी गयी, हमने दसियों जगह बहू का इलाज करवाया, इलाज में अपना घर फूंक रे हम, या तो महाराज बहू का रहने का मन नी है या चैधरी दलबीर ही अपनी लौण्डी को नहीं भेजना चाहत्ता, पन्चो चैधरी दलबीर अपनी लौण्डी को खुद लेकर गया था तो इसे खुद ही छोड़ कर जाना चाहिए था, होर पन्चो! मेरे लोण्डे में कोई कमी नी है   
ना ऐसी कोई बात म्हारे सामने आयी है बाकी पन्चों का फैसला सिर माथ्थे’’
            प्ंाचायत अपने दस्तूर से चल रही थी बीच-बीच में पहले हुई पंचायतों के प्रसंग व पन्चों के फैसले के रोचक उदाहरण भी चलते रहे, जिसकी आवाज में दबंगई हो वह अपनी बात वजन पूर्वक मनवा लेता । पंचायत अपरोक्ष रूप सें दो पक्षों में बंट गई थी जो अपने पक्ष वाले के हित में प्रसंग व उदाहरण प्रस्तुत करते हैं वे पंचायत का रूख मोड़ने में सफल हो जाते है। 
             पिरथी सिंह की बात पर चैधरी दलबीर उबल पड़ा वैसे भी पन्चों में उसका बड़ा भाई चैधरी बलजीत व मास्टर बलमत शामिल थे मास्टर बलमत से उसकी पुंरानी रिश्तेदारी है ही।
            ‘‘देखो पन्चों! जब तक लौण्डी-लारी को ससुराल आत्तेे-जात्ते दो-चार साल ना हो जावें तब तक तो ससुराल वालों का ही फर्ज बनता है कि वो बहू को लेने आवें और इन्होंने पलट कर एक बार भी मेमता की खबर नी ली            यो सारी चाल है पिरथी सिंह की, अपने लौण्डे का इलाज नी करवात्ते और कमी म्हारी लौण्डी में काढ्ढे’’
            पंचायत ने चैधरी दलबीर को चुप कराया तथा ये बात सामने आयी कि मेमता के पति सुखपाल से भी पूछा जाये। पन्चों में से एक ने पिरथी सिंह की ओर मुखातिब होते हुए कहा-‘‘अर् पिरथी सिंह! इस सुखपाल को कुछ खिलाया-पिलाया कर शोहरा यूँ ही पेलचू सा होरा’’
इस पर मास्टर बलमत ने अपने ज्ञान की तकरीर जोड़ते हुए कहा-‘‘अजी ये लौण्डे कहाँ से जवान हो जावेंगे, पन्द्रह-सोलह साल में शादी-ब्याह हो जा अर फेर घर-गृहस्थी की चिन्ता, गाय-भैंस पालते नी जो घी-दूध पीवें, ये तो पेलचू पहलवान ही रहेंगे’’
पंचायत में एक व्यंग्य व हँसी का माहौल फैल गया, बीच-बीच में बूढ़ों के खांसने की आवाजें व हुक्कों की गुड़गुड़ाहट भी शामिल हो गयी। उसी बीच पन्चों में से एक ने कहा-‘‘बता बेट्टा! सुखपाल तौं बता सच-सच, शरमाणे की कोई बात नी, यहाँ सब अपने घर-परिवार के ही हैं, हर फेर अगर ऐसा-वैसा कुछ हो भी जावे तो वैद-हकीम हैं, तौं चिन्ता ना करिये, खुल के बता अपनी बात पंचात में’’
सुखपाल बड़ी ढिठाई व बेशर्मी से अपने चैड़े दाँत निपोरते हुए पंचायत में खड़ा होकर एक पंच की ओर मुखातिब होकर बोला-
‘‘ताऊ बात  ऐसी है मर्दानगी की तो, तम मेरी एक छोड़ और दो शाद्दी कर दो और ना बच्चे हों तो मेरा नाम भी सुखपाल नी, रही बात इस औरत की इस हरामजादी ने तो मायके में अपना कोई यार पाल रखा इसीलिए यो बार-बार मायके की रट लगावै और फेर वहाँ से आने का नाम नी लेत्ती’’   
            इसी बीच पंचायत में फिर शोरगुल बढ़ गया और सुखपाल अपनी बात कहकर बैठ गया। पंचायत में यह बात भी आयी कि मेमता का पक्ष भी पंचायत के सामने आना चाहिए। पंचायत दो पक्षों में बंट गयी, कुछ चाहते थे मेमता पंचायत में आये, कुछ नहीं चाहते थे। अन्ततः यही हुआ कि मेमता की बात भी सुनी जाये। मेमता सिर पर पल्ला रखकर दो अन्य औरतों के साथ चैपाल के खम्भे की ओट में आकर खड़ी हो गयी, पन्चों में से एक ने मेमता से कहना शुरू किया-‘‘बेट्टी मेमता, घर की इज्जत औरत के हाथ्थों में ही होवे ये जो बात पंचायत में आयी है तुम क्या कहना चाहत्ती हो’’?
थोड़ी देर तो मेमता चुप रही परन्तु उससे फिर वही सवाल किया गया तो वह खम्भे की ओट से ही बोली-
‘‘अजी मैं तो ऐसी ही मायके मैं थी और ऐसी ही यहाँ ससुराल में हूँ, इनके बारे में जो आप लोगों ने सुणा है ठीक ही सुणा है मेरे से और क्या पूच्छो’’     
            दो-तीन पन्चों ने मेमता को कहा-
‘‘जा बेट्टी तौं घर जा, हम तेरी बात समझ गये, बस इतना ही पूछना था हमें तेरे से’’
            आपस में विचार-विमर्श कर पन्चों ने फैसला दिया कि पिरथी सिंह अपने लड़के सुखपाल का किसी अच्छे वैद्य से इलाज कराये तब तक मेमता चाहे तो मायके में रहे या ससुराल में रहे। मेमता अपने  भाई मेसर के साथ अगले ही दिन मायके लौट आयी तथा उसकी पत्नी संजोग को मायके में ही रोक लिया।
            पंचायत के फैसले से पिरथी सिंह ने अपने आपको घोर लज्जित महसूस किया। मेमता ने उसके घर की इज्जत भरी पंचायत के बीच मिट्टी में मिला दी थी। इसलिए पिरथी सिंह ने मन ही मन संकल्प कर लिया था कि अब वह चैधरी दलबीर से इस बेइज्जती का बदला जरूर लेकर रहेगा।
            पृथ्वी सिंह ने सुखपाल का इलाज एक शर्तिया इलाज करने वाले वैद्य से शुरू कर दिया, जिसने छः महीने में नामर्द से मर्द बनने की गारण्टी दी थी साथ ही उसके लिए एक दूध देने वाली भैंस बांध ली थी, उसे रोज घी, दूध तथा बादाम घोटकर पिलाये जाने लगे, अब छः महीने का कोर्स भी पूरा हो चुका था।
  पिरथी सिंह ने वैद्य से सुखपाल की मर्दानगी के विषय में गोपनीय पूछताछ कर ली थी, वैद्य ने शर्तिया इलाज किया था और अपने इलाज की शेखी बघारते हुए कहा था-‘‘आप कहें तो मैं कोरे स्टाम्प पेपर पर लिखकर थारे लौण्डे की मर्दानगी की गारण्टी दे दूँ, म्हारा इलाज फेल नी हो सकता, हिमालय की जड़ी-बूटियाँ और पत्थर का रस पिलाया है थारे सुखपाल को’’
   पिरथी सिंह पूरा आश्वस्त होकर अपने बेटे सुखपाल के साथ मास्टर बलमत  और अपने फेवर वाले कुछ दबंगों को लेकर अपने समधी चैधरी दलबीर के घर सुखपाल की मर्दानगी का टैस्ट कराने पंहुच गया। अगले दिन बिरादरी के खास लोगों को बुलाकर चैधरी बलजीत की चैपाल पर बिरादरी की पंचायत बैठायी गयी। पन्चों ने मास्टर बलमत को सरपन्च चुन लिया, लोग जुड़ते-जुड़ते शाम हो गयी। पन्चों ने पंचायत के कानून की घोषणा की- ‘‘कि हर घर से एक आदमी पंचात में जरूर बैठेगा और जो कोई भी डन्गर-ढोर बांधने, खोलने बिना सरपन्च की इजाजत के पंचात से उठके जावेगा तो उससे सौ रूपये जुर्माना वसूला जावेगा और अगर कोई आदमी ये गलती दो बार करेगा उसे सौ रूपये के साथ-साथ पाँच जूत्ते भी मारे जावेंगे। दोनों पक्षों से फैसला करने के लिए दस-दस हजार रूपये सरपंच के पास जमा होंगे और फैसला होने के बाद राजीनामा के दिन घी-बूरे की दावत रखी जावेगी जिसमें बिरादरी के सभी जन बच्चा शामिल होंगे’’  
            अगले दिन बैठक फिर शुरू हुई पंचायत के कानून के मुताबिक सरपन्च मास्टर बलमत ने  पिरथी सिंह से कहा- ‘‘रखो पिरथी अपनी बात पंचात में’’
पिरथी सिंह पहले से ही मास्टर बलमत को पक्का करके लाया था कि अपने गाँव की जो बेइज्जती चैधरी बलजीत व चैधरी दलबीर ने की थी उसका पूरा बदला इस पंचायत में चुकाना है। पिरथी सिंह हाथ जोड़कर खड़ा हो गया और पिछली पंचायत का हवाला देते हुए कहनेे लगा-
‘‘पन्चों! जैसा आप लोगों ने कहा था मैन्ने अपने लौण्डे का इलाज बड़े से बड़े वैद के यहाँ करवाया, मैं तो पहले ही कह रहा था कि मेरे बेट्टे में कोई कमी नी है अब पन्चों जो भी आप लोगों का फैसला होगा मुझे मंजूर होगा’’    
    पिरथी सिंह की बात खत्म भी नहीं हुई थी, पंचायत में एक शोर सा फैल गया। बड़ी देर में शोर हल्का हुआ तो पंचायत में बात आयी कि सुखपाल की मर्दानगी कि जाँच कैसे हो? पंचायत में रामपाल भी बैठा हुआ था जो कस्बे के अस्पताल में कम्पाउण्डर का काम करता है, गाँव के लोग तो उसे  डाक्टर रामपाल ही कहते हैं। किसी ने हँसते हुए बात रामपाल की तरफ उछाल दी-
‘‘बताओ डाक्टर साहब! इब इसकी मर्दानगी की जाँच कैसे होगी?’’
रामपाल ने भी उसी अन्दाज में कह दिया-
‘‘इसका डाक्टरी टैस्ट करा लो शहर में’’
डॉ0रामपाल की बात नकली सिंह के कान में पड़ गयी, पन्चों में नकली सिंह की दबंग आवाज थी, अपनी आवाज के दम पर नकली सिंह पूरी पंचायत का रूख बदलने में माहिर था उसने कहना शुरू किया-
‘‘ओ भाई डाग्दर! म्हारी सुण तौं बात, अर् पन्चों डाग्दरी रपोट में कुछ नी धरा, ढेर देक्खी हमने ऐसी-ऐसी डाग्दरी रपोट, वो ख्वासपर वालों का फैसला करा था डाग्दरी रपोट पे, भाई चार साल हो गये  देख एक चूहे का बच्चा भी नी हुआ अब तक, डाग्दरी रपोट छोड्डो तम, हम बतावेंगे तम्हे इसका भी मिजान, पता कितने फैसले कर दिये इब तक हमने’’ 
         नकली सिंह ने पन्चों से धीरे से बात की और उन्हें इशारे से पास के शिवाणें की तरफ लेकर चल दिया। इस बीच पंचायत के हर कोने में अलग-अलग तरह के संवाद होते रहे, बीच-बीच में हुक्कों की गुड़गुड़ाहट व खांसी की आवाजों से काफी शोरगुल बढ़ गया। 
            शवाणे की तरफ ले जाकर पन्चों ने सलाह मिलायी कि मर्दानगी टैस्ट किस तरीके से ठीक रहेगा। नकली सिंह ने सभी को अपनी इस बात के लिए तैयार कर लिया और कहने लगा ‘‘पन्चों टैम जाया करने से कुछ फैदा नी और डाग्दरी रपोट का कुछ भरोस्सा नी, और हाथ कंगन को आरसी क्या पढ़े-लिखे को फारसी क्या? यो टैस्ट यहीं का यहीं हो जावेगा’’
सब लोग नकली सिंह की सलाह से सहमत हो गये। अगले दिन सुक्कड़ के घेर में डन्गर बांधने की कुढ़ में सुखपाल की मर्दानगी का टैस्ट कराने का इतंजाम किया गया। इसकी जिम्मेदारी पन्चों ने सुक्कड़ को ही दी। उन्होंने बताया कि कुढ़ में एक चारपाई बिछा दियो और कुढ़़ के पिछवाड़े थोड़ा छप्पर उठाने के लिए उसमें एक थुनी (दुसिंगी लकड़ी) फंसा दियो और दो औरतों की ड्यूटी चुपचाप टैस्ट देखने की लगा दियो और इसी तरह कुढ़ के आग्गे की तरफ भी दो आदमियों की ड्यूटी टैस्ट देखने के लियो लगा दियो।
            सबसे पहले सुबह दस बजे मेमता को कुढ़ में बिछी खाट पर बैठा दिया गया थोड़ी देर बाद सुखपाल को भी समझाकर कि आज उसकी मर्दानगी का टैस्ट होना है कुढ़ के भीतर भेज दिया, कुढ़ के दरवाजे पर फूंस की टाट्टी लगा दी गयी, सुखपाल दाँत निपोरते हुए चारपाई पर बैठ गया उसके बैठते ही मेमता खड़ी हो गयी, सुखपाल ने उसको बैठाने के लिए उसका हाथ पकड़ा तो मेमता उस पर आग-बबूला हो गयी-
            ‘‘नाशगये शरम तो नी आत्ती तुझे, जो तन्ने अपने बाप के साथ आके पंचायत बिठायी म्हारे घर, मैन्ने तेरी खबर नी ली तो मैं भी अपने बाप की असल की नी’’
सुखपाल थोड़ा घबरा गया और मेमता की मिन्नत करने के लहजे में बोला-‘‘भागवान आज तु मेरी इज्जत रख दे तो जिन्दगी भर तेरा एहसान मानूंगा, भरी पंचायत  में इज्जत की बात है’’
            मेमता और बिफर गयी-‘‘ और तु भूल गया जब तुन्ने अपने घर पंचायत में मेरे पे इल्जाम लगाया था  अब तुझे अपनी इज्जत की पड़री’’
            इसी तरह आधे घण्टे तक उनका आरोप-प्रत्यारोप चलता रहा, सुखपाल ने थोड़ी हिम्मत करके मेमता को बिस्तर पर लिटाने की कोशिश की पर वह कामयाब न हो सका, वह थककर चारपाई पर बैठ गया, मेमता भी दूसरी तरफ मुँह करके चारपाई पर बैठ गई। थोड़ी देर खामोशी के बाद सुखपाल ने फिर कोशिश की, तमतमाई मेमता ने सुखपाल को आगे लात दे मारी, दर्द से कराहता हुआ सुखपाल नीचे गिर गया और बहुत देर तक उठ न सका।
            सुक्कड ने टैस्ट रिपोर्ट पन्चों के कानों में डाल दी थी। सुखपाल ने अपने पिताजी से दीन-हीन होकर याचना की थी कि उसे कुंवारा रहना मंजूर पर अब वह मेमता को नहीं ले जायेगा। उधर मेमता ने भी सुखपाल के साथ जाने से साफ मना कर दिया था। परन्तु  पिरथी सिंह बेटे की इस बेइज्जती को अपनी बेइज्जती मानकर तिलमिला गया उसने मन ही मन ठान लिया था कि जो भी हो चैधरी दलबीर की पगड़ी इस पंचायत में मुझे भी उछालनी है। अब फैसला पन्चों के ऊपर था, बिरादरी की पंचायत के नात्ते आट्टे-साट्टे का नियम था कि फैसला दोनों पक्षों के लिए बराबर और एक जैसा हो। घंटों तक पन्चों में सलाह-मशविरा होता रहा और पंचायत में शोर-शराबा। एक-एक कर सभी के पक्ष पंचायत में लिए गये, मेमता ने साफ शब्दों कह दिया था कि-
‘‘ उसकी लाश जा सकती है लेकिन वह सुखपाल के साथ नहीं जायेगी’’
            अब पिरथी सिंह इस बात पर अड़ गया कि या तो चैधरी दलबीर अपनी लड़की को सुखपाल के साथ विदा करे और नहीं तो पन्चों मैं भी अपनी लड़की को यहाँ छोड़ने वाला नहीं यही आट्टे-साट्टे का नियम है।
            पंचायत का रूख मेमता के भाई मेसर ने भाँप लिया था उसके मन में भारी द्वन्द्व चल रहा था वह समझ नहीं पा रहा था कि  प्राणों से प्रिय अपने परिवार को बचाने के लिए भरी पंचायत का सामना किस तरह से करेगा और इससे भी बढ़कर ताऊ और पिताजी की बात का सामना किस तरह से करेगा? ताऊ और पिताजी की बात का वह आज तक विरोध करने का साहस नहीं जुटा पाया था फिर भी उसने मन ही मन संकल्प कर लिया था कि वह पंचायत के सामने गिड़गिड़ायेगा पर अपने परिवार को उजड़ने से बचा लेगा, पंचायत उस पर जरूर रहम करेगी।
            तमाम गहमा-गहमी और पूछताछ व जाँच-पड़ताल के बाद चार दिन में पंचायत फैसले पर पंहुची, फैसला सुनाने से पहले पन्चों ने भरी पंचायत में दोनों पक्षों को इस बात के लिए पाबन्द कर दिया कि दोनों में से जो भी पक्ष अब पंचायत का फैसला नहीं मानेगा उसको बिरादरी से बाहर कर दिया जायेगा, इसके साथ ही बिरादरी का कोई भी आदमी उनसे खान-पीन व रिश्ते-नातें का कोई सम्बन्ध नहीं रखेगा तथा जो भी आदमी ऐसा करेगा उस पर भी जुर्माना लगाया जायेगा या उसे भी बिरादरी से बाहर कर दिया जायेगा।
            अब पंचायत ने फैसला सुनाया कि जब चैधरी दलबीर अपनी लड़की को अपने घर रख रहा है तो पिरथी सिंह को भी हक है कि वो भी अपनी लड़की को अपने साथ अपने घर ले जाये। चूंकि माँ अपने बच्चे कीे देखभाल बाप से बेहतर करती है  लिहाजा संजोग का बेटा भी उसी के साथ रहेगा।
            पंचायत के फैसले से मेसर का दिल बैठ गया था, वह हाथ जोड़कर पंचायत के सामने गिड़गिड़ाने लगा, उसकी याचना शोर में दबकर रह गयी, वह सुबक-सुबक कर रो रहा था, पंचायत फैसला कर चुकी थी और यह बिरादरी की पंचायत का फैसला था कि मेसर को छोड़कर संजोग अपने पिता के घर रहेगी।  
            बिछुड़ने की असह्य पीड़ा में संजोग और मेसर आट्टे-साट्टे का मोल चुका रहे थे।

तितलियों का प्रारब्ध

$
0
0
हिदी साहित्य की दुनिया में समीक्षातमक टिप्पणी को भी आलोचना मान लेना बहुप्रचलित व्यवहार है। इसकी वजह से आलोचना जो भी व्यवस्थित स्वरूप दिखता है, वह बहुत सीमित है। दूसरी ओर यह भी हुआ है कि समीक्षा के नाम पर वे विज्ञापनी जानकारियां जिन्हें पुस्तक व्यवसाय का अंग होना चाहिए, रचनात्मक लेखन के दायरे में गिना जाती है।
समीक्षा के क्षेत्र में इधर लगातार दिखाई दे रहे चन्द्रनाथ मिश्रा की उपस्थिति और उनकी लिखी समीक्षाएं आलोचनात्मक टिप्पणियों की बानगी बन रही है।
लेखिका श्रीमती नयनतारा सहगल के रचनात्मक साहित्य पर चन्द्रनाथ मिश्रा की लिखी समीक्षात्मक टिप्पणिया यहां चन्द्रनाथ मिश्रा से गुजारिश करते हुए इसी आशय के साथ प्रस्तुत हैं कि जिस शिद्दत के साथ वे फेसबुक पर लिख रहे हैं, उसी ऊर्जा के साथ साहित्य की दुनिया में पत्र पत्रिकाओं के जरिये भी अपनी दखल के लिए मन बनाएं। यह ब्लॉग उनकी ताजा टिप्पणी को यहां प्रस्तुत करते हुए अपने को समृद्ध कर रहा है।

वि गौ





अपने जीवन के 92 वे वर्ष में नयन तारा सेहगल उतनी ही सटीक, प्रभावशाली एवं राजनीतिक तौर पर मुखर हैं जितना वे अपने लेखन के प्रारम्भिक दिनों में जब उन्होंने Rich like us,(1985), Plans for departure (1985), Mistaken identity (1988) और Lesser Breeds(2003) आदि पुस्तकें लिखी थीं। वे PUCL (people's union  for civil liberties) की  Vice President की हैसियत से वैचारिक स्वतन्त्रता एवं प्रजातांत्रिक अधिकारो पर हो रहे प्रहारों के विरोध में सतत लिखति और बोलती रहीं। उन्हें साहित्य अकादमी, सिंक्लेयर प्राइस तथा कॉमनवेल्थ राइटर्स प्राइज से नवाजा गया है।
फेट ऑफ बटरफ्लाईज़ पाँच छह लोगों की जिंदगी कि कहानी है जो ऐसे वक्त से गुज़र रहे हैं जो हमारा और हमारे देश का  ही वर्तमान है।ऐसा दौर जिसमे साम्प्रदयिक दंगो, लिँग औऱ  जाती के आधार पर भेद भाव  तथा राजनीति में घोर दक्षिण पन्थ  का बोलबाला है।इन लोंगो की नियति विभिन्न देश काल मे रहते हुए भी कहीं न कहीं एक दूसरे से जुड़ी है। फेट ऑफ बटरफ्लाई इन चरित्रों के जीवन पर  पड़ने वाले तत्कालीन राजनैतिक सामाजिक प्रभावो की कहानी है जिसने परिस्थितिजन्य कारणों से उनके जीवन को असीम दुख और विषाद से भर दिया। ये कहानी है सामाजिक कार्यकर्ता और बुद्धिजीवी कैटरीना की  जिसका क्रूर  सामूहिक बलात्कार हुआ । जिस गांव में वह मदद के लिए गयी थी वहां के लोगों को उनके घरोँ में जिंदा जला दिया गया। ये कहानी है समलैंगिक युगल प्रह्लाद और फ्रैंकोइस की जिन्हे बुरी तरह पीटा गया और जिनका बुटिक होटल   दंगाइयों द्वारा मलवे के ढेर में बदल दिया गया। प्रह्लाद जो एक अच्छा नर्तक था अब कभी नही नाच सकेगा। लेकिन इस सब त्रासदियों के  बावजूद  ये महज़ नाउम्मीदी की दास्ताँन न होकर कही न कही जिंदगी में ख़ुसी औऱ जीने की छोटी से छोटी वजह  ढूंढ लेने की कामयाब कोशिस की भी कहानी है।
चूंकि उपन्यास मूल रूप से संकछिप्त है इसलिए संभवतः कथानक में  बहुत सी परतें मुमकिन नहीं थी। लेकिन विशेष परिस्थितियों की संरचना, समय का  चित्रण,  चरित्र विशेष की अंतर्दृष्टि, या भविष्य की  हृदयहीनता का पूर्वानुमान बखूबी घटनाओं व पत्रों के  माध्यम से दर्षित है।
प्रभाकर जो राजनीति शास्त्र का प्रोफेसर है एक दिन चौराहे पर एक नग्न शव देखता है, जिसके सिर पर केवल एक शिरस्त्राण है।
इसके कुछ दिनों बाद वह कैटरीना पर हुए सामूहिक बलात्कार की कहानी ,उसि के मुह से ,एक सादे और संवेग हीन बयान के रूप में सुनता है।  कैटरीना पर बीते हुए कल का प्रभाव इतना गहन है कि प्रभाकर के हाथ का हल्का सा स्पर्ष भी कैटरीना को आतंक से भर देता है।  वह एक नर्सरी स्कूल में जाता है जहां उसे बताया जाता कि किस प्रकार  कुछ अन्य स्कूलों में तितलियों को मार कर उन्हें बोर्ड में पिन से लगाकर रखा जाता है । प्रभाकर ऐसी बहुत सी  घटनाओ को देखता, सुनता और उनसे  प्रभावित होता है। वह अपने प्रिय रेस्टोरेंट बोंज़ूर को दंगाइयों द्वारा तवाह होते हुए देखता है, जहां उसकी प्रिय डिश गूलर कबाब पेश की जाती थी, जो रफीक़ मियां बनाया करते थे।
इन सब दृश्यों और घटनाओं से ऊपर मीराजकर जो एक राजीतिक नीति निर्देशक हैं। वह देश को उन सब तत्वों और प्रभाबो से मुक्त करना चाहतें हैं जो उनके अनुसार देश की तथाकथित सभ्यता औऱ संस्कृती से मेल नही खाते।जाहिर है  इस सभ्यता और संस्कृति की  परिभाषा और ब्यख्या  मीराजकर और उनके पार्टी  के लोग अपनी तरह से करते हैं। हिटलर के extermination की अवधारणा संभवतः इसी सोच का तार्किक विस्तार था।
प्रभाकर अपनी पुस्तक के कारण इन दक्षिणपंथी चिन्तको का ध्यान आकर्षित करता है। इस पुस्तक के माध्यम से वह राष्ट्र के लिए एक नई शुरूआत की परिकल्पना रखता है। उदाहरण के लिए वह गांधी की विशाल  छाया से देश को बाहर निकालने की कल्पना करता है। यद्दपि प्रभाकर किसी विचारधारा या सिद्धान्त से  प्रतिबद्ध नही होना चाहता यथापि परिस्थितिबस उसे एक ऐसे समारोह में जाना पड़ता है जहा राजनीतिक लोगों का जमावड़ा है जो सत्ता के केन्द्रीयकरण के घोर समर्थक हैं। एक भव्य हॉल में महँगी शराब और उत्कृष्ठ देसी विदेशी व्यंजनों का स्वाद चखते हुए  प्रभाकर जो कि एक मजदूर का बेटा तथा पादरियों द्वारा पाला हुआ था , औऱ एक गहन त्रासदी भरा बचपन बहुत पीछे छोड़कर आया था, स्वयम को ऐसे पुरोधाओं में बीच पाता है जो यूरोपियन महाद्वीप में दक्षिणपंथ के उत्थान का ऊत्सव मनाने को एकत्र हुए है। यहाँ प्रभाकर की तुलना वज्ञानिक फ्रेंकएस्टिन से की जाती है ,जिसने ऐसे राक्षस को पैदा किया जिसने विस्व में तवाही मचा दी।
प्रभाकर अपनी पुस्तक में इस थियोरी को प्रतिपादित करता है की अंतिम प्रभाव उनका नही होता जो अच्छाई, सदभाव व करूणा की बात करते हैं बल्कि  'matter of factness of cruelty'  (क्रूरता के वास्तविक प्रभाव)का होता है।
सर्जेई एक हथियार का व्यापारी है। उसका व्यापार भारत मे है। जो उसे पिता से विरासत में मिला है। हथियार के व्यापार को लेकर उसकी दुविधा का चित्रण
उल्लेखनीय है।

ये सारे क़िरदार एक बदलते हुए भारत के परिवेस में अपने अपने तरीके से अवतरित होते हैं।
उनकी जिंदगी कंही 'काऊ कमिशन'जो कि गो-माँस खाने वालों के उन्मूलन के लिए प्रयासरत है, से भी प्रभावित है। तथाकथित बुद्धिजीवी जो इतिहास का पुनर्लेखन व विश्लेषण  अपने एजेंडा और स्वार्थ के लिए कर रहे है, अपने अपने तरीके से सामने आते है।
पुस्तक की संकछिप्तता के कारण कई प्रसंगों के कल्पना की व्यापकता नियंत्रित लगती है। भाषा पर नयनतारा सहगल का अद्भुत नियंत्रण एवं इतिहास का विषद ज्ञान पुस्तक में  हर जगह परिलक्षित है। देस विदेश के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक सन्दर्भ लेखिका के विस्तृत ज्ञान और उनके लेखन के विस्तार का होराइजन दर्शाते है। उपन्यास  की भावप्रवणता  दुरदमनिय  है जहां जीवन की तमाम त्रासदियों और विसंगतियों के बावजूद अच्छे भविष्य का सपना कहीं ना कहीं झलकता रहता है।  मानवता कितनी भी अधोगामी हो जाए, चांदनी रात में नृत्य की अभिलाषा पूरी तरह कभी दमित नहीं होती।




    
             

अगर धीमे बोलना है तो व्हिस्पर की सीमा क्या होनी चाहिये

$
0
0

 इरफान खान को गए तकरीबन 1 महीने बीत चुके हैं। इरफान खान की 53 वर्ष की उम्र में कोलोन संक्रमण से 29 अप्रैल 2020 को मृत्यु हो गई ।
गार्जियन के पीटर ब्रेड ने इरफान खान के बारे में लिखा है
'a distinguished characteristic star in Hindi and English language movies whose hardworking career was an enormously valuable bridge between South Asia and Hollywood cinema'.
इरफान खान ने 30 से ज्यादा फिल्मों में काम किया उन्होंने अपने कैरियर की शुरुआत टीवी सीरियल चंद्रकांता , भारत एक खोज , बनेगी अपनी बात जैसे सीरियल से की ।उन्होंने ने हासिल, सलाम बॉम्बे (1988), मकबूल (2004), वारियर, रोग् जैसी फिल्मों में काम किया। हासिल फिल्म के लिए उन्हें फिल्म फेयर में सर्वश्रेष्ठ खलनायक का पुरस्कार भी मिला। 30 वर्ष के अरसे में उन्हें नेशनल फिल्म अवार्ड ,एशियन फिल्म अवार्ड, 4 फिल्म फेयर अवार्ड तथा एशियन फिल्म अवार्ड मिले। 2011 मे उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया।
सलाम बॉम्बे उन्होंने 1988 में की इसके बाद उन्हें कई वर्षों का कड़ा संघर्ष करना पड़ा। वास्तव में यह समय उनके करियर का सबसे कठिन समय था उनके जवानी के फॉर्मेटिव ईयर्स इस संघर्ष के दौरान जाया हो गए ,वरना शायद उनका योगदान फिल्मों में कहीं ज्यादा होता।
2003 में हासिल और 2004 में मकबूल से उन्हें ब्रेक मिला ।नेम सेक (2006), लाइफ इन ए मेट्रो (2007 )और पान सिंह तोमर (2011) उनकी बेहतरीन फिल्मों में थी। लंच बॉक्स (2013 ),पीकू (2011), तलवार (2015 )की सफलता ने उन्हें फिल्म जगत की ऊंचाइयों पर पहुंचाया। कुछ हॉलीवुड की फिल्मों में उन्होंने सपोर्टिंग एक्टर का रोल भी सफलतापूर्वक किया ।इनमें अमेजिंग स्पाइडर मैन (2012), लाइफ ऑफ पाई (2012), स्लमडॉग मिलेनियर (2008 )आदि शामिल है। उनकी सबसे ज्यादा बॉक्स ऑफिस पर कमाई करने वाली फिल्म हिंदी मीडियम 2017 में रिलीज़ हुई, जिसमें उन्हें बेस्ट एक्टर का फिल्मफेयर अवार्ड भी मिला। उनकी अंतिम फिल्म अंग्रेजी मीडियम थी जो कि हिंदी मीडियम का सीक्वल थे।


चंद्रनाथ मिश्रा

चंद्रनाथ मिश्रा


यूं तो इरफान खान की हर फिल्म की अपनी विशेषता है लेकिन "मकबूल"और "पान सिंह तोमर", जिनमें इरफान ऊर्जा से भरे दिखते हैं उनके व्यक्तित्व को समझने के लिए भी महत्वपूर्ण हैं।
पान सिंह तोमर फिल्म के निर्देशक तिग्मांशु धूलिया ने एक इंटरव्यू के दौरान इरफान को याद करते हुए कहा है कि आज की तारीख तक, इरफान खान से बड़ा एक्टर हिंदुस्तान में कोई नहीं हुआ ।
तिग्मांशु धूलिया द्वारा निर्देशित इस फिल्म में ,तिग्मांशु का बैंडिट क्वीन में कास्टिंग डायरेक्टर होने का अनुभव ,चंबल के बीहड़ों की परिस्थितियों को समझने में बहुत सहायक रहा होगा। यह सूबेदार पान सिंह तोमर की बॉयोपिक है। वे एक फौजी एथलीट है। जिन्होंने 7 बार स्टेपल चेस बाधा दौड़ में राष्ट्रीय चैंपियनशिप जीती थी ।1952 के एशियाई खेलों में उन्होंने भारत का प्रतिनिधित्व किया था। नौकरी खत्म कर जब वह घर आए तो परिवार के लोगों द्वारा जमीन के विवाद को लेकर उन्हें और उनके परिवार को सताया और दबाया गया । परिणाम स्वरूप एक दिन वह बागी बनने पर मजबूर हो गए । वे बाद मे पुलिस मुठभेड़ में मारे गए।
इस बायोपिक में इरफान खान ने पान सिंह का किरदार निभाया है।एक फौजी से बागी बनने के संक्रमण की पीड़ा का निरूपण जिस खूबी से इरफान ने किया है वह उनके अंदर के महान अभिनेता की झलक दिखाती है ।हथियार उठाने से पहले उनका अपने आप से संघर्ष और एक बार निर्णय लेने के बाद उनके दृढ़ता का प्रदर्शन अद्भुत है। फौज के अनुशासन का इस्तेमाल करते हुए अपने साथियों को फौजी तौर तरीके से पुलिस के साथ संघर्ष करने के लिए तैयार करना उन्होंने अत्यंत स्वाभाविक ढंग से अभिनीत किया है । यह संक्रमण कहीं आकस्मिक नहीं लगता। बीहड़ के खुरदुरी जिंदगी के बीच अपनी पत्नी से उनका संबंध और उनके प्रेम की कोमलता उनके अंदर छिपे हुए संवेदनशील मनुष्य का परिचय देती है ।पूरी फिल्म में उनका understated अभिनय कमाल का प्रभाव छोड़ता है। कम से कम डायलॉग से अधिक से अधिक संप्रेषण की उनकी क्षमता को उजागर करता है ।डाकू की भूमिका में भी उनका फौजी व्यक्तित्व अपनी धार नहीं छोड़ता। उनके फौजी व्यक्तित्व के मूल लक्षणों की निरंतरता पूरी फिल्म में बरकरार है।अपने किरदार में वह इस तरह घुले मिले हैं कि कई जगह उनके डायलॉग स्वगत भाषण जैसे लगते हैं ।जैसे अपने अंदर पैवस्त पानसिंह तोमर के उदगारों को शब्द दे रहें हों। सूबेदार पान सिंह तोमर जैसे भी रहे हो लेकिन हम जब भी उनके बारे में सोचेंगे या बात करेंगे तो इरफान खान का चेहरा ही हमारे सामने होगा शायद एक अभिनेता की यही सबसे बड़ी सफलता है।

मकबूल विशाल भारद्वाज द्वारा निर्देशित वार्ड की मैकबेथ से प्रभावित फिल्म है । लेकिन इसमें घटित घटनाएं तथा उनके सीक्वेंस मौलिक नाटक से भिन्न तथा भारतीय परिपेक्ष में गढ़े गए हैं। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि तुलनात्मक रूप से मैकबेथ को डाउनसाइज करके इस फिल्म को बनाया गया है।यद्यपि नाटक की मूल आत्मा वही है जो मैकबेथ की है। अच्छाई और बुराई का संघर्ष, अंतरात्मा का द्वंद और मानवीय संबंधों का ताना-बाना, वफादारी और बेवफाई का अंतर्द्वंद और अंत मे पोएटिक जस्टिस याने बुरे का अंत। सभी कुछ मैकबेथ की स्प्रिट के अनुकूल ही है। मकबूल का किरदार इरफान खान ने बड़े subdude तरीके से निभाया है। वह कहीं भी लाउड नहीं लगते, जबकि वे एक अंडरवर्ल्ड डॉन, अब्बा जी (पंकज कपूर) के सबसे वफादार लेफ्टिनेंट है। तब्बू ने अब्बा जी की बेगम का रोल किया है ।तब्बू अब्बा जी से उम्र में बहुत छोटी है ।उनकी जवानी अब्बा जी के बुढ़ापे की हदों को पार करने के लिए बेताब हैं ।मकबूल मियां बेगम की नजरों में हीरो है। मकबूल भी दिल ही दिल में बेगम जान की ओर आकर्षित है। फिर शुरू होता है राजा के ख़िलाफ़ रानी का षड्यंत्र जो मैकबेथ से लिया गया है। फिल्म में राजा अब्बा मियां है रानी बेगम तब्बू हैं और मकबूल (इरफान खान )एक मुहरे हैं और बेगम के दिल अजीज भी । एक तरफ मकबूल की वफादारी है दूसरी तरफ उनकी महत्वाकांक्षा और बेगम के लिए मोहब्बत, जिसका इज़हार करना भी शुरू में उनके लिए बहुत मुश्किल है। इस इमोशनल ट्रॉमा और इसके फलस्वरूप किरदार के 'बिहेवियर पैटर्न 'को इरफान खान ने जिस तरह बखूबी से निभाया है देखते ही बनता है । उनके जिगर में जैसे हमेशा एक आग जलती रहती है जो उनकी आत्मा को खोखला करती रहती है।इस पूरे सिनेरियो को इतने understated और restrained तरीके से उन्होंने अभिनय के माध्यम से अंजाम दिया है कि वह किसी प्रशंसा से परे है। इसमें असली घटनाओं के बजाय nuances पर जोर दिया गया है। इसलिए मक़बूल का किरदार और मुश्किल बन जाता है ।उन्हें सब कुछ घटनाओं के नही बल्कि नुआन्सेस के माध्यम से ही संप्रेषित करना है ।असली घटनाएं तो दर्शकों को एक भ्रष्ट ज्योतिष पुलिस वाले (ओम पुरी )के माध्यम से पता लग ही है। इरफान खान का अभिनय एक तरफ एक पैशनेट लवर और दूसरी तरफ एक अंडरवर्ल्ड डॉन का है । इन दोनों ही किरदारों में चलती रहती है conscience की लड़ाई और मकबूल का विघटित होता हुआ स्व:। अंत में जब दुनिया को छोड़ने का वक्त आता है, तब न तो बेगम है ,न राजा है , न असला है ना बारूद। इस अंत समय मे जो निःस्पृह उदासीनता उनके चेहरे पर बिना कोई डायलॉग बोले दिखाई देती है वह अतुलनीय है। ये केवल नियति के आगे आत्मसमपर्ण नही है बल्कि दुनियाबी तिलस्म और जीवन रूपी भीषण त्रासदी से आजाद होने का एहसासे सुकून भी है।

उनके अभिनय प्रतिभा से इन फिल्मो को क्लासिकल की ऊंचाइयों में तब्दील करने की क्षमता स्पष्ट दिखती है। सिनेमा के भाषा की समझ उनके अभिनय में अंतर्निहित है ।अभिनय करते समय उनका संयम उनका सधा हुआ अंदाज ,संवादों की अदायगी में अनुशासन उनकी अभिनय के मूल भाव है। संवाद बोलने की उन्हें कोई जल्दबाजी नहीं होती संवाद पहले उनकी बॉडी लैंग्वेज और फिर उनकी आंखों के माध्यम से आते हैं । संवाद बोलने के लिए उनका ध्वनि और प्रवाह कमाल का है । बात लाउड होकर कहनी है तो कितनी ऊंची पिच में बोलना है अगर धीमे बोलना है तो व्हिस्पर की सीमा क्या होनी चाहिये। अगर मुस्कान से काम चल जाए तो ठहाका मार कर हंसने की क्या जरूरत । ये सब वे खुद तय करते हैं। वह कभी पूरी तरह निर्देशक पर निर्भर नजर नहीं आते बल्कि अपनी तैयारी खुद करते हुए प्रतीत होते हैं।
इरफान खान वास्तव में अपने समय से आगे थे लेकिन दुर्भाग्यवश उन्हें अपने समय से भी पहले जाना पड़ा। निश्चित रूप से उनका सर्वोत्तम अभी आना बाकी था।      

देह की मिटटी ठिठोली करती है

$
0
0



मंजूषा नेगी पांडे
जनम : 24 अगस्त
स्थान : कुल्लू , हिमाचल प्रदेश 
शिक्षा: हिमाचल प्रदेश विश्विद्यालय शिमला से राजनितिक शास्त्र में M .A 


मंजूषा नेगी पांडे की कविताओं में जीवन उस आंतरिक लय की तरह आता है जिसकी गूंज शब्दों से परे रहती है। फेसबुक की इस दुनिया में किसी दिन अचानक ही मंजूषा की ऐसी ही एक कविता से साक्षात्कार होता है। मात्र वही परिचय है मेरे लिए मंजूषा का। हालांकि जानने पर यह भी पता चलता है वे सतत कविताएं लिखती हैं। पत्र पत्रिकाओं में जिनके प्रकाशन का सिलसिला है। उनकी कविताएं संयुक्त काव्य संग्रह भी प्रकाशित है। यहां प्रस्तुत हैं मंजूषा नेगी पांडे की कुछ कविताएं।


विगौ 


नीली तहजीब

खुला आकाश
नीला परचम

जैसे उन्मुक्त स्वतंत्र
हो रहा सब निरंतर
यही अंतर

देह की मिटटी ठिठोली करती
बोली हरती
रचती नया अध्याय
जीवन के विपरीत

ये मन है उसका
शैशव की जड़ों में
यौवन का बीज

इस क्षणभंगुर काल  में
हर हाल में
है अभी समय बाकी
पन्ने बाकी

रहे बाकी एक रीत
लिखने की बस नीली तहजीब


दाना चुगने के लिए दिन ठीक है


रात आने से भरता है
सिर्फ अंधेरा
हर वस्तु ढक जाती है अंधेरे से

अंधेरे की वस्तु उजाले की वस्तु का दूसरा हिस्सा है
हर खोखली सतह के भीतर अंधेरे की परत जमा है

फिर भी दिन के फूलों को रात के आने से कोई फर्क नहीं पड़ता
उनकी खुशबू नहीं बदलती
बल्कि अमलतास की डालियां इत्र से नहा जाती हैं

अंधेरे के उस पार देखने पर तीन चिड़िया नजर आती हैं
जो मुट्ठी भर उजाले की आस में है
क्यों कि रात उनका पेट नहीं भरती
दाना चुगने के लिए दिन ठीक है

दिहाड़ीदार मजदूर ऊंघ रहा है कम्बल के अंदर
बाहर फावड़ा चलता रहता है उस पर बार बार
इकठ्ठा हुई मिटटी को वो फेंक नहीं पाता
बल्कि वो अंदर ही पर्वतनुमा ढेर का आकार ले रही है

हथेलियों की रेखाओं से एक छोटी सी रेखा गायब है
अँधेरे भरी रात ने उसे निगल लिया है
पहाड़ी के ऊँचे टीले पर बने घर से स्याही हटेगी
ढोएगा एक दिन को वो सबसे पहले
खिड़कियां खुलेगी

सिमटे हुए पर्दों के बीच कालिख बाकि बची रहेगी
रात छनेगी धीरे धीरे


हो सकता है


जाड़े के कड़कड़ाते हुए पत्ते
बसंत को भेद कर हरे हो सकते हैं

आसमानी बारिश में किसी के जलते हुए
आंसुओं की आग भी हो सकती है
एक अमीबा का आकार
समय के आकार से ज्यादा भिन्न नहीं है
किसी का बंधा हुआ संयम
एक हल्की ख़ामोशी से भी टूट सकता है

दरवाजे के बाहर साँसें न लेता हुआ
जीवन भी हो सकता है
ऊँचें पर्वतों की एक श्रृंखला
हवा से भी ढह सकती है
रेगिस्तान की रेत समंदर किनारे जाकर
अपनी पिपासा शांत कर सकती है

निराश प्रेमी अजंता की गुफाओं में
जाकर दम तोड़ सकते हैं
जिन घरों में लोग सुरक्षित हैं
वे गिरती दीवारें भी हो सकती हैं
एक भीख मांगता बच्चा
स्वयं ईश्वर भी हो सकता है

लहरों से निकल कर आते नीले घुड़सवार
तुम्हारे हिस्से का युद्ध लड़ सकते हैं

हो सकता है
सुबह के सूरज ने जिद्द पकड़ी हो
ना निकलने की ठानी हो



अरसा हो गया

एक अरसा हो गया
नंगे पावं चले
चारागाहों की मखमली घास को स्पर्श किये
समंदर की भीगती लहरों में रेत के निशां बनाते

अरसा हो गया
बरसाती सड़क पर मीलों दौड़ लगाये
हाथों से पहाड़ों से घिरी झील का ठंडा पानी छुए
देवदार के वृक्षों से छन कर आती धूप को हाथों से रोके

अरसा हो गया
गेहूं की बालियों भरे खेतों में कुचाले भरे
सौंधी महक के ढेर में धसते मिटटी के घर बनाये

अरसा हो गया
गढ़ों में रुकी बारिश में कागज की नाव चलाये
ढलती सांझ तक मित्रों के घर सुख दुःख सुनाये

एक अरसा हो गया जीवन जिये



तुम ही मेरे सूर्य होगे


रहने दो इन उजालों को आस पास
जाने कब नैनों के द्वार पर गहन अँधेरा छाये
शताब्दियों में सूर्य की चमक भी कुछ फीकी हो जाएगी

तब चांदनी भी कहां छिटकी होगी
बस एक मौन अमावस
मन और देह को नियंत्रित करेगी
समय दैत्याकार रूप लेकर कुचाले भरता हुआ आगे बढ़ेगा

भयावह दृश्य मुखरित हो उठेगा
तभी इन उजालों से स्नेहिल मुद्रा में एक हाथ मुझ तक पहुंचेगा
सिमटती किरणों के मध्य से
कितनी आकाश गंगाओं को लांघते हुए

तुम्हारे समीप लाएगा मुझे
दृश्य बदल जायेगा क्षण भर में
बादलों के बीच बना इंद्र धनुष अपनी छटा बिखेरता होगा

उस समय तुम ही
बस तुम ही मेरे सूर्य होगे



जीवन की


संभावनाएं
चुनी हुई यात्राएं

सीढ़ियां चाँद
मुट्ठी भर आसमां
रखे हुए सपनों के पंख

असंतोष के बादल
सुबह कितनी
कितनी शामें
व्यथाएं
पीड़ाएं

ऐसी कितनी कथाएं

थके न जो, डिगे न जो

$
0
0

 राधाकृष्ण कुकरेती-स्मृति दिवस 
15 सितंबर 1935 -17 जुलाई 2015

अरविंद शेखर


किसी भी व्यक्ति के निर्माण में उसके जीवन में घटी घटनाओं और अनुभव का योगदान होता है। गौतम बुद्ध ने बूढ़े बीमार और मृत व्यक्तियों को देखने के बाद अनुभव किया था कि जीवन का सुख भौतिक पदार्थों के उपभोग में नहीं है। मानव जीवन को दुखों से मुक्त करने के लिए वे संन्यासी हो गए। राधा कृष्ण कुकरेती ने भी बचपन में और किशोरावस्था में साहूकार के कर्ज तले रिरियाते गरीब किसानों को देखा। लेकिन उनमें वैराग्य नहीं पैदा हुआ बल्कि उन्होंने उस विचार को अपनाया जो केवल यही व्याख्या नहीं करता था कि दुनिया ऐसी क्यों है बल्कि यह राह भी सुझाता था कि दुनिया कैसे बदल सकती है। संभवत: समाजवाद या यूं कहें कि मार्क्सवाद ही ऐसा विचार था जिसने कि पहाड़ के एक सीधे-साधे युवक को उसने अपने साहूकार पिता के देहांत के बाद तमाम कर्ज के पट्टे स्टांप पेपर और बही खाते आग में झोंक कर स्वाहा करने के लिए प्रेरित कियाताकि उनके कर्ज में डूबे किसान कर्ज के बोझ से आजाद हो सकें।
15 सितंबर 1935 को पौड़ी जिले की उदयपुर पट्टी के नौगांव में जन्मे राधा कृष्ण कुकरेती के पिता महानंद कुकरेती इलाके के साहूकार थे । माता गौरा देवी सामान्य पहाड़ी गृहणी। पिता उन्हें उनका पुश्तैनी धंधा सिखाने के लिए लोगों से वसूली को भेजते। मगर कर्ज लेकर गरीबी के कारण उसे न चुका सकने की हालत वाले किसानों के कष्टप्रद हालात उनसे देखे न जाते। सोचते इन लोगों को उनके दुखों से निजात कैसे मिलेगी। गरीबों के प्रति करुणा से भरे राधा कृष्ण बिना वसूली ही घर लौट आते। पिता का यह व्यवसाय उन्हें रास न आया। समय भी देश— दुनिया में समाजवादी विचारधारा के उदय और उत्कर्ष का था। 1917 की रूस की बोल्शेविक क्रांति को हुए कुछ ही दशक बीते थे। नई प्रगतिशील सामाजिक चेतना अंगड़ाई ले रही थी। छात्र जीवन में ही राधा कृष्ण कुकरेती को भी दुनियां के हालात बदल देने की उम्मीद जगाने वाला भौतिकवादी दर्शन मार्क्सवाद पसंद आया जिसे उन्होंने जीवन पर्यंत अपनाए रखा। विचार के रूप में भी और व्यवहार के रूप में भी। 
15 अगस्त 1981 को नया जमाना के रजत जयंती विशेषांक के संपादकीय में उन्होंने लिखा भी— “ मैं अपने जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि यह समझता हूं कि छात्र जीवन से ही साम्यवादी दर्शन से जुड़ा तो फिर जुड़ा ही रह गया। नि: संकोच कहता हूं कि उसी दर्शन ने प्रतिबद्धता के साथ शोषितपीडि़त इंसान के संघर्षों में खड़े रहने की शक्ति दी और नया जमाना के माध्यम से भी जूझने को प्रेरित कियाहताशा की स्थिति में कभी टूटने नहीं दिया।
पत्रकारवामपंथी कार्यकर्ता विचारक और साहित्यकार राधा कृष्ण कुकरेती ने कक्षा दो तक की पढ़ाई अपने गांव के पास के स्कूल में ही की थी। उसके बाद दर्जा चार तक की पढ़ाई उन्होंने अपने ननिहाल अमला में की। पिता साहूकार थे मगर खुद्दार राधा कृष्ण ने ऋषिकेश में ट्यूशन पढ़ा कर आठवें दर्जे तक पढ़ाई की और हाईस्कूल की पढ़ाई के लिए देहरादून के तब के इस्लामिया हाईस्कूल देहरादून में दाखिला ले लिया। इस्लामिया स्कूल को आज गांधी इंटर कॉलेज के नाम से जाना जाता है। इसके बाद आगे की यानी इंटर की पढ़ाई के लिए उन्होंने काशीपुर का रुख किया। इंटर के दौरान ही उन्होंने जनजागृति नामक अखबार शुरू किया। इंटरमीडिएट पास करने बाद वे देहरादून आ गये।
छात्र जीवन के समय से ही वह कम्युनिस्ट आंदोलन से जुड़ गए थे। देश की आजादी के बाद 1942 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से पाबंदी हटी तो वह उसके सदस्य बन गए। इसी आंदोलन की प्रेरणा से पहाड़ की पहाड़ सी समस्याओं से उद्वेलित राधा कृष्ण कुकरेती ने पहले साप्ताहिक कर्मभूमि और पर्वतीय में पहाड़ की समस्याओं को उठाना शुरू कर दिया। लेकिनबाद में खुद का अखबार निकालने का निश्चय किया। उन्होंने छात्र जीवन में ही काशीपुर से हरीश ढौंढियाल के साथ मिलकर जन जागृति’ नाम के अखबार प्रकाशित किया। अखबार के प्रकाशक थे नैनीताल भाकपा के जिला सचिव हरदासी लाल मेहरोत्रा। इस अखबार को वह एक साल यानी ( 1954 से 1955) ही चला पाए। मगर लगन के पक्के राधा कृष्ण कुकरेती 1956 में एक झोला और एक छोटी सी अटैची बगल में दबाए हुए कॉमरेड बृजेंद्र गुप्ता के घर पहुंचे और देहरादून से साप्ताहिक समाचार पत्र निकालने का इरादा जाहिर किया। तब के पार्टी नेता व बाद में विधायक चुने गए गोविंद सिंह नेगी को उनका इरादा हास्यास्पद सा लगा कि आखिर एक व्यक्ति जिसके पास पूंजी के नाम पर महज एक फटीचर अटैची और झोला हो वह अखबार कैसे निकाल पाएगा। मगर युवक का उत्साह वह कम नहीं करना चाहते थे नतीजतन कुछ नहीं कहा और सोचा कि कुछ दिन चक्कर काटेगा तो थक हारकर अखबार निकालने का नशा रफूचक्कर हो जाएगा।  लेकिन जिद के पक्के राधा कृष्ण कुकरेती ने 15 अगस्त 1956 से नया जमाना साप्ताहिक का प्रकाशन शुरू कर दिया। नया जमाना नाम शायद उस वक्त भाकपा के मुख्यालय बंबई से निकलने वाले अखबार न्यू एज से प्रेरित था। बहरहालनया जमाना का यह पहला अंक युगवाणी प्रेस में छपा। इसके बाद एक दो अंक भास्कर प्रेस से छपे लेकिन दूसरे प्रेस से प्रकाशन की दिक्कतों को समझ उन्होंने अपनी प्रेस लगाने की ठानी और तीन महीने के बाद नया जमाना अपनी खुद की प्रेस से छपना शुरू हो गया। नया जमाना’ का प्रकाशनसम्पादन करने के साथ ही उन्होंने डीएवी कॉलेज में पढ़ाई भी जारी रखी और समाजशा स्त्र में एमए की डिग्री हासिल की। 1956 से शुरू हुआ शोषित समाज और उत्तराखंड के सरोकारों को आवाज देने की मिशनरी पत्रकारिता का यह सफर राजनीतिक उथलपुथलोंमुकदमेबाजी के तमाम संकटों के बावजूद निरंतर जारी रहा। अपने सफर में नया जमाना ने कभी विचारधारा की टेक नहीं छोड़ी। यह राधा कृष्ण कुकरेती की ही झंझावातों से टकराने की जिजीविषा थी कि नया जमाना ने अन्याय और शोषण के विरुद्ध कोई भी लड़ाई अधूरी नहीं छोड़ी। इस लड़ाई में नया जमाना को कई बार सत्ता का कोपभाजन बनना पड़ा। भ्रष्टाचार के मामलों के खुलासे पर कभी विज्ञापन बंद कर दिए गएप्रलोभन दिए गए। प्रेस में चोरियां तक हुईं। सारा का सारा टाइप चुरवा दिया गया। कई बार लगा कि नया जमाना डिग जाएगाकुकरेती टूट जाएंगे लेकिन व सच की लड़ाई की मशाल थामे रहे। 1957 में उप्र के वन उपमंत्री जगमोहन सिंह नेगी के लाखों के प्लॉट घोटाले को उजागर करने पर उनके अखबार पर छापा तक पड़ा। कुकरेती को संपादक प्रकाशक व मुद्रक की हैसियत से जिला अदालतों से लेकर उच्च न्यायालय तक के चक्कर काटने पड़े। करीब एक साल तक नया जमाना के विज्ञापन बंद कर दिए गए। उस वक्त एक ओर नया जमाना चीनी हमले का विरोध कर रहा था उधर उप्र सरकार ने नया जमाना को ब्लैक लिस्ट कर दिया। इस दौर में लगातार संघर्षों के थपेड़ों से उनकी हिम्मत चूकने लगी। 1959-60 के करीब रमेश सिन्हा व राजीव सक्सेना के संपादकत्व में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने लखनऊ से मासिक पत्रिका नया पथ का प्रकाशन शुरू किया था। इस वक्त राधा कृष्ण कुकरेती नया जमाना के साथ ही देश के तमाम पत्र-पत्रिकाआ में छप रहे थे। राजीव सक्सेना की निगाह उन पर पड़ी तो उन्होंने साथ काम करने का न्यौता दिया। तब महापंडित राहुल सांकृत्यायन नया पथ के सलाहकार संपादकों में थे। राधा कृष्ण कुकरेती को लगा कि नया पथ में काम किया जा सकता है वह दौड़े-दौड़े राहुल से सलाह लेने मसूरी चले गए। राहुल ने उनकी बात सुनी मगर कहा कि अगर वह पलायन कर लखनऊ चले गए तो नया जमाना के जरिए पर्वतीय क्षेत्र की जनता की आवाज कौन उठाएगा। कुछ अरसे बाद नया पथ बंद हो गया और राधा कृष्ण कुकरेती नया जमाना में मशगूल।
उत्तरकाशी का तिलोथ कांड को या बयाली का वन मजदूरों का आंदोलनटिहरी बांध के विस्थापितों की समस्याएं हों या तराई के भूमिहीनों का आंदोलन इन सभी संघर्षों को राधाकृष्ण कुकरेती नया जमाना के जरिए धार देते रहे। स्वामी रामदंडी का परदाफाश नया जमाना की पत्रकारिता की मिसाल है। इमरजेंसी के जमाने में जब सारे पत्र पत्रिकाएं सत्ता की ताकत के आगे अपने घुटने टेक रहे थे तो भी नया जमाना ने अपना आत्मसम्मान कायम रखा और लगातार जनता के पक्ष में लिखता रहा। 1966 में देहरादून के बीबीवाला और गुमानीवाला के सात किसानों के शोषण के खिलाफ नया जमाना ने आवाज उठाई तो ऋषिकेश के जयराम अन्न क्षेत्र के संचालक मानद मजिस्ट्रेट व एक बड़े फार्म के मालिक महंत देवेंद्र स्वरूप ब्रह्मचारी ने दफा 500 के तहत मानहानि का मुकदमा दायर कर दिया। लेकिन तबके अतिरिक्त जिलाधीश ज्युडिशियल एसएस फैंथम ने नया जमाना की मुहिम को सराहा और साफ किया कि अभियोगी ऑनरेरी मजिस्ट्रेट है। .. निसंदेह यह जनहित में है कि एसे व्यक्ति का असली चरित्र और कारनामे जनता के सामने लाए जाएं। फैसला नया जमाना के हक में हुआ। मुकदमे के बाद सभी किसान नया जमाना के जरिए कम्युनिस्ट आंदोलन से जुड़ गए। 1968 में उत्तरकाशी के कुछ कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं ने लाइसेंस परमिट चोरी का भंडाफोड़ किया तो प्रशासन ने उन्हें नजरबंद कर दिया। उनके साथ अन्यायपूर्ण सलूक को नया जमाना ने खुलकर छापा। अब यह लड़ाई सीधे जनता और भ्रष्ट प्रशासन के बीच का लड़ाई बन गई। नतीजा यह हुआ कि नया जमाना के संपादक राधा कृष्ण कुकरेती व दूसरे कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं पर एसडीएम कोर्ट की मानहानि का आरोप लगाते हुए हाईकोर्ट में मानहानि का मुकदमा दायर कर दिया गया। लेकिन प्रशासन की हार हुई। इलाहाबाद हाई कोर्ट जस्टिस ब्रह्मानंद काटजू ने जो फैसला दिया वह प्रशासन के लिए कड़ा सबक था। रिश्ते नातों और पहचान को उन्होंने कभी पत्रकारिता पर हावी नहीं होने दिया। उस जमाने में महंत इेंश चरण दास कुकरेती देहरादून के बड़े कांग्रेस नेता और बहुत प्रभावशाली व्यक्ति हुआ करते थे। जब देश के तत्कालीन गृह मंत्री व उप्र के पूर्व मुख्यमंत्री पं. गोविंद बल्लभ पंत का निधन हुआ तो पूरे देश में राजकीय शोक घोषित हुआ था। उसी दिन श्री गुरु राम राय दरबार साहिब में झंडा चढ़ाया जा रहा था। इस पर राधा कृष्णकुकरेती ने नया जमाना में तल्ख शीर्षक के साथ टिप्पणी की। जहां सारे देश में राष्ट्रीय झंडा  झुकाया जा रहा था वहीं दरबार साहिब में झंडा चढ़ाया जा रहा था। यह उन्होंने तब लिखा जब महंत इेंश चरण दास से उनके बहुत अच्छे निजी संबंध थे।
राधा कृष्ण कुकरेती ने जब नया जमाना शुरू किया तब उसमें बंशीलाल पुंडीर और राधा कृष्ण कुकरेती के अध्यापक और मार्गदर्शक आचार्य दामोदर प्रसाद थपलियाल की बड़ी अहम भूमिका रही। ये दोनो बरसों तक नया जमाना के संपादक मंडल में रहे। आचार्य दामोदर प्रसाद थपलियाल लोकायन नाम से तो बंशीलाल पुंडीर अपने ही नाम के साथ। हालांकि नया जमाना को बहुत से लोग अपने लेखखबरें और रचनाएंभेजते थे मगर राधा कृष्ण कुकरेती यानी एकोहम बहुष्यामि। वह ऐसे संपादक थे जो खुद ही अपने अखबार के लिए रिपोर्टिंग भी करतेविज्ञापन भी जुटातेसंपादन भी करतेकंपोजिंग भी करते और अखबार डिस्पैच भी खुद करते थे। इतना ही नहीं अखबार का प्रसार बढ़ाने के लिए पाठक भी जुटातेखुद ही चंदे की रसीद काटते। जब तक राधा कृष्ण कुकरेती जीवित और वह खुद अपने अखबार का काम देखते रहे देहरादून की कचहरी रोड स्थित उनके अखबार का दफ्तर यानी नया जमाना प्रेस’ में उत्तराखंड के प्रगतिशील बुद्धिजीवी रचनाकार एक बार उनसे मिलने जरूर जाते थे।
राधा कृष्ण  कुकरेती जब 14 क्रॉस रोड में एक फौजी अफसर के घर रहते थे तब वीर चंद्र सिंह गढ़वाली का डेरा उन्हीं के घर में लगता था। जब महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने वीर चंद्र सिंह गढ़वाली की जीवनी लिखी तो गढ़वाली उन दिनों राधा कृष्ण कुकरेती के साथ ही रहा करते थे। 1953—54 से ही वह भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के पहले महासचिव कामरेड पीसी जोशी के संपर्क में थे। कामरेड पीसी जोशी ने ही सबसे पहले अलग पर्वतीय राज्य का नारा दिया। तब कुकरेती के घर हिंदी के जाने माने कथाकार रमा प्रसाद घिल्डियाल पहाड़ी और एनडी सुंदरियाल आदि न जाने कितने लोग डेरा जमाते। यहां और नया जमाना के दफ्तर में लगातार सिगरेट के कश लेते हुए राधा कृष्ण कुकरेतीमिलने आने वालों से घंटों बतियाते।

महज पत्रकार नहीं प्रतिबद्ध कम्युनिस्ट संगठनकर्ता भी
राधा कृष्ण कुकरेती महज पत्रकार नहीं थे वह प्रतिबद्ध कम्युनिस्ट संगठनकर्ता भी थे। उनमें संगठन की क्षमता भी गजब की थी। साम्यवादी विचारधारा ने उन्हें छात्रोंखेतिहर मजदूरोंपत्रकारों तक को संगठित करने की प्रेरणा दी। उन्होंने हिल स्टूडेंट यूनियन के गठन में भी अहम भूमिका निभाई थी। 14 अक्टूबर 1969 की बात है। मसूरी के सेवाय होटल में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री चंद्र भानु गुप्त की अध्यक्षता में पर्वतीय परिषद की बैठक चल रही थी। वहां पेशावर विद्रोह के महानायक वीर चंद्र सिंह गढ़वाली दूधातोली में उत्तराखंड विश्वविद्यालय की मांग उठाने के लिए पहुंचे थे। अकेले गढ़वाली को मानव दीवार बना कर पुलिस व प्रशासन ने मुख्यमंत्री से मिलने न दिया। चंद्र सिंह गढ़वाली ने अपना भोंपू निकाला और उसके जरिए अपनी आवाज मुख्यमंत्री तक पहुंचाने लगे। तभी देहरादून से राधा कृष्ण कुकरेती के नेतृत्व में करीब डेढ़ दर्जन छात्र व युवा वहां पहुंच गए। वीर चंद्र सिंह गढ़वाली व उत्तराखंड विश्वविद्यालय जिंदाबाद के नारे लगाने लगे। मुख्यमंत्री का शाम का कार्यक्रम शरदोत्सव के उद्घाटन का था। इस बीच राधा कृष्ण कुकरेती ने स्थानीय ट्रेड यूनियनों से संपर्क किया और नयी रणनीति बनाई। शाम को जब चंद्र भानु गुप्त पैदल शरदोत्सव के उद्घाटन को निकले तो कुलड़ी की ओर से वीर चंद्र सिंह गढ़वाली घोड़े में सवार आ रहे थे साथ ही उनके साथी वीर चंद्र सिंह गढ़वाली व उत्तराखंड विश्वविद्यालय जिंदाबाद के नारे लग रहे थे। इसका असर यह हुआ कि जो भीड़ सीएम के साथ दिख रही थी, वह चंद्र सिंह गढ़वाली के साथ हो ली। उसके बाद एक कामयाब सभा भी हुई। सामाजिक राजनैतिक मूल्यों के प्रति राधा कृष्ण कुकरेती का समर्पण किस कदर था उसकी मिसाल है कोटद्वार में पृथक उत्तराखंड को लेकर हुआ सम्मेलन। इस सम्मेलन में टिहरी रियासत के भूतपूर्व नरेश मानवेंद्र शाह भी आमंत्रित थे। जब गढ़वाल के वरिष्ठ पत्रकार ने मानवेंद्र शाह को राजा कह कर संबोधित किया तो राधा कृष्ण कुकरेती ने तत्काल सख्त ऐतराज जताया और कहा कि अब मानवेंद्र शाह राजा नहीं रहे उन्हें राजा की उपाधि के साथ संबोधित नहीं किया जाना चाहिए। इस तरह उन्होंने बिना किसी हिचक लिहाज के सामंतवाद विरोधी विचार को व्यक्त किया। राधाकृष्ण कुकरेती ने सन 1952 भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ले ली थी। बाद में सन् 1964 में जब भाकपा में टूट के बाद और एक नई भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माक्र्सवादी) बनी तो वह मूल भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के साथ ही बने रहे। इस दौरान उन्होंने भारतसोवियत कल्चरल सोसाइटी के जिला सचिव के तौर पर उन्होंने सोवियत संघ की यात्रा भी की। बाद में भाकपा से कुछ मतभेदों के कारण वे श्रीपाद अमृतपाद डांगे की कम्युनिस्ट पार्टी में चले गये। लेकिन डांगे की मृत्यु के बाद भाकपा नेता समर भंडारी उन्हें फिर से उनकी मूल पार्टी भाकपा में लौटा लाए। 80 के दशक में राधा कृष्ण कुकरेती ने भाकपा के टिकट पर उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिये देहरादून शहर सीट से चुनाव भी लड़ा ।
सांगठनिक क्षमता के धनी राधा कृष्ण कुकरेती उत्तराखंड में श्रमजीवी पत्रकार संघ के संस्थापकों में से एक थे। तब या तो परिपूर्णानंद पैन्यूली या आचार्य गोपेश्वर कोठियाल यूनियन के जिला अध्यक्ष होते। यूनियन के प्रति राधा कृष्ण कुकरेती की प्रतिबद्धता और ट्रेड यूनियनों के उनके अनुभव के चलते उन्हें हर बार यूनियन का महामंत्री बनाया जाता। यूनियन की बैठकें हमेशा आचार्य गोपेश्वर कोठियाल की युगवाणी प्रेस में हुआ करती थीं। यही नहींकुकरेती विश्वंभर दत्त चंदोला शोध संस्थान के संस्थापकों में से भी एक थे। उन्होंने छोटे अखबारों को संगठित करने के लिये उत्तर प्रदेश स्मॉल न्यूजपेपर एसोसिएशन का गठन भी किया। बिना इस्तरी किए खादी का कुर्ता व पायजामा पहने रहने वाले राधा कृष्ण को शायद उनकी विचार धारा ने ही उन्हें सहजमिलनसारमददगार मानवीय और दूसरों के लिए लडऩे वाला बनाया था। माकपा के एक अविवाहित कॉमरेड थे मेला राम। पहले वह भी भाकपा में थे लेकिन 1964 में माकपा में चले गए। वह हमेशा माकपा के काम में जुटे रहते। मगर उनके रहने का कोई ठिकाना न था। उस जमाने में भाकपा व माकपा में काफी राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता था। वह बहुत बीमार रहने लगे ऐसे में राजनीतिक वैचारिक मतभेद की परवाह किए बगैर राधा कृष्ण कुकरेती ने उनके लिए भाकपा के पल्टन बाजार स्थित दफ्तर में जगह बनाई। मेलाराम अधिक बीमार पड़े तो उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया। उनकी  देखभाल करने वाला कोई परिजन न था। उनकी तीमारदारी में राधा कृष्ण कुकरेती ने कोई कोर कसर न छोड़ी। रोज दून अस्पताल जाते और घंटों समय बिताते। मेलाराम बाद में फिर भाकपा में शामिल हो गए थे। कॉमरेड मेलाराम के देहांत पर उन्होंने एक आम आदमी की मौत शीर्षक से लंबा अविस्मरणीय संस्मरण लिखा। साम्यवादी सिद्धांत के प्रति उनकी आस्था इतनी गहरी थी कि अपने जीवन में ही उन्होंने सोवियत संघ को विश्वशक्ति बनते देखाचीनकोरियाक्यूबावियतनाम में क्रांतियां प्रतिक्रांतियां होती देखीं सोवियत संघ को बिखरते देखावाम आंदोलन का प्रभाव कम होते देखा और दक्षिणपंथ का उभार भीमगर उनका विचारधारा से विश्वास नहीं डिगा।

एक कथाकार जिसका सही मूल्यांकन होना अभी शेष है
राधाकृष्ण कुकरेती उत्तराखंड के उन गिने चुने संपादकों में से थेजिन्होंने सिर्फ पत्रकारिता नहीं की बल्कि कहानियों के जरिए भी अपनी बात रखी। उनकी कहानियां एक दौर में सारिका जैसी नया पथ जैसी जानी मानी साहित्यिक पत्रिकाआें में प्रकाशित होती थीं। यह बात और है कि  उनके कथाकार को हिंदी साहित्य में वैसी पहचान नहीं मिल पाई जैसी कि मिलनी चाहिए थी। उनके पत्रकार और वामपंथी राजनैतिक सामाजिक  कार्यकर्ता और विचारक के व्यक्तित्व की छाया में उनके साहित्य का अब तक सही मूल्यांकन नहीं हुआ है। उनके साहित्यिक अवदान का मू्ल्यांकन होना अभी शेष हैजबकि वह पचास के दशक से ही लगातार कहानियां लिख रहे थे। हालांकि बाद के दौर में उनके कथा लेखन की रफ्तार कम हो गई। आंचलिकता से भरपूर उनकी कहानियों में उपेक्षित व वंचित पहाड़ की जिंदगी आकार लेती है । उनकी कहानियों में कहीं जाड हैं तो कहीं वनगूजर या जौनसारबावर की जिंदगी। संभवत: हिमालयी सरोकारों के पत्रकार होने के कारण ही ये सब उनके विषय बने। इंसाफ के मालिक राधा कृष्ण कुकरेती का पहला कथा संग्रह था। उसके बाद उनका घाटी की आवाजक्वांरी तोंगी व सरग दद्दा पाणिपाणि कथा संग्रह आए। उन्होंने सोवियत संघ की यात्रा के संस्मरण भी लिखे थे जो अब तक अप्रकाशित हैं। उनका जौनसार-बावर की पृष्ठभूमि पर लिखा एक एक पूरा उपन्यास किन्नर कन्या आज भी अप्रकाशित है। घाटी की आवाजें कथा संग्रह में राधा कृष्ण कुकरेती की 11 कहानियां शामिल हैं। इनमें किच्छ न जाणीमांस का पिंड-पाप का बोझगूजर की बेटी और पांच दिनराख का ढेरमसूरी की शामघाटी की आवाजेंएल्बमग्रेट इंडिया होटलशरारती स्मृतियांमोह की नाग फांस और पड़ोसवाली लडक़ी शामिल हैं। 1966 में प्रकाशित क्वांरी तोंगी संग्रह में 12 कहानियांखुबानी का पेड़मालापतिभूखा पेट-प्यासी चाहवह मेरी मंगेतर थीहब्शी का रोमांसक्वांरी तोंगीसवा रुपये का दस्तूर, ...और फिर मैं लौट आया, , मेरी बेटी जवान हैएक तंगसी कोठड़ी: एक बड़ा सा काटेजगृह उद्योग और ताला हैं। सरग दद्दा पाणि पाणि संग्रह में आठ कहानियां डडवार और गीत का टेरबदला हुआ चेहरासरग दद्दा पाणिपाणिलकड़ी का धर्मभोर का ताराअहा रणसूरा बाजा बजि गैनधरती का प्यार-भरती का मोहपांच बिस्वा जमीन कहानियां शामिल हैं। 
उनकी कहानियों और कथा शिल्प का महत्व इसी बात से समझा जा सकता है कि महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने लिखा—“ राधाकृष्ण कुकरेती जी की कहानियों में दिलचस्पी के साथ एक ताजगी मिलती है। इसका एक कारण तो यह भी है कि उनमें स्थानीय रंग बड़ी सुंदरता के साथ इस्तेमाल किया होता है। हिमालय ने हमें यशस्वी कवि और कथाकार दिए हैं। लेकिन वह स्थानीय रंग को भरने में संकोच करते हैं। तरुण कहानीकार कुकरेती इस बारे में उनसे भिन्नता रखते हैं।
मशहूर अफसानानिगार कृश्न चंदर ने भी राधा कृष्ण कुकरेती की भाषा शैली की खूब प्रशंसा की थी। उन्होंने लिखा कि राधाकृष्ण कुकरेती बात लिखने का ढंग खूब जानते हैं। सरल होते हुए भी उनकी शैली बहुत रोचक और मन को आकर्षित करने वाली है। किसी भी लेखक के लिए यह फख्र की बात है। ग्रेट इंडिया होटल कहानी के बारे में उन्होंने टिप्पणी की कि उसे पढक़र उन्हें जोला व मोपासां की याद आ गई।
जाने माने साहित्यकार इला चंद्र जोशी ने लिखा—“ निसंदेह लेखक में अच्छे कहानीकार बन सकने के बीज वर्तमान में है और उनकी व्यंग्यात्मक शैली चुभती हुई है। वह अधिक परिपक्व होगी तो उसमें और निखार आएगा। उनकी कहानियों में रोमांटिक पुट काफी रहने पर भी सहृदयतारोचकता और ताजगी की कोई कमी नहीं दिखाई देती।
प्रसिद्ध कथाकार रमा प्रसाद घिल्डियाल पहाड़ी ने भी लिखा –स्वतंत्रता के बाद सभी भाषाओं के मौलिक लेखकों में उत्साह आयाशासकों के शोषण के कारण बोलियों का साहित्य दबा हुआ थाउसने भी करवट ली। सभी देश प्रेमी साहित्यकारों के आगे राष्ट्रीय साहित्य के निर्माण का प्रश्न भी उठा। गढ़वाली जाति की अपनी संस्कृतिपरंपरा और इतिहास है। वहां के लेखक क्षेत्रीय साहित्य की उपज से हिंदी का भंडार भरने को उत्सुक हैं। श्री कुकरेती ने भी यह व्रत लिया है। घाटी की आवाजें हमारे जातीय साहित्य की परंपरा की सबल लड़ी है।

अंतिम सांस तक भी पहाड़ की पीड़ा
बाद के दिनों में राधा कृष्ण कुकरेती ने देहरादून में अजबपुर (मोथरोवाला रोड)में एक मकान खरीद लिया था। पुत्र पंकज के विवाह न करने से भी शायद वह अंदर ही अंदर घुलते थे। हालांकि अब पंकज ही नया जमाना संभाल रहे हैं। ढलती उम्र के साथ देह ने राधा कृष्ण कुकरेती का साथ देना बंद कर दियापारकिंसन की बीमारी हो गई । आंखों से दिखना कम हो गया तो सामाजिक गतिविधियां भी कम हो गईं। अंतिम सांस तक भी पहाड़ की पीड़ा रह रहकर उनकी जुबान पर आ जाती। पर्वतीय क्षेत्रों तक सुविधाएं कैसे पहुंचेगीपलायन से खाली होते पहाड़पहाड़ के विकास को लेकर अफसरशाही और राजनीतिज्ञों का उपेक्षापूर्ण व्यवहारविकराल होता जाता भ्रष्टाचारसांप्रदायिकता जैसे मुद्दे उन्हें सालते रहते। आखिरकार लंबी बीमारी के बाद 17 जुलाई 2015 को उन्होंने अंतिम सांस ली। राधा कृष्ण कुकरेती के हर सुखदुख में साथ देने वाली वृद्ध पत्नी इंदिरा कुकरेती आज अपने बेटी दामाद के साथ देहरादून में बंजारावाला में रहती हैं। वह उनका संबल भी थीं। राधा कृष्ण कुकरेती की इच्छा थी कि उनका अंतिम संस्कार लाल झंडे में लपेटकर बिना किसी कर्मकांड के हो मगर मृत्यु के बाद देह पर किसका बस होता है। नाते रिश्तेदारों की इच्छा के मुताबिक हरिद्वार में धार्मिक रीति रिवाजों से ही उनका दाह संस्कार हुआ।

पहाड़(20-21) स्मृति अंकः एक से साभार

अपने शब्दों में सेरेना विलियम्स

$
0
0
यह हमारे लिए गर्व की बात है कि वर्ष 2008 के आस-पास इंटरनेट की दुनिया में अपने लिखे हुए के प्रकाशन के लिए यादवेन्द्र जी ने सर्वप्रथम इस ब्लाग को ही चुना। दूसरी भाषओं के अनुवाद ही नहीं, यादवेन्द्र जी की रचनाएं भी इस ब्लाग को तब से ही समृद्ध करती रही हैं।

इस दौरान अनुवादों पर आधारित उनकी दो किताबें प्रकाशित हुई हैं।

हिंदी की दुनिया यादवेन्द्र जी को उनके अनुवादों की वजह से ही नहीं, उनके विषय चयन से भी पहचानती है। टेनिस खिलाड़ी सेरेना विलियम्स के जीवन संघर्ष का ब्योरा प्रस्तुत करने की कोशिश उनकी अगली पुस्तक का विषय है।

प्रस्तुत है संभावना प्रकाशन,हापुड़ से इस साल के अंत तक प्रकाशित होने वाली उनकी किताब का एक अंश।

यादवेन्द्र

 

हालाँकि सेरेना अपने बारे में व्यक्तिगत विवरणों का ज्यादा खुलासा करने की अभ्यस्त नहीं हैं फिर भी मीडिया में उपलब्ध उनके कुछ इंटरव्यू से लिए गए उद्धरणों के आधार पर उनकी शख्सियत को समझना कुछ कुछ संभव है : 

 

वैसे मैं बहुत साफ तौर पर तो नहीं जानती लेकिन मुझे लगता है कि मैंने जब से होश संभाला तब से मुझे मालूम है कि मैं काली हूं। जिस दिन से मैं टेनिस की दुनिया  में आई हूँ  उस दिन से मुझे ऐसा ही लगता है। जब हम छोटे थे उस समय के बारे में बताती हूँ : हम घर से बाहर निकल कर पास के पार्क में जाते थे जहाँ  हम खेलने की प्रैक्टिस करते थे। उन पार्कों में हमें हमेशा गोरे लोग दिखाई देते थे , शायद ही कोई काला इंसान दिखाई देता था...वे वहाँ  टेनिस खेला करते थे। जहाँ  तक मेरी स्मृति जाती है, मुझे लगता है कि शुरू से मुझे मालूम था : मैं काली हूँ । मुझे यह भी मालूम था कि मैं औरों से थोड़ी अलग हूँ , जो मैं कर रही हूँ वह औरों से कुछ अलग है। हमारे साथ हमारा परिवार होता था, वीनस होती थी हमारी अन्य बहनें भी होती थीं।एक बार की बात याद आती है जब मैं और वीनस प्रैक्टिस कर रहे थे, आसपास के तमाम गोरे लड़के हमारे पास आये और हमें घेर कर खड़े हो गए -वे ब्लैकी ब्लैकी कह कर हमें चिढ़ाने लगे।तब मेरी उम्र सात साल के करीब रही होगी... मुझे अच्छी तरह याद है,उनका चिढाना सुन कर मेरे मन में निश्चय आया : मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता,तुम्हें जो कहना हो कहते रहो। अब सोचती हूँ तो लगता है कि उस उम्र में ऐसी बातें सोचना बहुत सामान्य नहीं था, उसके लिए बहुत हिम्मत चाहिए.... वह हिम्मत मुझ में शुरू से ही थी।

 

मेरे माता पिता शुरू से यह चाहते थे और हमें सिखाते थे कि हम जो हैं जैसे हैं,उसके लिए हमारे मनों में किसी तरह की शर्मिंदगी नहीं बल्कि गर्व का भाव होना चाहिए।      अफ़सोस यह कि अपने आसपास हम देखते हैं बहुत सारे काले लोगों -खास तौर पर युवाओं  को -हर पल यह कह कर निरुत्साहित किया जाता रहता है कि तुम बदसूरत हो...तुम्हारे केश भद्दे लगते हैं...तुम्हारी त्वचा कितनी काली है। हमें शुरू से खुद को प्यार करना, खुद को सम्मान देना सिखाया गया। मेरे डैड हमेशा कहते कि तुम्हें अपना इतिहास अपनी विरासत जाननी चाहिए - जो अपनी विरासत  अपना इतिहास जानता है वही अपने भविष्य को महान ऊँचाइयों तक ले जा सकता है। हम लोगों को शुरू से टीवी पर अपने इतिहास, अपने संघर्षों, अपने विरासत के प्रोग्राम देखने को कहा जाता था .......एलेक्स हेली के आत्मकथात्मक उपन्यास पर आधारित रूट्स जैसे प्रोग्राम - इस तरह के कार्यक्रम हम जरूर देखते थे और ढूंढ ढूंढ कर देखते थे जिससे हम अपने इतिहास से रू ब रू हो सकें। जब आप अपने पुरखों को इस तरह के संघर्षों से जूझते हुए विजयी होकर निकलते हुए देखते हैं तब आपका मन गर्व से भर जाता है और भविष्य के लिए रास्ते खुलते हैं। माया एंजेलू ने भी तो अपनी कविता में कहा है: हम गुलामों की उम्मीदें हैं, हम गुलामों के सपने हैं। यह पता चलने के बाद कि अपने पुरखों के ऐसे कठिन संघर्षों की बदौलत आज हम खुली हवा में सांस ले रहे हैं और ढ़ंग की जिंदगी जी रहे हैं , मैं काले रंग के अलावा किसी और रंग में जन्म नहीं लेना चाहती। किसी और कुल वंश (रेस) का  सैकड़ों सैकड़ों सालों का ऐसा कठिन संघर्ष का इतिहास नहीं रहा है और यह तो जगजाहिर है कि मजबूत इंसान ही काल के थपेड़ों को झेल कर जिंदा बच पाते हैं,पनप पाते हैं - कोई शक नहीं कि हम काले लोग शरीर और मन दोनों से सबसे मजबूत लोग हैं।अपने जीवन के पल पल मैं अपना काला रंग धारण कर के गौरवान्वित महसूस करती हूं।

 

वीनस ने और  मैंने टेनिस की दुनिया में जब से कदम रखा है सफलता हमारे पक्ष में रही है और हम दोनों एक के बाद एक अगली  सीढ़ी पर चढ़ते गए हैं। हम दोनों में एक और बात समान थी कि हम अपने किए को लेकर कभी किसी तरह की शर्मिंदगी नहीं महसूस करते थे।हम अपने केशों में जिस तरह की लड़ियाँ  बनाते थे उसको लेकर हमें कभी यह नहीं लगा कि घर से बाहर निकलेंगे तो कैसा लगेगा। गोरों की दुनिया का खेल है टेनिस और हम काले थे लेकिन हमें कभी उनके बीच रहकर खेलते हुए डर नहीं लगता...यह कोई सहज सामान्य बात नहीं थी पर हममें थी।

 

हमारी माँ ने हमें बचपन से भावनात्मक रूप से मजबूत बनाया जिससे जब दर्शक हमारे काले होने या स्त्री होने को लेकर फब्तियाँ  कसें या हमें निशाना बनाएँ तो मालूम हो हमें उससे कैसे निबटना है। उन्होंने हमें यह पाठ पढ़ाया कि हम जैसे हैं  उस पर किसी तरह की शर्मिंदगी न महसूस करें - खास तौर पर अपने केश और शारीरिक बनावट को लेकर , अपनी विरासत, अपने पुरखों के संघर्ष को लेकर मन में निरंतर गर्व का भाव महसूस करें। मुझे उनकी परवरिश का यह पक्ष सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण लगता है। मैं अपनी बेटी को इन्हीं मूल्यों के साथ बड़ा कर रही हूँ ।

 

 जब मैं किसी काम को हाथ लगाती हूँ  तो उतना फोकस अपने काम में लाती हूँ  जिससे मैं दुनिया में सर्वश्रेष्ठ बन जाऊँ - और ऐसा नहीं कि मैं इतने से संतुष्ट हो जाती हूँ   बल्कि निरंतर और बेहतर काम करने की कोशिश करती हूँ । काफी कम उम्र में - जहाँ  तक मुझे याद आता है 17 साल की उम्र में - मैंने अपने बारे में अखबारों में छपा कोई समाचार पढ़ना छोड़ दिया था।मुझे लगता है कि इस आत्मसंयम के कारण मुझे बहुत लाभ हुआ, मैं अपने खेल पर ज्यादा फोकस कर पाई। मैं उन दिनों को याद करती हूँ तो मुझे लगता है  मेरे खेल की ज्यादा नुक्ताचीनी इस लिए की जाती थी क्योंकि मैं मुझमें आत्मविश्वास कूट कूट कर भरा हुआ था - लोगों को ताज्जुब होता था मैं गोरी नहीं बल्कि काली हूँ , गोरों का खेल टेनिस खेलती हूँ  और आत्मविश्वास से इतनी लबरेज हूँ , ऐसा कैसे हो सकता है?

 

मैं अपने आप को हमेशा यह कहती थी कि मैं एक दिन दुनिया की नंबर एक टेनिस खिलाड़ी बनूँगी, मुझ में वह काबिलियत है। और हाँ मैं क्यों न सोचूँ  ऐसा - जब मैं दुनिया के शिखर पर होने के बारे में सोचूँगी ही नहीं तो मैं उस श्रेणी का खेल खेल भला कैसे सकती हूँ ?

 

एक समय ऐसा था जब अपने शरीर को लेकर मैं खुद भी असहज रहती थी, मुझे लगता था कि मैं बहुत बलवान और हृष्ट पुष्ट हूँ । फिर एक सेकंड को सोचती: कौन कहता है कि मैं इतनी बलवान और तगड़ी हूँ ? इसी शरीर ने तो मुझे दुनिया का महानतम खिलाड़ी बनाया, मैं उसके बारे में ऐसी ऊल जलूल बातें भला क्यों सोचने लगी।और आज मेरा यही शरीर एक स्टाइल बन गया है, मुझे इसके बारे में सोच सोच कर बहुत अच्छा लगता है। अब वह समय आ गया है जब मेरा यही शरीर दुनिया भर में एक स्टाइल बन कर धूम मचा रहा है। यहाँ  तक पहुँचने में वक्त लगा - जब मैं पीछे मुड़ के देखती हूँ  तो अपने अपनी मॉम और डैड का शुक्रिया अदा करना कभी नहीं भूलती जिन्होंने बचपन से मुझ में विश्वास कूट कूट कर भरा।

ऐसा भी तो हो सकता था कि वे  रंग,केश और शरीर को लेकर मुझे औरों की तरह हतोत्साहित करते... तब तो मैं आज जिस सीढ़ी पर हूँ  वहाँ  तक पहुँचने का कोई सवाल ही नहीं होता। तब मैं अलग तरह से अपना जीवन जीती,अलग ढंग की एक्सरसाइज करती, कोई और अलग ही काम कर सकती थी। आज यहाँ खड़े होकर मैं जो कुछ भी हूँ , जैसी भी हूँ  उसको लेकर  बेहद खुश हूँ ,जिन लोगों ने मुझे इस मुकाम तक पहुँचने में मदद की उनकी  शुक्रगुजार हूँ । मुझे इस रूप में ऐसा होना बहुत रास आ रहा है, यहाँ खड़ी होकर मैं बेहतर और शक्ति संपन्न महसूस कर रही हूँ।"

 

अपनी आत्मकथा "क्वीन ऑफ़ द कोर्ट : ऐन ऑटोबायोग्राफ़ी"में सेरेना विलियम्स बचपन का उदहारण देती हैं कि अपने को सर्वश्रेष्ठ मानने की धुन मेरे  ऊपर इस कदर सवार थी कि प्रेरक उद्धरणों को कागज़ पर लिख कर मैं  अक्सर अपने रैकेट बैग के ऊपर उन्हें चिपका देती स्व मार्टिन लूथर किंग जूनियर का यह उद्धरण मुझे  बेहद प्रिय था :"अपने भावों को चेहरे पर मत आने दो तुम काले हो और तुममें कुछ भी झेल लेने की कूबत है ....डटे रहो डिगो नहीं ,झेल लो जो भी सामने आये .... बस तन कर खड़े रहो। " और "शक्तिशाली बनो काले हो तो क्या हुआ अब तुम्हारे चमकने निखरने का वक्त आ गया है अपनी श्रेष्ठता पर भरोसा रखो। लोग तुम्हें क्रोधित देखना चाहते हैं .... क्रोध करो,पर ऐसे करो कि लोगों को यह आग दिखायी न दे।" 

जाहिर है उन्हें अपनी ऐतिहासिक भूमिका और जिम्मेदारी का भरपूर एहसास है तभी तो वे कहती हैं :"मैं खुद के लिए खेलती हूँ पर साथ साथ उनके लिए भी खेलती हूँ जिनकी हैसियत मुझसे ज्यादा बड़ी है - मैं उनका प्रतिनिधित्व भी करती हूँ। मैं अपने बाद आने वाली पीढ़ी के लिए भी दरवाज़े खोलती हूँ।"

 

(सेरेना की तस्‍वीरें इंटरनेट से साभार ली जा रही हैं)


व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह की पुरज़ोर आवाज़: "अस्थिफूल"

$
0
0

 

2013 से 2019 तक का कोलकाता प्रवास जिन तीन बेहतरीन इंसानों की वजह से मेरे जीवन की अभिन्‍न स्‍मृति हुआ है, उनमें जीतेन्‍द्र जितांशु, नील कमल और गीता दूबे को भुला पाना नामुमकिन है। गीता के व्‍यवहार में बेबाकी प्रमुखता से पाई है। बहुत भरोसे की मित्र हैं गीता दूबे। खुददार हैं। गीता स्‍कॉटिश चर्च कॉलेज, कोलकाता में पढ़ाती हैं। कविताएं लिखती हैं। आलोचनात्‍मक टिप्‍पणियां लिखती हैं। साहित्यिकी संस्‍था में सक्रिय रहती हैं।

हिंदी की दुनिया के सामने यह खुलासा करने पर मुझे गर्व हो रहा है कि मेरे अभी तक के जीवन के अनुभव में इतनी अध्‍ययनशील महिला से यह मेरा पहला ही परिचय रहा। दोस्‍ताने के साथ में अनायास ही जब भी किसी पुस्‍तक की बात होती, मालूम चलता था कि गीता दूबे ने वह किताब पढ़ी हुई है। उनके निजी संग्रह की किताबों से मुझे भी पढ़ने के अवसर मिलते रहे। कथाकार अल्‍पना मिश्र के उपन्‍यास "अस्थिफूल"की यह समीक्षा गीता दूबे ने मेरे ऐसे आग्रह पर की है जबकि पुस्‍तक की हार्ड कॉपी भी मैं उपलब्‍ध न करा सका। उपन्‍यास का पीडीएफ ही उन्‍हें भेज पाया था। उसे उधार के खाते में डाला हुआ है। वह तो भिजवानी ही है।  

वि.गौ.

गीता दूबे

15 अगस्त 1947 को भार आजाद हुआ लेकिन यह आजादी विभाजन के कंधे पर चढ़कर आई। अपने नेताओं की बात को भारतवासियों ने स्वीकार कर लिया कि विभाजन के बिना शायद आजादी का सपना पूरा ही नहीं हो सकता और आजादी की खुशी के रंगों के बीच  विभाजन का बदनुमा दाग  हमेशा अखरता और कसकता रहा। 1947 में विभाजन का जो दुस्वप्न हमने देखा था, वह पहला भले ही था अंतिम बिल्कुल नहीं। उस दिन तो विभाजन की महज शुरुआत हुई थी, तब से देश में लगातार होनेवाले विभाजनों का सिलसिला अब भी जारी है, कभी भाषा, कभी प्रांत, तो अभी जाति के नाम पर। बड़े -बड़े राज्य दो टुकड़ों में बंटकर दो नामों से तो जाने गए लेकिन इससे वह कितना समृद्ध या अशक्त हुए यह एक बहस सापेक्ष प्रश्न है। कुछ बड़े राज्य जिस तरह दो खंडों में बंटे उसी तरह बिहार भी विभाजित हुआ और झारखंड अस्तित्व में आया। उत्साही कार्यकर्ताओं और आंदोलनकारियों ने"धुसका चना, खाएंगे झारखंड बनाएंगे"का जुझारू उद्घोष करते हुए लंबे आंदोलन के बाद झारखंड तो बना ही लिया, साथ ही गर्व से अपने ही बिछड़े भाइयों को चिढ़ाते हुए कहा भी-"रबड़ी मलाई खइलू , कइलू तन बुलंद/ अब खइहा शकरकंद, अलगा भइल झारखंड।"लेकिन खुशी की इस गर्वोक्ति के पीछे आवाज की जो अनुगूंज थी वह आम जनता की नहीं उन ऊंची- ऊंची कुर्सियों पर बैठे हुए नेताओं की थी जिन्हें झारखंड की वन संपदा का दोहन करके अपनी रोटियाँ ही नहीं सेंकनी थी बल्कि उनपर मलाई की गाढ़ी परत भी थोपनी थी जिससे उनके और उनके चहेतों के शरीर और संपत्ति का आयतन  बढ़ता जाए और जिस आम जनता के उत्थान के लिए नया प्रदेश बना था वह भूख भर भात को तरसती हुई तड़प -तड़प कर दम तोड़ दे। जिस वनसंपदा पर झारखंडियों का सहज अधिकार था उससे उन्हें बेदखल कर दिया गया। कभी देश और समाजविरोधी होने का आरोप लगाकर तो कभी कोई नई दफा लगाकर उन्हें जेलों में कैद कर दिया गया। भूख की यह आग इतनी भयंकर थी कि इसमें उनकी जमीन ही नहीं खाक हुई बल्कि उनकी अस्मिता भी भस्म हो गई। परिवार बिखर गया। खुले जंगल में कुलांचे भरनेवाली उनकी बेटियाँ दरबदर हो गईं। रोली की तरह बहुत से बच्चे कुपोषण के कारण असमय ही काल कवलित हो गए। बाहरी लुटेरों ने उन्हें इस तरह लूटा कि उनकी कथाएँ, गीत, सपने कुछ भी बाकी न रहे। घर की लाडली बेटियाँ जिनकी चहचहाटों से घर गूंजता ही नहीं संवरता भी था, जो छोटी सी उम्र में खुद को संभालने से ज्यादा परिवार की खुशियों के बारे में और छोटे भाई बहनों की भूख और उनके भविष्य के बारे में सोच- सोचकर अपने सपनों को बिसार देती थीं, कभी मांसलोभी नरपशुओं को बेच दी गईं तो कभी शहर में नौकरी करने के लिए जाकर शोषण के ऐसे अनवरत चक्र का हिस्सा बनीं कि उसे ही अपनी नियति मानकर उस दलदल से निकलने की बात भी भूल गईं। उन्हें और उनके परिवार वालों को भरपेट भात खिलाने का सपना दिखाकर इस कदर लूटा और चींथा गया कि वह अपने देह, मन और सपनों को ही भुला बैठीं।


1968 में महेश कौल निर्देशित और राजकपूर -हेमा मालिनी अभिनीत एक फिल्म आई थी "सपनों का सौदागरजिसमें फिल्म का नायक अन्य चरित्रों के निराशहताश जीवन और मन में सपनों की फसल बोते हुए उन्हें जिंदगी जीने का हौसला देता हैउनकी खोई हुई खुशियाँ उन्हें वापस लौटाने की कोशिश करता है। लेकिन फिल्मी सच्चाई दुनियावी सच्चाई से अलग होती है। शायद इसीलिए इस उपन्यास ही नहीं देश में भी सपनों के तमाम सौदागर नेताओं या समाज सुधारकों के वेश में घूमते हैं जो लोगों को जीने का हौसला देने के बजाय उनकी बची -खुची उम्मीदें भी उनसे छीन लेते हैं। देश की आम जनता को बार -बार सपनों की यह झूठी फसल बेची जाती है जो न तो उनकी भूख मिटा सकती है न ही उनका जीवन सुधार सकती है। यह झूठा छलावा उनकी जिंदगी को बदरंग करते हुए उनकी आंखों और मन का हर सपना उनसे छीन लेता है । इसके बावजूद जनता बार बार तथाकथित जनसेवकों पर भरोसा करती है और आंखों में उम्मीद का एक सपना सजोने की शर्त पर अपनी जिंदगीअपनी सांसों तक को गिरवी रख देती है। लेकिन धोखाधड़ी की यह साजिश धीरे -धीरे आम लोगों की समझ में आने लगती है और वे इन 'सपनबेचवालोगों को पहचानकर इनसे दूरी बनाने लगते हैं।

अपने ही देश, प्रांत और अपने सुख के लिए बने नये प्रदेश के अंदर निरंतर शोषित होते और वहाँ से बेदखल हो दर दर बिखरते इन तमाम पात्रों की दर्दभरी कहानियों के साथ पूरे देश की धमनियों में लाइलाज कैंसर की तरह पसरते   भ्रष्टाचार और उससे रिसते जहर के साथ उसके शिकार आमजनों की पीड़ा के दंश के तमाम उदाहरणों के साथ शोषण के चक्र के तमाम कोणों को सुविख्यात कथाकार अल्पना मिश्र ने अपने उपन्यास"अस्थिफूल"में बेहद तल्खी के साथ बयान किया है।

असल जिंदगी की परेशानियों और जिल्लतों को कथा के ताने बाने में कसकर, लेखिका देश की वर्तमान स्थिति पर गहरी और आलोचनात्मक दृष्टि डालती हैं। झारखंड, वहाँ का जन जीवन और चुनौतियां भले ही उपन्यास के केन्द्र में हैं लेकिन कथा को विस्तार देती हुई अल्पना में पूरे देश की स्थिति पर अपनी विहंगम दृष्टि डालते हुए उसके हर कोने की समस्याओं को समेटने की भरसक कोशिश करती हैं। इसी तरह स्त्री भी आलोच्य उपन्यास के केन्द्र में भले है लेकिन लेखिका सिर्फ उस स्त्री का ही नहीं बल्कि देश का भी शोषण करनेवाले सरकारी- गैरसरकारी संस्थाओं और कर्मचारियों पर अपनी कलम से प्रहार करते हुए उनके छद्मवेश को छिन्न भिन्न करते हुए उसके वास्तविक स्वरूप को जनता के सामने उजागार करती हैं।

1968 में महेश कौल निर्देशित और राजकपूर -हेमा मालिनी अभिनीत एक फिल्म आई थी "सपनों का सौदागर"जिसमें फिल्म का नायक अन्य चरित्रों के निराश- हताश जीवन और मन में सपनों की फसल बोते हुए उन्हें जिंदगी जीने का हौसला देता है, उनकी खोई हुई खुशियाँ उन्हें वापस लौटाने की कोशिश करता है। लेकिन फिल्मी सच्चाई दुनियावी सच्चाई से अलग होती है। शायद इसीलिए इस उपन्यास ही नहीं देश में भी सपनों के तमाम सौदागर नेताओं या समाज सुधारकों के वेश में घूमते हैं जो लोगों को जीने का हौसला देने के बजाय उनकी बची -खुची उम्मीदें भी उनसे छीन लेते हैं। देश की आम जनता को बार -बार सपनों की यह झूठी फसल बेची जाती है जो न तो उनकी भूख मिटा सकती है न ही उनका जीवन सुधार सकती है। यह झूठा छलावा उनकी जिंदगी को बदरंग करते हुए उनकी आंखों और मन का हर सपना उनसे छीन लेता है । इसके बावजूद जनता बार बार तथाकथित जनसेवकों पर भरोसा करती है और आंखों में उम्मीद का एक सपना सजोने की शर्त पर अपनी जिंदगी, अपनी सांसों तक को गिरवी रख देती है। लेकिन धोखाधड़ी की यह साजिश धीरे -धीरे आम लोगों की समझ में आने लगती है और वे इन 'सपनबेचवा'लोगों को पहचानकर इनसे दूरी बनाने लगते हैं। सुजन महतो, बिरजू, पलाश, इनारा, चंदा, दीपा आदि तमाम पात्रों की आंखों में सुबह के फूल की तरह उगा यह सपना धीरे -धीरे मुरझाता जाता है। हालांकि इन प्रकृतिप्रेमी झारखंडी लोगों के सपने कोई बहुत बड़े नहीं थे। पेट भर भात और अपनी जमीन और जंगल पर स्वतंत्रता से विचरने और वहाँ की प्राकृतिक संपदा का उपभोग करने के साथ ही उसका संरक्षण करने का सपना ही वह देखते थे। लेकिन आंदोलनकारियों ने झारखंड को अलग राज्य बनाने का सपना तो पूरा किया पर वहाँ के मूल निवासियों अर्थात झारखंडियों को अपनी ही जमीन से बेदखल होना पड़ा। जिस किसी ने इसका विरोध किया उन्हें इस तरह बेदर्दी से कुचल दिया गया कि उनके सहज स्वाभाविक जीवन की लय बाधित होकर बिखर गई। बीजू जैसे तमाम बच्चों का परिवार तिनका तिनका ऐसे  बिखरा कि भाई और पिता जब अपनी बिखरी- बिछड़ी, बहन- बेटियों को खोजने निकले तो उनका रास्ता रोकने के लिए तमाम कानूनी अड़चनें खड़ी हो गईं। बहन द्वारा भाई और बेटी द्वारा पिता को पहचान लेना ही काफी नहीं था ,उस पहचान का कानूनी कागज पेश करना भी जरूरी था और भारत जैसे विकासशील देश में साधारण आदमी के लिए ये कानूनी कवायदें कितनी मुश्किल होती हैं यह तो भुक्तभोगी ही जानता है।

उपन्यास झारखंड की वन संस्कृति, आदिवासी संस्कारों और लोककथाओं का वर्णन करता हुआ वहाँ ढोंगी दिकुओं के कब्जे की कहानी भी कहता है। सीधे -सादे वनवासियों के दिलों दिमाग को विकास का सपना दिखाकर तथाकथित उद्धारकर्ता किस तरह फुसलाकर कब्जा लेते हैं यह लेखिका संकेतों और छोटी -छोटी लोककथाओं के माध्यम से बड़ी कुशलता से बयान करती हैं लेकिन लोककथाओं का सहज स्वाभाविक और तयशुदा सुखद अंत वास्तविकता की जमीन पर आकर अपना रूप बदल लेता है। कथा की सोनचंपा न केवल अपने साहस और शक्ति से जंगलवासियों को अभय देती है बल्कि शापग्रस्त राजकुमार की नियति को भी बदल देती है लेकिन वास्तविक कहानियों की वनकन्याओं की नियति बिल्कुल अलग होती है। वह अपनी गरीबी और भुखमरी के शाप से मुक्ति पाने की कोशिश में एक ऐसे यंत्रणा की सुरंग में कैद हो जाती हैं जहाँ से निकलने के सारे रास्ते बंद कर दिए जाते हैं। दुख की नीली नदी में तैरते- तैरते अंततः वह किनारे पर पहुंचने का हौसला भी खो देती हैं। पथराए हुए तन मन के साथ वह अपनी जिंदगी की टूटी फूटी नाव को हवा की मनमर्जी के हवाले कर देती हैं। पलाश और इनारा या फिर रानी सुंदरी जैसी तमाम किशोरियों का जीवन झारखण्ड की बेबस लड़कियों की जिंदगी की सच्ची तस्वीर पेश करता है। आलोच्य उपन्यास मेँ सिर्फ झारखंड नहीं बल्कि संवासिनी गृह में रहने को बाध्य देश के हर हिस्से की लड़कियों की तकरीबन एक समान नियति को दर्शाया गया है। उत्तर भारत के एक बड़े हिस्से में वह सम्मान रक्षा के नाम पर खाप पंचायत के निर्दय फैसले का शिकार होती हैं। संतोष की सहेली को मारकर पेड़ पर लटका दिया जाता है। संतोष जैसी स्त्रियों को परिवार की कृपा से अगर शिक्षा की थोड़ी रोशनी मुहैय्या होती भी है तो उसके पीछे परिवार का स्वार्थ छिपा होता है। यह रोशनी भी उतनी ही मिलती है जिसमें वह किताब बांचकर, डिग्री हासिल करके पैसे कमाने और परिवार को आर्थिक समृद्धि के रास्ते पर बढ़ाने में सक्षम हों। जैसे ही वह किताब बांचने से आगे बढ़ते हुए किताब लिखने या इतिहास बदलने के साथ अपनी इच्छानुसार फैसले लेने के रास्ते पर आगे बढ़ने का हौसला सहेजती हैं वैसे ही उनके पांव के नीचे से जमीन खींच ली जाती है, उनके पर कतर दिए जाते हैं। लेकिन इसके बावजूद ये औरतें अपने हौसले को टूटने नहीं देतीं। संतोष को अपनी उस सहेली की चीखें चैन से सोने नहीं देतीं जिसकी मदद के लिए वह समय पर नहीं पहुंच पाई थी। इसी कारण वह अपने पास और दूर की हर बेबस और शोषित औरत के साथ बहनापे का तार जोड़ लेती है और भरसक उनकी मदद करने की कोशिश करती है। जब तक उसकी यह परोपकारी सामाजिक छवि परिवार के तथाकथित रूतबे को ऊंचाई तक ले जाती है, परिवार उसकी राह नहीं रोकता। लेकिन जैसे ही वह  समाज की तथाकथित मर्यादित छवि को चुनौती देती है, परिवार उसके परों को कतरकर उसकी उड़ान को बाधित कर देता है। स्त्री"मोलकी"हो या "ब्याही"उसकी नियति में कोई विशेष अंतर नहीं होता। दोनों का दोहन और इस्तेमाल परिवार अपनी इच्छानुसार करता है। औरतें इसे अपनी नियति मानकर स्वीकार भी करती हैं और सामंजस्य और बर्दाश्त की हदों तक जाकर परिवार की तथाकथित मर्यादा और झूठे सुख और सम्मान को बचाए रखने की भरसक कोशिश भी करती हैं। लेकिन जब हिम्मत जवाब दे जाती है तो संतोष की तरह बगावत का झंडा हाथ में उठाकर निकल पड़ती हैं, सिर्फ अपनी ही नहीं तमाम औरतों की नियति को बदल देने के लिए। इसी तरह तमाम सताई हुई संवासिनी गृह की औरतें अपने मानस को पाषाण सा मजबूत कर अपने मांस को जला तपा नष्ट कर अपनी हड्डियों को हथियार बना लेती हैं ताकि समाज के अत्याचार का सामना कर पाएं। उनकी अस्थियों को मुर्झाए बासी फूलों की तरह  नदी में बहा दिया जाए इसके पहले ही वह अपनी तमाम शक्ति को समेटकर समवेत ढंग से समाज की मान्यताओं और उसके शोषण का मुकाबला करने का संकल्प लेती हैं। लेखिका इन तमाम ब्योरों के माध्यम से समाज की तमाम महिलाओं को यह संदेश देती हैं कि अगर उन्हें अपनी उन्नति का रास्ता प्रशस्त करना है तो अपनी एकजुटता को बनाए रखना है। पुरुषतांत्रिक समाज औरत को औरत की दुश्मन बनाकर उन्हें एक दूसरे के खिलाफ खड़ा करके , लड़ाते हुए बंदर की तरह उनके झगड़ों का फैसला करता है और औरतें उसके फैसले को नतमस्तक होकर स्वीकारती हुई अपनी अस्मिता के सवाल को भूल जाती हैं। जब तक स्त्रियां इन हथकंडों को पहचानकर सतर्क नहीं होंगी उनकी स्थिति और नियति में बदलाव नहीं आएगा। अल्पना अपने उपन्यास की स्त्री पात्रों को एकजुटता का महत्व समझाती हुई संगठित होकर लड़ने और जूझने का मंत्र देती हैं।

आलोच्य उपन्यास में झारखंडी संस्कृति और उसकी विशेषताओं को पूरी समग्रता से उभारा गया है और वह सांस्कृतिक पहचान किस तरह तथापि आधुनिकीकरण और छद्म विकास के नाम पर योजनाबद्ध ढंग से धीरे धीरे धूमिल कर दी गई इसे लेखिका ने सूक्ष्मता से अंकित किया है। जिस आदिवासी संस्कृति को सम्मानपूर्वक जीवित रखने के लिए सिधू कानू जैसे लोकनायकों ने अपनी जान की बाजी लगा दी थी वही भूमि अपने सौंदर्य और स्वातंत्र्य को  खोकर किस तरह दोहन का शिकार होती है उसके संकेत भी स्थान -स्थान पर मिलते हैं। बाद की पीढ़ी के बहुत से आंदोलनकारी जो अपनी जमीन और अस्मिता की लड़ाई में अपने प्राणों तक की परवाह न करते हुए दर -दर भटकने को मजबूर हुए उन्होंने अपनी आंखों के आगे अपने आंदोलन को लक्ष्यभ्रष्ट होते और जमीन से जुड़े लोगों को बर्बाद होते हुए भी देखा। बीजू जैसे स्थानीय लोगों के सवालों का कोई जवाब इन जननेताओं के पास नहीं था क्योंकि उनके आंदोलन को बड़ी चालकी से 'हाईजैक'कर लिया गया था। स्थानीय लोगों को उनकी ही जमीन और प्राकृतिक संसाधनों से इस तरह बेदखल कर दिया गया था कि कभी आत्मसम्मान की लड़ाई लड़नेवाले अपने घर का सम्मान तक बचाने में असमर्थ हो गये थे। जिस तरह आदिवासी लोककथा का पिता हल के फाल के लिए बाघ के साथ अपनी बेटी के मांस का सौदा कर लेता है उसी तरह झारखण्ड जैसे हरे भरे प्राकृतिक परिवेश में रहनेवाले बेबस पिता अपने पेट की भूख के लिए अपनी बेटियों का सौदा झूठे ब्याह के नाम पर करके, यह सोचकर अपने मन को तसल्ली दे लेते थे कि बेटी जहाँ भी रहेगी सुख से रहेगी और कम से कम भूखे पेट तो नहीं सोएगी। भले ही वह बेटी वहाँ तिल तिलकर मरने को अभिशप्त हो। जिसे सिर्फ शारीरिक भूख मिटाने और अपने सम्मान को बढ़ाने का माध्यम मात्र माना जाए। खरीदने में जितना अधिक धन व्यय हुआ खरीददारों का अहम उतना ही ऊंचा हुआ। और इन बहुओं को पुकारने का तरीका भी कितना अमानवीय था, "मोलकी"अर्थात मोल ली गई, खरीदकर लाई गई। और एक "मोलकी"परिवार के तमाम पुरुषों की भूख शांत करने को मजबूर। उसपर तुर्रा यह कि भले ही अपने प्रांत में लड़कियों का अकाल हो, लेकिन अपने घर में बेटी नहीं पैदा होनी चाहिये। सिर्फ बेटे को ही जन्म लेने का अधिकार है भले ही उसके इंतज़ार में असंख्य बेटियों का गला कोख में ही घोंट दिया जाए। इनारा जैसी औरतें गर्भपात कराते कराते मरणासन्न हो जाती है, साथ ही देश के कई हिस्सों में स्त्री- पुरुष के बीच का आंकड़ा लगातार विषम होता जाता है।

इस उपन्यास की एक बड़ी खासियत है कि इसमें सिर्फ झारखंड , वहाँ के बिखरते परिवार, रोजगार विहीन पुरुष और शोषित प्रताड़ित स्त्रियों की कथा ही नहीं है बल्कि देश के वर्तमान परिदृश्य की अस्थिरता, राजनीतिक भटकाव और भारतीय राजनीति की मूल्यहीनता के साथ प्रशासन में अंदर तक पैवस्त भ्रष्टाचार , अमानवीयता और मूल्यहीनता को गहराई से उकेरा गया है। ऐसा नहीं कि सारे लोग बुरे हैं , कुछ लोग इस सिस्टम की सफाई करने की कोशिश भी करते हैं लेकिन या तो उनका स्थानांतरण कर दिया जाता है या फिर हत्या। आंदोलनकारियों को नक्सली बताकर जेल में ठूंस देने से लेकर उनपर अवर्णनीय अत्याचार करने और अंततः उनकी हत्या या एनकाउंटर कर देने की घटनाएं सिर्फ इतिहास में ही नहीं घटती थीं, आज भी घटती हैं और आनेवाले समय में इनमें और बढ़ोत्तरी होगी, इसके संकेत हमें उपन्यास में मिलते हैं। सोनी सोरी की याद दिलाती मणिमाला सोरी या बहनजी का दर्दनाक हश्र स्थानीय निवासियों को ही नहीं पाठकों को भी हतप्रभ कर देता है। पुलिसकर्मियों की दरिंदगी भी सिर्फ चौंकाती नहीं मानस को क्षत विक्षत कर देती है जो रक्षक की पोशाक में भक्षक बनकर रिश्तों और कर्तव्य की भी हत्या करते दिखाई देते हैं। जिन स्कूली बच्चियों ने उनकी कलाई पर बड़े स्नेह और भरोसे से राखी बांधी थी उन्हीं की अस्मिता को तार -तार करते हुए इन नरभक्षकों को जरा भी अपराध बोध नहीं होता। ऐसी घटनाएं असली जिंदगी में भी देखने/ सुनने में आती  हैं। शायद यही कारण है कि तमाम कानून बनने के बावजूद अपराध कम होने का नाम ही नहीं लेते।

  देश की वर्तमान स्थिति को विश्वसनीयता से पाठकों के सामने उकेरती हुई अल्पना विकास की राह पर तेजी से बढ़ते देश के चमचमाते गौरव चिह्नों के ठीक नीचे पसरते नारकीय बाजार की भयावहता को भी  रेखांकित करती हैं जहाँ कुछ लोग खरीददार थे तो कुछ बिचौलिए जिनके बलबूते बाजार लगातार जमता और चमकता जाता है तो कुछ लोगों की नियति महज बिकने को मजबूर सामानों की है। इस बाजार में सब कुछ बिकता है, ईमान भी। भले ही आजाद भारत में गुलामी की प्रथा का अंत हो गया हो और गुलामों की खरीद फरोख्त भी लेकिन भारत की छोटी बड़ी मंडियों में यह सिलसिला खुलेआम जारी है, इसकी झलक आलोच्य उपन्यास में भी मिलती है-

"कितनी टोकरियों में मनुष्य के अंग बिक रहे हैं....

एकदम ताजा किडनी

ताजा लीवर

धड़ धड़ धड़कता दिल

टक टक ताकती आंखें...

टटका दिमाग....

टह टह ताजे सपने

टोकरियों में सपने बिक रहे हैं....!

ताजे फूल - !

शवयात्राओं से उठा कर लाए गए फूल...

लोग उसे सजा रहे हैं

अपने घरों में !!!"

 

 अल्पना अगर इन भयावह स्थितियों का जीवंत वर्णन करती  हैं उनसे मुक्ति या स्थितियों के बदलाव की ओर भी संजीदगी से संकेत करती हैं। एक ओर जुझारू वकील और स्त्री अधिकारों के लिए लड़नेवाली संध्या और उसकी दीदी पद्मजा स्थितियों को बदलने की कोशिश में लगी हुई हैं। उनपर हमले होते हैं, शरीर घायल और अपंग हो जाता है लेकिन हिम्मत बनी रहती है और संघर्ष जारी रहता है। दूसरी ओर शोषित स्त्रियों को संगठित होकर अपनी लड़ाई खुद लड़ने का हौसला भी दिया गया है। अस्सी के दशक में स्त्री आंदोलनकारियों के बीच एक नारा बहुत जोर -शोर से गूंजा था-  "हम भारत की नारी हैं फूल नहीं चिंगारी हैं।"

ठीक इसी तरह उपन्यास की शोषित और मजलूम औरतें स्थितियों को बदल डालने का संकल्प लेती हैं और अपनी कमजोरी से मुक्ति पाकर शोषण के अनवरत चक्र को समाप्त करने के लिए विद्रोह की मशाल जलाने का साहस करती हैं। वह ठान लेती हैं कि असहाय स्त्रियों को बेचने -खरीदने के सिलसिले को हर हाल में बंद करके रहेंगी और अपनी गुलामी से अपने दम पर मुक्ति पाएंगी-

"टोकरी में बिकने को बैठी पलाश इनारा पिंकी गनेशी...गोल भवन की सीढ़ियों पर अपने जिस्म की खाल को नोंच नोंच कर अलग कर रही हैं... मांस को खुरच खुरच कर फेंक रही हैं। अपनी हड्डियों को नुकीला कर रही हैं....वहाँ बहुत से गिद्ध जो इनके जिस्म को नोंच नोंच कर खाने को आतुर थे, अब वे भयभीत हैं। उनकी आंखों में वासना की लहरें नहीं, बल्कि लड़कियों के अपनी हड्डियों से हथियार बना लेने के इरादे से खौफ छा गया है।

लड़कियों ने अपने जिस्म से खाल और मांस नोंचकर हड्डियों से हथियार बना लिया है । वे इन हथियारों की बदौलत अपने सपनखोरों के साथ जंग को तैयार हैं।।"

रोते हुए शिशुओं और संसद के बीच पल पल दूरी कम होती जा रही है।"

देवासुर संग्राम में ऋषि दधीचि की हड्डियों से बने वज्र से देवराज इन्द्र ने वृत्रासुर नामक राक्षस का वध किया था लेकिन व्यवस्था के खिलाफ एकजुट इन स्त्रियों को किसी देवराज की आवश्यकता नहीं है। अपने हथियारों के साथ वह उस हर तथाकथित देवता, इंसान या राक्षस पर धावा बोलने को तैयार हैं जिसने उनसे और उनके बच्चों से सम्मान सहित जीने का हक छीन लिया है। हर व्यक्ति को अपने अधिकारों की लड़ाई खुद लड़नी पड़ती है और आलोच्य उपन्यास की शोषित और संतप्त औरतें भी अपने बच्चों को उनका प्राप्य दिलाने के लिए, उनके रुदन को मुस्कान में बदलने के लिए उनका हाथ थामकर लंबी पर निर्णायक लड़ाई के लिए सनद्ध हो जाती हैं।

छद्म नैतिकता पर प्रहार करतीं मुक्तिबोध की कहानियां

$
0
0

  

कहानी में कथा रस की सैद्धान्तिकी वाली आलोचना ने जो परिदृश्‍य रचा है, उसने आधुनिकता को महत्‍वपूर्ण तरह से अपने लेखन के जरिये स्‍थापित करने वाले रचनाकार मुक्तिबोध को कहानी की दुनिया से बाहर धकेला हुआ है और उन पर सिर्फ एक कवि की छवि ही चस्‍पा की हुई है।  कविता के इतर कहानी, आलोचना एवं उनके अन्‍य लेखन को विश्‍लेषण करते हुए जो भी प्रयास हुए, वे भी इतने सीमित रहे कि कवि की छवि को तोड़ते, या उसका विस्‍तार करते मुक्तिबोध को देखना मुश्किल ही रहा है।

मुक्तिबोध के कथा साहित्‍य का विवेचन, उस खिड़की को खोलना ही है जो गंवई आधुनिकता के व्‍याप्‍त होते जाने वाले रास्‍ते का पता दे सकता है। गंवई आधुनिकता के भाषायी रंग-ढंग की पहचान कराने में भी सहायक हो सकता है। भाषा को मुक्तिबोध स्‍वयं कुछ ऐसे दर्ज करते हैं, भाषा विचित्र/ जिसमें शब्द हैं कलाहीन/ जिसमें प्रयोग है ग्रम्य और वे अति कठोर/ जो भी नवीन/ पर तू सुन मत ओ कलाकार/ तेरे शब्दों में लाख लाख दिलवालों का उदगार।

 आलोचक गीता दूबे ने मुक्तिबोध की कहानियों को इस जरूरी बहस की तरह ही प्रस्‍तुत किया है। कथारस वाली सैद्धांतिकी की बजाय रचना के समग्र प्रभाव को ध्‍यान में रखते हुए गीता दूबे ने बड़े साहस के साथ इस आलेख को रचा है और आधुनिकता के सवाल को तीखे तरह से उठाया। स्‍त्री मुक्ति के सवाल को सुधारवादी तरह से देखने और रचने के प्रेमचंद कालीन मुहावरें की बजाय वे राजनैतिक चेतना के उस स्‍वर को समर्थन दे रही हैं जिसका आगाज मुक्तिबोध की रचनाप्रक्रिया का हिस्‍सा रहा है।

गीता दूबे के इस महत्‍वपूर्ण आलेख को यहां प्रस्‍तुत करते हुए यह ब्‍लॉग अपने को समृद्ध कर रहा है।

गीता दूबे कोलकाता में रहती हैं। स्‍कॉटिश चर्च महाविद्यालय में हिंदी की विभागाध्‍यक्ष हैं। कविताएं लिखती हैं और लगातार लिखी रही आलोचनाओं के लिए जानी जाती हैं। 

वि.गौ.


गीता दूबे

मुक्तिबोध निसंदे एक बड़े कवि हैं और उनकी कविताएं आधुनिक हिंदी साहित्य की बहुत बड़ी उपलब्धि हैं। उन कविताओं के कई पाठ हुए हैं और संभवतः और भी पाठ होने अभी बाकी हैं लेकिन अंधेरे की बात करने वाले और देशसमाज और राजनीति के अंधेरे पक्षों को बारम्‍बार अपनी कविताओं में उकेरने के साथसाथ उधेड़ने वाले मुक्तिबोध के कवि आलोक ने मुक्तिबोध के कहानीकार का बहुत नुकसान किया है। अकादमिक साहित्यकारों ने भी लगातार उस अंधेरे को‌ गहरा करने का ही प्रयास किया। सिर्फ पाठ्यक्रम घोंटकर पढ़ने ‌और‌ पढ़ाने का दंभ करनेवाले साहित्यिक विद्वतजनों की निगाह अगर मुक्तिबोध की कहानियों त नहीं पहुंची है तो यह विडंबना मुक्तिबोध की नहीं बल्कि हमारी है। हांलाकि उनकी कहानियों पर थोड़ी बहुत बात हुई है लेकिन अंधेरा अब भी पूरी तरह से छंटा नहीं है। एक बड़ा पाठक समाज अब भी इनके विषय में अनभिज्ञ है।  

मुक्तिबोध की यह एक बड़ी खासियत है कि वह कविता, कहानी, निबंधआलोचना सब एक साथ च रहे थे और रचाव के इस निरंतर कार्य में विधागत विविधता के बावजूद रचनात्मक अंतर्संबंधता अथवा एकरूपता का निदर्शन   होता है, मसलन मुक्तिबोध कविता या कहानी तकरीबन साथ- साथ ही नहीं रचते बल्कि कई बार तो यह संयोग भी दिखाई दे जाता है कि एक ही शीर्षक से उन्होंने कविता और कहानी दोनों लिखी है। प्रश्न उठता है कि क्या यह सचमुच एक संयोग है या मुक्तिबोध स्वाभाविक रूप से अथवा जानबूझकर ऐसा कर रहे थे। यहीं यह सवाल‌ भी सिर उठाता दिखाई देता है कि मुक्तिबोध जो अपने समय के‌ एक बेहद जटिल और दुरूह कवि माने जाते रहे हैं और जिनकी कविताओं से गुजरते हुए क बार एक अंधी सुरंग से गुजरने का अहसास भी होता रहता है, वही मुक्तिबोध अपनी कहानियों में‌ बेहद सहज हैं। उनका कथ्य‌ और उद्देश्य दोनों बेहद स्पष्ट है। कहीं कोई भटकाव नहीं है लक्ष्य भी सुनिश्चित है‌ और पाठ भी एकल। एक ही पाठ में कहानी पाठकों के अंत:स्‍थल को भेदती हुईउसे उद्वेलित करती हुई प्रश्नाकुलता से भर देती है। हां, यह बात अलग है कि अगर पाठक किसी सस्ते या सतही किस्म के‌ मनोरंजन‌ के लिए  कहानी पढ़ रहा है तो‌ उसे मुक्तिबोध को‌ बिल्कुल नहीं पढ़ना चाहिए। प्रेमचंद के प्रशंसकों से माफी मांगते हुए यह कहने की हिमाकत करना चाहूंगी कि एक स्थल पर जाकर जब प्रेमचंद की कहानियां फार्मूले में बदलती हुई और आदर्शोन्मुख यथार्थ का भ्रम रचती हुई दिखाई देती हैं वहां‌ मुक्तिबोध की कहानियां यथार्थ जिंदगी क‌ पथरीली जमीन से तो टकराती ही है तथाकथित प्रगतिशीलता हो या सामाजिक नैतिकता दोनों के छद्म पर प्रहार करने का नैतिक साहस भी करत है उदाहरण के लिए जहां उनकी "ब्रह्मराक्षस" कविता को समझने -समझाने में हमें काफी मशक्कत करनी पड़ती है वहीं "ब्रह्मराक्षस का शिष्यकहानी बिल्कुल सहज है जिसे बच्चे भी समझ सकते हैं। कहा जाता है कि मुक्तिबोध ने यह कहानी बच्चों के लिए लिखी थी। इन कहानियों में प्रेमचंद की कहानियों की तरह न कोई सूक्ति वाक्य है और न ही कोई यूटोपियन अंत बल्कि यथार्थ की पथरीली जमीन से टकराकर पाठक न केवल स्तब्ध रह जाता है बल्कि तथाकथित नैतिकता से उसका मोहभंग भी होता  है।

मुक्तिबोध की कहानियों में निम्नमध्यवर्गीय जीवन के कई जीवंत चित्र दिखाई देते हैं। निम्न मध्यमवर्गीय जीवन की दीनता और विषमता अपन पूरी विरूपता के साथ मुक्तिबोध की कहानियों में उभर कर आई है। भारतीय मूल्य बोध को अगर किसी ने बचा कर रखा है तो वह है मध्यमवर्ग क्योंकि उच्च वर्ग अपने मूल्यबोध खुद गढ़ता है और निम्न वर्ग उन तथाकथित मूल्यों को चुनौती देत चलता है लेकिन मध्यमवर्ग विशेषकर निम्नमध्यवर्ग उन‌ मूल्यों को‌ अपने सीने से चिपटाए जीता है और प्रतिष्ठा के किसी और अवलंब के अभाव में उसके बलबूते ही समाज में प्रतिष्ठा की प्राप्ति करना चाहता है। 'जिंदगी की कतरननामक कहानी इस वर्ग की मानसिकता को यथार्थपूर्ण ढ़ंग से उकेरती हुई आत्महत्या के कारणों की पड़ताल करती है। कहानी का वातावरण पाठकों को इस कदर अपनी गिरफ्त में ले लेता है कि पाठक क अंतर्मन कांप उठता है और वह इस बात से सहमत हुए बिना नहीं रह सकता कि समाज में जब तक ये सारे कारण मौजूद रहेंगे तब तक आत्महत्याएं होती रहेंगी। इन कारणों में पारिवारिक विपन्नतासामाजिक हस्तक्षेप के साथ ही मानसिक उठापटक भी शामिल हैं। कोई विधवा इसलिए आत्महत्या करती है क्योंकि वह ससम्मान जीवन बिताने में असमर्थ है।‌ कहीं सामाजिक नैतिकता का छद्म बोझ न झेल पाने की वजह से भी कोई- कोई आत्महत्या करने को विवश होता है। विधवा निर्मला की आत्महत्या के बाद मुक्तिबोध उसके कारणों की पड़ताल करते हुए बेचैन हो उठते है, "जिंदगी की कोई भी अवस्थाक्षेत्रस्थिति या फल उतने बुरे नहीं होतेजब तक उन्हें किसी प्रकार के सामंजस्य का आधार प्राप्त होता रहता है। यदि वह सामंजस्य बुरा हैअपवित्र हैया अवनति की ओर ले जानेवाला हैतो उसे बदलकर नयी परिस्थिति पैदा करकेनया सामंजस्य पैदा कराना चाहिए। किंतु मैं जानता हूँनिर्मला के लिए यह असंभव ही नहींउसकी स्थिति-परिस्थिति की भयानक दु:स्थिति में इसके अलावा कदाचित ही कोई दूसरा मार्ग रहा हो।आज के तथाकथित आधुनिक समाज में जब आत्महत्याओं की संख्या कम होने की बजाय लगातार बढ़ती जा रही हैं वहाँ मुक्तिबोध की यह कहानी हमें सोचने समझने का नया रास्ता ही नहीं देती बल्कि नैतिकता के दबाव तले पिसते जीवित प्राणियों की मूर्छनाओं की बात भी करती है। लोग क्या कहेंगे और समाज क्या सोचेगा की चिंता से एक खास आभिजात्य वर्ग भले ही मुक्त हो चुका है लेकिन भारतीय समाज का एक बड़ा हिस्सा अब भी चिंता के इस पहाड़ तले दब कर पिसताघुटता और दम तोड़ता नजर आता है। मुक्तिबोध समाजिक नैतिकता की इस पैनी छुरी की तीखी धार के वारों से घायल पीड़ितों की बड़ी जमात के साथ पूरे समर्पण और सहानुभूति के साथ खड़े नजर आते हैं।  

यह सामाजिक नैतिकता हमेशा मुक्तिबोध के निशाने पर है और वह लगातार इस पर प्रहार करते हुए प्रश्न उठाते  नजर आते हैं।‌ हमारे समाज की यह मान्यता है कि स्त्री और पुरुष कभी मित्र नहीं हो सकते। समाज स्त्री पुरुष की मैत्री को अच्छी नजर से नहीं देखताउसके पास स्त्री पुरूष संबंधों का बस एक ही स्वीकृत रूप है और वह रूप अगर तथाकथित सामाजिक मान्यताओं के दायरे में आता है तो सही है अन्यथा नाजायज। "मैत्री की मांगकहानी में मुक्तिबोध ने इसी समस्या को आधार बनाया है और इस मैत्री की मांग को जायज ठहराया है। भले ही सुशीला को यह मैत्री सुलभ नहीं हो पाई लेकिन सुशीला की वेदना को शब्दबद्ध करते हुए उसके प्रति कथाकार की संवेदना पूरी शिद्दत से उभर कर आती है। सुशीला माधवराव को मित्र के रूप में चाहती है प्रेमी रूप में नहीं लेकिन समाज इस मैत्री का आकलन नहीं कर पाता और माधवराव वह मोहल्ला छोड़कर जाने का निर्णय ले लेता है। चाहते हुए भी वह जाते समय सुशीला से मिल नहीं पाता और इस तरह तथाकथित छद्म नैतिकता की हथौड़ी किस तरह इस सहजस्वाभाविक आकांक्षा को कुचलकर रख देती इसका चित्रण कहानी में बड़ी गहराई से हुआ है, "ज्यों ही माधवराव का तांगा पत्थरों पर लड़खड़ाता हुआ आगे चलने लगा कि यकायक रामाराव (सुशीला का पति) के रसोईघर की काली खिड़की खुली और वही स्तब्धपूर्ण मुख आंखों में न्याय मैत्री की मांग करनेवाला करुण दुर्दम चेहरावही स्तब्ध मूर्त भाव।  

छद्म नैतिकता की यह छुरी किस तरह मानवीय संबंधों को तार -तार करने की कोशिश करती हैयह उनकी कहानी 'प्रश्‍न' में भी उसी शिद्दत से उभर कर आया है। समाज में स्त्री और पुरुष के लिए हमेशा ही अलग -अलग मानदंड रहे हैं। विधुर पुरुष के   पुनर्विवाह को समाज सहज स्वाभाविक और उचित ठहराता है । यहां तक कि पत्नी की उपस्थिति में भी उसके एकाधिक विवाहेत्तर संबंध हो सकते हैं और इसे भी बहुत स्वाभाविक दृष्टि से ही देखा-स्वीकारा जाता है लेकिन स्त्री तो असूर्यम्पश्या है।‌ पति के अतिरिक्त किसी और से दोस्ती के बारे में सोचना भी उसके लिए पाप है और पति की मृत्यु के बाद भी उससे यही उम्मीद की जाती है कि वह मृत पति की स्मृतियों को अगोरती हुई जीवन‌ बिता दे अगर वह प्रेम या सहारे के‌ लिए किसी दूसरे पुरुष का दामन थामती है तो समाज की नजर में कुलटा हो जाती है। "प्रश्न" कहानी में यही सवाल उठाया गया है कि क्या एक विधवा को स्वाभाविक जीवन‌ जीने का कोई हक नहीं है।‌ यह कैसा समाज है जो एक असहाय विधवा स्त्री को सिर्फ इसलिए लांक्षित करता है कि वह अपना और  अपने बेटे का पेट पालने के‌ लिए‌ ही नहीं बल्कि‌ मानसिक साहचर्य के लिए भी पुरुष विशेष से स्नेह सूत्र में आबद्ध हो जाती है। लेकिन हमारा समाज न केवल उसे लांक्षित करता है बल्कि उसके बेटे को ही उसके विरुद्ध खड़ा कर देत है। बेटे की नजर में मां को अपराधी सिद्ध करने से बड़ा अपराध क्या कुछ और हो सकता हैयह सवाल पाठकों के अंतर्मन‌ को छील कर रख देता है। कहानी का आरंभ ही पाठकों को उत्सुकता से भर देता है, "एक लड़का भाग रहा है। उसके तन पर केवल एक कुरता है और एक धोती मैली सी। वह गली में से भाग रहा है मानो हजारों आदमी उसके पीछे लगे हों भाले लेकरलाठी लेकरबर्छियां लेकर। वह हांफ रहा हैमानो लड़ते हुए हार रहा हो। वह घर भागना चाहता हैआश्रय के लिए नहींपर उत्तर के लिएएक प्रश्न के उत्तर के लिए। एक सवाल के जवाब के लिएएक संतोष के लिए।और यह सवाल क्या है जो बड़ी जद्दोजहद के बाद एक छोटा बच्चा अपनी मां से पूछने का साहस कर पाता है, "ां, तुम पवित्र हो ? तुम पवित्र हो ?" हम बस कल्पना कर सकते हैं कि कैसे यह सवाल एक बालक ने अपनी जन्मदायिनी मां से पूछा होगा किस तरह उस विवश मां ने इसका जवाब दिया होगा। लेकिन  यह मुक्तिबोध के कलम की सामर्थ्य ही है कि वह उस मां को‌ अपराधिनी सिद्ध करने या महिमामंडित करने के बजाय उसे एक साधारण रूप से समाज में स्वीकार्य दिखाते हैं और उसके बेटे को समाज क एक ख्यात शिल्पी के रूप में चित्रित करते हुए गर्वपूर्वक लिखते हैं, "सुशीला की जन्मभूमिहमारा गांवधन्य है।हां यह बिंदु गौरतलब है कि मुक्तिबोध कहीं भी प्रेमचंदीय आदर्श‌ की स्थापना करते नहीं दिखाई देते। वह विधवा विवाह की बात भी नहीं करते बल्कि एक विधवा को ससम्मान स्वाभाविक जीवन व्यतीत करते दिखाई देते हैं और उनके अपने आदर्श का मॉडल है। मुक्तिबोध की इस महत्वपूर्ण कहानी की भी कोई चर्चा शायद इसलिए नहीं होती क्योंकि यह तत्कालीन मूल्यबोध या छद्म नैतिकता पर प्रहार करती हुई समाज के लिए नये मूल्यबोध गढ़ने की पहल करती है। लेकिन आश्चर्य तो तब होता है जब निर्मल वर्मा जैसे कथाकार मुक्तिबोध को कहानीकार मानने तक से इंकार करते हुए, यह स्टेटमेंट देते दिखाई देते हैं कि, 'मुक्तिबोध की कहानियां असल में कहानियों सी नहीं दीखती...' वह 'उनकी कहानियों को अधूरी कहानियां मानते हैं जो शायद किसी की प्रतीक्षा में हैं।'यह निस्संदेह एक मुश्किल सवाल है कि जो कहानियां किसी छद्म या थोपे हुए आदर्श की स्थापना नहीं करतींकोई तयशुदा हल नहीं देती बल्कि एक ऐसे समाज की स्थापना चाहती हैं जहां स्त्री को भी पुरुष की तरह जीने क समान हक मिले, हर प्राणी को उसका उचित प्राप्य मिले तो क्या उन्हें अधूरा मानना चाहिए, क्या सिर्फ इसलिए क्योंकि वे  लच्छेदार भाषा में नहीं लिखी गईं हैं या किसी तथाकथित कथा आंदोलन के तहत नहीं लिखी जा रही हैं। और अगर ऐसा मानना भी पड़े तो मेरी अपनी राय में ये कहानियां वस्तुत सामाजिक बदलाव हेतु उस आंदोलन की प्रतीक्षा में हैं जब इस तरह की स्थितियां बन पाएं जहां सभी ससम्मान जी सकें और छद्म नैतिकता से मुक्ति पा सकें।‌ स कहानी से एक बात और स्पष्ट रूप से उभरती है कि‌ मुक्तिबोध विवाह संस्था को‌ आखिरी विकल्प के रूप‌ में नहीं देख रहे थे।‌ हालांकि‌ उन्होंने स्वयं‌ प्रेम विवाह किया था लेकिन विवाह को ही वह जिंदगी का अंतिम सत्य नहीं मानते थे‌ अन्यथा आलोच्य कहानी में विधवा विवाह की संभवाना थ लेकिन संभवतः मुक्तिबोध सुधारवादी स्वर या विचार के बजाय मानव अस्मिता अथवा मानवअस्तित्व को ज्यादा महत्त्व दे रहे थे।‌ यहां एक तथ्य‌ और भी ध्यातव्य है कि जिस समय मुक्तिबोध सृजनरत थे उस समय तक हिंदी में  स्त्री विमर्श का आंदोलन अपने उफान पर नहीं था, इसके बावजूद उस दौर में भी मुक्तिबोध बड़ी दृढ़ता से स्त्री की आकांक्षाओं के साथ -साथ उसके अधिकारों की बात भी कर रहे थे लेकिन विडंबना यह है कि मुक्तिबोध के साहित्य का यह पक्ष अभी तक अंधेरे में ही रहा है। स्त्री अधिकारों के पुरोधा या पैरोकार के रूप में प्रेमचंद का नाम तो जोर- शोर से लिया जाता है लेकिन मुक्तिबोध की इस पक्षधरता पर किसी की निगाह नहीं गई।

 नैतिकता के स्थूल नियमों को मुक्तिबोध किस तरह गैरजरूरी मानते थे वह उनकी बहुत सी कहानियों में प्रकट हुआ है"वह" कहानी का नैरेटर जब अपनी बहन को उसके प्रेमी के साथ अंतरंग क्षणों में देखता है तो पहले तो वह उसे फटकारता है लेकिन दूसरे ही क्षण वह ग्लानि से भरकर सोचने लगता है कि उसे भला बहन को फटकारने का क्या हक है।‌ बहन को पूरा अधिकार है कि वह अपनी जिंदगी का निर्णय खुद ले सके। वह अपने ह्रदय पर पड़े पश्चाताप के भारी पत्थर को दूर फेंकते हुए अपनी बहन को गले से लगाकर कह उठता है, "शांताशांता... मैंने तेरा अपराध किया है।वस्तुत यहां सिर्फ स्त्री की आजादी की ही बात नहीं है बल्कि मानव मात्र की आजादी ओर उसके निर्णय के म्मान‌ ी बात भी है।‌ स्त्री अधिकारों के हिमायती माने जाने वाले प्रेमचंद के साहित्य तक में इस तरह के मुखर‌ प्रश्न‌ नहीं हैं जहां स्त्री की अपनी अलग सत्ता हो।‌ आज के उत्तर आधुनिक समय में भी साधारण परिवेश में एक अकेली स्त्री क अपनी मर्जी से जिंदगी गुजारने को‌ बहुत सम्मानजनक दृष्टि से नहीं देखा जाता है और रही बात 'सिंगल मदर'या 'अकेली मां' की तो यह साहस मशहूर हस्तियां भले ही कर लें‌ सामान्य स्त्रियां तो ऐसा करने की बात सोच तक नहीं सकती। इसके अलावा आज के सभ्य और आधुनिक समाज में भी खाप पंचायतों के दबाव में जिस तरह सम्मान रक्षा (?) के लिए दिन दहाड़े प्रेमी जोड़ों की हत्या की जाती हैं वहाँ यह कहानी प्रेम या चयन के अधिकार का सुंदर रास्ता बड़ी सहजता से दिखाती है।

भारतीय समाज की एक और समस्या है, वह है‌‌ हमारा दोहरा चरित्र, पाखंड के मुखौटे से ढंका हमारा छद्म मानवीय चेहरा, जिसने हमारी समाज व्यवस्था को तो गहराई से प्रभावित किया ही है हमारी मानसिक संरचना को भी जटिल से जटिलतम बनाते हुए हमें मानसिक रोगी तक बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। हम बातें तो मानवता की करते नहीं अघाते लेकिन  मानवता के असली हकदार तक पहुंचने के पहले ही मानवीय करुणा का हमारा स्रोत सूखता दिखाई देता है। "जंक्शन"  कहानी में मानवता के साथ ही प्रगतिशीलता के इस छद्म चेहरे को देखा जा सकता है जहां नैरेटर की करुणा एक संपन्न भले घर के बच्चे के प्रति तो उमड़ती है लेकिन गरीब के प्रति नहीं क्योंकि प्रेम भी हम सामाजिक स्तर देखकर करते हैं और सहानुभूति भी। भले ही हम समाज के निचले पायदान पर ही क्यों ना खड़े‌ हों पर हमारा प्रेम पायदान‌ से नीचे खड़े व्यक्ति पर नहीं बरसता क्योंकि उसकी कृतज्ञता हमारे अहंबोध को संतुष्ट नहीं करती।‌ यह मानव‌ स्वभाव की खासियत है कि वह मानवतावाद प्रेम और करुणा की बात उसी स्तर‌ तक करता है जहां उसे विशेष कुछ करना ‌न‌ पड़े।  इससे सहज ही यह प्रश्न जन्म लेता है कि, फिर क्या यह नैतिकता बिल्कुल फिजूल है और समाज को उसकी जरूरत नहीं। लेकिन मुक्तिबोध  नैतिकता के इस पक्ष को आवश्यक मानते हैं जो हमें आत्मस्वीकार का साहस दे सके ्योंकि यह साहस भी नैतिकता से ही जुड़ा हुआ मुद्दा है जिसे स्वीकारने से हम बचते हैं लेकिन मुक्तिबोध का नायक पहले तो अपने- आपको बचाते हुए सोचता है, "मेरा बिस्तर क्या इसलिए है कि वह सार्वजनिक सम्पत्ति बने ! शी:। ऐसे न मालूम कितने बालक हैं जो सड़कों पर घूमते रहते हैं।"लेकिन अंततः अपने वैचारिक , मानवीय भटकाव को स्वीकारते हुए कह बैठता है, "मुद्दा यह है। हां मुद्दा यह है कि वह दूसरे और निचले किस्म केनिचले तबके के लोगों की पैदावार है....जिनपर दया की जा सकती है पर बिस्तर पर जगह नहीं दी जा सकती"....वह आगे कहता है, "मैं अपने भीतर नंगा हो जाता हूँ और अपने नंगेपन को ढांपने की कोशिश भी नहीं करता।"

आत्मस्वीकार के इसी नैतिक साहस को और भी शिद्दत से पाठकों के समक्ष उजागर करने के लिए  मुक्तिबोध "मैं फिलासफर नहीं हूँकहानी में उस प्रोफेसर का चरित्र उकेरते हैं जो जरा भी आत्ममुग्धता का शिकार नहीं है इस दौर में जहां‌ सभी खुद को एक दूसरे से ज्यादा  विद्वान‌ साबित करने की होड़ में कुछ इस कदर मुब्तला हैं कि कभी- कभी वह चूहा दौड़ की तरह हास्यास्पद लगने‌ लगता है, में किसी प्रोफेसर का यह आत्मस्वीकार कि 'मैं बिल्कुल कोरा हूँ,....टैब्यूला रासा।'उसकी ईमानदारी को जाहिर करता है।  'टैब्यूला रासा'लैटिन भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है 'खाली स्लेट'।  यह कहानी इस तथ्य को उजागर करती है कि, किसी भी आदमी में विद्वाता जैसे गुण के साथ वह नैतिक साहस भी होना चाहिए कि वह अपने अंदर के‌ शून्य को भी लोगों के सामने बेझिझक परोस सके और यही ईमानदारी और साहस प्रोफेसर साहब दिखाते हैं। सवाल यह भी है कि आज तथाकथित विद्वानों की जमात में  ऐसा ईमानदार जिगर रखने वाले कितने ऐसे प्रोफेसर या फिलॉसफर मिलेंगे जो खुद को कोरी स्लेट मान सकें। शायद एक भी नहीं, और यहीं मुक्तिबोध की आलोच्य कहानी का व्यंग्य पूरी तीव्रता से पाठकों को भेद देता है।

मुक्तिबोध की एक और महत्वपूर्ण कहानी "अंधेरे में" का जिक्र करना चाहूंगी जहां लेखक की नैतिकता उसे झकझोर कर कहती हैं कि इस संसार में बगावत का झंडा बुलंद क्यों नहीं होता। 'अंधेरे में नामक अपनी विख्यात लंबी कविता में जहां‌ कवि मुक्तिबोध देशसमाज के स्याह पक्षों की काली तस्वीर उरेहते हैं वहीं कहानीकार मुक्तिबोध उस स्याह‌ को‌ रौशन‌ करने के लिए एक मात्र क्रांति का रास्ता दिखाते हैं क्योंकि अगर समाज में आमूलचूल परिवर्तन लाना‌ है तो उसे क्रांति की राह से होकर ही गुजरना‌ होगा। यह बात और है कि कहानी में क्रांति घटती नहीं दिखाई देती लेकिन उसकी जरूरत की बात जरूर कथा के मुख्य पात्र के साथ- साथ पाठक के मन में भी  उठती है और यही इस कहानी की सफलता है। इस तरह एक बात और भी स्पष्ट हो जाती है कि मुक्तिबोध की कहानियां वस्तुत उनके कविताओं की पूरक हैंकविता में जिस तस्वीर की रेखाएं नजर आती हैं कहानी में वह तस्वीर मुकम्मल होती नजर आती है। कविताओं का कुहासा कहानियों में छंट जाता है और यह बेझिझक कहा जा सकता है कि कविताओं में जटिल नजर आनेवाले मुक्तिबोध कहानियों में झट से पकड़ में आ जाते हैं और एक स्पष्ट दिशा भी दिखाते नजर आते हैं। अब इतना धैर्य तो पाठकों में भी होना चाहिए कि वह उन कहानियों को पढ़े।‌ क्योंकि पाठकों को जिस तरह क कथा रस से लबरेज मुहावरेदार भाषा में रची कहानियां पढ़ने की लत होती है वह भले ही मुक्तिबोध के यहां नहीं मिलत लेकिन कथ्य और लक्ष्य बिल्कुल स्पष्ट है और विचार तो तीर की तरह पाठकों के अन्‍तरमन में पैठ जाता है। वहां आदर्श नजर‌ नहीं आता क्योंकि यथार्थ का तीखापन‌ पूरी रुक्षता से उभरा है। और तारीफ इस बात की भी होनी चाहिए कि यथार्थ को उकेरते हुए मुक्तिबोध जरा भी लाउड होते नहीं दिखाई देते लेकिन कहानी पाठकों को बेचैन कर देती है। नैतिकता का दंश इतना तीखा होता है कि पाठक के लिए उसे झेलना मुश्किल हो जाता है जैसे 'अंधेरे में'कहानी का युवक जब रात के अंधेरे में सड़क से गुजरते हुए उसी सड़क पर सोए हुए बेघरबार लोगों से टकराता है तो कांप उठता है। उसकी मानसिक बेचैनी को मुक्तिबोध ने बेहद सधी कलम से उकेरा है, "युवक के मन में एक प्रश्न, बिजली के नृत्य की भांति मुड़-मुड़कर, मटक-मटककर, घूमने लगा- क्यों नहीं इतने सब भूखे भिखारी जगकर, जाग्रत होकर, उसको डंडे मारकर चूर कर देते हैं-क्यों उसे अब तक जिंदा रहने दिया गया।"और सोचते हुए इसका जवाब भी वह स्वयं तलाशता है, "पाप, हमारा पाप, हम ढीले-ढाले, सुस्त, मध्यवर्गीय आत्मसंतोषियों का घोर पाप ! बंगाल की भूख हमारे चरित्र विनाश का सबसे बड़ा सबूत। उसकी याद आते ही, जिसको भुलाने की तीव्र चेष्टा कर रहा था, उसका ह्रदय कांप जाता था, और विवेक-भावना हांफने लगती थी।"विवेक का यह भाव या दंश ही वस्तुतः हमारी नैतिकता का केंद्र बिंदु है और होना चाहिए, ऐसा मुक्तिबोध मानते थे।

 आमतौर पर यह माना या कहा जाता है कि अनैतिक कर्म करनेवाले ही इस संसार में सुखी हैं और नैतिकता पर टिके हुए लोग अधिकतर कष्ट ही पाते हैं लेकिन नैतिकता का दंश‌ किसी को पागल भी कर सकता है यह तो "क्लाड इथरलीकहानी को पढ़कर सहज ही समझ जा सकता है। 'क्लाड इथरली'वह विमान चालक था जिसके गिराए एटम बम से हिरोशिमा नष्ट हो गया था। अपनी कारगुजारी का दुष्परिणाम देखकर वह अपराधबोध से पगला गया। हालांकि अमेरिकी सरकारी उसे 'वार हीरो'मानकर सम्मानित करती है लेकिन वह अपने अपराध का दंड पाने के लिए सरकारी नौकरी छोड़कर ऐसी वारदातें आरंभ करता है जिससे गिरफ्तार होकर जेल जा सके लेकिन सरकार जो उसे महान मानती है, अंततः उसे उसकी इन हरकतों के कारण पागल समझकर जेल में डाल देती है। मुक्तिबोध इस पागलपन की व्याख्यायित करते हुए व्यंग्यात्मक ढंग से बड़े साहस के साथ कहते हैं, "जो आदमी आत्मा की आवाज कभी-कभी सुन लिया करता और उसे बयान करके उससे छुट्टी पा लेता है, वह लेखक हो जाता है। जो लगातार सुनता मगर कुछ कहता नहीं है, वह भोला-भाला सीधा-सादा बेवकूफ है। जो उसकी आवाज बहुत ज्यादा सुना करता है और वैसा करने लगता है, वह समाज-विरोधी तत्वों में यों ही शामिल हो जाया करता है। लेकिन जो आदमी आत्मा की आवाज जरूरत से ज्यादा सुनके हमेशा बेचैन रहा करता है और उस बेचैनी में भीतर के हुक्म का पालन करता है, वह निहायत पागल है। पुराने जमाने में संत हो सकता था। आजकल उसे पागलखाने में डाल दिया जाता है।"यहाँ यह सवाल फिर सिर उठाए हमारे सामने खड़ा हो जाता है कि, क्या इस संसार में नैतिक लोगों के लिए कोई जगह नहीं है ?‌ क्या उनकी जगह सिर्फ पागलखाने में ही बची हुई है या कि ऐसे लोगों की जरूरत ज्यादा है ।‌ क्योंकि यह पागलपन‌ ही उनकी संवेदनशीलता को‌ रेखांकित करता है। इसी कारण मुक्तिबोध ऐसी नैतिकता के साथ -साथ ऐसे पागलों और पागलखानों को समाज के लिए अति आवश्यक मानते हुए आलोच्य कहानी के एक पात्र द्वारा कहलवाते हैं, "हमारे अपने-अपने मन- ह्रदय-मस्तिष्क में ऐसा ही एक पागलखाना है, जहाँ हम उन उच्च, पवित्र और विद्रोही भावों को फेंक देते हैं जिससे कि धीरे-धीरे या तो वे खुद बदलकर समझौतावादी पोशाक पहन सभ्य, भद्र हो जाएं, यानी दुरुस्त हो जाएं या उसी पागलखाने में पड़े रहें।"कहानी के समापन की ओर बढ़ते हुए "वह"पात्र "मैं"से कहता है, "इससे यह सिद्ध हुआ कि तुम-सरीखे सचेत जागरूक संवेदनशील जन क्लॉड इथरली हैं।" सुख भोग के सागर में डूबे संवेदनहीन गैंडों के समाज में ऐसे पागलों (?) या संवेदनशील,  नैतिक लोगों की जरूरत हमेशा बनी रहती है क्योंकि नैतिकता तथाकथित यौन‌ शुचिता या दोगलेपन में नहीं बचती बल्कि सही मनुष्य होने में होती है । वही मनुष्य जो अपने सुख के लिए किसी की हत्या को अपराध समझे और वह‌ भी जो चंद चांदी के सिक्के के बदले में व्यक्ति क आजादी का अपहरण कर‌ उसे पंगु बनाने वाले शोषक की साज़िश का पर्दाफाश कर सके।‌ (पक्षी और दीमक)

मुक्तिबोध की दो और महत्‍वपूर्ण कहानियों की बात करना चाहूंगी"जलना" और "काठ का सपना" । दोनों ही निम्न मध्यमवर्गीय जीवन‌ के दो अलग- अलग चित्र हमारे सामने उकेरती हैं। लगता है जैसे दोनों में से ही मुक्तिबोध का अपना निजी यथार्थ भी प्रस्फुटित होता है। सुखी परिवार जैसे कि टीवी के पर्दे पर हंसते मुस्कुराते, प्राणवंत नजर आते हैं प्रायवैसे नहीं होते। हंसी- खुशी से उद्भासित चेहरों के पीछे भी असहनीय घुटन छिपी होती है। बहुधा वह लोगों को‌ ऊपर से नजर नहीं आती लेकिन अंदर ही अंदर वह परिवार को घुन‌ की तरह चाटती रहती है। आज के समय में अवसाद  रोग की बड़ी चर्चा होती है लेकिन पहले इसकी चर्चा करना भी अपराध समझा जाता था और अगर कहीं कोई अवसाद की समस्या होती भी थी तो उसे देवी आना या डायन का शिकार होना मान लिया जाता था।‌ मध्यमवर्गीय परिवार की इस घुटन को‌ अज्ञेय की कहानी 'गौंग्रीनमें बड़ी कुशलता से उकेरा गया था। मुक्तिबोध की कहानी "काठ का सपना" में यही जड़ता है लेकिन कहानी सरोज के रूप में एक उम्मीद को सामने रखती है। जहां 'गैंग्रीन' की मालती अपनी संतान तक के प्रति इतनी निस्पृह हो चुकी है कि उसके खाट से गिर जाने पर भी उसे कोई फर्क नहीं पड़ता वहीं मुक्तिबोध का कथानायक सरोज को का होते जीवन की उम्मीद भरी कोंपल के रूप में देखता है। यही उम्मीद का झोंका "जलना" कहानी में भी है। तमाम विषमताओं और आर्थिक तंगी के बावजूद पति हर हाल में परिवार में संतुलन बनाए रखने की कोशिश करता है। लेकिन पत्नी जिसके मन में संभवत आर्थिक तंगी के कारण पूरे परिवार, विशेषकर पति के प्रति एक अकारण आक्रोश का ज्वालामुखी फुंफकारता रहता है और जहां- तहां फूटकर बरस पड़ने को आतुर रहता है पति , बच्चों सब पर कुढ़ती नजर आती है। कथाकार के शब्दों में कहें तो, "यह वह आदमी था, जिस पर वह एक जमाने में जान देती थी। लेकिन अब वह बदल गया है। वह उसका पति है।" 'लव हेट रिलेशनशिपअर्थात घृणा और प्रेम के मिश्रित भावों का सुंदर निदर्शन‌ इस कहानी में हुआ है लेकिन अंततः एक छोटी सी दुर्घटना के कारण जब पत्नी के प्रति पति का लगाव अभिव्यक्त हो जाता है तो पत्नी के मन में भी आक्रोश के तले बहता प्रेम का झरना फूट पड़ता है और वह उसे छिपाती भी नहीं। पारिवारिक जीवन की ये दोनों कहानियां दो अलग-अलग यथार्थ को हमारे सामने रोसती हुईं किसी नारेबाजी के बावजूद मानवीय प्रेम की बात करती हैं। यहां नैतिकता का दिखावा कहीं नहीं है बल्कि नैतिकता जीवन के साथ इस तरह घुल मिल गई है कि उसे अलग से चिह्नित करने की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती। उसी सहज स्वाभाविक प्रेम और नैतिकता के मिश्रण से ही सामाजिक और  पारिवारिक जीवन का अस्तित्व कायम है, यह बात स्वतः उभर कर साफ हो जाती है। 

अंततः यह बात स्पष्ट रूप से कही जा सकती है कि मुक्तिबोध की कहानियों में मानवीय नैतिकता और सामाजिक नैतिकता जिसे छद्म या थोपी हुई नैतिकता भी कहा जा सकता है के बीच का अंतर साफ- साफ नजर आता है। इसी कारण छद्म नैतिकता और उसकी रूढि़यों पर मुक्तिबोध बेबाक होकर प्रहार करते हैं और मानवीय प्रेम को सहजता से स्थापित करते हुए एक सुंदर सुखद समाज की रचना के लिए सच्ची प्रगतिशीलता को आवश्यक मानते हुए सामाजिक क्रांति की आवश्यकता का सवाल भी उठाते हैं। और ये तमाम मुद्दे या सवाल बड़ी सहजता और बेहद सौम्यता लेकिन पैनेपन के साथ उनकी कहानियों में उठाए गये हैं। वे अंधेरे को चिह्नित करते हुए उसे भेदने की कोशिश लगातार करते नजर आते हैं। कवि आलोचक श्रीकांत वर्मा मुक्तिबोध की कहानियों के इसी पक्ष को रेखांकित करते हुए लिखते हैं, "मुक्तिबोध की कहानियों की प्रेरणा कहानी का कोई आंदोलन नहीं था। हर रचनाउनके लिएएक भयानक , शब्दहीन अंधकार को -जो आज भीभारतीय जीवन के चारों ओरचीन की दीवार की तरह खिंचा हुआ है-लाँघने की एक और कोशिश थी।"

इस कोशिश में इतनी तीव्रता है कि प्रायः वह कहानियों को बहुत ज्यादा विस्तार नहीं देतेपात्रों की भीड़ इकट्ठी नहीं करते, बस अपनी बात को या विचार के प्रकाश को उजागर करते हुए अंधकार को दूर करने या जिंदगी की अंतहीन गुत्थियों को सुलझाने की कोशिश करते नजर आते हैं। उनकी बहुत सी कहानियां प्रायः एकालाप या दो पात्रों के मध्य वार्तालाप पर टिकी हुई हैं। 'वहऔर 'मैंजैसे पात्रों की भरमार है। एक ही नाम के पात्र एकाधिक कहानियों में आए हैं जैसे एक कहानी दूसरी का विस्तार है।  जैसे वे विचारों के अंतर्प्रवाह से आपस में गुंथी हुई हों। आत्मालाप कब आत्मालोचन में बदल जाता हैपता ही नहीं चलता। कभी -कभी ऐसा भी लगता है कि कथाकार स्वयं से संवाद करता हुआ पूरी सभ्यता के साथ संवादरत है और  समाज की तमाम गुत्थियोंसमस्याओं पर विचार करते हुए एक राह तलाशने की कोशिश कर रहा है। भावों और विचारों के इसी दबाव के कारण कहानियों के संवादों का वाक्य गठन कभी- कभी थोड़ा असंगत सा भले लगे, जैसे "शांताशांता... मैंने तेरा अपराध किया है।में नैरेटर तेरे प्रति नहीं कहता, पर उसका भाव पाठकों तक संप्रेषित होने में जरा भी अड़चन नहीं आती।  हो सकता है कि मुक्तिबोध की ये कहानियां कहानी विवेचन के तथाकथित फ्रेम या मानदंडों पर फिट न बैठे लेकिन तब यह सवाल भी उठना स्वाभाविक है कि कभी न कभी तो हमें नए मापदंड गढ़ने ही होंगे। और अगर साहित्य की एक परिभाषा यह है कि वह हमें विचारशील और बेहतर मनुष्य बनाता है तो निस्संदेह मुक्तिबोध की कहानियां इस कसौटी पर खरी उतरती हैं।


कहां हो साहेबराव फडतरे?

$
0
0


चाहता तो था कि यादवेन्‍द्र जी की इधर की गतिविधियों पर बात करूं। हमेशा के घुमडकड़ इस जिंदादिल व्‍यक्ति ने पिछले कुछ वर्षों से फोटोग्राफी को लगातार अपने फेसबुक वॉल पर शेयर किया है। उन छवियों में 'अभी अभी'का होना इतना प्रभावी हुआ है कि शाम और सुबह की रोशनी में वर्तमान राजनीति के षडयंत्रों पर भी लगातार टिप्‍पणी की छायाएं बहुत साफ होकर उभरती हुई हैं। लेकिन अपने अनुवादों के लिए प्रसिद्ध यादवेन्‍द्र जी के मेल से प्राप्‍त एक महत्‍वपूर्ण पत्र को प्रकाशित कर रहा हूं। अनुवादों में यादवेन्‍द्र जी के विषय चयन उनके भीतर के उस व्‍यक्ति से भी परिचय रहे हैं, जिसकी काफी स्‍पष्‍ट झलक प्रस्‍तुत पत्र के प्रभाव में भी दिखती है।

सभी चित्र यादवेन्‍द्र जी के ही हैं।

 

वि गौ   

--
कहां हो साहेबराव फडतरे? कैसे हो? उम्मीद नहीं पक्का भरोसा है कि अब तक बंदीगृह से मुक्त हो गए होगे और लगभग पचपन साल का प्रौढ़ जीवन एक बार फिर से  पटरी  पर लौट आया होगा - चाहे अध्यात्म के रास्ते पर...या गृहस्थी के रास्ते पर।भारत भ्रमण के अपने सपने को पूरा करते हुए यदि कभी इधर पटना या बिहार का कार्यक्रम बनाओ तो तुम्हें अपने घर आमंत्रित करना मुझे बहुत अच्छा लगेगा।

(पच्चीस साल पुरानी बात है मैंने किसी अंग्रेजी अखबार या पत्रिका में(अब नाम याद नहीं) पुणे के येरवडा जेल के कैदी कवियों की कविताएं अंग्रेजी अनुवाद में पढ़ी थीं। उस पढ़ कर मैंने जेल के प्रमुख को उन कवियों की कविताओं के हिंदी अनुवाद करने की इच्छा के साथ एक अनुरोध पत्र लिखा था जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया।कुछ कवियों के साथ मेरा सीधा पत्र व्यवहार भी हुआ और उनमें से कुछ ने काम चलाऊ हिंदी में और कुछ ने मराठी में कविताएं मुझे भेजीं। कविताओं के साथ साथ उन्होंने अपने जीवन अनुभव और सजा के कारणों के बारे में भी मुझे बताया। इस सामग्री का उपयोग कर मैंने अपनी मित्र क वि सीमा शफक के साथ मिलकर "अमर उजाला"की रविवारी पत्रिका के मुखपृष्ठ के लिए एक विस्तृत आलेख तैयार किया - दुर्भाग्य से वह प्रकाशित सामग्री मेरे पास अब नहीं है पर एक कवि साहेबराव फड तरे की यह चिट्ठी आज हाथ लगी।इस चिट्ठी के कुछ अंश यहां प्रस्तुत हैं:)
यादवेन्द्र yapandey@gmail.com
09411100294






 । श्री।
।। ओम, नमो गणेशाय।।

पुणे -येरवडा
दिनांक 27- 11- 1995

प्यारे भाई साहब यादवेंद्र जी, अनोखा साथी साहेबराव का प्यार भरा सलाम

खत लिखने का वजह आपका अंतर्देशी कार्ड मिला। पढ़कर आपके दिल की बात मालुम हो गयी। मेरे यहां के साथी (कवि) उनको आपका अड्रेस देता हुं। और कविताये भेजना या नही भेजना यह उन्ही के ऊपर छोड़ देना। क्योंकि हरेकी पसंती अलग-अलग होती है। मैं और एक बात आपसे पुछना चाहता हुं। की जो कभी हिंदी में ही कविताये लिख रहे हैं। उनकी कविता भेज दिया तो चलेगा क्या? अगर आपने लिखा चलेगा, तो उन्ही को भी आपका अड्रेस दे 
दुंगा।
 आपने और चार पांच कविताये मांगी है। मैं जरूर भेज दुंगा।
 लेकीन पहले कवि तों का अनुवाद पसंत आया तो।
**********
आपको मैंने पहले "आक्रोश"नाम की कविता भेजी थी। उसमें दुःख से रोने वाला मैं अब बोल रहा है - "अब रोना छोड़ दे"। इतना फर्क मुझ में क्यु हो गया। इसकी वजह मेरी जन्मठेप सजा है। मैंने दुःख को ही गुरु बनाया। और दुःख का वजह भी ढुंडा। अब मुझे ऐसा लग रहा है। मुझे सजा हो गई यही अच्छा हुआ। मैंने अपने बिवी को खत लिखा की तुम मेरी जिंदगी में आयी, इसलिए मुझे खुदा मिला। अब छुटने के बाद अगर तुम मेरे जिंदगी में आने की कोशीस की तो मैं तेरे पैर छु लेगा। मैं तुझे मां कहुंगा। तुझे दुसरी शादी बनाना है तो बना डाल।
**********
भाई साब, अपनी दोस्ती कितने दिनों की है। यह मुझे भी मालुम नहीं। खुदा ने चाहा तो, आप से बाहर भी मुलाकात होगी। आप अपनी एड्रेस मराठी दोस्तों से लॉन्ग फॉर्म में लिखवा के भेजना (अच्छी अक्षर में) ।अब मेरी उम्र 39 साल की चालु है। अब मेरे पास लिखने के लिए कुछ नहीं है। इसलिए कविता भी लिखना बंद कर दीया है। आप मेरी नजर बाहर की दुनिया में लगी है। सन्यास ले के मैं पैदल से भारत भ्रमन  कर दुंगा। और क्या लिखुं। आपको लिखने के वजह से मैं अपनी बिती हुयी जिंदगी में घूम के आया। जो भुल गया था, उसको याद करना पड़ा। अच्छा कोयी बात नहीं। आपके आने वाले लेटर की राह देखुंगा। आपके दोस्त यार, घर वालों को सलाम।
आपका अनोखा दोस्त 
साहेबराव फडतरे

(यहां मैंने वर्तनी की अशुद्धियां प्रामाणिकता को बरकरार रखने के उद्देश्य से छोड़ दी हैं, मेरी कोई और मंशा नहीं है। यादवेन्द्र  )










राजनीति का काव्यात्मक लहजा- सीता हसीना से एक संवाद

$
0
0

 

पूंजीवादी संस्‍कृति की मुख्‍य प्रवृत्ति है कि नैतिकता और आदर्श का झूठ वहां बहुत जोर-जोर से गाया जाता है। विज्ञापनी जोश ओ खरोश के साथ। तानाकसी के चलन में पूंजीवादी चालाकियों का झूठा आदर्शीकरण किया जाता है। इतने जोर से कि कोई सच स्‍वयं को ही झूठ मानने के विभ्रम में जा फंसे। यही वजह है कि व्‍यापक अर्थ ध्‍वनि से भरे शब्‍द भी वहां अपने रूण अर्थों तक ही सीमित हो जाते हैं। देख सकते हैं कि राजनीति की लोकप्रिय शब्‍दावली में राजनैतिक शुद्धता को अक्‍सर कटटरता के रूप में परिभाषित किया जाने लगताहै। हालांकि शुद्धतावाद की राजनीति की आड़ में विवेक हीनता को छुपा लेने की चालें भी दिककतें पैदा करने वाली ही होती हैं।

अतिवाद के इन दो छोरों के बीच आदर्शों का झूला मध्‍यवर्गीय मिजाज वाला हो ही जाता है। हिंदी साहित्‍य की दुनिया में व्‍याप्‍त राजनैतिक चेतना इसी मध्‍यवर्गीय मिजाज की गिरफ्त में रही है। सिद्धांतत: स्‍वीकारोक्ति के इस माहौल में ही यथार्थोन्‍मुखी आदर्शवाद को महत्‍वपूर्ण मान लिया गया है। प्रतिफल में आधुनिकता की विकास प्रक्रिया का बाधित हो जाना और गंवई ढंग का बना रहना सामाजिकी में वास करता रहा है। सामाजिक संयोग के व्‍याप्‍त वातावरण में की जाती रही कदमताल को झूठे रचनात्‍मक आंदोलन से परिभाषित करते रहने की चाल ही गंवई आधुनिकता का पर्याय भी हुई है। जबकि आदर्शोंन्‍मुखी गंवईपन की सरलता का उठान यदि वस्‍तुनिष्‍ठ यथार्थ के साथ सिलसिलेवार बना रहता तो निश्चित ही आधुनिकता की विकासमान रेखा स्‍पष्‍ट होती चली जाती। उसके लिए जरूरी था, राजनैतिक आंदोलन न सिर्फ जारी रहें बल्कि रचनात्‍मक दायरों तक अटते चले जाएं। लेकिन मुक्‍कमिल रूप से ऐसा न हो पाने के कारण रचनात्मक गतिविधियों में मौलिक होने की कोशिशें इस कदर कुचेष्‍टाएं हुई कि गंवई आधुनिकता की सरलता भी भ्रष्‍ट होने लगी और कुतर्कों को सहारा पकड़ते हुए आधुनिकता की ओर भी पेंग बढ़ाती गईं। मध्‍यवर्गीय झूलों की आवृतियों के आयाम इन दो छोरों पर ही दोलन करते नतर आते हैं। मनोगत तरह से समाज का विशलेषण करते हुए यथार्थोन्‍मुखी आदर्शवाद की गति अपने मध्‍यमान पर स्थिर रह भी नहीं सकती थी। संतुलन की स्थिति को हांसिल करने के लिए भाषायी जतन नाकाफी होते हैं। शिल्‍पगत प्रयोगों के जरिये और अन्‍य तरह से रूपाकार गढ़ने में वह बनावटीपन का शिकार हो जाते हैं। रचनाकार के भीतर की हताशा और निराशा भी उस छुपे न रह गए को स्‍वयं दिख जाने में ही जन्‍म लेती है।

 

साहित्‍य और कला की दुनिया में 'प्रतिबद्धता'और 'स्‍वतंत्रता'का शोर बहुत ज्‍यादा रहा है। प्रतिबद्धता का स्‍वांग भरते हुए सांगठनिक दायरों के भीतर भी गिरोह बनाने वाले, प्रगतिशील कहलाना चाहते रहे। प्रगतिशीलता को मूल्‍य मानते हुए भी बौद्धिक स्‍वतंत्रता का राग अलापने वाले एवं स्‍वतंत्रता को ब्‍यूरोक्रेटिक अंदाज में बरतने वाले कलावादी खेमे में पहचाने जाते रहे हैं। राजनीति को नकारने की प्रवृत्ति दोनों ही खेमों में अपने-अपने तरह से प्रभावी है। भाषा और शिल्‍प के अतार्किक प्रयोग के नाम पर 'प्रगतिशील'भी 'बौद्धिक स्वतंत्रता'का पक्षधर हो जाने में ही ज्‍यादा गंभीर रचनाकार हो जाना चाहता है। साहित्‍य एवं कला की दुनिया की इस प्रवृत्ति पर चर्चा करने लगें तो यह टिप्‍पणीकार भी मध्‍यवर्गीय दायरे के उस व्‍यवहार से शायद ही पूरी तरह मुक्‍त दिखाई दे जिसकी व्‍याप्ति के असर से विघटनकारी शक्तियां समाज में खुद को स्‍थापित करने में प्रभावी रही हैं। स्‍पष्‍ट जानिये कि मुक्तिबोध की शब्‍दावली में कहा जाने वाला मुहावरा 'पार्टनर तेरी पॉलिटिक्‍स क्‍या है'का आशय सिद्धांत को व्‍यवहार में ढालने और अनुरूप जीवनमय होने के आह्वान की पुकार बनकर हर वक्‍त गूंजता रहने वाला ऐसा राजनैतिक बोध है जिसकी संगति आधुनिकता को ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण रूप से परिभाषित करती रहने वाली है।

 

रचनात्‍मक सक्रियता और ऊर्जा से भरी कथाकार सुभाष पंत की कहानी ''सीता हसीना से एक संवाद''को पढ़ते हुए ऐसे कितने ही सवाल जेहन में उठते हैं जो खुद के भीतर व्‍याप्‍त अन्‍तर्विरोधों से टकराने का अवसर प्रदान करते हैं। यूं तो 'पॉलीटिकली करेक्‍ट'होने की कोशिश सुभाष पंत कभी नहीं करते। उनका ध्‍येय एक ऐसी राजनीति के पक्ष को रखना होता है जिसमें आम जन के दुख दर्दों का शमन किया जा सके। 'मुन्‍नीबाई की प्रार्थना'से लेकर पहल 122 में प्रकाशित कहानी इसका साक्ष्‍य है। पहल 122 की कहानी से पहले की कहानियों में कथाकार सुभाष पंत की यह रचनात्‍मक विकास यात्रा कदम दर कदम आगे बढ़ते हुए नजर आती है। यानी पहले की कहानियों में संवेदना के स्‍तर पर पाठक को छूने की कोशिशें अक्‍सर हुई हैं। जबकि उल्‍लेखित कहानी के आशय उससे आगे बढकर बात करते हुए हैं।

वर्तमान दौर की सामाजिक चिंताओं को रखने के लिए कथाकार ने कहानी की बुनावट को विभाजन की पृष्‍ठभूमि और उस त्रासदी में की मार को झेलने वाले पात्र की मदद से बहुत से ऐसे इशारें भी किये हैं जिनका वास्‍ता दुनिया में अमन चैन कायम करने की ओर बढ़ता है। उसके लिए जिन औजारों का प्रयोग होना है, कथाकार के यहां वे औजार साहित्‍य के रूप में दिखायी देते हैं। कहानी की पात्र सीता हसीना का यह कहना यूंही नहीं, ''कृपया बताइए कि बिशन सिंह पागल है या सियासत पागल है जिसने एक लाख बीस हजार लोगों को बेघरबार किया, दस लाख्‍ लोगों को मौत के मुंह में धकेला और पिचहतर हजार औरतों को ज्‍या‍दतियों का शिकार किए जाने को मजबूर किया और यह भी कि टोबाटेक सिह कहानी बड़ी है या उसका लेखक बड़ा है ?''

घटनाओं के संयोग से बुनी जाने वाली रचनाओं पर लेखक का भरोसा हमेशा से है। साहित्‍य के प्रति लेखक के भीतर अतिशय विश्‍वास की यह उपज हिंदी की रचनात्‍मक दुनिया के बीच से ही है। लेकिन बिगड़ते सामाजिक हालातों ने शायद लेखक के भीतर के इस विश्‍वास पर सेंधमारी सी कर दी है। ऐसे में अपने भरोसे पर टिके रहना लाजिमी है। यह कहानी उस द्वंद को उभारने में भी सक्षम है। कथा पात्र सीता हसीना का सवाल इस विश्‍वास का चुनौती देता है और कथाकार के भीतर के द्वंद ही सीता हसीना के सवालों में जगह पा जाते हैं।     

  

 

पंत जी की यह कहानी समाज और साहित्‍य के जरूरी रिश्‍तों पर एक बहस शुरू करते हुए जिस तरह से अपने कथानक में प्रवेश करती है, उससे गुजरते हुए यह देखा जा सकता है कि यह कहानी आलोचना की उस शाखा से परहेज कर रही है जिसने बदलावों के झूठ में रचे गये की अनुशंसा या उसको सही दिशा मान लेने को ही सर्वोपरी माना है। ऐसी रचनाओं के कथानक सत्‍य घटनाओं वाले यथार्थ की गारंटी करते हुए भी हो सकते हैं। 'सीता हसीना'का लेखक संवेदना के धरातल पर भीतर तक हिला देने वाली रचनाओं से रिश्‍ता बनाना चाहता है। मंटो की कहानी 'टोबा टेक सिंह'का जिक्र अनायास नहीं है, लेखकीय मंशा को जाहिर करता है।

मनुष्‍य की पहचान को धर्म के साथ देखने का आग्रह, उस वैचारिकता से मुक्‍त नहीं जिसने धर्मनिरपेक्षता को 'सर्वधर्म सम्‍भाव'की तरह से परिभाषित किया है। लेकिन कहानी में लेखकीय वैचारिकी का यह तत्‍व इसलिए अनूठा होकर उभर रहा है कि यहां लेखक समाज के शत्रुओं से निपटने के लिए निहत्‍था होकर उनके घर में प्रवेश करते हुए भी उनके ही हथियारों से लड़ने की कला का नमूना पेश करता है। दुश्‍मन के खेमे में घुसकर लड़ना, निहत्‍थे होकर घुसना और दुश्‍मन के हथियारों से ही उस पर वार करना, इस कला को सीखना हो तो कथाकार सुभाष की इस कहानी को विशेष तौर पर पढ़ा जाना चाहिए। कोई रचनाकार अपने समय काल से जब पूरी तरह संवादरत रहता है, तो ही ऐसी रचनाएं सामने आती हैं।

 

समाज के विकास में राष्‍ट्रवाद एक चरण है, लेकिन अन्तिम नहीं। यह कहानी भी कुछ इसी तरह की अनुगंजों में घटित होती है। स्‍थानिकता से वैश्विक होती यह एक अन्‍तराष्‍ट्रीय फ्रेम को बनाती रचना है। यथार्थ की पृष्‍ठभूमि से उपजी और अवधारणा के स्‍तर पर जददो जहद करने को मजबूर करती यह एक राजनैतिक कहानी है। जिसकी रेंज राष्‍ट्रवाद तक सीमित नहीं है। झूठे राष्‍ट्रवाद की प्रतीक 'माता'की स्‍थापना में धर्मों की विभिन्‍नता भरे समाज की कल्‍पना करता है, बल्कि इतिहास में मौजूद इस सच को ही प्रमुख बना देता है। अपने माता-पिता के धर्मो का खुलासा करती सीता हसीना दरअसल भारत माता की उस छवि को देखने का इशारा बार-बार कर रही है जिसकी संगति में 'विशेष धर्म ही राष्‍ट्र है', मध्‍यवर्ग के बीच इधर काफी ही तक स्‍वीकार्य होता हुआ है। आपसी भाईचारे में आकार लेता समाज संरचित करने का यह तरीका उस राजनीति का पर्याय है जिसका वास्‍ता सर्वधर्म सम्‍भाव से रहा है। राष्‍ट्रवादी झूठ को फैलाने वाले भी जिसके सहारे ही जब चाहे तब प्रेममय दिख सकते हैं और जब चाहे तब 'लव-जेहाद'के फतवे जारी करते रहते हैं। पंत जी कहानी कुछ-कुछ उस ध्‍वनि को ही अपना बनाती है जिसने 'लव-जेहाद'के शाब्दिक अर्थ को विग्रहित करके उसकी नकारात्‍मक अर्थ-ध्‍वनि को चुनौती देनी शुरू की है। हालांकि अपने निहित अर्थ में यह चुनौती भी कोई ऐसा फलसफा लेकर साने नहीं आती जिसमें आर्मिक आग्रहों से जकड़ा समाज मुक्ति की राह पर बढ़ सके।     

ठीक इसी तरह पंत जी भी अपनी उल्‍लेखनी कहानी में झूठे राष्‍ट्रवादी से मुक्‍त नहीं हो पाते हैं और उसकी जद में ही बने रहते हैं। कहानी की पात्र सीता हसीना के मार्फत विभाजन के कारणों पर टिप्‍पणी करते हुए सीता हसीना का संवाद सुनाई पड़ता है- दरअसल यह ऐसा जंक्‍चर है जहां से खड़े होकर एक लेखक के भीतर परम्‍परा की गहरी जड़ों और उससे मुक्ति की चाह भरी छटपटाहट को समझा जा सकता है। उसकी गति को पहचाना जा सकता है। उसके उपजने के सामाजिक, नैतिक कारणें की पड़ताल की जा सकती है।   

      

अध्‍यात्‍म की गरिमा और कलाओं का माधुर्य कहते वक्‍त पंत जी के जेहन में क्‍या रहा होगा, यह विचारणीय है। सीता हसीना का परिचय देते हुए कथा का नैरेटर ऐसा वर्णन करता करता है। निश्चित ही यह बिन्‍दू गंवई आधुनिकता से पूरी तरह मुक्‍त न हो पाए रचनाकार का परिचय देता है। अलबत्‍ता यह कहानी अपनी बुनावट में आधुनिकता के झूठ को रचने वाली कहानियों की रफ्तार में एक हद तक शामिल होते हुए भी खुद को उससे बाहर ले आने की कोशिश भी लगती है। मेरा मानना है कि इस कहानी का महत्‍व कहानी के बीच आए इस संवाद में तलाशा जा सकता, ''मैंने एक अनिश्वरवादी धर्म के बारे में भी जाना, जिसकी मान्यता है कि सृष्टि का संचालन करनेवाला कोई नहीं है, वह स्वयं संचालित और स्वयं शासित।''वैसे कहानी में यह संवाद एक विशेष धर्म की बात करते हुए कहा गया है लेकिन इसका अर्थ विस्‍तार करें तो धर्म विलुप्‍त हो सकता है और एक ऐसी राजनीति का चेहरा आकार ले सकता है जो सामाजिक व्‍यवस्‍था के संचालन में स्‍वय्रं को ही विलोपित कर लेने का आदर्श हो सकती है। यहीं उनकी गद्य भाषा का मिजाज भी काव्यात्मक लहजे की बानगी बनता है। हालांकि यदा-कदा की अपनी बातचीत में सुभाष पंत कविता के मामले में खुद की समझ पर संदेह से भरे रहते हैं। उनके पाठक भी उन्‍हें कहानीकार के रूप में ही जानते हैं। यूं भी उन्‍होंने कभी कोई कविता नहीं लिखी, अपने लेखन के शुरूआती दौर में भी नहीं।


शास्त्रीय कला और अमूर्तता

$
0
0

 

वर्ष 2019में पहली बार बिभूति दास के चित्रों की एकल प्रदर्शनी देखने का अवसर मिला था।  ऑल इण्डिया फाइन आर्टस एवं क्राफ्ट सोसाइटी, नई दिल्‍ली में आयोजित बिभूति दास के चित्रों उस प्रदर्शनी की याद दैनिक जीवन की गतिविधियों के अहसास से भरे चित्रों के रूप में बनी रही। लगातार के उनके काम से इधर गुजरना होता रहा। 

जीवन के खुरदरे यथार्थ को करीब से व्‍यक्‍त करते उनके रंगों में अमूर्तता का वह भाव जो किसी बहुआयामी कविता को पढ़ते हुए होता है, शास्त्रीयकला का संग साथ होते उनके चित्रों में नजर आता रहा। उनके इधर के चित्रों से भी यह स्‍पष्‍ट दिखता है कि ऑब्जेक्ट के बाहरी रूप को हूबहूरचते हुए भी उनके ब्रश,रंगों को उस खुरदरपनकी तरह फैलाते चल रह हैं, जो सिर्फ चाक्षुश अहसास नहीं छोड़ना चाहते। बल्कि दृश्‍य को घटनाक्रम के स्‍तर पर जाकर देखने को उकसाते हैं। फिर चाहे कोविड के दौरान दुनिया में छाया लॉक डाउन हो, एक पिता के भीतर अपनी बच्‍ची के प्रति अगाध स्‍नेह हो और चाहे किसी भूगोल विशेष का जनजीवन हो।   

रंगों के संयोग से उभरती यह ऐसी अमूर्तता है जो चित्रों को एक रेखीय नहीं रहने देती है। बिभूति दास की यह रचनात्मक यात्रा उत्सुकता पैदा करती हैयहां प्रस्‍तुत हैं उनके कुछ चित्र।  











लहू बहाए बिना कत्‍ल करने की अदा

$
0
0

 

किंतु परन्‍तु वाले मध्‍यवर्गीय मिजाज से दूरी बनाते हुए नील कमल बेबाक तरह से अपनी समझ के हर गलत-सही पक्ष के साथ प्रस्‍तुत होने पर यकीन करते हैं। सहमति और असहमति के बिंदु उपजते हैं तो उपजे, उन्‍हें साधने की कोशिश वे कभी नहीं करते हैं।

जो कुछ जैसा दिख रहा है, या वे जैसा देख पा रहे हैं, उसे रखने में कोई गुरेज भी नहीं करते। सवाल हो सकते हैं कि उनके देखने के स्रोत क्‍या हैं, उनके देखने के मंतव्‍य क्‍या हैं और उस देखने का दुनिया से क्‍या लेना देना है ? ये तीन प्रश्‍न हैं जिन पर एक-एक कर विचार करें तो नील कमल की आलोचना पद्धति को समझने का रास्‍ता तलाशा जा सकता है। उनके देखने पर यकीन किया जा सकता है और उनकी सीमाओं को भी पहचाना जा सकता है।

नील कमल द्वारा कविताओं पर लिखी टिप्पणियों से गुजरें तो इस बात का ज्‍यादा साफ तरह से समझा जा सकता है। 

‘गद्य वद्य कुछ’ आलोचना की एक ऐसी ही पुस्‍तक है। ‘गद्य वद्य कुछ’ शीर्षक से जो कुछ ध्‍वनित हो रहा है, उसमें कोई दावा होने की बजाय यूंही कह दी गई बातों का भान होता है। निश्चित ही यह एक रचनाकार की अपने लेखन को बहुत मामुली समझने की विनम्रता से उपजा होना चाहिए। जबकि पुस्‍तक जहां एक ओर हिंदी कविता के बहुत ही महत्‍वपूर्ण कवियों मुक्तिबोध, त्रिलोचन आदि की कविताओं से संवादरत होने का मौका देती है तो वहीं दूसरी ओर हाल-हाल में कविता की दुनिया में बहुत शरूआती तौर पर दाखिल होने वाले कवियों में कवि नवनीत सिंह एवं अन्‍य की कविताओं से परिचित होने का अवसर सुलभ कराती है।  यह पुस्‍तक एक रचनाकार के बौद्धिक साहस का परिणाम है। इसी वजह से नील कमल को एक जिम्‍मेदार आलोचक के दर्जे पर बैठा देने में सक्षम है।

नीलकमल से आप सहमत भी होते हैं। और एक असहमति भी उपजती रहती है। यह बात ठीक है कि सहमति का अनुपात ज्‍यादा बनता है, पर इस कारण से असहमति पर बात न की जाए तो इसलिए भी उचित नहीं होगा, क्‍योंकि इस तरह तो गद्य वद्य का कथ्‍य ही अलक्षित रह जाने वाला है। फिर नील कमल की आलोचना का स्रोत बिन्‍दु भी तो खुद असहमति की उपज है। य‍ह सीख देता हुआ कि अपने भीतर के सच के साथ सामने आओ।

बेशक, पुस्‍तक में मौजूद आलेखों में कवियों की कमोबेश एक-एक कविता को आधार बनाया गया है लेकिन उनके विश्‍लेषण में जो दृष्टि है उसमें कवि विशेष के व्‍यापक लेखन और उसके लेखन पर विद्धानों एवं पाठकों, प्रशंसकों की राय को दरकिनार नहीं किया गया है। विश्‍लेषण के तरीके में वस्‍तुनिष्‍ठता एक अहम बिन्‍दु की तरह उभरती है। बल्कि देख सकते हैं कि आलोचक नील कमल जिस टूल का चुनाव करते हैं उसमें कविता को अभिधा के रूप में उतना ही सत्‍य होने का आग्रह प्रमुख रहता है जितना व्‍यंजना में। यह भी उतना ही सच है कि व्‍यंजना को भी अभिधा के सत्‍य में ही तलाशने की कोशिश कई बार बहुत जिद्द के साथ भी करते हैं।

यही बिन्‍दु उन्‍हें उस पारंपरिक आकदमिक आलोचना से बाहर जाकर बात करने को मजबूर करता है जिसका दायरा कवि के सम्‍पूर्ण निजी जीवन तक बेशक न जाता हो पर उसके साहित्यिक जीवन की परिधि को तो छूता ही है। कवि पर विद्धानों की राय या चुप्पियां, पुरस्‍कारों और सम्‍मानों के प्रश्‍न या फिर तय तरह फैलाई गई चुप्पियों के खेल लगभग हर आलेख की विषय वस्‍तु को निर्धारित कर रहे हैं।

नील कमल की आलोचना की सीमाएं दरअसल तात्‍कालिक घटनाक्रमों पर अटक जाना है। वह अटकना ही उन्‍हें आग्रहों से भी भर देने वाला है। बानगी के तौर पर देख सकते हैं जब वे आशुतोष दुबे की कविता ‘धावक’पर टिप्‍पणी कर रहे हैं तो कविता के विश्‍लेषण में वे जमाने की अंधी दौड़ को विस्‍तार देने की बजाय उसे साहित्‍य की दुनिया में व्‍याप्‍त छल छदमों तक ही ‘रिड्यूस’ कर दे रहे हैं। ऐसा इसलिए भी होता है कि आलोचना लिखने से पहले ही नील कमल अपने सामने एक ऐसी दीवार देखने लग जाते हैं जो इतनी ऊंची है कि अपनी सतह से अलग किसी भी दूसरी चीज पर निगाह पहुंचा देने का अवसर भी नहीं छोड़ना चाहती। नील कमल उस कथित दीवार को कूद कर पार जाने का प्रयास करते रहते हैं। लेकिन दीवार की ऊंचाई को पार करना आसान नहीं। जमाने का दस्‍तूर दीवार को चाहने वाले लोगों की उपस्थिति को बनाये रखने में सहायक है। यदा कदा की छील-खरोंच पर पैबंद लगाने वाले जत्‍थे के जत्‍थे के रूप में हैं। दीवार की वजह से ही नील कमल भी दूसरी जरूरी चीजों को सामने लाने में अपने को असमर्थ पाने लगते हैं और दीवार उन्‍हें उनके लक्ष्‍यों से भटका भी देती है। साहित्‍य की दुनिया के छल छदम जरूर निशाने पर होने चाहिए लेकिन विरोध का स्‍वर सिर्फ वहीं तक पहुंचे तो कुछ देर को ठहर जाना ही बेहतर विकल्‍प है। फिर ऐसी चीजों के विरोध के लिए जिस रणनीति की जरूरत होती है, मुझे लगता है, नील कमल का कौशल भी वहां सीमा बन जाता है। कई बार तो वह विरोध की बजाय आत्‍मघातक गतिविधि में भी बदल जाता है। शतरंज के खेल की स्थितियों के सहारे कहूं तो सम्‍पूर्ण योजनागत तरह से प्रहार करने में नील कमल चूक जाते हैं।

नील कमल इस बात को भली भांति जानते हैं कि विचारधारा को आत्‍मसात करना और उसे इस्‍तेमाल करने के लिए वैचारिक दिखना दो भिन्‍न एवं असंगत व्‍यवहार है। यूं तो इसको समझने के लिए उनके पास उनके आदर्श, वे सचमुच के फक्‍कड़ कवि और विचारक ही हैं, लेकिन उन फक्‍कड़ अंदाजों को आत्‍मसात करते हुए नील कमल से कहीं उनसे कुछ छूट जा रहा है। वह छूटना मनोगत भावों का हावी हो जाना ही है। आत्‍मगत हो जाना भी। बल्कि अपने ही औजार,वस्‍तुनिष्‍ठता को थोड़ा किनारे सरका देना है। जबकि यह सत्‍य है कि वस्‍तुनिष्‍ठता पर नील कमल का अतिरिक्‍त जोर है। कमलादासी के दुखको देखते और समझते हुए, पंक्तियों के बीच भी कविता का पाठ ढूंढते हुए, एक औरत के राजकीय प्रवासका प्रशनांकित करते हुए आदि अधिकतर आलेखों में वस्‍तुनिष्‍ठ हो कर विशलेषण करने वाला आलोचक भी मनोगत आग्रहों की जद में आ जाए तो आश्‍चर्य होना स्‍वाभाविक है। ऐसा खास तौर पर उन जगहों पर दिखाई देता है जहां नील कमल पहले से किसी एक निर्णय पर पहुंच चुके होते हैं और फिर अपने निर्णय को कविता में आए तथ्‍यों से मिलाते हुए कविता का विश्‍लेषण करते हुए आगे बढ़ते हैं।

शराब बनाने बनाने के लिए फरमेंटेशन आवश्‍यक प्रक्रिया है। फरमेंटेशन का पारम्‍परिक तरीका और डिस्टिलेशन के द्वारा शराब निकालने के दौरान होने वाली फरमेंटेशन की प्रक्रिया में लगने वाले समय में इतना ज्‍यादा अंतर है कि तुलना करना ही बेतुका हो जाएगा। डिस्टिलेशन शराब बनाने की तुरंता विधि है। मात्र फरमेंटेड को छानने की प्रक्रिया भर नहीं। 

ध्‍यान देने वाली बात यह है कि दोनों विधियों से प्राप्‍त होने वाले उत्‍पाद में नशा तो जरूर होता है लेकिन वे दो भिन्‍न प्रकार के उत्‍पाद होते हैं। ‘वाइन’ के नाम से बिकने वाला उत्‍पाद फरमेंटशन की पारम्‍परिक प्रक्रिया का उत्‍पाद है और आम शराब के रूप में बिकने वाला उत्‍पाद डिस्टिलेशन की तुरंता प्रक्रिया से तैयार उत्‍पाद है। नील इन दोनों ही विधियों को पदानुक्रम में रखकर शराब बना देना चाहते है। यह बारीक सा अंतर इस कारण नहीं कि नील दोनों प्रक्रियाओं से प्राप्‍त होने वाले उत्‍पादों से अनभिज्ञ है, बस इसलिए कि वांछित तथ्‍यों के दिख जाने पर वे उसके अनुसंधान में और खपने से बचकर आगे निकल चुके होते हैं।

कविताओं में लोक के पक्षको प्रमुखता देते हुए नील कमल अज्ञेय की असाध्‍य वीणा को परिभाषित करना चाहते हैं। लोक और सत्‍ता के अन्‍तरविरोध को परिभाषित तो करते हैं लेकिन मनुष्‍य और प्रकृति के सह-अवस्‍थान में वे लोक को वर्गीय चेतना से मुक्‍त स्‍तर पर ला खड़ा करते हैं। लोक के दमित स्‍वपनों का अपने तर्को के पक्ष में रखते हुए वे उस पावर डिस्‍कोर्स की बात करते हैं जो शोषणकर्ता और शोषक से विहिन दुनिया तक के सफर में एक रणनैतिक पड़ाव ही हो सकता है। लिखते हैं कि एक गरीब आदमी भी जब अपने लिए वैभव की कल्‍पना करता है तो उस कल्‍पना में वह राजा ही होता है जहां उसके नौकर-चाकर होते है, जहां उसे श्रम नहीं करना होता है।

एक सच्‍चे साधक की कल्‍पना से झंकृत हो सकने वाली वीणा के स्‍वर में वे जिस लोक को देखते हैं उसमें उन राजाश्रयी प्रलोभनों को भी थोड़ी देर के लिए गौण मान लेते हैं, जो कि खुद उनकी आलोचना का स्रोत बिन्‍दु है। असाध्‍य वीणा का वह लोकेल क्‍या उस प्रतियोगिता से भिन्‍न है जो आज की समकालीन दुनिया में विशिष्‍टताबोध को जन्‍म दे रहा है। वह विशिष्‍टताबोध जो लोक की सर्वाजनिनता को वैशिष्‍टय की अर्हता से छिन्‍न-भिन्न कर दे रहा है ?

राजपुत्रों के लिए आयोजित सीता स्‍वयंवर के धनुष भंग से किस तरह भिन्‍न है असाध्‍य वीणा को स्‍वर दे सकने की अर्हता।

लोक को विशिष्‍टता के पद से परिभाषित किया जाना संभव होता तो समाज में अफरातफरी मचा रही पूंजी के मंसूबे भी लोक की स्‍थापना में जगह पा रहे होते। महंगे से महंगे रेस्‍ट्रा, हवाई यात्राओं के अवसर, उम्‍दा से उम्‍दा गाडि़यों के मॉडल और आधुनिक तकनीक के वे उत्‍पाद जो उपयोगकर्ता को विशिष्‍टता प्रदान करने वाले आदर्श को सामने रख रहे हैं, लोक की स्‍थापना के आधार हो गए होते। उन्‍हें लपकने की चाह भी उसी तरह लोक का स्‍वर हो गई होती जिस तरह देखा जा रहा है कि लोक के दमित इच्‍छाओं के स्‍वप्‍नों में राजसी जीवन सजीव हो जाना चाहता है।

आलोकधनवा की कविता पर टिप्‍पणी करते हुए नील कमल कविता की पहली पंक्ति में दर्ज समय से जिस इंक्‍लाबी राजनीति का खाका सामने रखते हैं, अपने आग्रहों के तहत वहां माओवादको चस्‍पा कर दे रहे हैं।

इतिहास साक्षी है कि चीनी इंक्‍लाब के मॉडल- गांवों से शहर को घेरने की रणनीति पर पैदा हुई वह राजनैतिक धारा उस वक्‍त माओवाद के नाम से नहीं जानी गई। माओवाद एक राजनैतिक पद है और जिसको इसी सदी के शुरुआत में ही सुना गया। यह बात इसलिए कि पूरी कविता का विश्‍लेषण इस आधार पर करते हुए नील कमल कविता की व्‍यवाहारिक सफलता को संदिग्‍ध ठहरा रहे हैं। हालांकि कविता की व्‍यवहारिक सफलता जैसा कुछ होता हो, यह अपने में ही विचारणीय है।     

आलोचना भी दुनियावी बदलाव की गतिविधियों को गति देने में प्रभावी विधा है, बशर्ते कि आग्रह मुक्‍त हो।खास तौर पर नील जिस सकारात्‍मक तरह से आलोचना विधा का इस्‍तेमाल कर रहे हैं। बदलावों के संघर्ष में कविता की अहमियत पर बात करते हुए और एक कवि की भूमिका को रेखांकित करते हुए नील कमल उस पक्ष को अपना पक्ष मानते हैं जो कवि ऋतुराज के संबंध में वे खुद ही उर्द्धत करते हैं, ‘’जब तक कोई कवि आम आदमी की निर्बाध जीवन शक्ति और संघर्ष में सक्रियता से शामिल नहीं होता तब तक कवियों के प्रति अविश्‍वास और उपेक्षा बनी रहेगी। वे निर्वासित, विस्‍थापित और नि:संग अपराधियों की तरह रहेंगे।‘’

इस तरह से वे कविता को ‘’एक सांस्‍कृतिक संवाद कायम करना’’ कहते हैं।

सिर्फ इस जिम्‍मेदारी को एक कवि पर आयद ही नहीं कर देना चाहते, बल्कि इसी पर खुद  भी यकीन भी कर रहे हैं। कविता से उनकी ये अपेक्षाएं इसलिए अतिरिक्‍त नहीं, क्‍योंकि चमकीले स्‍वप्‍नों की बजाय वे स्‍वप्‍न भंग की किरचों को भी कविता में यथोचित स्‍थान देने के हिमायती दिख रहे हैं। कविता को उम्‍मीद और निराशा के खांचों में बांटकर नहीं देखना चाहते हैं। इतिहास की अंधी गलियों से गुजरते हुए वर्तमान के पार निकल जाने को कविता का एक गुण मानते हैं। मितकथन भी कविता का एक गुण है, उनके आलेखों में यह बात बार-बार उभर कर आती है। दुख के अभिनय को निशाने पर रखते हैं। कविता की आलोचना को ही आलोचकीय फर्ज नहीं समझते, अपितु, कवि को भी सचेत करते रहते हैं कि प्रलोभनों के मायावी संसार के भ्रम जाल में न फंसे।     



नील कमल के ही शब्‍दों में कहूं तो लहू बहाए बिना ही कत्‍ल करने की अदा को वे लगातार निशाना बनाते चले जाते हैं, और इस तरह से जहां एक ओर तथाकथित रूप से सम्‍मानित कविता की कमजोरियों का उदघाटित करते हैं तो वहीं उम्‍मीदों का वितान रचती, किंतु अलक्षित रह गई और रह जा रही कविता से परिचित कराने को बेचैन बने रहते हैं।

नीलकमल मूलत: कवि हैं। अभी तक उनके दो महत्‍वपूर्ण कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं।

 

 

कमेरी औरत

$
0
0

 

  

यह गेहूं की फसल के तैयार होने का वक्त है। किसान खेतों की बजाए सड़कों पर हैं। उनकी नाराजगी उस सरकार से है, जो उनके जीवन व्यापार को ध्वस्त करने के लिए कानूनी वैधता का सहारा लेना चाहती है। उनका आक्रोश बेशक उनके वर्गीय हितों से जुड़े मुद्दों का पौधा बनकर धरती की देह फाड़कर बाहर निकला है लेकिन एक बेल की तरह वह देशभर में फैलता जा रहा है। मजदूर, मेहनतकस और युवा-बेरोजगारों से उसका जुड़ाव, जैसा कि अभी सीधे-सीधे दिख नहीं रहा तो भी इस बिना पर उनके संघर्ष को खारिज तो नहीं किया जा सकता।

कथाकार सुभाष पंत की कहानी मक्के के पौधे का किसान जो एक सरकारी मुलाजिम भी हो गया है और जो नौकरी को अपने अमुक प्रदेश पर लटका कर किसानी हेकड़ी में रहता है, एकाएक याद आ रहा है। मक्का के पौधे सुभाष पंत द्वारा बहुत शुरूआती दौर में लिखी कहानी है, खेती किसानी की जद्दोजहद के साथ मानवीय धरातल पर विकसित हुई मानसिकता का प्रतिबिंब सामने रखती है। कहानी पर अन्‍य कोई टिप्पणी किए बिना सीधे-सीधे प्रस्‍तुत है- मक्का के पौधे।

विगौ

मक्का के पौधे

सुभाष पंत

 

शक तो लालता को रात ही हो गया था। हालांकि यह सावन की बरसात थी। वह नींद की खुमारी में था, जिसे टिन पर बरसते पानी की मोहक धुन ने मीठे नशे में बदल दिया था। फिर भी चूड़ियों की सहमी आवाज उसने सुनी थी। फिर नारी देने की अनचिह्नी भीनी खुशबू और फिर कुछ दबी-दबी-सी परिचित और अपरिचित फुसफुसाहटें भीतर ही भीतर पकते किसी षड्यंत्र की तरह लेकिन उसे यह कतई परवाह करने वाली बात नहीं लगी थी। आखिर शेर की मांद में शेर के खिलाफ हो ही क्या सकता है।

सुबह उठकर उसने पाया कि घर का मिजाज कुछ बदलाव हुआ है। उसकी औरत सुगनी हड़बड़ाते हुए उसे चाय देने आई। वह उससे आंखें चुरा रही थी और कमरे से तुरंत भाग जाने की अवश व्याकुलता से भरी हुई थी।

''क्या बात है? तू क्यों रही है?''चाय का गिलास पकड़ते हुए वह गुर्राया।

''कुछ नहीं, कुछ भी तो नहीं''सुगनी ने संयत होने की कोशिश करते हुए कहा, ''बस जरा उठने में देर हो गई।''

उसने महसूस किया सचमुच कुछ हुआ है, सुगनी जिसे उससे छिपाने की निरीह, बेमानी और व्यर्थ चेष्‍टा कर रही है। उसकी आंखों में देर से उठने की अलसाहट की जगह रात-भर जागने की सूखी लाली थी। उसने सिर उठाकर जंगले से बाहर झांका। वैसा ही उदास था, जैसा इस मौसम में बिना बारिश वाले दिन अमूमन उसे चाहे दिए जाते वक्त होता था। झूठ पकड़े जाने की कुटिल, घातक और काइयां मुस्कान उसके होठों पर उभरी। ''देर तो नहीं हुई,''सुगनी को गिरफ्त में फांसते हुए उसने कहा।

 

वह पहले ही हड़बड़ाई हुई थी। अपने को गिरफ्त में आते देखकर वह और हड़बड़ा गई। ''बस मुझे ऐसा लगा,''उसने हकलाते हुए कहा और बात पूरी किए बिना तेजी से बाहर की ओर लपकी।

''तू भाग क्यों रही है मैं बाग बघेरा हूं क्या?''

वह रुक गई और उसने मुड़कर लालता की तरफ देखा। कुछ छिपाने के अपने निश्चय पर वह अभी कायम थी, हालांकि अक्सर उसकी किलेबंदी को वह आसानी से ध्वस्त कर देता था।

वह रुक गई तो लालता ने आश्‍वस्ति के साथ चाय का घूंट पर भरते हुए पूछा, ''शंकर आया है क्या?''

सुगनी का चेहरा कापा और स्‍याह पड़ गया। शंकर तो चुपचाप घर में घुसा था। तब आधी रात  थी और ऊपर से आसमान बरस रहा था। उसके आने का कैसे पता चला? वह बचाव-सा करते स्वर में बोली, ''रात देर से आया।''

''सो रहा है?''

''नहीं, मुंहअंधेरे ही कहीं काम पर चला गया।''

 

लालता को अपमान भरा अचरज हुआ। शंकर जब भी लौटता था मस्ती के झोंके के साथ लौटता था। घर में जश्‍न चलता और कई कई दिन चलता। बकरा भूना जाता। शराब की बोतल खुलतीं और बाप बेटे दोनों के जाम टकराते। उनके बीच दारू और गोश्त की मजबूत बुनियाद पर टीका अजीब-सा दोस्ताना था, जो पिता-पुत्र के रिश्ते से कहीं ज्यादा आत्‍मीय, महत्वपूर्ण और भावनात्मक था। वह ट्रक ड्राइवर था और ज्यादातर माल लेकर लंबी यात्राओं पर रहता। लौटते हुए कई-कई जगहों की, विविध जायके और नशें की दारू की बोतल लेकर आता और उसकी आत्मा को अनोखी चमक से जगर-मगर कर देता। इस बार वह चोर की तरह आया और उसने बिना मिले मुंहअंधेरे ही गायब हो गया। उसके भीतर आशंका के सांप ने अपना फन फैला दिया। उसने मजाक-सा उड़ाते हुए कहा, ''इस बार क्या वह चूड़ियां पहन के आया है?''

सुगनी का चेहरा छिती मूंज-सा हो गया। मानो चोरी करते पकड़ी गई हो। एकाएक उसकी समझ में नहीं आया कि आदमी को सब कुछ मालूम हो गया है, या, वह सिर्फ मजाक कर रहा है। वैसे उसका मजाक करना भी खतरे से खाली नहीं होता। यह उसका एक ऐसा हथियार है, जिसके जरिए वह कारीकी से तह में घुसता है और उसकी एक-एक परत उधेड़ देता है। बहुत सख्तजान और घाघ आदमी है।

''तू डर क्यों गई? मैंने तो बस ऐसे ही पूछ लिया, ठिठोली में। रात चूड़ियों की आवाज सुनी, वह तेरी चूड़ियों की आवाज नहीं थी, गौरी की भी नहीं। सोचा अपना शंकर तो चूड़ियां नहीं पहने लगा?''उसने कहा और छक्का लगाया। यह ऐसा ठहाका था जिसने बारिश से भारी सुबह को झकझोर दिया और जिससे सुगनी की पसलियां टिन के पतरे की तरह बजने लगीं।

उसे लगा कि उसका कवच जो उसने बेटे की हिफाजत के लिए तैयार किया था धड़ धड़ाकर गिर पड़ा है। आत्म-समर्पण करते हुए बोली, ''वह चूड़ियां पहन कर नहीं, चूड़ियोंवाली को लेकर आया है।''

लालता इस सूचना से चौंका, जैसे सांप के फन पर पैर पड़ गया हो। लेकिन सहसा इस बात पर यकीन कर लेना उसे नागवार लगा। वह बेटे को सिर्फ प्यार ही नहीं करता था बल्कि उस पर अंधा विश्वास भी करता था और इन दिनों वह उसके लिए सुंदर-सुशील दुल्हन की तलाश में था। कितनी जगह से रिश्ते आ रहे थे और उसका मन कहीं टिकता नहीं नहीं था। वह गुर्राया, ''क्या मतलब? ''

सुगनी धम्‍म से जमीन पर बैठी और सुबकने लगी, ''शंकर किसी की औरत भगा लाया। ज्वान मरे ने हमारी नाक जड़ से ही कटा दी।''

''क्या बक रही है?''वह चीखा, ''तूने औरत को घर में घुसने ही क्यों दिया? धक्के मार कर निकाल देती।''

 

उसने तो सचमुच उसे बाहर निकाल देना चाहा था। लेकिन क्या करती? बाहर पानी बरस रहा था। ऐसे में फिर वह उसे देखकर हक-बक रह गई थी। इसके अलावा उसके पास एक औरत का दिल भी तो है। उसने कोई जवाब नहीं दिया। वह जानती थी कि उसका आदमी उसकी कमजोरी पर चिल्लाएगा। शायद वह इसके लिए अपने को तैयार कर रही थी।

''और वह साला चोर कितनेकी तरह भाग गया।''लालता ने हिकारत से कहा और बीड़ी सुलगाने लगा।  

''वह मुसीबत में है। कह रहा था कि लोग उसका कत्ल करने के लिए उसके पीछे लगे हैं।''

''अच्छा है, वे उसका कत्ल कर दें। उनसे नहीं हुआ तो मैं उसका गला रेत दूंगा।''

सुगनी को अपनी आदमी की बात बुरी लगी। हालांकि शंकर ने जो किया था वह भी माफ किए जाने वाला अपराध नहीं था।

''मेरे दफ्तर से लौटने तक औरत का पत्ता साफ हो जाना चाहिए।''लालता ने हुक्‍म दिया और बीड़ी का कष्ट खींचा। लेकिन वह भूल चुकी थी। उसने बुझी बीड़ी जमीन पर फेंकी और उसे पैर से मसलने लगा, हालांकि इसका कोई मतलब नहीं रह गया था। बीड़ी बुझते ही दयनीय ढंग से अपनी शख्सियत हो चुकी थी।

 

सुगनी कोई जवाब दिए बिना उठ गई। उसे मालूम था कि वह ऐसा नहीं कर सकती। हालांकि औरत उसके गले की फांस है। फिर भी उसे धक्के मारकर कैसे निकाल सकती है। वह शंकर के विश्वास पर अपनी दुनिया में आग लगा कर आई है।

यह बात तो लालता भी जानता था। वे गहरे संकट में फंस गया। यूं वह फक्कड़ मस्त और 'फिकर नॉट'किस्म का आदमी था। भयानक किस्म की उत्सव प्रियता उसके खून में थी। वह उस जगह भी उत्सव ढूंढ लेता, जहां उत्सव का नहीं बल्कि शोक का अवसर होता। लेकिन यह मामला नाजुक था कि...

वह सरकारी नौकरी मैं था, जिसे वह अपने अमुक प्रदेश में लटकी हुई मानता था और उसके अनुरूप आचरण भी करता था। लेकिन इसके बावजूद वह इन दिनों जमादार खलासी के सम्मानित पद पर था। नौकरी के अलावा वह 10 बीघा उपजाऊ जमीन का मालिक था। वह गांव में रहकर किसानी करता और वहां से ही जंगल नदियां और आबादी पार करके 10 किलोमीटर पैदल नौकरी पर जाता। नौकरी पर पहुंचने के इस क्रम को वह सरकार पर उसके विनम्र सेवक का उपकार मानता और उपकार की इस पवित्र भावना से उसकी आत्मा इतनी भव्य रहती कि कोई दूसरा सरकारी काम करना उसे अपनी गरिमा के विरुद्ध लगता। वह अपनी मर्जी का मालिक था और मर्जी के हिसाब से ही नौकरी करता था। आए दिन उसे मेमो मिलते रहते और उन्हें उन दस्तावेजों के बीच संभाल कर रख लेता, जिन्हें भावी पीढ़ियों के लिए रखा जाना जरूरी होता। इसके अलावा वह जुलूस में सबसे आगे रहने वाला यूनियन का सदस्य था। और इसे भी ज्यादा वह अभिनय-कला का उस्‍ताद था, और नौकरी करने के गुर जानने के साथ पक्का कानूनची था। डांटे-फटकारे जाने पर वह अधिकारी के चेंबर में बेहोश होकर गिर पड़ता और सरकार की जान सांसत में डाल देता।

 

आखिरकार अधिकारी उसे हार गए और उन्होंने समझौते का एक सम्मानजनक तरीका निकाल लिया। उसे प्रोन्‍नत करके जमादार खलासी बना दिया गया। वह खलासियों की हाजिरी लेकर उन्हें काम पर लगा देता और दिन भर मस्ती मारता। मस्ती और फक्कड़पन उसके जीवन का दर्शन था। लेकिन इस बार उसकी मस्ती झड़ गई। उसे पहली बार जीवन के सूत्र अपने हाथ से फिसलते हुए महसूस हुए। वैसे, उसका जीवन संकट मुक्त कभी नहीं रहा। जीवन में संकट आते रहे। उसे कठघरे में खड़ा करके सवाल पूछे जाते। वह मुस्कुराकर उनके जवाब देता, जो उसके हिसाब से भोले, संस्कारवान और शालीन किस्म के होते लेकिन सरकार उन्हें हास्यास्पद, चालाक और मक्कारी भरा मानती, जिनसे अधिकारियों के किसी संवेदनशील अंग में आग लग जाती। उसने हर संकट का बहादुरी से सामना किया और हर बार विजयी रहा। लेकिन यह संकट एकदम दूसरी तरह था, जहां अपराधी की जगह उसका बेटा शंकर कटघरे में खड़ा था। यह सचमुच बहुत संकट की बात थी।  

 

शाम को दफ्तर से घर लौटते हुए उसका सीना तेजी से धड़क रहा था। पहली बार उसे अहसास हुआ था कि उसके भीतर सीना है, जो धड़कता है और कुछ ज्यादा तेजी से धड़कता है। आसमान भूरे काले बादलों से ढका हुआ था। लेकिन वे बरस नहीं रहे थे और उमस थी। वह पसीने से लथपथ था और थका हुआ था। एक दिन में ही जैसे वह बूढ़ा हो गया था घर की दीवारों पर काई की परत जमी थी, जो जाहिर है सिर्फ एक दिन में नहीं जमी होंगी, लेकिन लालता को लगा, जैसे यह सब बस लम्हों में ही हो गया।

 

वह आते ही निराश-हताश चारपाई पर गिर गया। सुगनी पंखा लेकर दौड़ी। सिरहाने पर बैठी और झलने लगी। जीवन में पहली बार ही ऐसा हुआ था कि वह उसे पंखा झल रही थी। लेकिन यह भी तो पहला ही अवसर था जब वह इतना टूट गया था।

''शंकर लोट।?''पंखे की मद और मीठी हवा के बीच उसने पूछा।

''अभी तो नहीं।''पता नहीं कहां उचट गया?''उसकी आवाज रूंध गई।

''और औरत...''

सुगनी ने कोई जवाब नहीं दिया। लेकिन वह पूर्ववत पंखा झलती रही।

लालता खदबदा गया। पंखा झलकर उसे आत्मदाह का मोहताज बनाया जा रहा है, जो जीवन भर दुसाध्‍य-विजय योद्धा रहा है। विध्वंसक उत्तेजना में उसकी आंखें से अंगारे बरसने लगे। वह चारपाई पर उछल कर बैठा और चिल्लाया, ''जवाब क्यों नहीं देती हरामजादी?''

सुगनी काठ हो गई। उससे कुछ बोला ही नहीं गया।

लेकिन इस बार चूड़ियां खनखनाई। दर्पहीन। निर्दोष और आत्मविश्वास खनखनाहट। औरत दरवाजे के पीछे खड़ी थी और उसके सवाल का जवाब दे रही थी। जवाब में उसने किसी रियायत की मांग नहीं की थी। लेकिन वह अपना अधिकार छोड़ने को भी तैयार नहीं थी।

चूडि़यां जितनी देर बजी थीं, उससे बहुत देर तक लालता के दिमाग में बजती रहीं कि उसका दिमाग पके फोड़े की तरह धपधपाने लगा। इस खनक से सुगनी के भीतर भी कोई कोना झनझना गया। स्निग्‍ध करूणा-सा कुछ उसका अमूमन झुका रहने वाला सिर तन गया। ''मैं ऐसा कैसे करूं? इतनी जवान-जहान लड़की को सोचो वह हमारी लड़की होती तो?''

''मेरी लड़की ऐसा करती तो मैं उसकी टांगे चीर कर उसे ऐसी जगह गाड़ता जहां पानी भी नसीब न होता।''

''दोष केवल उसका ही नहीं, शंकर का भी तो है।''

''दोष केवल औरत का होता है। उसने मुनियों और देवताओं के ईमान बिगाड़ दिए। शंकर किस खेत की मूली है। आज इसने शंकर को डसा है। कल तुझे भी डसेगी। दो घरों पर छाया पड़ी है इसकी। मैं अपना घर बर्बाद होते नहीं देख सकता। आदमी का मामला होता तो मैं खुद सुलट लेता।''लालता ने सख्त और ऊंची आवाज में कहा, ताकि औरत उसे सुन सके और जान जाए कि उसके बारे में उनकी क्या राय है।

इसके बाद उनके बीच काफी देर तक फुसफुसाहट में मंत्रणा होने लगी। इसमें औरत के कारण आने वाले संकटों और औरत से निजात पाने के बारे में गंभीर विमर्श होता रहा। सुगनी छुटकारा तो चाहती थी, लेकिन कोई ऐसा कदम उठाने में हिचकी जा रही थी, जो नारी गरिमा के प्रतिकूल हो। आखिर वह भी घर गृहस्‍थी वाली है और समाज में उसकी इज्जत है। लेकिन अंत में वह औरत के रोटी-पानी बंद करने की अपने आदमी की बात मान गई। हालांकि यह काम मुश्किल था। घर में आए को, चाहे वह दुश्मन ही हो, भूखा कैसे रखा जा सकता है ? लेकिन इसके अलावा कोई चारा नहीं था। औरत से किसी तरह छुटकारा पाना ही था।

वह कठोर निर्णय के साथ भीतर आई और उसने देखा। औरत चौके में खाना बना रही है। चूल्‍हे के ताप से कांसे की कटोरे-सा दिपदिपाता चेहरा। पसीने से मोहक और कोमल गाल। बंधन से छूट से बाल, आंखों से बहने को आकुल काजल। अस्त-व्यस्त जैसे पूरे मौसम में बिखरी हो। बगल में गौरी बैठी है। वह कुछ बतिया रही है और गौरी हंसी से लोटपोट हो रही है। सुगनी हतप्रभ रह गई। औरत ने चुपचाप रसोई पर कब्जा करके घर के भीतरी राज पर अधिकार जमा लिया है। उसे महसूस हुआ कि वह एकाएक  बहुत असहाय, असुरक्षित और शक्तिहीन हो गई। पल-भर के लिए वह ठगी-सी खड़ी रहे गई। फिर उसे होश आया और गुस्से में दनदनाई, ''यह क्या हो रहा है? और तू करमजली गौरी मूं फाड़के कैसे खितखिता रही है।''

''हाय कितनी अच्छी और हंसोड़ है भाभी।''मां की डांट की परवाह न करते हुए उसने कहा। वह  अब भी मंद-मंद मुस्कुरा रही थी।

 

भाभी कहे जाने से सूखने के दिमाग में धांय से गोली दग गई। ''अभी बताती हूं तुझे। इस पतुरिया के साथ रिश्ता जोड़ती है कमबख्त। मेरी आंखों से ओझल हो जा। काट के फेंक दूंगी तुझे। ये तो डायन है। इसमें शंकर पर घात मारी अब तुझपे भी मार दी। घर का पटरा करके रहेगी।

गौरी वैसे ही खड़ी रही। औरत की रक्षा के लिए सन्‍नद्ध। शायद मां के विरोध में पहली बार इतनी हिम्मत से खड़ी हुई थी।

उसके व्यवहार से सुगनी आपे से बाहर हो गई। उसने उछलकर चूल्‍हे से जलता हुआ मुराड़ा खींच लिया। लेकिन इससे पहले कि वह गौरी की पीठ पर प्रहार करती, औरत ने उसका हाथ थाम लिया। ''गौरी का क्या कसूर। कसूरवार तो मैं हूं। मारना है तो मुझे मारिए।''

सुगनी हार गई। जलते मुराड़े से ज्यादा आंच थी औरत की भयहीन आंखों में। उसका हाथ शिथिल होकर झुक गया। मुराड़ा फेंककर वह धम्म से से जमीन पर बैठी और कातर दयनियता से प्रार्थना करने लगी, ''हाथ जोड़ती हूं तू घर चली जा।''

''उस घर से नाता तोड़ लिया। कहां जाऊं?''

''जहन्नुम में जा। हमने तो कहा नहीं घर छोड़ने को। ऐसी सिरफिरी नहीं हूं कि दूसरे का ढोल अपने गले बांध लूं।

''अब तो इस घर से नाता जोड़ लिया।''औरत ने गहरे आत्मविश्वास से कहा और रोटी सेंकने लगी।

सुगनी ने झपट कर उसके हाथ से परात छीन ली और भारी-मन रोटियां थपकने और सेंकने लगी। वह अकसर मीठा-सा सपना देखा करती थी। वह चौधराइन की तरह पाटी पर बैठी है और शंकर की दुल्हन उसे रोटियां बना कर खिला रही है। खाना बनाते हुए थक गई वह। अब तो मन पोते-पोतियों को गोद में बैठाकर दुलराने को हुलसता है। कैसा है सपनों का खेल! इन्‍हें देखे बिना कोई नहीं सकता और यही सबसे ज्यादा रुलाते भी हैं। रोटियां सेंकते हुए उसकी आंखें भभक रही थीं। मन में रह-रहकर ज्वार उठा रहा था। सब कुछ ध्‍वस्‍त कर दिया इस औरत ने...

औरत चुपचाप बैठी टकर-टकर उसे देख रही थी। आंखें भी तो कितनी बड़ी है कमबगत की।  मानो सब कुछ उनमें डूबा है।

पता नहीं एक बार मन में तड़प-सी क्‍यों हुई। उसके मन की व्यथा पूछ ले। भरा-पूरा घर क्यों छोड़ दिया। नहीं पूछा। क्या पूछना। कहानी तो हर जगह एक ही है। कहीं चमकदार कारागार है। कहीं बियाबान जंगल। बस चुपचाप रोटियां सेंकने लगी, जो या तो कच्ची सिंकती या फिर जल जातीं। उसे झुंझलाहट हुई उम्र के इस पड़ाव पर पहुंच कर तो वह रोटी बनाना ही भूल गई। चूल्हे में आग भरभरा रही थी और वह बाहर झमाझम पानी बरस रहा था।

 

रोटी खिलाते हुए उसका संकट और गहरा गया। वह उसे खाना ना देने के उद्दाम संकल्प के साथ आई थी। लेकिन जब वह खाना खिलाने लगी तो भीतर कुछ डोलने लगा। क्या है जो भीतर छीजता है। गुस्से में भी छीजता ही रहता है। उसने औरत की और देखा। वह उसे लहरों में हिचकोले खाती पतवारहीन नाव की तरह लगी। मरजानी खूबसूरत भी तो कितनी है। धूप-सी उजली। भगवान बदमाशों को इतनी फुर्सत से क्यों गढ़ता होगा? मन है जो फौलाद की तरह सख्त हो जाता है और अगले ही झण मोम-सा पिलने लगता है। मुंह फुलाना उसने खाना लगाया और थाली उसकी ओर सरका दी।

औरत ने आभारी नजरों से सिर उठाया और थाली वापस कर दी। ''आप नहीं चाहतीं। फिर मुझे नहीं खाना।''

सुगनी का चेहरा फक्‍क हो गया। हे भगवान, दिल की किताब कैसे पढ़ लेती है कमबख्‍त। फिर भभक गई, ''हां क्यों खाएगी? मेरा कलेजा जो खाना है। कहे देती हूं, देहरी पर परान भी छोड़ दे, बहू कबूल नहीं करूंगी। इज्जत से बढ़ा भी कुछ होता है? पर तू क्या जानेगी। इसे तो तू बेच कर खा गई।''

औरत ने कोई जवाब नहीं दिया। वह उठी और सिर झुकाए रसोई से निकल गई। सुगनी की आंखों से अब तक चिंगारियां फूट रही थीं। लेकिन औरत के जाते ही उसे लगा खाली हो गई है।  चूल्‍हे के अंगारे ठंडे पड़ गए थे। राख भी। बाहर झमाझम पानी बरस रहा था। बाहर ही नहीं,  उसके भीतर भी...

रात उसे नींद नहीं आई। मन में कुछ गलता रहा। जब भी आंख लगती औरत की आंखें मन में तैरने लगतीं।

औरत ने तीन दिन से अन्‍न पानी नहीं छुआ। सुगनी नी भी नहीं पूछा। उसकी बड़ी-बड़ी आंखें तेज हो गई। पलकों के नीचे महीन काली परछाई तैरने लगी। होंठ खुरदरे पड़ गए और चेहरे पर जगदीशझिझकती-सी दूधिया सफेदी पसरने लगी। वह निढाल दरवाजे की ओटली पर बैठी फीकी हंसी हंस देती और सभा में सेमल की दूरी रूई-सा कुछ भी बिखर जाता। सुगनी की जान सांसत में पड़ गई। दरवाजे पर वह भूखी बैठी रहे, उसके गले में कौर फूल जाता। हे भगवान, कैसी विपत्ति में डाल दिया, इस औरत ने। वह बिना लड़े उसे हरा रही है। उसने अपने आदमी से कहा तो उसने भी उसके संकट को हवा में उड़ा दिया, ''तू औरतों को नहीं जानती। ये बहुत नटनियां होती हैं। पेट अच्छे-अच्छों के छक्के छुड़ा देता है। चार दिन में अकल ठिकाने आ जाएगी और भागती नजर आएगी।''

 

औरत अजगर की तरह उसकी भी छाती पर पसरी है। किसी न किसी तरह निजात तो उसे भी पाना है, पर वह आदमी की तरह निर्दय तो नहीं हो सकती। उसकी देहली पर भूखी मर गई तो क्या होगा...

थाली उसकी ओर सरकाते हुए उसने कहा, भौत मत सता मुझे। चुपचाप ये खाना खा। कमजोर भी मत समझना। आन की मैं भौत पक्की हूं।''

औरत ने कोई विरोध नहीं किया। चुपचाप खाने लगी। उसका चेहरा एकदम सपाट था। पता नहीं चला वह तय किये थी या उपकार की भावना से भरी थी।

''पैर पड़ती हूं तेरे।''

औरत की स्थिर-शून्‍य आंखें हल्के से कांपीं। ''इनके नाम का सिंदूर डाल लिया।''

सुगनी के भीतर कुछ धधकने लगा। उसने जलती हुई आवाज़ में कहा, ''और जिसके नाम का पहले सिंदूर डाल।''

''वह तो जबरदस्ती थी। मन से तो मैं कभी नहीं जुड़ी।''

इस बार सुगनी के अंदर कुछ टीसने लगा। कोई अनचीहा फोड़ा जैसे सहसा खुला और धपधपाने लगा।

''वह तुझे मारता था? रोटी कपड़ा नहीं देता था?''

''नहीं। कोई कमी नहीं थी।''

''चोर, पियक्कड़, जुवाड़ी, लफंगा था या, नामर्द था?''

''नहीं। अच्छा था। बस वफादार नहीं था।''

''आदमी का क्या वह तो छुट्टा सांड है। दस जगह मुंह मारने को ललचाता है। आदमी तो उसे औरत ही बनाती है। अपने प्यार और वफादारी से।''

औरत ही क्यों प्यार करे और वफादार रहे?''

''तुझे रोटी, कपड़ा, घर और इज्जत दिया। इससे ज्यादा और क्या चाहिए?''

''मैं तो इससे कम में गुजारा कर लेती। लेकिन जो चाहिए था...''

''मैं भी जानू क्या चाहिए था?''

औरत असमंजस में पड़ गई। समझ में नहीं आया क्या बताए।

''उससे छूट हो गई?''

''नहीं। छूट तो मन की है। मन ही नहीं मिला तो...''

''वह तेरी बोटी-बोटी नोच लेंगे। उनके हत्थे नहीं चढ़ी तो यहां भी तेरा वही हाल होना है। अब भी वक्त है। लौट जा। मेरा दिल कहता है मैं तुझे माफ कर देगा।''

''कदम एक बार बाहर निकल आए गया तो...''

''भौत मोटे कलेजे की औरत है। खाता पीता घर और इज्जत करने वाले मरद से ज्यादा क्या चाहिए। अपनी दुनिया पे अपने हाथ से आग लगाई तूने। कसूर किसी का नहीं, तेरा है। अब जीवन-भर इस आग में जल। अपने जीते-जी तो मैं तुझे घुसने नहीं दूंगी। गांठ बांध ले।''सुगनी ने हवा में हाथ लहराते हुए निर्णायक स्वर में कहा। उसके लहराते हुए हाथ की चूड़ियां हवा में खंजर की तरह झनझनाने लगीं।

औरत ने खाना खत्म किया और बिना एक भी शब्द बोले बर्तन मांजने लगी। बहुत सलीके से मांज रही थी। कमर से ढुलककर चुटिया नीचे गिरती तो वह कुहनी से उसे संभाल कर हल्‍का-सा झटका दे देती। खुद कमची-सी लचक जाती और कांसे-सी झनकने लगती, लेकिन ना हवा सनसनाती और न आवाज होती। चित्र-लिखित-सी, दिलकश, शीशे में उतरती तस्वीर-सी, लेकिन सुगनी को यह फूटी आंख न सुहाया। खूब शहराती नखरे हैं, औरत के माने तो बस एक सीधा सच्चा गांव है। ये लच्‍छन उसे नहीं रिझा सकते। धोखेबाज, भ्रष्ट, पतुरिया।

इस  छोटी-सी वार्ता के बाद अगली वार्ता की संभावना खत्म हो गई। कोई भी झुकने को तैयार नहीं था। उधर औरत की संदिग्ध उपस्थिति कपूर की गंद की तरह गांव-बिरादरी में फैलने लगी।

तरह-तरह की अफवाहें। थू-थू, संदेह और धिक्‍कार जो इस घटना की स्वाभाविक, जायज और रचनात्मक परिणति थी और इसका विरोध करने का नैतिक अधिकार इस घर के पास नहीं था। जमादार खलासी का वह गर्वोन्‍मत सिर जो दस बीघा जमीन की हैसियत और छोटी सरकारी नौकरी, जिसे उसने अपनी कार्यशैली की वजह से शानदार और सम्मानजनक बना दिया था और जिसमें वह तीस खलासियों का सर्वेसर्वा था, ऐसे झुक गया जैसे उस पर कूड़े का टोकरा लदा हुआ हो। उसकी कड़क मूछों के बल ढीले पड़ गए। अपमान-बोध ने उसकी सारी मस्ती और शौर्य को करुण कातरता में बदल दिया। अभी पुलिस, कोर्ट-कचहरी वगैरह, पता नहीं कितने संकट पैदा होने हैं। उसकी नींद-भूख गायब हो गई। पहली बार उसने जाना की तारे रात में ही नहीं दिन में भी निकलते हैं। पहली बार ही एक ऐसे संकट में फंसा था, जो उसने पैदा नहीं किया था और जिसकी कोई काट उसके पास नहीं थी।

वह और सुगनी औरत को जितना डांट फटकार सकते थे और उसे भगाने के जितने हथकंडे अपना सकते थे, सब अजमा चुके। औरत पर कोई असर ही नहीं हुआ। वह जोंक की तरह चिपक कर उनका खून पी रही थी। वे रातों में जाकर उससे मुक्ति पाने की योजनाएं बनाते। ये काफी खतरनाक किस्‍म की होतीं, लेकिन औरत की एक भंगिमा उन्‍हें साबुन के झााग में बदल देती। हर विरोध के बाद वह संस्कारित होकर ज्यादा घरेलू होती जाती और उनके सारे हथियारों को भोंथरा कर देती। इस लड़ाई में वह अकेली थी, सिवा गौरी के। उसकी निगाह में वह नायिका थी, जिसने अपने प्यार की खातिर सब कुछ दांव पर लगा दिया था और इतने अन्याय से रही थी। उसका पहनावा, सलीका और विशेष रूप से उसके भीतर से आती भीनी-सी शहरी गंध से वह सम्‍मोहित-सी रहती। लेकिन आठवें दर्जे में पढ़ने वाली कमजोर लड़की, जिसके अंग्रेजी के हिज्जे एकदम गड़बड़ थे और गणित के सवाल देख कर ही जिसे चक्कर आते थे, उस पे होने वाले जुर्मों के खिलाफ सिर्फ हमदर्दी ही जता सकती थी। ट्रांसपोर्ट कंपनी के मालिक जर्नल सिंह को इस घटना की जानकारी थी। शंकर को उसने औरत के घरवालों की गिरफ्त में आने के बचाव के लिए माल का ट्रक लेकर असम भेज दिया था।

एक रात औरत को तूफान, कड़कती बिजली और बारिश में भार धकेल दिया गया। उसने कुछ रात भीगकर और बाकी रात गोठ में गोबर की बदबू और मच्‍छरों को झेलते हुए काटी और सुबह दरवाजा खुलने पर ऐसे अंदर आ गई मानो कुछ हुआ ही नहीं और काम में जुट गई। ऐसे ही जो कुछ भी गुजरता वह उसे बिना किसी शिकवे के चुपचाप सह लेती। लालता कई मर्तबा खून का घूंट पी लेता और कई बार उसके सिर पर औरत की हत्या तक करने का जुनून सवार हो जाता। हत्या के ऐसे ही जुनून में वह एक  दिन गंड़ासा निकाल कर उसकी तरफ दौड़ा। सुगनी भय से कांपने लगी और गौरी रोने लगी। लेकिन औरत के चेहरे पर एक भी शिकन नहीं आई। वह निर्भय खड़ी रही। लालता के हाथ का गंडासा झुक गया। उसे अपनी मर्दानगी पर अफसोस हुआ और उसकी इच्छा हुई इस गंड़ासे से अपनी ही हत्या कर ले।

औरत न विरोध करती और न डरती। गौरी को तो वह बेहद प्यार करने लगी। वह बीमार पड़ी तो औरत रातों में जाकर उसकी तीमारदारी में जुटी रही। लेकिन सुगनी को लगा कि वह गौरी के जरिए घर में सूराख बना रही है। लालता उसके सेवाभाव से और भी ज्‍यादा बिदक गया। वह कौनी होती उसके घर में दखल देने वाली। उसकी घृणा निरंतर बढ़ती जा रही थी। आखिर उसने फैसला ले ही लिया कि शंकर लौट आए तो उसे घर से बाहर निकाल देगा। दिल पर पत्थर रखकर लिया गया फैसला, लेकिन यह अंतिम था। यह जमादार खलासी का फैसला था, जिसने बड़े बड़े अफसरों को पानी पिलाया था।

दफ्तर की छुट्टी थी। हफ्ते की दौड़-भाग के बाद एक समूचा और  भरा-पूरा अपना दिन। लेकिन जब से औरत आई थी छुट्टी का दिलकश दिन लालता को गहरी मानसिक यंत्रणा देने लगा था। लगता छुट्टी का दिन कैद का दिन है। औरत का चेहरा बार-बार उसकी निगाहों से गुजरता। उसके सिर की नसें तिड़कने लगती और दिल में भट्टी-सी दहकने लगती। औरत ने सिर्फ उनका बेटा ही उससे नहीं छीना था, उसका सुखचैन मान सम्मान इज्जत आबरू गांव जवार नाते रिश्ते सब कुछ उससे छीन लिया था। वह पंगु हो गया था और किसी के भी सामने आंखें उठाने का उसका नैतिक साहस डिग गया था।

वह बिना कलेवा किए मुंहअंधेरे ही दूर-पार के खेतों में चला गया। कोई काम नहीं था। बस ऐसे ही दिनभर। वह आवारा बादल के टुकड़े की तरह भटकता रहा। कभी भी चैन नहीं। वह जिस समय भूखा, लस्‍त-पस्‍त और थका हारा लौट रहा था, अजीब-सी विवशता और पराजय के साथ था। उस समय दिन ढल रहा था। सावन की वह धूप जो किसी वरदान की तरह होती, सिमट रही थी। लेकिन आसमान के ऊपर एक ऐसा खूबसूरत इंद्रधनुष खींच रखा था, जैसा मौसम में कभी-कभार ही निर्मित होता है। आंगन के पार खेतों में मक्का के पौधे अनोखी गरिमा और वैभव के साथ इठला रहे थे। वहा के हल्‍के परस वे हिलते और मौसम कच्चे भूटटों की महक से भर जाता।

अचानक कहीं से दौड़ता हुआ बछड़ा आया और खेत में घुस गया और बहुत से पौधों को कुचलता हुआ बाहर निकल गया। लालता के भीतर हर्र से कुछ गूंजने लगा। जैसे आंतों में ठंडा चाकू उतर गया है। लेकिन वह पस्त था और शायद जीवन से हारा हुआ भी। उसके पैरों ने दौड़ने से इंकार कर दिया।

औरत आंगन में सहन की देहरी पर बैठी गोरी से बतिया रही थी। लालता की अनुपस्थिति से वह सहज थी। कुचले पौधे देखते ही उसके भीतर से चीख निकल गई, जैसे मुट्ठी में भरकर ह्रदय भींच दिया गया हो। वह तड़प कर उठी, खुर्पी लेकर दौड़ी और कुचले हुए पौधों को मिट्टी का सहारा देकर फिर से खड़ा करने लगी। तब तक लालता आंगन में पहुंच गया था। वह सम्‍मोहित-सा औरत को देखने लगा, जो मिटटी पौधों को खड़ा करके दुलार रही थी। मां जैसे अपने बच्चे को दुलारती है। उसकी मिटटी चढ़ाती उंगलियां मौन संगीत सिरज रहीं थी और पति का सारा वैभव, ममता और सौंदर्य उसके चेहरे पर उतर आया था।

वह पौधे खड़े करके लौटी तो स्तब्ध रह गई। उसके मिट्टी-भरे, पहली बारिश में सूखी धरती से उठती सोंधी पास से महकती हाथ थिरक कर रह गए। अस्त-व्यस्त आंचल वैसा ही रह गया। बिखरे बाल, बिखरे ही रह गए और आंखों के क्षण भर पहले के सुख पर सहसा भय की काली परछाई पर फैल गई। सामने लालता खड़ा था और आंगन के पार देहली पर पता नहीं क्या घट जाने की आशंका से जड़ गौरी। आसमान में अपने घरों की ओर लौटते हुए पंछी थे और पंछियों के ऊपर दौड़ते ओर घिरते बादल थे।

लालता ने आंख उठाकर औरत की और देखा। वह मेमने की तरह सहमी हुई थी। लेकिन यह विस्मयकारी था कि इस सहमी हुई कमेरी औरत के सामने लालता के भीतर का शेर ममता के झरने से फूट रहा था और अनिर्वचनीय सुख से उसकी आत्मा को भिगो रहा था।

''बहू चाय बना। बहुत भूख लगी है।''उसने कहा।

उसके सूखे कठोर चेहरे पर सर्दियों की मीठी धूप से उतर रही थी।

आक्रामक खेल के बीच शेष विरल कोमलता

$
0
0

यादवेन्द्र



खेल आम तौर पर निर्मम आक्रामकता के लिए जाने जाते हैं - खास तौर पर आमने सामने एक दूसरे को चुनौती देने वाले खिलाड़ी ज्यादा रसहीन इंसान साबित होते हैं।टेनिस की दुनिया पर दशकों राज करने वाली सेरेना विलियम्स वैसे भी अपने विजय अभियान और रिकॉर्ड को लेकर बहुत सजग और निर्मम मानी जाती हैं पर पिछले कुछ वर्षों में उन्हें एक युवा अश्वेत टेनिस सितारे से बार बार मुखातिब होना पड़ा -- नाओमी ओसाका ने चौबीस ग्रैंड स्लैम जीतने के उनके स्वप्न को एक नहीं अधिक बार तोड़ा।पर टेनिस कोर्ट के इन धुर प्रतिद्वंद्वियों के बीच दुनिया ने जिस ढंग की आत्मीय सहचरी देखी वह भी टेनिस की दुनिया में विरल है - खेल समीक्षक मानते हैं कि ओसाका सेरेना की सुयोग्य उत्तराधिकारी साबित होने की राह पर अग्रसर हैं।



हाल में संपन्न हुए ऑस्ट्रेलियन ओपन में विजय का ताज पहनने के बाद के इंटरव्यू में जब नाओमी ओसाका से (इसके सेमी फाइनल में उन्होंने सेरेना विलियम्स को पराजित कर टूर्नामेंट से बाहर कर दिया था) एक पत्रकार ने पूछा:
"अभी कुछ दिन पहले आपने कहा था कि जब तक सेरेना खेलती रहीं वे टेनिस का चेहरा हुआ करती थीं। क्या आपको लगता है कि ऑस्ट्रेलियन ओपन में आपने जो उनके खिलाफ जीत हासिल की वह पूर्व स्थिति के बदलाव का सूचक है?"
युवा पर चतुर ओसाका को पल भर भी सोचने की जरूरत नहीं पड़ी,बोलीं: नहीं,ऐसा बिल्कुल नहीं है।"
(20 फरवरी 2021 का WTA Insider का एक ट्वीट)
इसी टूर्नामेंट के दौरान ओसाका ने ट्वीट कर सेरेना विलियम्स के बारे में कहा: "जब मैं छोटी थी और उन्हें खेलते हुए देखती थी तो हमेशा मुझे  लगता था कि कभी मैं उनके साथ खेलूं... यह मेरा एक सपना था...जब जब भी मैं उन के साथ खेलती हूं तो मुझे बचपन के वे दिन याद आते हैं और मुझे लगता है कि मैं उन मौकों को हमेशा याद रखूंगी... ये खेल मेरे लिए कुछ खास हैं।"
"जहां तक मेरा सवाल है मैं उन्हें हमेशा खेलते हुए देखना चाहती हूं। मेरे अंदर एक बच्चा भी रहता है।"

2018 के यूएस ओपन फाइनल मैच में नाओमी ओसाका से मुकाबला करते हुए अंपायर ने मां बनने के बाद पहला बड़ा मैच खेल रही सेरेना पर अपने कोच के इशारों के अनुसार खेलने का आरोप लगाया था और अंपायर के साथ सेरेना की तीखी नोकझोंक हुई थी। सेरेना ने बार बार दंडित करने वाले अंपायर को झूठा भी कहा था और गुस्से में अपना रैकेट तोड़ कर कोर्ट में फेंक दिया था। उन्होंने अपने कोच से निर्देश लेने के आरोप से इनकार किया और अंततः मैच हार गई थीं - वह भी ढाई दशक से टेनिस के शिखर पर राज करने वाली सेरेना अपने से सोलह साल जूनियर और बिल्कुल नयी खिलाड़ी नाओमी ओसाका से।यहां यह जानना समीचीन होगा कि ओसाका भी हैतियन पिता और जापानी मां की अश्वेत संतान हैं और अमेरिका में रहती हैं।

यह ओसाका के लिए बहुत बड़ी उपलब्धि थी और वे इतनी भावुक हो गईं कि लगभग सुबकने लगीं।उम्मीद से पलट नतीजे से नाखुश उपस्थित दर्शक शोर मचाने लगे और सेरेना जैसी दुर्दमनीय खिलाड़ी को मात देने वाली नाओमी ओसाका को हूट करने लगे।इस पर ओसाका बोलीं:
"मैं जानती हूं यहां इकट्ठा सभी लोग उन (सेरेना विलियम्स)के लिए तालियां बजा रहे हैं, चीयर कर रहे हैं।मुझे अफ़सोस है कि इस मैच को इस तरह खत्म होना था....आप आए और आपने मैच देखा,इसके लिए हार्दिक आभार।"
सेरेना ने अप्रत्याशित सहृदयता दिखाते हुए आगे बढ़ कर उत्तेजित दर्शकों से अपील की:
"मेरी गुजारिश है कि आप अब किसी तरह का सवाल मत उठाइए। मैं आपसे कहना चाहती हूं कि आज  ओसाका बहुत अच्छा खेली... यह उसका पहला ग्रैंड स्लैम है। अब आप उसे हूट करना बंद करिए।"

इस ऐतिहासिक घटना पर theundefeated.com (8 सितम्बर 2018) ने लिखा : "विजयी होकर भी जीत के लिए माफी मांगती और सुबकती हुए नाओमी ओसाका को सेरेना ने आगे बढ़ कर गले लगाया - पल भर भी नहीं लगा कि सेरेना प्रतिद्वंद्वी की भूमिका छोड़ कर रोती हुई ओसाका को सांत्वना देती हुईं मां की भूमिका में आ गईं।"

इस घटना के अगले दिन ओसाका से जब यह पूछा गया कि मैच के बाद सेरेना विलियम्स उन्हें गले लगाते हुए कान में क्या कह रही थीं तो ओसाका ने जवाब दिया: "सेरेना ने मुझे कहा कि मुझे तुम पर गर्व है और दर्शकों की भीड़ चिल्ला चिल्ला कर तुम्हें अपमानित नहीं कर रही थी। मुझे उनका यह कहना कितना अच्छा लगा, मैं बता नहीं सकती।"

इसके बाद सेरेना ने गहरे विचार मंथन के बाद नाओमी ओसाका को चिट्ठी लिखी जिसका एक अंश पढ़िए:
"हाय नाओमी, मैं सेरेना विलियम्स! जैसा मैंने कोर्ट में भी कहा था, मुझे तुम पर बहुत गर्व है... और जो कुछ भी उस समय हुआ उस का अफसोस भी। उस समय मुझे ऐसा लगा था कि मुझे अपनी बात पर अड़े रहना चाहिए और ऐसा करते हुए मैं सही कर रही हूं। लेकिन मुझे कतई इसका आभास नहीं था कि मीडिया इस घटना के बाद हमें और तुम्हें एक दूसरे के खिलाफ खड़ा कर देगा। उन पलों को मैं चाहती हूं एक बार फिर से जीना संभव हो पाता... काश कि हम फिर से कोर्ट पर आमने सामने  हो पा ते। मैं तुम्हारे लिए बहुत खुश हूं,खुश थी और हमेशा खुश रहूंगी और तुम्हें सपोर्ट करती रहूंगी। मैं कभी नहीं चाहूंगी कि कामयाबी की रोशनी किसी दूसरी स्त्री से हट कर अलग किसी और पर चली जाए - खासतौर पर जब वह रोशनी एक काली स्त्री खिलाड़ी पर पड़ रही हो। तुम्हारे भविष्य को लेकर मैं बहुत ज्यादा इंतजार अब नहीं कर सकती और मेरा यकीन करो, तुम्हें खेलते हुए देखना और वह भी तुम्हारे बहुत बड़े फैन के रूप में देखना मुझे बहुत अच्छा लगेगा। आज की बात करें तो तुम्हारी सफलता के लिए मैं शुभकामनाएं देती हूं... लेकिन यह सिर्फ आज तक सीमित नहीं है, भविष्य में भी तुम्हारा मार्ग बहुत प्रशस्त हो। एक बार फिर, मुझे तुम्हारे ऊपर बहुत गर्व है। मेरा ढेर सारा प्यार...
तुम्हारी फैन
सेरेना "
(हार्पर बाजार पत्रिका/9 जुलाई 2019)

खरीदने और बेचने की नैतिकता को मुंह चिढ़ाती कविता

$
0
0

 

आम की टोकरीएक बालमन की कविता है। आभारी हूं उन मित्रों का जिन्‍होंने कविता पर बहस करते हुए मुझे एक खूबसूरत कविता से परिचित कराया।

इस कविता को पढ़ते मुझे एकाएक दो अन्‍य रचनाएं याद आई। कथाकार नवीन नैथानी की कहानी 'पारस'और हाना मखमलबाफ़ की फिल्म  Budha collapsed out of shame । यह यूंही नहीं हुआ। दरअसल कविता पर चल रही बहस ने मुझे भी बहस का हिस्सा बना दिया।

इन दोनों रचनाओं का और आलोच्‍य कविता का संबंध कैसा है, इस पर बात करने से पहले मैं यह बात जिम्‍मेदारी से कहना चाहता हूं कि हमारी आलोचना मनोगतवाद से ग्रसित है। मनोगत आग्रहों के आरोपण करते हुए ही हम अक्‍सर 'विमर्शों'को लादकर रचना के पाठ करने में सुकून महसूस करते हैं। दिलचस्‍प है कि नवीन की कहानी, हाना की फिल्‍म और बच्‍चों के पाठयक्रम की यह कविता हमें यह सोचने को मजबूर करती है कि 'विमर्शों'में बंटी वैचारिकता को एकांगी तरह से समझने और उसका पक्ष लेने से दुनियावी बदलाव की तस्‍वीर नहीं बन सकती है। बदलाव की कोई भी मुहिम उस दुनियावी अन्‍तर्वरोध को ध्‍यान में रखकर कारगर हो सकती है, जिसने हमारी दुनिया को मुनाफाखौर नैतिकता में ढाल दिया है। वे मूल्य, आदर्श और नैतिकता जिनका हम सिद्धांतत: विरोध करना चाहते हैं, कैसे हमारे भीतर जड़ जमाए होते हैं।

हाना की फिल्‍म में स्‍वतंत्रता की पुकार के कई बिम्ब उभरते हैं। यहां एक बिम्ब का जिक्र ही काफी है। फिल्‍म तालीबानी निरंकुशता के विरुद्ध है। वह तालीबानी निरंकुशता जिसने बच्‍चों के मन मस्तिष्‍क तक को कैद कर लिया है। एक मारक स्थिति से भरी कैद से निकल कर भागने के बाद स्कूल पहुँची लड़की(बच्‍ची), बाखती, कक्षा में बैठने भर की जगह हासिल करना चाहती है। दिलचस्‍प है कि झल्लाहट और परेशनी के भावों को चेहरे पर दिखाये जाने की बजाय फिल्‍मउदात मानवीय भावना से ताकती आंखों वाली बाखती को हमारे सामने रखती है। दृढ़ इरादों और खिलंदड़पने वाली बाखती। लिपिस्टिक पेंसिल की जगह नोट-बुक पर लिखे जाने के लिए प्रयुक्त होने वाली चीज नहीं, सौन्दर्य का प्रतीक है और इसी वजह से वह उस चुलबुली लड़की को अपनी गिरफ्त में ले लेती है जिसके नजदीक ठुस कर बैठजातीहै बाखती। वह लड़की लिपिस्टिक को छीन-झपट कर हथिया लेती है। लिपिस्टिक बाखती की जरूरत नहीं, उसे तो एक अद्द पेंसिल चाहिए जो उन अक्षरों को नोट-बुक में दर्ज करने में सहायक हो जिसे अघ्यापिका दोहराते हुए बोर्ड पर लिखती जा रही है।लिपिस्टिक हथिया चुकी बच्‍ची बेशऊर ढंग से पहले अपने होठों पर लगाती है, फिर उतनी ही उत्तेजना के साथ बाखती के होठों को भी रंग देने के लिए आतुर हो जाती है।एक एक करके कक्षा की सारी बच्चियों के मुंह पुत जाते हैं। बलैकबोर्ड पर लिख रही अध्‍यापिका की निगाह जब बच्‍चों पर पड़ती है तो तालिबानी हिंसा को मुंह चिढ़ाता दृश्‍य आंखों के सामने नाचने लगता है।

नवीन की कहानी का नायक पारस पत्‍थर को खोजना चाहता है। पारस पत्‍थर एक मिथ है। जिसके स्‍पर्श मात्र से लोहा सोने में बदल जाता है। वह सोना जो आज मुद्रा के रूप में दुनिया पर राज कर रहा है। सवाल है कि कथानायक भी लोहे को सोना बनाकर दुनिया की दौलत इक्‍टठा करना चाहता है क्या, वैसी ही महाशक्ति होना चाहता है, जो आज की दुनिया में ताज बांधे घूमती है ? यह प्रश्‍न हमें मजबूर करता है कि हम पारस के नायक के जीवन में झांके। उसकी मासूमियत को पहचाने। वह मासूमियत जिसे पारस पत्‍थर की पहचान नहीं और उसको खोजने के लिए वह अपने पांवों के तलुवे में घोड़े की नाल ठोककर अनंत दुर्गम चढाइयां चढना चाहता है जहां पारस पत्‍थर के होने की संभावना है। उसे मालूम है कि उस पत्‍थर से टकराने पर उसके पांव के तलुवे में लगी नाल सोने में बदल जाएगी। सोने का यह जो बिम्ब कहानी में उभरता है वह गौर करने लायक है।

आलोच्‍य कविता में यह पाठ कितने खूबसूरत ढंग से आया है। आम बेचने को निकली बच्‍ची गरीब परिवार की है। बच्‍ची जिसे बेचने के काम में लगा दिया गया, जानती ही नहीं कि बेचना क्‍या होता है। इसीलिए वह तो आम के दाम भी नहीं बताती है। हां, करती है तो यह कि सारे आम अपने जैसे बच्‍चों को यूंही बांट देती है। सोच कर देखें कितना खूबसूरत बिम्‍ब है जब एक बच्‍ची आज की मुनाफाखौर व्‍यवस्‍था की सबसे कारगर प्रक्रिया बेचने-खरीदने को ही ध्‍वस्‍त कर दे रही है। वह तो इसमें भी लुत्‍फ उठा रही है कि बच्‍चे आम चूस रहे हैं। और वे बच्‍चे भी कितना अपनत्‍व से भर जाते हैं जो उस बच्‍ची का परिचय भी नहीं जानना चाहते हैं जो उनकी खुशियों के आम बांट रही है।

बिना कुछ अतिरिक्‍त कहे, बच्चों के बीच खरीदने और बेचने की नैतिकता को मुंह चिढ़ाती यह कविता गहरे सरोकारों की कविता है।       

Viewing all 222 articles
Browse latest View live