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न जन्नत देखा, न जहन्नुम देखा, जो कुछ देखा, यहीं देखा

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 भारती सिंह 


      "ब़कद्रे-शौक़ नहीं ज़र्फे-तंगना-ए-ग़ज़ल 
      कुछ और चाहिए वुसअत मेरे बयाँ के लिए "
 अपने समय का प्रत्येक सृजनहार अपने-अपने तरीके से इतिहास के सहारे वर्तमान की चुनौतियों से लड़ते-भिड़ते, वक़्त की नब्ज को समझने की कोशिश करता है। यह अलग बात है कि अभिव्यक्ति की अपनी मौलिक धार से अपनी अनुभूतियों को कहां तक सशक्ति से प्रस्तुत कर पाता है। यह अनुभूतियाँ विभिन्न विधाओं का पैरहन बन, जन-मन तक, चेतना एवं विचारों को छूती हुई, देशकाल में बदलाव का अभीष्ट बयार लेकर आती हैं। इन्हीं विधाओं में ग़ज़ल का अपना रुआब और मिज़ाज रहा है। सदियों लम्बी यात्रा में बेशक़ ग़ज़ल को धीरज और भरोसे के साथ अपना सफ़र जारी रखना पड़ है। आज यही यात्रा अपने हासिल को पा सकी है। उर्दू के प्रभाव और संपर्क में पली-बढ़ी ग़ज़ल हिन्दी की जुबान को अपना कर अधिक असरकारक तथा समसामयिक मुद्दों पर और अधिक समृद्ध हुई है। 
कल्पनाओं के फ़लक से उतर कर, निजता एवं एकल मनोभावों से हटकर यथार्थ की ज़मीन पर अपनी नयी पहचान मुकर्रर की है। माधव कौशिक ने लिखा है-
       "सफ़र में दर्द भरी दस्तान रख दूंगा
        मैं पत्थरों पे लहू का निशान रख दूंगा"
 उस यथार्थ में जीवन की कितनी विषमताओं का यथार्थ है और कितना कुंठित कामनाओं का यथार्थ, इसकी भी पड़ताल एवं मूल्यांकन आवश्यक है। मानवीय तत्वों के विघटन से उत्पन्न कुंठाएं एवं वाह्य आवरण के ढकोंसलोंं ने इस सीमा तक पंगु एवं शिथिल बना दिया है कि अपनी अकर्मण्यता, निष्क्रियता एवं क्षरित मूल्यों का कारुणिक, विवादास्पद तथा अश्लीलता का प्रदर्शन ही उसकी नियति बन गई है। नतीजतन, कभी-कभी सृजनात्मकता हाशिए पर आ गई लगती है। ऐसे में चिंतन मनन तक में ना सिमटकर संवेदनाओं की मोटी पड़ती गई परत को खुरच कर अधिक संवेदनशील बनाने की सार्थक पहल आवश्यक होती है। तभी माधव कौशिक ने कहा है - 
     "ऊँगली ज़बान हाथ नज़र इस्तेमाल कर 
       बेखौफ़ होके वक़्त से सीधे सवाल कर।"
हिन्दी कविता के सृजन के लिए जिन तत्वों, जिन संवेदनाओं की आवश्यकता थी, उन्हीं को लेकर हिंदी ग़ज़लों की ज़मीन तैयार हुई है। हालांकि हिंदी साहित्य में गज़लों को वह मुकाम अब तक हासिल न हो सका है जिसकी वह हक़दार है। जबकि पचास, सत्तर वर्षो में ग़ज़लें ,गीत और दोहे ही हैं जो जन-जन तक अपनी पकड़ काफी मजबूत बनाए हुए हैं। फिर अन्य विधाओं की तरह ग़ज़ल को आलोचना के केंद्र में क्यों न रखा गया ! मैनेजर पाण्डेय जैसे वरिष्ठ आलोचक ने  माना है कि वह रचनाएँ  जो अनुशंसित एवं आलोचना के केंद्र में रहीं, काफी हद तक लोकप्रियता एवं सार्थकता की सीमा तक पहुंची। तो क्या हिन्दी कविता से हिन्दी ग़ज़ल को दूर ही रखा गया, या अन्जाने ही उपेक्षा की शिकार हुई । तभी ग़ज़लगो विनय कुमार मिश्र की पीड़ा छलछला उठी है इन पंक्तियों में-
                    "मैं किसे चाहूँ न चाहूँ बात होती है
                    पर ये भी तय कर रही है अब नई दिल्ली"
हालांकि ग़ज़लों की लंबी सुदृढ़ परंपरा में उर्दू ग़ज़लों  का रसूख एवं चलन जन- मन में अपनी मजबूत दखल बना चुका था। पाठकों की समृद्ध उपस्थिति भी देखने को मिलती रही है। लेकिन हिंदी में ग़ज़लें उपेक्षा एवं इग्नोरेंस की शिकार हुई, वज़ह हैरान करती है। नामवर सिंह जैसे आलोचना के शिखर पुरुष मिर्ज़ा ग़ालिब और अहमद फ़राज़ साहब की ग़ज़लों को कोट करते हुए अपने आख्यानों एवं वक्तव्यों की शुरुआत करते रहे हैं। लेकिन उनकी इनायत से ग़ज़ल महरूम रही। छह दशकों की लंबी यात्रा एवं हजारों ग़ज़लकारों की उन्नतिशील प्रवाहमय यात्रा आज भी अनवरत जारी है। फिर भी 'बड़ी हसरत से उम्मीद का चेहरा तकती'रही है। किंतु संतोषजनक बात है कि आज हिन्दी कविता के बीच ग़ज़ल अपनी शिनाख्त करा चुकी है। वैसे तो गज़लों की दीर्घ परम्परा रही है लेकिन हिन्दी में दुष्यंत कुमार की ग़ज़लें बड़ी अदब और दमखम के साथ साहित्यिक दुनिया में खुद को साबित करतीं हैं और फिर यहीं से ग़ज़ल कल्पना और रुमानियत की हद से बाहर निकल कर ज़िन्दगी की असलियत से वाकिफ होती है -
      "मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूँ 
         वो ग़ज़ल आप को सुनाता हूँ 
दुष्यंत अपनी ग़ज़लों में ज़िन्दगी को आईने के बतौर पेश करते हैं। फिर भी कहन का विस्तार में रचना की ज़मीन संकुचित नहीं होती है, बल्कि उसका फ़लक बड़ा और घना है-
       "वे कह रहें हैं इश्क़ पर संजीदा गुफ़्तगू 
         मैं क्या बताऊँ मेरा कहीं और ध्यान है" 
हालांकि दुष्यंत इस आग्रह से ख़ुद को पूरी तरह से मुक्त नहीं कर पाते। गाहे- ब -गाहे यह रूहानी भाव कुछ यूँ अभिव्यक्ति को प्राप्त होता है-
     "तू किसी रेल सी गुज़रती है
        मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ 
         
       एक आदत सी बन गयी है तू 
       और आदत कभी नहीं जाती "
अद्भुत शैली, भाव एवं ताज़गी से छलकता यह क़लाम दुष्यंत की लेखनी की समृद्धि का सुंदरतम नमूना है।प्रेम की सहजता, सघनता की यह लयात्मक अभिव्यक्ति दुष्यंत को अमर करती है। शायर ने भिन्न-भिन्न तरीके से शैली बदल -बदल कर बात की है।
          "अब तो इस तालाब का पानी बदल दो 
           ये कंवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं"

बहुत कम शब्दों का सहारा लेकर ग़ज़लों के मिज़ाज एवं तरबीयत पर कुछ तथ्य काबिले ग़ौर है कि कविताएं जहां एक खास वर्ग अर्थात बौद्धिक समाज एवं प्रबुद्ध पाठकों तक ही अपनी गरिमा को स्थापित कर पाईं, तब भी समय-समय पर इसकी स्थिति भी संतोषप्रद नहीं रही। कारण- शिक्षा का गिरता स्तर एवं पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं के प्रति पाठकों में कम होता लगाव। वहीं साहित्यिक अभिरुचि न रखने वाला व्यक्ति भी रोज़मर्रा की अपनी ज़िंदगी में ग़ज़लों की दो चार पंक्तियों के माध्यम से हमजुबा ग़ज़लों का सहारा लेकर अपनी अभिव्यक्ति को पुख्ता करता मिल जाता है। अब सवाल यह है कि ग़ज़लें इतनी लोकप्रिय होते हुए भी साहित्य की मुख्य धारा में स्वयं को सशक्ति से क्यों स्थापित नहीं कर पाईं। वज़ह साफ़ तौर पर यही मालूम होती है कि "ग़ज़ल को मुक्त छंद में लिखी जाने वाली कविता की तरह जीवन में खुली आवाजाही का अवकाश ज्यादा नहीं रहता, वह बहर और रदीफ़- क़ाफ़िया के बंधनों के अनुशासन में अपनी यात्रा तय करती है।"शायद एक यह भी वज़ह रही हो कि अभिव्यक्ति के लिए सरल और सहज पद्धति न होने के कारण ग़ज़लों को तनिक दुरूह मान लिया गया, जबकि मुक्त छंद में लिखी कविताओं को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाना आसान रहा हो।अलंकार और मात्राओं की हद में बांधने की कवायद में कथ्य की संप्रेषणीयता, उसकी सरलता बाधित होने लगती हो, विषय-वस्तु, कहन का उद्देश्य व्यापक और जनकल्याणकारी हो तो उसे किसी बंदिश में न बाँधकर  मुक्त भी रखने में कोई ख़राबी नहीं है। महाप्राण निराला ने कभी न कभी इन्हीं नियमों एवं परम्पराओं की बंधन की लाचारगी को अवश्य समझा होगा तभी उन्होंने मुक्तक छंद की रवायतों पर बल दिया होगा। यह एक अलग वैचारिकता की मांग है। 
बहरहाल ग़ज़लों की समूची विरासत एवं इतिहास को मूल्यांकित करने के लिए व्यापक विमर्श एवं चर्चा की आवश्यकता को महसूस करना लाजमी है। इन संदर्भों को लेकर हाल के दिनों में कई पुस्तकें आई हैं जिन्‍होंने ग़ज़ल की परम्परा और मिज़ाज को परखने मेें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। 
समकालीन ग़ज़ल में यथार्थ-बोध को लेेेकर कुछ चर्चा करना चाहूूँगी, उन ग़ज़लों में समय और समाज में फैली विषमता और त्रासदी को चिन्हित कर कुछ बात हो। ऐसे में  विनय मिश्र की इन पंक्तियों का आसरा लेना चाहूँगी-
      "तुक मिलाने से कहीं ज़्यादा ज़रूरी थी कहन 
         बेतुकी-सी बात थी लेकिन ढिठाई से लिखा। "
ग़ज़ल के बंधन को निभाते हुए उसे आधुनिक रूप देना एक बड़ी रचनात्मक चुनौती है जिसे समकालीन ग़ज़लकारों ने बड़ी सफलता और सार्थकता के साथ निभाया। इसीलिए बल्ली सिंह चीमा ने लिखा है-
     "ये ग़ज़ल जो राजमहलों की कभी जागीर थी 
       अब तो इसको झोपड़ो की अंजुमन तक ले चलो"
बल्ली सिंह चीमा की यह ग़ज़ल इस बात का पुख्ता सबूत है कि समकालीन ग़ज़लकारों ने समय की संवेदना को बख़ूबी समझा और इस संकल्प के साथ अपनी साहित्यिक -यात्रा को जारी रखा कि अब ग़ज़लें एक ख़ास चौखटे से बाहर निकल कर जन-जन तक अपनी लोकप्रियता हासिल करें। ऐसे में इसका तेवर बदल गया। यह ग़ज़लें केवल मनोरंजन या शौक का जरिया नहीं रहीं बल्कि मनुष्य की विडम्बनाओं एवं सामाजिक अराजकता, असहिष्णुता और भौतिकतावदी मनोविकारों का सही-सही चित्र उकेरना इनका मूल उद्देश्य बना। इसलिए चीमा लिखते हैं-
         "बहुत जी लिए इन अंधेरों से डरकर 
           चलो देख लें काली रातों से लड़कर।"
 इसमें सबसे अधिक नुकसान मनुष्यता का हुआ -
         "जैसे तैसे बचा रह गया 
         आदमी और क्या रह गया" 
अपनी कहन एवं शैली के माध्यम से सामाजिक-बोध और जीवन-मूल्यों को सहेजने के लिए ग़ज़लकारों ने जिस आत्मसंघर्ष को अपनाया है, उसकी पड़ताल उदारता के साथ ही मुमकिन है। एक रचनाकार का संवेदन ही उसे सचेत और बेबाक बनाता है । विनय मिश्र की यह पंक्तियाँ क़ाबिल-ए-ग़ौर है -
       "ख़ुद में अपने से ही छूटकर 
         भीड़ में हर दफ़ा रह गया " 
 इन ग़ज़लों को पढ़ना और समझना अपने आप में अनुभव से गुजरते हुए परिपक्व होना है। इस दौर के ग़ज़लकारों की ख़ूबी यही है कि उनकी सृजनात्मकता का चेहरा निहायत व्यक्तिगत है, लेकिन इनमें गहरे उतरते जाएँ तो धीरे-धीरे वक़्त का अक्स उभरने लगता है। इन्होंने काल्पनिक सृजन-संसार की बजाय दुनिया की असलियत एवं गहरे जड़ जमाए हुए कुरीतियों और त्रासदियों को ग़ज़लों के लिए चुना। हरेराम समीप की लिखी यह पंक्तियाँ सोचने पर मजबूर करती हैं-
  "इस सियासत की गिनाऊ और क्या उपलब्धियां 
    त्रासदी- दर - त्रासदी -दर -त्रासदी -दर  त्रासदी " 
व्यंग्य मुस्कुराता हुआ है तो कहीं-कहीं यही व्यंग्य अधिक तल्ख और आक्रामकता के साथ हालातों को रखता है। अधिकतर विडंबनापूर्ण उक्तियाँ समय की जटिलता को व्यक्त करते हुए पाठकों को उत्तेजना और चिन्तन के लिए मजबूर करती हैं। अदम गोंडवी आक्रोश और आवेग- संपन्न रचनाकार हैं। उनका काव्यादर्श एक तीखी टिप्पणी बन पाठकों के भीतर बौखलाहट पैदा करता है। वह लिखते हैं- 
         "जी में आता है आईना को जला डालूँ
         भूख से जब मेरी बच्ची उदास होती है 

          जनता के पास एक ही चारा है बगावत
           ये बात कह रहा हूं होशो हवास में"
बगावती तेवर के साथ अपने अभाव एवं फकीरी में भी रचनाकार लिखता है और बिगुल फूंकता है कि अब हाथ पर हाथ धरे बैठने से कुछ ना होगा। अदम गोंडवी की ग़ज़लों में बेचैन आत्मा का संघर्ष पूरी शिद्दत और प्रमाणिकता के साथ मौजूद है। तेवर, मिज़ाज और कहन में तल्ख और आक्रोश एवं  विक्षुब्धता का गरजता स्वर है। उनकी ग़ज़लों में यथार्थ का स्वरूप अधिक आक्रामक और परिवर्तनकारी रहा है। यही वज़ह है कि अपने पूर्ववर्तियों और समकालीनों से अलग नज़र आते हैं ।सत्ता पर ,व्यवस्था पर काबिज़ अयोग्य एवं शोषकों को चुनौती देना होगा, तभी स्थितियाँ बदल सकती हैं, यह स्वर उनकी गज़लों  की पहचान है-
          "घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है। 
            बताओ कैसे लिख दूं धूप फागुन की नशीली है।।
             ×            ×                ×                   ×
     बगावत के कमल खिलते हैं दिल की सूखी दरिया में।
     मैं जब भी देखता हूं आंख बच्चों की पनीली है ।।"्र
इस अभिव्यक्ति से यथार्थ की पेशानी पर भी बल पड़ जाए। अनुभवों की तीखी चुभन और टीस अदम गोंडवी की रचनाओं की ज़मीन है -
       "सदन को घूस देकर बच गई कुर्सी तो देखोगे। 
         अगली योजना में घूसखोरी आम कर देंगे।।" 
अदम गोंडवी विकृत सामाजिक व्यवस्था एवं अवयवों का खाका अपनी ग़ज़लों में रूपायित करते हैं जो वास्तव में विकृत और कुरूप हो चुके हैं। कभी कठिन परिस्थितियां रचनाकार को जन्म देती है तो कभी यही रचनाकार अपनी लेखनी की ताक़त से विश्वव्यापी परिवर्तन का कारण बनता है। सब कुछ सहने और चुप रहने की फ़ितरत पर अदम बौखला जाते हैं और फिर कहते हैं-
      "नीलोफर शबनम नहीं अंगार की बात करो
        वक्त के बदले हुए मेयार की बातें करो 

        भाप बन सकती नहीं,पानी अगर हो नीम गर्म
        क्रांति लाने के लिए हथियार की बातें करो। 
अदम गोंडवी यहीं तक नहीं रुकते, वह गाँधी की नीतियों पर भी सुबहा और सवाल करते हुए कहते हैं-
      "लगी है होड़-सी देखो अमीरों और गरीबों में
        यह गांधीवाद के ढांचे की बुनियादी ख़राबी है

      तुम्हारी मेज चांदी की तुम्हारे जाम सोने के 
     यहां जुम्मन के घर में आज भी फूटी रकाबी है"
अदम तल्खी और तेज़ाबी तेवर में दुष्यंत कुमार से एक क़दम आगे हैं। दुष्यंत की ग़ज़लों में जीवन की इसी असामानता, असहिष्णुता, अव्यवस्था, अराजकता , अनैतिकता से भिड़ने की पूरी वफ़ादारी मिलती है।
   "हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए "
लेकिन अदम गोंडवी के यहाँ यह चिंगारी पाठकों  को परिवर्तनकारी निष्कर्ष तक पहुँचाता है, जो शुरुआत की चिंगारी दुष्यंत कुमार देते हैं। अदम के यहाँ वह आग अधिक जनप्रिय होकर हर दिल में घर कर गयी है- 
     "जामो -मीना की खनक से थी ये वाबस्ता जरूर 
        देखिए अब जिन्दगी की तजुर्मानी है ग़ज़ल। "
आज़ादी के बाद जिस समृद्ध और विकसित समाज और देश की परिकल्पना की गई थी, वह चंद स्वार्थी तत्वों और सत्तासीन शासकों की महत्त्वाकांक्षाओं की भेंट चढ़ गयी।
       "कैसा सम्मोहन है उसकी बातों में 
        नेता तो पूरा जादूगर लगता है " 
क्या यह वर्तमान का यथार्थ नहीं है ! एक ऐसा यथार्थ,  जहां लोकतंत्र के नाम पर हम इस्तेमाल हो रहे हैं और चंद मुठ्ठी भर तथाकथित देश के कर्णधार बनते यह नेता अपनी चिकनी चुपड़ी बातों से झांसे में लेकर हमारे अधिकारों एवं हितों का दोहन करते हैं और हम उनकी गिरफ्त में आ जाते हैं। हमारी स्थिति ऐसी है जैसे 'बहेलिया आएगा दाना डालेगा, फंसना नहीं'। लेकिन हमारी विडंबना है कि बहेलिया आता है, दाना डालता है, इसे रटते, समझते हुए भी हम 'फंस'जाते हैं। इस मुद्दे से ताल्लुक रखती महेश कटारे सुगम जी की ग़ज़ल भी स्वागत योग्य है-
      "बेईमान ख़िदमतगारों  से क्या होगा 
        लोक तंत्र के हत्यारों से क्या होगा " 
यह ग़ज़ल भी  समय को बताती है- 
     फट जाएंगे एक रोज़ शिक़म अहले हवश
     जनता का ये लोग बजट खाने में लगे हैं।" 
 विकास के नाम पर पूंजीवादी ताकतों का बंदरबांट, महत्वाकांक्षाओं एवं जरूरतों के बीच से मिटता भेद, आम जनजीवन को कितना खोखला और मूल्यरहित करता जा रहा है, इसकी बेचैनी इन पंक्तियों में देखी जा सकती है -
         "उन्हें पटरी बिछानी है, उन्हें सड़कें बनानी है
         तेरी खेती छिने या घर,उन्हें क्या फ़र्क पड़ता है।
राम नारायण हलधर की यह पंक्तियाँ भी समय की भयावहता को उजागर करती हैं। बेबसी और लाचारी का बड़ा मार्मिक चित्र पेश करते हैं अपनी ग़ज़लों में।अलग-अलग भाव-भूमि को लेकर ताज़गी और टटकेपन को बरकरार रखते हुए विभिन्न ग़ज़लगो ने बड़ी साफ़गोई से स्थितियों को उद्घाटित किया है। 
          "  श्रद्धा हो तो पत्थर शंकर लगता है 
             वरना शंकर में भी पत्थर लगता है।"
 लवलेश दत्त की इन पंक्तियों में लोक-जीवन में तैरता एक बंद 'मानो तो देव नहीं तो पत्थर'की स्मृतियों में ले जाता है। इसे जरा नए रूप में उतार कर अपनी लोक संस्कृति एवं आस्था को सहेजने का यह हुनर सराहनीय है। उनकी एक और ग़ज़ल की यह पंक्तियाँ बहुत स्पष्ट शब्दों में मौज़ूदा वक़्त को हमारे सामने रखती है-
      "रोटी कपड़ा घर को भूले 
        अब मंदिर-मस्जिद मुद्दा है " 
इतनी बेबाकी और स्पष्टता के साथ सृजन करना उसकी विश्वसनीयता को चिन्हित एवं सूचित करता है। यही वज़ह है कि रचनाकार को किसी खास विचारधारा अथवा खेमे से ताल्लुक न रखकर समसामयिक गतिविधियों एवं कार्यान्वयनो का सटीक परख होना, उसे दृष्टि संपन्न एवं कृतियों को कालजई बनाता है। हालातों को समझते हुए परिस्थितियों के साथ समझौते के लिए  विवश होने को इन पंक्तियों में बखूबी देखा जा सकता है-
      "अपनी शर्तों पर जीने का मंजर नहीं रहा
        जिंदा रहना अब अपने पर निर्भर नहीं रहा"
 मौजूदा दौर एक संवेदनशील व्यक्ति के लिए किसी बड़ी विडंबना और विफलता के रूप में उपस्थित है। यह पंक्तियां साफ़तौर पर जता रही हैं। विषम परिस्थितियों से निर्मित खुरदरी ज़मीन पर विनय मिश्र की ग़ज़लें कहीं खिलखिलाती, कहीं मुस्कुराती तो कहीं उग्र तेवर का मिज़ाज लेकर प्रस्फुटित हुई हैं।
       "यह समय का खुरदुरापन है इसी पर तो 
       मेरी ग़ज़लों की उगी हैं मखमली घासें
        ×              ×        ×                 ×
       लड़ाई हार भी जाऊं मगर संघर्ष बोलेगा 
      मेरी ग़ज़लों में गूंगा देश भारतवर्ष बोलेगा "
मुलायमियत के साथ संघर्ष की चिंगारी को अपने भीतर जोगा कर रखती यह ग़ज़लें अपने उद्देश्यों को पुख्ता करती हैं, साथ ही आने वाली पीढ़ियों को समसामयिक अराजकता एवं व्यवस्था पर प्रतिरोध करने का हौसला देती हैं- 
     "हमारा काम है बाज़ार में भी आदमी गढ़ना 
      तुम्हारा काम घर आंगन को भी बाज़ार करना है"
उपनिवेशवादी ताकतों का फैलाव, बाज़ारवादी संस्कृतियों के हाथों हमारे सपने गिरवी रखे जा चुके हैं। विनय मिश्र आत्मसजग ग़ज़लगो हैं 
      "अपने घर में ही किराएदार हूँ 
      सोचिए मैं किस क़दर लाचार हूं"
भौतिकवादी मनोवृति आज इतना हावी हो चुकी है कि अपनी जरूरतों एवं महत्वाकांक्षाओं के बीच की खींची महीन लकीर को समझ पाने में पूर्णता असफल हो चुके हैं। नतीजा मनुष्य अकेलापन, हताशा और कुंठा का शिकार हो चुका है। अपनी अस्मिता को खोकर, संवेदनहीन हो मशीन बनता जा रहा है। इसलिए वह लिखते हैं -
             "यह आदमी जितना पढ़ो 
              पहचान में आता नहीं"

          बस किसी उम्मीद का था आसरा 
          इसलिए मैं टूट कर बिखरा ना था"
समय बार -बार अपने विद्रूप शक़्ल व सूरत में  बेढब और आक्रामक रूप से अलग-अलग ग़ज़लों में रूपायित होता  आया है ।ज़हीर कुरैशी की ग़ज़लों में समय का संत्रास, मनुष्य की जड़ता, एकाकीपन, मानसिक द्वंद, राजनीतिक पैतरेबाजी ,उपभोक्तावादी दबाव, बाज़ार का फैलता मकड़जाल का जटिल यथार्थ पेश करता है-
      "कितने हज़ार डर हैं हर एक आदमी के साथ
      क्या आपको भी आपके डर का पता लगा?"
 डर का यथार्थ कितने पुरज़ोर तरीक़े से मनुष्य से सवाल करता है कि प्रत्येक डरा हुआ व्यक्ति को अपने डर की वज़ह का पता चलता है। डर ,आशंका, हताशा के बीच से हमारी सहज मानवीय रागात्मकता कहीं लुटती जा रही है। अपने द्वारा रचे गए अप्राकृतिक परिवेश का कुछ तो असर रखेगा -
           "यहां हर व्यक्ति है डर की कहानी-
            बड़ी उलझी है अंतर की कहानी"
जीवनानुभूति जितनी गहन होगी, रचना उतनी ही प्रासंगिक एवं असरकारक होगी। ज़हीर कुरैशी ने लिखा है कि-
     "चिन्तन ने कोई गीत लिखा या ग़ज़ल कही
       जन्में हैं अपने आप ही दोहे कबीर के। "
विराट तकनीकी सभ्यता के विकास के समय में भी 'क्या खोया क्या पाया'का मलाल क़ायम रखना होगा। किन मूल्यों को खोकर, किस क़दर खोखला हो रहें हैं। 
     "सत्य का पक्ष लेने के बाद लोग कायर दिखाई दिए
       उस परीक्षा में हर प्रश्न के चार उत्तर दिखाई दिए" 
सत्य का कोई विकल्प नहीं होता है लेकिन आज का दौर की सच्चाई है कि सत्य का भी कई विकल्प है। सबके 'अपने-अपने सच'हैं। मेयार सनेही की कहन की शैली एवं विषय का यथार्थ की बानगी सोचने को विवश करती है-
        "कभी इसका तो कभी उसका निज़ाम आता है 
        देखना यह है कि कब दौरे आवाम आता है"
 ग़ज़ल की यह पंक्तियां लोकतंत्र पर कटाक्ष है। इस लोकतंत्र के दौर-ए-जहाँ में  कुछ भी सुरक्षित और स्थिर नहीं है। इसी तरह दिव्या जैन के अश्आरो  में जीवन का यही कड़वा यथार्थ समय की भयावहता को दर्शाता है-
     "मुझको अब घर से निकलते हुए डर लगता है 
      अब हर एक राम में रावण का बसर लगता है"
इसमें हमारे दौर का वह स्याह सच है,जिसे हम रोज़ सहते हैं और सहते रहने को अभिशप्त हैं।
     "ये रोटी कितनी महंगी है ये वो औरत बताएगी
     कि जिसने जिस्म गिरवी रख के ये कीमत चुकाई है"

वहीं लवलेश जी लिखा है - 
    "भूख से व्याकुल बचपना देखा है 
       हाट में बिकता यौवन देखा है " 
यानी, लगातार सभी संवेदनशील रचनाकारों ने अपने मिज़ाज और अनुभव के तर्ज़ पर समय को मूल्यांकित किया है। ऐसे ही तथाकथित सभ्य समाज का हकीकत बयां करते अदम अपनी लेखनी के दायरों को अधिक विस्तृत करते हुए जहां भूख और गरीबी को चिन्हित करते हैं, वहीं जीवन के फलसफे को भी हमारे समक्ष ला खड़ा करते हैं-
       "आप कहते हैं जिसे इस देश का स्वर्णिम अतीत
        वो कहानी है महज प्रतिशोध की, संत्रास की
          ×                 ×                ×                ×
        इस व्यवस्था ने नई पीढ़ी को आखिर क्या दिया 
       सेक्स की रंगीनियाँ या गोलियां सल्फास की।" 
मिटती सभ्यता और घायल संस्कृति का मूल कारण बढ़ता बाज़ारवाद है और चाहे कि अनचाहे आज प्रत्येक व्यक्ति इसकी चपेट में आ गया है-
         "है कोई इन्सान जो उठकर कहे इस बज़्म में 
          मैंने अपने आप को बाज़ार में बेचा नहीं   " 
 कितना दारूण और स्याह पक्ष है हमारी तथाकथित उपलब्धियों का। जीवन का रंग और राग हमेशा के लिए रूठ गये लगते हैं। बाज़ार की रौनक बनती स्त्री, नई पीढ़ी का भटकाव, अतीत का मोह, राजनीति का गिरता स्तर ,समाजवाद का पतन, कामनाओं की अतिशयता, जातीयता और सांप्रदायिकता का बढ़ता विकृत रूप, भाषाई स्तर पर अलगाववाद का हिंसात्मक प्रतिरूप हर ओर विघटन है। ऐसे में किसी भी संवेदनशील व्यक्ति प्रतिरोध का स्वर दबाकर नहीं रह सकता। बल्कि वह गुहार लगाता है - 
            हमसफ़ीरों न तुम ख़ामोश रहना 
             मैं आवाज़ दूँ, तुम आवाज़ देना" 
और उस आवाज़ में असर होता है। आवाज़ आवाज़ को आमंत्रित करती है और वह साथ होने का नमूना पेश करती है माधव कौशिक के अल्फ़ाज में -
          "मेरी तरह उदास थे कुछ लोग भी 
            ऐसा नहीं मैं शहर में तन्हा उदास था"
यह उदासी कई आयामों को ज़ाहिर करती है। यह उदासी है विस्थापन की, खोखलेपन की, चिन्तन की जड़ता की, प्रतिरोध की नपुसंकता की, प्रेम के प्रति एकनिष्ठता की।
     "उस घर से कितनी यादें जुड़ी हैं मैं क्या कहूँ 
      जिस घर में लौटकर मैं दुबारा नहीं गया "
कितनी खलिश है विनय मिश्र की इस पंक्ति में। बाज़ार की चकाचौंध और दो वक़्त की रोटी की तलाश में अपनों से किस क़दर दूर हो गये। लेकिन इन स्थितियों के लिए ज़िम्मेदार लोगों के खिलाफ़ आवाज़ उठाने में भी हिचक अनुभव करते हैं लोग। और प्रतिरोध का मतलब आप अब उनके निशाने पर हैं ।तभी तो पुरुषोत्तम प्रतीक जी ने लिखा है -
     "चाकू के गांव में इंसान की बातें न कर 
      है बहुत खतरा यहां ईमान की बातें न कर "
अब यह आपका नैतिक दायित्व है कि आपको किस का पक्ष लेना है। अराजकता को हवा देंगे अथवा उन्हें रोकने, अंकुश लगाने के लिए अभिव्यक्ति के खतरे उठाएंगे।यह आपका निजी चुनाव है आप किस ओर रूख और करेंगे। इतिहास तो दोनों का लिखा जाना तय है और मनुष्यता एक न एक रोज़ कटघरे में खड़ा करेगी। तभी दुष्यंत को सुझा होगा - 
       "यहां तो सिर्फ गूंगे और बहरे लोग बसते हैं 
       खुदा जाने यहां पर किस तरह जलसा हुआ होगा"
यही आलम आज भी बना हुआ है। तभी मक़बूल मंजर की क़लम आह भरती है-
     "कहने को सलामत हूँ, मगर टूट रहा हूँ 
      हालात के हाथों का खिलौना जो हुआ" 
लेकिन ज़िन्दगी थमती नहीं, उम्मीदें टूटती नहीं। 'वो सुबहो कभी तो आएगी 'साहित्य समाज का प्रतिरूप है, और कल्पना उसमें नई भोर का अस्तित्व तलाशती है। 
यह तभी मुमकिन है जब हमारे भीतर 'जो है उससे बेहतर 'की चिंगारी जगी रहे। दुष्यंत के यहाँ यह भरोसा क़ायम है -
      "एक चिंगारी कहीं से ढूँढ लाओ दोस्तों 
        इस दीए में तेल से भीगी हुई बाती तो है"।
अमीर खुसरो से होते हुए भारतेंदु से लेकर चली हिंदी ग़ज़ल मुक्तिबोध, शमशेर बहादुर सिंह, दुष्यंत कुमार, नागार्जुन, पुरुषोत्तम प्रतीक ,केदार जी, रामकुमार  कृषक, अदम गोंडवी ,  ज़हीर कुरैशी, हरेराम समीप, बल्ली सिंह चीमा, ज्ञान प्रकाश विवेक, विनय मिश्र जैसे सशक्त ग़ज़लगो ने समय-समय पर मानवीय मूल्यों, वातावरण की संवेदना पर, वैश्विक सौहार्द्र,  सामाजिक समरसता के लिए, ग़ज़लों से सरोकार रखते हुए अभिव्यक्ति की तमाम आग्रहों को अपनाते हुए लेखनी की लंबी और चौड़ी रेखा खींची है। इन तमाम ग़ज़लों में अपने समय का समाज, आम आदमी की अजीयतें, प्रेम का पलायन ,अभावग्रस्त जीवन का संघर्ष, अव्यवस्था, महंगाई, शोषण से अभिशप्त जीवन जीने की बाध्यता को लेकर आए। साथ ही दुष्यंत कुमार ने ग़ज़ल की जो रहनुमाई की उसका अनुकरण करते हुए आगे की पीढ़ियां नए परिदृश्य रचने के लिए, बदलाव के बयार को लाने के लिए प्रतिबद्ध दिखते हैं -
    "दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर
     और कुछ हो या ना हो आकाश-सी छाती तो है"।
निधि सिंह की ग़ज़लों में यही आश्वासन नज़र आता है -
     "बहुत मुमकिन है सोता फूट जाए 
       कई बरसों से हम पत्थर रहे हैं।" 


 परिचय





भारती सिंह 
साहित्यिक गतिविधि- दस्तावेज़, वागर्थ ,पाखी , लहक ,सापेक्ष, वाक ,परिकथा, चौपाल, ककसाड़,  सुबह की धूप आदि पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित ।
संपर्क - नेहरू नगर ,चिनिया रोड, गढ़वा, झारखंड 
822114 
मोबाईल नम्बर- 9955660054


ज़करिया स्ट्रीट से मेफ़ेयर रोड तक : विसंगतियों का सिलसिला थमता नहीं

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पढ़ते हैं हाल ही में प्रकाशित रेणु गौरीसरिया की आत्मकथात्मक पुस्तक पर लिखी वाणी श्री बाजोरिया की समीक्षा।

वाणी श्री बाजोरिया एक स्नातकोत्तर  अवकाश प्राप्त शिक्षिका हैं, जिन्होंने साउथ प्वाइंट स्कूल और गोखले मेमोरियल गर्ल्स स्कूल में 20 वर्षों तक अध्यापन का कार्य किया।कविताएँ,कहानियाँ,समीक्षा,यात्रा-संस्मरण आदि लेखन में उनकी विशेष रूचि है। उनकी रचनाएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं। 'साहित्यिकी'नामक साहित्यिक संस्था से वे वर्षों से जुड़ी हैं जिसमें साहित्य चर्चा में वे समय समय पर वक्तव्य रखती हैं। वे विश्व में महिलाओं की सबसे बड़ी संस्था इनरव्हील से जुड़ी हैं जिसमें समाज सेवा का कार्य किया जाता है ।गरीब और निचले तबकों के लोगों के जीवन में सुधार लाने के लिए अनेक तरह के छोटे-बड़े काम करने में उन्हें सुख मिलता है।वे विभिन्न  रोगों के निवारण के लिए प्राणिक हीलिंग भी करती हैं। 

 

वाणी श्री बाजोरिया

9830617013

 रेणुजी से जब एक छोटी सी बातचीत मैंने उनकी आत्मकथा पर शुरू की और कहा कि आपको देखकर लगता नहीं कि आपने इतना कुछ सहा है तो बोलीं-'अरे बचपना था उस समय उम्र कम थी तो बचपने में ये सब कुछ हो गया था।'यही एक बात उन्हें सबसे अलग करती है।

न दुरूह शब्दों की श्रृंखलाओं के बोझ से दबी स्त्री-विमर्श की बड़ी-बड़ी बातें  न नारी शोषण के मुहावरों में स्वयं को फिट करने की मंशा। यही बेबाकी, ईमानदारी और सच्चाई उनकी पूरी पुस्तक, उनकी जीवनी में है- जिसका नाम है 'ज़करिया स्ट्रीट से मेफ़ेयर रोड तक'।

उच्च मध्यवर्गीय संपन्न व्यवसायिक परिवार में पैदा हुई रेणुजी के जीवन की घटनाओं को  चार भागों में बाँटकर देखा जा सकता है। प्रथम भाग में बचपन एवं परिवार की घटनाओं,  सुखद क्षणों एवं पारिवारिक माहौल का अत्यंत अंतरंगता से वर्णन किया है, क्योंकि  निर्माण की प्रक्रिया में बनी जीवन की इमारत का वह  कोना आज भी उनकी यादों से महक रहा है। भाई बहन के साथ खेलता- कूदता ,सुमधुर,किलकता प्यार भरा बचपन, संयुक्त परिवार में स्त्रियों का अपनापा, पुरुषों का संगठित पारिवारिक ढाँचा उनकी यादों के संसार में आज भी जीवित है। कोई भी नहीं भूल पाता इतना सुखमय बचपन, विशेषकर तब जब उसके बाद दुखों का अप्रत्याशित समुद्र लीलने सामने खड़ा हो। 

रेणु जी के जीवन का दूसरा अध्याय शुरू होता है उनके विवाह के पश्चात।प्रथम विवाह रेणु जी के जीवन में खुशियों का साम्राज्य लेकर आया  परंतु बहुत जल्द ही नियति के कुचक्र का ग्रास बन गया ।पत्नी पर जान छिड़कने वाले पति की असमय ही मृत्यु हो जाती है। वे चार महीने की  गर्भवती पत्नी को छोड़कर दुनिया से विदा ले लेते हैं। इतने बड़े बज्रपात के बाद एक तरह से वे पूरी तरह से टूट गईं परंतु उनके परिवार वालों ने उन्हें बहुत सहारा दिया और सँभाले रखा। रेणुजी लिखती है, "मैं सोचती हूँ जैसा बचपन मैंने जिया जैसे संस्कार मुझे मिले जिन आदर्शों को लेकर मैं आगे बढ़ी वह सब कैसे हुआ होगा! उस कच्ची उम्र में हठात् जो आँधी मुझे झकझोर गई थी उसे मैंने कैसे सहन किया होगा? मेरे परिवार वालों ने ,मेरे मित्रों ने मुझे टूटने नहीं दिया। मैंने तय किया कि मैं अपनी छूटी हुई पढ़ाई फिर से जारी करूँगी"।          

तत्पश्चात उनका पुनर्विवाह लंदन से पढ़ कर आए लक्ष्मीनारायण गौरीसरिया जो उम्र में उनसे दस वर्ष बड़े थे, से कर दिया गया। 

द्वितीय  विवाह की विसंगतियों को उन्होंने बेबाकी से लिखा। पति के साथ साथ ससुराल वालों का व्यवहार भी उनके साथ बहुत बुरा था। वे लिखती हैं "दर्द इतना बढ़ गया कि मेरा आत्मविश्वास डगमगाने लगा था और इन कष्ट कर हालातों से मुक्ति पाने के लिए तब मैंने दो दो बार आत्महत्या की चेष्टा की थी,जैसे -तैसे मुझे बचा लिया गया।"  "दूसरी बार होशियारी बरतते हुए किसी को कुछ बताए बगैर बहुत सारी नींद की गोलियाँ खा ली थीं पर समय रहते बचा ली गई। आज सोचती हूँ यह सब करते वक्त पम्मी नहीं थी क्या मेरे विचारों में कहीं भी।"एक जगह वे लिखती है कि "कुछ मधुर तो कुछ कटु दिन बीती रहे थे अचानक कुछ ऐसी घटना घटी कि मैं बुरी तरह घबरा कर बहुत ही असहाय महसूस करके माँ भैया के पास चली गई। आगे  लिखती हैं-यह कैसा पति है जो मेरी सुरक्षा का दायित्व नहीं ले सकता।"तीसरी बार उन्होंने फिर आत्महत्या का प्रयास किया मकान से कूदकर। तारीख थी 23 जून 1963 अगले महीने वे  22 वर्ष की होतीं।"

उम्र के उस पड़ाव पर जब कलियों जैसी वनिताओं को ससुराल में सुकोमल परिवेश की आवश्यकता होती है पर वह हमेशा नहीं मिल पाता ।वह कुछ समझने लायक हो उसके पहले ही पितृसत्तात्मक सोच और व्यवहार की चाबुकें उन्हें घायल कर देती हैं एवं कलियों का मासूम मन कुम्हला जाता है,जैसा कि रेणु जी के साथ हुआ। पुरुष अपनी वंशानुगत पुरानी सोच की श्रृंखला स्त्री के पैरों में डालकर सोचता है कि वह कदम से कदम मिलाकर चले,पर यह हो नहीं पाता है। अपनी मायके की जड़ों से काट दी गई स्त्री को दोबारा पनपने के लिए जिस कोमल जमीन  की आवश्यकता होती है उसकी जरूरत को पुरुष का अहंकार उपेक्षित कर देता है।दाम्पत्य की लंबी दायित्व पूर्ण यात्रा में स्त्री से ही अपेक्षा की जाती है कि उसे जो भी मिला है उसे शिरोधार्य मानकर अपना ले। अगर वह यह करने में चूक गई या उसने नकार दिया तो उसके सारे संबंधों के तार तोड़ दिए जाते हैं। अनकहा होकर भी यहाँ स्त्री- शोषण का एक व्यथा पूर्ण ढाँचा आकार ले ही लेता है, इस सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता। अपनी पुत्री से दूरी एक माता के लिए कितनी वेदना पूर्ण है यह उनकी पुस्तक में  जाहिर है ग्यारह वर्षों तक पुत्री से उनका संपर्क तोड़ दिया जाता है ।यहाँ तक कि उनकी पुत्री को यह भी नहीं पता कि उनकी माँ जीवित है या नहीं। 

रेणुजी के जीवन में विसंगतियों का सिलसिला थमता नहीं ,उन्हें दूसरी बार वैधव्य का सामना करना पड़ता है ।

रेणुजी के जीवन का तीसरा अध्याय अब शुरू होता है। इतने वेदना भरे अतीत के बावजूद वे स्वयं को समेट कर खड़ा करतीहैं।  द्वितीय बार वैधव्य के पश्चात जिस ढंग से उन्होंने स्वयं को  स्थापित किया वह अपने आप में प्रेरणास्पद है ।यह एक आम सी दिखनेवाली स्त्री की संघर्षपूर्ण गाथा है जो इस मायने में अपने को खास बनाती है कि किस तरह एक परकटी चिड़िया अपनी जिजीविषा को कायम रख कर अंततः पंख पा ही लेती है ।वे धीरे-धीरे उच्च शिक्षा प्राप्त कर पग पग पर अपने अतीत की स्मृतियों की अवहेलना कर आगे बढ़ती हैं, अध्यापन के कार्य से स्वयं अपनी नियति-निर्मात्री बनती हैं एवं 'जीवन'की उपस्थिति को सार्थकता देती हैं । स्मृतियों के चित्रों को जिस तरह से उन्होंने माला की तरह पिरोया है वह बहुत खूबसूरत है पढ़ते रहने को बाध्य करता है,कहीं भी ऊब नहीं होती ।सबसे बड़ी बात है आत्मीयता से जीवन के सारे चित्रों को ऐसे साहस के साथ उकेरना ।पुस्तक में कहीं ना कहीं पूरे स्त्री वर्ग की विडंबना का दस्तावेज हमारे सामने आता है,साथ ही साथ एक बहुत गहरा संदेश भी है कि माता- पिता हमेशा पुत्री का साथ दें जैसा रेणुजी के मायकेवालों ने दिया। उसे पराया धन मान कर अकेला न छोड़ दें ताकि  वह स्वयं को असहाय महसूस न करे ।

बचपन के विभिन्न कलाकारों, साहित्यकारों का संसर्ग ,फिल्मी दुनिया के लोगों का साथ ,नाटक की दुनिया के लोगों के साथ संपर्क, महान विद्वानों एवं संगीतज्ञों के साथ संपर्क, विभिन्न संस्थाओं से जुड़ाव के साथ-साथ मित्र संबंधों का फैलाव उनकी जीवन यात्रा को बल देता है।पुस्तक का यह चौथा भाग इन्हीं  संबंधों एवं संपर्कों को समर्पित है ।जहाँ आरंभ में एक ओर अभिजात्य वर्ग की स्त्री का मौन रहकर मर्यादा की सीमा को न तोड़ कर सब कुछ चुपचाप भोगने का वर्णन है ,तो पुस्तक के अंत में उनके स्वयं के पुत्र, पुत्री के मुक्त जीवन शैली की चर्चा भी बेबाकी से करती हैं। पुस्तक में एक पूरा युग बोलता है, जिसमें जीवन के बदलते रंगों का समाहार है।ऐसा लगता है मानो कोई नाटक चल रहा है जिसका हर बदलता दृश्य हमें आश्चर्यचकित भी करता है तो वर्णन की खूबसूरती के कारण पूरा प्रभाव भी डालता है। इतनी लंबी यात्रा के बाद भी मौन रहकर आज भी वे कार्यरत हैं। पुस्तक में वर्णित कथ्य कहीं भी शब्दों एवं भाषा का मोहताज नहीं है। बड़ी सादगी ,सरलता, निस्पृहता से अत्यंत प्रवाहमयी प्राँजल भाषा में पुस्तक लिखी गई है ।उम्र के इस पड़ाव पर आकर जीवन का पुनरावलोकन करना एवं उसे शब्द बद्ध करना कोई साधारण काम नहीं है। अपने को खोने के लिए रेणुजी ने किसी अन्य चीज का सहारा नहीं लिया वरण स्वयं को पाने एवं पुनर्स्थापित करने के लिए कलम थामी ।साहित्यिकी को गर्व है ऐसे संघर्षमय व्यक्तित्व की स्वामिनी सदस्य को अपने बीच पाकर।

मेले ठेले में दर्शक की एकाग्रता सिर्फ मंच पर घटित होते दृृृश्‍य पर रहती है

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विजय गौड 


जब झूठ की कोई भी बात लिख देना सोशल मीडिया में हलचल मचा देने वाला हो रहा हो, ऐसे में इतिहास की उस धारा को सामने लेकर आना, दुनिया को खुशहाल बनाने के लिए जिसकी बेचैनी बेशक कभी संदेह के दायरे में न रही हो लेकिन शासन-प्रशासन एवं अधिकारिक संस्‍थायें जिसका जिक्र करने तक से कन्‍नी काटती हो, जब उस इतिहास को सामने लाने का उद्यम सामने दिखे तो उसका उल्लेख होना ही चाहिए। इतिहास की ऐसी घटना का जिक्र करने वाली संस्‍था बेशक क्षेत्रिय अस्मिता को संतुष्ट करने वाली कोई भी संस्था हो चाहे। वर्तमान का घटनाक्रम ही तो भविष्य में इतिहास है। नाट्य संस्‍था वातायन के साथ मिलकर गढ़वाल महासभा, देहरादून जब नागेन्द्र सकलानी और मोलाराम भरदारी की शहादत और तिलाड़ी के नर संहार को  कौथिग 2022 के विषय के रूप में प्रस्तुत करें तो वह साधारण बात नहीं थी। इतिहास की एक क्रांतिधर्मा घटना को अपने कार्यक्रम का हिस्‍सा  बनाते  हुए गढ़वाल महासभा, देहरादून ने निश्चित ही भविष्‍य के उस सवाल को भी ताक पर रखा होगा कि बडे बजट के ऐसे कौथिग कार्यक्रम का आयोजन करने में मुश्किल आ सकती है। खाता -पीते मध्‍यवर्गीय पहाडी समाज के सहयोगियों से तो धन फिर भी जुटाया जा सकता है, क्‍योंकि संस्‍कृति के प्रति पिलपिले आग्रह में उस मानसिकता में डूबे व्‍यक्ति की मासूमियत तो डोली नाचे चाहे बिगुल बजे, उसकी अ‍स्मिता को तुष्ट करती ही रहती है, इस बात से उसे खास फर्क नहीं पडता कि घटना का मर्म क्‍या था, लेकिन राजनीति की धारा से बह कर आते धन का पतनाला जरूर पतला हो सकता है। 

गढ़वाल महासभा, देहरादून की स्‍थापना का इतिहास, रोजी-रोटी की तलाश में गढवाल छोडकर शहरों में आ बसने वाले उन गढवालियों की एकजुटता के साथ शक्‍ल लेता है, शहरों के छल छद्म से निपटने के लिए जिन्‍हें उस वक्‍त सांस्‍कृतिक और भोगोलिक पहचान के साथ एकजुट होना हौंसला देता था। अपनी स्थापना के दौर में बेशक ऐसा जरूरी रहा हो लेकिन आज जब देहरादून गढ़वाल वासियों की तादाद से भरा है तो उसकी उपस्थिति एकजुटता की सांस्‍कृतिक आवाज तक सीमित नहीं रह सकती, यह बिल्‍कुल तय बात है। इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता कि ऐसी संस्‍थाओं की राजनीति ''मुख्‍यधारा''की राजनीति के साथ गलबहियां करने में परहेज नहीं करती। बल्कि, बहुत बचते-बचाते हुए भी शासन-प्रशासन की मद्द पा जाने की कामना उन्‍हें ऐसे रास्‍तों को चुनने का ''नैतिक''आधार भी दे रही होती है। 

बावजूद इसके कौथिग-2022 के समाप्ति वाले दिन (कौथिग 2022 11 से 20 नवम्‍बर 2022) को कौथिग के मंच पर जो नजारा था, वह उस प्रवृत्ति से भिन्न था और नागेंद्र सकलानी और मोलाराम भरदारी की शहादत की कथा को आधार बनाकर रची गई डॉक्टर सुनील कैंथोला की कृति ''मुखजात्रा''नाटक का मंचन हुआ। नाटक का निर्देशन राष्‍ट्रीय नाट्य विद्यायाल से शिक्षित रंगकर्मी  सुवर्ण रावत ने किया। वातयान द्वारा आयोजित नाट्यशाला में तैयार किये गये इस नाटक में अभिनय करने वाले सभी कालाकार बधाई के पात्र हैं जिन्‍होंने न सिर्फ अपनी अभिनय क्षमता बल्कि दफन कर दी जा रही इतिहास गाथाओं को साकार करने के लिए उत्‍तराखण्‍ड के एक सीमित क्षेत्र ही सुनायी देने वाली रंवाई  भाषा को भी मंच पर उतारने की सफल कोशिश की। मेरी जानकारी में यह पहला ही अवसर होगा जब हिंदी नाटक के मंच पर रंवाई का इतना खूबसूरत प्रयोग किया गया हो। कलाकार जिस वक्‍त अपने अपने तरह से सुरीली रंवाई बोल रहे थे, बेशक उसको हूबहू अर्थों में समझना इतना आसान नहीं था, लेकिन तिलाड़ी नरसंहार की वह घटना, जिसे रंवाई का ढंडक के नाम से जाना गया ; टिहरी राजशाही के अमानवीय फरमानों  की मुखालफत से उपजा विद्रोह, सुंदर ढंग से बयां हो रही थी। मेले-ठेले के बीच इतिहास की बात करना, वह भी इस गंभीरता से, कोई सामान्य बात नहीं। न सिर्फ भाषाई उपस्थिति के लिए, बल्कि चाट पकोडों के स्‍वाद के लिए मेले में पहुंंचे खाते पीते मध्‍यवर्ग और मस्‍ती के लिए एक स्‍टाल से दूसरे स्‍टाल पर पहुंचते युवाओं से संवाद का माहौल बना देना कोई सरल बात नहीं, निर्देशक सुवर्ण रावत की कल्पना और उसका मंचीय प्रयोग एक यादगार क्षण है।  

1947 में भारत तो आजाद हुआ लेकिन टिहरी की जनता को तो राजशाही के शिकंजे से आजादी उस वक्‍त भी नहीं मिली। प्रजामंडल का आंदोलन, कम्युनिस्टों का आंदोलन टिहरी की जनता की उस आजादी का ही आंदोलन था जिसने राजशाही के उस क्रूर चेहरे को एक बार फिर सामने रख दिया जो 1930 में तिलाडी के ढंडकियों के नरसंंहार से गंदलाये अपने चेहरे के साथ था। 84 दिन जेल में रखने के बाद श्री देव सुमन की हत्या कर दी जाती है और हत्या का बदला लेने की इच्छाएं रखते हुए टिहरी राजसत्‍ता का खात्‍मा कर उसे भारत में विलय कर देने की आकांक्षा के साथ नागेंद्र सकलानी के नेतृत्व में जब टिहरी का जनसैलाब फिर से ढंडक रूप धरने लगता है तो हत्‍यारी सत्‍ता नागेंद्र सकलानी और माेलूू भरदारी की हत्‍या कर देने से नहीं चूकती। लेकिन अपने नेताओं की शहादत की मुखजात्रा के साथ परचम लहराती जनता को रोकना उसके लिए संभव नहीं रहता और टिहरी पर तिरंगा फहरने लगता है।  यह ऐसा मंचन था जो मेले की रोल-धौल के बीच भी अपनी बात कहने में सक्षम था। 

इसी नाटक का एक दूसरा पाठ 26 एवं 27 नवंबर देहरादून नगर निगम के टाउन हॉल में हुए प्रदर्शित हुआ। इसे दूसरा पाठ कहने के पीछे आशय स्‍पष्‍ट है; कौथिग में प्रदर्शित नाटक यहां अपने संपादित रूप में था। संपादित रूप नाट्य संस्‍था वातायन उसकी अहम भूमिका की बानगी बन रहा था जिससे डॉक्टर सुनील कैंथोला की कृति ''मुखजात्रा''मंचित होने वाले हिंदी नाटकों की सूचि का विस्‍तार कर रही थी। यही कारण है कि कोथिग में हुए मंचन


और 26 एवं 27 दिसंबर देहरादून नगर निगम के टाउन हॉल में हुए को एक ही तरह से विश्‍लेषित नहीं किया जा सकता। टाऊन हाल में प्रदर्शित नाटक संपादन की स्थितियों के बावजूद उस झोल में ही लटकता रहा जहां तिलाडी काण्‍ड का समय और टिहरी रियासत के भारत में विलय संबंधी आंदोलन के समय को अलग अलग पहचानना मुश्किल था। कौथिग में किये गये प्रदर्शन के दौरान यह झोल इस कारण से नजरअंदाज किये जाने वाली बात हो सकती है कि मेले ठेले में दर्शक की एकाग्रता सिर्फ घटित होते दृृृश्‍य पर रहती है। ऐसे में बहुत तार्किक हुए बगैर भी छुपा दिये जा रहे इतिहास को सामने लाना स्‍तुत्‍य ही है। लेकिन एक नाटक जब साहित्‍य के मानदण्‍डों पर अपने को प्रस्‍तुत किये जाने के साथ हो तो एक नाटकीय स्‍वरूप की विशिष्‍टता में भी कथा का तार्किक संयोजन बना रहे तो निर्देशक और लेखक के मंतव्‍य ज्‍यादा प्रभावी ढंग से दर्शक तक पहुंच सक‍ते हैं। यानी टिहरी राजशाही का अमानवीय चेहरा कथा की अतार्किकता में बेदाग भले न दिखाई दे, उस पर लगे दागों को देखना दर्शक के लिए संभव नहीं हो पाता। यह सवाल इसलिए भी महत्‍वपूर्ण है, क्‍योंकि नाट्य लेखक स्‍वयंं भी एक पात्र की तरह नाटक में मौजूद हैं। यदि ये मंचन ''मुखजात्रा''की स्‍क्रिप्‍ट को फाइनल रूप में पहुंचाने में कोई भूमिका निभाते हैं, हालांकि नाटक तो पहले से प्रकाशित है लेकिन लेखक स्‍वयं जानते होंगे कि नाटक सिर्फ पढने की विधा नहीं है बल्कि मंचन के बाद ही वह अपने असली रूप को पाता है, तो निश्‍चित ही इसे सिर्फ चूक नहीं माना जा सकता। यह चूक तो उस मूल अवधारणा के ही विरूद्ध है जिसके लिए नागेन्‍द्र सकलानी की शहादत को और तिलाडी कांड के नर संहार को याद रखा जाना जरूरी है। टाऊन हाल के प्रदर्शन में इस बात को भी छूट नहीं दी जा सकती कि मंच पर घास काटती महिलाओं क‍े दृृृश्य में पहाडी झलक दिखने के बावजूद यह पहचानना मुश्किल है कि वे महिलायें ब्रिटिश गढवाल का नहीं टिहरी का चेहरा है। इस बारीक फर्क को रखने की जरूरत इसलिए भी है कि रंवाई के ढंडकियों की कथा कहते कलाकारों से निर्देशक ने रवांई को जीवंत कर दिया था। समूह नृत्‍य को रंवाई का रंग देते लेखक महावीर रवालटा स्‍वयं मंच में थे। उत्‍तराखण्‍ड के पहाड के अन्‍य हिस्‍सों में भी होने वाले ऐसे ही समूह नृत्‍यों से अलग यहां कलाकारों के वे बोलते बदन थे जिसमें रंवाई के मानुष की झलक दिखती थी। भाषायी स्‍तर पर सचेत रहकर रंवाई भाषा को मंच पर लाने वाले निर्देशक से यह उम्‍मीद तो बंधती है कि रियासती टिहरी की भाषायी लटक और ब्रिटिश गढवाल की भाषयी लटक के फर्क को भी बनाये। भड्डू देवी का अभिनय कमाल का था लेकिन उनकी  भाषायी लटक टिहरी के बजाय चमोली की महिला की झलक दे रही थी।        


टाऊन हॉल के मंचन पर और भी बातें ध्‍यान खींचती हैं जिन पर चर्चा हो तो उम्‍मीद कर सकते हैं कि एक बेहतरीन नाटक से हिंदी नाटकों  का संसार जरूर समृृद्ध होगा। 

दो दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी - प्रवासी साहित्य और भारतीयता

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 कोलकाता, 17 दिसंबर 2022|


भारतीय भाषा परिषद और सदीनामा के संयुक्त तत्वावधान में आज भारतीय भाषा परिषद के सभागार में दो दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया| उद्घाटन से पहले वागर्थ के दिसंबर में अंक में प्रकाशित प्रवासी लेखिका प्रियंका ओम की कहानी ‘बाज मर्तवा जिंदगी’ का पाठ किया ‘सदीनामा’ पत्रिका की सह संपादक रेणुका अस्थाना ने| परिषद के वित्त सचिव घनश्याम सुगला ने उपस्थित विद्वानों और श्रोताओं का स्वागत करते हुए परिषद की अध्यक्ष डॉ.कुसुम खेमानी जी का संदेश सुनाया| खेमानी जी ने कहा कि आप सबों की उपस्थिति बताती है कि आप सबों को भारतीयता से अत्यधिक प्रेम है| मंच पर परिषद के पूर्व सचिव बिमला पोद्दार भी उपस्थित रहीं|

मंच पर उपस्थित विद्वानों ने तेजेंद्र शर्मा (लंदन) और डॉ. इंदु सिंह के संयोजन में आई सदीनामा प्रकाशन की पुस्तक ‘प्रवासी कहानियां’ का लोकार्पण किया|


वैचारिकी पत्रिका के संपादक बाबूलाल शर्मा ने ‘प्रवासी साहित्य में भारतीयता’ पर चर्चा करते हुए कहा कि प्रवासी साहित्य पर आयोजन बहुत ही कम देखने को मिलते हैं| आज का यह कार्यक्रम इस अर्थ में बेहद महत्वपूर्ण है| वागर्थ के संपादक और भारतीय भाषा परिषद के निदेशक डॉ.शंभुनाथ ने प्रवासी, अप्रवासी और भारतीयता के अर्थ विस्तार पर चर्चा की| उन्होंने कहा कि भारतीयता के साथ साथ स्थानीयता को भी समझना होगा|

एशियाटिक सोसायटी की प्रतिनिध चंद्रमलि सेनगुप्ता ने एशियाटिक सोसायटी की क्रायकलापों से परिचय कराते हुए प्रवासी साहित्य पर चर्चा की| उन्होंने बांग्ला के लेखक शरतचंद्र चट्टोपाध्याय, विभूतिभूषण बंद्योपाध्या, सतीनाथ भादुड़ी द्वारा प्रवास में रहकर लिखे गए साहित्य से अवगत कराया| बंगवासी कॉलेज (सांध्य) के प्रिंसिपल डॉ. संजीव चट्टोपाध्याय ने आज हिंदी सीखने की जरूरत पर बल दिया| साथ ही बांग्लादेश और पश्चिम बंगाल में बोली जाने वाली बांग्लाभाषा के रूप सौंदर्य पर बात की|

हिंदी विश्वविद्याल, हावड़ा के उप-कुलपति प्रो.दामोदर मिश्र ने कहा कि आज इतिहास को मिटाने की कोशिश की जा रही है| ग्लोबलाइजेश हमें कहां लेकर खड़ा करेगा कहना मुश्किल है| साथ ही उन्होंने साहित्य चर्चा के माध्यम से मनुष्यता को बचाए रखने की अपील की|

प्रथम सत्र का संचालन और धनयवाद ज्ञापन सदीनामा के संपादक जीतेंद्र जितांशु ने किया|


द्वितीय सत्र में रचना संवाद के अंतर्गत आशा बोड़ाल, गोपाल भित्री कोटी, मीना चतुर्वेदी, शकील गौंडवी, रौनक


अफरोज, सेराज खान बातिश, अभिज्ञात, सुरेश शॉ, रामनारायण झा, जतिव हयाल, ओम प्रकाश दूबे, शिप्रा मिश्रा, रवींद्र श्रीवास्तव, मीनाक्षी सांगानेरिया, सोहैल खान सोहैल, रमेश शर्मा, श्रद्धा टिबड़ेवाल, पूनम गुप्ता, संतोष कुमार वर्मा, अभिलाष मीणा, सीमा शर्मा, फौजिया अख्तर, जूली जाह्नवी, मौसमी प्रसाद, वंदना पाठक, रश्मि भारती, मोहन तिवारी, नीतू सिंह गदौलिया ने अपनी कविता का पाठ किया|

इस सत्र का संचालन और संयोजन किया रचना सरन, संदीप गुप्ता, सोहैल खान सोहैल, मीनाक्षी सांगानेरिया, रेणुका अस्थाना,

महेश कटारे की कहानी- पार

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हमारे लिये यह खुशी की बात है कि कथाकार राज बोहरे ने अपनी पसंद की कहानियो का चयन हमारे साथ शेयर करने का दायित्व लिया है. उसी शृंखला की आज पहली कहानी उनकी टीप के साथ प्र्स्तुत है.
महेश कटारे हिंदी कहानी का वह चेहरा हैं जिसे ग्रामीण कथाओं का उस्ताद कथाकार कहा जाता है। अपनी कहन में किस्सागोई को अनायास शामिल कर लेने वाले महेश कटारे जितना हिंदी बेल्ट में पढ़े जाते हैं उतना ही वे अहिंदी भाषी क्षेत्र में पढ़े जाते हैं । उनकी कहानियों की एक सीरीज जब इंटरनेट की एक वेब पोर्टल पर डाली गई तो उसके 10,000 डाउनलोड हिंदी बेल्ट में थे तो 9800 डाउनलोड अहिंदी भाषी क्षेत्र में थे। केवल गांव ही नहीं अपने परिवेश से जुड़े डाकू, पकड़, अपहरण और पुलिस से जुड़े तमाम वे तथ्य जो इस इलाके का एक गहरा भुक्तभोगी ही जान सकता है और जो हिंदी के पाठकों के लिए एकदम नया विषय व परिवेश लेकर आता है, वह सब महेश कटारे की कहानियों में होता है। यह कहानी 'पार'अपने शीर्षक में ही कई अर्थ देती है। प्रकट में तो केवल चंबल नदी के पार जाने की कथा है। एक महिला डकैत (जो पिछड़े वर्ग से आती है )अपने साथियों के साथ यह तय करती है कि जब तक पुलिस की सख्ती है मध्य प्रदेश से निकलकर उत्तर प्रदेश में चले जाओ । मध्य प्रदेश से उत्तर प्रदेश जाने का रास्ता चंबल नदी पार करने पर ही सुगम होता है, सड़कों पर पुलिस नाके हैं तो चंबल पार करने की यह कहानी अपने अर्थ विस्तार में बहुत सारी हदों को पार करा देती है। चंबल घाटी में भी पिछड़े वर्ग से डकैत आने लगे हैं तो स्त्रियों की डकैत बनने लगी हैं। इन नए जमाने के डकैतों का बर्ताव भी ठीक वैसा ही है जैसा अगड़े वर्ष के डकैतों का होता था। हां इतना फर्क है कि यह सब वह सारे काम और शोषण अगड़े वर्ग के साथ करते हैं उसी तेवर के साथ। उसी तरह की सख्ती करने में उन्हें कोई गुरेज नहीं है। इस कहानी के अंत में नायिका कमला केवल नदी नहीं एक और हद, एक और सीमा, एक और टैबू को पार करती है । नर नारी जून का फर्क मिटाती इस कहानी को जरूर पढ़ना चहिए प्रस्तुति -राज बोहरे

पार

        जान-पहचानी गैल पर पैर अपने-आप इच्छित दिशा को मुड़ जाते थे। हरिविलास आगे था-पीछे कमलाउसके पीछे अपहरण किया गया लड़का तथा गैंग के तीन सदस्य और थेयानी कुल छह जने। जिस समय वे ठिकाने से चले थे तब सामने पूरब में शाम का इन्द्रधनुष खिंचा थाअतः अनुमान था कि सबेरे पानी बरसेगा-संझा धनुषसबरे पानी। ठिकाने पर एक दिन भी सुस्ताते हुए न काट पाए थे कि मुखबिर की खबर आ गई थी-ठिकाने पर कभी भी घेरा पड़ सकता है। ऊपर का दबाव है इसलिए डी0आई0जी0भन्ना रहा है। दो जिलों की पुलिस का खास दस्ता एक नये डिप्टी को सौंप दिया है। नाक में दम कर रखा है हरामजादे ने।

                ऊँ....कुछ कहा हरिविलास पथरीली पगडण्डी पर बढ़ता हुआ            बोला।

                नहीं तो !कमला जाने किस सोच से बाहर आई-कभी-कभी पहाड़ दूभर हो जाता है।

                बूँदा-बाँदी से रपटन बढ़ गई है। पहाड़ की ऊँचाई तो पहले ही जितनी है।बात को मजाकिया मोड़ देने की आदत है हरिविलास को।

                तीन घण्टे में इस कीच-खच्चड़ के मौसम में छह कोस बढ़ आना कम नहीं है। ऊपर से कंधे पर पाँच-सात सेर वजन बंदूक का रहता हैपीठ के सफरी बैग में जरूरत की चीजें और कपड़े-लत्ते ठुँसे होते हैं। पुलिसवालों के खाने-पीनेगोली-बारूद के इंतजाम में तो पूरी सरकार पीछे होती है। यहाँ तो एक-एक चीज़ खुद जुटानी पड़ती है। सुई से लेकर माचिस तक के लिए दहेज-सा देना पड़ता है।

                इस बार की पुलिसिया सरगर्मी में कमला के गिरोह ने तय किया है कि पूरब में पचनदा पार कर यू0पी0में दस-पन्द्रह दिन गुजार लिये जाएँ। खबरे हैं कि उधर की पुलिस और सरकार दूसरी उठा-धराई में उलझी है इसलिए माहौल अनुकूल है। वैसे डाँग ही डाँग (जंगल) शिवपुरी की ओर भी निकला जा सकता था या धौलपुर को बगल देते हुए राजस्थान में भी कूदने से सुरक्षित हुआ जा सकता था।

                पहाड़ की आधी चढ़ाई तक पहुँचते-पहुँचते कमला की पिण्डलियाँ और पंजे पिराने लगे। धाराधार धावे में केवल दो जगह पानी पिया है। चलते-चलते बैठने पर थकान चढ़ दौड़ती है और बागी जीवन में आलसनींद और खाँसी तीनों खतरनाक हैं। माता की मढ़ी बस एक सपाटे-भर दूर है-बीस बाइस मिनिट का रास्तापर कमला ने हाथ की टार्च जमीन की ओर झुकाकर दो बार जलाई-बुझाई। इसका मतलब वहाँ कुछ सुस्ताना है।

                वह पगडण्डी के पत्थर पर बैठ गई तो गिरोह आसपास सिमट आया। अपहत यानी पकड़छीतर बनिया का पन्द्रह सोलह साल का लड़का है। पखवारे पहले गाँव के बाहर से गिरोह ने धर लिया था। हँगने आया था-पूँजी के नाम पर वही लोटा उसके पास है। दो लाख की फिरौती माँगी गई है। बिचौलिया एक पर लाना चाहता है। कहता है कि बनिया जरूर है जाति सेपर दम नही है उसमें। गाँव-गाँव फेरी लगाकर परिवार पालता है। गाँठ की कुल जमा चार बीघा जमीन बेच-बाचकर ही एक लाख की रकम जुटा पाएगा। खरीदार भी तो ऐसे बखत औनी-पौनी कीमत लगाते हैं।

                कमला डेढ़ लाख पर उतरकर अड़ी है। गरीब सही, पर है तो बनिया ! हाथी लटा (दुबला) होने पर भी बिटौरा सा होता है।

                इधर आ रे मोंड़ा !

                कमला की कड़क से सहमता लड़का उकरूँ आ बैठा। थकान से वह भी टूटा हुआ था। कमला उसे लद्दू बनाए थी। लद्दू यानी लादनेवाला। छह कोस से वह कमला का बैग और बंदूक ढो रहा है। अपनी ग्रीनर दोनाली कमला को बेहद प्रिय है, पर लंबे कूच में वह केवल पिस्तौल लटकाती है।

                तेरी फट क्यों रही है  पास आ.....के !

                मर्दो की तरह गंदी-गंदी गालियाँ कमला के मुँह से शुरू-शुरू में लड़के को बहुत भद्दी लगती थींपर अब जान चुका है कि यह सब काम मर्दो की नकल पर करती है। वैसे ही कपड़ेजूतेव्यौहारठसक और डॉंट-डपट बदहवासी से बलात्कार तक...।

                कमला ने लड़के की ओर पाँव पसार दिए। लड़का कुछ और सरककर पिंडिलियाँ दबाने लगा। पैरों पर सिपाहियों जैसे किरमिच के बूट चढ़े थे।

                बाबा के पास चून धरा हो तो आज रात माता के मंदिर में काट लें  आसपास गीधों की तरह बैठे साथियों से कमला ने सलाह ली।

                रात-रात में ही पार होना ठीक रहेगा। डर के मारे वह खुद भी रात को सटक लेता है।दूसरे ने मत प्रकट किया।

                नदी का पता नहीं कि चढ़ी है या पाट है। चढ़ी मिली तो औघट पार कौन करेगा ये पिल्ला अलग से संग बँधा है-भो....का !

                अपने आदमी कुछ न कुछ इंतजाम करेंगे ही.....।

                वो बम्हना भी तो होगा वहाँ। महीने-भर में ही तबादला थोड़े हो गया होगा उसका। इधर आने को कोई तैयार नहीं होता सो तीन साल से मजा मार रहा है हरामी। लैनेमेन की तनखा झटकता है। काम क्या है ....बिजली का तार इधर से उधरउधर से      इधर। सो भी बिजली चली गई तो अट्ठे पखवारे-भर पड़ा-पड़ा पादता रहेगा। इन साले बाम्हनों को तो लैन में खड़ा करके गोली मार देनी चाहिए। सब सीटों पर जमे बैठे हैं।

                कमला ने चिड़चिड़ाकर लड़के पर लात फटकार दी-भैंचो....! हाथों में जान नहीं है क्या  अभी छूट दे दो तो भैंस को गाभिन कर देगा।

                आकस्मिक प्रहार से लड़का गुलांट खाता हुआ लुढ़क गया। दर्द से कराहता हुआ वह आँसूस बहाने लगा। पकड़ को इसी तरह रखा जाता है। भूख, मार और दहशत से इतना तोड़ दिया जाता है कि अवसर मिलने पर भी निकल भागने का साहस न कर सके।

                लड़के की दुर्दशा पर कोई न पसीजा। यह तो होता ही है- उठ बे ! साले ठुसुर-ठुसुर की तो गोली मार के घाटी में फेंक दूँगी।कहते हुए कमला की निगाह घाटी की ओर घूम गई।

                कमला मोहिनी में बँध उठी। घाटी और उसके सिर पर तिरछी दीवार की तरह उठे पहाड़ पर जगर-मगर छाई थी। जुगनुओं के हजारो-लाखों गुच्छें दिप्-दिप् हो रहे थे। लगता था जैसे भादों का आकाश तारों के साथ घाटी में बिखर गया है। चमकते-बुड़ाते जुगनू कमला को हमेशा से भाते हैं। सांझी में क्वार के पहले पाख में लड़कियाँ कच्ची-पक्की दीवार पर गोबर की साँझी बनाती थीं। दूसरी लड़कियाँ तो अपनी-अपनी पंक्ति तोरई के पीले लौकी के सफेद, या तिल्ली के दुरंगे फूलों से सजाती थीं, कमला अपनी पंक्ति में जुगनू चिपका देतीफिर कुछ दूर खड़ी हो मुग्ध आँखों से अपना करतब निहारती थी। तब यह उसका खेल था- कहाँ समझती थी कि उसके खेल में जुगनू जान से जाते हैं।

                इलाके में आतंक है कमला काअपनी पर आती है तो किसी को नहीं छोड़ती। वह उसका खास था, जाति का थासप्लाई करता था, सुना जाता है कि कमला उससे जरूरत का काम भी लेती थी। गिरोह तक के लोग दबते थे उससे। अचानक जाने कैसे बिगड़ी कि कमला ने पचीसों के सामने उसके मुँह में मुतवाया और कोहिनी के ऊपर से दोनों हाथ गँडासेस से कतर दिए। जातिवाला थानहीं तो जैसा कि उसका तकिया कलाम है-अंगविशेष मे गोली घुसेड़ देती। वह आदमी इलाके में कमला का विज्ञापन बना घूमता है।

                चलो...माता की मढ़ी पै बिसराम करेंगे।कह कमला खड़ी हो गई।

                लड़के ने ग्रीनर बाँस की तरह कंधे पर रखी, ढीले बैग के फीते कसे और नाक सुड़कता हुआ बढ़नेवाले कदमों की प्रतीक्षा करने लगा। जानता है उसे न घाव सहलाने का     अधिकार है न दिखाने का। नाक में छल्ला-छिदे बछड़े की तरह उसी ओर मुड़ता है जिधर रस्सी का संकेत मिले।

                मंदिर पर पहुँच सबने चबूतरा छू, माथे से लगा, पा-लागन किया और जूते उतार फेरी लगाते हुए मढ़ी में घुस गए। मूर्ति के पैरों में एक चीकट दिया जल रहा था जिसकी आभा में मूर्ति प्राणवान् और रहस्यमय दिख रही थी। बाबा अँधेरा होते ही संझा-बत्ती कर शायद नीचे उतर गया होगा।

                पहाड़ के छोर पर बना यह छोटा-सा मंदिर रतनगढ़ की माता के नाम से प्रसिद्ध है। किंवदंती है कि दूज-दीवाली के दिन यहाँ आल्हा पूजा करने आते हैं। आल्हा अमर है-युधिष्ठिर का औतार। बड़े-बूढ़ों ने रात-बिरात किसी पचगजे (पाँच गज लम्बे) आदमी की पहाड़ी चढ़ती उतरती झलक देखी है। देखने वालों में ज्यादातर मर-जुड़ा गए। एकाध बचा है जिससे ब्यौरेवार कुछ पता नहीं चलता, बस धुंधा में कोई तस्वीर तनकर रह जाती है।

                मंदिर तक पहुँचने के केवल दो रास्ते हैं-एक तो पहाड़ी की कोर-कोर चलती ऊँची-नीची घुमावदार पगडण्डी और दूसरा खण्डहर हुए लौहागढ़ के किले होकर दीवार की तरह सीधी खड़ी पहाड़ियों के सिर पर माँग-सी-भरती तीन कोसी कच्ची सड़क। मढ़ी की छत पर बैठा आदमी पल्टन भी आगे बढ़ने से रोक सकता है। दो चार को तो गोफनी में गिट्टी भरकर निपटाया जा सकताा है।

                चौमासे में यह स्थान गिरोहों के लिए मैया का वरदान है। ऋषि-मुनियों की तरह दस्युदल चातुमार्स ऐसे ही ठिकानों पर बिताते हैं। कमला के गिरोह का नाई सदस्य हरविलास जनम का हँसोड़ है। कहता है- हम लोग जोगी-जाती हैं। करपात्री हैं। जब जहाँ जो मिल जाए खा लो और मौका मिल जाए तो सो लो। बाकी चलते रहो। जोगी-जती कहीं किसी से नहीं बँधते। हमारी भी वही गति है। न जिंदगी का मोहन घर-द्वार की मया (माया)।

                एक वही है जो कभी-कभी मौज में आकर कमला को बीबीजान कह देता है। पहली बार तो सुनकर कमला हत्थे से उखड़ गई थी, पर जब उसने बताया था कि फिल्मों में सबसे सुन्दर और घर की मालकिन को बीबीजान कहा जाता हैतब से कमला यह सुनकर खिल जाती है। कमला ने हरिविलास की हैसियत बढ़ाई है, कैंची-उस्तरा की जगह बारह बोर सौंपी है।

                हरिविलास ने ही बताया था कि-बीबीजान को हम रण्डी समझते हैं.....कुछ जानते थोड़े हैं। जाननेवाले तो दिल्ली-बंबई में रहते हैं। तड़ातड़ मारनेवाले को वहाँ लाखों-करोड़ों, कोठी-कार मिलते हैं। हमें क्या मिलता है सेंतमेंत की दुःख-तकलीफ देते-लेते हैं।

                ऐसे में कमला हँसकर कहती है-साला नउआघरवाली का टेंटुआ चीरकर     इधर क्या आ मरा  निकल जाता बंबई या दिल्ली।

                दिल्ली तो हम तुम्हें पहुँचाएँगेकमला बीबी ! वहाँ अपनी फूलन अकेली है- बस, एक बड़ा स्वयंवर रच दो। दिल्ली-बंबई वाले लार टपकाते तुम्हारे पीछे न घूमें तो मैं मूँछ मुड़ा के नाम बदल लूँगा। फूलन तो शकल-सूरत से मात खा गई। तू पहुँचते ही मिनिस्टर हो जाएगी।

                कमला सोचती है- नउआ ससुरा बड़ा ऐबी है। छत्तीसा साला ! सपनों के हिंडोले पे झुला देता है।प्रकट में कहती है- चुनाव तेरा बाप जितवाएगा

                मेरा बाप तो जाने सरग में है कि नरक में ....पर कोई न कोई बाप मिल ही जाएगा। और चुनाव तो आजकल जाति जितवाती है। तेरी जाति, मेरी जाति और बाप की जाति-बस हो गए पार।हरिविलास खी-खी कर देता है।

                टैम कितना हो गया ? कमला की पूछती निगाह हरिविलास पर घूमी। हरिविलास की घड़ी पानी भर जाने से बंद है। कमला की घड़ी पट्टा टूट जाने से सामान के साथ लद्दू की पीठ पर लदी है। बाकी बे-घड़ी हैं। बादलों की टुकड़ियों से सप्तऋषि और सूका (शुक्र) भी दुबके-ढके हैं।

                दस के लगभग होंगे।बन्दूक पर हाथ फेरते हरिविलास बोला।

                अब तो चार घड़ी यहीं बिसराम ठीक रहेगा। भोर में नदी पार कर लेंगे।छत की छॉव और चोटी का पवन पाकर गिरोह में आलस पसरने लगा था।

                थोडा-बहुत पेट में भी डालना है। भागमभाग में दोपहर आधा-अधूरा खाया, तब से एक घूँट चाय भी नहीं मिली।

                मौन स्वीकृति के साथ सबके झोले खुलने लगे। लड़के ने पीठ का थैला खोलकर कमला के सामने रख दिया। बोतल निकाल कमला ने तीन-चार बड़े बडे घूँट भरे। सबके पास इसी किस्म की बोतले हैं। इनका खास लाभ यह रहता है कि वजन में हल्की होती हैं। लड़का इस उसकी ओर टुकुर-टुकुर ताक रहा था कि कोई उसे दो घूँट पानी के लिए पूछ ले । मुँह से माँगने पर कमला के कोप का शिकार हो सकता है। संग-साथ रहते जान चुका है कि भूख-प्यास के बखत कमला खूँखार हो जाती है। पहाड़ी चढ़ते समय भी उसका गला चटका जा रहा था।

        प्यास के साथ उसे घर की याद भी आ रही थी। वहाँ पर वह भरपेट खाकर मजे से सो रहा होता। माँ याद आई- क्या वह सो चुकी होगी जग रही होगी। चारों भाई-बहनों पर हाथ फेरकर ही सोने लेटने है। मेरे बदले का हाथ किस पर फेरती होगी ?

        भूख-प्यास भूलकर लड़का झर-झर आँसू टपकाने लगा। हिलकियों से देह हिल उठी। कमला बिस्कुट कुतरने में लगी थी। भौंहे चढ़ाकर फुफकारती-क्या हुआ बे  बीछू लग गया क्या

        हिलकियाँ रोकने की कोशिश में लड़का और भी हिलने लगा।

        बोलते क्यों नहीं मादर....! कुछ खाने बैठोतभी खोटा करने लगता है। जी में आता है कि ....मैं गोली उतारकर ठूँठ पै टाँग दूँ हरामी को। चप....।

        कमला ने दो बिस्कुट उसकी ओर फर्श पर फेंक दिये। लड़का आँसू सँभालता हुआ बिस्कुट चबाने लगा। बिस्कुट का गूदा वह बार-बार जीभ से भीतरर की ओर ठेलतापर प्यासे मुँह लार न होने से पेट में न सरक पाता। लड़का घूँट से भरता बिस्कुट निगलने की कोशिश कर रहा था।

        दिए की पीली रोशनी में हरिविलास को लगा कि लड़के की आँखे बिल्कुल वैसी ही हो रही हैं जैसी उस्तरा गर्दन पर रखे जाते समय उसकी पत्नी की हो गई थीं। अनमने हरिविलास ने अपनी बोतल लड़के की ओर सरका दी- पानी पी ले पहले।

        लड़के ने बिस्कुट चबाती कमला की ओर देखा।

        पी ले ना !हरिविलास ने नरमी से कहा।

        लड़का फिर भी हाथ न बढ़ा पाया।

        पी ना....के।हरिविलास की चीख मढ़िया में गूँज गई।

        लड़के ने सकपकाकर बोतल झपट ली। कमला मुस्करा उठी। दूसरे हँस पड़े- दीवारों के बीच कहकहे भर गए। माता की मूर्ति उसी तरह अविचल थी- सिंह पर सवार, सिर की ओर त्रिशूल ताने।

                सहमते लड़के ने गिनती के चार बड़े-बड़े घूँट भरे और ढक्कन कसकर बोतल हरिविलास की ओर बढ़ा दी।

                अब चल देना चाहिए।हरिविलास की गंभीरता से गिरोह के लोग चौंक गए।  

        क्यों ? यहाँ बिसराम ....दीवार के सहारे अधपसरी होती कमला ने पूछा।

                कान खोलो ! दखिनी तरी में मोर कोंक रहे हैं....सियार भी रोए हैं। दबस (दबिस) हो सकती है।’’

                अलसाता गिरोह चौकन्ना हो गया। कमला ने दीवार से टिकी ग्रीनर दुनाली झटके के साथ पकड़ ली। और कमर में बँधी बेल्ट से दो कारतूस निकाल तेजी के साथ बेरल में ठोंक दिए।

                अगले क्षण गिरोह खुले चबूतरे पर था। सबकेक आँख-कान टोह पर थे। अँधेरे में दुश्मन को गच्चा दिया जा सकता है तो दुश्मन भी अँधेरे का लाभ उठाकर घेर सकता है। मोर रह-रहकर कोंक उठते थे। संकेत, किसी के मंदिर की ओर बढ़ते जैसे थे।

                देखो-देखो। वो बाटरी चमकी !’’ तरी के घने बबूल वन में कुछ चमककर बुझा था।

        दूसरा गिरोह भी हो सकता है।

        कौन होगा ? चरन बाबा शहर में है। इधर है ही नहीं।

        देवा घूम सकता है। उसकी बिरादरी के काफी घर हैं इधर।’’

        पुलिस भी तो हो सकती है-गैल काटकर आ रही हो।’’

        डाबर में पुलिस वाले क्यों मरेगे ?

        नौकरी के लिए सब करना पड़ता है, मन-बेमन से।’’

        अब जल्दी से पार निकल जाना चाहिए।’’

        उधर यू.पी. की पुलिस डटी हो तो ? उधर की सूँघ-साँघ तो लेनी पड़ेगी।’’

                तो जा ! लुगाई के घाँघरे में दुबक जा। अबे साले, तू क्या पुलिस की जगह जिंदाबाद-जिंदाबाद गानेवाली भीड़ की उम्मीद रखता है ? बागी क्यों बना ? लुल्लू-लुल्लू करता घर रहता और टाँग पसारकर सोता।’’ हरिविलास की इस झल्लाहट पर चुप्पी हो गई। इसे अचानक हो क्या गया है ?

                जल्दी के लिए खड़ा उतार पकड़ा गया। टॉर्च जलाना खतरनाक था। पैरों को तौल-तौलकर रखना पड़ रहा था। लड़के को अब हरिविलास ने अपनी बगल में ले लिया- इन रास्तों के लिए कच्चा और निज़ोरा है लड़का। नेंक चूकते ही हजारों हाथ नीचे पहुँचेगा। हड्डियाँ भी नहीं बचेंगी- सबरे तक। लड़के की पीठ पर अब केवल सफरी बैग था। बंदूक कमला ने सँभाल ली थी।

                नीचे पहुँचते ही बेसाली के भरके (बीहड़) शुरू हो जाते हैं। यहाँ की मिट्टी पानी में बूँद के साथ घुलकर बहने लगती है। हर बरसात में बीहड़ा का नक्शा बदलता है। बड़े ढूह टूट और भहराकर निशान खो देते हैं तो छोटे ढूह नीचे की मिट्टी बहने से ऊँचे हो जाते हैं। हर साल पुराने के आसपास नए रास्ते बनते व चुने जाते हैं। गैर-जानकार के लिए पूरी भूल भुलैया हैं भरके। फँसने वाले का राम ही मालिक है। भेड़िए, बघेरे, साँप-सियार सभी का तो आसरा है इनमें। जंगली जानवरों से बचने के लिए गिरोह ने टॉर्च जला ली। रोशनी से चमकमकाए जानवर पास नहीं आते। पुलिस के यहाँ भय नहीं- कदम-कदम पर ओट व सुरंगो जैसे रास्ते हैं।

        आधी रात छूते-छूते गिरोह ने बेसली की रेत पकड़ ली। नदी में बाढ़ नहीं थी, पर बिना तैरे पार न हुआ जा सकता था।

        कमला ने नथुआ को बुलाकर समझाया-‘‘नत्थू ! तुम इस सुअरा को जलेकर खैरपुरा पहुँचो। मेहमानी करो दो-चार दिन। इसे भुसहरा में डाल देना- आराम कर लेगा। इधर की जानकारी लेते रहना ! ऐसी-वैसी बात न हुई तो छठे दिन मंदिर पै मिलेंगे। और सुन, चरन बाबा या भरोसा गूजरा की गैंग टकरा जाय तो बरक जाना। ये मादर....अपने को धरती से दो हाथ ऊँचा समझते हैं।’’

        नत्थू ने लड़के की पीठ से कमला का बैग निकलवाया और अपना कस दिया, फिर ‘‘जय भीमबोलकर दो छायाओं के साथ अँधेरे में समा गया।

        अब गिरोह तीन जगह बँट गया था। अपनी-अपनी जाति में सुरक्षा पाना आम चलन है। भरकों के बीच चौरस जगहों पर खेत हैं। जगह-जगह नलकूप व उसके साथ मंजिला-दोमंजिला कोठरियाँ हैं। आराम से खाते हुए पड़े रहो और खतरे की भनक मिलने पर बीहड़ में सरक लो।

        हरिविलास को कमला ने बिजली वाले रमा पंडित को लाने भेज दिया था। बाम्हन होकर भी तैरने में मल्लाहों के कान काटता है। यहाँ नौकरी करते, डाकुओं से साबका रोजमर्रा की चीज़ है, पर वह कमला से बेतरह डरता है। तरह-तरह के किस्से हैं, उसके बारे में-बड़ी जाति से घृणा करती है। आदमी छाँटकर महीने-दो महीने सेवा करवाती है, फिर गोली मार देती है। बुलावे पर पहुँचने की मजबूरी ठहरी-रोज यहीं रहकर बिजली के खंभों पर चढ़ना  उतरना है।

        रेत पर चित्त पड़ी कमला के पास पहुँच रामा ने हरिविलास के बताए अनुसार अभिवादन किया।

        तू ही रामा पण्डित है ? ’’ कमला ने पूछा।

        हाँ, बहन जी !’’

        भैंचो ....! तुझे मैं बहन दिखती हूँ ?’’

        रामा घबरा गया-मैंने तो .....मैं....माफ कर दें।’’ वह घिघियाने लगा। समझ नहीं पा रहा था कि कैसे संबोधित करें।

        ठीक है, जल्दी कर !’’ कमल बैठ गई- ‘‘और सुन, दगा-धोखा किया तो लाश चील-कौवे खाते दिखेंगे ! सामान ले जा पहले, तब तक मैं कपड़े उतारती हूँ।’’

        जी-ी-ी ?’’

        ठीक है।’’ रामा ने कंधे पर रखा मथना रेत पर रख दिया। बैग का सामान मथना के भीतर जमाया गया। दो बंदूकें खड़ी करके फँसाई गई।

        तुम दोनों इसके साथ तैरकर पार पहुँचो। मैं इसे निशाने पर रखती हूँ, तुम उस पार से से रखना।’’ कमला ने सुरक्षा-व्यवस्था समझाई।

        बादल छँट जाने से सप्तमी का चन्द्रमा उग आया था। पार के किनारे धुँधले-से दिखाई देने लगे थे। तीनों उघाड़े होकर पानी में ऊपर गए। कमर तक पानी में पहुँच रामा ने गंगा जी का स्मरण कर एक चुल्लू पानी मुँह में डाला, उसके बाद दूसरा सिर से घुमाते हुए धार की ओर उछाल दिया। दो कदम और आगे बढ़ रामा ने बाई हथेली तली से चिपकाई व दाहिनी मुट्ठी मथना के किनारे पर कस दी-जै गंगा मैया !

        जै गंगा मैया !

        तीनों पैर-उछाल लेकर पानी की सतह पर औंधे हो गए। गुमका मारता हुआ रामा आगे और बहमा छाँटते दोनों पीछे। पानी का फैलाव अनुमान से अधिक निकला। दोनों बागी पार पहुँचते-पहुँचते पस्त हो गए थे।

        पंडितथक गए क्या  लम्बी साँसे भरते हरिविलास ने पूछा।

        थकान तो आती ही है।मथना से सामान निकालते रामा ने उत्तर दिया।

        तुम आराम से आना-जाना। जल्दबाजी की जरूरत नहीं है। उधर सुस्ता लेना कुछ। औरत वाली बात है। मथना थामने की क्रिया बता देना उसे।हरिविलास ने समझाया।

        बैफिकर रहोकहा रामा पंडित मथना के साथ फिर पानी में आ गया। धार काटते हुए सोच रहा था कि बस आज की रात खेम-कुशल से गुजर जाए। कल इंजीनियर के सामने जाकर खड़ा हो जाऊँगा कि साबतीन साल हो गए सूली की सेज पर सोते, अब तबादला कर दो। जान सदा जोखिम मेंऊपर से अपमान।

        सोच में उतराता रामा किनारे आ गया। कंधे पर मथना रख चुचुआती देह लिये वह कमला की दिशा में चलने लगा। हल्की-हल्की हवा से देह ठण्ड पकड़ने लगी थी। चाँद कभी खुलताकभी ढँक जाता। उस पार के आदमी धब्बे की झाँई मार रहे थे। नदी का फैलाव अस्सी-नब्बे हाथ तो रहा ही होगा।

        आ गया  कमला की आवाज आई।

        रामा के मुँह से केवल हूँनिकल सका। आने-जाने में हुई देर पर खींझकर कहीं भड़क न बैठे, इसके डर से रामा सहमा-सा खड़ा हो गया-सामान दे दो, रख दूँ।

        ले !कमला ने अपने जूते बढ़ा दिए। रामा को लेने पड़े। वह ग्लानि से भर गया-साली नीच जाति की औरत। बड़उआ जाति का कोई ऐसा कभी न करता। उसेन जूते मथना की तरी में जमा दिए।

        और...

        इस बार कमला की पेंट थी। रामा सनाका खा गया। पेंट के साथ चड्डी थी। सिर नीचा किये उसने ये भी भर दिए।

        तेरे घर कौन-कौन है घरवाली है

        बसएक बिटिया है पाँच बरस की। घरवाली तीन साल पहले रही नहीं।

        अच्छामैं अगर तुझे रख लूँ तो....जैसे मर्द औरत को रखता है।

        ----------

        कुछ कहा नहीं तूने  कमला की आव़ाज कठोर हुई।

        मैं ...क्या कहूँ  तुम ठहरी जंगल की रानी और मैं नौकरपेशा। आज यहाँ, कल वहाँ।

        यहाँ है तब तक रहेगा मेरा रखैला

        अब मैं क्या बोलूँ

        गूँगा है  डर मत ! मैंने जिनकी कुगत की है वे दगाबाज थे। संग सोकर बदनामी करने वाले को मैं नहीं छोड़ती। तुझसे भी साफ कह रही हूँ-ले ये भी रख दें।

        लेने के लिए हाथ बढ़ाते रामा ने देखा कि कमला कमीज़ उतारकर बढ़ा रही है।

        हल्के-से उजाले में कमला की देह किरणें छोड़ रही थी। रामा की आँखें भिंच गई। उसे मथना का मुँह नहीं मिल रहा था। हाथ कभी इधर पड़ताकभी उधर। पसीना छलछलाकर रोएँ खड़े हो गए। नथुनों में कोई विकल गंध भर रही थी। पैर झनझना आए। कसमसाती देह फट पड़ने को हो गई।

        और ये भी....।कमला की काँसे की खनकती हँसी के साथ रामा ने पाया कि वह रेत पर पटक लिया गया है।

                ना....ना ! छोड़ो.....!करता रामा रेत रौंदने में शामिल हो गया।

                थोड़ी देर बाद उस पार से कूक आई। कमला ने कूक से उत्तर दिया कि- सब ठीक है।...लापेंट निकाल।

                रामा ने अपराधी की तरह पेंट निकाली।

                कमीज...।

                पेंट कमीज कसकर सिर से साफी बाँध कमला ने बंदूक उठा ली-चलपार पहुँचा।

                मथना में दुनाली रखते हुए लोहे के ठण्डे स्पर्श से रामा में कँपकँपी भर आई। वह कमर तक पानी में खड़ा हो कमला के कदम गिनने लगा।

रचने में ही रचा जाता हूँ

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समानांतर कहानी आंदोलन से लेखन में लगातार सक्रिय कथाकार सुभाष पंत ने फरवरी 2023 में अपनी उम्र के 84वें वर्ष को पार कर 85वें वर्ष में प्रवेश करते हुए अपने पाठकों और शुभचितकों को इस सुखद अहसास की सूचना को सार्वजनिक किया कि उन्होनें अपने नये उपन्यास “एक रात का फैसला” पूरा कर लिया है. निश्चित ही पाठक उपन्यास का 2023 में बेसब्री से इंतजार करेंगे.

लम्बे समय से रचनारत अपने ऐसे महत्वपूर्ण रचनाकर के सम्पूर्ण रचना संसार से गुजरने की कोशिश करते हुए यह ब्लाग मार्च माह की सारी पोस्टो को उनसे सम्बंधित रखते हुए किसी पत्रिका के एक विशेषांक की सी स्थितियाँ बनाना चाह रहा है. कोशिश रहेगी कि उनके प्रिय पाठक और सहयोगी रचनाकारो तक पहुंचा जाये. उम्मीद है वे अपने अपने तरह से अपना सहयोग अवश्य देना चाहेंगे. सुभाष पंत जी के नये उपन्यास का एक अंश भी पाठक अवश्य पढ़ पाएंगे.


मार्च माह के इस आयोजन की घोषणा के साथ हम यह भी अवगत कराना चाहते हैं कि इस पूरे वर्ष और आगे भी हम 80 की उम्र को पार कर चुके अपने उन मह्त्वपूर्ण रचनाकारो पर केंद्रित करने का प्र्यास करेंगे जो रचनाकर्म में लगातार सक्रिय हैं. यह खुलासा करने में हमें संकोच नहीं कि प्राथमिकता के तौर हम देहरादून के रचनाकार गुरूदीप खुराना
, मदन शर्मा और जीतेंद्र शर्मा, डा. शोभाराम शर्मा आदि के रचनाकर्म पर केंद्रित रहना चाहेंगे.  पाठकों से हमारा अनुरोध है, वे हमें अन्य शहरो में रहने वाले ऐसे रचनाकारो तक पहुंचा जाए. उम्मीद हैके बारे में अवश्य अवगत कराएंगे ताकि हम उन तक पहुंच सके.

आइये भागीदार होते हैं कवि शमशेर की कविता पुस्तक के शीर्षक से शुरु हो रही इस यात्रा के.  

विगौ


सुबह का भूला सुभाष पंत

सुरेश उनियाल



बात 1972के जुलाई महीने की थी। उन दिनों कुछ घटनाएं लगभग साथ-साथ घटीं। अवधेश की कहानी सारिका के नवलेखन अंक में छपी तो यह हम सभी के लिए गर्व का विषय था। मैंने डीएवी कालेज में हिंदी साहित्य में एम.ए. में एड्मिशन ले लिया था। इसके कई कारणों में से एक तो यह था कि अवधेश और मनमोहन दोनों ही कालेज में पढ़ रहे थे, वरना मैं तो चार साल पहले ही गणित से एम.एससी. कर चुका था और उसके बाद से एक लंबी बेरोजगारी झेल रहा था। बेरोजगारी की वक्तकटी भी एक कारण था और एक तीसरा कारण भी था कि डीएवी कालेज की लाइब्रेरी में कहानी संग्रहों, उपन्यासों और आलोचना की किताबों का अच्छा संग्रह था और उन तक पहुंच बनाने के लिए कालेज में एड्मिशन लेना जरूरी था। एक दिन अवधेश ने अपनी क्लास के एक सुभाष पंत से परिचय कराया जो कई साल पहले गणित में ही एम.एससी. कर चुका था, अब एफ.आर.आई. (वन अनुसंधान संस्थान) में वैज्ञानिक के रूप में काम कर रहा था और सबसे बड़ी बात यह कि उसकी एक कहानी सारिका में प्रकाशन के लिए स्वीकृत थी। हमारे लिए यह तीसरी बात सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण थी। मेरे और मनमोहन व अवधेश के अलावा नवीन नौटियाल भी डीएवी कालेज में पढ़ा रहा था। बहुत देर तक हम चारों साथ रहे। सुभाष को हम लोगों ने शाम को डिलाइट में आने के लिए आमंत्रित भी कर लिया। आग्रह था कि अपनी वह कहानी और संभव हो तो कुछ और कहानियां भी ले आए।

डिलाइट हमारे बैठने का अड्डा था। देहरादून के घंटाघर के बगलवाले न्यू मार्किट की इस चाय की इस दुकान में शहर के लगभग वे सभी लोग इकट्ठा होते थे जो खुद को बुद्धिजीवी मानते थे। इनमें लेखकों के अलावा कुछ पढ़ाकू किस्म के लोग भी होते थे, राजनीतिक लोग भी होते थे लेकिन वे हमारी मेज पर कम ही आते थे। कभी कोई दिलचस्प चर्चा छिड़ जाती तो अपनी जगह पर बैठे-बैठे उनकी और से भी टिप्पणी आ जाती। शाम को डिलाइट में हमारी मंडली जमी। मैं, मनमोहन, अवधेश, देशबंधु और नवीन आदि कुछ मित्र रोज शाम को वहां जमा हुआ ही करते थे। इस सूची में उस दिन सुभाष पंत का नाम और जुड़ गया। उस शाम हमने सुभाष से तीन कहानियां सुनीं। पहली तो वही थी, ‘गाय का दूध’ जो जल्द ही सारिका में छपने जा रही थी। सुभाष के पास इस कहानी की स्वीकृति के लिए कमलेश्वर का हाथ से लिखा पत्र भी था जिसे हमारे आग्रह पर उसने दिखाया भी था। वह हम सब को बहुत ज्यादा प्रभावित करने के लिए काफी था। यह आदिवासी इलाके की पृष्ठभूमि पर लिखी गई थी। उस इलाके में कोई गाय नहीं है और एक अफसर के नवजात बच्चे के लिए गाय के दूध की सख्त जरूरत है। उसका एक चपरासी उससे बच्चे के लिए रोज दूध का इंतजाम करने का वादा करता है और लाता रहता है। तबादला होकर जब वह जाने लगता है तो चपरासी को इनाम तो देता ही है लेकिन उससे कहता है कि वह उस गाय को देखना चाहता है। गाय होती तो वह दिखाता। अफसर के सामने वह अपनी बीवी को ले आता है और कहता है कि साहब यह रही मेरी जोरू और आपके बेटे की गाय। कमलेश्वर के समांतर कहानी के पैमाने पर यह पूरी तरह से खरी उतरती थी। ओ हेनरी की शैली में होनेवाला कहानी का अंत सबको चौंकाता था।

दो कहानियां और सुनाई सुभाष ने और वे दोनों ‘गाय का दूध’ से बेहतर लग रही थीं लेकिन पता चला कि उनमें से एक सारिका को भेजी गई थी, लेकिन वह कमलेश्वर के उसी हस्तलेख में लिखे पत्र के साथ वापस आ गई। वह सारिका के मिजाज की कहानी नहीं थी। वे कहानी सारिका के समांतर दौर के थीम की नहीं थी जिनमें आम आदमी किसी तरह अपने को बचाए रखने के लिए एक जगह खड़ा हाथ-पैर पटकता था, बल्कि वह तो हालात बदलने के लिए संघर्ष के लिए प्रवृत्त करने वाली कहानी थी। वे सीधी बात करने वाली कहानियां थीं। वे मजेदार नहीं, तकलीफदेह कहानियां थीं। इसके बाद हुआ यह कि सुभाष ने इस दूसरी तरह की कहानियों को लिखना छोड़ दिया और कमलेश्वर की समानांतर के किस्म की कहानियां लिखने लगा। आज सोचता हूं कि अगर सुभाष की वह कहानी सारिका में न छपी होती तो आज वह एक दूसरी तरह का लेखक होता।

ये सब हालांकि सुभाष की शुरुआती कहानियां थीं, लेकिन खासी मेच्योर थीं। सुभाष की कहानियां किस्सागोई का अंदाज लिए होती हैं लेकिन साथ ही चुस्त जुमले और भीतर गहरे में एक व्यंग्य भी इनमें होता था। सुभाष के पास एक गजब की कल्पना शक्ति थी और पूरी तरह दिमाग से निकले चरित्रों की छोटी से छोटी डिटेल सुभाष इस तरह बुनता हुआ चलता था कि काल्पनिक होते हुए भी वे यथार्थ की दुनिया से उठाए गए पात्र लगते थे। सुभाष ने कहानी कहने का अपना जो तरीका लेखन की शुरुआत में खोज लिया था, उस पर आज भी अमल कर रहा है। उन सारी मार्मिक स्थितियों में जहां आम तौर पर लेखक पाठक को भावनाओं में डुबाने की कोशिश करते हैं, वहां सुभाष बहुत ही तटस्थता के साथ छोटी से छोटी डिटेल के साथ कहानी को बुनते हुए कमाल का असर पैदा कर देता है। कहीं-कहीं आपको ये डिटेल्स कुछ ज्यादा उबाऊ लग सकती हैं लेकिन कहानी का प्रवाह आपको कहानी के साथ बनाए रखने के लिए बाध्य भी किए रहता है। उनके सहज से लगते वाक्यों में एक तीखा व्यंग्य तो होता ही है, जबरदस्त पठनीयता भी होती है। हम सब पर सुभाष पंत की रचनात्मकता का रौब पड़ चुका था।

इसके बाद से सुभाष देहरादून की साहित्यिक गतिविधियों का एक जरूरी हिस्सा बन गया था।

करीब एक साल बाद मैं देहरादून छोड़कर दिल्ली आ गया था लेकिन देहरादून की नागरिकता मैंने कभी छोड़ी नहीं। साल की गर्मियों में एक-डेढ़ महीना तो मेरा देहरादून में ही बीतता था। इसके अलावा जब भी कोई महत्वपूर्ण गतिविधि वहां होती, मैं पहुंच ही जाता था।

समानांतर कहानी का दौर था और कमलेश्वर की निकटता के कारण सुभाष को देहरादून में कमलेश्वर का ध्वज वाहक बनना ही था। लेकिन समानांतर को लेकर मेरे मन में कुछ सवाल थे। इन सवालों को लेकर सुभाष से काफी बहसें भी हुईं लेकिन इन मतभेदों का हमारे आपसी रिश्तों पर कभी कोई असर नहीं पड़ा। बल्कि सुभाष ने मुझे समानांतर के राजगीर सम्मेलन में आने का निमंत्रण भी दे दिया ताकि ज्यादा करीब से इस सब को देख सकूं। मैं गया भी। कमलेश्वर से वहां पहली मुलाकात हुई।

उन दिनों मैं दिल्ली में नेशनल बुक ट्रस्ट में काम कर रहा था। एक दिन सुभाष का पत्र मिला कि सारिका में सब-एडिटर की जगह निकली है और कमलेश्वर चाहते हैं कि मैं उसके लिए एप्लाई करूं। यह मुझे बाद में पता चला कि दरअसल कमलेश्वर सुभाष को सारिका में लेना चाहते थे लेकिन सुभाष देहरादून छोड़ने की स्थिति में नहीं था और उसने अपने बदले मेरी सिफारिश की थी। कमलेश्वर मुझसे मिलना चाहते थे और राजगीर का निमंत्रण मुझे उसी सिलसिले में दिया गया था। लेकिन राजगीर में न तो कमलेश्वर ने और न ही सुभाष ने इस बारे में मुझसे कोई बात की थी।

उन दिनों सुभाष ने एक उपन्यास लिखना शुरू किया था। कालेज जीवन पर आधारित था और नाम था: ‘महाविद्यालय, एक गांव’। उसके कुछ अंश देहरादून में सुने भी गए थे। माहौल हम लोगों का परिचित था। कुछ आइडिया मैंने भी दिए। मेरे सारिका में जाने तक सुभाष उस उपन्यास को लेकर खासा उत्साहित था। उसके कुछ अंश मैं सारिका के लिए ले भी गया था। वे छपे तो उनकी खासी तारीफ भी हुई। लेकिन जब मैं छुट्टियों में देहरादून गया तो पता चला कि उपन्यास जितना लिखा गया था, उसके बाद आगे बढ़ाया ही नहीं गया। सुभाष को उसमें कोई संभावना नजर नहीं आ रही थी। मेरे खयाल से यह एक बेहतर उपन्यास की भ्रूण-हत्या थी।

सारिका दिल्ली आई तो मैं भी मुंबई से दिल्ली आ गया और नियमित तौर पर देहरादून जाने का सिलसिला शुरू हो गया। छोटे शहर का एक फायदा यह होता है कि आदमी हर तरह की गतिविधियों से जुड़ सकता है। देहरादून में थिएटर का सिलसिला शुरू हुआ तो सुभाष उसका एक अहम हिस्सा था। बंसी कौल ने थिएटर वर्कशाप की और सबसे पहले मोहन राकेश का नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ खेला गया। सुभाष ने तो नहीं लेकिन उनकी पत्नी हेम ने उस नाटक में अभिनय भी किया था।

क्षमा चाहूंगा, हेमजी के बारे में लिखना तो मैं भूल ही गया था। मेरे खयाल से सुभाष जो कुछ भी हैं उसकी सबसे बड़ी वजह हेम का उनकी पत्नी होना है। सुभाष जैसे अपने प्रति लापरवाह आदमी को सही तरीके से मैनेज करना उन्हीं के बस की बात थी। हम लोग जब उनके घर जाते तो ऐसा लगता ही नहीं था कि हम अपने घर पर नहीं हैं। लंबी-लंबी साहित्यिक गप्प-गोष्ठियों के बीच सही अंतराल पर बिना मांगे चाय आ जाती थी। और ऐसा भी नहीं कि वह रसोई में ही लगी हों, हमारे बीच बैठकर बहसों में भी पूरी हिस्सेदारी होती थी। होता यह था कि कई बार सुभाष की किसी कहानी को हम संकोच वश ज्यादा उधेड़ते नहीं थे लेकिन वह बड़ी बेरहमी से उसकी खाल खींचकर रख देतीं। उनकी उस खुशमिजाजी को देखते हुए कोई बता नहीं सकता था कि वह हाइपरटेंशन की मरीज हैं। आज भी उनके इस मिजाज में कोई परिवर्तन नजर नहीं आता।

बात नाटकों की हो रही थी। सुभाष देहरादून के पहले थिएटर ग्रुप ‘वातायन’ के संरक्षकों में से थे। उसी दौर में उन्होंने एक नाटक भी लिखा था, ‘चिड़िया की आंख’। देहरादून में उसके काफी शो भी हुए। एक नाटक सुभाष पंत के निर्देशन में भी हुआ था। नाटकों की सफलता को देखते हुए जल्द ही शहर में कई थिएटर ग्रुप पैदा हो गए। यह देखकर सुभाष ने धीरे-धीरे थिएटर से किनारा कर लिया। इस दौरान सुभाष कहानियां भी लिखते रहे। उनके दो कहानी संग्रह ‘तपती हुई जमीन’ और ‘चीफ के बाप की मौत’ प्रकाशित हो चुके थे। और मजे की बात यह रही कि एक उपन्यास भी सुभाष ने शुरू किया। नाम था, ‘सुबह का भूला’। उपन्यास के मामले में सुभाष का इतिहास देखते हुए मुझे तो कम से कम उम्मीद नहीं थी कि वह उपन्यास भी पूरा हो सकेगा। लेकिन सुबह का भूलाघर लौट आया था। सुभाष ने सचमुच यह उपन्यास पूरा कर लिया। यह मेरे लिए एक सुखद आश्चर्य था।

फिर सुभाष ने एक तीसरा उपन्यास शुरू किया, ‘पहाड़ चोर’। इस बात को करीब तीस साल हो गए होंगे। सुभाष ने करीब पचास पेज लिख लिए थे। तय हुआ था कि सुनने के लिए मसूरी चला जाए। मैं और नवीन नैथानी सुभाष के साथ एक सुबह मसूरी पहुंच गए। कैमल्सबैक रोड के सुनसान रास्ते के थोड़ा ऊपर बांज के एक पेड़ के नीचे बैठकर हमने वह उपन्यास सुनना शुरू किया। तय था कि आधा सुनने के बाद जीत रेस्तरां जाकर चाय पीएंगे और फिर आकर बाकी सुनेंगे। लेकिन जब पढ़ा जाना शुरू हुआ तो बीच में से उठने का मन ही नहीं हुआ।

इस बार सुभाष ने विषय उठाया था चूना पत्थर खदानों के उस जंजाल का जो न सिर्फ पहाड़ों का पर्यावरण खराब कर रहा था बल्कि उस क्षेत्र में रहनेवाले लोगों की जिंदगी के लिए खतरा भी बन गया था। देहरादून के सहस्रधारा क्षेत्र के जिस गांव झंडू खाल को सुभाष ने इस उपन्यास के केंद्र में लिया था वह एक वास्तविक गांव था जो इन खदानों की भेंट चढ़ गया था। कई बरस पहले उस गांव का अस्तित्व खत्म हो गया था। चमड़े का काम करने वाले उस गांव के चरित्रों के लिए सुभाष ने जरूर कल्पना का सहारा लिया, लेकिन देहरादून के आसपास के किसी भी पहाड़ी गांव का समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र इससे भिन्न नहीं होता।

विषय अच्छा था। अच्छे से ज्यादा महत्वपूर्ण था। पर्यावरण की दृष्टि से ही नहीं, इनसानी आबादी के साथ किए जाने वाले छल को लेकर भी सुभाष अपने इस उपन्यास में सवाल उठाता नजर आ रहा था। इसलिए मैं नहीं चाहता था कि ऐसा विषय किसी भी स्थिति में एक बार फिर सुभाष की लापरवाही का शिकार बने। शायद कोई नहीं चाहेगा।

अगली बार देहरादून पहुंचा तो जाहिर है कि सुभाष से मुलाकात में पहला सवाल उस उपन्यास को लेकर ही था और उम्मीद के मुताबिक वह वहीं का वहीं था। वही करीब पचास पेज। काफी लानत-मलामत के बाद इस शर्त पर सुभाष को बख्शा गया कि अगली मुलाकात तक उस पर जरूर कुछ न कुछ काम हो चुका होगा। एक सकारात्मक बात यह थी कि हर बार सुभाष ने उस उपन्यास को आगे बढ़ाने की उम्मीद जरूर जताई। यह सिलसिला करीब दस साल चला। उपन्यास एक बार अटका तो अटका ही रहा। बल्कि इन सालों में वह पचास पेज भी सिलसिलेवार नहीं रह गए थे। बीच के कुछ पेज कहीं खो गए थे।

फिर सुभाष रिटायर हो गया। खाली समय में सुभाष का लेखक एक बार फिर पूरे जोश के साथ सक्रिय हो उठा। इस दौरान सुभाष ने खबर दी कि उपन्यास के खोए हुए पेज मिल गए हैं और सुभाष ने उस पर आगे काम शुरू कर दिया है। उन्हीं दिनों एक अच्छी बात यह भी हुई कि सुभाष ने कंप्यूटर ले लिया और अब वह उपन्यास उसमें था। हर बार उसमें कुछ पेज जुड़े देखकर अच्छा लगता था। एक अच्छी बात यह थी कि बीच में एक लंबा अरसा गुजर जाने के बाद भी उपन्यास की रवानी में कोई फर्क नहीं आया।

पहाड़ चोर’ में सुभाष कहानी कहते हैं एक गांव झंडू खाल की। हरिजनों केइस गांव को चूना पत्थर माफिया केकारण एक दिन नक्शे पर ही से गायब हो जाना पड़ा था। कागजों पर से ही नहीं, वास्तव में भी। यह आज़ादी केफौरन बाद केउस दौर की कहानी है जब गांवों केभोले लोग राम राज्य केसपने देख रहे थे, जब वह समझ रहे थे कि सुराज केरूप में उनके लिए किसी स्वर्ग के द्वार खुल जाएंगे। और ऐसे में उनकेलिए द्वार खुलते हैं उस नरक केजो उनकेजीने के हर साधन को एक-एक करकेउनसे छीनता चला जाता है।

यहां हर पात्र की अपनी कहानी है, उनकेसपनों की कहानी है। उनकेछोटे-छोटे सुखों और उसके पीछे छिपे पहाड़ से दुखों की कहानी है। कहानी उस दिन शुरू होती है जिस दिन जीपों का एक काफिला इस गांव में आकर रुकता है। सामने वह पहाड़ था जो उनकेलिए सोने की खान साबित होने जा रहा था। वहां तक अपनी मशीनों को ले जाने और वहां से पत्थर को लाने वाले गट्टुओं केलिए रास्ते की जरूरत थी और वह रास्ता इसी गांव वालों केखेतों में से बनाया जाना था। पत्थर निकालने केलिए मजदूरों की फौज भी तो इसी गांव से मिलनी थी। गांव में दो दल बन जाते हैं। कुछ को कंपनी उनकी समृद्धि का रास्ता लगती है तो कुछ उसे अपने खेतों को हड़पने वाली राक्षसी क¢ रूप में देख रहे हैं।

कंपनी केपास पैसे की ताकत है और गांव वालों को देने केलिए सपनों का खजाना। और गांव केऊपर का पहाड़ ट्रकों में भरकर जाने लगता है। इसकेसाथ ही उनकी एक-एक चीज छिनकर जाने लगती है। पहले उनकेहाथ से जंगल जाता है जहां से वे अपने पशुओं केलिए चारा, चूल्हे में जलाने केलिए लकड़ी, सब कुछ लाते थे। फिर पानी छिनता है। जो धारा बारहों महीने चौबीस घंटे मीठे पानी का स्रोत बना होता था, अचानक सूख जाता है। गांव में त्राहि मच जाती है। वे कंपनी केसाथ असहयोग करते हैं। अपने गाड़ियों को रोकने लगते हैं। और देखते हैं कि कुछ दिन काम रुकने पर फिर से धारे में पानी वापस आ गया है। लेकिन जब कंपनी के कुछ अफसर गांव में पानी की लाइन लाने के वादा करके गांववालों से अपना आंदोलन वापस लेने के लिए तैयार करने की कोशिश करते हैं तो एक बार फिर गांव दो गुटों में बंट जाता है और अंततः काम फिर से शुरू हो जाता है।

बरसात गांव के लिए एक और आपदा बनकर आती है। जो जंगल बारिश के पानी को अपने में समेटकर धारों केरूप में पूरे साल में धीरे-धीरे वापस करते थे, वे तो रहे नहीं। पत्थर और मिट्टी केढूह पानी को रोकना तो दूर, उसकेसाथ पूरे जोर के साथ गांव पर टूट पड़ते हैं। पहले गांव के कुछ घर की इस संकट से दो-चार होते हैं, लेकिन साल दर साल संकट बढ़ता जाता है और एक दिन गांव को ही लील जाता है।

पहाड़ चोर’ सुभाष की बाकी रचनाओं से हर लिहाज से अलग था। विषय के लिहाज से भी और ट्रीटमेंट के लिहाज से भी। पहाड़ के जंगलों के विवरण हालांकि सुभाष ने कल्पना से ही तैयार किए थे विभिन्न मौसमों में होनेवाले वानस्पतिक परिवर्तनों को जिस बारीकी के साथ चित्रित किया गया था, वह अद्भुत है। इसके लिए सुभाष को अपने एफ.आर.आई. के अनुभवों का आभारी होना चाहिए।

मैं उपन्यास को पैनड्राइव पर अपने साथ ले आया। एक एक्सपर्टाइज तो मेरा था, सबिंग का। उसे प्रेस में भेजने लायक बनाया। राजपाल एंड संस ने इसे छापा। समीक्षाओं के लिए प्रकाशक के पास कोई कापी नहीं थी। इससे पहले कि समीक्षाओं का कोई सिलसिला शुरू किया जाता, उपन्यास का पहला संस्करण बिक गया। दूसरा संस्करण छापने के लिए अब प्रकाशक तैयार नहीं हैं। एक बेहतरीन उपन्यास इस तरह से एक स्वार्थी प्रकाशक की निर्ममता का शिकार होकर अचर्चित ही रह गया। वैसे मैं यह दावे से कह सकता हूं कि अगर प्रकाशक ने उसकी सही ढंग से मार्किटिंग की होती और समीक्षा के लिए किताबें देने में उदारता दिखाता तो उसके एक-दो नहीं बल्कि कई संस्करण अब तक छप और बिक चुके होते।

इस बीच सुभाष के दो कहानी संग्रह ‘मुन्नीबाई की प्रार्थना’ और ‘जिन्न और अन्य कहानियां’ प्रकाशित हो गए थे। इन्हें नए संग्रह तो नहीं कह सकते क्योंकि कुछ नई कहानियों के साथ-साथ कुछ पुरानी कहानियां भी इसमें डाल दी गई थीं।

उन्होंने अपनी कहानियों के लिए एक ऐसा केंद्रीय थीम चुना जो कभी पुराना नहीं पड़ सकता। जो आज भी उतना ही मोजूं है जितना बीस, तीस या चालीस साल पहले था। यह विषय था आज़ादी से मोहभंग का; उनके पात्र उस उम्र के हैं जिसमें उन्होंने आज़ादी से पहले के वक्त को भी देखा है और आज़ादी के बाद के वक्त को भी। देखा ही नहीं जिया भी है। कुछ सपने उन्होंने पाले थे आज़ादी को लेकर और आज वे इन सपनों को टूटता महसूस कर रहे है। सपनों को हम टूटते हुए देखते हैं। ‘मुन्नीबाई की प्रार्थना’ की बात करें तो चाहे ये सपने शीर्षक कहानी की मुन्नीबाई के हों या ‘म्यान से निकली तलवार’ के ‘मैं’ के, ‘दूसरी आज़ादी’ के कोल्टे की हो या ‘खिलौना’ के नेकराम उर्फ निक्का बादशाह के। इन सब कहानियों में वह आज़ादी के बाद के उसी मोहभंग की बात करते हैं जो एक जमाने पहले हिंदी कहानियों का विषय हुआ करता था। और आज के लेखक इसे लगभग भूल ही चुके हैं। लेकिन उस दौर में और आज के दौर में एक बड़ा फर्क यह आ गया है कि इन पचास सालों में हमारे मूल्य बहुत बदल गए हैं। जिन बातों को लेकर पचास साल पहले हम चौंकते थे वे आज हमें सामान्य लगती हैं। ‘खिलौना’ कहानी के नेकराम के निक्का बादशाह बनने की प्रक्रिया में हम इस परिवर्तन की क्रमिकता को देख सकते हैं।

जिन्न और अन्य कहानियां की शीर्षक कहानी अलादीन के चिराग के जिन्न की कहानी को एक नए परिप्रेक्ष्य में पेश करती है। गरीब मछुआरे सदाशिव के जाल में एक बोतल फंस जाती है जिसे खोलते ही उसका जिन्न बाहर आ जाता है। जिन्न उसका हर काम करने के लिए तैयार है लेकिन उसकी एक शर्त है, जब उसकी सारी इच्छाएं पूरी हो जाएं तो उसे तीन दिन के भीतर इस बोतल को बेचना होगा। अगर न बेचा तो उसकी सारी संपत्ति नष्ट हो जाएगी और वह घोर विपत्ति में फंस जाएगा। इस बोतल को बेचने के लिए भी एक शर्त है कि वह बोतल की खूबियों को ग्राहक के सामने नहीं दिखाएगा। एक शर्त यह भी थी कि जितने दाम पर ग्राहक उससे यह बोतल खरीदेगा, अपनी इच्छा पूरी होने के बाद तीन दिन के भीतर उससे कम दाम पर दूसरे ग्राहक को बेच देगा। यह शर्त उसके लिए एक ऐसी दौड़ की शुरुआत कर देती है जिसके लिए उसकी अपनी ज़िंदगी नरक के समान हो जाती है उसे बाकी ज़िंदगी भर भागते रहना पड़ता है। पाने और पाते रहने की इच्छा उसका वह छोटा सा सुख भी छीन लेती है जो अभाव में उसे गरीब को मिल रहा था, छोटी-छोटी खुशियों से खुश होने का सुख।

सुभाष पंत ने शुरुआत तो समांतर कहानी आंदोलन के साथ की थी। समांतर कहानी उस दौर की जरूरत थी या नहीं, इस पर बहस हो सकती है लेकिन आज स्थितियां उस दौर से ज्यादा भयावह हैं और आज का आम आदमी सत्तर के दशक के उस आम आदमी के मुकाबले कहीं ज्यादा तकलीफों से गुजर रहा है। सत्ता के अपराधीकरण, धर्म के रानीतिकीकरण और बाज़ार के वैश्वीकरण के बाद ये तीनों ताकतें आज कहीं अधिक विकराल रूप में सामने हैं। इन्होंने मिलकर उसके बहुत से हक एक-एक करके उससे छीन लिए हैं। काम की जगहों पर आज काम की शर्तें उसके लिए मुश्किल बनती जा रही हैं। बाज़ार में उसे जिस तरह मुनाफाखोरी की ताकत के आगे पिसने के लिए छोड़ दिया गया है, उसने उसका जीना और भी मुहाल कर दिया है। धर्म के नाम पर, आतंकवाद के नाम पर मारे जाने के लिए सबसे आसान शिकार उसे ही बना दिया गया है।

देखा जाए तो सुभाष पंत की कहानियां किसी आंदोलन की मोहताज नहीं थीं। उन्होंने अपनी कहानियों के लिए एक ऐसा केंद्रीय थीम चुना जो कभी पुराना नहीं पड़ सकता। जो आज भी उतना ही मोजूं है जितना बीस, तीस या चालीस साल पहले था। यह विषय था नेहरूवाद से मोहभंग का; उनके पात्र उस उम्र के हैं जिसमें उन्होंने आज़ादी से पहले के वक्त को भी देखा है और आज़ादी के बाद के वक्त को भी। देखा ही नहीं जिया भी है। कुछ सपने उन्होंने पाले थे आज़ादी को लेकर और आज वे इन सपनों को टूटता महसूस कर रहे है।

पहाड़ चोर’ के पूरा हो जाने से उत्साहित सुभाष ने एक उपन्यास और शुरू किया। आडवाणी की रथयात्रा और बाबरी मस्जिद के गिराए जाने की खबरों से आम आदमी के मनोविज्ञान और व्यवहार में जिस तरह के बदलाव आए हैं, लोगों के बीच के आपसी रिश्ते जिस तरह से बदले हैं, उसी की एक पड़ताल इस उपन्यास में आए थे। यह शुरुआत से आगे नहीं बढ़ सका। 

इसके बाद सुभाष ने एक और उपन्यास शुरू किया, महानगरों की मॉल संस्कृति पर। एक आदमी एक मॉल में जाता है और वहां कहीं खो जाता है। विषय हालांकि लंबी कहानी का था लेकिन सुभाष का मन इस पर उपन्यास लिखते का बन गया। यह भी कहीं दस-बीस पन्नों में अटका पड़ा है।

उपन्यासों का इस तरह से गर्भपात लगता है सुभाष का अंदाज ही बन गया है। लेकिन 75 साल की उम्र पूरी कर लेने के बाद भी उनकी कहानियां लगातार आ रही हैं। संवेदना की गोष्ठियां भी देहरादून में निरंतर हो रही हैं और सुभाष की उपस्थिति उनमें नियमित रूप से बनी रहती है। वहां वह कुछ न कुछ सुनाते हैं और सुनाने में वही उत्साह होता है जो जवानी के दिनों में होता था। कहानियां पर साथियों की आलोचनाओं को आज भी वह गंभीरता से लेते हैं और उनकी शंकाओं का दूर करने की पूरी कोशिश करते हैं।

एक अच्छी बात यह है कि उम्र के 75 पड़ाव पार कर लेने के बाद भी उनकी कलम अभी निरंतर चल रही है। उनकी हाल की कुछ कहानियों में मुझे उस तरह के तेवर लौटते नजर आए हैं जो सारिका में कहानी छपने से पहले की कहानियों के थे। मैं तो इसे एक सकारात्मक बदलाव मानता हूं।

Sureshuniyal4@gmail.com


जंग खाई हुई आत्मा

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सुभाष पंत जी की कहानी 'सिंगिंग बेल'विचार प्रधान साहित्य चिंतन और सहज भाषा- दृष्टि के माध्यम से साहित्य को गढ़ने के प्रक्रिया में उपजी हुई कहानी है । कहानी के कुछ अंशो में गद्य की लयात्मकता कविता का आभास देती है। कहानी की मुख्य पात्र मारिया डिसूजा वर्तमान में रहते हुए भी अतीत से जुड़ी रहती है ,तथा अतीत अदृश्य रूप से उसके वर्तमान में प्रवाहित होता रहता है । उसके सामने बहुत सी चुनौतियां हैं । उसका निजी अतीत है । और अचानक अपरिचित और होस्टाइल हो गया संसार है । उसका अतीत घने गहरे प्रेम की, अतृप्त की और पूर्णता की लालसा की कहानी है । आकर्षण की स्थितियां बीत चुकी हैं। उसकी जिंदगी में समय एवं समाज ऐतिहासिक रूप से क्रमवार नहीं आता । एक ओर निरा वर्तमान , और दूसरी ओर परिवेश के प्रति आक्रांत एवं भय -दृष्टि , निराशा, भविष्य के प्रति उदासीनता जैसी परिस्थितियों में उसका जीवन बीत रहा है। लेखक ने कुछ सजीव विंबो के माध्यम से मारिया कि मनस्थिति का चित्रण किया है। 'गहरी नम धुंध,, 'कोहरा बेआवाज शीशे पर नमी की तरह फैलता हुआ'। उसके होटल हिल क्वीन की दीवारें 'जंग खाई हुई आत्मा'की तरह हो गई थी। 'सब कुछ बेआब उदासी में डूबा हुआ'।दीवार घड़ी की 'खामोशी'उससे बर्दाश्त नहीं हो रही थी। वक्त का अंदाज तो उसे मस्जिद की अजान,गुरद्वारे की अरदास, मन्दिर के घंटो औऱ गिरजाघर की प्रार्थना से भी लग जाता , लेकिन यह घड़ी डेबिड लाया था। इसकी आवाज की बात ही कुछ और थी। डेविड, मारिया डिसूजा की जिंदगी का'एंकर 'था। डेविड उसे बहुत साल पहले अकेला छोड़ कर चला गया। लाल फिरन में डेविड की यादें छुपी थी। चर्च ने उससे रियायत मांगी थी कि वह इस फिरन को ना पहना करें । इसे देखकर लोगों का ध्यान प्रार्थना से हट जाता है। उसे लाल फिरन पहने देखकर 'बर्फ में आग'लग जाती है। उसने ये रियायत चर्च को दे दी। डेविड कहता था सबसे खूबसूरत 'तेरी काली आंखें मारिया, जिसके पास जुबान है, वो हर वक़्त बोलती है'। वह ये जानती थी फिर भी बार बार सुनना चाहती थी ।और फिर एक दिन डेविड उसे छोड़ गया। सिंगिंग बेल और हिलक्वीन होटल की विरासतके साथ। हिल क्वीन की शाख पर बट्टा कैसे लगने देती वो। हिलक्वीन उसके और डेविड के 'साझे श्रम का संगीत 'जो था । वह उस संगीत को मरने नहीं देना चाहती। 'शहर अब वैसा नहीं रहा ,जैसा वह उसे जानती थी हवाएं बदल गई। आदमी और उसका व्यवहार बदल गया। अच्छे भले आदमी हाशिए में फिसल गए। हत्या और बलात्कार लोगों को उद्वेलित नहीं करते । ऐसे समाचार शौर्य गाथाओं की तरह पढ़े जाते हैं।'इस माहौल में शराब माफिया नसीब सिंह उससे हिलक्वीन छीनना चाहता है । उसे हर तरह मजबूर करना चाहता है कि वह हिल क्वीन उसके हाथों बेच दे ।तरह तरह के दवाब डालता है। इस षड्यंत्र में सारा शहर नसीब सिंह के साथ हैं क्योंकि सब उससे डरते है । यहां तक कि चर्च का पादरी भी मारिया को होटल बेचने के लिए कहता है ।जब वह पादरी से मदद के मांगती है तो वह कहता है , 'हमारे हाथ में बाइबल है बंदूक नहीं'। धर्म की मजबूरी नंगी होकर सामने आ जाती है। वह मायूस हो जाती है ।उसे जो भी मिलता है , चाहे वह चर्च की कैंडल बेंचने वाला हो, या और कोई, सब उसे होटल बेचने की सलाह देते हैं ।सत्ता और शासन का प्रतीक कॉन्स्टेबल जो नसीब सिंह की असलियत भी जानता है और इतिहास भी , वह भी अपनी मजबूरी बताते हुए मारिया को होटल बेचने की सलाह देता है।यहां तक कि इस साज़िश में खुद उसका बेटा भी शामिल है। जब सारे रास्ते बंद हो जाते हैं, चाहे वह धर्म का हो या सत्ता ,का या इन दोनों के गठबंधन का, तब मारिया में एक नई शक्ति का जागरण होता है और वह दृढ़ता के साथ हिल्कवीन न बेचने का निश्चय लेती है। यह दृढ़ता उसमें कहां से आती है यह सोचने का विषय है। जब दुश्मन से लड़ते-लड़ते और भागते भागते हमारी पीठ दीवाल से लग जाती है, तो हमारे पास सिवाय लड़ने के और कोई विकल्प नहीं बचता और यही विकल्प शून्यता हमारी ताकत होती है। और इस शक्ति का स्रोत स्वयं हमारे अंदर होता है। बस उसे एक ट्रिगर की जरूरत होती है।

सुभाष पंत जी की इस कहानी की अंतर्धारा में कई पहलू है।इसमें एक नितांत अकेली स्त्री के समाज के साथ संघर्ष की कहानी है, तो दूसरी तरफ उसके एकाकीपन का व्यक्तिगत आयाम, जो उसके विगत के रूमानी जिंदगी की यादों से परिपूर्ण है। उसके पति की यादें उन दोनों की साझा आशाएं और आकांक्षाओं का प्रतीक हिलक्वीन होटल जिसकी हिफाजत उसके वर्तमान का मकसद बन जाता है।ये होटल उसकी अस्मिता का प्रतीक है. उसे हर कीमत पर बचाने की कोशिश में उसे माफ़िया और चर्च से लेकर अपने बेटे तक से टक्कर लेनी है। इसके लिए जो ताकत दरकार है, वो कहीँ और से नही , उसे अपने अंदर से , अपने वजूद से उत्खनित करनी है। अन्य सारे विकल्पों को 'रूल आउट 'करने के बाद उसे एहसास होता है की उस शक्ति का मूल तो उसके स्व: में ही निहित है। सिंगिंग बेल का बजना उसके इस इलहाम का प्रतीक ही नही है, बल्कि आने वाले कठिन संघर्ष और जद्दोजहद का आगाज़ भी है।

इस कहानी का दूसरा महत्वपूर्ण पहलू समाज के उन लोगों के सच को उजागर करता है जिनकी रीढ की हड्डी अपना अस्तित्व खो चुकी है। उनके अंदर की अच्छाई और अंतरात्मा की आवाज का उद्बोधन अपना दम तोड़ चुका है। सच्चाई जानते हुए भी , अपने भय और निष्क्रियता के कारण , वे आक्रान्ता के पक्ष में खड़े दिखाई देतें है। कहानी में आम आदमी, समाज के विभिन्न वर्ग, धर्म और सत्ता के प्रतिनिधि सबका एक्सपोज़र अपने अपने ढंग से वर्णित है। ऐसे लोग सामाजिक विघटन और मूल्यों के छरण के उतने ही जिम्मेदार हैं जितने की नसीब सिंह जैसे लोग। ये सारे के सारे घटक मिलकर एक मूल्यविहीन विघटित सामाजिक राजनीतिक परिवेश का परिदृश्य हैं , जो हमारी समकालीन सच्चाई भी है। इस दृष्टि से पंत जी की ये कहानी, बिना sermonise किये, हमे अपने वर्तमान का आइना दिखाती हुई सी लगती है।
"An injustice anywhere is a threat to Justice everywhere."

चन्द्र नाथ मिश्र


एक दोपहर की बतरस

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दिनेश चंद्र जोशी


मेरे व अरुण कुमार असफल के साथ बीच में बैठै कथाकार सुभाष पन्त को कौन नहीं जानता।

वे देहरादून के ही नहीं हिन्दी कहानी जगत के सरताज किस्सागो हैं। लाक डाउन की वजह से पिछले लगभग डेड़ दो साल से उनसे प्रत्यक्ष मुलाकात नहीं हो पाई थी। उनके घर डोभाल वाला गये तो मुझे भी काफी लम्बा अर्सा हो गया था, हां, गोष्ठियों में यत्र तत्र जरुर भेंटघाट हो जाती। पिछले दिनों एक फोन आया,मित्र कथाकार अरूण कुमार असफल का, 'पन्त जी के यहां चलेंगे? मैं जा रहा हूं,एक से भले दो ,वे स्वयं इधर उधर अब आ जा नहीं सकते,यूं स्वास्थ्य ठीक हैं, कह रहे थे,भाई,आप लोग ही आ जाओ,मैं तो अब कहीं आ जा नहीं सकता।'

मैंने हामी भर दी, बिल्कुल चलूंगा,यार! अब रिटायरमेंट के बाद भी फुर्सत का बहाना करूंगा तो मुझसे बड़ा एकलकट्टू कौन होगा, फिर आपका जैसा उदार साथी जो,घर से पिक अप करें घर तक छोड़ देता हो आग्रह करे तो अपने घरऊ काम व आलस्य को तिलांजलि देने का हक तो  मेरा भी बनता है। निश्चित ही आपकी सुविधा व समय के अनुसार मैं तैयार रहूंगा,चलने से पहले मिस काल मार देना।

अरूण जी नियत समय पर पहुंच गये थे।आधे घंटे के भीतर हम लोग पंत जी के गेट पर खड़े थे। पन्त जी बरामदे में बैठे हुए इन्तजार ही कर रहे थे। हम दोनों को देख कर वे प्रफुल्लित हो उठे, तपाक से मिले,

हाथ मिलाया और अन्दर बैठक में ले गये।बोले ,'यार ये मास्क वास्क की वजह से चेहरे ही पहचान में नहीं आ रहे। अब भंगिमा व आवाज से लोगों को पहचानना पड़ रहा है।'

पन्त जी के घर मैं पहले कई मौकों पर गया हूं। इस घर से कई यादें जुड़ी हैं, बीस तीस साल पहले जब यह मुहल्ला इतना चमकदार व आलीशान घरों से लकदक नहीं था,कस्बे व गांव की मिली जुली अनगढ़ता व महक थी,आम लीची के पेड़ हर घर में दिख जाते थे।सड़क पतली वह ऊबड़ खाबड़ रहती थी। टिन शेड की छतों वाले ढलुवा घर भी इक्का दुक्का नजर आते थे।डोभालवाला देहरादून का  पुराना मुहल्ला व बसावट का प्रतीक लगता था।अब तो मुहल्ले का हर घर नया रिनोवेटेड,डुप्लेक्स ट्रिपलेक्स नजर आ रहा था,सड़क बेशक पतली लेकिन समतल थी।

पन्त जी का घर भी वो लम्बे बरामदा वाला,अब परिवर्तित रुप में था,उस पुराने घर के बैठक में अपेक्षाकृत युवा कथाकार पन्त और आज के उम्रदराज कथाकार के शारीरिक ढांचे में कोई खास अन्तर नहीं था लेकिन आंखों की चमक,बोलने की इंटेंसिटी,और फुर्तीले पन का फर्क लाजमी तौर पर जाहिर हो रहा था।

इस नये वाले परिवर्तित घर की इसी बैठक में अपने पुत्र गोर्की की शादी के मौके पर पन्त जी ने अपने साहित्यिक मित्रों हेतु डिनर पार्टी का आयोजन किया था,पीने पिलाने के दौर के दौरान मदहोशी में वे,बेहद भावुक होकर बोले थे,'यार!जिंदगी में मेरी  कमाई आप लोग ही हैं मेरी,साहित्यिक बिरादरी के दोस्त,वरना व्यवहारिक जिंदगी में निपट अनाड़ी हूं, मुझे यकीन है आप लोग अपनत्व से मुझे ऊष्मा देते रहोगे,तो मेरी रचनात्मकता बची व बरकरार रहेगी। वह बात आज रह रह कर याद आ रही थी, मित्रों ने पन्त जी के सान्निध्य में खूब पीने खाने का लुत्फ उठाया था,

'अरुण तुम्हें याद है, तुम तो थे ना मौजूद उस पार्टी में ? मैंने पूछा।

'हां,हां,मैं बाकायदा था, बड़ी देर तक हम लोगों ने आनन्द लूटा था। लगभग बारह तेरह साल पुरानी बात होगी यह!''हां बिल्कुल।'

पन्त जी एकहरे शरीर के दुबले पतले सदाबहार एक जैसी काया में नजर आते हैं। जैसे चालीस साल पहले थे,वेसै ही अब हैं। सिर्फ़ चुश्ती फुर्ती व ऊर्जस्विता में फर्क पड़ा है,स्मृति ठीक है। लाक डाउन,करोना से बातें शुरू हुई तो फिर साहित्य,लेखन,पठन-पाठन की गतिविधियों का तब्सिरा शुरू हो गया। स्थानीय प्रकाशक समय साक्ष्य से नवीनतम कहानी संग्रह आने वाला है,वे कह रहे थे,बाहर के प्रकाशन से विलम्ब के बनिस्पत स्थानीय अच्छे प्रकाशन से त्वरित छपवा लेना उचित है।

हिंदी लेखक के लिए पुस्तक प्रकाशित करवाना हमेशा टेड़ी खीर रहा है,यह एक विडम्बना उसका पीछा कभी नहीं छोड़ती। हिंदी के बड़े से बड़े लेखक को भी प्रकाशक ठेंगा दिखा देते हैं। जगूड़ी जी जैसे लेखक भी गपशप में साहित्यकार की परिभाषा व संधि विच्छेद करते हुए कहते हैं, 'साहित्यकार' -यानी 'साहित्य'आपके पास, 'कार'प्रकाशक के पास।

'मुझे, वैसे अपने संग्रह छपवाने में बहुत समस्या नहीं आई, लेकिन विलम्ब व रायल्टी पारदर्शिता की शिकायत तो रहती ही है,यह हिंदी का दुर्भाग्य है।

मेरा पहला संग्रह बड़ी आसानी से छप गया था,

'तपती हुई जमीन'जवाहर चौधरी ने छापा था, सारिका में मेरी कहानी 'गाय का दूध छप कर चर्चित हो गई थी। उसके कवर पेज का डिजाइन मैंने ही जवाहर चौधरी से कह कर अवधेश (अवधेश कुमार) से बनवाया था। उसके बाद तो अवधेश को दिल्ली के प्रकाशक ढूंढ कर बुलवाने लगे थे,वह दिल्ली में छा गया था,बहुत टेलेन्टेड चित्रकार,व कवि था, हमारे देहरादून का लेकिन अपनी आवारगी व बदपरहेजी के कारण इतनी जल्दी चला गया हमारे बीच से। अवधेश को याद करते हुए पन्त जी भावुक हो उठे थे।

'आपकी शादी हो चुकी थी जब आपने लिखना शुरू किया'? अरुण ने पूछा। 

'हां हां,मैने तो बहुत बाद में लिखना शुरू किया,शादी मेरी ६४ में हो गई थी,लिखना छपना ७३-७४ में  शुरू हुआ,३५ साल की उम्र के बाद।उससे पहले सेहत गड़बड़ा गई थी,भवाली सेनेटोरियम में भर्ती रहा।बड़े हादसे झेले। 

देहरादून में लिखने पढ़ने वालों का माहौल बनने लगा था तब। साहित्य संसद की गोष्ठियां होती थी, ब्रह्मदेव जी,शशिप्रभा शास्त्री,सुरेश भटनागर,वीर कुमार अधीर आदि लोग आते थे। हम लोग अपेक्षाकृत युवा थे,हमारी अभिरूचि भिन्न थी

इसलिए मैने,नवीन नौटियाल व अवधेश ने मिल कर संवेदना संस्था का गठन किया, तय हुआ कि कोई इसका अध्यक्ष,सचिव नहीं होगा। तीनों ही इसके संवाहक होंगे। उसकी नियमित गोष्ठियां आयोजित करने लगे थे।

सारिका में छपने के बाद तो मेरी पहचान बनने लगी थी।समान्तर कहानी आयोजन देश भर में आयोजित होने लगे थे। इब्राहीम शरीफ ने मद्रास सम्मेलन  में बुला लिया,पहली बार घर से बाहर निकल कर उतनी दूर जाना हुआ। कमलेश्वर जी से पहली मुलाकात वहीं हुई,श्रवण कुमार, मधुकर सिंह,से.रा यात्री से मुलाकात हुई,सारिका के लेखक एक दूसरे से मिल कर गले लिपट पड़े।

मद्रास से लौटते हुए कालीकट विश्वविद्यालय के छात्रों द्वारा आयोजित एक गोष्ठी में शामिल हुए।वहां कहानी पाठ व चर्चा के बाद रात में डिनर से पूर्व पीने वगैरह का दौर शुरू हो गया, छात्रों ने स्वय एक बूंद नहीं ली, लेकिन लेखकों के सम्मान में पेय का इंतजाम कर दिया। पानी के लिए उन दिनों वहां सुराही रक्खी होती थी मेज पर  छोटी छोटी। से.रा. यात्री धुरंधर खिलाड़ी थे। मदहोशी में बोले यार,ये बोतल में बची ह्विवस्की मैं झोले में डाल लेता हूं,कल काम आयेगी,उन्हें कौन रोक सकता था।

दूसरे रोज शौक फरमाने के लिए झोले में हाथ डाला तो बोतल के बदले सुराही निकली,एक से एक रोचक किस्से हैं उस यात्रा के, जवाहर चौधरी से भी हीं मुलाकात हूई, संग्रह के प्रकाशन का आगाज भी तभी हुआ बातो बातों में।

से.रा यात्री की बात चली तो फिर उनके किस्से चलते चले गये।बोले, 'यात्री बहुत फक्कड़ और घुमक्कड़ लेखक थे। उत्कृष्ट कोई खास नहीं लिखा उन्होंने लेकिन औसत दर्जे का जितना लिखा उतना किसी और ने नहीं लिखा होगा। खादी का सफेद कुर्ता पजामा और कंधे पर झोला उनकी पहचान थी। कहते थे लेखक के पास झोला अवश्य होना चाहिए पता नहीं कब क्या छुपाना पड़ जाय।'



'वो देहरादून में रिक्शे की सवारी वाला क्या किस्सा है, यात्री जी का,पन्त जी!'हमने उन्हें कुरेदा था।

'अरे हां,अद्भुत शख्स थे यात्री जी। उन्होंने अपनी एक कहानी में देहरादून में हाथ रिक्शा चलवा दिया।

इस बात को लेकर बड़ा हल्ला हुआ, देहरादून में रिक्शे चलते नहीं,यात्री नकली कहानियां लिखते हैं।

बात,साप्ताहिक हिंदुस्तान के मनोहर श्याम जोशी तक पहुंची, उन्होंने उपसंपादक हिमांशु जोशी से पूछा,'ऐसी गल्ती क्यों हुई, प्रूफ व तथ्यात्मक अशुद्धियों हेतु सम्पादक जिम्मेदार होता है।'साप्ताहिक के कार्यालय में आने पर हिमांशु जोशी ने यात्री से इस त्रुटि हेतु मनोहर श्याम जोशी की हिदायत व नाराजगी का हवाला दिया। यात्री भड़क गये और सीधे मनोहर श्याम जोशी के चैम्बर में घुस कर सफाई दे आये,कि लेखक को कहानी के पांच सौ रुपए पारिश्रमिक मिलते हैं इसमें क्या वो हवाई जहाज चलवा देता,देहरादून में!'एक से एक मजेदार किस्से हैं हमारे जमाने के लेखक मित्रों के।पन्त जी बात बात में कमलेश्वर जी की तारीफ कर रहे थे, कमलेश्वर बड़े ग़ज़ब के आदमी थे। 'सारिका में नये लेखकों को खूब छापते व प्रोत्साहित करते थे।'

'कमलेश्वर जी सबके साथ ऐसे ही पेश आते थे,जैसे आपके साथ?'अरुण पूछ बैठा।

शर्मीली सी गौरवान्वित मुस्कान के साथ वे बोले,

'हां,मेरे प्रति थोड़ा ज्यादा ही स्नेहिल थे,यूं सबके प्रति  उनका व्यवहार अच्छा रहता था।'सारिका बन्द होने के बाद 'गंगा'के सम्पादक बने। गंगा के आठ दस अंक निकले,उसमें उन्होंने मेरा उपन्यास 'सुबह का भूला'छापा।

'हां,हां मुझे याद है,गंगा में ही पढ़ा मैंने भी उसे,८८-९० के आसपास, मैने कहा।

'गंगा'के बन्द होने के बाद कमलेश्वर जी फिर पूर्णतया साहित्य से कट कर फिल्म संवाद लेखन की ओर उन्मुख हो गये थे। हालांकि उन्होंने 'कितने पाकिस्तान'जैसा मार्के का उपन्यास भी बाद में लिखा।

इस बीच पन्त जी बोले,'यार तुम इधर लगातार बड़ी अच्छी कविताएं लिख रहो हो,फेसबुक पर,वो स्त्री वाली कविता तो बहुत अच्छी है,क्या नाम है 'स्त्रियां'है,ना! 'हां,हां अभी हाल ही में डाली थी!'

तुम्हारे लेखन में इतनी वैरायटी है, व्यंग्य, कहानी, कविता। संग्रह आने चाहिए इन सबके।

'हां,हां अब कोशिश करता हूं, रिटायरमेंट के बाद फुर्सत मिली है इस वास्ते।'

बातों बातों में कब दो घंटे बीत गये पता ही नहीं चला,'अरे! मैं तो पूछना ही भूल गया चाय लोगे,या ड्रिंक्स चलेगी,तकल्लुफ की बात नहीं, है इंतजाम बोलो।' 

नहीं,नहीं ड्रिंक्स नहीं, दिन का वक्त हैं,चाय ही लेंगे

अरुण ने कहा,मैंने भी उसका समर्थन किया।

पन्त जी भीतर गये। थोड़ी देर बाद उनकी पुत्रवधू चाय का ट्रे व नमकीन बिस्कुट रख गई। इतनी देर की बातचीत व किस्से कहानियों के बाद गर्मा-गर्म चाय बिस्कुट की तलब लगी ही थी। 

मेल जोल व बातचीत से मन कितना बदल जाता है,यह पन्त जी की मुखर,उत्साही व प्रसन्न  भंगिमा से जाहिर हो रहा था,बनिस्पत दो घंटे पूर्व की उदास व शान्त भंगिमा से। मित्रों के सान्निध्य के बीच पुरानी स्मृतियों व किस्सों की अदायगी से उनके शरीर  में जैसे जान व रौनक आ गई थी।बढ़ती उम्र में इंसान की यह सामाजिक भूख और बढ़ जाती है,इसलिए हमें अपने अग्रज मित्रों,परिजनों से मुलाकात भेंट घाट करते रहनी चाहिए ताकि उनको एकाकीपन उपेक्षा,अवहेलना महसूस न हो। यह बात शिद्दत से हमें भी महसूस हो रही थी। हममें से अरुण इस भूमिका को बखूबी निभाता है ,यह गुण उसमें स्वभाव के अलावा जिम्मेदारी के दायित्व बोध का भी है।

वर्तमान साहित्य के परिदृश्य पर बातचीत करने का यह अवसर नहीं था,गपशप के बीच ही सहज अनौपचारिक रुप से पुरानी स्मृतियों के स्फुरण से हम लोग आनन्दित हो रहे थे और पंत जी को भी उल्लसित देख रहे थे।

वे बोले,'राजेन्द्र यादव की हंस पत्रिका में मैंने कहानी भेजी ही नहीं,छपने के वास्ते, क्योंकि उन्होंने सारिका में छपने वाले समांतर के दौर के रचनाकारों को कमलेश्वर के 'चेले चपाटे'कह कर हमारा  मजाक उड़ाया था। हंस में मेरी एक दो कहानियां ही शुरू में प्रकाशित हुई थी उसके बाद नहीं भेजी।

पिछले वर्षों में ज्ञानरंजन की पहल पत्रिका में कहानियां प्रकाशित व चर्चित हुई, ज्ञान जी सम्मान पूर्वक मंगवाते थे,मैंने भी उनका मान रक्खा और रचनायें भेजी।'कथादेश'में बहुत कहानियां छपी।'

कुछ इधर उधर की बातें हुई, एफ.आर.आई की नौकरी आदि की। अब संस्थान के पुनर्गठन के बाद काउन्सिल बन जाने के बाद भी इतने प्रसिद्ध नामी संस्थान की हालत से वे क्षुब्ध थे,कह रहे थे, 'काउन्सिल बनने के बाद संस्थान खुद नवोन्मेषी उद्यमों से अपनी आमदनी बढ़ा रहा है लेकिन ओवरहैड खर्चे इतने ज्यादा हैं कि घाटे में ही जा रहा है।'

इस बीच एक वक्त में काफी चर्चित हुई कहानियां, 'कामरेड का कोट,''भगदत्त का हाथी'व 'पिंटी का साबुन'तथा इनके कथाकारों की चुप्पी पर भी चर्चा हुई, इसी सिलसिले में  गंभीर सिंह पालनी की कहानी 'मेंढक'का जिक्र चला तो पंत जी बोले, 'मुझे खास अपील नहीं करती वह कहानी,मेंढक जैसे बचकाना प्रतीक पर है।'

अरुण ने प्रतिवाद किया,'नहीं,नहीं मेंढक तो अच्छी कहानी है,शिक्षा व्यवस्था पर करारा प्रहार है उसमें नयापन है',मैने भी अरुण का समर्थन किया।

'ज्वलंत सामाजिक समस्याओं पर धारदार लेखन ही अन्तत: सराहा जायेगा,आम आदमी की मुश्किलें अभी खत्म नहीं  हुई है।'पन्त जी ने कहा। यही सब बातें करते करते काफी देर हो गई थी, लगभग तीन घंटे तक हम लोग पंत जी से बोलते बतियाते रहे। चलने को उद्यत हुए तो वे,भीतर रैक से एक मोटी सी किताब लाकर मुझे थमाते हुए बोले,तुम रिटायर हो गये हो,वक्त की कमी नहीं है,इस जीवनी को पढ़ना। अब तो अनुवाद की बहुत सुविधा है,विश्व साहित्य की अनुदित अच्छी पुस्तकें हिंदी में आ रहीं हैं।

जरूर जरूर, मैंने पन्त जी द्वारा उपहार स्वरूप प्राप्त वह किताब ले ली।

बाल्जाक की जीवनी थी,चार्ल्स गोरहाम की लिखी तथा जंग बहादुर गोयल द्वारा हिंदी में अनूदित।संवाद प्रकाशन से छपी,काफी मोटे कलेवर की। 

उसके बाद हम तीनों ने साथ बैठ कर फोटोग्राफ खिंचवाया,जो उनकी पोती नताली ने खींचा। वह बड़ी हो गई है,क्लास सिक्स में पंहुच गई है,नताली के प्रथम जन्मदिन पर आयोजित समारोह में हम सब लोग एकत्रित हुए थे, नताली को देख कर उस समारोह की याद आ गई। फोटो खिंच जाने के बाद पंत जी हमें छोड़ने गेट तक आये।

'अच्छा फिर आते रहना आप लोग,मेरा तो आना जाना मुश्किल है।''जरूर, आयेंगे, नमस्ते।'हम दोनों समवेत स्वर में बोले और गेट बन्द कर लौट आये।

                *****



संघर्ष ही सर्जना है

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 राजेश सकलानी


साहित्य लेखन एक पूर्णकालिक व्यवसाय है। एक राजनैतिक कर्म है। हम सभी लोग बचपन में अपने आस पास की जिंदगी में समाजिक पीड़ाएं देख चुके होते हैं और गैरबराबरी से उपजे नतीजों से परिचित हो जाते हैं। साहित्य लेखन के पीछे इसलिए एक व्यवस्था की तलाश अनिवार्यत होती है जहाँ कोई शोषक तकलीफें न पैदा कर सके। इस आयोजन को  प्रकृति और सामाजिक सांस्कृतिक वैविध्य से निसंदेह ताकत  मिलती है। भविष्य के समाज के लिए इसे सुरक्षित करना हमारी बुनियादी प्रतिज्ञाओं में शामिल होता है। इस संदर्भ में हम अपने समय के महत्वपूर्ण कथा लेखक सुभाष पंत के रचनाकर्म को  गर्व और संतोष से देखते है। उनके कथा पात्र हमारे समाज के सामान्य नागरिक है, वे प्रायः निम्र वर्ग से आते है । जीवनयापन करने की मुश्किलों में पंत जी उनके संघर्षों में हमेशा शामिल रहते है। पिछले पांच दशको में प्रकाशित उनके दस कथा संग्रहों और दो  उपन्यासो ( तीसरा उपन्यास शीघ्र प्रकाशय है) के दौरान  जनता के प्रति उनकी निष्ठा में कभी विचलन नही आया है। 

सामान्यतः कथाएं उन चरित्रों के माध्यम से अपनी धारणाएं व्यक्त करती है, जिससे कोई विलक्षणता होती है या उनमें कौतुक पैदा करने वाली घटनाएं होती हैं। लेकिन पंत जी की कहानियों मे पात्र और घटनाएं सामान्य स्तर पर बनी रहती है और लेखक इनमें निहित सुख दुख , यंत्रणा, शोषण और दारिद्र्य के पीछे आधारित व्यवस्था को सूक्ष्मता में पहचान लेते हैं।


सामाजिक व्यवस्था के प्रोटोटाइप की सर्जना करना पंत जी के कथाशिल्प की विशेषता है। उनकी कला किसीभी स्तर पर सामाजिक यथार्थ में विलग नहीं होती। और सामान्य भारतीय नागरिक की व्यथा से अलग वे 'अपने वर्ग हित की कला में नहीं उलझते। अनेको अन्तर्विरोधों से गुजरते हुए वे सामाजिक व्यवहारिक विचलनों को सूक्ष्मता से लक्षित करते हुए वे रचनात्मक तरीके से लोकतान्त्रीक मूल्यों को प्रतिष्ठित करते हैं। 


वे मूलतः समकाल के व्याख्याकार हैं। यह उनकी राजनैतिक प्रतिवद्धता है कि वे हर हाल में गरीब और विवश नागरिक से सन्नध रहे हैं।  अपने पचास साल के  रचनाकाल में उन्होंने कभी अवकाश नहीं लिया। शहरी निम्नवर्गीय जीवन की कथा उनका आवास रहा है। पंत जी की भाषा इसका प्रमाण है कि वे जब लिख नही रही होते है तो उस समय  भी  उनकी जन निष्ठा सक्रिय रहती है।जीवन मूल्यों के तहत उनके लगाव में व्यतिक्रम नहीं है। कभी कभी जिम्मेदारी के परिसर में शौकिया यात्रा करना उनके लेखन का स्वभाव नहीं है। सामाजिक जीवन में ना‌गरिको की बुरी जीवन स्थितियों को अनदेखा करना या उनका सामान्यकरण करने की क्रूरता उनको स्वीकार्य नहीं है।


गाय का दूध 'कहानी से अपने लेखन की शुरुआत में ही उन्होंने पाठको  लेखकों और आलोचको का ध्यान आकृष्ट किया और उनकी दर्जनों कहानियां याद में बनी रहती हैं। देश भर में उनको चाहने वाले पाठक है जिनसे उन्होंने रचनात्मक रिश्ता बनाया है। यह मामूली उपलब्धि नही है। कथाकार और  संपादक (पहल) ज्ञानरंजन ने उन्हें अपना प्रिय लेखक बताया है और माना है कि आलोचकों ने उन पर पर्याप्त ध्यान नही दिया है। प्रसंगवश पंत जी का सुलेख बेहतरीन है। कागजों के पुलिन्दो में उनके द्वारा लिखित पृष्ठ चित्रकला की तरह आकर्षक दिखाई देता है। इस संदर्भ में कथाकार योगेन्द्र आहूजा का सुलेख भी दर्शनीय है। कला अभिरुचि,  शांतचित और धैर्य संभवत इस विशेषता की पृष्ठभूमि है।


'इक्कीसवीं सदी की एक दिलचस्प  दौड़  ' ,कथा संग्रह अभी हाल में काव्यान्श प्रकाशन, ऋषिकेश से प्रकाशित हुआ है जिसमें चौदह बेहतरीन कहानियां शामिल है। लेखक की उम्र इस वक्त चौरासी वर्ष है अभी अभी उन्होंने अपना तीसरा उपन्यास पूरा किया है। 


इस संग्रह में "मक्का के पौधे 'कहानी सघन कथ्य,  खूबसूरत भाषा और निम्नवर्गीय जीवन स्थितियों के बीच  उन्नत संवेदनाओं के प्रकटीकरण के लिए याद रखी जाएगी। कथानक की विश्वसनीयता, पात्रों और परिवेश का यथार्थवादी चित्रण ,सटीक संवादों और उच्चतर मानवीय मूल्यों की स्थापना के संदर्भ में लेखक का कौशल हमारे समाज के लिए बड़ी उपलब्धी है। लेखक की खूबसूरत भाषा की पीछे गहन माननीय संवेदनाएं, अग्रगामी विचार‌शीलता, संघर्षशील जनता से सम्पृक्ति और मानवीय दृढ़ता मुख्य कारण है।


इस कथानक में लालता और सुगनी का जवान बेटा जो ट्रक ड्राइवर है एक शादी शुदा औरत को घर ले कर आ जाता है। यह दंपति को मंजूर नहीं है। दो औरतो के अन्तर्द्धत बहुत सघनता से व्यक्त हुए हैं।


"चित्रलिखित सी दिलकश, शीशे में उतरती तस्वीर सी , सुगनी को वह फूटी आंख नहीं सुहाई। हुंह, शहराती नखरे हैं । कहते हैं। औरत के माने तो बस एक सीधा-सच्चा गांव है। ये लच्छन उसे नहीं दिया रिझा सकते। धौखेबाज, भ्रष्ट, पतुरिया"


अपनी वर्गीय सीमाओं का अतिक्रमण करना लेखन का  सबसे बडा संघर्ष है, मध्यवर्गीय चेतना बार बार  प्रतिगामिता की ओर ठेलती है। इसलिए समाज की अस्मितावादी शक्तियों ने हमें फासीवाद के दरवाजे पर पहुंचा दिया है। इस दौर में छद्म बुद्धिजीवियों के नकाब हटते गए हैं। बाहरी तौर पर जो प्रगतिशीलता का मुखौटा ओढे थे, उनके चेहरों पर संतोष और सुख का भाव उनकी राजनीति बयान कर देता है। 

सुभाष पंत हर हालात में अपनी मेहनतकश जनता के हमदर्द है। उनकी कहानियां  समाज के नागरिकों को परख करने का सलीका देती हैं। हर तरह का लेखन वास्तव में राजनीति का ही हिस्सा होता है। पंत जी का साहित्य अस्मितावादी राजानीति, भेदभाव और शोषण का प्रतिकार है। वे सच्ची सामाजिक आजादी को परिभाषित करता है।

बेहतरीन किस्सागो - सुभाष पंत

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 सूरज प्रकाश

9930991424


बात 1972 के शुरुआती दिनों की है। तब मैं डीबीएस कॉलेज, देहरादून से सुबह के सेशन में बीए कर रहा था। 6:00 से 6:30 बजे तक अंग्रेजी का पीरियड होता था और 6:30 से 7:30 तक हम खाली होते थे। एक दिन पहले किसी स्थानीय अखबार में मेरी एक कविता छपी थी और मैं वह कविता कॉलेज के सामने चाय की दुकान में अपने एक सहपाठी को सुना रहा था। तभी बीए फाइनल का एक छात्र चाय पीने के लिए आया। मुझे कविता सुनाते देख कर मुझसे बोला - यह कविता तुम्हारी है?जब मैंने हां कहा तो उसने बताया - अच्छी है,मैंने पढ़ी है। तुम एक काम करो। कनाट प्लेस में वैनगार्ड प्रेस में कवि जी सुखबीर विश्वकर्मा जी से मिलो। वे देश भक्ति की कविताओं का एक संकलन निकाल रहे हैं। तुम्हारी कविता भी ले लेंगे।

मैं बहुत हैरान हुआ कि क्या इस तरह के सहयोगी संकलन भी होते हैं। अब तक मैं शहर में या देश में किसी भी रचनाकार को नहीं जानता था। मेरा पढ़ना लिखना खुशीराम लाइब्रेरी में पत्रिकाएं पढ़ने और घर के पास चलने वाली लाइब्रेरियों में ₹3 महीना देकर रोज एक किताब किराए पर लेकर पढ़ने तक सीमित था। इन किताबों में गुलशन नंदा,रानू,दत्त भारती,वेद प्रकाश कंबोज,कर्नल रंजीत,इब्ने सफी हुआ करते थे और पत्रिकाओं में अधिकतर फिल्में पत्रिकाएं। मैं छिटपुट कविताएं लिखा करता था लेकिन वे कितनी कविताएं होती थीं और कितनी नहीं,इसके बारे में मुझे तब तक कोई अंदाजा नहीं था। कोई बताने वाला भी नहीं था।

सुबह के वक्त चाय की दुकान में एक सीनियर छात्र से वह मुलाकात एक तरह से साहित्य की दुनिया में मेरे प्रवेश के लिए दरवाजे खोलने वाली होने वाली थी। मेरी दुनिया उस दिन के बाद बदल जाने वाली थी। बेशक मेरा विधिवत लेखन शुरू होने के लिए मुझे अभी कम से कम पंद्रह बरस और इंतजार करना था लेकिन शुरुआत तो उसी दिन ही हो गयी थी।

अगले दिन मैंने देशभक्ति की दो तीन कविताएं लिखीं और उन्हें ले कर में वैनगार्ड प्रेस में कवि जी के पास गया। अपना परिचय दिया कि बीए में पढ़ता हूं और कविताएं लिखता हूं। मुझे पता चला है कि आप देशभक्ति की कविताओं का एक संकलन निकाल रहे हैं। मैं भी दो तीन कविताएं लाया हूं। उन्होंने कविताएं देखीं और उन्हें तुरंत ही रिजेक्ट कर दिया और कहा कि कविता हमेशा 16 मात्राओं की होनी चाहिए और उन्होंने मुझे साधुराम इंटर कॉलेज के हिंदी अध्यापक कौशिक जी के पास कविता ठीक कराने के लिए भेज दिया। यह अलग कहानी है कि मेरी कविता किस रूप में छपी।

मेरी कविता देहरादून के सभी रचनाकारों के साथ एक सहयोगी संकलन में छपेगी इससे मुझे बहुत खुशी हुई। मैं तब तक बीस बरस का भी नहीं हुआ था और मेरी शुरुआती कविता ही शहर के सहयोगी संकलन में छपने जा रही थी। अब मैं अक्सर कवि जी के पास के पास जाने लगा। वहीं जाकर पता चला कि इस संकलन में शहर के कौन-कौन से कवि शामिल हो रहे हैं। जब भी मैं वहां जाता तो हमेशा दो-चार कवि वहां मिल ही जाते। इनमें सुभाष पंत,अवधेश,सुरेश उनियाल,मनमोहन चड्ढा, जितेन ठाकुर, देशबंधु, अतुल शर्मा आदि थे। वे सब पहले से छपते रहे थे और एक दूसरे से परिचित थे। मैं एकदम नया था और लिखने पढ़ने के नाम पर मेरी डायरी में मुश्किल से दस पंद्रह कविताएं थीं। स्थानीय अखबारों में छपी हुई दो तीन। जब मैं इतने बड़े कवियों से मिलता तो संकोच से भर जाता। लेकिन सब वरिष्ठ लोग बहुत प्यार से मिलते।

आपस में परिचय कराते तभी मुझे पता चला कि इस संकलन के एक कवि सुभाष पंत की कहानी गाय का दूध सारिका में छपी है और उसकी खूब चर्चा है। उनसे अब तक मेरा संवाद नहीं हुआ था। यह पहली बार हो रहा था कि मैं किसी लेखक को आमने सामने देख रहा था। मुझे बहुत संकोच होता उनसे बात करने में। यह किसी भी लेखक से बात करने का पहला मौका होता। मैं पढ़ने लिखने के नाम पर एकदम शून्य था। मैं देहरादून में जिस मुहल्ले में मच्छी बाजार में रहता था, वह गुंडों,मवालियों और शराबियों का इलाका था। देर रात तक गालियां सुनायी देतीं और अक्सर चाकू चलते। ऐसे इलाके में रहते हुए भला लिखने पढ़ने के संस्कार कहां से आते। पंत जी से मुलाकात और संवाद आने वाले पचास बरस के लिए एक बहुत ही आत्मीय, स्नेह से भरपूर और लेखक के रूप में मुझे दिशा देने वाले और मुझे समृद्ध करने वाले रिश्ते की शुरुआत थी।

पंत जी की वह कहानी मैंने पढ़ी थी और हैरान हो गया था कि कहानी इस तरह से भी और ऐसी स्थितियों पर भी लिखी जा सकती है। अब तक मैं गुलशन नंदा और रानू की नकली दुनिया में ही भटक रहा था। जीवन से आयी कहानी से यह पहला परिचय था। पंत जी से बात होती थी लेकिन उन्होंने कभी भी नहीं दर्शाया कि मैं नौसिखिया हूं और साहित्य में जगत में प्रवेश कर रहा हूं

खैर,जब तक दहकते स्वर छपता, सभी साथी रचनाकारों से अच्छा परिचय हो गया था और सबने मुझे भी एक सहयोगी कवि के रूप में स्वीकार कर लिया था। यह मेरे लिए बहुत बड़ी बात थी कि मैं देहरादून की लेखक बिरादरी में शामिल कर लिया गया था। देखा देखी मैंने कुछ और कविताएं लिखीं और वे वैनगार्ड अखबार में और कवि जी की मदद से कुछ और अखबारों में छपीं।

अब मैं देहरादून की लेखक मंडली में विधिवत शामिल कर लिया गया था और सबकी गप्प गोष्ठियों में शामिल होता था। बेशक मैं बोलता नहीं था और सिर्फ सुनता रहता था लेकिन यह बहुत बड़ी बात थी कि मैं इस मंडली में शामिल था। धीरे-धीरे मैं पंत जी के और अवधेश के संपर्क में आने लगा था और उनसे बहुत कुछ सीखने लगा था।

मुझे वे दिन बहुत याद आते हैं। पंत जी, कविजी और देश बंधु के पास पुरानी साइकिलें होती थीं। तब एक बहुत अच्छी परंपरा देहरादून में थी कि सब साहित्यकार जब शाम को मिलते या घंटाघर के पास बने बैठने के इकलौते ठीये डिलाइट रेस्तरां में बैठते तो देर तक खूब बातें होतीं और फिर सिलसिला शुरू होता सबको घर तक छोड़ कर आने का। यह अद्भुत और हैरान कर देने वाली बात होती थी कि सब साइकिल थामे धीरे-धीरे चल रहे हैं और बारी-बारी से सबको एक-एक के घर छोड़ रहे हैं। कभी पंत जी के घर उन्हें छोड़ा जा रहा है, कभी अवधेश को उसके घर छोड़ा जा रहा है और इस तरह घर छोड़ कर आने का सिलसिला देर रात तक चलता रहता। आखिर में जब दो ही लोग रह जाते तो अक्सर ऐसा होता कि वे दोनों एक ही घर में सो जाते। यह दुनिया में अकेली और निराली प्रथा रही होगी। मुझे भी कई बार इस तरह से सभी मित्र घर पर छोड़ने आए या मैं बारी-बारी से सब को घर छोड़ने के लिए जाता रहा।

उन दिनों एक और बात अच्छी बात थी। चाहे सीमित साधनों में सही,सब साथियों के जन्मदिन मनाए जाते हो। सब लोग मिलते और देर तक खाने पीने के दौर चलते। मुझे पंत जी के घर पर उनके जन्मदिन पर जाना याद है। देर रात तक हेम भाभी जी सबके लिए पकौड़े बनाती रही थीं।

 जब सब मिलते तो देर तक साहित्य की बातें होतीं। लिखने के तौर तरीके और बेहतर तरीके से लिखने की बातें होतीं। नयी लिखी रचनाएं सुनायी जातीं और पढ़े गये साहित्य पर बात होती। किताबों और पत्रिकाओं का आदान प्रदान होता। चलते चलते एक चक्कर पलटन बाजार में नेशनल न्यूज एजेंसी का लगाया जाता कि कोई नयी पत्रिका आयी हो तो खरीद ली जाए। मुझे अभी भी सबकी बातों में शामिल होने में बहुत संकोच होता। एक नयी दुनिया थी जो मेरे सामने खुल रही थी। जिस तरह का जीवन मैं जीने के लिए अभिशप्त था,उससे बिलकुल अलग। मेरे सामने पंत जी थे अवधेश था। उम्र में भी बड़े और कद में भी बहुत बड़े थे। पंत जी सारिका के चर्चित लेखक थे।

पंत जी बेहद शानदार किस्सागो हैं और अपने खास अंदाज में खूब किस्से सुनाया करते। वे किसी भी बात को,किसी भी मामूली घटना को, मामूली से मामूली लतीफे को किस्सागोई के अंदाज में सुनाने में माहिर हैं। उन्हें सुनना बहुत अच्छा लगता था। वे जिस भी मंडली में बैठे होते, केन्द्र में वे ही होते। महफिल उनके आसपास ही जमती। वे हमारे स्टार लेखक थे और उन्हें सब बहुत आदर से मिलते।

 

उनका सुनाया एक बहुत पुराना किस्सा याद आ रहा है।

किस्सा कुछ यूं है – एक जनाब अपनी कोठी के लॉन में शाम के वक्त टहल रहे थे। शाम का वक्त था। तभी उन्होंने देखा कि कोई मिलने वाले गेट पर खड़े हैं। उन्होंने अपनी छड़ी वहीं लॉन में मिट्टी में धंसायी और लपक कर गेट खोलने चले गये। मित्र रात को देर से लौटे।

सुबह के वक्त उन्हें छड़ी के बारे में याद आया। सोचने लगे, कहां रखी है। तभी याद आया कि दोस्त के आने पर उन्होंने अपनी छड़ी लॉन में ही मिट्टी में धंसा दी थी। लपक कर लॉन में गये तो देखते क्या हैं कि छड़ी में अंकुए फूट आए हैं। वे सोचने लगे कि जिस शहर में लॉन की मिट्टी ही इतनी उर्वरा है तो शहर के बाशिंदे कितनी सर्जनात्मकता से लैस होंगे। हर आदमी कवि और लेखक होगा। इस किस्से को पंत जी ने देहरादून की क्रिएटिविटी से जोड़ा था। ऐसा बहुत कम होता था कि पंत जी किसी महफिल में हों और कोई किस्सा न सुनाएं।

मैं उन्हें अपने वक्त का श्रेष्ठ किस्सागो मानता हूं। घटना चाहे मामूली हो लेकिन किस्सागोई के अंदाज में वे उसमें नया रंग नया स्वाद और नई अनुभूति भर देते हैं। किस्सा चाहे कमलेश्वर जी से जुड़ा हो,शराबखोरी से जुड़ा हो या नए नए लोगों से मिलने के किस्से हों, वे हमेशा अपने अंदाज में हमें किस्से सुनाते नजर आते हैं।

जून 1974 में मैं नौकरी के सिलसिले में हैदराबाद चला गया और वहां से पत्रों के माध्यम से पंत जी, अवधेश और धीरेंद्र अस्थाना और बाकी रचनाकारों से संपर्क बना रहा। मैं सबके साहित्य से जुड़ा रहा। सबकी कहानियां पढ़ता रहा। मेरा दुर्भाग्य रहा कि मैं अभी भी लिखना शुरू नहीं कर पाया था। वही टूटी फूटी कविताएं मेरे खाते में थीं। 1977 में जब मैं देहरादून वापिस आया तब भी लिखने के बारे में मैं शून्य था। डेढ़ बरस देहरादून में रहने के बाद फिर से एक बार शहर छूट गया और मैं दिल्ली चला गया लेकिन देहरादून के सभी मित्रों से मेरा निकट के नाता बना रहा। 1981 में मुंबई आने के बाद भी मेरे लेखन शुरू नहीं हो पाया था और मेरी छटपटाहट बरकरार थी। मेरे सभी मित्रों की कई कई किताबें आ चुकी थीं और मैं अभी तक लिखने की बोहनी भी नहीं कर पाया था। मैं कहीं भी रहा,चाहे मुंबई या अहमदाबाद या पुणे, मुझे पंत जी के खूबसूरत पत्र मुझे मिलते रहे। अभी भी मेरे खजाने में उनके पचासों पत्र हैं जो हमेशा मुझे प्रेरित करते हैं। पंत जी मुझे बताते रहते कि बेशक लिखने में देर हो जाती है कई बार लेकिन लिखने की तैयारी में लगने वाला समय कभी भी जाया नहीं जाता। मेरा लेखन 1987 में शुरू हुआ और जब 1988 में मेरी तीसरी ही कहानी धर्मयुग में आयी तो देहरादून के मित्रों ने मेरा बहुत उत्साह बढ़ाया है खासकर पंत जी और अवधेश के पत्र मेरे लिए किसी खजाने से कम नहीं थे। वे पत्र मैंने आज भी संभाल कर रखे हैं।

मैं देहरादून बहुत कम रहा हूं और पिछले कई वर्षों से यानी लगभग 50 बरस से देहरादून से बाहर हूं लेकिन पंत जी से हमेशा पत्राचार के जरिए,टेलीफोन के जरिए नाता बना रहा और वह मेरे लेखन पर अपनी उंगली रखते रहे और बताते रहे कि मैं कहां ठीक काम कर रहा हूं और कहां सुधार की गुंजाइश है। उनके घर में मेरा हमेशा स्वागत होता रहा। मेरा सौभाग्य है कि इतने बड़े लेखक,जमीन से और पहाड़ से जुड़े लेखक का मुझे स्नेह और प्यार मिलता रहा है और मुझे कभी भी नहीं जताया गया कि मैं उनसे बहुत छोटा हूं और मेरा लेखन उनके लेखन के सामने कहीं नहीं ठहरता। उन्होंने हमेशा मुझे बराबरी का दर्जा दिया है और अपने परिवार में हमेशा मेरा स्वागत किया है।

पंत जी बता रहे थे कि बहुत पहले जब वे हिंदी में एमए कर रहे थे तो पेपर देखने पर पता चला कि उनकी कोई तैयारी नहीं थी। वे कोई भी प्रश्न हल नहीं कर सकते थे। अब तीन घंटे बैठ कर क्या करें। कुछ नहीं सूझा तो उन्होंने क्वेश्चन पेपर की जगह तीन घंटे में एक पूरी कहानी का ड्राफ्ट लिख लिया था। वे साफ-सुथरे छोटे छोटे अक्षरों में लिखते हैं और कहीं कोई काट छांट नहीं होती।

जब मैं स्टोरीमिरर से जुड़ा तो सबसे पहले मैंने ये काम किया कि वहां से पंत जी, जितेन ठाकुर और धीरेन्द्र अस्थाना के कहानी संग्रह छपवाये। सीरीज और लंबी चलती लेकिन मनमुटाव के कारण मैंने संस्था ही छोड़ दी। पंत जी के कहानी संग्रह का जब लोकार्पण जब मुंबई में होना था तो पंत जी ने इच्छा जाहिर की कि किताब का लोकार्पण अगर प्रसिद्ध लेखक और कार्टूनिस्ट आबिद सुरती करें तो बेहतर। आबिद सुरती आये थे और पंत जी की किताब का लोकार्पण किया था।

और आखिर में चूंकि यह किस्सा पंत जी का ही सुनाया हुआ है तो यहां पर दर्ज करने में कोई हर्ज नहीं है।

बात बहुत पुरानी है।  पंत जी अवधेश से मिलने उसके घर गए। दरवाजा बंद था। आवाज दी। अवधेश के साथ वाले कमरे में उसके पिताजी रहा करते थे। उन्होंने पूछा – कौन है। पंत जी ने जब अपना नाम बताया तो अवधेश के पिता जी ने उन्हें भीतर बुला लिया और अपने पास बिठाकर समझाने लगे कि तुम अवधेश से बड़े हो और वो तुम्हारी बात मानता है। उसे समझाओ। वह बहुत पीने लगा है। घर की तरफ, बच्चों की तरफ ध्यान नहीं देता और पता नहीं कहाँ कहाँ घूमता रहता है। वे बहुत देर तक पंत जी को समझाते रहे। पंत जी के पास और कोई उपाय नहीं था सिवाय सुनते रहने के। बाद में उन्हें भी लगा कि पिताजी ठीक कह रहे हैं। अवधेश को पीना बंद कर देना चाहिए। उठते हुए पंत जी ने तय किया कि वे आज ही अवधेश से मिलकर उसे समझाएंगे कि वह पीना बंद कर दे और परिवार की तरफ ज्यादा ध्यान दे। वे यह सोच कर चले कि अगर अवधेश कहीं मिल जाए तो आज ही ये नेक काम करते चलें।

संयोग ऐसा हुआ की न्यू एंपायर थिएटर के पास सामने से अवधेश आता दिखायी दिया। पंत जी खुश कि इतनी जल्दी ये मौका मिल गया। बातचीत शुरू हुई। पंत जी बोले – अवधेश, तुमसे ज़रूरी बात करनी है। अवधेश ने कहा – जरूर, लेकिन ऐसे यहाँ खड़े खड़े कैसे बात करेंगे। चलिए, सामने बार है। बार में बैठ के बात करते हैं। पंत जी को लगा, लंबी बात होगी, बैठ कर बात करना ठीक रहेगा। दोनों बार में बैठे। पंत जी बात शुरू कर पाते, इससे पहले अवधेश ने पूछा - एक एक पैग मंगवा लें। खाली बैठे अच्छा नहीं लगेगा। पैग आ गये। पंत जी ने उसे समझाना शुरू कर दिया कि शराब पीने से उसे क्या क्या नुक्सान हो रहे हैं। उसे तुरंत पीनी छोड़ देनी चाहिये। ये और वो। पंत जी देर तक समझाते रहे और अवधेश पूरी बात ध्यान से सुनता रहा और सहमति में सिर हिलाता रहा। पैग आते रहे, बात होती रही।

किस्सा यहां खत्म होता है कि जब दोनों दो ढाई घंटे बाद बार से निकले तो दोनों पूरी तरह से टुन्न थे।


पर्यावरण संघर्ष का सबाल्टर्न इतिहास :"पहाड़चोर"

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 यादवेंद्र 



कुछ साल पहले सुप्रीम कोर्ट में अरावली के संदर्भ में एक मामला चर्चा में आया था जिसमें राजस्थान सरकार की ओर से यह हलफनामा दिया गया कि पिछले कुछ दशकों में तीस से ज्यादा पहाड़ धरती से गायब हो गए। गायब होना तो एक दिखने वाला परिणाम था लेकिन हुआ यह कि खनन माफिया ने इन पहाड़ों को गैर कानूनी ढंग से बारूद से उड़ा कर वहाँ से निकले पत्थरों को बेच दिया।इसपर दो जजों की पीठ ने कटाक्ष करते हुए यह पूछा कि उस इलाके में क्या हनुमान जी आए थे जो सुमेरु पर्वत की तरह अपने कंधों पर सारे पहाड़ों को लेकर चले गए?वैसे जिधर आँख उठा कर देखें उधर यह दुर्दशा दिखाई देती है परन्तु यह भारतीय समाज में पर्यावरण कानूनों की अनदेखी करने का एक ज्वलंत व दर्दनाक उदाहरण है।

आज से लगभग बीस साल पहले वरिष्ठ और प्रतिबद्ध लेखन के लिए जाने जाने वाले सुभाष पंत का इसी विभीषिका पर केन्द्रित बेहद महत्वपूर्ण उपन्यास "पहाड़चोर"आया था और हिंदी जगत में उसका खासा स्वागत हुआ था। सुभाष जी ने मुझे बताया कि उपन्यास का ताना बाना चूने के खनन के चलते नक्शे से विलुप्त हो गये इस (भूतपूर्व) गाँव के बारे में देहरादून के एक युवा पत्रकार की "नवभारत टाइम्स"में संक्षिप्त रिपोर्ट के इर्दगिर्द बुना गया है और उन्होंने खनन का विरोध करने वाले आन्दोलनकारियों से बातचीत भी की थी। उपन्यास की भूमिका में स्व कमलेश्वर इसे "यथार्थ से भी नीचे आत्मिक यथार्थ की महागाथा"कहते हैं.... यह उपन्यास गढ़वाल की तलहटी में सहस्रधारा के पास बसे एक छोटे से गाँव का  ऐसा अविस्मरणीय आख्यान है जिसके किरदारों के भीतर संघर्ष चेतना राजनीतिक सिद्धांतों से नहीं बल्कि अपने दुखों और संकटों से उपजती है। यह समाज में निम्न समझे जाने वाले(सबाल्टर्न)  उन महान लोगों की गौरव गाथा है जो इतिहास को थाम कर बैठते नहीं बल्कि अपने जातीय गौरव के साथ संघर्ष करते हुए न सिर्फ़ आगे बढ़ते हैं बल्कि अपना अगला इतिहास निर्मित भी करते हैं। यही कारण है कि कमलेश्वर "पहाड़चोर"की आंचलिकता को सीधे वैश्वीकरण के साथ जोड़ते हैं। 


विकास की वर्तमान अवधारणा पर बहुत गहरे सवाल उठाता है यह उपन्यास जिसमें सड़क बिजली पानी और पक्के मकान विकास के प्रतीक मान लिए गए हैं।उपन्यास के केन्द्र में देहरादून के सहस्रधारा इलाके के आसपास मोचियों का एक छोटा सा गांव झंडूखाल है और इसके विलोपन की कहानी भी एक सड़क के साथ शुरू हुई थी - अवसर और सम्पन्नता की नगरी  तक पहुँचाने वाली सड़क का स्वप्न लेकर चूना कंपनी के मालिक आते हैं जो देखते देखते गाँव को दो हिस्सों में बाँटने,पहाड़ चुराने के उद्योग और अंततः गाँव को हजम कर जाने का कारगर रूपक बुन देते है। 


यह सड़क सिर्फ मामूली सी सड़क नहीं है बल्कि गांव के लोगों के दिलों को चीरती हुई निकल जाती है...गांव के कुछ लोगों को खदान पर नौकरी देकर उन्हें अपनि जमीन और जमीर पर कायम रहने वालों से तोड़ देती है। 'सभ्यता से निष्कासित और इतिहास की अंधेरी खाई में खोये हुए गाँव के सीधे सरल वासियों को प्रलोभन दिया जाता है  कि सड़क बनते ही वे समय और सभ्यता की धारा से जुड़ जायेंगे। 


विकास का यह कुरूप और क्रूर रूपक ही इस उपन्यास की आत्मा है जो अंततः उसके विलोपन का रोड मैप सीधे सादे विपन्न गाँववासियों से ही तैयार करवाता है। तब उन्हें इल्म भी नहीं हुआ कि वे धूल और धुएँ से लिख रहे हैं झंडूखाल के आगामी समय की कहानी। 


अपनी ही धरती पर बीड़ी पीने का अधिकार छिन जाना और जगह जगह अपने इलाके में ही 'आगे खतरा है'या 'इससे आगे ना जाएं'लिखे तख्ते गड़े हुए देखना इस उपन्यास की परतों को खोलने वाले सुचिंतित प्रसंग हैं - कंपनी ने गाँव से लकड़ी, घास और जलस्रोत बहुत दूर कर दिए...अपना पहाड़ उन्हीं लोगों के वास्ते देखते देखते वर्जित और अजनबी हो जाता है जिनकी पीढ़ियाँ उसके आँचल में फली फूली हैं। 

लेखक की सूक्ष्म दृष्टि समस्या को बड़े सधे हुए तरीके से परिभाषित करती है : "सड़क बनने के बाद झंडूखाल में बाहर से आने वाली सामान की पहली सौगात - औजार ...डायनामाइट ....और जगह-जगह के लोग" 


विस्फोट और खनन धीरे धीरे झंडूखाल के लोगों के जीवन का ऐसा अटूट हिस्सा हो जाता है कि जब धमाका नहीं होता तो लोग निराश हो जाते हैं - इस निराशा को प्रकट करने के लिए लेखक ने बड़ा अच्छा रूपक चुना है :'जैसे बच्चे के हाथ से दूध का कटोरा छिन गया हो।


चूना कंपनी के आने के बाद से समाज का यह विभाजन बड़े क्रूर तरीके से सामने आता है - उदाहरण के लिए पिरिया विस्फोट और खनन के कारण पानी की कमी के चलते प्यास से तड़प तड़प कर मर जाती है....यह समय दिहाड़ी का समय था इसलिए उसकी लाश उठाने के लिए नाते रिश्तेदार और पड़ोसी भी नहीं मिलते।तभी तो लेखक झंडूखाल को 'बिराना और अजनबी'कहने लगता है। 


पिरिया के साथ प्रकृति के सहज स्वरूप के मर जाने का बड़ा मर्मस्पर्शी प्रसंग स्मृति से निकलता नहीं: "पिरिया छाज में अनाज  पिछोड़ती तो उसके हाथ की चूड़ियाँ खनकते हुए संगीत सिरजतीं और चिड़ियों की एक लंगार घर के छाजन पर आकर बैठ जाती। चिड़ियाँ चहक कर दाना माँगतीं। वह पिछोड़न फेंकती तो वे छाजन से उतरकर दाना चुगने लगतीं। फुदक कर उछलते छाज पर बैठ जातीं। वह डाँटती तो उसके सम्मान की रक्षा के लिए छाज से दो कदम आगे कूद जातीं। उनकी शरारत से तंग आकर वह हाथ लहरा कर उन्हें उड़ाती तो वे हल्की सी उड़ान लेकर आँगन के किनारे बैठ जातीं और फिर धीमे-धीमे पंजों के बल चलती हुई उसके गिर्द जमा हो जातीं।पूछतीं: नाराज क्यों हो गयीं मालकिन? क्या ख़ता हुई?पिरिया  नाराज हो कर डाँटती: बड़ी ढीठ हो गई हो तुम... तंग कर दिया।....चिड़िया जिद्दभरी मनुहार करने लगतीं - तेरा कोठा भरा रहे, चूड़ियाँ संगीत सिरजतीं रहें,बच्चों से भी कोई तंग हुआ है कभी मालकिन?अपनी धूप सी हंसी बिखेर... देख आँगन कैसा निखर निखर उठता है..." 


वास्तविक पहाड़ी जीवन की तरह ही इस उपन्यास की संरचना निरक्षर पर समझदार,दूरदर्शी ,जिद्दी और जुझारू स्त्रियों के कंधों पर टिकी हुई है - सच ही तो है :"पहाड़ की औरत की आँख  का गलता यह लावा ही पहाड़ का भविष्य बदलता है।  


लेखक कितनी पैनी नजर से अपने एक एक किरदार को देखता है इसके अनेक उदाहरण उपन्यास में ध्यान खींचते हैं,जैसे : "आगे आगे साबरा( कंपनी की दलाली कर के रसूख जमाने वाला) चल रहा था बूटों की धप्प धप्प आवाज के साथ, दर्प और अभिमान से भरा ।पीछे गुपाल( कंपनी की कारस्तानियों का विरोध करने वाला) था जो इतनी होशियारी से चल रहा था कि कहीं उसकी चप्पल न टूट जाए ...और इतना तेज भी कि साबरा की बराबरी बनाए रख सके।"पर सबसे सजीव विवरण पहाड़ के पहले विस्फोट का है जब गाँववासी बुरी तरह जमीन हिलने और ऐसी डरावनी आवाजों से परिचित नहीं थे - इसका क्लाइमेक्स है प्रसव कराने में माहिर भिक्खन दाई जब रधिया को बच्चा पैदा कराने में असफल रही तो इस धमाके की भयानक और अप्रत्याशित आवाज से शिशु अपने आप गर्भ से बाहर निकल आता है।   


कंपनी के प्रलोभन से सरदार बन जाने वालों की तुलना में यह उपन्यास अपने संघर्षशील नायिकाओं /नायकों के लिए याद किया जाएगा - इतिहास गवाह है कि किसी समाज को मानव निर्मित विभीषिका से बचा पाता है तो "झंडूखालिया जिद"ही है।  


मेरा मानना है कि सुभाष पंत का यह उपन्यास बदलते हुए भारत की कुरूप तस्वीर दिखाने वाले मैला आंचल, आधा गांव और राग दरबारी सरीखे कालजयी उपन्यासों की श्रृंखला का सुयोग्य उत्तराधिकारी है। पर विडंबना यह कि बगैर किसी जोड़ तोड़ और नेटवर्किंग के देहरादून में बैठ कर चुपचाप अपना काम करने की प्रवृत्ति ने लेखक और इस कृति को किसी बडे़ सम्मान से वंचित ही रखा। 


खुशी की बात है कि लंबी अनुपलब्धता के बाद यह उपन्यास फिर से छप कर आ गया है - दिल्ली के राजेश प्रकाशन से।

 

कथाकार सुभाष पंत का नया उपन्यास - एक रात का फासला

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पिछ्ले लगभग 70 वर्षो से के लेखकीय जीवन में सतत सक्रिय कथाकार सुभाष पंत ने हाल ही में अपने नये उपन्यास “एक रात का फासला” के अंतिम ड्राफ्ट को पूरा कर लेने की घोषणा फरवरी माह में की थी. वह दिन कथाकार के जीवन एक मह्त्वपूर्ण दिन था. जीवन के 84वें वसंत से 85वें वसंत प्रवेश करने का दिन.

ब्लाग का मार्च महीना अपने प्रिय कथाकार के लेखकीय जीवन में सतत सक्रिय रहने की शुभकामनाओ के साथ ही उंनकी अभी तक की लेखकीय यात्रा को उत्खनन करने और उससे गुजरने की कोशिश है. आज पढते हैं अभी लिखे गए नये उपन्यास “एक रात का फासला” का एक छोटा सा अंश. 



ससुराल की महापंचायत


शरीरिक और मानसिक रूप से अस्वस्थ और तीन घंटे बैलगाड़ी की यात्रा से थकी चम्पा अपने ससुराल की पंचायत में हाज़िर हुई। वह अपने बड़े भाई के साथ आई थी, जिसकी जिम्मेदारी उसे यात्रा में संरक्षण देना था। वह गवाह नहीं था लेकिन चम्पा को नैतिक बल प्रदान करना और पंच फैसले को कार्यरूप में परिणित करना उसकी जिम्मेदारी थी।

   वह सूती कमीज, लट्ठे का पैजामा और सिर पर गुलाबी पगड़ी पहने था। उसकी मूँछों की ऐंठ और आँखों की चमक वैसी नहीं थी जैसी अमूमन रहा करती थी। उसका आत्मविश्वास डिगा हुआ था क्योंकि सारी स्थिति का विश्लेषण करने के बाद वह इस नतीजे पर पहुँचा था कि दोष चम्पा का ही है। अपना ही सिक्का खोटा हो तो चाहने के बाद भी सिर उठा नहीं रह सकता।

   चम्पा ने देखा। कई बुजुर्ग आसन पर बैठे थे। वे वक़्त से पिछड़े, लेकिन सम्मानित और ताक़तवर लोग थे जिनके हाथों उसके भाग्य का फ़ैसला होना था। तप्पड़ में चार गाँवों के उत्सवप्रिय लोग एक ऐसे दिलचस्प मामले को सुनने आए थे जैसा मामला उनके सुने और देखे इतिहास में अनोखा था। वे पतन की पराकाष्ठा पर खड़ी उस स्त्री को देखने आए थे जिसने डोली से उतरते ही अपने पति को पति मानने से इनकार कर दिया। उन्हें उम्मीद थी कि पंचायत सजा के तौर पर उसे नंगा करके घुमाएगी। एक लड़की को, जिसके बारे मे चर्चा थी कि वह बहुत खूबसूरत है, सरेआम नंगा देखने का उन्माद उनकी नसों में दौड़ रहा था।

   वादी पक्ष दर्शकदीर्घा के दायीं ओर खड़ा था। भूरे, राजेसुरी और किसन। उनके पीछे कुछ और लोग भी थे जिन्हें चम्पा नहीं जानती थी। भूरे ने वे ही बाटा के पीटी शू पहन रखे थे जिन्हे विवाह के समय पहनने से उसे लगा था कि उसकी नाक कट गई है। अब वे उसे रास आ गए थे क्योंकि उनमें उछलना और भागना आसान था। राजेसुरी के सिर पर आधा पल्ला था। उसका चेहरा इतना सपाट था कि उस पर कुछ भी लिखा जा सकता था। किसन उसी पोशाक में था जो पोशाक उसने शादी में पहनी थी और उसकी कमर में वह तलवार लटक रही थी, जिस तलवार को लटकाकर वह उसे ब्याहकर लाया था। उसकी पसली की टूटी हड्डियों की मरम्मत की जा चुकी थी और अब वह चाकचौबन्द था।

   जनसमूह को देख कर चम्पा दहल गई, जो उसे सज़ा देने के लिए उत्सवभाव से वहाँ एकत्रित था। वक़्त के हर दौर में ऐसा ही हुआ है। अपराधियों ने सज़ाएँ तय की हैं और उन्होंने उसे भुगता है जिन्होंने कोई अपराध नहीं किया।

   सारी आँँखें उसी पर टिकी हुई थी और सिर के ऊपर निष्ठुर आसमान तना हुआ था। हवा बेचैन थी और पेड़ों के पत्ते हताशा में लड़खड़ा रहे थे। राहत की बात बस यही थी कि उसका चेहरा घूँघट में था जिसने उसकी सारी दुर्बलताओं को सार्वजनीन होने से बचा रखा था।

   मुकदमा शुरु भी नहीं हुआ था कि दर्शकदीर्घा से एक प्रबुद्ध किस्म के आदमी ने, जो नारी समर्थ्ाक व्यक्ति था और विरल था, चिल्लाकर व्यवस्था का प्रश्न खड़ा कर दिया, ‘वर की कमर में तलवार बंधी है....पंच परमेश्वर बताएँ कि क्या पंचायत में हथियार लाने की इजाजत है?’

   दर्शकदीर्घा में हल्ला मच गया। मुकदमा शुरु होने से पहले किसन को अपनी कमर में बंधी तलवार खोलकर पंचों के पास जमा कर देनी चाहिए ताकि कल कोई यह न कहे कि फ़ैसला हथियार से डरकर लिया गया।

   इससे पहले कि पंच कमर से तलवार खोलने का हुक्म देते भूरे ने कहा, ‘यह हमारा रिवाज है कि कमर में तलवार बांधकर लड़का शादी करता है और वह तब तक कमर से नहीं खोली जाती जब तक दूल्हा मंढे की बत्ती खोल कर दुल्हन को सकुशल घर के भीतर नहीं पहुँँचा देता। मामला यही है, जिसके लिए हमने पंचायत में गुहार लगाई कि मंढे की बत्ती नहीं खुली और बहू ने घर में परवेस नहीं किया, इसलिए तलवार कमर से नहीं खोली गई। तब भी, जब किसन की पसली की हड्डियाँ टूट गई और, यहाँ तक कि दिशा-मैदान के समय भी इसे नहीं खोला गया। पंचपरमेसुर से गुजारिश है कि जब तक कोई फैसला नहीं हो जाता इसे किसन की कमर में बंधे रहने की इजाजत दी जाए।’

   पंचायत उलझन में फँस गई। दोनों ही तर्क सही थे। न्याय की आचार संहिता के लिए तलवार कमर में  बंधी नहीं रहनी चाहिए और रिवाज के हिसाब से उसे कमर में बंधे रहना चाहिए।

   एक पंच ने कहा, ‘पंचायत में हथियार लाने की इजाजत नहीं है, लेकिन यह रिवाज का मामला है और, रिवाज कैसा भी हो, उससे छेड़छाड़ नहीं की जानी चाहिए। फिर भी हम इसे स्त्री पक्ष पर छोड़ते हैं। अगर उसे ऐतराज न हो तो इस बार पंचायत वादी को कमर में तलवार बंधी रहने की इजाजत दे सकती है।’

  चम्पा घबराई हुई थी लेकिन जब उससे पूछा गया तो उसमें हौसला आ गया। उसने महसूस किया कि उसकी यातनाएँ अबूझ शक्ति में बदल गई हैं। एक ऐसी तलवार को, जो जंग खाई हो, म्यान से बाहर निकलती ही न और जो दूसरे पर नहीं खुद पर हमला करती हो, कमर में बंधे रहने देने में उसे क्या आपत्ति होती। उसने सिर हिला कर स्वीकृति प्रदान कर दी।

   स्वीकृति के बाद वादी पक्ष से पंचायत से सामने अपनी बात रखने को कहा गया।

   किसन को सभ्य समाज में बात करने का सलीका नहीं आता था। वह हड़बड़ा गया और दयनीय दृष्टि से अपने पिता की ओर देखने लगा जिसे उसने अपनी शादी के वक़्त बाटा का पेटेंट शू पहनने के काबिल भी नहीं समझा था।

   बेटे की करुणा से विगलित भूरे ने गला खँखार कर कहा, ‘पंचपरमेसुरों को मेरी राम राम। मामला है कि सामने खड़ी यह लड़की, जिसने अपना मूँ घूँघट में छिपा रखा है, बिरौड़ गाँव की चम्पा है। विधि-विधान के साथ मेरे बेटे किसन से इसका ब्याह हुआ। फेरे हुए। कन्यादान और पाणिग्रहण हुआ। गवाह वे साठ सज्जन हैं जो इस ब्याह में बाराती की तरह बिरौड़ गाँव गए, जिनमें से कुछ इस बखत यहाँ भी मौजूद हैं। इसके अलावा कन्या पक्ष का शाहपट्टा मेरे पास है जो इस ब्याह का दस्तावेज है। याने लड़की के साथ कोई जोरजबडदस्ती नहीं की गई। उसे बहकाया, फुसलाया या उठाया नहीं गया। विधिवत ब्याह किया गया। पंचपरमेसुर लड़की से मालूम कर सकते हैं, मैने जो कहा वह सच है कि गलत है।’

   भूरे ने जो कहा क्या वह सच है?’ पंचों ने पूछा।

   चम्पा ने जवाब दिया कि भूरे ने जो कहा वह सच है।

   तुझे इस विवाह से कोई आपत्ति थी और तूने यह ब्याह अपने पिता के दबाव में किया?’

   चम्पा ने जवाब दिया कि उसे इस विवाह से कोई आपत्ति नहीं थी और उसके पिता ने इस विवाह के लिए उस पर कोई दबाव नहीं डाला।

   तो फिर जब चम्पा को विवाह से कोई ऐतराज नहीं?’

   यहाँ तक गणेशजी की किरपा से सब ठीकठाक निबट गया,’ भूरे ने कहा,

          । श्री गणेशाय नमः ।

     वक्रतुण्ड महाकाय सूर्य कोटि सम्प्रभः।

     निर्विघ्न कुरु में देव सर्व कार्येषु सर्वदा।

   लेकिन जब बहू की डोली हमारे आँगन में उतरी पंचपरमेसुरों तो सारा खेल बिगड़ गया। उसने डोली से उतरते ही ऐलान कर दिया कि किसन की माँ उसकी सास नहीं, किसन का घर उसका घर नहीं, और किसन उसका पति नहीं। उसे उसके घर वापिस भेज दो, नहीं तो वह खाई में कूदकर जान दे देगी। और बेहोश हो कर गिर पड़ी।’

   हमारे पास इसे उस बखत इसके घर वापस भेजने के अलावा कोई चारा नहीं रह गया था।’

   क्या यह सच है?’ पंचों ने चम्पा से पूछा।

   उसने सिर हिलाकर हामी जताई कि वह जो कह रहा है वह सच है।

   पंच परेशान हो गए और दर्शकदीर्घा हैरान रह गई।

   तूने किसन को अपना पति मानने से क्यों इनकार किया जब कि इस ब्याह से तुझे कोई ऐतराज नहीं था?’

   इसका जवाब इसके पास है।’ उसने अपनी थरथराती उंगली किसन की ओर उठाई।

   किसन बौखला गया, ‘मैं इसके मन की बात कैसे जान सकता हूँ पंचपरमेसुरों। कोई यार रहा होगा इसका। आसनाई होगी किसी के साथ....तिरिया चरित को तो बरमा, बिसनू, महेस भी नहीं जान सके। मैं तो सीधे-सच्चे इनसानों में भी सीधा-सच्चा हूँ। मुझे तो सिरफ हल जोतना, बीज डालना और फसल उगाना आता है....’

   दर्शकदीर्घा फुसफुसाहट में बदल गई किसन ठीक कहता है। यह लड़की कोई खेल खेल रही है।

   भला किसन कैसे जान सकता है कि तूने उसे अपना पति मानने से क्यों इनकार किया?’

   क्योंकि इसे कमर में तलवार बांधना आता है लेकिन तलवार को म्यान से बाहर निकालना नहीं आता....’

   यह लड़की सबको भरमा रही है पंचपरमेसुरों।’ भूरे ने कहा, ‘ये भी कोई बात हुई....क्या कोई औरत अपने पति को इसलिए पति मानने से इनकार कर देगी कि उसे म्यान से तलवार निकालना नहीं आता? और जहाँ तक मैं समझता हूँ, किसन अगर कोशिश करे तो वह तलवार म्यान से बाहर निकाल सकता है। उसकी पीठ इतनी मजबूत है कि वह उस पर मणभर बोझ को एक फर्लांग तक ढो सके।’

   अब इसका कोई मतलब नहीं,’ चम्पा ने स्थिर स्वर में कहा, ‘इसने उस बखत तलवार म्यान से बाहर नहीं निकाली, जब इसकी जरूरत थी....ये नामर्द है।’

   अपने को नामर्द कहे जाने से किसन बौखलाकर उछला और चिल्लाया, ‘मेरे साथ सोई नहीं हरामजादी और मुझे नामर्द कह रही। अभी गला रेत दूँँगा, इसी बखत। सबके सामने फिर चाहे मुझे फन्दे पर लटकना पड़े। फन्दे की परवाह नहीं मुझे।’ और चम्पा की ओर दौड़ा।

   उधर चम्पा का भाई भी आस्तीने गुलटकर तैयार हो गया कि किसन चम्पा पर झपटे तो वह उसके हाथ-पैर तोड़ दे।

   पंचपरमेसुर घबराकर अपने आसनों से उठ कर खड़े हो गए।

   दर्शकदीर्घा के शान्तिप्रिय लोगों ने किसन और चम्पा के भाई को थाम लिया।

   आक्रामक क्षण टल गया तो पंचपरमेसुर यह कहते हुए अपने आसनों पर बैठ गए कि आगाह किया जाता है किसी ने कोई गड़बड़ की तो इसका नतीजा बुरा होगा। यह न्याय का मंदिर है, दंगल का अखाड़ा नहीं।

   इस चेतावनी के बाद लोग शान्त हो गए और आगे की कार्यवाई फिर शुरु हो गई।

   चूंकि अब जमाना बदल रहा है। स्त्रियों का आचरण और लोकलाज भी बदल गया है। वे औरतें अब नहीं रही जो सबकुछ सहकर कभी मुँह नहीं खोलती थीं। ऐसी महान औरते भी रहीं हैं इस देश में, जो अपने कोढ़ी पति को कंधें पर उठाकर वेश्यालय ले गई, क्योकि वह ऐसा चाहता था। उन्हें देवियों के आसन पर बैठाया जाता था। बदली हवा में पंचायत उस औरत पर दबाव नहीं डाल सकती कि वह उस आदमी को अपना पति मानें जो नामर्द हो। चम्पा को भी यह छूट है बशर्ते कि वह साबितकर सके कि किसन नामर्द है। हालांकि वह अपने पति के साथ सोई नहीं तो वह कैसे कह सकती है कि उसका पति नामर्द है। चम्पा को बताया जाता है कि अगर वो ये बात साबित नहीं कर सकी तो इसका नतीजा बहुत बुरा होगा।’

   ब्याह के बाद मेरी डोली जिस दिन पहुँचनी थी, उससे एक दिन बाद पहुँची, और यह आदमी चुपचाप देखता रहा। इससे साबित होता है....’

   भूरे ने हवा में हाथ उछालकर कहा, ‘यह हमारे गाँव की रीत है, बहू की डोली एक दिन बाद आती है।’

   पंचों के चेहरे बेचैन हो गए। उन्हें कतई उम्मीद नहीं थी कि कोई बहू भरी पंचायत में यह सवाल उठा सकती है। यह डोली के एक दिन बाद पहुँचने का मामला नहीं था। यह एक रवायत के खि़लाफ़ खुला विद्रोह था।

   अपनी ससुराल के सब रिवाजों को निभाना हर बहू का फरज है। इस बात से क्या फरक पड़ता है कि डोली एक दिन पहले आई की एक दिन बाद आई।’

   बहू की डोली एक दिन पहले आएगी तो उसे कोई बहू नहीं मानेगा और एक दिन बाद आएगी तो वह पति को पति कबूल नहीं करेगी।’ चम्पा ने मजबूती से कहा।

   जब से यह गाँव बसा डोली एक दिन रुक कर आसीरवाद लेती है। इसी आसीरवाद से घर फलता फूलता है।’ भूरे ने कहा। इसी के साथ उसे बीड़ी पीने की हुड़क हुई लेकिन पंचायत के सम्मान में उसने बीड़ी नहीं सुलगाई और पंच परमेसुरों की ओर ऐसे भाव से देखा कि उन्हें पता चल जाए कि बीड़ी की तलब के बाद उसने बीड़ी नहीं पी।

   लेकिन एक दिन की डोली की देर में औरत की जिंदगी में क्या हो जाता है....यह ठाकुर बताएगा। पंचों से हाथ जोड़कर बिनती है कि ठाकुर को पंचैत में बुलाया जाए।’

   दर्शकदीर्घा में सन्नाटा फैल गया। यह ठाकुर की प्रजा थी। उसके बंधुआ मजदूर, हलिए, गुलाम, मातहत, कृपापात्र, कर्जदार, आतंकित, डरे, सहमें, कुचले, खरीदे हुए और वफादार....

   तप्पड़ जिसमें वे बैठे थे, पंचायतघर, पंच, बावड़ी, कुएं, स्कूल सब ठाकुर के थे। ठाकुर के पास सिपाही थे, कारिन्दे थे। ठाकुर के हाथ में जिन्दगियाँ थीं, ठाकुर के हाथ में हत्याएँ थीं। देश आज़ाद हो चुका था लेकिन गाँव गु़लाम थे।

   ठाकुर को पंचायत में तलब नहीं किया जा सकता था।

   भूरे को ठाकुरों की ओर से पाँच बीघे की माफी मिली थी और अब वह हलिया नहीं किसान था।

   ठाकुर मालिक हैं। वे फैसले करते हैं उन्हें पंचैत में गवाह की हैसियत से नहीं बुलाया जा सकता।’ उसने कहा।  

   दर्शकदीर्घा से ठाकुर का मुख्यकारिन्दा और उसके सिपाही चिल्लाए, ‘किसी ने भी ऐसी जुर्रत की तो उसे गोली से उड़ा दिया जाएगा। लड़की तू अपनी औकात में रह। और पंचैत भी पहले ही सँभल जाए।’

   विरोध में खड़े जनसमूह ने चम्पा को चेता दिया कि उसे न्याय मिलने की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। पंचायत नौटंकी है और उसकी सजा तय है। औरतों की सजाएँ तभी तय हो जाती हैं जब वे जन्म लेती हैं। जो चुपचाप उन्हें सह लेती हैं, वे देवियाँ हैं। जो नहीं सहती वे कुल्टाएँ हैं। देवी और कुल्ट के बीच औरत की कोई जगह नहीं है। उसका उठा हुआ सिर किसी को बर्दाश्त नहीं होता।

   ठाकुर पंचायत में नहीं बुलाया जाता तो वह फैसला सुना दिया जाए जो मेरे लिए तय है।’ चम्पा ने कहा।

   तेरी बात सुने बिना कोई फैसला नहीं किया जाएगा। यह छूट का मामला है। ऐसी छूट जिसकी कोई वाजिब वजह भी नहीं है। किसन के साथ सोए बगैर उस पर नामर्दी का आरोप लगाया जाना सरासर गलत है।’

   छूट के अलावा यह मामला हत्या का भी है। मुझे मारने की कोशिश की गई।’ चम्पा ने कहा।

   यह झूठी और बदजात औरत है,’ भीड़ में से कोई चिल्लाया, ‘मैं वाकए पर मौजूद था। वहाँ ऐेसा कुछ भी नहीं हुआ जैसा यह कह रही.....औरत की बात पर कभी यकीन मत करो। मरते हुए भी वह सच नहीं बोलेगी।’

   हल्लागुल्ला नहीं,’ पंचायत ने कहा, ‘चम्पा को अपनी बात कहने दो।’

   मैं डोली से उतरते ही गिर पड़ी और बेहोश हो गई,’ चम्पा ने कहा, ‘लेकिन मैं बीमार नहीं थी, टूटी हुई थी और वहाँ तक टूटी हुई थी जहाँ तक कोई लड़की टूट सकती है। बस एक जिन्दा लाश। इस गाँव की बहू बनने से मैंने इनकार किया और अब भी मैं इनकार करती हूँ। एक लाश क्या किसी घर की बहू बन सकती है?’

   उसकी बात किसी की समझ में नहीं आई। वह खड़ी थी, साँस ले रही थी, बोल रही थी और अकेले पंचायत का सामना कर रही थी। वह लाश कैसे हो सकती है।

   एक औरत कैसे लाश हो जाती है? कोई औरत ही यह समझ सकती थी।

   वहाँ औरतें नहीं थी, राजेसुरी के सिवा और वह दूसरी ओर खड़ी औरत थी।

   और फिर उस लाश की भी हत्या करने की कोशिश की गई....’

   चम्पा तू पंचैत को गुमराह कर रही है। हमने किसी ऐसी लाश को नहीं देखा जो बोलती हो और फिर उसकी हत्या करने की कोशिश कैसे की जा सकती हो जो खुद एक लाश हो।’

   ठाकुर लाश बनाता है और, लाश कुछ बोलती है तो ठाकुर का सिखाया ओझा उसकी हत्या करता है। ओझा ने कहा मेरे भीतर परेत है। परेत भगाने के लिए मिर्चो की धूनी दी। कमची से मेरी पीठ की खाल उधेड़ी। मुझे गरम सलाख से दगने से बचा न लिया जाता तो मैं मार दी जाती। इसकी गवाह सामने खड़ी ये औरत है जिसने कहा कि वह मेरी सास है। और जिसे मैंने सास मानने से इनकार किया....’

   चम्पा के दूसरी ओर खड़ी औरत को अपने गवाह के रूप में चुनने से लोगों को आश्चर्य हुआ और पंचायत को भी। उसकी गवाही एक निर्णायक मोड़ दे सकती थी। इधर या उधर।

   पंचों ने राजेसुरी से पूछा, चम्पा जो कह रही वह सही है। और राजेसुरी ने कहा, जिसे सबने दिल थामकर सुना, ‘चम्पा ने जो कहा, वह सही है। अगर मैं उसे बचा न लेती तो वह सुर्ख चिमटे से दाग दी जाती। और उस समय वह इतनी दुर्बल थी कि मर भी सकती थी।’

   औरत के भीतर परेत बैठा हो तो उससे मुकति के लिए क्या औरत को दागा नहीं जाएगा।’ भूरे ने उछल कर कहा, ‘अब सुनलो इसकी बात....कितनी औरतें दागी गईं, सुना कि कभी कोई औरत दागने से मरी हो। इसे उस टैम दागने से बचाया न गया होता तो ये पंचैत में खड़े होने की जगह किसन की बगल में खाट पर सोई होती।’  

   परेत मेरे भीतर नहीं, ठाकुर के भीतर है। ओझा से पूछो क्या वह ठाकुर को गरम सलाख से दाग सकता है। और क्या पंचैत में ठाकुर और ओझा को सजा देने की हिम्मत है। अगर वह उन्हें सजा नहीं दे सकती तो उसे कोई हक नहीं कि मुझे सजा दे।’ चम्पा ने ललकारती आवाज़ में कहा।

   इसी के साथ दर्शकदीर्घा में खलबलाहट मच गई और उस खलबलाहट से पत्थर फेंके जाने लगे। एक पत्थर चम्पा के सिर पर लगा और खून के फव्वारे के साथ वह ज़मीन पर गिर पड़ी। उसके गिरते ही भगदड़ मच गई।


कथाकार सुभाष पंत की रचनाएं एवम उनके पाठक

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सौरभ शाण्डिल्य एवम कथाकार विद्या सिन्ह से जानकारी मिली है कि प्रगतिशील एवम जनवादी सरोकरो के स्वतंत्र संगठन 'धागा: विमर्श का मंच'ने आभासीय दुनिया के अपने पटल पर मार्च 2023 में ही कथाकार सुभाष पंत की कहानी ‘ए स्टिच इन टाइम’ सदस्यो के पढने के लिए एवम उस पर खुल कर बात करने के लिए लगाई गई थी. वहा प्राप्त हुई प्रतिक्रियाएं यहाँ पुनः सांझा की जा रही हैं. इसके साथ ही आभासीय दुनिया में इसी माह अन्य जगहो पर भी कथाकार सुभाष पंत के पाठक उनकी कहानियो को सांझा करते हुए दिखे.

कहानी ए स्टिच इन टाइम ने सोचने पर मजबूर कर दिया कि इन मल्टिनैशनल कंपनियों की बढ़ती लोकप्रियता में हम भी कहीं शामिल हैं, शामिल हैं हुनर के उन काट दिए हाथों के गुनाह में,भूख और मजबूरी के चक्रव्यूह में जो हमारी रजामंदी से रचाया गया। केवल एक दर्जी नहीं जाने कितने हुनरमंदों को मालिक से नौकर बनना पड़ा है। वैश्वीकरण की नीतियों ने पूँजीपतियों की मंशा को किस कदर फलीभूत किया है, हम अपने आसपास आसानी से देख रहे हैं लेकिन महसूस नहीं कर पा रहे। इस कहानी में मुख्य पात्र ने महसूस किया और पाठक को महसूस करवाया कि एक बड़ी मछली किस तरह छोटी मछलियों का शिकार कर पूरे तालाब में अपना वर्चस्व बढ़ाती है। कहानी में दो पीढ़ियों के बीच परिवर्तन के अंतराल और मानसिकता को बाखूबी दर्शाया गया है। यह आर्थिक रूप से सक्षम लोगों का ही शगल है, जिन्हें दाम से नहीं ब्रांडेड नाम से मतलब है, अपनी शान बनाने के लिए इन कंपनियों का समर्थन करते हुए कितने लोगों को मालिक से मजदूर बनने को विवश कर दिया। हमारे बुजुर्ग और हमारी पीढ़ी के लोग भले ही आज भी दर्जी से सिलवाए कपड़े शौक से पहन भी लेते हैं किंतु हमारे बच्चों पर ब्रांडेड कंपनियों का भूत सवार है। मोबाइल पर आनलाइन शापिंग का खूब खेल चल रहा है। माॅल संस्कृति ने आमजन की जेबों पर कब्जा कर रखा है। यही तो वह आर्थिक खाई है जो बढ़ती जा रही है क्योंकि यह सर्वोन्मुखी विकास नहीं है। कहावत है कि पैसा पैसे को खींचता है लेकिन किनके पैसे को खींचता है शायद यह हम सोच नहीं पाते या सोचना नहीं चाहते। कहानीकार कहानी को अपनी स्वाभाविक गति से आगे बढ़ाते हुए पाठक को अपनी मानसिक दशा से अवगत कराते हुए कहीं न कहीं पाठक का समर्थन भी हासिल करता जाता है। किंतु मुख्य पात्र का खुल कर विरोध न कर पाना पाठक को निराश भी करता है। यहां तक कि नशे में भी वह अपना आपा नहीं खोता, एक ओर बीवी का स्टेटस तो दूसरी ओर बेटी के मनचाहे भविष्य की चिंता में वह अपने मन की करना तो दूर खुल कर कह भी नहीं पाता। कहानी का आखिरी हिस्सा बेहद मार्मिक बुना गया। जब दर्जी नज़र अहमद की बेटी अपनी आपबीती कहती है, अपने लिए दयायाचना नहीं बल्कि एक हुनरमंद पिता की बेटी से हुई ग़लती की माफ़ी माँगती है, और अपनी कुंठा से बाहर आते ही मुख्य पात्र अपनी ब्रांडेड कमीज़ में लगे अतिरिक्त बटन की जगह लगा हुआ उल्टा बटन देखता है तो दिल धक्क से रह जाता है। कहानी पूरी तरह से मस्तिष्क को मथ कर रख देती है इसकी शैली और शिल्प बेजोड़ है। एक बेहतरीन कहानी पढ़वाने के लिए धागा : विमर्श का मंच का धन्यवाद 💐🙏 रूपेंद्र राज तिवारी रायपुर/छत्तीसगढ़
मल्टी नेशनल ब्रांडेड कम्पनियों ने किस तरह ,दर्ज़ी , कुटीर उद्योगों को अपनी विकरालता में लील कर इन्हें असहाय और दरिद्रता के कगार पर ला दिया है। कहानी 'अ स्टिच इन टाइम'लेखक -सुभाष पंत जी ने बहुत ही मार्मिक पड़ताल करते हुए इसे लिखा है। अमन टेलर्स जैसे कई नज़र अहमदों की दुकान का बंद होना,मालिक से नौकर की स्थिति में आ जाना। लेखक इसे नफ़ीस हत्याएं कहता है जहां दोषी को कोई सज़ा नहीं होती। कहानी के कुछ वाक्यांश कविता की तरह हैं। - श्रम का कविता और संगीत हो जाना। आयशा अंसारी का एकालाप व्यथित करने वाला है। आभार: धागा विमर्श का मंच🙏🏻 ख़ुदेजा जगदलपुर/ छत्तीसगढ़
आधुनिकता कितने मुंह का निवाला छीन रही है उनके दर्द को दिखलाती संवेदन शील कहानी। एक कहानी बहुत सारे विषयों को समेटे है। परंपरा,रिश्ते,अवसरवादी, पीढ़ियों की कश्मकश में गुंथी कहानी पटल पर रखने के लिए साधुवाद सुनीता पाठक
एक जरुरी और विचारवान कहानी है यह। इसे पढ़ते हुए प्रज्ञा रोहिणी की कहानी 'मन्नत टेलर्स'या आती रही। ग़ज़ब संयोग यह कि वहां टेलर है रशीद भाई और यहां नजर अहमद। दोनों की दुकानों को रेडीमेड वस्त्रों का कारोबार निगल गया। इस कहानी में अपनी पीड़ा चरित्र खुद कहते हैं जबकि मन्नत टेलर्स में परिस्थितियों के मार्फ़त स्थिति व पीड़ा खुलती है। हालांकि दोनों कहानियों के क्लाइमेक्स और अंत अलग हैं। लेकिन पीड़ा एक ही है जोकि होना भी चाहिए। हुनरमंद और छोटे पेशे में लगे लोगों के बेरोजगार हो जाने की कथाओं में मनीष वैद्य की 'घड़ीसाज'को भी शामिल किया जाना चाहिए। ग्रामीण शिल्पकार को परेशानी में डालती कहानी हवाई जहाज सन 85 में सारिका में छपी थी। इस कहानी में उसके बृहद आकार के अनुरूप तमाम दृश्य और सम्वाद भी हैं। दर्जी की बेटी का आत्मालाप एक नए शिल्पगत प्रयोग के रूप में सामने आता है। रितु वेरी नाम का प्रयोग भी नया शिल्पगत प्रयोग है। बाजार के बहुलतावादी युग मे छोटे छोटे प्रचार प्रयोग भी कहानी को नया विस्तार देते हैं। हुनरमंद पीढ़ी को छोटा दुकानदार खा रहा है और बड़ा उसको; तो इसको भी मल्टीनेशनल कंपनी खाए जा रही है। शीर्ष पर एकाधिकार यूँ ही होता जा रहा है तभी तो दर्जी से सिलाई जाने वाली सादा शर्ट की कीमत 500₹ (कपड़ा300+सिलाई 200) की तुलना में अच्छी शर्ट ऑफ सीजन और स्टॉक क्लियरेंस में आउटलेट व शो रूम में 100/ 200 मात्र में शर्ट मिल जाती हैं, भोपाल का न्यू मार्केट बरामदाहो या दिल्ली का कनॉट प्लेस /पालिका बाजार का कैम्पस; सब जगह यही हाल। कहानी खत्म हो के भी खत्म नहीँ होती, पाठक के मन मे जारी रहती है, यह लेखक की बड़ी रचनात्मकता है। धागा: विमर्श का मंच राज बोहरे
मल्टी नेशनल ब्रांडेड कम्पनियों ने किस तरह ,दर्ज़ी , कुटीर उद्योगों को अपनी विकरालता में लील कर इन्हें असहाय और दरिद्रता के कगार पर ला दिया है। कहानी 'अ स्टिच इन टाइम'लेखक -सुभाष पंत जी ने बहुत ही मार्मिक पड़ताल करते हुए इसे लिखा है। अमन टेलर्स जैसे कई नज़र अहमदों की दुकान का बंद होना,मालिक से नौकर की स्थिति में आ जाना। लेखक इसे नफ़ीस हत्याएं कहता है जहां दोषी को कोई सज़ा नहीं होती। कहानी के कुछ वाक्यांश कविता की तरह हैं। - श्रम का कविता और संगीत हो जाना। आयशा अंसारी का एकालाप व्यथित करने वाला है। आभार: धागा विमर्श का मंच🙏🏻 ख़ुदेजा जगदलपुर/ छत्तीसगढ़





अंजु शर्मा ने आपनी फेसबुक टाइमलाइन पर एक कहानी क जिक्र कुछ इस तरह किया, कल रात सुभाष पंत सर की एक बहुत शानदार कहानी पढ़ी - रतिनाथ का पलंग। बहुत ही उम्दा और मार्मिक कहानी है। मानवीय संवेदनाओं और व्यवहार की कितनी सूक्ष्म पड़ताल है इस कहानी में। ये विश्वास पुख़्ता हुआ कि वे ऐसे ही नहीं मेरे प्रिय कथाकार हैं। उनकी टाइमलाइन पर ही अन्य टिप्पणिया देखी जा सकती हैं.


राजेश सकलानी ने आपनी फेसबुक टाइमलाइन पर एक कहानी क जिक्र कुछ इस तरह किया, "मक्का के पौधे "हिन्दी के वरिष्ठ और संभवतः सबसे ज्यादा सक्रिय कथाकार सुभाष पंत की यह कहानी अपने सुघढ स्थापत्य और भाषा के अतिरिक्त सामाजिक जीवन की जटिलता और सौंदर्यबोध के कारण ध्यान आकर्षित करती है। निम्नवर्गीय परिवार का लालता और उसकी पत्नी मुश्किल स्थितियों में पड़ जाते हैं जब उनका जवान लड़का जो ट्रक ड्राइवर है, एक शादी शुदा औरत को अपने घर ले कर आ जाता है। यह उन्हें अनुचित जान पड़ता है। अंत के एक दृश्य में औरत खेत में रौंदे गए मक्की के पौधों को फिर से रोप कर सीधा खड़ा कर देती है।औरत का सलीका और व्यवहार लालता को अच्छा लगने लगता है। यहां प्रश्न खड़ा होता है कि औरत का पूर्व पति यहां ज्यादती का शिकार हो रहा है। सुगनी इस पुरुष की रक्षा में अपनी बात रखती है और औरत को अपने घर लौटने को कहती है। औरत मानती है कि उसके पति में कोई दोष नहीं है।वह उसके विरुद्ध नहीं है। लेकिन वह अपने प्रेम के लिए यहीं रहना चाहती है। कथाकार शायद समाज में ऐसी ही पारदर्शिता और ईमानदारी को स्थापित करना चाहते हैं। यद्यपि ऐसी स्थितियों में लोक किसी न किसी पात्र को शत्रु बनाने पर उतारू हो जाएगा। लालता को भाग कर आई औरत स्वीकार्य नहीं है।सुगनी को सहानुभूति है पर सामाजिक मर्यादाएं उसे कटु बना रहीं हैं।उसका कहना है कि "हाथ जोड़ती हूं , तू अपने घर चली जा"वह पूछती है "उससे छूट हो गई ? "जबाव मिलता है "नहीं ।छूट तो मन की है।जब मन ही नहीं मिला । "उनकी टाइमलाइन पर ही अन्य टिप्पणिया देखी जा सकती हैं.

कंधे पर पहचान का झोला लटकाये

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हिंदी की रचनात्मक दुनिया में अपने समकालीनों पर कविता लिखने की एक अच्छी और सम्रिद्ध परम्परा है. कुछ समय पूर्व कवि श्याम प्रकाश जी ने भी अपने समकालीन और प्रिय कथाकार सुभाष पंत के केंद्र में रखते हुए एक कविता लिखी और अपनी मित्र मंडली के बीच में उसे शेयर भी किया. उस कविता की खूबी इस बात में देखी जा सकती है कि न सिर्फ सुभाष पंत का व्यक्तित्व बल्कि उनका रचना संसार भी कविता में नजर आने लगता है. रचनाओं के शीर्षको को कविता में पिरोकर इस तरह से रखा गया है कि उनसे केंद्रिय रचनाकार की आकृति भी साफ दिखने लगती है. उस कविता को भाई शशि भूषण बडोनी जी के बनाये चित्रों के साथ पढे तो कथाकार सुभाष पंत और भी खूबसूरत नजर आ रहे हैं. बडोनी जी का विशेष आभार कि उन्होंने इस अनुरोध का मान रखा कि भिन्न भिन्न भाव मुद्राओ में पंत जी के स्केच बनाये. 

विगौ 

जेब में पहाड़ 

  श्याम प्रकाश

दरअसल चीफ़ के बाप की मौत हो गई थी

न चाहते हुए भी मेरा वहां जाना जरूरी था

मरने वाला कोई और नहीं मेरे चीफ़ का बाप था

 

चिलचिलाती दुपहर की तपती हुई ज़मीन पर

नंगें पांव श्मशान में खड़ा मैं

कभी दांया तो कभी बांया पैर ऊपर उठाता

पैरों को ज़मीन पर रखते-उठाते

मुझे कंटीली-पथरीली,

चढ़ती-उतरती पगडंडियों पर पांव बचा

चलना याद आ गया


मैं पहाड़ की सुबह में था

पीले से सफेद होता हुआ सूरज,

गुनगुनी धूप,

पहाड़ पर  छोटे-बड़े पेड़ों का पहाड़ बनाते पेड़ ,

चिड़ियों की बोलियां

और इन सब के बीच गुजरती ठंडी-ठंडी हवा....

 

मैं सहसा चौंक पड़ा

मैं तो श्मशान में खड़ा हूं

इस मौके अपनी सोच के‌ भटकाव का  यह रोमांटिसिज्म मुझे कतई नहीं भाया

आखिर मैं  मौत में आया हूं

 

चिता से उठती लपटों से छूटते चिंगारों को देखते

मै फिर पहाड़ चढ़ गया

और वो आदमी, जिस का नाम फिलहाल मुझे ध्यान नहीं आ रहा,

जो अक्सर मुझे वहां दिखाई  पड़ता था,

मेरे साथ था

हर बार ही वो आदमी मुझे हर पिछली बार से लम्बाई में छोटा होता हुआ आदमी लगता

असल में वह चौड़ाई में फ़ैल रहा था

अपने लिबास और स्वभाव दोनों से निहायत आम आदमी लगता

कंधे पर पहचान का झोला लटकाये

सुबह का भूला सा,

अक्सर वह बरसाती नदी के पास के पत्थर पर

बैठा दिखता

कुछ सोचता,  टहलता,

कभी ‌नदी में से पत्थर उठा दूर नदी में फेंकता ,

अचानक ही जोर-जोर से

एक से दस  तक गिनती ऐसे बोलता

जैसे एक का पहाड़ा...

एक ईकम एक,एक दूनी दो,एक तिया ‌तीन.... पढ़ रहा हो

बेतरतीब-सी उसकी बातों में कोई ताल मेल नहीं होता

अजीब-अजीब बातें किया करता वो

कभी जिन्नों के डरावने किस्से

तो कभी अलादीन के चिराग से निकले

जिन्न और अन्य कहानियां सुनाता ,

पास के पेड़ की टहनी पर बैठी चिड़िया को

टकटकी लगा देखता,

कहता इस चिड़िया की आंख गिरगिट की तरह

रंग बदलती है

जब लोग देखते चिड़िया को उड़़ते नहीं 

आदमी को टहनी पर से कूदते देखते,

अक्सर वो कुछ गुनगुनाया करता कहता

ये मुन्नी बाई की प्रार्थना है

बड़ी लय में गाया करती थी मुन्नी बाई

पता नहीं कब उसे बीच में ही छोड़ और किस्सों में उलझ जाता,

कहानियों का उसे बहुत शौक था

गिनती कर वह बताता

इक्कीस कहानियां उसे अच्छी तरह याद हैं,

जिन्हे सुनाते वह हर बार गड्ड-मड्ड कर देता

उसने बताया उस के पास कुछ किताबें भी हैं

कहते -कहते जैसे कुछ भूल रहा था,

कुछ रुक कर उंगलियों से माथा ठोकता बोला... क्या कहते हैं.... क्या कहते हैं उन्हें

जो अच्छी और अलग सी होती हैं

वह सोच में पड़ गया

हां याद आया, फिर बोला- प्रतिनिधि

उसके पास इस नाम की एक किताब है जिस में किसी एक ही लिखने वाले की 

दस प्रतिनिधि कहानियां हैं

वे सुरक्षित हैं किसी खास जगह

एक फाइल में

लेकिन वह फाइल बंद है अभी

बिलकुल खोई चाबी वाला ताला लगे बक्से की तरह

 

और वो दिन

वो तो न भूलने वाला बन गया था

मैंने उसे कभी इस तरह नहीं देखा था

मुंह से  सिंगिंग बेल की बजती घंटियों जैसी

आवाज़ निकालता , कुछ-कुछ बोलता

वह दौड़ा जा रहा था

मेरे साथ और लोगों ने भी

उसे रोकने की कोशिश की

वो रुका नहीं

बल्कि उस की दौड़ और तेज़ हो गई

इक्कीसवीं सदी की एक दिलचस्प दौड़ की तरह

जिसका हिस्सा वह दूर-दूर तक नहीं था

 

कुछ दूर दौड़ ,पस्त हो वह रुक गया

गिरते-गिरते बचते ‌धम्म‌ से ज़मीन पर बैठ गया

वो हांफ रहा था,

उसका चेहरा पसीने-पसीने हो रहा था,

गुस्से में लाल उबलती आंखें

आधी बाहर लटक गई थीं

अब तक एक छोटी-मोटी भीड़

उसके चारों ओर थी

सांसें संभल जाने पर वह उठा

और फिर दौड़ने लगा

छोड़ूंगा नहीं उसे....

बिलकुल नहीं छोडूंगा....

उस्स ......

वह उबल रहा था

 

चिता से उठती लपटें शांत हो चुकी थीं

लोग क्रिकेट, मंहगाई, बेरोजगारी

और सरकार को कोसते

अपने - अपने घरों को लौटने लगे थे

लगा श्मशान से नहीं लंच के बाद दफ्तर में अपनी-अपनी सीट पर जा रहे हों

मुझे लगा मैं उनके साथ नहीं चल रहा हूं

कहीं और दौड़ रहा हूं

पहाड़ के उस आदमी के साथ

जो हौसले से लबरेज़,

अपने थके-हारे पांवो के बावजूद

दौड़ रहा है,

पीछा कर रहा है

उसका

जो पहाड़ चोर है

जिसकी जेब में पहाड़ है ।

                     _____

                               

लेखक, अनुवादक यादवेन्द्र के शब्दो में कथाकार सुभाष पंत का स्कैच

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 लेखक का फिक्स्ड डिपॉज़िट



सुभाष पंत की कहानी "घोड़ा"पढ़ने के बाद बहुत देर तक हॉन्ट करती है भले ही उसमें कुछ अतिशयोक्तियाँ भी लगें .... मैं देर तक चेखव की मशहूर कहानी "डेथ ऑफ़ ए क्लर्क"के बारे में सोचता रहा। आदमी को आदमी न बना कर बोझ ढ़ोने वाला घोड़ा बना देने वाली व्यवस्था का अत्यंत क्रूर और दमनकारी चेहरा चमगादड़ों के झुण्ड की मानिंद पाठक के आसपास चेहरे पर ठोकर मारते महसूस होते हैं। संक्षेप में कहें तो ऑफिस में काम करने वाले  एक मामूली मुलाजिम की कहानी है यह जो अफ़सर के बच्चे के लिए और कुछ नहीं महज़ पीठ पर सवारी कराने वाला घोड़ा है - और कोई उसको मनोरंजन समझता है तो कोई उसकी ड्यूटी। सुभाष जी ने बात करते हुए इस कहानी को जन्म देने वाली घटना सुनायी - उनकी नौकरी के शुरूआती  दिनों की बात है जब वे रेल के फ़र्स्ट क्लास कूपे में धनबाद से देहरादून की यात्रा पर थे और उनकी नीचे वाली बर्थ थी ,ऊपर कोई राजनैतिक नेता धनबाद में सवार हुआ।नेता के साथ एक अटेंडेंट भी था। नेता ने पंत जी को बताया कि वह चुनाव के लिए टिकट लेने आया था और बहुत थका हुआ है। जब ऊपर चढ़ने की बारी आयी तो अटेंडेंट बाकायदा घोड़े जैसा झुका,नेता ने उसकी पीठ पर एक गमछा  बिछाया और जूता पहने उसपर चढ़ के ऊपर की बर्थ पर पहुँच गया। अटेंडेंट ने फिर खड़े होकर फीता  खोल कर उसके जूते उतारे ,सिर से लगाया और नीचे रखा। जैसे ही नेता के  खर्राटे सुनाई देने शुरू हुए वह वही गमछा बिछा कर फ़र्श पर लेट गया - भयंकर सर्दी के दिन थे और पंत जी ने उसको अपनी गर्म चद्दर देनी चाही  पर उसने विनम्रता से यह कहते हुए इनकार कर दिया कि शरीर को गर्मी मिलते ही नींद आ जायेगी - मालिक रात में जब भी जागेगा उसको सोता देखेगा तो आग बबूला  हो जायेगा ,और उसकी जान भी ले सकता है।इस घटना ने उनके ऊपर गहरा असर डाला। 

 
ऐसी ही एक और घटना उन्होंने देहरादून की सुनायी जब उनके घर में नई फ़र्श बनाने का काम चल रहा था - वैसे ही सर्दियों के दिन थे और दफ़्तर से लौटने के बाद उन्होंने देखा एक बिहारी मज़दूर  सिर्फ़ बनियान पहने हुए ओवरटाइम में फ़र्श की घिसाई का काम कर रहा है। पंत जी ने पत्नी को कहा कि इसको चाय दे दो,बेचारे के  बदन में थोड़ी गर्मी आ जायेगी। जब बार आग्रह करने पर उसने चाय नहीं ली तो पत्नी ने बताया दिन में कई बार मैंने उससे चाय के लिए कहा पर हर बार उसने मना कर दिया। जब उस मज़दूर से पंतजी ने कारण पूछा तो उसने बताया कि चाय पीने की तलब उसको थी पर यह सोच कर बार बार वह इनकार कर रहा था कि कहीं चाय की आदत न पड़ जाए - वह इस तरह की दिहाड़ी मज़दूरी में चाय पीने के बारे में सोच भी नहीं सकता था।
 
मैंने जब पंतजी से इन दोनों घटनाओं पर कहानियाँ लिखने के बारे में पूछा तो उन्होंने बड़ी सहजता और दृढ़ता से जवाब दिया कि ये मेरे जीवन का "फिक्स्ड डिपॉज़िट"है जिसको मैंने सोच रखा है काम चलाने के लिए कभी तुड़ाऊँगा नहीं ..... और हमेशा ये घटनाएँ मुझे दिये की तरह रोशनी दिखाती रहेंगी और यह बताती रहेंगी कि मुझे किनके बारे में और किनके लिए लिखना है।

यादवेन्द्र

लेखक अनुवादक
पूर्व निदेशक,के.भ.अ. संस्थान,रुड़की

समांतर कहानी आंदोलन और सुभाष पंत

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सुभाष पंत की कहानियां

नवीन कुमार नैथानी



सुभाष पंत हमारे समय के महत्वपूर्ण कथाकार हैं। सुभाष पंत का होना हमें आश्वस्त करता है कि एक सक्रिय लेखक अपने समय का सचेत दृष्टा होता है. वह सार्थक रचनात्मक  हस्तक्षेप करके जीवन को एक खुशहाल और जीने लायक बनाने की बात करता है। 

पांच दशक पूर्व लेखन की शुरुआत करने वाले सुभाष पंत समांतर कहानी आंदोलन के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर रहे.  उनके साथ लिखने वाले  बहुत सारे लेखक समांतर आंदोलन के खत्म होने के बाद नेपथ्य में चले गए लेकिन सुभाष पंत अपवाद स्वरूप उन लेखकों में हैं जो आन्दोलनों की वजह से नहीं जाने जाते, बल्कि आन्दोलन को आज हम याद करते हैं तो उनके होने के कारण याद करते है. 

सुभाष पंत आज जीवन के नवें दशक में  भी निरंतर रचनाशील हैं. उनकी शुरुआती कहानियां आम आदमी और वंचित जन, बल्कि यूं कहें कि समाज के समाज के तलछट  पर रहने वाले लोगों की कहानियां रही हैं. वे एक उम्मीद जगाने वाले और स्थितियों को बदलने की छटपटाहट से प्रेरित होकर लिखने वाले लेखक के रूप में अपनी पहचान बनाते दिखायी देते हैं।

मनोहर श्याम जोशी ‘ट-टा, प्रोफेसर षष्टी बल्लभ पंत’ की शुरुआत करते हुए कहते हैं कि कथाकार को चालिस  साल के बाद लिखना शुरू करना चाहिए. यह कहानी तो बहुत बाद में आई, लेकिन सुभाष पंत ने लेखन की दुनिया में उम्र के उस पड़ाव में कदम रखा जहां तक पहुंचते हुए अधिकांश लेखक स्थापित हो चुके होते हैं. उनकी कहानी ‘गाय का दूध’ छपते ही चर्चा में आ गयी और वे समांतर कहानी आंदोलन के प्रमुख लेखकों में गिने जाने लगे. जैसा कि आंदोलनों के साथ प्रायः होता आया है, समांतर आंदोलन की जिंदगी बहुत ज्यादा नहीं रही और उसके साथ उभरे अधिकांश  लेखक साहित्य की दुनिया में देर तक नहीं टिक पाये. लेकिन सुभाष पंत  उसी शिद्दत के साथ निरंतर सार्थक लेखन करते रहे हैं. उनके साथ कामतानाथ का नाम भी लिया जा सकता है.

यह देहरादून की मिट्टी की खासियत है कि यहां बहुत सारे लेखक उम्र के उत्तर सोपान में निरंतर और बेहतर लिखते चले आए हैं. हम इस बात को विद्यासागर नौटियाल के उदाहरण से बखूबी समझ सकते हैं. शुरुआती कहानियों के चर्चित हो जाने के बावजूद लगभग तीन दशकों के साहित्यिक अज्ञातवास में रहने वाले, विद्यासागर नौटियाल ने  लेखन में जब पुनः प्रवेश किया तो वे आजीवन निरंतर रचना कर्म में संलग्न रहे. एक नई ऊर्जा और नई चमक के साथ उनकी कहानियां, संस्मरण और  उपन्यास सामने आए. लेकिन सुभाष के लेखन में कोई व्यवधान नहीं आया नौटियाल जी की तरह वे अभी तक लेखन में सक्रिय हैं और उतरोत्तर बेहतर लिख रहे हैं.

वे अपनी कहानियों के विषय समाज की तलछट से उठाते है. रिक्शा-चालक, मजदूर, किसान उनकी कहानियों में अक्सर आते हैं .वे बदलती हुई वैश्विक आर्थिक राजनीति की परिस्थितियों के बीच अपने अस्तित्व के लिये संघर्ष करते हुए उम्मीद की किरणों को जगाने का काम करते हुए दिखायी देते हैं.

इधर पिछले दशक में सुभाष पंत ने  हिंदी को एक से एक नायाब  कहानियां दी हैं. इनमें से  कुछ कहानियां तो हिंदी की बेहतरीन कहानियों में शुमार की जाएंगी.‘अ स्टिच इन टाइम’ और ‘सिंगिंग बेल’ जैसी कहानियां इसका बेहतरीन उदाहरण है।

सिंगिंग बेल बदलते हुए समय के साथ मानवीय संबंधों में आए परिवर्तनों की कहानी तो है ही, नई बाजार व्यवस्था के साथ सामाजिक रिश्तों और राजनीति तथा अपराध के अंतर-संबंधों के साथ विकास की अवधारणा से उपजी विडंबनाओं से भी हमारा साक्षात्कार कराती है. इन दोनों कहानियों को एक तरह से  सुभाष पंत की कहानी-कला के प्रोटोटाइप की तरह भी देखा जा सकता है. किसी भी कहानी की सफलता में उसकी सेटिंग का बहुत बड़ा योगदान होता है. अगर सही सेटिंग मिल जाये तो कहानी का आधा काम तो पूरा हो ही जाता है. शायद रंगमंच की पृष्ठभूमि ने पंत जी के अवचेतन में सेटिंग के महत्व को जरूरी जगह देने के लिए तैयार किया हो. उनकी कहानियों से गुजरते  हुए एक और बात बार-बार ध्यान खींचती है - कहानियों का वातावरण.

‘सिंगिंग बेल’ कहानी जाड़े के मौसम में किसी पहाड़ी कस्बे में घटित होती है, जहां मारिया डिसूजा  बहुत पुराना रेस्त्रां चला रही है. गिरती हुई बर्फ के बीच किसी ग्राहक का इंतजार कर रही है. कहानी के अंदर एक रहस्य भरा  सन्नाटा है और उसके बीच ग्राहक का इन्तज़ार पाठक की जिज्ञासा को उभार देता है. ग्राहक का इंतजार जब खत्म होता है तो मालूम पड़ता है कि वह ग्राहक नहीं, बल्कि उसकी संपत्ति को हड़पने के लिए आए प्रॉपर्टी डीलर का प्रतिनिधि है.

‘अ स्टिच इन टाइम’ कहानी बाजार पर बड़ी पूंजी के कब्जे के साथ छोटे – छोटे धन्धों पर आये संकटों के बीच एक कारीगर के भीतर बची हुई संवेदनाओं को यथार्थ और फ़ैंटेसी के मिले जुले फार्म के बीच प्रस्तुत करती है.यहाँ भी मंच बिना किसी भूमिका के सीधे घटनाओं के बीच ले जाने के लिए तैयार है.

“लड़ाई के कई मुहाने थे.इस मुहाने का ताल्लुक लिबास से था.”

नैरेटर के जन्मदिन पर बेटी एक बड़े ब्राण्ड की कमीज उपहार में देने का फैसला करती है, जबकि वह ताउम्र दर्जी के हाथ से सिली कमीज ही पहनता आया है. वे दर्जी अब बाज़ार से गायब हो चुके हैं. कारीगर हैं, लेकिन उनका श्रम और पहचान बाज़ार में बिकते और स्थापित किये जा रहे ब्राण्ड के नाम के साथ लोगों के दिमाग से गायब हो चुके हैं. यथार्थ से फेंटेसी के बीच औचक छलांग लगाती हुई यह कहानी उन सूक्ष्म मनावीय संवेदनाओं और सौंदर्य को उद्घाटित करती है जो श्रमशील हाथों की कारीगरी से उत्पन्न होती हैं.

पंत  जी की कहानियां स्थूल यथार्थ का अतिक्रमण करती हैं. वे ‘इक्कीसवीं सदी की एक दिलचस्प दौड़’ संग्रह की भूमिका में कहते भी हैं, “कहानियों में प्रामाणिकता की खोज नहीं की जानी चाहिए. किसी भी घटना का हूबहू चित्रण करना पत्रकार का काम है. उसकी निष्ठा और दायित्व है कि वह उसका यथार्थ चित्रण करें. वह उसमें अपनी ओर से कुछ जोड़ता है घटाता है तो वह अपने पेशे के प्रति ईमानदार नहीं माना जा सकता. लेकिन, अगर लेखक उस घटना को कहानी का लिबास पहनाता है तो उसके पास कल्पना और संवेदनशीलता के दो अतिरिक्त औजार  और भाषा तथा शिल्प का खुला वितान है. इसके माध्यम से उस घटना को सीमित परिधि से बाहर निकालकर यथार्थाभास और यथार्थ बोध के व्यापक आयाम तक ले जाए”

जाहिर है कि वे भाषा के प्रयोग के प्रति बहुत सजग हैं. यहां बहुत छोटे वाक्यों के बीच कुछ चमकदार शब्दों की मौजूदगी ध्यान खींचती है. यह भाषा का अलंकारिक प्रयोग नहीं है, बल्कि शब्दों को सही हथियार की तरह धार देने का उपक्रम है, जो ठीक निशाने पर वार करता है. ‘अ स्टिच इन टाइम’ कहानी से यह अंश देखें

मैं दर्जी से मैं कपड़े सिलवा कर पहनता था. अमन टेलर्स के मास्टर नजर अहमद से. मेरी नजरों में वे सिर्फ दर्जी ही नहीं फनकार थे .कपड़े सिलते वक्त ऐसा लगता जैसे वे शहनाई बजा रहे हैं, या कोई कविता रच रहे हैं ...हालांकि उनका शहनाई या कविता से कोई ताल्लुक नहीं था .यह श्रम का कविता और संगीत हो जाना होता.

ठीक उस जगह जहां से यह कहानी स्थूल यथार्थ का अतिक्रमण करते हुए फेंटेसी की ओर जाने की तैयारी करती है, लेखक जैसे नैरेटर की आत्मा में प्रवेश करने लगता है. देखें-

भीतर तक अपनेपन के एहसास से मेरी आत्मा भीग गई .कुछ ऐसे ही जैसे बादल सिर्फ मेरे लिए बरस रहे हैं .कमीज के कंधे वैसे ही थे जैसे मेरे कंधे थे .आस्तीन के कफ ठीक वही थे जहां उन्हें मेरी आस्तीन के हिसाब से होना चाहिए था. कॉलर का ऊपरी बटन बंद करने पर वह न गले को दबा रहा था और न जगह छोड़ रहा था. सबसे बड़ी बात कि कमीज का दिल ठीक उस जगह धड़क रहा था जहां मेरा दिल धड़कता है. 

उनकी कहानियों के जुमले और संवाद भी ध्यान आकृष्ट करते हैं. ‘सिंगिंग बेल’  कहानी में देखिये-

‘‘आदमी ही नहीं मौसम भी बेईमान हो गए ”, अनायास उसके मुंह से आह निकली और वह भाप बनकर हवा में थरथराती रही और घड़ी की टिकटिकाहट शुरू नहीं हुई लेकिन मारिया के भीतर कुछ टिकटिकाने लगा.

“तेरी काली आंखें मारिया जिनके पास जुबान है जो हर वक्त बोलती रहती है जो शोले भी है और शबनम भी .झुकती है तो आसमान नीचे झुक जाता है और उठती है तो धरती ऊपर जाती है”

‘ए स्टिच इन टाइम ’ में देखिये

विजय  के आनंद की सघन अनुभूति में मैंने उत्ताल तरंग की तरह कमरे के चक्कर लगाए और सिगरेट से लगा कर धुंए के छल्ले उड़ाने लगा .मेरी आत्मा झकाझक और प्रसन्न थी.

यह कसे हुए जुमले पंत जी की कहानियों की विशेषता है.

पंत जी के रचना कौशल पर अभी ठीक से बात नहीं हुई है.उम्मीद है उन पर आगे गंभीरता के साथ काम होगा.

चमकता सितारा चुभन भरा कांटा

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यह एक किस्सागो के जीवन का किस्सा है, जिसको उनकी ही जुबानी सुनने के लिए साक्षात्कार कर्ता तो निमित मात्र है. 25 नवम्बर 2022 की एक दोस्ताना शाम को किस्सागो सुभाष पंत जी के आवास पर ही बतियाने के लिए पहुंच जाने का प्रतिफल. उस वक्त ऐसी कोई योजना तो दूर, ख्वाब भी नहीं था कि किसी माह भर की समस्त पोस्ट्स को एक रचनाकार पर केंद्रित करते हुए ब्लाग पर विशेषांक भी निकाला जा सकता है. तब भी बातचीत को रिकार्ड यह सोच के कर लिया था कि इसका कोई सार्थक उपयोग किया जाएगा.

निश्चित ही यह बातचीत इस मायने में दुर्लभ सन्योग का प्रतिफल है कि कैसे बैंड मास्टर बनने की ख्वाइश रखने वाला बच्चा,रोजी राजगार के लिए अपने पंख फैलाते हुए न सिर्फ एक वैज्ञानिक के पद तक पहुंचता है, बल्कि बैंड मास्टर बनने या फिर सिनेमा ओपरेटर बनने के सपने देखते हुए तकलीफो में जीते आवाम के दुख दर्द से अपने को जोड़ते हुए उनके क़िस्सों को ऐसे दर्ज करने लगता है कि हिंदी कथा साहित्य की दुनिया जगमगाने लगती है.

मेरा मानना है कि कथाकार सुभाष पंत से यह बातचीत इस ब्लाग के लिए ही नहीं हिंदी साहित्य की दुनिया के लिए एक तोहफा है.  

-विगौ
कथाकार सुभाष पंत अपनी पत्नी सुश्री हेम जी के साथ  
प्रकाशित रचनाएं


कहानी संकलन
तपती हुईज़मीन,
 चीफ के बाप की मौत, 
इक्कीस कहानियां, 
जिन्न और अन्य कहानियां,
 मुन्नीबाई की प्रार्थना, 
दस प्रतिनिधि कहानियां, 
एक का पहाड़ा, 
छोटा होता हुआ आदमी, 
पहाड़ की सुबह, 
सिंगिंग बेल,
लेकिन वह फ़इल बंद है, 
इक्कीसवीं सदी की एक दिलचस्प दौड़
(उपन्यास)
सुबह का भूला और पहाड़ चोर, 
एक रात का फ़ा़सला -  अप्रकाशित उपन्यास 
(नाटक)
चिडिया की आंख   

प्र.: पंत जी अगले वर्ष आप 85वे वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं, आपकी साहित्यिक यात्रा की हल्की झलक से तो मैं परिचित हूं, लेकिन आज आपके बचपन को जानने की जिज्ञसा है. उम्मीद है आप यदि अपनी स्मॄति में जोर देंगे तो मेरी जिज्ञासा का कुछ शमन जरूर होगा.        

मेरा जन्म अपने ननिहाल डांडा गांव (देहरादून) में हुआ. मैं देहरादून में ही पैदा हुआ. देहरादून में ही मेरी पढाई लिखाई हुई. देहरादून में ही मैंने नौकरी की और देह्रादून में ही मैं अपनी अंतिम सांस भी लूंगा. मेरी मां डांडे गांव कीं थी. इस तरह से तुम समझो मै पूरी तरह से देहरादुनिया हूँ और देहरादुनिया ही रहूगा. घर वाले बताते थे कि मेरा जन्म मूल नक्षतर के प्रथम चरण में हुआ. वही,  जिसमे तुलसीदास का हुआ था. जन्म के इस सन्योग का प्रतिफल यह था कि मान लिया गया यह जातक पिता के लिए अनिष्टकारी है और इसे किसी को दे दिया जाये. बहरहाल, मेरे जन्म पर ज्योतिषयों ने निर्देश दिए कि पिता को इस जातक का मुंह नहीं देखाना चाहिए। ननिहाल में जातक को त्यागकर किसी और परिवार को देने पर भी गम्भीरता से विचार किया गया। यानी, इधर मैं इस विलक्षण संसार में पहली सांस ले रहा था, उधर मेरे घर से निष्कासन के लिए नैपथ्य में घोड़े सज रहे थे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। शायद मेरी जीवनेच्छा पंडितों की भविष्यवाणी से कहीं मजबूत थी। मेरे जन्म की सूचना पाकर पिता आए, उन्होंने मेरा मुंह भी देखा और मेरे घर-निष्कासन की सारी संभावनाओं को खारिज कर दिया। लेकिन मेरी मां ने पूरे जीवन में मुझे कभी अपनाया नहीं. एक शत्रुभाव उसके मन में रहा. तो एक माँ का जो प्यार होता है, वह मैं जानता ही नहीं. वह मेरी तारीफ वारीफ खूब करती थी. लेकिन और बच्चों को जितना वह प्यार करती थी, मुझे नहीं किया कभी. क्योंकि शायद उनके दिमाग में यह हो गया था कि ये जो है मेरे पति का हंता होने वाला है. यह एक तंत्र है जिसे मैंने बचपन से देखा. जबकि पंडितों की भविष्यवाणी को झुटलाते हुए मेरे पिता पूरे चौरासी वर्ष तक जिए.

मेरे होश संभालने पर मां मुझे अकसर बताती थी कि वह मुझे छः महीने बाद ननिहाल से घर (डोभालवाला) लाई थी। इत्तिफाक से मेरे घर आते ही पिता गम्भीर रूप से बीमार हुए थे और लम्बे समय तक बीमार चलते रहे. बीमार हो जाने के कारण उनकी नौकरी छूट गई. करीब पाँच-छै महीने वे बीमार रहे. जिसने परिवार की आर्थिक चूलें हिला दी थी।

मेरे पिता सिनेमा ऑपरेटर थे. बचपन में ही अनाथ हो जाने के कारण उन्हें पढ़ाई बीच में ही छोड़कर धंधे की तलाश में जूझना पड़ा था। वे उस उम्र में ही जीवन-संग्राम में कूद पड़े जो खेलने की उम्र थी। उन्होंने सिनेमा मशीन का काम सीखा और वे मशीन चालक हो गए। वे दर्जा सात फेल थे और बहुत कुशल ऑप्रेटर माने जाते थे। लेकिन उनका दुर्भाग्य यह था कि वे जिस सिनेमा में भी ऑप्रेटर होते उसका दिवाला निकल जाता। उन्हें एक तो वेतन बहुत कम मिलता और वह भी कई कई महीनों में मिलता, ऊपर से बेरोजगारी भी झेलनी पड़ती, जिस कारण हम निरन्तर आर्थिक दलदल में फंसे रहते थे। पिता ने इस दलदल से उभरने के लिए कई भागीरथ-प्रयास भी किए। जैसे मां के गहने-कपड़े बेचकर तांगा-घोड़ा खरीदा जिसे भाड़े पर चलाने के लिए एक नौकर रखा। लकड़ी की टाल खोली। लेकिन सब जगह नुकसान उठाना पड़ा। दरअसल वे इतने सीधे-सच्चे इंसान थे कि उन्हें बच्चा भी ठग सकता था। और ऐसा हुआ भी। उनकी कहानी निरन्त ठगे और हारते जाते किसी सीधे-सच्चे हिन्दुस्तानी की कहानी है। वे अकसर कहा करते थे कि अगर वे सरकारी महकमें में चपड़ासी-खलासी भी होते तो उनकी जिन्दगी इससे कहीं बेहतर होती। सरकारी महकमें में चपड़ासी-खलासी बनने का बहुत छोटा सा सपना था उनका और वह सपना भी कभी पूरा नहीं हुआ। मुझे इस बात का निरंतर खेद रहा कि जब सपने टूटने ही थे, तो उन्होंने बड़े सपने क्यों नहीं देखे...

बहरहाल, नौकरी छूट जाने से परिवार की जो आर्थिक लड़खड़ाई उसने हमारे सामने जो पहला संकट खड़ा किया वह रोटी का संकट था. यानी मेरा जो बचपन है, इस लडखडाती व्यवस्था का बचपन है. इस तरह गरीबी मैंने अनुभव भी की है. हालांकि एक ब्राहमन होने के नाते उस तरह से नही अनुभव की जिस तरह से देश के दलित लोग करते हैं. क्योंकि मुझे सामाजिक सम्मान तो था. ठीक है रोटी नहीं थी, लेकिन सामाजिक रूप से सम्मान था.  

प्र.: आपकी पढ़ाई-लिखाई कहां हुई ? और आपके व्यक्तित्व के निर्माण में उसकी क्या भूमिका रही ? उस शिक्षा ने एक साहित्यकार बनने में किस तरह मद्द की ?  

मेरी शिक्षा का आरम्भ बेसिक प्राइमरी पाठशाला, चुक्खूवाला से हुआ। शिक्षा में पिता का योगदान बस इतना ही रहा कि एक बार उन्होंने मुझे प्राइमरी पाठशाला में अलीप (अलिफ़) में भर्ती कराया. तब कक्षा एक से पहले अलिफ़ और बे हुआ करते थे, लोअर के.जी और अपर के.जी की तरह.दूसरी बार दर्जा छह में तहसील जूनियर हाई स्कूल में। बाकी सब उन्होंने राम भरोसे छोड़ दिया था।

पढने में मैं ठीक रहा. जब मैं दूसरी कक्ष में था, मेरी बुआ मुझे दिल्ली ले गई। घर की खस्ता हालत को देखकर. एक साल उनके साथ रह कर मैंने दूसरी कक्षा की पढ़ाई की। इस दौरान देश ने आजादी का गौरव पाया, विभाजन की त्रासदी झेली और महात्मा गांधी का कत्ल हुआ। मैं बीसवीं शताब्दी की इन दो सर्वोच्च घटनाओं का गवाह हूं। हम दरीबा के कटरे में रहते थे जिसके समीप जामा मस्जिद का मुस्लिम बहुत क्षेत्र था। लोग बहुत उत्तेजित थे और दहशतजदा भी। देश में आजादी आ रही थी और दंगे हो रहे थे। किसी संभावित खतरे के खिलाफ कटरे के हर घर में ईंटें वगैरह जमा किए जा रहे थे। फूफा ने बंडी की जेब में नगदी छिपा रखी थी और बुआ ने कपड़े में लपेटकर गहने पेट में बांध लिए थे। सांझ होते ही कटरे के दोनों ओर के बुलन्द दरवाजे बंद कर दिए गए थे और जवान हथियार लिए ‘जय महादेव’ का घोष करते हुए पहरा दे रहे थे। हवाओं में आतंक था। रात उतर रही थी और किसी की आंख में नींद नहीं थी। कभी भी आक्रामक आ सकते हैं और मार-काट हो सकती है। रात बीत गई कटरे में कोई दंगा नहीं हुआ और सुबह पता चला कि हम आजाद हो गए हैं। कटरे के दरवाजे खुल गए। उस रोज साइकिल पर लदकर जो दूध आता था वह नहीं आया। मैं आंख बचाकर छत पर चला गया। यह आजाद देश की पहली सुबह थी और मेरे सिर पर आजाद देश का पहला आसमान फैला हुआ था। याद नहीं आ रहा है कि उसमें बादल छाए थे कि सूरज चमक रहा था। छत से चांदनी चौक दिखाई दे रहा था। दुकाने अभी बंद थी। एक आदमी अपनी जान बचाने के लिए गुहार लगाता हुआ दौड़ रहा था और कई आदमी हाथ में कांच की बोतलें लिए उसकी जान लेने के लिए वहशी से उसके पीछे दौड़ रहे थे। यह पहला दृश्य था, जो स्वतंत्र भारत में मैंने देखा था। यह आजादी से मेर पहला साक्षात्कार है. एक लम्बा अरसा गुजर चुका है लेकिन यह दृश्य मेरे मानस-पटल पर अभी भी थरथरा रहा है।

उस एक साल के बाद न मेरा मन लगा बुआ के घर और न बुआ को ही लगा कि इसे रखा जाना चाहिये और इतिहास की इन दो बड़ी घटनाओं के बाद मैं दिल्ली से वापिस अपने पुराने स्कूल में लौट आया। फिर जब मैंने दर्जा पांच पास कर लिया तो मुझे छठी में तहसील जूनियर हाई स्कूल में भर्ती कराया गया। यह कह कर कि यहां गणित बहुत अच्छी होती है. लेकिन इसके पीछे कारण यह था कि यहां फीस बहुत कम थी.कहते हैं वह औरंगजेब के जमाने का स्कूल था । टिपरा हाउस में चलता था, जहां पर आजकल गवर्नमेंट गर्ल्स स्कूल है । उसकी छत बुरी तरह से झूल रही थी लेकिन उसका कैंपस बहुत बढ़िया था. 

मैं दर्जा सात में था, हमारे लिए बहुत मुसीबत का साल रहा। चार-पांच महीने के भीतर घर में तीन भाई बहनों की मौंतें हो गईं। जाहिर था कि ये मौंतें कुपोषण और चिकित्सा के अभाव में हुई थीं। लेकिन पिता के दिमाग में ऐसा बैठ गया कि ये मौतें किसी ‘ओपरी’ वजह से हुई हैं। घर पे किसी ने घात मारी है और अब यहां कोई भी जिंदा नहीं रहेगा। पिता को यह लगा, कि किसी ने जादू कर दिया हमारे ऊपर. मेरे उपन्यास- पहाड़चोर में जादू टोने की ऐसी स्थितियां इस अनुभव से ही है. पहाड में यह स्थिति बहुत आम रही. हमारे पिता एक तरह के डिप्रेशन के शिकार हो गए. उन्हें हर वक्त लगता था मेरे पीछे भूत है, एक छाया आ रही है. मां छोटे से अंतराल में तीन बच्चों को खोकर खुद टूटी हुई थी। उसने पिता को समझाने की जगह और हवा दी। असुरक्षा की भावना से वे अर्ध विक्षिप्त हो गए।  पूरा घर भयभीत रहने लगा. हर आदमी को परछाइयाँ दिखाई दे रहीं. हर आदमी को आवाजे सुनायी दे रही हैं. लेकिन मेरे मन में विद्रोह हुआ इस चीज के लिये. हमारा यह मकान दो तल्ले का था उस समय. नीचे वाला हमारे पास था. तो सभी नीचे रहते थे, एक ही कमरे में. डरे हुए,कहीं ऐसा न हो कि भूत खा जाए. मैं ऊपर जा कर सोता था. क्योंकि जिसे सब इस डाह के लिये जिम्मेदार ठहरा रहे थे, उसे मैं जानता था. वह तो बेचारी उसी बात की मारी थी, जिसमें किसी भी विधवा को डाह घोषित कर दिया जाता है. फादर की हालत यह हो गई कि मैं बचूंगा नहीं. घर में कोईं बचेगा नहीं. वे जादू-मंतर वालो के चक्कर में आ गये. कभी कोई पंडित जी बुलाये जा रहे, कभी कोई हंडिया फूट रही, और न जाने क्या क्या हो रहा. पूरा घर कीला जा रहा. खूब नाटक हो रहा. लेकिन कोई उन्हें कह दे, ये सब बेकार की बातें हैं तो उन्हें लगता कि मेरा सबसे बड़ा दुश्मन है. मैं तो बडी मुश्किल से घर को बचा रहा हूँ. परिवार के लोगों को बचा रहा हूँ. और ये मेरे अगेंस्ट में जा रहे.

उन्हें हर समय लगता कि कोई छाया उनका पीछा कर रही है। घर उनके लिए श्मशान या कत्लगाह हो गया था। वे हमें लेकर कभी एक ठौर जाते, कभी दूसरे ठौर। हम पूरी तरह से खानाबदोश हो गए थे। ओझा, तांत्रिकों के शिकंजे ने पिता को पूरी तरह जकड़ लिया था। वे जो कुछ कमाते इनके हवाले कर देते। आश्चर्य की बात है कि ऐसे विकट समय में मेरे भीतर पहला रचनात्मक विस्फोट हुआ। उन दिनों हम मां के ननिहाल अजबपुर में शरण लिए हुए थे।

बाद में मेरी माँ के नाना मामा को लगा कि यहाँ तो हालत खराब है घर की. वे अजबपुर में रह्ते थे. मेरी माँ का मायका तो डांडे गांव में था. वे हम सब लोगों को अपने घर ले गए अजबपुर. वहां से तहसील स्कूल चार-पांच मील की दूरी पर था और यह रास्ता मुझे पैदल तय करना होता था। तब दूरी, दूरी ही नहीं लगती थी. माँ के नाना मामा छोटे किसान थे. लेकिन दिल बडा था, किसानों वाला. एक आदमी उन्होंने पिताजी के साथ लगा दिया कि वह उन्हें सिनेमा लेकर जाए और वापस लेकर आए और हमें बोल दिया तुम हमारे साथ रहोगे ।

इसी दौरान मेरे भीतर साहित्य का विस्फोट हुआ. सेवंथ क्लास में जब मैं था, तहसील के सारे स्कूल के अध्यापकों ने अपनी मांगों के समर्थन में एक रैली निकाली, जिसके जुलूस में मिडिल स्कूल के सभी छात्र शामिल हुए थे। अध्यापकों की सबसे बड़ी ताकत उसके विद्यार्थी ही होते हैं, जिन्हें वे अपने हित में इस्तेमाल करते हैं। इस जुलूस में मैं भी पूरे जोशो-खरोश के साथ भागीदारी कर रहा था। यह जुलूस परेडग्राउंड में पहुंचकर विशाल सभा में बदल गया और मंच से अध्यापक अपने दुःखों और संकटों के बारे में बताने लगे। तहसील स्कूलों के अघ्यापकों का भी वेतन बहुत कम था और वह भी समय पर नहीं मिलता था। अध्यापको की करुण गाथाओं ने मेरे मानस पर गहरा असर डाला और मैं भयानरूप से विह्नल हो गया। यह एक अजीब ढंग की बेचैनी थी। मुझे इससे छुटकारा तब मिला जब मैंने अजबपुर लौटकर रात में टिटिमाते दिए की लौ में अपनी करुणा कागज पर उतार ली। यह मेरे जीवन की पहली रचना थी और इसे जन्म देने में मैंने असहनीय पीड़ा और जन्म देने के बाद अपरिमित सुख अनुभव किया था। अपनी यह रचना मैंने स्कूल की बाल-सभा में सुनाई । तहसील जूनियर हाई स्कूल की एक बड़ी खूबी थी कि वहां बालसभा हुआ करतीथी.उसमें तीनों क्लास के बच्चे- छठवी, सातवीं आठवीं, इकट्ठे हो जाया करते थे. वहां पर, अंताक्षरी होती, या जिसकिसी को कुछ सुनाना है, वह सुनाएं. यह बच्चों के बीच में प्रतिभाओं को निखारने का तरीका था. अगली बालसभा जब हुई उसमें मैं भी लिख कले गया था.  लेकिन संकोच के कारण मेरी हिम्मतनहीं हो रही थी. मैं बार-बार अपने दोस्त को कह रहा था कि वह बोले गुरु जी को. मेरे दोस्त ने वहीं से बोला, गुरुजी सुभाष भी कुछ लिख कर लायाहै, सुनाना चाहता है. गुरुजी ने मुझे बुला लिया. कांपते हुए पैरों के साथ मैं मंच पर गया और जो कुछ लिखा था उसे पढ़कर सुनाने लगा.  इसे सुनाते हुए मेरे पैर थरथरा रहे थे, स्वर कांप रहे थे और आंखों में आंसू छलछला रहे थे। रचना के समाप्त होते ही हैड मास्साब ने मुझे अपनी बाहों में जकड़ लिया। शायद उनकी आंखों में भी आंसू थे। हैड मास्साब ने वह लेख उन्होंने मुझसे ले लिया, यह कहकर कि मैं इसे कहीं छपवाऊंगा. इस तरह से मैं वहां पर लेखक डिक्लेअर हो गया.बाद में यह आलेख ‘शिक्षक-बंधु’ पत्रिका में प्रकाशित हुआ, जो शायद आगरा से निकलती थी। तहसील जूनियर स्कूल के पूरे इतिहास में मैं वह पहला छात्र बन गया जिसकी कोई रचना किसी पत्रिका मैं छपी। वह भी बच्चों की किसी पत्रिका में नहीं, अध्यापकों की गम्भीर पत्रिका में।

दर्जा आठ की परीक्षा के बाद गर्मियों की छुट्टियों में पिता ने मुझे कम्पोजिटर का काम सीखने के लिए ‘सिंधी प्रेस’ में लगा दिया। संभवतः उनके दिमाग में मेरे भाविष्य की इससे बड़ी कोई  तस्वीर नहीं थी। लेकिन मैं यह काम नहीं सीख पाया, क्योंकि ‘शिक्षक-बंधु’ में लेख छप जाने के बाद मैं अपने को लेखक मानने लगा था और लेखक होने के नाते कम्पोजिटर के काम को मैं बहुत घटिया समझता। कंपोजिंग सिखाने वाला जो शख्स था, मुझे बहुत प्यार करता था. वह कहता, तू बहुत जल्दी सीख लेगा काम. लेकिन मैं उसे कहूं, भाई मैं तो लेखक हूं, मैं कंपोजिटर नहीं हो सकता. वह मुझे मेटल के अक्षरों को जोड़ने के लिए कहता था. बताता था यह ‘क’ है, ‘ब’ है.  मैं सबसे पहले उसमें सुभाष जोड़ने लगता. बाकी जो काम की चीजें होती थी, उसमें मैं कुछ इधर जोड़ दू तो कुछ उधर. गैली तोड देता. गैली तोड़ने के बाद हर बार मुझसे अक्षर गलत खानों में पड़ते, जिससे मालिक नाराज हो गया और उसने मुझे छापाखाने से बाहर निकाल दिया। प्रैस में मैं नालायक सिद्ध हो गया था. उसका परिणाम यह हुआ कि मुझे 9th क्लास में डीएवी कॉलेज में भर्ती कर दिया गया. अगर मैं कंपोजिटर बन जाता तो नाइंथ क्लास में पढ़ता हुआ नहीं होता लेकिन मैं कंपोजिंग में फेल हो गया था.

जब दर्जा 9 हो गया तो दर्जा 10 तो होना ही था. उस समय मेरे साथ यहां के- डोभालवाला, चुक्कूवाला के दस-बारह लड़कों ने हाई-स्कूल की परीक्षा साथ दी थी। हम अलग अलग स्कूलों में पढ़ते थे, फिर भी हमारे बीच भाईचारे जैसी कोई चीज पैदा हो गई थी। परिणाम वाले दिन सुबह ही हम सभी इकट्ठा होकर न्यूज एजेन्सी गए। यह मालूम होने पर कि रिजल्टवाला अखबार तीन बजे से पहले नहीं आएगा। हमने सलाह की कि रिजल्ट आने तक रायपुर की नहर के किनारे पिकनिक मना ली जाए। बाद में तो पता नहीं क्या होने वाला है। परिणाम पूर्व के समय को तनाव में क्यों बरबाद किया जाए। किराए पर साइकिलें लेकर और एक-एक पर तीन-तीन लदकर शोर मचाते, रास्ते मे दिखाई देनेवाली लड़कियों से छेड़खानी करते हुए हम पिकनिक स्थल पर पहुंच गए और हमने खूब  खूब मस्ती काटी। लौटे तो हमने दून क्लब की बगल से गुजरती सड़क पर कई आदमियों को अखबार लिए दौड़ते हुए देखा। ‘रिजल्ट निकल गया है,’ कोई चिल्लाया और हमारे दिल पंखे की तरह डोलने लगे। हमने हाथ-पैर जोड़कर अखबार लिए दौड़ते एक आदमी को रिजल्ट बताने के लिए फुसला लिया। वह अखबार की उस प्रति का मालिक होने की वजह से, जिसमें लाखों बच्चो का भविष्य कैद था, एक गर्वीली अकड़ से भरा हुआ था, लेकिन वह दयालु भी था क्योंकि हमारा रिजल्ट बताने के लिए वह नाली की उस मुंडेर पर बैठ गया था, जिसके नीचे कचरा बह रहा था। मेरे साथ जितने भी लड़के थे वे सारे फेल हो गये और मैं पास, सेकंड डिविजन। अखबार वाले सज्जन ने पहले तो मुझे देखा, फिर बोला- पास हो गया तू, सेकंड डिवीजन. अबे इतना दुबला पतला लड़का, तू पास हो गया.  एक बारगी साथियों के फेल होने का दुख भीमुझे हुआ कि इतने लोगों का साथ छूट रहा है. वैसे फेल होने वाले को हम लड़कों में ज्यादा सम्मान से देखा जाता था.

अब मैं जब घर आया, पिता उस समय नौकरी पर गए हुए थे. मां मेरी, बेशक मुझे पसंद नहीं करती थी, लेकिन पढ़ने में बहुत सपोर्ट करती थी. वह बडी बोल्ड महिला थी. इतनी बोल्ड महिला मैंने अपने जीवन में कोई दूसरी नहीं देखी. भाषा की तो मास्टर थी. वह शब्दों की जादूगर थी। वह इन्हें तलवार की तरह भी इस्तेमाल करना जानती थी और संजीवनी की तरह भी। उसकी भाषा दो आयामी थी। ऐसे व्यंग में बात करती थी कि आदमी को छलनी कर देती, लेकिन खुद पारे की तरह फिसल जाती और पकड़ में न आती। मेरी भाषा में जो कुछ थोड़े बहुत व्यंग हैं, वहीं से हैं.  इतनी बोल्ड थी कि एक बार जब मैं छोटा था तो मुझे लेकर कौलागढ़ गई। वहां उन दिनों रामायण चल रही थी, कोई व्याख्यान चल रहा था। वहां पर जो पंडित जी थे, बड़े प्रसिद्ध पंडित, अभी नाम याद नहीं आ रहा, सती प्रथा के पक्ष में बोल रहे थे। वहां सो डेढ़ सौ आदमी जमा थे. मां बीच में से खड़ी होकर और वही से बोली, पंडित जी औरते तो सती हो जाएंगी पहले तुम सता होकर दिखाओ। जब तुम्हारी पति-पत्नी मरे तो तुम भी सता होकर दिखाना. मेरी पढ़ाई को लेकर मां ने हमेशा मेरी मदद की. शायद पढ़ाई को लेकर उसके दिमाग में जरूर कोई कंपलेक्सेस रहे होंगे. वह उन्हे मुझ में पूरा करना चाहती थी.

अगस्त की घनघोर बारिश और प्रलयंकारी तूफान में घर के छत की टिने उड़ गई थी और जीने की तरफवाली दीवार बैठ गई।सुबह का वक्त था. पिता दीवार चिन रहें थे और मैं तसले में गारा भरकर उन्हें दे रहा था, उसके बाद उन्हें 11:00 बजे के आसपास सिनेमा जाना होता था. मैंने बताया मैं पास हो गया सेकंड डिवीजन. पिता ने कहा, ठीक है अब नौकरी कर लो.

मैंने कहा, जी मैं तो पढ़ना चाहता हूं. मुझे उस समय का उनका कहा शब्द याद है- उन्होंने कहा अबे यार तू अगर पत्थर होता तो मैं तुझे दीवार में तो लगा देता.  दर्जा 8 से ही मैं ट्यूशन पढ़ाने लगा था. होता यह था की उस समय दर्जा 8 पास करना भी बहुत बड़ी बात मानी जाती थी. परिवार में मेरे बारे में एक अच्छी राय बन रही थी. मैं पढ़ने में अच्छा हूं. बस इसिलिए परिवार के ही एक बेटे और बेटी को दर्जा आज तक की पढ़ाई करवाने की जिम्मेदारी मुझे मिल गई और पारिश्रमिक मिला एक गिलास दूध. मैं एक गिलास लेकर जाता था पढ़ाने और वहाँ से मुझे गाय का दूध मिलता था. मुझे उस दूध में, सच में, गाय के खुर दिखाई देते थे. तुम भी देखना कभी गाय के दूध में उसके खुर दिखाई देते हैं. उससे मेहंताने से फायदा यह होता था कि घर का चाय का खर्च कट जाता था. चाय का दूध मैं ले आता था. उस तरह पढाने से फायदा यह हुआ कि मुझे दो-चार ट्यूशन और मिल गई. अब कुछ रुप्ये भि मिल जाते थे. ₹5 प्रति ट्युशन. इसिलिए मेरा यह अरगुमेंट था कि यदि मैं अपना फीस का खर्चा निकाल लेता हूं तो मुझे आगे पढ़ना दिया जाए। कुछ ट्यूशन और कर लूंगा। उस वक्त  मां ने ही मुझे सपोर्ट किया.

नहीं, यह पढेगा. मैं खर्चा दूंगी।

महिलाओं की एक आदत होती है परिवार कितने भी संकट में हो वह अपने रोज के खर्चे में से जो कुछ बचाती हैं, संकट के वक्त उसको निकाल लेती हैं। यह महिलाओं के व्यक्तित्व की सबसे बड़ी ताकत है कि जब परिवार मुसीबत में हो तो सामने आ खड़ी होती है । बस फिर मेरा फर्स्ट ईयर एडमिशन हो गया डीएवी कॉलेज में और यही मेरे साहित्य का दूसरा विस्फोट होता है

मैं विज्ञान का छात्र था. इसलिए नहीं कि कौन सा सब्जेक्ट मुझे पढ़ना था, बल्कि, इसलिए कि उस वक्त यह मान्यता थी फिजिक्स केमिस्ट्री मैथस लेने से नौकरी आसानी से मिल जाती है.

यहां बगल में एक किराएदार रहते थे, वर्ल्ड बैंक के प्रोजेक्ट में काम कर रहे थे, जो प्लेग की रिसर्च संबंधित था यह. वे बहुत सारी किताबें लेकर के आते थे. उन्हें किताबें पढ़ने का शौक था. उस समय छोटी-छोटी दुकानें होती थी किताबों की, जहां किराए में किताबें मिलती थी.  बहुत सारे बन्नूवाल लोग, पार्टीशन के बाद जो यहां पर आए, दुकानें उन्होंने ने खोली थी। विभाजन की मार को झेल रहे वे जबरदस्तलोग रहे. संघर्ष कर रहे थे जीने का. इसलिए बहुत से ऐसे काम करते थे जिससे रोजी रोटी का मामला कुछ निपट सके। उन लोगों ने भीख नहीं मांगी, अपने तरह से संघर्ष किया । इस तरह से कई किताब जो वे पड़ोसी लेकर आते थे, मुझे भी पढ़ने को मिल जाती थी. बस उसी से मैंने कुछ साहित्य पढ़ लिया. गुलशन नंदा, प्रेमचंद, और भी कई। जो भी किताब आ जाती थी वही पढता. इस तरह से मेरा रुझान साहित्य की ओर होने लगा. मेरी हिंदी की कोर्स की किताब में जो छायावाद पर रचनाएं होती, मुझे बहुत प्रभावित करने लगी। छायावाद में भी कहूं तो महादेवी वर्मा. उनकी करुणा. लेकिन उसी वक्त मुझे लगा कि मुझे नौकरी कर लेनी चाहिए थी, क्योंकि वह सिनेमा जहां पिता काम करते थे, बिक गया। इसे जुब्बल के राजा ने खरीद लिया था। हालांकि बाद में उन्होंने सिनेमा हॉल ही चलाया लेकिन उसका नाम बदलकर ‘दिग्विजय टॉकीज’ कर दिया. उससे पहले ‘प्रकाश सिनेमा’ के नाम से प्रसिद्ध रहा।  दिक्कत यह हुई कि सिनेमा रिनोवेशन के लिए बंद कर दिया गया। रिनोवेशन का काम सालभर या इससे ज्यादा ही चलना था और इस दौरान पिता को सिर्फ रिटेनरशिप फीस ही मिलनी थी, जो उस बढ़ती हुई मंहगाई में बहुत कम थी। बड़ा बेटा होने के नाते घर की चिन्ताओं में शामिल होना मेरा दायित्व था। मैं और ज्यादा ट्युशनें करने लगा। लेकिन यह उस गरीबी के विरुद्ध बहुत दरिद्र और दारुण प्रयास था, जिसे हम झेल रहे थे। कोई जादू या लीला ही हमें पार उतार सकते थे। और सचमुच ऐसा एक करिश्मा मेरे हाथ आ गया। शायद यह विचार कोई फिल्म देख कर आया था, हो सकता है

कोई उपन्यास पढ़कर, कि मैं एक ऐसा उपन्यास लिख डालूं, जिसे प्राप्त करने के लिए पुस्तक विक्रेताओं के यहां लाइने लगी हों। और सचमुच मैंने ग्यारहवीं की छुट्टियों में एक उपन्यास ‘चमकता सितारा चुभन भरा कांटा’ लिख मारा। इसे लिखने में मुझे कतई भी दिक्कत नहीं हुई। तब मैं यह नहीं जानता था कि क्या नहीं लिखा जाना चाहिए। अब जान गया हूं तो लिखना बहुत मुश्किल हो गया है। यह एक प्रेम-त्रासदी थी। मैं इसे पढ़ता तो मेरी आंखों से अविराम अश्रुधारा बहने लगती। जिसे सुनाता, वह भी करुणसिक्त हो जाता। मां ने पढ़ा तो उसे लगा कि ऐसे पुत्र रत्न को जन्म दे कर उसकी कोख धन्य हो गई है। मैं तो खैर अपने को साहित्याकाश का चमकता हुआ सितरा समझ ही रहा था। मुझे विश्वास था कि इसके प्रकाष्श्ति होते ही साहित्य जगत में विस्फोट हो जाएगा। मैंने अपनी व्यथा-कथा के साथ अनेक प्रकाशकों को इसे प्रकाशित करने के लिए पत्र लिखे। प्रकाशकों के एड्रेस इकट्ठे किए और सबको एक एक चिट्ठी लिखी कि मैं पढ़ने वाला विद्यार्थी हूँ. आप मेरा यह उपन्यास छाप लीजिए ताकि मैं आगे पढ़ सकूं.  कुछ ने जवाब ही नहीं दिया, कुछ ने हमदर्दी जताते हुए खेद व्यक्त कर दिया. यह उपन्यास बाद में एक प्रकाशक ने छापा, लेकिन यह दूसरी ही कहानी है।

मैं आकाश से औंधे मुंह जमीन पर गिर पड़ा और मैंने तय कर लिया कि मैं कुछ भी बनूंगा, पर लेखक कभी नहीं बनूंगा।

बहरहाल वक्त चलता रहा। वह कभी नहीं रुकता। महानतम घटनाओं के लिए भी नहीं रुकता। गति ही उसका धर्म है। मैंने इंटरमीडिएट पास कर लिया और डी.ए.वी. कॉलेज में बी.एस-सी. में प्रवेश ले लिया। पिता ऐसा नहीं चाहते थे, आर्थिक स्थिति भी यह सचमुच नहीं चाहती थी, लेकिन मैं चाहता था और मां मुझे सहारा दे रही थी।छुट्टियों के बाद मैं सेकंड ईयर में चला गया. और अब पिता की तुलना में मेरी सामाजिक हैसियत भी बढ़ गई थी।वे जिस सिनेमा में नौकर थे, मैं उस सिनेमा के मैंनेजर के बच्चां का सम्मानित ट्यूटर हो गया. हुआ यह कि सिनेमा का रिनोवेशन चल रहा था. पिताजी रोज ही वहा जाते थे. बेशक काम ना हो तब भी जाते थे. मैं भी कभी-कभी उनके साथ जाता था. एक रोज सिनेमा के मैनेजर ने पिताजी से पूछा, यह कौन है? 

पिताजी ने कहा, मेरा बेटा है.

उसने मेरी पढ़ाई के बारे में पूछा और मुझे कहा मेरे बच्चों को पढ़ा दो. वह जुब्बल स्टेट का कारिंदा था और सिनेमा का मैनेजर. जुब्बल इस्टेट में रह्ता था. राजा वहा रहता नहीं था. बहुत ही भव्य घर था उनका. मैं उनके यहां जाकर के बच्चों को पढ़ाने लगा. अच्छी रकम मिलने लगी. बस फिर तो जब कभी वह आता तो मुझसे बहुत हंस कर बातें करता.

इस तरह से मुझे एक अच्छा ट्यूशन मिला मेरा साहित्य विस्फोट दूसरा यहां पर खत्म हुआ. ट्यूशन से मुझे इतना पैसा मिल जाता था कि मैं अपनी फीस दे ही देता था, बल्कि थोड़ा बहुत घर को भी मदद कर देता था. तब तक सिनेमा के रिनोवेशन का काम भी पूरा हो चुका था और पिताजी को दोबारा से नौकरी मिल गई थी। अब पहले से थोड़ा ज्यादा पैसे मिलने लगा था पिताजी को. लेकिन घर की आर्थिक स्थिति अब भी बहुत अच्छी नहीं थी. वे चाहते थे कि मैं बीएससी की बजाय नौकरी कर लूं।

प्र.:तो बीएससी करने के बाद आप नौकरी करने लगे ?  

नहीं, नहीं. बीएससी करते हुए ही मेरी नौकरी लग गई थी. तब मैं सिर्फ इंटर पास था. बीएससी उस समय 2 वर्ष का होता था. पहला वर्ष पास हो जाने के बाद जब मैं दूसरे वर्ष में था किसी छुट्टी के दिन कालेज के साथियों ने वन अनुसंधान संस्थान के बोटेनिकल गार्डन में पढ़ाई-कम-पिकनिक का कार्यक्रम बनाया था। मुझे भी वे साईकिल पर लाद कर वहां ले गए। मेरे पास साईकिल नहीं थी। मैं पैदल ही कालेज भी जाता था और ट्युशन के लिए भी।

वन अनुसंधान संस्थान की शानदार इमारत और समुद्र की तरह फैला हरियाला कैम्पस देखा तो मैं आश्चर्य चकित रह गया। मैंने मन ही मन सोचा कि वे लोग कितने भाग्य्रशाली होंगे जो यहां नौकरी करते होंगे। और आश्चर्य की बात कि उसके छह-सात महीने के बाद, जब मैं बी.एस-सी फाइनल में था, मुझे इस संस्थान से काल लैटर आ गया। तकनीकी सहायक की एक पोस्ट थी, जिसके लिए दस लड़के बुलाए गए थे और वे लगभग सभी मेरे क्लास-फैलो थे। उन्होंने मुझे सलाह दी कि मुझे इंटरव्यू में नहीं जाना चाहिए। उनके वहां सोर्स हैं, मेरा नहीं है और बिना सिफारिश के नौकरी नहीं मिलती। मैं भयानक ढंग से निराश हो गया। इस दुनिया में मेरी सिफारिश करने वाला कोई भी नहीं है। सिनेमा-ऑप्रेटर के लड़के की औकात ही क्या है जो कोई उसकी सिफारिश करेगा। मैं बहुत बुझे मन से इंटरव्यू में गया। जानता था कि मेरा यहां चयन नहीं होगा। आश्चर्य की बात कि इंटरव्यू में मुझसे एक ही सवाल पूछा गया और मेरे द्वारा दिया गया जवाब इतना अच्छा माना गयाकि मेरा चयन हो गया।चयन बोर्ड के अध्यक्ष FRI के असिस्टेंट प्रेसिडेंट थे। वे वैज्ञानिक थे और प्लाईवुड पर उनका काम था- डॉक्टर नयन मूर्ति। इंटरव्यू के वक्त चेयरमैन ने मुझे अपने शैक्षणिक कागजात दिखाने के लिए कहा. उस वक्त मेरे पास हाई स्कूल का सर्टिफिकेट था और इंटर की मार्कशीट। इंटर गणित में मेरे 87 मार्क्स  देखकर वे आश्चर्यचकित थे और काफी प्रभावित हुए। उसके बाद मुझसे प्रश्न किया,

Name some solvent।

मुझे इंटरव्यू पूरा याद है, माना कि मेरी याददाश्त इतनी अच्छी है नहीं, वह इसलिए याद है क्योंकि एक ही सवाल मुझसे पूछा गया था. उस वक्त मैं चूंकि ट्यूशन पढ़ाता था इसलिए बहुत सी जानकारियां मेरे पास यूं ही रहती थी। लिहाजा मैंने पूछे गए सवाल के जवाब में तुरंत कहा सर यू वांट ऑर्गेनिक सॉल्वेंट और इन ऑर्गेनिक सॉल्वेंट्स ?

उन्होंने कहा ठीक है ऑर्गेनिक सॉल्वेंट्स बताओ।

मैंने तुरंत कहा सर यू वांट एरोमेटिक और एलिफेटिक?

बस उसने बोला, एक एरोमेटिक बताओ और एक एलिफेटिक। बाद में बोर्ड के चेयरमैन ने अपने अन्य चयनकर्ता साथियों से पूछा कि किसी और को कुछ पूछना है?

सब ने कहा, नो सर, वी आर सेटिस्फाइड।  

उसके तुरंत बाद चेयरमैन ने कहा, बेटा अगर तुम यहां ज्वाइन करते हो तो तुम्हारा बीएससी छूट जाएगा और मैं नहीं चाहता कि तुम्हारा बीएससी छूटे। मै एकदम दुविधा में हो गया. बीएससी करना चाहता था और जो नौकरी मिल रही थी वह जरूरत थी।

खैर मैंने कहा, जी मैं तो बीएससी करना चाहता हूं.

उसने बोला, आर यू श्योर ? तो तुम्हें अपॉइंटमेंट ना भेजा जाए।

मैंने कहा, नहीं।

यह कहकर मैं आ गया। एक महीने के बाद मेरे हाथ में नियुक्ति पत्र था और मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूं।. मैंने पत्र छुपा दिया,  क्योंकि घर में यदि पता चल जाता तो तय था की नौकरी करनी पड़ेगी।  नौकरी करता हूं तो पढ़ाई छूटती है। पढ़ाई करूं तो नौकरी। मैं दोनों ही नावों पर सवार होना चाहता था। और ऐसा हुआ भी।क्योंकि यह दुनिया बहुत बेहतरीन लोगों से भरी थी. उधर कॉलेज समय पर न पहुंच पाने के कारण मेरी अटेंडेंस बहुत शॉर्टपा थीं. क्लास-टीचर की हिदायत थी कि यदि अटेंडेंस शार्ट रही एग्जाम में नहीं बैठने दिया जाएगा।

दुविधा की उस स्थिति में ही एक दिन मैं उस अप्वाइंटमेंट लेटर को लेकर एफ आर आई के डिपार्टमेंट केमिस्ट्री ऑफ फॉरेस्ट प्रोडक्ट चला गया। उसी डिपार्टमेंट में मेरा स्लेक्शन हुआ था. डिपार्टमेंट के अधिकारी का नाम नारायण था. वे भी दक्षिण भारतीय थे। मैं लंच टाइम में पहुंचा था। डिपार्टमेंट में मौजूद कर्मचारियों ने बताया कि साहब सिस्टर क्वार्टर में रहते हैं।

पूछते- पाछते मैं सिस्टर क्वार्टर चला गया. वहां जाकर मालूम हुआ कि वह तो क्वार्टरों की एक लंबी लाइन है. सेकंड वर्ल्ड वार में FRI का एक हिस्सा हॉस्पिटल में बदल दिया गया था.  उस दौरान वहां रहने वाली नसों के कारण ही उन क्वाटर्स को सिस्टर क्वाटर्स कहा जाता था. मुझे समझ ही नहीं आया कि मैं किससे पूछूं नारायणन साहब कहां रहते हैं. उसी वक्त एक व्यक्ति साइकिल से गुजर रहा था, दुबला पतला सा आदमी. उसने साइकिल रोक कर मेरी तरफ देखा और पूछा, आर यू मिस्टर पंत ?

मैंने कहा, यस सर.

उसने तुरंत कहा, कब ज्वाइन कर रहे हो ?

संभव था चयनबोर्ड में वे भी एक सदस्य रहे हो. चूंकि किसी और को मुझे फेस नहीं करना पड़ा था, इसलिए मैं पहचानता नहीं था.

मैंने उन्हें अपना संकट बताया. उन्होंने धैर्य से मेरी बात सुनी और कहां, देखो एक्सटेंशन देना हमारे हाथ में नहीं, प्रशासन का काम है. रजिस्ट्रार का काम है। लेकिन उन्होंने तरीका बताया कि जिस दिन तक तुम्हें ज्वाइन करना है उस से एक दिन पहले तक हमारे पास एक रजिस्टर्ड लेटर आ जाना चाहिए जिसमें तुम एक्सटेंशन मांग लो। एक महीने का एक्सटेंशन मांग लो।  उसके पीछे उन्होंने जो आईडिया दिया, यही कि जैसे ही हमारे पास पत्र पहुंचेगा, हम उसे प्रोसेस करेंगे. इस काम में पांच-एक दिन लग जाएंगे. पांच-एक दिन आगे लग जाएंगे और ऐसे करते करते दस-पंद्रह दिन का समय तुम्हें मिल जाएगा. इस बीच कॉलेज को मैनेज करने की कोशिश करो. हो सकता है महीने भर का एक्सटेंशन मिल जाए. और नहीं भी मिला तो भी पंद्रह-बीस दिन तुम्हारे पास हैं।

मैंने वही किया और मुझे एक महीने का एक्सटेंशन इस हिदायत के साथ मिल गया कि एक्सटेंशन हेस बिन ग्रांटेड फॉर वन मंथ एंड नो फर्दर एक्सटेंशन विल बी गिवन टू यू.  

इधर यह एक अच्छी बात हुई कि मेरे साथ के जो दूसरे लड़के थे उन्होंने टीचर से कह दिया कि सर इसका अपॉइंटमेंट हो गया, पर यह जा नहीं रहा।

टीचर ने मुझे हडकाया, क्यों नहीं जा रहे हो?  मालूम है नौकरी क्या होती है ? आजकल मिलती है नौकरी किसी को?

मैंने कहा, सर आप ही ने कहा हुआ है कि यदि अटेंडेंस कम हुई बैठने नहीं दूंगा एग्जाम में। उसने रजिस्टर मंगाया और कहा ले ‘पी’ और धड़ाधड़ मेरी अटेंडस पूरी.

जाओ ज्वाइन करो.

सच, इतने अद्भुत लोग उस जमाने में थे. आज तो हर कोई ऐसे मामले में पैसे की बात करता है. इस तरह से मैंने नौकरी में ज्वाइन कर लिया. नारायण साहब ने बुलाया, मुझे एक जगह  ले गए और बोले, यह तुम्हारे बैठने की जगह है. बैठो. अपना इम्तिहान दो. कोई काम तुम्हें नहीं दिया जाएगा. कैजुअल लीव लेकर एग्जाम दे देना. लेकिन प्रैक्टिकल तुम नहीं दे पाओगे. एक सैटरडे छुट्टी होती है उस दिन प्रैक्टिकल कर लेना. इस तरह से मैंने नौकरी के साथ-साथ बीएससी भी कर ली। बीएससी पास हो जाने के बाद मैंने एमएससी में भी एडमिशन ले लिया था कॉलेज में. चूंकि एमएससी की क्लासेस मॉर्निंग में होती थी.

 प्र.: आपका विवाह कब हुआ?

सन् 61में मैं नौकरी पर आया था, सन् ‘.....62. में आश्चर्यजनक रूप से मेरा प्रोमोशन हो गया. आर्श्चजनक इसलिए कि संस्थान में तकनीकी सहायक से अंनुसंधान सहायक ग्रेड टू होने में पंद्रह से बीस साल लग जाते थे. सन् ‘....64... में और भी आश्चर्य ढंग से मेरी हेम से शादी हो गई. वह भी आश्चर्य इसलिए कि जो भी मेरे विवाह का प्रस्ताव ले कर आता, पड़ोसी हमारे घर की टूटी दीवारे दिखाकर उसे सलाह देते कि लड़की को ढ़ांग से धक्का दे देना पर इस घर में उसका विवाह मत करना। कहते हैं कि ‘पेयरस् आर मेड इन हैवेन’। मैं स्वर्ग, नर्क और पुनर्जन्म पर विश्वास नहीं करता। फिर भी मुझे लगता है कि हमारा विवाह सचमुच स्वर्ग में ही तय हुआ होगा। हेम ने एक आदर्श भारतीय पत्नी की तरह हर वक्त मेरा साथ दिया। हमारे बीच अद्भुत समझदारी थी जो अब तक कायम है, जब कि हमारे स्वभाव तमाम उम्र दो विपरीत ध्रुवों पर खड़े रहे। मैं गम्भीर किस्म का संजीदा और वह हर पल हंसते रहने वाली। मैं शुष्क मिजाज और वह शौकीन तबीयत की। मैं निर्लिप्त और वह पूरी तरह से लिप्त। मैं काम बहुत अनगढ़ ढंग से करता और वह बहुत सुगढ़ ढंग से करने वाली। मुझे गुलदस्ता सजाना होता तो मैं उसे ऐसी जगह सजाता, सौन्दर्यबोध के हिसाब से जहां उसे नहीं सजाया जाना चाहिए। वह झाडू भी रखती तो ऐसी जगह रखती जहां उसे रखा जाना चाहिए। यानी, ऐसी कितनी ही बाते हैं, मैं समझता हूं सारी ही बाते हैं, जो हमे दो अलग छोरों पर खड़ा होना सिद्ध करती हैं। लेकिन हमने दाम्पत्य का इतना लम्बा सफर शानदार सफलता से तय कर लिया।

प्र.: यानि आपने जीवन की गाड़ी को एक मुकाम में लगा देने के बाद साहित्य में पदार्पण किया?

इस बीच में मेरा वह है उपन्यास भी छप गया। मेरे उन्हीं दोस्त ने, जो मुझे किताबें पढ़ने के लिए देते थे, उपन्यास लखनऊ से छपवा दिया. हालांकि उससे पहले मेरा वह उपन्यास, जब मैंने चिट्ठियां लिखी थी, एक प्रकाशक ने मंगा लिया था. वह दरियागंज का प्रकाशक था कोई. लेकिन वह उसे दबा कर बैठ गया. तब मेरा एक दोस्त तेज सिंह, जो बाद में रुड़की में प्रोफेसर हुआ, उसका एक भाई दिल्ली में फिल्म डिस्ट्रीब्यूटर था, उसको कहा गया. उसने जैसे तैसे उपन्यास उस प्रकाशक के यहां से निकलवाया। उपन्यास की प्रति वहां से मिलने के बाद मुझे मेरठ से एक प्रकाशक की एक और चिट्ठी आ गयी. ओमप्रकाश जी नाम था उनका. उन्होंने उपन्यास मंगवा लिया. उन्हें पसंद आया. उन्होंने कहा, हमसे मिलने आइए। मैं उनसे मिलने मेरठ गया. उस वक्त बस में जाते हुए मैं अपने को एक वीआईपी से कम नहीं समझ रहा था।

शाम तक मैं मेरठ पहुंचा. उनके लड़के और लड़की ने मेरा स्वागत किया. बोले, साहब तो कल सुबह मिलेंगे. आप हमारे साथ हैं इस समय. उन्होंने मुझे पूरा मेरठ घुमाया. फिल्म दिखाइ। होटल में खाना खिलाया. रात को मुझे अपने घर में ही रूकवाया। सुबह मेरी ओमप्रकाश जी से मुलाकात हुई. वे मशीन पर बैठे हुए थे. मैं पहुंचा. वे बोले, हमें तुम्हारा उपन्यास बहुत पसंद आया. हम इसे छापेंगे। पर तुम्हारा नाम नहीं चलेगा. हम तुम्हें एक ब्रैंड नाम देंगे और हर महीने आप एक उपन्यास लिख कर देंगे हमें। इस उपन्यास के हम आपको ₹100 दे रहे हैं। मैंने हाथ जोड़े. कहा, जी आप मेरा उपन्यास वापस दे दीजिए. उपन्यास लेकर मैं वापस आ गया और मेरा मोह भंग हो गया साहित्य से. पूरा ही मोहभंग हो गया. यह सुनना मुझे अच्छा नहीं लगा कि वे मुझे ब्रैंड नाम देंगे। और इस तरह से बारगेनिंग करेंगे।

प्र.: इस हादसे के बाद भी आप साहित्य की दुनिया में कैसे आये फिर?

जिस वक्त मैं एमएससी में था, मॉर्निंग क्लासेस के लिए मुझे सुबह 7:00 बजे निकलना पड़ता था. घर से. खाने का डिब्बा साइकिल पर लादे हुए मैं कभी कॉलेज की तरफ भाग रहा होता तो फिर नौकरी के लिये. शाम को ट्यूशन के लिए. यह सब इतना दबाव था कि मैं इसे टॉलरेट नहीं कर पाया. सन छियासठ के अंतिम महीनों में मैं गम्भीर रूप से बीमार हो गया। शुरुआत तो हल्के खांसी, जुकाम से हुई, लेकिन हेम की चेतावनी के बावजूद मैंने इसकी परवाह नहीं की। ऑफिस भी जाता रहा टयूशनें तथा अन्य दीगर काम में भी उलझा रहा। बाद में होश आया लेकिन तब तक मुझे प्लुरिसी हो चुकी थी। यह एक गहरा संकट था। सही बात तो ये थी कि ऐसी बड़ी बीमारी के लिए मैं तैयार ही नहीं था। उन दिनों यह एक गम्भीर बीमारी मानी जाती थी। पिता को कभी डॉक्टरी चिकित्सा पर भरोसा नहीं था, इस बार भी नहीं हुआ और वे टोने-टोटकों में उलझ गए।

देवदूत की तरह ऑफिस का एक दोस्त जियालाल, जो पिछड़ी जाति का था, मदद के लिए खड़ा हो गया। उसने सुना तो दौडा हुआ घर आया।

क्या हुआ तुझे ?

डॉक्टर बता रहे हैं कि प्लूरेसी हुआ है, मैंने बोला।

अरे यह तो बड़ी भयंकर बीमारी है.

दरअसल उस समय पर ऐसी बीमारियों का ट्रीटमेंट नहीं था. मेरा एक्सरे लेकर वह अपनी जान पहचान से मिलिट्री हॉस्पिटल के एक डॉक्टर से मिला. उस डॉक्टर ने भी प्लूरेसी कहा। ट्रीटमेंट था-  90 इंजेक्शन मुझे इस्ट्रैप्टोमाइसिनके लगवाने होंगे. बस वही एक इलाज था उस वक्त। हर रोज इंजेक्शन लगवाने मैं हॉस्पिटल कैसे जाऊं? वह हर दिन दफ्तर से साईकिल पर हांफता हुआ आता और मेरे इस्ट्रैप्टोमाइसिन का इंजेक्शन लगाता और यहां तक कि जब बाजार में इस इंजैक्शन की कमी पड़ी तो उसने कहीं न कहीं से इसकी व्यवस्था कि, और एक दिन भी नागा किए बिना नब्भे इंजेक्शन का कोर्स पूरा कराया. यह एक निःस्वार्थ सहायता थी। उसने कभी हमारे घर में एक प्याला चाय भी नहीं पी और मेरे ठीक होने के बाद कभी उसने मेरे घर में कदम भी नहीं रखा। स्वर्ग इस दुनिया में ही है और देवदूत भी इसी दुनिया में रहते हैं।

90 इंजेक्शन का वह कोर्स पूरा होने के बाद मैंने ड्यूटी जॉइन कर ली ज्वाइन करते हुए मुझे मालूम हुआ मेरा प्रमोशन हो गया और मैं रिसर्च असिस्टेंट ग्रेड टू बन गया। इस तरह से जिंदगी चलती रही. साहित्य से मेरा इतना ही संबंध था कि मैं कभी-कभी सारिका हिंदुस्तान या धर्मयुग पढ़ लिया करता था। वह भी रेगुलर नहीं। कभी-कभी। सच बताऊं तो मुझे लेखकों से डर लगता था. मैं तो एक बैंड मास्टर बनना चाहता था.

मेरे एक भाई थे सत्येन शरत। मेरी बुआ के लड़के. वे बहुत अच्छे लेखक थे। उनका एक उपन्यास था फिल्म लाइन के ऊपर- क्लोजअप।  बहुत ही शानदार उपन्यास। साप्ताहिक हिंदुस्तान जाने किसी पत्रिका में वह उपन्यास सीरियलाइज हुआ था। मैं अपने उन भाई सत्येन शरतको देखकर बहुत डरता था, जब कभी उनसे सामना होता। दूसरी ओर उस समय के तीन बड़े लेखक राजेंद्र यादव कमलेश्वर और मोहन राकेश, इनका मामला ऐसा था कि साहित्य एक तरफ चलता था और चर्चा में ये ही रहते थे। मै इन तीनों के नाम जानता था। इनके नाम भी मैं इसलिए जानता था कि कभी-कबार कुछ मैगजीन देख लेता था, या सत्येन शरतके छोटे भाई थे शैलेंद्र, उनसे बातचीत होती थी तो वहीं इनके नाम लिया करते थे।

1970-71 की बात है.मैं एक प्रोजेक्ट के सिलसिले में अहमदाबाद जा रहा था। अहमदाबाद एक्सप्रैस के प्रथम श्रेणी के कोच में आभिजात्य से भरा, जो मुझे नौकरी ने दिया था, यात्रा कर रहा था। किसी स्टेशन पर, शायद वह पालमपुर था, मैंने अपना बचा हुआ जूठा खाना, जो अब खाने के काबिल नहीं रह गया था, खिड़की से बाहर फेंका। खाने के पैकेट पर एक जवान औरत और उसके दो बच्चे ऐसे झपटे जैसे वे मिल्कियत लूट रहे हो। मुझे सहसा ऐसा लगा जैसे किसी ने मेरा हृदय मुट्ठी में भींचकर निचोड़ दिया हो। शायद ये शब्द मेरी उस मनोदशा को बताने के लिए अपर्याप्त हैं। वह शब्दातीत थी। यात्राओं के दौरान पता नहीं कितनी बार मैंने ऐसे दृश्य देखें होंगे। मैं कभी उद्वेलित नहीं हुआ। इस बार शायद इसलिए उद्वेलित हो गया कि इस घटना में मैं स्वयं भी एक पात्र था, जिसके फेंके खाने पर एक मां और उसके दो बच्चे झपटे थे। वजह यह भी हो सकती है कि इस समय मैं घटना को संवेदना की आंख से देख रहा था, जो सिर्फ घटना को ही नहीं, घटना के पार और भी बहुत कुछ देख लेती है। मैं बुरी तरह आहत हो गया। ये तीन जोड़ी आंखें मेरा पीछा करने लगीं। वे पूरी यात्रा, अहमदाबाद प्रवास और वहां से लौटते हुए भी निरन्तर मेरा पीछा करती रहीं। वे आज भी कहीं मेरा पीछा कर रहीं हैं। मैं अजीब-सी छटपटाहट से भर गया और यह वैसी ही छटपटाहट थी, जैसी मुझे दर्जा सात में अध्यापकों की रैली में हुई थी। यह अभिव्यक्ति की छटपटाहट थी। इसी छटपटाहट में घर लौटकर मैंने ‘गाय का दूध’ कहानी लिखी। यह कहानी इस घटना पर नहीं है. यह घटना तो मेरी स्मृति की पूंजी है जो मुझे लिखने के लिए प्रेरित ही नहीं करती, बल्कि यह भी बताती है कि मुझे क्या और किनके लिए लिखना है। मैंने यह कहानी ‘सारिका’ को भेज दी और भूल गया। उसमें बहुत प्रतिष्ठित लेखकों की कहानियां प्रकाशित होतीं थी। यह मेरी पहली कहानी थी। एकदम अनगढ़ और जैसी कहानियां साहित्यिक पत्रिकाओं में छपतीं थी, उनसे बहुत अलग किस्म की। लेकिन सुखद आश्चर्य हुआ कि कुछ महीनों बाद मुझे इस कहानी पर कमलेश्वर जी का पत्र मिला। हाथ से लिखा हुआ। बहुत ही सुन्दर राइटिंग में, जैसे मोती माला में पिरोये गए हों। यह पत्र सारिका के पैड पर लिखा हुआ था। इसमें कहानी की बेहद प्रशंसा और प्रकाशन की स्वीकृति थी। मैं यह पत्र पाकर पागल-सा हो गया। अपनी पहली ही कहानी की प्रशंसा में शीर्षस्थ लेखक और कहानी की सर्वोच्च पत्रिका के यशस्वी सम्पादक का उनके ही हाथ से लिखा पत्र निश्चय ही मेरे लिए किसी उपलब्धि से कम नहीं था। मैंने इसे पता नहीं कितनी बार पढ़ा और पता नहीं कितने दिन यह मेरे कुरते की उस जेब में सुशोभित रहा, जिसके नीचे एक धड़कता हुआ दिल होता है। इस पत्र ने मुझे हिम्मत दी और मैं लिखने के बारे में गम्भीरता से सोचने लगा।

प्र.: देहरादून के  साहित्य जगत से आपका कब और कैसे परिचय हुआ? उस वक्त देहरादून में लिखने वाले कौन कौन लोग थे ?   

मैं विज्ञान का विद्यार्थी था और व्यवसाय भी मेरा विज्ञान से ही सम्बंधित था और मेरे पास साहित्य या उसके पठनपाठन की कोई परम्परा नहीं थी। कमलेश्वर जी के पत्र ने लेखन के प्रति मेरा उत्साह बढा दिया था. हेमा ने  मेरा उत्साह देखकर सलाह दी कि मैं साहित्य में एम00करलूं और लिखने के प्रति गम्भीरता से सोचूं। बस यहीं मुझसे अपने जीवन की एक बड़ी भूल हो गई कि मैंने सुबह की क्लासेज में डी.ए.वी. कालेज में एम.ए.(हिन्दी) में एडमिशन ले लिया। स्कूली शिक्षा हमें विशेषज्ञ और विद्वान तो बना सकती है, लेखक नहीं बना सकती। लेखक तो जीवन को देखने की दृष्टि बनाती है। लेखन के लिए भाषा और कच्चा माल हमें जीवन से प्राप्त होता है। अनुभव को रचना और कच्चे माल को फिनिश प्रॉडक्ट में कैसे बदलना होता है यह तमीज हमें महान लेखकों की रचनाएं सिखाती हैं।  

किसी भी लेखक के वास्तविक शिक्षक और गुरू वे सामान्य लोग होते हैं जिन्हें भाषा का व्याकरण नहीं आता, लेकिन वे भाषा की आत्मा के साथ ही जुड़े नहीं होते भाषा के विधायक हैं। उसे बनाते हैं, संवारते हैं और इसे बहुआयामी गतिशीलता प्रदान करते हैं। 

मुझसे पहले सारिका में अवधेश की कहानी छपी थी. लेकिन वह नवलेखन अंक में छपी थी। उस कहानी का शीर्षक शायद- कलथा।  जब मैंने एमए में एडमिशन ले लिया तो मैंने वहां अवधेश का नाम सुना. अवधेश का नाम मुझे याद आया, क्योंकि मैंने उसकी कहानी पढ़ी हुई थी। अवधेश कक्षा में आया तो हर कोई उसी की ओर लपक रहा था. अवधेश अवधेश आया। मैंने सिधे अवधेश से मुलाकात की और पूछा अवधेश तुम लेखक हो?

अवधेश ने भी मुझ से सीधा पूछ लिया, तुम भी लेखक हो ?

मैंने कहा, भैया मेरी एक कहानी सारिका में स्वीकृत हुई है, उसका पत्र आया है. 

अवधेश ने कहा, शाम को डिलाईट रेस्टोरेंट पहुंचो। वहां लेखक मिलते हैं। कहानी लेकर आना और साथ में कमलेश्वर का पत्र भी।

डिलाईट उस समय घंटाघर के पास था। मुझे अपनी रचनाओं और कमलेश्वर जी के पत्र के साथ डिलाइट रेस्टोरेंट में आमंत्रित किया गया, जो उन दिनो बुद्धिजीवियों का अखाड़ा हुआ करता था। मैंने बहुत झिझकते हुए अपनी कुल जमापूंजी तीन कहानियों और कमलेश्वर जी के पत्र के साथ डिलाइट में कदम रखा। दो कहानियां मैं तब तक और लिख चुका था. वहां सुरेश, अवधेश, नवीन, देशबंधु, मनमोहन, नवीन नौटियाल और दो-एक लोगपहले से बैठे थे और काफ्का की किसी कहानी, शायद मैटामॉरफोसिस पर गम्भीर विमर्श कर रहे थे। उनके गम्भीर विमर्श ने मेरे छक्के छुड़ा दिए। इससे पहले मैंने काफ्का का नाम ही नहीं सुना था। खैर, विमर्श बीच में ही रोककर अवधेश ने मेरा परिचय कराया.

यह सुभाष पंत हैं, कहानी लिखते हैं और कमलेश्वर ने इनकी कहानी स्वीकृत की है।  

सभी ने मुझे वह कहानी सुनाने के लिए कहा गया जो ‘सारिका’ में प्रकाशन के लिए स्वीकृत थी। मैंने उनके आदेश का पालन किया और उन्हें ‘गाय का दूध’ कहानी सुनाई। कहानी सुनकर उनके थोबड़े कुछ ऐसे हिले मानों कह रहे हों कोई बात नहीं हमारे साथ रहोगे तो एक दिन कहानी लिखना सीख जाओगे। इसके बाद सुरेश से अपनी कहानी सुनाने के लिए कहा गया। शायद इस वजह से कि मैं जान सकूं कि कहानी कैसे लिखी जाती है। इस कहानी का शीर्षक ‘कीड़ा’ था। यह मेरी समझ में कतई नहीं आई थी, लेकिन इसकी प्रशंसा में सिर हिलाना मेरी मजबूरी थी, क्योंकि मैं अपने को इस साहित्य मंडली के अयोग्य सिद्ध नहीं करना चाहता था। इसके बाद कमलेश्वर जी का पत्र देखा और पढ़ा गया और इसके साथ ही उस मंडली में मेरा कद सबसे बड़ा हो गया। ये सब नई पीढ़ी के साहित्य के लाजवाब लोग थे। इन्होंने खूब पढ़ा था, लिख भी खूब रहे और अपनी रचनाओं के प्रकाशन के लिए संघर्ष कर रहे थे और रचनाओं के ‘सम्पादक के अभिवादन और खेद’ सहित लौट आने का मानसिक संकट झेल रहे थे।

सच बताऊं, ये सारे इतनी खूबसूरत लोग थे कि उसका मैं बयान नहीं कर सकता। ये सब उस समय के ऐसे लोग थे जो शहर में नया साहित्य लेकर आ रहे थे. उससे पहले के दौर में छयावाद के प्रभाव वाला पुराना साहित्य मौजूद था। उनसे होड करते हुए ये लोग नई तरह की चीजें लिख रहे थे। अलग बात है कि उनमें से कोई छप नहीं रहा था। लेकिन ये नई सोच के लोग थे। हर शाम डिलाइट में हमारा जमावड़ा होता। साहित्य पर गम्भीर बहसें होती, सब एक दूसरे को लिखने के लिए प्रेरित करते और लिखे की आलोचना में कसाई का व्यवहार करते। मेरी उनसे दोस्ती हो गई। इनकी संगत से ही में पीपीएच का नाम जाना वहां से सो वे साहित्य आता था गोर्कीको पढ़ा और दूसरे लेखकों को पढ़ा। उससे पहले मैंने कुछ नहीं पढ़ा था। इनका यह कंट्रीब्यूशन बहुत बड़ा है मेरे लिए। अवधेश के साथ भी दोस्ती हो गई। अब शाम को डिलाइट  जाना शुरु हो गया. उसी दौरान अवधेश ने ठेके वाले शराबी पिलानी शुरू कर दी। हालांकि मैं कम ही पीता था। ‘हमने ‘संवेदना’ नाम की एक अनौपचारिक संस्था बनाई, जिससे देहरादून में साहित्य का बहुत अच्छा माहौल बन गया। साहित्यिक मस्ती का अपना उन्माद था। सारे अभाव उसके सामने बौने हो गए थे और हम विनम्र निर्ममता से शहर के साहित्यिक खेमों को ध्वस्त कर रहे थे।

सारिका के ‘आजादी के पच्चीस वर्षः सामान्य जन और सहयात्री लेखक’ विशेषांकों की सीरीज के फरवरी तिहत्तर के अंक में ‘गाय का दूध’ प्रकाशित हो गई। प्रकाशित होते ही इस कहानी ने धूम मचा दी। इस की प्रषंसा में सौ से अधिक तो मुझे पाठकों के पत्र ही मिले। यह अंग्रेजी समेत भारत की अनेक भाषाओं में अनूदित और प्रकाशित हुई। अनेक जगहों पर इस पर गोष्ठियां आयोजित की गईं और इसके नाट्य रूपान्तरण हुए। इस एक कहानी ने मुझे प्रथम पंक्ति के लेखकों में शामिल कर दिया। आज सोचता हूं तो लगता है शायद यह ठीक नहीं हुआ। किसी अनुभव को रचना बनने के लिए लम्बे समय तक अवचेतन में पकना और आत्ममंथन के दौर से गुजरना चाहिए और लेखक बनने के लिए आदमी को संघर्ष के लम्बे रास्ते से गुजरना चाहिए। संयोग से मुझे नौकरी और फिर लेखक की पोशाक बहुत सहज ढंग से प्राप्त हो गई। अगर ये दोनों चीजें मुझे ऐसे न मिलतीं तो अनेक समर्थ कहानियां इन्हें पाने के संघर्ष पर लिखीं जाती, जो मेरी अपना अनुभव किया हुआ सच होता। सफलता जितने संघर्षों के बाद मिलती है वह उतनी ही टिकाऊ और पुख्ता होती है। धीमी आंच में पक कर ही खाने में रस पड़ता है। मेरी राह आसान हो गई। पत्रिकाएं मुझसे कहानी मांगने लगी और मैं जो भी लिखता वह सम्मान के साथ प्रकाशित होने लगा।

कॉलेज, दफ्तर, हर दिन की बैठक-बाजी, रात-रातभर पढ़ना-लिखना तथा अन्य गहमा-गहमी मेरी शारीरिक क्षमताओं से कहीं ज्यादा बड़ी सिद्ध हुई और मैं एक बार फिर बीमार हो गया।एम,ए.फाइनल की परीक्षा तो बीमारी की परवाह न करते हुए मैंने निबटा ली, लेकिन इसके बाद मुझे खाट पकड़ लेनी पड़ी। डाक्टरों ने मुझे टी.बी. घोषित कर दी। मेरे पढ़ने-लिखने पर अंकुश लग गया। एक बार फिर सबकुछ गड़बड़ा गया और बहुत विलम्ब से आरम्भ हुई साहित्य की गाड़ी सहसा पटरी से नीचे उतर गई। पढ़ने-लिखने के सुख की जगह इंजेक्शन, दवाइयां, बेचारगी और सहानुभूतियां।उसी दौरान कमलेश्वर जी का पत्र आ गया, सारिका का अगला अंक समांतर कहानी विशेषांक है, उसमें तुम्हारी कहानी चाहिए। उस बीमारी की स्थिति में ही मैंने कहानी पूरी की और कमलेश्वर जी के पास भेज दी. उधर मुझे सैनिटोरियम जाने का हो गया. मैंने कमलेश्वर को खत लिखा कि मैं सेनेटोरियम जा रहा हूं। उन्होंने उस कहानी का पारिश्रमिक एडवांस में भेज दिया. अभी कहानी छपी भी नहीं थी और जबकि उस वक्त मेरे पास ऐसी कोई मुश्किल नहीं थी.

प्र.: लगातार की बीमारियों से जूझते हुए भी आप लेखन में सक्रिय रहे, यह जानना सचमुच दिलचस्प है. न सिर्फ सक्रिय रहें, बल्कि समांतर कहानी आंदोलन के एक महत्वपूर्ण कथाकार के रूप में भी याद किये जाते हैं, यह आपके लिए ही नहीं हम     देहरादून वासियो के लिए भी गर्व की बात है.

दरअसल वहां सैनिटोरियम में मैंने सही अर्थों में मनुष्यता सीखी। सैनिटोरियम जाते हुए मैं बड़े उत्साह में था. क्योंकि मुझे लगाता था कि मैं लेखक हो गया था और हर जगह कहानियां ढूंढ रहा था. मुझे लगा कि वहां पर खूब कहानियां मिलेंगी। लेकिन वहां जाकर मेरा सारा मोह भंग हो गया। एक ही तरह की परेशानी से घिरे हुए लोग. एक ही तरह की ड्रेस पहने हुए लोग. घंटी बज रही है- भागो। जागो। टूथपेस्ट करो साफ सफाई करो. दूसरी घंटी बज जाएगी! तीसरी घंटी बजेगी नाश्ता आएगा. सेनेटोरियम की जिन्दगी जेल के जीवन की तरह होती है। शहर से दूर एक निर्वासित जिन्दगी, थकी-हारी। कठोर अनुशासन और घंटियों में बंधी दिनचर्या। कैम्पस से बाहर जाने की अनुमति नहीं। बिना पास के बाहर पकड़े गए तो फाइन। रात नौ बजे सोना है। नींद न आए तब भी सोना है। वार्ड के मरीजों की कराहों और खांसियों के बीच सोना है। बत्तियां गुल कर दी जाती हैं। जेल और सेनेटोरियम में फर्क बस यही है कि वहां अपराधी कैद होते हैं, यहां रोगी कैद होते हैं। एक अलग तरह की भाषा थी वहां, जो स्पूटम, एक्स-रे, ईएसआर, निगेटिव, पाजिटिव, नर्स और डाक्टरों के गिर्द घूमती। लेकिन आदमी की जिजीविषा अनन्त है। वह दुःखों में भी खुशी के लम्हे ढूंढ लेता है। मृत्यु अपरिहार्य सच्चाई होने के बाद भी वह अंतिम सांस तक उससे लड़ता है। सेनेटोरियम जाने के बाद मुझे पता लगा कि मैंने जो भी उसके बारे में कहानियां पड़ी है यहां की जिंदगी से मेल नहीं खाती हैं. यहाँ की कहानियां तो उससे कहीं ज्यादा भिन्न है। लोग सेनेटोरियम में प्यार की कहानियां लिख रहे होते हैं. असलियत है, लड़कियों की शक्ल नहीं देख सकते थे आप। आदमियों का हॉस्टल एक तरफ तो लड़कियों का हॉस्टल दूर। आप लड़कियों को देखी ही नहीं सकते थे। सारी कहानियां झूठी है,  एकदम झूठी है।

मैं सैनिटोरियम तो चला गया, लेकिन मैं कभी भी पॉजिटिव साबित नहीं हुआ. मतलब मेरे थूक में कभी भी ट्यूबरक्लोसिस का बैक्टीरिया नहीं पाया गया। वहां हर हफ्ते स्पूटम टेस्ट होता था। सैनिटोरियम में जब मैं एडमिट हुआ तो पहले दिन मुझसे वहा का खाना खाया ही नहीं गया। वहां एक क्रिस्चियन लेडी थी बरनाबास। वह वहां पर नर्स थी। ढलती सांझ के रंग की और ईसा की पवित्र करुणा से भरी हुईवह अधेड़ उम्र की ईसाई महिला थी। वह विधवा थी। उसका शायद एक ही बेटा था जो दिल्ली के किसी पब्लिक स्कूल में पढ़ रहा था। बरनाबास देख रही थी कि मुझसे खाना खाया नहीं जा रहा है, वरना तो वहां मरीज रोटियों के लिए आपस में प्रतियोगिता करते रहते थे कि ज्यादा रोटी कौन खाएगा. वे मानते थे कि ज्यादा रोटी खाने से ज्यादा ताकत आ जाएगी. कोई कहता, मैंने बीस खा ली. कोई कहता मैंने दस खा ली।  

मैंने जीवन में इतनी महान स्त्री कभी नहीं देखी। उसने मुझे देखा और सवाल किया, तू खाना क्यों नहीं खा रहा है?  

मैंने कहा, मैडम मुझसे खाया नहीं जा रहा है।

याद कर तेरी औरत तेरा गेट पर इंतजार कर नहीं कर रही है लौटने का। खाएगा नहीं तो मर जाएगा।

मैंने कहा, मैडम मैं सीख लूंगा खाना। लेकिन आज खाया नहीं जा रहा है।

फिर डांटा उसने मुझे।

हमारे खाने के बाद उसको खाना खाना था. वह चली गई। लौटी तो घर से खाना बना कर ले आई मेरे लिए।

खा मेरे साथ।

खा लिया मैंने खाना। अगले दिन से मैंने मैस का खाना शुरू कर दिया। जीवन उसी तरह चलने लगा. 15 अगस्त आ गया.  

15 अगस्त को सैनिटोरियम में की छूट होती थी. कि आप बाहर जा सकते हैं. लेकिन उसके लिए आपको डॉक्टर से सर्टिफिकेट लेना होता है। एप्लीकेशन लिखनी होती थी कि मैं 15 अगस्त में शरीक होने बाहर जाना चाहता हूं. मैंने एप्लीकेशन लिख दी। मेरी एप्लीकेशन रिजेक्ट होकर आ गई। लेकिन लोगों को तैयार होकर जाते हुए देख मैं अपने आप को रोक नहीं पाया और मैंने भी सोच लिया मैं भी जाऊंगा, जो भी होगा देखा जाएगा। उस दिन हॉस्पिटल की छुट्टी थी और इंचार्ज बरनाबास थी। मैं चला गया परेड देखने। वहा मेला सा लगा हुआ था. कहीं भुट्टा भुन रहा था. भुट्टा खाया।

जब मैं लौटा, बरनाबास बैठी हुई थी. उसने तुरंत कहा, सामान बांध ले। हॉस्पिटल से तुझे छोड़ दिया जा रहा है। और खाना नहीं मिलेगा तुझे। लेकिन थोड़ी देर बाद वह मेरे लिए खीर लेकर आ गई. उस दिन मैस में खीर बनी हुई थी। भगोना भरके लाई थी।

एक रोज मैं डहेलिया की खुशबू, सूरज की कुनमुनी धूप में कैम्पस की कोमल घास में लेटा हुआ था। शाम की चाय की घंटी का आदेश होनेवाला था। उसी की प्रतीक्षा में मुझे नीद का हल्का-सा झटका आ गया। झटके में एक छोटा-सा सपना। उसमें मैंने देखा कि हेम मुझे मिलने आई है। बस इतना-सा सपना और मेरी आंख खुल गई। मेरे गिर्द एक परछाई फैली हुई थी अपनी सुगंध के साथ। परछाई में भी सुगंध होती है। यह तब मैंने पहली बार महसूस किया था। मैंने चौंककर पीछे देखा। वहां सचमुच हेम खड़ी थी। वह एक दृढ़ निश्चय के साथ आई थी कि मुझे रोगमुक्त कराकर ही मेरे साथ वापस लौटेगी। और ऐसा हुआ भी।इतने में ही दूसरी तरफ से बरनाबास आई। उसने मुझे लेटे हुए देखा. हेम पास में बैठी थी.

अरे, तेरी दुल्हन है क्या? बड़ी सुंदर है यह तो। बहुत खूबसूरत लड़की है।

हेम को वह अपने साथ ले गई। बाद में जब हेम मेरे पास लौटी तो उसने बताया कि मेरा तो रहने का इंतजाम हो गया। मैंने पूछा कहां हो गया। बोली बरनाबास ने कहा मेरे यहां रह लो। मेहमान की तरह रखा उसने उसे. कंडीशन लगायी मेरे ऊपर कि मैं उससे मिलूंगा नहीं और वह मुझे मिलने नहीं आएगी।

यह मेरे साथ रहेगी।

इस बीच मेरी दूसरी कहानी सारिका में छप कर मेरे पास वही पहुंच गयी. सारे में हल्ला हो गया कि मैं तो लेखक हूं। उसका फायदा यह मिला कि मैंने कॉटेज के लिए अप्लाई किया हुआ था, मुझे मिल गया। वह कॉमन वार्ड के अलावा कुछ कॉटेज भी थे। बस उस कहानी ने मुझे वह दिलवा दिया। अब तो हम कॉटेज में रहने लगे। कॉटेज में होता यह था कि कोई डॉक्टर आपको देखने नहीं आता था. आपको कोई परेशानी है तो आपको ही बताना होगा। तब डॉक्टर काटेज में विजिट करता था.

अगले ही महीने मेरे सारे परीक्षण सिवाय रक्त की ई.एस.आर.के. पूरी तरह सामान्य निकले। सालभर दवाइयां खाने और हर तीन महीने के बाद कसौली में आकर चैक-अप कराते रहने के परामर्श के साथ मुझे सेनेटोरियम से छुट्टी मिल गई। बरनाबास ने हमें सजल नयनो से विदा किया। उसकी आंखें भारी थीं। रुंधे गले से उसने कहा था कि देहरादून पहुंचकर हम उसे पत्र लिखें। वापसी की इस यात्रा में सबसे पहले तो मैंने सेनेटोरियम से एक माह के लिए दी दवाइयां फेंकी और फिर उनके दिए प्रैस्क्रिप्शन को चिदर-चिदरे करके हवा में उड़ा दिए। मैंने न फिर उनकी बताई कोई दवा खाई और न चैक-अप के लिए कसौली गया। वह कसौली की मेरे जीवन की पहली और अंतिम यात्रा थी। इसके बाद मैं लगभग तीस साल तक बीमार भी नहीं हुआ, सिवाय सर्दी-जुकाम जैसी मौसमी बीमारियों के। देहरादून लौटकर मैंने बरनाबास को भी कोई पत्र भी नहीं लिखा। मेरे पास शब्द ही नहीं थे। उसने हमारे लिए जो किया था उसके लिए धन्यवाद शब्द बहुत छोटा था। सचमुच ऐसा होता है जीवन में बहुत बार कि भावना को व्यक्त करने के लिए शब्द ही नहीं मिलते। शब्दों की एक सीमा है और भावनाएं सीमाहीन हैं।

प्र.: आपकी बातों से लग रहा है कि दो कहानिया सारिका में प्रकाशित होने तक तो आपकी कमलेश्वर जी से मुलाकात हुई नहीं, फिर उनसे कब और कैसे मिलना हुआ?

बीमारी और फिर सेनेटोरियम चले जाने से मेरा लिखना-पढ़ना पूरी तरह खत्म हो गया था। दरअसल लिखने का मेरा विश्वास ही डगमगा गया था। तभी कमलेश्वर जी का आत्मीय आग्रह से भरा पत्र आ गया। उनकी हार्दिक इच्छा थी कि अगर मेरी सेहत इजाजत दे तो मैं कलीकट में होनेवाले ‘समान्तर सम्मेलन’ में आ जाऊं। मेरा स्वास्थ्य इतनी लम्बी यात्रा के योग्य नहीं था। लेकिन कमलेश्वर जी से मिलने का मोह और वरिष्ठ लेखकों के साथ कुछ समय बिताने कामुझे भी वह एक अवसर लग रहा था. क्योंकि उससे पहले मैं किसी लेखक से मिला नहीं था. देहरादून के अपने कुछ दोस्तों के साथ मिलता था जरूर। मैंने अपनी स्वीकृति भेज दी। अगला पत्र इब्राहिम शरीफ ने भेजा. सारा अरेंजमेंट इब्राहिम शरीफ कर रहा था। योजना यह थी कि पहले सारे लेखक मद्रास में रुकेंगे और वहां से एक साथ ही कालीकट जाएंगे। मद्रास मेरे लिए नई जगह नहीं थी. उससे पहले भी मैं मद्रास गया हुआ था।

मैं मद्रास पहुंच गया. स्टेशन में क्लॉक रूम में मैंने सामान रख दिया। वेटिंग रूम में फ्रेश-व्रेश होकर तैयार हो गया। बाहर निकला. उम्मीद कर रहा था कि कोई बैनर-वैनर लगा हुआ होगा कार्यक्रम का. लेकिन कहीं कुछ नहीं था. मैं परेशान हो गया। इब्राहिम शरीफ का मेरे पास पता था-मैलापुर। मद्रास मेरे लिये उस तरह अनजाना नहीं था. मैंने लोकल बस पकड़ी और मेलापुर पहुंच गया। जहां पर में उतरा वहां कुछ दुकानें थी. लेकिन समस्या भाषा की थी. मैं हिंदी में पूछता था, उन्हें हिंदी नहीं आती थी. अंग्रेजी में पूछता हूं, अंग्रेजी नहीं जानते थे। इब्राहिम शरीफ मिल नहीं रहा था। अल्टीमेटली एक दुकानदार को कुछ समझ आया. उसने मुझसे पूछा, मुस्लिम फेलो ? मुस्लिम ?

इस देश में पहचान हिंदू और मुसलमान है।

मैंने कहा, जी. तो उसने रास्ता बताया। अंततः में एक घर के आगे पहुंच गया मैंने घंटी बजाई अंदर से आवाज आई क्या सुभाष पंत  है ?

हां, मैंने कहा, भाई मैं ही हूं।

उस शख्स ने कहा मैं इब्राहिम शरीफ का भांजा हूं। और मेरी ड्यूटी थी आपको लाना। लेकिन मैं आपको पहचानता नहीं था। तब मैंने सोचा, आप इतने बड़े लेखक हैं तो यहां तक तो पहुंच ही जाएंगे।

उसने मुझे एक रिक्शे पर बैठा दिया. मेरा सामान क्लॉक रूम में ही था. मेरे पास कुछ था भी नहीं और मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं कहां जा रहा हूं। रिक्शावाला मुझे काफी दूर ले गया. एक गेट के आगे उसने रिक्शा रोक दिया. वहां गेट पर एक सुदर्शन सा व्यक्ति खड़ा था। रिक्शा वाले ने उस व्यक्ति से कुछ कहा, वह व्यक्ति लपक कर मेरे पास आया उस मुझे गले लगाते हो कहा, सुभाष मैं इब्राहिम शरीफ.

तो पहला पहला लेखक जिसके में गले लगा, वह इब्राहिम शरीफ था।

इब्राहीम शरीफ ने लान में टहलत लेखकों से मेरा परिचय कराया। ये थे कामतानाथ, हिमांशु जोशी, श्रवण कुमार, से.रा. यात्री, मधुकर सिंह, आशीष सिन्हा। सब ने बहुत आत्मीयता से मिले। लगा ही नहीं जैसे वे एक नए लेखक से मिल रहे। कामता जी ने पूछा, ’सुभाष तुम्हारा सामान कहां है।

’वह तो मैं क्लाकरूम में जमा करा आया हूं।’

’वाह तुम वाकई समान्तर के सबसे स्मार्ट लेखक हो। क्लाकरूम की रसीद शरीफ कोदे दो। कल कालिकट जाते समय वह तुम्हारा सामान छुड़ा लेगा। ऊपर हमारा सामान खुला पड़ा है, तुम बिना किसी संकोच किसी के सामान का इस्तेमाल कर सकते हो।

शरीफ़ ने रसीद लेते हुए मुझसे पूछा कि क्या मैं अभी कमलेश्वर जी से मिलना चाहोगे या तैयार होने के बाद मिलेगे। वे तुम्हे लेकर बहुत चिंतित हैं। कई बार तुम्हारे बारे में पूछ चुके हैं।

मेरे जवाब देने से पहले ही कामता जी ने कहा, ’सुभाष बहुत स्मार्ट है, यह तो पहले से ही तैयार है। कमलेश्वर कई बार इनके बारे में पूछ रहे हैं तो अभी मिलवा दो।’

मैंने भी उसी समय कमलेश्वर जी से मिलने को तैयार हो गया।

गलियारा पार कर शरीफ़ ने कमरे का दरवाजा खटखटाकर आवाज दी, ’कमलेश्वर जी आपके लिए एक गिफ्ट लाया हूं।’

’क्या उपहार लाए हो?’

’देहरादून से सुभाष।’   

’यह तो वाकई उपहार है।’ कमलेश्वर जी की जादूभरी आवाज़ आई।

दरवाजा खुला और कमलेश्वर जी ने मुझे अपनी छाती से लगा लिया। कमरे में ले गए और मेरी सेहत वगैरह के बारे में पूछते रहे। फिर उन्होंने आवाज़ दी, ’हेमा आओ हम तुम्हें अपने दोस्त से मिलवाते हैं।’

मैं चौंका। मेरी पत्नी का भी यही नाम है। लेकिन मिलने के लिए जो महिला आई वह दक्षिण भारत सिने जगत की कोई शख्सियत थी। यह बंगला भी उसी का था, जहां लेखकों को टिकाया गया था।

’ये सुभाष पंत हैं, देहरादून से आए हैं। बड़े लेखक हैं।’

मुझे संकोच हुआ। उस समय तक मैं सिर्फ दो कहानियों का लेखक था। दोनों कहानियां संयोग से सारिका विशेषांकों में प्रकाशित थीं।

औपचारिक अभिवादन के बाद कमलेश्वर जी ने कहा, ’हेमा इनके लिए चाय भिजवाओ।’ फिर मेरी ओर मुखातिब होकर बोले, ’सुभाष मुझे माफ करना, मैं तुम्हारे साथ चाय नहीं पिऊंगा, मैने अभी चाय पी है।’

कुछ ही देर बाद एक सेविका दक्षिण भारत तरीके से चाय ले आई। आधी प्लेट में और आधी प्याले में।

मैंने चाय पीने के लिए प्याला उठा ही रहा था तो कमलेश्वर जी ने कहा, ’एक मिनट रुको सुभाष। प्याले से टपकती चाय से तुम्हारी पैट खराब हो जाएगी।’ उन्होंने मेरे सामने से प्लेट प्याला उठा लिया। सैक में प्लेट की चाय रिताकर उसे साफ किया और प्लेट-प्याला मुझे वापिस करते हुए कहा, ’अब आराम से चाय लो। पैंट पर टपकेगी नहीं।’

मैं हतप्रभ था। लग रहा था, जैसे मैं कोई सपना देख रहा हूं।



प्रश्नकर्ता: विजय गौड़

देहरादून में गोदान का सफल मंचन

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यह स्‍वीकृत सत्‍य है कि नाटक अभिनेता/ अभिनेत्री का माध्‍यम है और इसी बात को एक बार फिर से साबित किया वातायन द्वारा मंचित नाटक गोदान ने। गोदान का मंचन  3 एवं 4 मार्च 2023 को टाउन हाल देहरादून में संपन्‍न हुआ। मंजुल मयंक मिश्रा क निर्देशन में खेला गया यह नाटक वातायन के युवा और वर्षो से रंगमंच कर रहे रंगकर्मियों का ऐसा सुंदर संतुलन था जिसमें निर्देशकीय समझ निश्चित ही सफलता का एक पैमाना बन रही थी।   

प्रस्‍तुति के लिहाज से संदर्भित नाटक ने न सिर्फ वातयान को ऐतिहासिक सफलता से गौरवान्वित होने का अवसर दिया, अपितु देहरादून रंगमंच के लिए भी यह प्रस्‍तुति एक यादगार प्रस्‍तुति के रूप में याद रखे जाने वाले इतिहास को गढने में सफल कही जा सकती है। 

 

संदर्भित नाटक का आलेख,हिंदी में यथार्थवादी साहित्‍य के प्रणेता कथाकार प्रेमचंद के प्रसिद्ध उपन्‍यास ‘’गोदान’’ के आधार पर तैयार किया गया था और उपन्‍यास की उस मूल कथा को आधार बनाकर रचा गया है, आजादी पूर्व भारतीय किसान के जीवन की त्रासदी के प्रतीक के रूप में जिसके मुख्‍य चरित्र होरी के  जीवन का खाका प्रमुख तरह से प्रकट होता है। यानि ग्रामीण समाज के जंजाल को ही नाटक में प्रमुखता से उकेरा गया है। यद्यपि नाटक के उत्‍तरार्द्ध में गांव से भाग कर,शहरी जीवन के अनुभव से विकासित हुए गोबर के चरित्र की एक हल्की झलक भी मिल जाती है। लेकिन शहरी जीवन के छल छद्म और आजादी पूर्व के ग्रामीण समाज के जीवन को प्रभावित कर रही शहरी हवा और इन अर्न्‍तसंबंधों को परिभाषित करने वाले गोदान उपन्‍यास के अंशों से एक सचेत दूरी बरतते हुए निर्देशक ने जिस नाट्य आलेख के साथ गोदान को प्रस्‍तुत करने की परिकल्‍पना की,उसने नाटक की सफलता की जिम्‍मेदारी होरी और धनिया के कंधों पर पहले ही डाल दी। यानि नाट्य आलेख के इस रूप ने भी निर्देशक को पार्श्‍व में धकेलते हुए पात्रों को ही असरकारी भूमिका में प्रस्‍तुत होने का एक अतिरिक्‍त अवसर दिया। मंचन के दौरान यह स्‍पष्‍टतौर पर दिखा भी। धनिया के पात्र को जीते हुए सोनिया नौटिायन गैरोला और होरी की भूमिका में धीरज सिंह रावत ने निर्देशकीय मंतव्‍य को प्रस्‍तुत करने में अहम भूमिका अदा की। बल्कि यह कहना ज्‍यादा उचित होगा कि होरी के परिवार के अन्‍य पात्रों:  सोना के रूप में अनामिका राज, रूपा की भूमिका में सिद्धि भण्‍डारी और गोबर की भूमिका में शुभम बहुगुणा दर्शकों की निगाहों में ज्‍यादा प्रभावी तरह से प्रस्‍तुत होते रहे। लेकिन यह भी सत्‍य है कि अवसर की अनुकूलता के कारण से ही नहीं,अपितु अपने जीवन के सम्‍पूर्ण अनुभव को प्रतिभा के द्रव में घोलकर जिस तरह से सोनिया नौटियाल गैरोला ने धनिया के किरदार का जीवंत रूप में प्रस्‍तुत किया,उसे उनका दर्शक‍ एक लम्‍बे समय तक भुला नहीं पाएगा। रंगकर्म के अपने छोटे से जीवन में ही एक परिपक्‍व अभिनेत्री के रूप में सोनिया नौटियाल गैरोला को देखना और वैसे ही छोटे अंतराल के रंगकर्म के सफर में होरी के किरदार धीरज सिंह रावत का अभिनय इस बात की आश्‍वस्ति दे रहा है कि दून रंगमंच अपने ऐतिहासिक मुकाम की नयी यात्रा पर आगे जरूर बढेगा। रंग संस्‍था वातायन के लिए भी यह आश्‍वस्‍तकारी है कि नये-उत्‍साही और गंभीरता से नाटक करने वाले रंगकर्मियों का इजाफा उनके यहां हुआ है।

उम्‍मीद की जा सकती है कि गोदान के मंचन की यह सफलता वातायन को नयी ऊर्जा से जरूर भरेगी। बेहतर टीम वर्क ही उल्‍लेखित नाटक के मंचन  की सफलता को तय करता हुआ दिख रहा था। संगीत और प्रकाश का खूबसूरत संयोजन भी नाटक को प्रभावी बनाने में अहम भूमिका अदा कर रहा था।




उपयोग की जा रही सभी तस्‍वीरों के लिए जयदेव भट्टाचार्यका आभार। तस्‍वीरें उनके कैमरे का कमाल हैं।  

महा परियोजनाओं का सांस्कृतिक परिदृश्य

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देहरादून की नाट्य संस्था वातायन ने पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह की  पहलकदमी दिखाई है,नाटकों के मंचन किये,इसमें कोई दो राय नहीं कि देहरादून रंगमंच के इतिहास में वह हमेशा दर्ज रहेगी. उन पर निगाह डाले तो आश्चर्यजनक खुशी मिलती है. मूल रूप से रंगमंच के लिए समर्पित इस संस्था की पिछली चार नाटय प्रस्तुतियां अपने विषय के कारण उल्लेखनीय कही जा सकती है. दिलचस्प है कि ये चारों प्रस्तुतियां कमोबेश अपने अपने तरह से भारतीय स्वतंत्रता के संघर्ष की कहानी और उस दौर के सामाजिक राजनैतिक और आर्थिक परिदृश्य पर ध्यान खींचतीं हैं. 2019 में रचा गया और मंचित किया गया नाटक दांडी से खाराखेत तक.स्वतंत्रता आंदोलन के दौर में देश भर में व्याप्त नमक सत्याग्रह आंदोलन की आवाज देहरादून में लून नदी में नमक बनाने की कार्रवाई के साथ सुना गया था,नाटक उसी अल्पज्ञात इतिहास को सामने लाने के लिए गोरखाली समाज के नायक और नमक सत्याग्रह आंदोलन के दौरान ही गांधी जी के सम्पर्क में आए खड‌क बहादुर सिंह के नायकत्व को स्थापित करने की कोशिश करता है. उसके बाद  2022 में नागेंद्र सकलानी एवं तिलाड़ी कांड को आधार बना कर रचे और मंचित किया गया नाटक- मुखजात्रा,और आजादी के अमृत महोत्सव वर्ष 2022-23 के  दौरान कथाकार प्रेमचंद के सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यास गोदानपर आधारित नाट्य आलेख का मंचन और इस माह अगस्त 11 एवं 12 की सबसे ताजा प्रस्तुति वीर चंद्र सिंह गढवाली’.    


इन चारों प्रस्तुतियों की एक खास बात यह है कि इनके नाट्य आलेखों को तैयार करने में वातायन के कलाकारों की भूमिका विशेष रही है और इनके प्रथम मंचन भी वातायन ने ही किये. दांडी से खाराखेतका नाट्य आलेख वातायन द्वारा 2019 में आयोजित उस रंग शिविर में तैयार हुआ जिसका संचालन निवेदिता बौंठियाल द्वारा किया. नाटक का निर्देशन निवेदिता बौंठियाल ने किया. लगभग 40-42 वर्ष पहले निवेदिता बौंठियाल (उनियाल) रंगमंच के अपने सफर की शुरुआत वातायन से ही की थी और पिछले लगभग 30-35 वर्षों से वे बम्बई में एवं कलाकार के रूप में सक्रिय हैं. मुखजात्रा सुनील कैंथोला द्वारा लिखे और प्रकाशित नाटक को एक रंग शिविर में मंचिय प्रक्रिया तक पहुंचाने का उपक्रम बना था. यह रंगशिविर उत्तराखण्ड के प्रसिद्ध रंगकर्मी डॉ सुवर्ण रावत के नेतृत्व में सम्पन्न हुआ था और वे ही नाटक के निर्देशक थे.सुनी सुनायी खबरों के हवाले से यह रंगशिविर गढवाल महासभा ने अयोजित किया था.शायद इसीलिए नाटक का पहला मंचन प्रशासन द्वारा आयोजित कौथीग-2022 में हुआ हो. कुछ दिनों बाद नाटक में कुछ मामूली बदलावों के साथ नाटक का मंचन टाउन हाल देहरादून में वातायन की ओर से किया गया और डॉ सुवर्ण रावत ही नाटक के निर्देशक थे. गोदान की स्क्रिप्ट को नाटक के निर्देशक मंजुल मयंक मिश्रा ने प्रेमचंद के उपन्यास के कुछ खास हिस्सों को लेकर तैयार किया. वीर चंद्र सिंह गढवालीके मंचन के दौरान वितरत फोल्डर से नाटय स्क्रिप्ट के लेखक के बारे में तो कोई सूचना नहीं मिलती है,लेकिन मंचन से पूर्व उदघोषक की सूचना से जानकारी मिली थी वातायन के कुछ युवा साथियों द्वारा यह नाट्य आलेख राहुल सांकृत्यायन द्वारा वीर चंद्र सिंह गढवाली की लिखी जीवनी पर आधारित है.    

चारों नाटको के विषय चयन को देखते हुए यह ध्यान बरबस ही जाता है कि कुछ बड़ा करने और बड़ा रचनेकी सदइच्छाओं के साथ वातायन लगातर अपने आपको तैयार करता जा रहा है. अति महत्वकांक्षा से भरी वातायन की यह परियोजना दून रंगकर्म पर किस तरह से प्रभाव डाल रही है और शेष भारत की साहित्यिक सांस्कृतिक गतिविधियों से इनका क्या रिश्ता है ?उसे समझना चाहें तो वह समीकरण ही दिखाई देगा जिसका कमोबेश लक्ष्य यही होता है कि दिखती हुई दूरी के साथ अंदरखाने सत्ता से एक सम्पर्क सधा रहे ताकि कार्यक्रम आयोजित करने के लिए बजट,पुरस्कार,विदेश यात्राएं जैसे मिलने वाले लाभ झोली में बने रहें. गतिविधि विशेष को अलोचना के दायरे में  लाए बगैर भी कहा जा सकता है कहाँ सिर्फ विषय भर से और कहाँ विषय को एक सीमा तक तोड़ मरोड करके शुद्ध सांस्कृतिककर्म किया जा सकता है और इतना ही नहीं,जनपक्षीय तक बना रहा जा सकता है. नाटक सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की काव्य रचना राम की शक्ति पूजा से लेकर प्रेमचंद का गोदान के सहारे देशभर में नहीं विदेशों तक घूमा जा सकता है. बिना इस और सोचे हुए कि हवाई खर्चे से लेकर महंगे होटलों तक में रुकने की सुविधा के खर्च कहां से आते होंगे,कविकुंभोंका हिस्सा हुआ जा सकता है. 

 

किसको पिता तुल्य कह दिया गया और किस तरह आयोवा हुआ जा सकता है,जब यह आज छुपाया नहीं जाया जा पा रहा है तो क्यों नहीं माथे पर त्रिपुंड लगाकर चिढाती हुई  हंसी हो लिया जाये?मंदिर के नाम पर दिए गए चंदे के चेक को लहरा लिया जाए. पुरस्कार वापसी जैसी जबरदस्त कार्रवाई का हिस्सा होते हुए बहुत भी आयोजित हो रहे किसी कार्यक्रम का चुपके से हिस्सा हो लिया जाये?साहित्य अकादमी ही आयोजक हो चाहे. तो फिर क्या हाल ही में मंचित वातायन के नाटक वीर चंद्र सिंह गढवालीभी उस महत्ती परियोजना का सबसे विकसित रूप तो नहीं जिसकी शुरुआत नजीबाबाद का इफ्तार हुसैनवाली मासूमसंस्कृतिक चिंता से हुई थी?

चलिए,इसको थोड़ा परख लिया जाए और नाटक के उस अंतिम दृश्य को याद कर लिया जाए जो नाटक की टैग लाइन बना दिया गया- आखिर क्या दिया?क्या दिया?क्या दिया?और इस बात तक को दरकिनार कर दिया जाए कि एक इक्लाबी चरित्र किस तरह रिड्यूस होकर अपनी गरिमा खो दे रहा है. यह दृश्य आजादी के बाद उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा पेशावर कांड के सिपाही वीर चंद्र सिंह गढ़वाली को दी गई तुच्छ पेंशन पर सवाल उठाते हुए नाटक का अंत करता है और यहीं पर नाटक का किरदार- राहुल सांकृत्यायन चीख चीख कर चिल्ला रहा है - आखिर क्या दिया?क्या दिया?क्या दिया?इतना नहीं  अपने साथी किरदार के साथ जीवन की घटनाओं को शेयर करता वीर चंद्र सिंह गढवाली का किरदार भी दाहड़ मारकर रोते हुए वही दोहरा रहा है - आखिर क्या दिया?क्या दिया?क्या दिया?नाटक अपने अंत की ओर है और पार्श्व से अन्य कलाकार भी अब मंच पर आकर उतनी ही तीखी आवाज और कोरस के से स्वर में दोहरा रहे हैं - आखिर क्या दिया?क्या दिया?क्या दिया?


यह आरोप नहीं बल्कि उस अनुगूंज को याद दिलाना है,पिछले कुछ सालों से जिसका हल्ला खूब सुनाई दे रहा है कि मानो भारत देश मात्र आठ दस साल पहले आजाद हुआ हो और अब आजाद देश की जो पहली सरकार है,वह पहले के दौर की सरकारों से भिन्न है.

सरकारी चरित्र में वास करती अमानवीयता को छुपाते हुए गैर राजनैतिकदिखने का यही साहित्यिक-सांस्कृतिक तरीका है. और यही समझदारी तथ्यों में हेर फेर कर देने का उत्स होती है. देख लेते हैं कि राहुल सांकृत्यायन द्वारा लिखी जीवनी में पेशावर कांड के सिपाही की स्थिति क्या है, 

“ ... 25  जुलाई 1955  को उत्तर प्रदेश सरकार ने लिखा कि राज्यपाल को इसके लिये बड़ी प्रसन्नता है कि चन्द्र सिंह गढ़वाली को अब १४ रुपया मासिक आजीवन पेन्शन दी जायगी। यह जले पर नमक छिड़कना था। भला आजकल के जमाने में 14 रुपये से क्या बनता है? बड़े भाई ने 16  अगस्त 1955 को सरकार को चिट्टी लिखकर इस पेंशन को स्वीकार करने से इंकार कर दिया। यह खबर समाचार-पत्रों में भी प्रकाशित हुई। बड़े भाई की चिट्टी का कुछ अंश निम्न प्रकार है-

.. मेरी उमर 65 साल की है। आपने 14  रुपये मुझे पेंशन दिये हैं। क्या मैं यह समझँ कि हमारे गणतन्त्र राज्य ने मेरे लिये अन्तिम कार्य के लिये उपरोक्त पेंशन ही उचित और काफी समझी....? मैं आपके भेजे हुये पेंशन के पत्र को वापस करता हूँ.... । क्षमा । “[1]


कोई भी रचना या कलाकृति अपने समकाल से निरपेक्ष नहीं हो सकती। किसी बदले हुए समय में उसके पाठ भी अपने समय भिन्न कैसे हो सकते हैं फिर। राहुल सांकृत्यायन के पात्र के माध्यम से नाटक का यह अंत आखिर कहना क्या चाहता है? यह बिंदु अहम रूप से विचारणीय है। यह एक बड़ी विडंबना है,जब रचनात्मकता सत्ता की भाषा हो जाना चाहती है और एक नायक के जीवन से केवल उन क्षणों को

चुनती है जो उसके द्वारा चुन लिए गए अंत का विकास कर सकते हैं
,या थोड़ा बहुत तोड़ मरोड़ कर,कुछ अतिरिक्त जोड़ घटाकर,वैसा कर सकने में सहायक हो सकते हैं।

 



राजनैतिक पार्टी और सरकार के फर्क को भूला देने वाली राजनीति की चेतना ही पेशावर के नायक वीर चंद्र सिंह गढ़वाली जेल जीवन के दौरान डिप्रेशन में दिखा सकती है। उसे खुद के कपड़े फाड़ कर बिलख बिलख कर रोता हुआ दिखा सकती है। वरना राहुल सांकृत्यायन द्वारा लिखी वीर चंद्र सिंह गढ़वाली की जीवनी पेशावर कांड का घटनाक्रम घटने से पहले ही नहीं,बल्कि बाद में सजा पाए गढ़वाली को भी जेल में अन्य कैदियों के साथ सम्पर्क बनाये रखते हुए ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ संघर्ष करते वीर का परिचय देती है। मूल जीवनी का निम्न हिस्सा यहां देख सकते हैं,

इस एकान्त काल कोठरी में चन्द्र सिंह कभी सोचते— “चन्द्र सिंह, तुम क्या कर बैठे ? मारे जाओगे। पिता, स्त्रि[i]याँ, बच्चे सदा के लिये तुमसे छूट चुके । तुम इस अंधेरी कोठरी में पड़े हुए हो, न जाने कब तक के लिये ?"

फिर उनके मन में यह सोचकर गर्व हो उठता- "चन्द्र सिंह शाबाश, तुमने मानुष जीवन का फल पा लिया। अपनी तुच्छ शक्ति के अनुसार तुमने देश माता के लिये यह सब कुछ किया। देश-भक्ति कसूर नहीं है। यह शर्म करने या घबराने की चीज नहीं है। तुमने अपने जीवन की कीमत वसूल कर ली। अपने परम कर्त्तव्य को पूरा कर लिया। जब तक साँस चलती है, तब तक इस कोठरी में आनंद से रहो। जो तुम चाहते थे, वही तुमको मिला।"वह इस प्रकार के विचारों में अपने आपको भूल गये इसी समय बूटों की आहट से उनका ध्यान टूटा। जंगले से बाहर शौककर देखा कि नम्बर १ और नम्बर ४ प्लाटून के सैनिक जा रहे हैं उन्होंने जोर से आवाज़ दी — “ जवानों, घबड़ाना मत। मैं भी यहीं हूँ” [2]

                                              

सिर्फ अपने बारे में,परिवार,मां,बाप,पत्नी और बच्चों के बारे में सोचते हुए अपने किये पर पश्चाताप करते हुए डिप्रेशन का शिकार होकर विक्षिप्त अवस्था को प्राप्त हो चुके चन्द्र सिंह गढवाली को प्रस्तुत करने के लिए पूरे नाटक का जो ताना बाना बुना गया उसकी शुरुआती झलक एक मांगल गीत से होती है. जिसे गाते हुए कलाकार दर्शकों पर फूल बरसाते हुए एक दम बीचोंचीच से जाते हुए गुजरते हैं,मंच पर सामूहिक अभिनंदन करते हैं और विंग्स के पीछे निकल जाते हैं. यहाँ उस तरह की ओपनिंग और मंगल गीत की प्रासंगिकता का सवाल करना बेमानी है क्योंकि अभी आप नहीं जानते कि नाटक किस तरह से डेवेलप होगा. और वह अपने पहले दृश्य में उस बालक च्न्द्र सिंह से परिचित कराता है जिसकी बहादुरी का यह किस्सा नाटय टीम  के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण है कि कैसे बालक चंद्र सिंह एक क्रोधित अंग्रेज अधिकारी के सिर पर एक तांत्रिक के मंत्र से शक्तिकृत भभूत चुपके से छिडक कर उसके क्रोध को कम कर देता है और निर्दोष लेकिन गुनहगार ठहराये जा रहे गांव वाले सिर्फ छोटे से जुर्माने की सजा में ही निपट जाते हैं.

अगले दृश्य पार्श्व में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आक्रोशित जनसमूह की आवाजें हैं,मंच पर हवलदार चन्द्र सिन्ह और उसकी बटालियन के दूसरे सिपाहियों को जनता पर गोली चलाने का हुक्म देते अंग्रेज फौजी अफसर हैं और जवाब में अपने साथियों सीज फायर का हुक्म देता हवलदार चन्द्र सिन्ह है.यही है पेशावर विद्रोह. जो ऐसे लगता है जैसे एकाएक घटा हो. ऐसा नहीं है कि तैयारी की आवश्यक कार्रवाइयों के विवरण राहुल संकृत्यायन द्वारा लिखी जीवनी में न हो. लगभग 415 पृष्ठ और 26 प्र्करणों में लिखी मूल जीवनी के लगभग 350 पृष्ठ ऐसे ही विवरणों से भरे हैं. लेकिन नाटय टीम की दिक्कत है कि यदि वह उन विवरणों के एक छोटे से प्रकरण को भी मंच पर लाए तो दो समस्यायें हैं.

1.      नाटक की समयावधि बढ सकती है क्योंकि बाकी वे हिस्से तो उसके लिए जरूरी ही हैं जिनसे अपनी कर्रवाई पर पछताते हुए असहाय से दिखते चंद्र सिंह के प्रति दर्शकों के भीतर सहानुभूति का भाव उपजाने और अपने लक्ष्य तक पहुंचना है.

2.      वैसे दूसरी दिक्कत ज्यादा बड़ी है,क्योंकि दर्शकों के भीतर पहले से ही मौजूद वीर चंद्र सिंह गढवाली की छवि को तोड‌ना तो मुश्किल ही हो जाएगा तो फिर अपनी पेंशन के लिए लाचार होकर गिडगिडाते चंद्र सिंह गढवाली को कैसे दिखाया जा सकता था.

घटनाक्रम के बाद जेल जीवन के दृश्य हैं और उससे पहले मोर्चे से वापिस भेज दिये गए बगावती सिपाहियों की आपसी बतचीत है. जिसमें चन्द्र सिन्ह के आर्यसमाजी हिंदू होने का खुलासा नाटय टीम को ज्यादा महत्वपूर्ण लगा है. खैर,प्रसंगों के चयन में  नाट्य टीम की स्वतंत्रता को सवाल क्यों किया जाए ?जबकि राहुल सांकृत्यायन की मूल जीवनी और पृष्ट 198 में दर्ज एक ऐसा ही विवरण हमारे पास हो,उसे देख लेते हैं,

            “चन्द्र सिंह के ऊपर आर्यसमाजी होने की बात कह करके एक और इल्जाम खड़ा किया गया था, जिसके लिये कोर्ट मार्शल ने एबटाबाद के डिप्टी कमिश्नर लेफ्टिनेंट कर्नल एम० ई० रेकी से गवाही ली थी, बयान भी लिया था।“[3]

यह विवरण राहुल उस वक्त देते हैं जब चंद्र्सिंह को बगावत का गुनाहगार घोषित करने के लिए सरकारी गवाह सूबेदार जय सिंह और सूबेदार त्रिलोक सिंह के बयानों का जिक्र मूल जीवनी में हो रहा है. सवाल है पेशावर कांड के वीर सिपाही को आर्यसमाजी हिंदू साबित करके वातायन नाट्य दल क्या कहना चाहता है. यहां यह आग्रह  नहीं कि वातायन को नागेंद्र सकलानी हो चाहे चन्द्र सिंह गढवाली, दोनों की कम्यूनिस्ट पहचान दिखानी ही चाहिए थी. जबकि अपनी परियोजना के सबसे मह्त्वपूर्ण नाटक मुखजात्रा में नागेंद्र सकलानी की मूल पहचान-कम्यूनिस्ट को छुपाने का एक इतिहास पहले से है. मूल जीवनी से चन्द्र सिंह गढवाली की जो छवि बंनती है उसकी एक बानगी यहां प्रस्तुत है कि अपने जनसमाज के बारे में वह समझदारी क्या थी,  


“हमारे गढ़वाल में ताँबा -लोहे की खानें हैं। नाना प्रकार की जड़ी-बूटियाँ, औषधियाँ हैं। पत्थर, लकड़ी है, कागज बनाने की सामग्री, मधु, शिलाजीत, इंगुर, फूल और फलों से जंगल सम्पन्न हैं। इससे भी बड़ी और महत्व की चीज बहती हुई गंगा की धारा है, जिससे हम करोड़ों किलोवाट बिजली पैदा करके घर-घर पहुँचा सकेंगे। हमारा गढ़वाल औद्योगिक प्रदेश हो जायगा । हम समय और शक्ति का सदुपयोग करेंगे।”

"हमें स्वस्तन्त्र भारत में जनतान्त्रिक गढ़वाल बनाने का मौका मिलेगा। हम १० लाख गढ़वालियों की आर्थिक समस्या, संस्कृति, भाषा, भारत के ६६० जिलों से भिन्न है। "

आज के टिहरी गढ़वाल और ब्रिटिश गढ़वाल, अपर-गढ़वाल और लोअर - गढ़वाल, ठाकुर और ब्राह्मण, डोम और बिष्ट, खैकर और हिस्सेदार, राजा और प्रजा, नहीं रहेंगे, लेकिन, हमको उस समय के इन्तजार में बैठे नहीं रहना होगा। हमें उस समय को लाने के लिये महान् से महान् प्रयत्न करने होंगे। जनता के बीच जाकर, उनके दुःखों का अध्ययन करके, उन्हीं के सामने रखकर उनको दूर करने का प्रयास करना होगा। जन-संगठन के द्वारा शक्ति प्राप्त करना, जनता में राजनीतिक जागृति लाना। भूख, महामारी, हर प्रकार के आशंकाओं के समय उनकी सहायता करके उनमें विश्वास प्राप्त करना होगा। आज संसार में ऐतिहासिक परिवर्तन होने जा रहा है। हमको भी इस ऐतिहासिक निर्माण में सक्रिय भाग लेना पड़ेगा। हमारी आजादी भी संसार की आजादी में निहित है, इसलिये हमें आपसी छोटे-छोटे झगड़ों को छोड़ देना चाहिये। वैसे तो डोला- पालकी का सवाल भी गौण सवाल नहीं है। इसमें भी नागरिक अधिकार और सामाजिक स्वतन्त्रता की माँग मौजूद है। मगर इस झगड़े से आम डोम जाति का उपकार हो सकेगा। शब्दों में चाहे आर्य कहो या हरिजन, अछूत कहो या आदिवासी, या डोम; उनके लिये अलग मंदिर बना दो, अलग कुआँ खोद दो या थोड़ी देर के लिये उनके हाथ का बनाया लड्डू भी खा लो, इन सबसे उनका असली उपकार नहीं हो पायेगा।“[4]

मंचन के लिहाज से बात की जाये तो बहुत ही बचकाना सा मामला था. जबकि अपने इस नाटक के साथ ही वातायन अपनी रंग यात्रा के 45 वर्षों का जिक्र करती है. इतना ही नहीं आजादी के अमृत महोत्सव के समय की अपनी इस नाटक को दिल्ली के गिन्नी बब्बर से निर्देशित करवाती है. जिनके परिचय में दर्ज करती है कि उन्होने  वर्ष 2012 में श्रीराम सेंटर फॉर आर्ट एंड कल्चर,नई दिल्ली से दो वर्षा का अभिनय में डिप्लोमा प्राप्त किया है. राजेंद्र नाथ,त्रिपुरारी शर्मा,बापी बोस,हेम सिंह,लेंडी ब्रायन,राज बिसारिया,रुद्र्दीप चक्रवर्ती,स्वरूपा घोष,चितरंजन गिरी,के एस राजेंद्रन,मुश्ताक काक व कई अन्य जाने-माने राष्ट्रीय व अंतराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त व्यक्तियों/निर्देशकों के सानिध्य में काम किया है.       



[1]वीर चन्द्र सिंह गढवाली,राहुल सांकृत्यायन,किताब महल प्रकाशन,वर्ष 2006,ध्रुवपुर (1950) ,  पृष्ठ 415

 

[2]वीर चन्द्र सिंह गढवाली,राहुल सांकृत्यायन,किताब महल प्रकाशन,वर्ष 2006,गिरफ्तारी (1930 में),  पृष्ठ 179

 

[3][3]वीर चन्द्र सिंह गढवाली,राहुल सांकृत्यायन,किताब महल प्रकाशन,वर्ष 2006,फौजी फैसला (1930 में),  पृष्ठ 198

 

[4][4]वीर चन्द्र सिंह गढवाली,राहुल सांकृत्यायन,किताब महल प्रकाशन,वर्ष 2006,गांधी जी के पास,  पृष्ठ 305



उपयोग की जा रही सभी तस्‍वीरों के लिए जयदेव भट्टाचार्य का आभार। तस्‍वीरें उनके कैमरे का कमाल हैं।  

नवीन कुमार नैथानी को दिनांक 19.08.2023 को इलाहाबाद में चतुर्थ ‘श्रीमती भारती देवी एवं श्री ओमप्रकाश मालवीय स्मृति’ प्रदान किये जाने के अवसर पर कथाकार योगेंद्र आहूजा का वक्तव्य

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हिंदी के अनूठे,अपनी तरह के अकेले और हम सबके प्रिय कथाकार, नवीन कुमार नैथानी को चतुर्थ ‘श्रीमती भारती देवी एवं श्री ओमप्रकाश मालवीय स्मृति’ पुरस्कार से सम्मानित किये जाने के अवसर पर उन्हें बहुत-बहुत बधाई । नवीन जी साहित्य के शक्ति-केन्द्रों या ग्लैमरस मंचों से दूर, बल्कि उनसे बेनियाज़ और बेपरवाह ... ‘अपनी ही धुन में मगन’ ... ‘उत्तराखंड’ में अपने गाँव भोगपुर और फिर डाक-पत्थर, तलवाड़ी और देहरादून जैसी जगहों पर रहते हुए, अपनी मौलिक, अन्तर्दर्शी निगाह से देश-दुनिया के लगातार बदलते हालात और हलचलों का मुतालया करते हुए, लगातार कहानियां लिखते रहे हैं । ‘सौरी’ नाम की एक विस्मयकारी जगह है, जो स्मृतियों-लोकाख्यानों-किंवदंतियों-जनश्रुतियों से बनी या उनमें फैली है, जहाँ किस्से और इतिहास आपस में उलझते रहते हैं - वे वहीं के बाशिंदे हैं । यह ‘सौरी’ जो उनकी कहानियों में बार-बार आती है - सिर्फ एक किस्सा या कोई ख्याली, अपार्थिव, या लापता या लुप्त जगह नहीं, उसका एक भूगोल भी है । वह उनकी ‘मनस-सृष्टि’ है, लेकिन वे स्वयं इसी ‘सौरी’ की उपज हैं । मैंने उन्हें ‘अपनी ही धुन में मगन’कहा है लेकिन इससे यह न समझें कि वे दुनिया से गाफिल, गोशानशीनी के आदी, अपने-आप में बंद कोई ‘स्व-केन्द्रित’ या ‘आत्म-मुखी’ शख्स हैं, नहीं, वे तो जिंदगी से भरपूर एक आत्मीय, दोस्त-नवाज़ शख्स हैं और दोस्तों की महफ़िलों में सबसे ऊंचे ठहाके उन्हीं के होते हैं । वे अपनी किसी प्राइवेट दुनिया में नहीं, इसी संसार में रहते हैं अपनी बेचैनियोँ, चाहतों और सपनों - और ‘लिखने’ को लेकर अपनी अटूट प्रतिबद्धता के साथ । नियमित अंतराल से उनकी कहानियां पाठकों के सामने आती रही हैं जिनमें वे पहाड़ और पहाड़ी जीवन की छवियों के ज़रिये अपने समय को अपनी तरह से परिभाषित करने की कोशिश करते रहे हैं । उनकी कहानियों का लोकेल या परिवेश अधिकतर पहाड़ होता है - लेकिन उनके पाठक जानते हैं कि वह सिर्फ ‘लोकेल’होता है, उनकी हदबंदी नहीं । पहाड़ उनकी कहानियों की बाहरी ‘हद’ है - लेकिन इस हद के भीतर उनकी कहानियां ‘बे-हद’ हैं । कहानियों की ‘अर्थ-व्यंजना’, या कहें, उनका ‘सत्य’ या ‘सार-तत्व’, वह इस हद में नहीं समाता । वह तो उसे तोड़ते हुए, अतिक्रमित करते हुए जिंदगी के किन्हीं बुनियादी, आधारभूत आशयों या मायनों की ओर चला जाता या चला जाना चाहता है । ‘पुल’, ‘चढ़ाई’, ‘पारस’, ‘चाँद-पत्थर’, ‘चोर-घटड़ा’, ‘हतवाक्’ और‘लैंड-स्लाइड’ जैसी कितनी ही कहानियां इस बात की गवाह हैं । उनका एक संग्रह ‘सौरी की कहानियां’प्रकाशित है और दूसरा जल्दी ही प्रकाशित होना संभावित है ।


नवीन जी के बारे में यह सब वह है जो आप शायद पहले से जानते हैं । मैं इसमें जोड़ सकता हूँ कि वे लेखक होने के साथ एक ‘विज्ञानविद’, विज्ञान के व्याख्याकार हैं । वे फिज़िक्स पढ़ाते हैं और साथ ही उस उत्तेजक, रोमांचक, विस्मयकारी ज्ञान-अनुशासन के भी बेहतरीन जानकार हैं – जिसे ‘विज्ञान का दर्शन”या “Philosophy of Science” कहा जाता है । आधुनिक भौतिकी और खगोलविज्ञान ने हमें प्रकृति के बारे में, परमाणु के भीतर के उप-परमाणविक कणों से लेकर अनगिनत आकाशगंगाओं और सितारों और समूचे यूनिवर्स की संरचना और विस्तार, स्पेस, टाइम, ग्रेविटी, एनर्जी, पार्टिकल्स और एंटी-पार्टिकल्स, सितारों के जन्म और मृत्यु और ब्लैक-होल्स आदि के बारे में बेशुमार और हैरतअंगेज़ जानकारियाँ दी हैं । यूनिवर्स के बारे में इतनी नयी जानकारियाँ जो दरअसल जानकारियों का एक नया यूनिवर्सहै ।इन सबके बारे में इनकी समझ और जानकारियाँ बेजोड़ हैं, जिनसे मैं बीच-बीच में लाभान्वित होता रहता हूँ । अगर आपके मन में भी ऐसे सवाल आते हैं कि ... मसलन, सितारे कैसे वजूद में आते हैं और किस तरह सिकुड़ते हुए आखिर में एक बहुत बड़े धमाके के साथ ब्लैक-होल में तब्दील हो जाते हैं – या दिक् और काल में मरोड़ें कैसे पड़ती हैं, ‘बिग-बैंग’ क्या है, ‘फोटोन’ क्या है, ‘क्वार्क’ क्या है और ‘गॉड पार्टिकल’ क्या है – अगर ये जिज्ञासाएं आपकी भी हैं – तो आप इनका मोबाइल नंबर ले सकते हैं । इसके अलावा ... वे विश्व-साहित्य के, इस सदी और पिछली सदी और उससे पिछली सदी के क्लासिक लेखकों और कृतियों के भी एक अनन्य जानकार हैं । वे चेखव, पुश्किन, दोस्तोयेव्स्की, टॉलस्टॉय, हेमिंग्वे, मार्खेज, बोर्गेस, आइन्स्टीन, मैक्स प्लैंक, स्टीफेन हाकिंग, और प्रो. यशपाल जैसे उस्ताद लेखकों, वैज्ञानिकों और विज्ञान-चिंतकों की संगत में रहते हैं । लेकिन क्या इतने में इनका परिचय पूरा हो जाता है ?

.....

इस मौके पर मेरी इच्छा वह कुछ कहने की है जो आप नहीं जानते, शायद नवीन जी खुद भी नहीं जानते । और अगर जानते हैं तो यह तो नहीं ही जानते कि उनके बारे में यह मैं भी जानता हूँ पिछले तीन-चार दशकों से मुझे उनकी दोस्ती का फख्र हासिल है, इसलिए मैं कुछ पर्सनल हो रहा हूँ – लेकिन जो कहना चाहता हूँ वह मित्रता निभाने के लिए नहीं । मैं कहना चाहता हूँ कि इनकी कहानियां – एक खास तरह की उदास करुणा लिए इनकी कहानियाँ - विषयवस्तु और कहन और गठन के स्तरों पर अजीम हैं – लेकिन यह शख्स खुद अपनी कहानियों और किताबों से कहीं अजीमतर है । नवीन जी मेरे लिए सिर्फ कहानियों के या एक किताब के लेखक नहीं हैं । मेरे लिए वे खुद एक किताब हैं, एक चलती-फिरती किताब । मैं बीच-बीच में इस किताब के पन्ने खोलकर पढ़ा करता हूँ । इसका अर्थ यह न समझें कि वे कोई बंद किताब हैं, नहीं - वे तो मेरे ही नहीं, सबके लिए और हर वक्त एक खुली किताब हैं । कैसी किताब ... इसके जवाब में प्रिय कवि नवारुण भट्टाचार्य की एक कविता का सहारा लेकर कहना चाहूँगा - एक कीमती हार्ड-बाउंड किताब नहीं, जो शेल्फ के ऊपरी खाने में धूल और कीड़ों के संग रखी रहती है और कभी भूले-भटके खोली जाती है । वे एक ‘पेपरबैक’ किताब हैं जो मित्रों के बीच बांटकर पढ़ी जाती है और उसके पन्ने खुल-खुल जाते हैं । मैं समझता हूँ कि कोई भी लेखक, अगर दोनों में से एक ही चुनना संभव हो तो, वही किताब होना चाहेगा । लेकिन एक खुली किताब में भी किसी एक समय जो पन्ना खुला होता है, उसके अलावा पढ़ने के लिए कुछ पन्ने पलटने होते हैं । मैं चुपके-चुपके उन्हें पलट लेता हूँ । इस किताब को पूरी तरह, अंत तक पढ़ सका हूँ, यह नहीं कह सकता । कोई भी कैसे कह सकता है ? जीवन नाम की किताब को पढ़ने के लिए भी तो एक पूरा जीवन चाहिए होता है ।

यह किताब किस बारे में है ? यह है लिखित शब्द की प्रकृति और गरिमा - और उनसे हमारे यानी लेखक के रिश्ते के, लेखकीय आचार-संहिता और नैतिकता के, साहित्य के कुछ आधारभूत मूल्यों के बारे में । ये नए सवाल नहीं हैं, लेकिन आज लेखकों के लिए नए सिरे से जिन्दा हो गए हैं । यह सोशल मीडिया का वक्त है जिसमें, हमारी बौद्धिक-साहित्यिक दुनिया में, एक छोर पर ‘सर्वानुमति’ है और दूसरे पर trolling और सर्वनिषेधवाद । एक छोर पर सब कुछ की वाह-वाह, दूसरे पर सब कुछ पर कालिख पोतने की कोशिश । एक ओर बेशुमार लोकप्रियता, फॉलोअर्स, फैन्स, लाइक्स और तालियाँ और दूसरी ओर उतनी ही मात्रा में हिंसा, नफरत, एरोगेन्स और रक्तपात नवीन जी ऐसे माहौल में अपने को सप्रयत्न सस्ती तारीफों या तालियों के ज़हर से, ज़रूरत से ज्यादा दृश्यवान होने से बचाते हैं । वे अपना अकेलापन और एकांत बचाते हैं । इसका यह अर्थ नहीं कि वे मानते हैं कि ‘लिखना’ एक निजी कर्म है या सन्नाटे में की जाने वाली कोई निजी कार्रवाई है, नहीं, वे जानते और मानते हैं कि लिखना एक साथ निजी और सामाजिक होता है वह सिर्फ अपने से नहीं, अपने से परे जाकरअन्य’ से संवाद है – एक साथ ‘अन्य’ से और ‘अपने’ से संवाद है नवीन जी इस बात को बखूबी जानते हैं - लेकिन यह जानने और हर मंच पर चमकने-दमकने या हर जगह दृष्टिगोचर होने में जो फर्क है, वह उसे भी जानते हैं ।

नवीन जी एक चुप्पा लेखक हैं और उनके पाठक भी उन्हीं की तरह चुप्पा हैं । ये चुपके-चुपके लिखते हैं और चुपके-चुपके ही पढ़े जाते हैं । उनके पाठकों, प्रशंसकों का एक तवील दायरा है, फिर भी उनकी कहानियों के बारे में एक चुप्पी बरकरार रही है । इसे मैं कोई साजिश नहीं कहना चाहूँगा - लेकिन एक ट्रेजेडी या दुर्भाग्य ज़रूर कहूँगा । दुर्भाग्य नवीन जी का नहीं, हमारी भाषा का, हिंदी आलोचना का । हमारी भाषा में प्रचलित आलोचना - हमेशा नहीं लेकिन अधिकतर -  ऐसी है जो कृति की कथ्यगत विशिष्टता या मौलिक बुनावट की अवहेलना कर, किन्हीं तयशुदा मानदंडों या धारणाओं को यांत्रिक तरीके से रचनाओं पर लागू करना चाहती है ।जो उन मानदंडों पर पर खरी न उतरें उन्हें वह छोड़ देती है । वह रचना की अनन्यता को नकार कर, उनसे कुछ छीनकर, कुछ असंगत जोड़कर, उनमें जो कुछ कोमल,सुन्दर या त्रासद-दर्दीला हो, उसकी उपेक्षा कर उन्हें किन्हीं वांछित अर्थों की दिशा में धकेलना चाहती है । बहुत सी ‘आलोचना’ ऐसी भी है जो आलोचना कम, लेखकों को ‘निर्देशित’ करने या नकेल कसने की कोशिश अधिक होती है । शायद इसीलिए चेखवऔर रिल्केजैसे लेखक-कवि आलोचना को संदेह से देखते थे । ... बहरहाल, यह कोई नयी बात नहीं है । अनेक लेखक हैं जिनके बारे में जानबूझकर या अनजाने ऐसी चुप्पी बरती गयी है, बरती जाती है । लेकिन फिर वे लेखक क्या करते हैं ? वे आग, खीझ और गुस्से से भरकर – या फिर एक स्थायी उदासी के हवाले होकर - दुनिया से एक दुश्मनी का, अदावत का रिश्ता बना लेते हैं । वे दुनिया के खिलाफ एक चार्ज-शीट जेब में रखकर चलते हैं, जो हर रोज और लम्बी हो जाती है । वे अमर्ष से भर जाते हैं या उदास, अनमने या कटु और कटखने हो जाते हैं । इसके बर-अक्स नवीन जी क्या करते हैं ? ... वे तो खुद उस चुप्पी में शामिल हो जाते हैं, उस चुप्पी से ही पोषण लेने लगते हैं । वे इससे असम्पृक्त, अप्रभावित, अविचलित रहकर चुपचाप अपने कामों को अंजाम देते रहते हैं - पहले की ही तरह अपने मौलिक, उर्जावान तरीके से । एक ऐसे शख्स के रूप में, जो रचनात्मकता के सार और उसके चिरस्थायी तत्वों को जान चुका है, वे जानते हैं कि बेशक आलोचना, एक सुचिंतित, विवेकवान आलोचना ज़रूरी होती है, वह लेखक को ताकत और लिखित को एक शनाख्त देती है - लेकिन जैसे ... एक छलपूर्ण चुप्पी होती है, वैसे ही छलपूर्ण तारीफें भी होती हैं । सहज और विनीत दिखने वाली लेकिन बिना समझ या सौन्दर्यबोध के, लेखक को छलने वाली सस्ती तारीफें । ऐसी तारीफें, उनका अतिरेक लेखक को नष्ट करता है - उपेक्षा से भी अधिक। ग़ालिब ने एक शेर में अपने बारे में कहा है कि वे वह पौधा हैं जो ज़हर के पानी में, उसी से पोषण लेकर उगता है । “हूँ मैं वह सब्ज़ा कि ज़हराब उगाता है मुझे” यह उनकी सुपरिचित लाइन है । लेकिन यह मुझे कहीं अधूरी जान पड़ती है । असाधारण और चमत्कारी तो यह होगा कि पौधा ‘ज़हराब’ से पोषण ले, लेकिन खुद एक ज़हरीला या जानलेवा पौधा न बने । उसके ज़हर का एक कतरा भी अपने भीतर न आने दे । ऐसा कोई पौधा प्रकृति में होता है या नहीं, मैं नहीं जानता । लेकिन इंसानों में ज़रूर होता है ।

एक कहानी लिखने और छपने के बाद, मुझे यह याद नहीं कि नवीन जी उस पर अलग से कुछ कहते हुए या कोई दावा करते दिखे हों । वे मानते हैं कि लेखक को जो कहना है वह उसे रचना में ही कहना चाहिए । अगर रचना वह नहीं कह पा रही तो लेखक के अलग से कहने का क्या अर्थ है ? इस समय जबकि आत्मप्रचार, आत्म-अभिनंदन या कहें, अपना ‘भोंपू आप बजाना’ एक आम चलन है – नवीन जी अपनी इसी आचार-संहिता पर टिके रहते हुए - पाठकों के, अपने चुप्पा पाठकों के विवेक पर भरोसा करते हैं । वे जानते हैं कि एक सशक्त रचना को ऐसी बैसाखियों की ज़रूरत नहीं - और अगर अल्पप्राण है तो उसे ऐसी तरकीबों से दीर्घजीवी बनाने की कोई भी कोशिश फिजूल होगी ।

जर्मन कवि रिल्के ने एक सदी पहले एक युवा कवि फ्रांज जेवियर काप्पुस को एक पत्र में यह लिखा था - अपने भीतर जाइए और उस कारण को, उस आवेग को ढूंढिए जो आपको लिखने पर विवश कर रहा है - और यह भी – एक रचनात्मक कलाकार को सब कुछ अपने अन्दर ही प्राप्त होना चाहिए यानी उस प्रकृति में जिसे उसने अपना जीवनसाथी बना लिया है ।मुझे लगता है कि इस सूत्र को नवीन जी ने अपनी नसों में उतार लिया है एक लेखक को अगर भीतर से कुछ प्राप्त नहीं होता तो बाहर से कुछ प्राप्त हो तो उसका मूल्य ही क्या है ? और वह भीतर से ही कला की विशाल सम्पदा का एक छोटा सा हिस्सा, या उसकी झलक ही पा लेता है तो ... बाहर से कुछ प्राप्त होता है या नहीं, इसका महत्त्व ही क्या है ? नवीन जी की कहानियां मुझे उसी अंदरूनी इलाके, उसी अंतर्तम से, भीतरी अनिवार्यता से जन्मी लगती हैं । यह ‘कलावाद’ या ‘अभिजनवाद’ या सामाजिक जिम्मेदारी से विमुख होकर कला के एकांत रास्ते का वरण नहीं है, न ही यह किसी ऐसे दर्शन की शरण में जाना है जिसके अनुसार संसार असार है या बाहर की दुनिया ‘मिथ्या’ या ‘माया’ है, और ‘सत्य’ तो हमारे भीतर पहले ही मौजूद है । इसके उलट, यही तो सृजनकर्म का प्राथमिक, बुनियादी नियम है । जो कुछ ‘बाहर’ है, ‘अन्य’ है, लिखे जाने से पहले उसे लेखक का आभ्यंतर, उसके ही ‘आत्म’ का अंश बनना होता है । एक मायने में लेखक किसी ‘अन्य’ के नहीं, अपने ही दर्द, अपनी ही व्यथा, वेदना या तड़प के बारे में लिखता है - इसलिए कि एक सच्चे लेखक के लिए कोई ‘अन्य’ नहीं होता, हो नहीं सकता । अपने और दुनिया के बीच की दीवार गिराकर, ‘अन्यत्व’ को मिटाकर, यानी ‘अन्य’ के दर्द को अपना बनाकर, उसे अपनी त्वचा पर अपने ही दर्द की तरह महसूस कर ही कुछ ऐसा लिखा जा सकता है, जिसका सचमुच मूल्य हो । ये तमाम ख्याल मुझे नवीन जी की कहानियां पढ़ते हुए ही आते हैं । लेकिन कहानियों की सविस्तार विवेचना से मैं अपने को रोकना चाहता हूँ ।      

हममें से अनेक आज यह देखकर हताश होते हैं कि दुनिया अधिकाधिक खून और कीचड़ में लिथडती जा रही है । इस खून और कीचड़ के छींटे शब्दों की दुनिया में भी आते हैं, क्योकि शब्दों की दुनिया भी इसी दुनिया में स्थित है, इसके बाहर नहीं । ऐसे पल अक्सर आते हैं जब इस दुनिया में और शब्दों की दुनिया में आस्था टूटने लगती है । यकीन डूबता सा लगता है । ऐसे पलों में मैं जिन चंद लोगों की ओर देखता हूँ, उनमें नवीन जी खास हैं । इन्हें देखकर महसूस करता हूँ कि नहीं, सब कुछ नष्ट नहीं हुआ और इतनी आसानी से नष्ट नहीं होगा  I feel that I can still have my faith in written word or ‘language’ or literatureइसके लिए इन्हें कभी शुक्रिया नहीं कहा, लेकिन आज आप सबकी मौजूदगी में कहना चाहता हूँ ।

मैं नवीन जी के साथ पुरस्कार के संस्थापकों, आयोजकों को भी बधाई देना चाहूँगा । आप सबका आभार कि आपने मेरी इन बातों को ध्यान से सुना ।




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