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सऊदी अरब:लम्बे संघर्ष के बाद स्त्रियों को ड्राइविंग की छूट

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24 जून 2018 को स्त्रियों को ड्राइविंग से दूर रखने वाला दुनिया का इकलौता देश सऊदी अरब स्त्रियों के लम्बे अहिंसक संघर्ष के बाद अंततः झुक गया और पुरुषों की तरह वहाँ की राजशाही ने सऊदी स्त्रियों को भी अपनी कार चलाने की आज़ादी दे दी - हाँलाकि अभी भी इस्लामी शुद्धता को अक्षुण्ण रखने के नाम पर इसमें अनेक स्त्रीविरोधी शर्तें समाहित हैं। इस से पहले जब जब भी साहसी स्वतंत्रचेता सऊदी स्त्रियों ने प्रतीकात्मक विरोध प्रदर्शन किया उनपर इस्लाम विरोधी, विदेशियों के उकसावे से प्रभावित,अनैतिक और देशद्रोही होने का आरोप लगाया गया। मजेदार तथ्य यह है कि देश के कानून की कोई धारा स्त्रियों को ड्राइविंग करने से नहीं रोकती पर वहाँ इस्लामी नैतिकता की हिफ़ाजत करने वाली पुलिस बीच में आ जाती है और ज्यादातर मामलों में बगैर मुकदमा चलाये आंदोलनकारी स्त्रियों को प्रताड़ित करती है ,हिरासत में रखती है और उनकी आज़ादी का हनन करती है। 24 जून को यह इजाज़त दे तो दी गयी पर पिछले महीने इसकी माँग करने वाली प्रमुख स्त्री अधिकार कार्यकर्ताओं को अब भी हिरासत में रखा गया है - जाहिर है इसका श्रेय शासन स्त्रियों के संघर्ष को नहीं देना चाहती।मीडिया में यह बताया जा रहा है कि इस फैसले से बड़ी संख्या में शिक्षित स्त्रियाँ बाहर निकल कर कामकाज में लगेंगी और सऊदी अर्थव्यवस्था पर इसका सकारात्मक असर पड़ेगा। वास्तविक परिणाम तो आने वाला समय ही बताएगा। डॉ आयशा अलमाना ,डॉ हिस्सा अल शेख और डॉ मदीहा अल अजरूश हर वर्ष नवम्बर के शुरुआती हफ़्ते में पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार वार्षिक मेल मुलाकात के लिए एकत्र होने वाली करीब पचास सऊदी महिलाओं के समूह का हिस्सा हैं जो सऊदी अरब के इतिहास में दर्ज़ हो गये 6 नवम्बर 1990 के ऐतिहासिक विरोध प्रदर्शन की स्मृति ताज़ा करने और विरोध की मशाल जलाये रखने के लिये आयोजित की जाती हैं , "ड्राइवर"लिखे हुए टी शर्ट पहनती हैं और कार का चित्र बना हुआ केक काटती हैं -- वर्षगाँठ के रूप में साल दर साल मनाये जाने वाले वे इस प्रतीकात्मक विरोध प्रदर्शन की फ़ोटो खींच कर एकत्र करती रही हैं।इंटरनेट ,फेसबुक और ट्विटर जैसे सोशल मिडिया में ये तस्वीरें उपलब्ध हैं भले ही सऊदी अरब का शासन उनके ऊपर दमनात्मक शिकंजा कितना भी कसता रहे। सऊदी स्त्रीवादी आंदोलन की जनक मानी जाने वाली डॉ आयशा अलमाना एक शिखर व्यवसायी होने के साथ साथ देश की पहली महिला पी एच डी हैं और किसी शिक्षा संस्थान की पहली प्रिंसिपल भी हैं। समाजशास्त्र के क्षेत्र में उनके शोध का विषय भी सऊदी महिलाओं का आर्थिक उत्थान ही था। "फ़ोर्ब्स मिडिल ईस्ट"पत्रिका ने उनको अपना खानदानी व्यवसाय चलाने वाली पाँचवीं सबसे प्रभावशाली अरब महिला के रूप में नामित किया। डॉ शेख यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर हैं और डॉ अजरूश स्त्री अधिकार ऐक्टिविस्ट होने के साथ साथ देश की जानीमानी फ़ोटोग्राफ़र भी हैं। डॉ आयशा, डॉ शेख और डॉ अजरूश ने मिलकर नवम्बर 1990 के ऐतिहासिक ड्राइविंग प्रतिरोध प्रदर्शन पर एक संस्मरणात्मक किताब लिखी है जो मार्च 2014 के रियाद बुक फ़ेयर में हॉट केक की तरह बिकी (फ़ोटो )-- सऊदी अरबिया की निर्भीक ब्लॉगर ईमान अल नफ़्ज़ान इस किताब का अरबी से अंग्रेज़ी अनुवाद कर रही हैं। इसका एक छोटा सा अंश उन्होंने saudiwoman.me ब्लॉग ने पोस्ट किया है -- यहाँ पाठकों के लिए उसका हिंदी अनुवाद प्रस्तुत है।
प्रस्‍तुति : यादवेन्‍द्र


6 नवम्बर 1990 को दोपहर बाद के करीब ढ़ाई बजे की बात है ,सेफ़ वे सुपर मार्किट की पार्किंग में ढेर सारी महिलायें एकत्रित होने लगी थीं। उनमें से कुछ को उनके ड्राइवर वहाँ ले के आये थे और कुछ को उनके शौहर या बेटे --- पार्किंग के अंदर पहुँच कर चाहे ड्राइवर हो या शौहर या बेटा ,सबने गाड़ी महिलाओं के हवाले कर दी। देखने से साफ़ मालूम हो रहा था कि कारों की संख्या की तुलना में महिलाओं की उपस्थिति कहीं ज्यादा थी -- कुल जमा चौदह कारें थीं जबकि विरोध प्रदर्शन में भाग लेने के लिए सैंतालीस महिलायें।ऐसा नहीं था कि सब एक दूसरे से परिचित सखियाँ सहेलियाँ ही थीं ,बल्कि उनमें से अनेक ऐसी थीं जो एक दूसरे से पहली मर्तबा मिल रही थीं। जिन जिन महिलाओं के पास सऊदी अरबिया के बाहर के  देशों से प्राप्त कानूनी ड्राइविंग था वे एक एक कर स्टीयरिंग सँभाल कर बैठ गयीं और दूसरी औरतें साथ देने के लिए बगल और पीछे की सीटों पर बैठ गयीं।दोपहर बाद की नमाज़ (जौहर) की अज़ान जैसे ही शुरू  महिलाओं ने अपनी अपनी गाड़ियाँ स्टार्ट कर दीं। उन सभी महिलाओं के ड्राइवर ,शौहर और बेटे पूरी खामोशी से पार्किंग में खड़े खड़े सबकुछ देखते रहे।इस आंदोलन की सरलता और सच्चाई ने इन महिलाओं को एक दूसरे के प्रति इतना भरोसा दिला दिया था कि वे एक तरह के श्रद्धाभाव में आकर साझा विरोध प्रदर्शन का साहस जुटाने में सफल रहीं। एकसाथ नहीं बल्कि एक के पीछे दूसरी ,तीसरी,चौथी …गाड़ी चली।कारों के इस काफ़िले में सबसे आगे आगे वफ़ा अल मुनीफ़ की कार चल रही थी .... डॉ आयशा अलमाना उनके पीछे पीछे थीं।किंग अब्दुल अजीज़ स्ट्रीट से शुरू होकर यह काफ़िला ओरोबा स्ट्रीट तक गया ,फिर बाँयी तरफ़ मुड़ गया और थालाथीन स्ट्रीट पर आ गया। वहाँ लाल बत्ती होने के कारण काफ़िला थोड़ा धीमा हुआ। इस दरम्यान कई बार आगे की कारें इसलिए धीमी हुईं कि पीछे वाले साथ आ जाएँ -- उन्होंने शुरू में ही साथ साथ चलने और रहने का फैसला किया था। कार चलाती महिलाओं को पैदल राह चलते लोग और दूसरी गाड़ियाँ चलाते लोग भरपूर अचरज के साथ मुड़ मुड़ कर देख रहे थे .... उन्हें अपनी आँखों पर विशवास नहीं हो रहा था, वे सदमे में थे पर कुछ कर नहीं पा रहे थे -- हतप्रभ होकर ताकते रहे। 


बागी तेवर अपनाये हुए ये महिलायें इस बात से उत्साहित थीं कि पुलिस ने उनको कहीं रोक नहीं … या यूँ कहें कि उनकी तरफ आँखें उठा कर नहीं देखा। नेतृत्व कर रही महिलाओं ने एक और चक्कर लगाने का निश्चय किया .... पर  जैसे ही दूसरा चक्कर शुरू हुआ पुलिस एकदम से हरकत में आ गयी- हाथ देकर गाड़ियों के काफ़िले को रोक दिया। रियाद पैलेस फंक्शन हॉल के सामने किंग अब्दुल अजीज़ स्ट्रीट पर एक एक कर सभी कारों को रोक दिया गया। पुलिस के पीछे देखते देखते धार्मिक पुलिस (आधिकारिक नाम ,कमीशन फॉर द प्रमोशन ऑफ़ वर्च्यू एंड प्रिवेंशन ऑफ़ वाइस ) के लोग जत्था बना कर खड़े हो गये। 
पुलिस ने महिलाओं की गाड़ियों का काफ़िला रोकने के बाद सबसे पहला काम यह किया कि एक एक कर ड्राइविंग सीट पर बैठी सभी महिलाओं से उनके ड्राइविंग लाइसेंस माँगे। आगे बढ़ कर एक महिला ने तपाक से अमेरिका में हासिल किया हुआ अपना ड्राइविंग लाइसेंस थमा दिया -- इस अप्रत्याशित घटना के लिए वह तैयार नहीं था ,सो घबरा कर वह अपने अफ़सर को बुलाने अंदर चला गया।उसके पीछे पीछे पुलिस के आला अफ़सर तो आये ही धार्मिक पुलिस के लोग भी सामने आ खड़े हुए। दोनों के बीच इस बात को लेकर खींच तान होने लगी कि उन महिलाओं के साथ कौन निबटेगा -- धार्मिक पुलिस के अफ़सर महिलाओं को अपने कब्ज़े में रख कर जाँच करना चाहते थे। महिलायें इसके लिए बिलकुल तैयार नहीं हुईं ,न ही पुलिस अफ़सर उन्हें धार्मिक पुलिस को सौंपने के लिए राज़ी हुए। " 
कट्टरपंथी सत्ता को खुले आम चुनौती देने वाले इस प्रदर्शन का नतीज़ा यह हुआ कि इसमें भाग लेने वाली नौकरी पेशा महिलाओं और उनके पतियों को गिरफ़्तार कर लिया गया और जेल से छूटने पर नौकरी से या तो निकाल दिया गया या प्रताड़ित किया गया।सार्वजनिक तौर पर अपमानित किये जाने का सिलसला अबतक चल रहा है पर स्वतंत्रचेता स्त्रियों के हौसले पस्त नहीं पड़े। थोड़े थोड़े समय बाद प्रतीकात्मक विरोध की ख़बरें निरंतर आती रहीं। कुवैत पर इराकी कब्ज़े के समय जब पूरा अरब जगत भयभीत था ,एकबार फिर सऊदी महिलाओं ने सामूहिक तौर पर ड्राइविंग का प्रदर्शन कर के कठमुल्लेपन को चुनौती दी -- उनका तर्क था कि पुरुषों को  लड़ाई के लिए पूर्णकालिक तौर पर उपलब्ध कराने के लिए यह ज़रूरी है कि महिलाओं को अपना कामकाज संपन्न कर सकने के लिए ड्राइविंग करने की इजाज़त दी जाये।   
प्रतिकार के इस ऐतिहासिक प्रदर्शन के इक्कीस साल बाद मक्का के पवित्र शहर में जन्मी युवा इंजिनियर मनल अल शरीफ़ ने 2011 की गर्मियों में जब सारा मध्य पूर्व लोकतंत्र की माँग करते हुए युवा विद्रोह की ज्वाला में धू धू कर जल रहा था तब सऊदी अरब की स्त्रियों की आज़ादी के लिये प्रतीकात्मक तौर पर खुली सड़क पर घंटा भर कार चला कर एक बार फिर से बड़ा धमाका कर दिया -- पहले अकेले और दूसरी बार भाई के साथ बैठ कर कार चलाने का कारनामा मनल ने इसबार रियाद में नहीं पूर्वी राज्य खोबर में किया। उनको इस "गुस्ताख़ी"के लिए न सिर्फ़ बार बार गिरफ़्तार किया गया बल्कि "अरामको"जैसी बड़ी कम्पनी की सम्मानित नौकरी से निकाल दिया गया। जेल से रिहाई के लिए शासन तब तैयार हुआ जब मनल के पिता स्वयं सऊदी अरब के बादशाह  के दरबार में माफीनामे के साथ हाज़िर हुए। एक गैर अरबी युवक से शादी के लिए शासन ने उनको अनुमति नहीं दी तब उनको देश छोड़ कर दुबई में नौकरी लेनी पड़ी -- हर हफ़्ते वे दुबई से पहली शादी से हुए बेटे से मिलने सऊदी अरब आती हैं। बाद में वे ऑस्ट्रेलिया जाकर बस गयीं। 
मई 2011 में खुले आम सऊदी सड़कों पर गाड़ी चला कर तूफ़ान खड़ा कर दीं वाली मनल कहती हैं : "मेरे आसपास सभी लोग सऊदी औरतों के ड्राइविंग पर लगे प्रतिबन्ध की आलोचना तो करते थे पर आगे आने को कोई तैयार नहीं था … उनदिनों अरब बसंत की चर्चा और हवा चारों ओर फ़ैल रही थी ,सो मुझे लगा कि घर में बैठे बैठे स्थितियों को कोसते रहने का कोई फायदा नहीं.... करना है कुछ तो इसी समय करना है ,अब और इंतज़ार नहीं .... कोई न कोई तो होगा ही जिसको अगुआई करनी होगी ,दीवार ध्वस्त करनी होगी कि अब देखो ,क्या हुआ जो तुमने खुली सड़क पर गाड़ी चला दी … ऐसा करने पर कोई रेप थोड़े कर देगा। "
आगे मनल बताती हैं कि जब पुलिस ने उनको रोका और बोला :"ऐ लड़की ,ठहरो और गाड़ी से उतर  कर  बाहर आओ .... इस मुल्क में औरतों को गाड़ी चलाने की इजाज़त नहीं है। "मैंने पूछा :"मेहरबानी कर के मुझे बतायें मैंने कौन सा कानून तोड़ा है ?"
इसका जवाब किसी के पास नहीं था ,वे सिर्फ़ यह बोले :"तुमने कोई कानून नहीं तोड़ा ....पर चलन / परिपाटी का उल्लंघन किया है। "
अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए व्यापक जान समर्थन जुटाने के लिए उन्होंने woman2drive अभियान की शुरुआत की। शासन के प्रतिबंधों का उल्लंघन करने के लिए उन्हें महीनों जेल में रहना पड़ा। माँ पिता और बेटे के सामने मनल को सार्वजानिक तौर पर वेश्या कह कर पुकारा गया - माँ जब इससे आहत होकर बेटी से अपना रास्ता बदल देने का आग्रह करतीं तो मनल का एक ही जवाब होता कि जिस दिन सऊदी सरकार पहली औरत को ड्राइविंग लाइसेंस जारी करेगी उस दिन मैं अपना अभियान रोक दूँगी। उनकी मौत की झूटी अफ़वाह भी फैलाई गयी। ड्राइविंग के अतिरिक्त सऊदी शासन के अनेक दमनात्मक कानूनों की उन्होंने खुली मुख़ालफ़त की। उन्हें इन प्रताड़नाओं के कारण अपना देश छोड़ कर जाना पड़ा ,अब वे ऑस्ट्रेलिया में रहती हैं। उनका कहना है कि पिछले कुछ वर्षों से मेरे दो चेहरे हैं - मेरे अपने देश में मैं एक विलेन हूँ - एक ऐसी गिरी हुई औरत जो धर्म को चुनती देती है इसलिए घृणा का पात्र है। पर बाहर की दुनिया में मैं एक हीरो हूँ। 
मनल को अपूर्व साहस का परिचय देने के लिए 2012 के ओस्लो फ्रीडम फ़ोरम में व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया गया और क्रियेटिव डिसेंट के हेवेल प्राईज़ से नवाज़ा गया। टाइम पत्रिका ने उन्हें 2012 में दुनिया के सर्वाधिक प्रभावशाली लोगों के समूह में शामिल किया है। अपने देश लौटने पर उनपर आक्रमण और तेज हो गए और अंततः नौकरी से हाथ धोना पड़ा। उनके इन संस्मरणों की किताब "डेयरिंग टु  ड्राइव:ए सऊदी वुमन्स अवेकेनिंग" (2017)  दुनिया के एक बड़े प्रकाशन से छप कर आ चुकी है जिसके अनेक भाषाओँ में अनुवाद हुए हैं।  

जेल के अन्दर एक जेल होती है जिसे तन्हाई कहते हैं

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सिर्फ आँसुओं की बोली बोलने वाली, चकड़ैतों की साजिश की शिकार तमिलनाडु की मूल निवासी किरदेई कबाड़ बिनने के काम से अपना जीवन यापन करती थी। चौंकिए नहीं कि सरकारी कागजों में किरदेई के नाम से जानी गई इस स्‍त्री का वास्‍तविक नाम कुछ और रहा। भिन्‍न भाषी प्रदेश में तमिड़ जुबान बोलने वाली किरदेई कैसे बेजुबान सी हो गई यह उसकी दास्‍तान का दूसरा पीडि़त पक्ष है। इस महिला की कहानी रोंगटे खड़ी करने वाली है।

दिल दिमाग को झकझोरने वाली यह कहानी महिला समाख्‍या की बेहद सक्रिय साथी कुसुम रावत की जिंदगी का भी सुंदर पाठ और कड़वा सबक है। कुसम रावत का मानना है कि किरदेई की पीड़ा ने उन्‍हें मजबूत बनाया है। कानूनी षडयंत्रों को समझने का मौका दिया है। कुसम रावत कहती हैं, ‘’साथ ही कानूनी मकड़ जाल को तोड़ने की थकने-थकाने वाली कोशिश ने मेरा ‘सत्य’ पर भरोसा मजबूत किया। किरदेई की आँसुओं की धार ने मेरी अंतर्यात्रा को नया ठौर दिया। किरदेई ने ही मुझे परमात्मा का बोध कराने वाली ‘नई सड़क’ का पता बताया। किरदेई ने समझाया- कुसुम सत्य-असत्य, धर्म-अधर्म, न्याय-अन्याय में क्या अंतर है? और कैसे धैर्य धारण कर निर्भय मन से की गई विवेकी सामूहिक कोशिशों से सत्यमेव जयते जमीन पर उतरता है? नहीं तो मेरी क्या ताकत थी- नारकोटिक्स एक्ट में फंसी मुजरिम को छुड़ाने की- जो अपना गुनाह कबूल चुकी हो।‘’ कुसुम रावत की जुबानी ही पढ़ते हैं किरदेई कथा।

एक थी बेगुनाह किरदेई


कुसम रावत

मैं किरदेई को भूल गई थी। अचानक 17 साल बाद अपने100 साल के बूढ़े गुरुजी के शब्द मेरे जुहन में आकार लेते हैं, जेल के अन्दर एक जेल होती है जिसे तन्हाई कहते हैं...’एक दिन युगवाणी के सम्पादक संजय कोठियाल से बात करते हुए नई टिहरी जेल में कैद किरदेई मेरे खामोश अन्तर्मन में एक यक्ष प्रश्न के साथ फिर से आ खड़ी हुई,जेल से छूटने पर कोर्ट कंपाउंड में सूनी आँखों से आसमान को ताकती अपने इन आखिरी आखरों के साथ- मैं काम की तलाश में तमिलनाडू से दिल्ली आई थी। पर वक्त ने मुझे टिहरी जेल पहुंचा दिया। मैं जेल में इसलिए रोती थी कि मैं बेगुनाह हूँ। आज मैं खुशी में रो रही हूँ। मुझे यकीन नहीं कि हो रहा है कि मैं जेल की तन्हाईयों से आजाद हो खुले आसमान के नीचे सांस ले रही हूँ। क्या मैं वास्तव में छूट गई हूँ? कहीं फिर से कोई मुझे कहीं और ना फंसा दे?मैं अब दिल्ली ना जा सीधे अपनी माँ के पास जाऊंगी। लोग परदेश में औरतों के साथ किसी न किसी तरह ऐसे ठगी करते हैं कि औरत निर्दोष होते हुए भी ऐसे फंस जाती है कि उसे खुद को बेगुनाह साबित करना मुश्किल हो जाता है?यह ईश्वर की कृपा और कुछ औरतों का सहयोग था कि मैं निर्दोष करार दी गई...। यह महज संयोग है या कुछ और?पर कुछ तो जरूर है किरदेई कथा में।
सन् 2001 की बात है। मैं महिला समाख्या टिहरी में थी। राधा रतूड़ी कुछ दिन पहले ही कलक्टर बन टिहरी आई थीं। एक दिन वे सपाट शब्दों में बोलीं- कुसुम भारत सरकार ने 2001 को महिला सशक्तिकरण वर्ष घोषित कर साल भर जिला प्रशासन से ठोस जमीनी काम की अपेक्षा की है। हम तुम्हें नोडल आफिसर बना रहे हैं। तुम हमारी ओर से कमान थामो। हमें तुम पर पूरा भरोसा है। तुम्हारा अनुभव काम आयेगा।
मैं चुप रही। मेरी दिक्कत थी- मेरी निदेशक बड़े उलाहने देतीं- तुम हमेशा फालतू कामों में उलझी रहती हो। हम एक दिन तुम्हारी गर्दन उड़ा देंगे।
निदेशक मेरी अच्छी मित्र थीं। कलेक्‍टर जो जिम्‍मेदारी मुझे दे रही थीं, वह एक दिन की बात नहीं थी। मामला पूरे साल का था। कलक्टर अड़ी रहीं। कलक्टर का व्यकितत्व और स्वभाव कुछ ऐसा था कि मैं सोचने लगी क्या करूं? खैर मैंने दो दिन का वक्त मांगा। काम काफी मुश्किल था। हजारों साथिनों की बेहद अच्छी, प्रतिबद्ध, ईमानदार टीम मेरे साथ थी। एक आवाज पर मरने-मिटने वाली ऐसी जुझारू टीम किस्मत से बनती है। सबने आश्‍वस्‍त किया, दीदी फिकर नाट! निदेशक को आप मना ही लोगे। ये काम हमारे टिहरी जिले की औरतों के लिए उपयोगी होगा। फिर एक महिला कलक्टर के शब्दों की गरिमा का सवाल भी है। मैंने कलक्टर को हाँ कर दी। साल भर की ठोस कार्ययोजना बनाकर मैं और मेरी सहकर्मी गुरमीत कौर कलक्टर को मिले। कुछ ऐसा खाका तैयार किया कि वह हमारे रूटीन काम के साथ फिट हो। हमारा कार्यक्षेत्र सिर्फ 4 ब्लाक थे। बाकी जगह जिला प्रशासन थामेगा। वहाँ हम रणनीतिकार,रिसोर्स पर्सन और दस्तावेजीकरण की भूमिका में होंगे। हाँ मैं समन्वय पूरे जिले में करूंगी।
समाज के हर वर्ग के साथ महिला मुद्दों पर बात करना तय हुआ। हमें साल भर में सब तक पहुँचना था। कुछ महिला मुद्दों का चयन कर हमने रातों-रात रोचक प्रचार-प्रसार सामग्री बनाई। कलक्टर हमारे साथ दिन-रात मेहनत करतीं। मेरे कार्यालय आकर हमारा हौसला बढ़ातीं। 1 मार्च2001 को महिला सशक्तिकरण वर्ष की शुरूआत पूरे जिले में एक साथ हुई। मुझे याद है सैंट्रल स्कूल नई टिहरी का प्रांगण- जब शुरूआती कार्यक्रम के बाद स्कूल प्रांगण से कलक्ट्रेट तक पहली रैली निकली। शायद देश में यह अपनी तरह का यादगार मौका होगा- जिसमें जिले की कलक्टर खुद , राधा रतूड़ी, ने बैनर पकड़ महिला सशक्तिकरण रैली की अगुवाई की। जिले भर के सरकारी अधिकारी, स्वयं सेवी संस्थाएँ और समाज के हर वर्ग के हजारों लोग कार्यक्रम का हिस्सा रहे।
इसी क्रम में 7 मार्च को जेल कैदियों के साथ महिला मुद्दों पर कैदियों की सोच... पर एक गोष्ठी थी। मुझे लखनऊ जाना था पर एक दिन पहले स्कूली कार्यक्रम में पाँव में मोच आ गई। मेरा पाँव बहुत सूज गया। सो लखनऊ ना जा मैं नई टिहरी जेल पहुँची। एस.डी.एम. विष्णुपाल धानिक साथ थे। अचानक मेरी नजर कैदियों की भीड़ में किनारे बैठी महिला कैदी पर पड़ी। वह एक किनारे खड़ी थी। हर बात से बेपरवाह वह औरत बरबस ही मेरे आर्कषण का केंद्र हो गई। कुछ ऐसा था उसकी आंखों में, वह मेरे दिल में उतर गई। मैं एकटक उसे देखती रही। उसकी सूरत मुझे आज भी याद है- एकदम झक सफेद बाल, घुटनों तक चढ़ी छींटदार हल्की हरी धोती, पुरानी पतली चिंथड़ेनुमा काली शाल लपेटी, डरी-सहमी, गठीले बदन की 65-70 साल की एकदम स्याह काली शक्ल की दक्षिण भारतीय औरत। उसका झुर्रीदार चेहरा अपमान के दंश से क्लांत था। चेहरे पर गुस्सा साफ छलक रहा था। चिंदी सी छोटी आँखें हमें घूर कर चीरने की कोशिश में थीं। आँखों से लगातार आँसू बह रहे थे। धानिक जी मजिस्ट्रेटी अंदाज में बोले- मैडम ये तमिलनाडू की स्मगलर है। नारकोटिक्स एक्ट में 5-6महीनों से बंद है। इसे सजा होने ही वाली है। मैंने पास जाकर किरदेई को गौर से देखा। उसकी आँखें व चेहरा बता रहा था- वह बहुत कुछ बोलना चाह रही है पर उसके होंठ सिले हैं। वह चेहरा मैं कभी नहीं भूल सकती। वह हिंदी-अंग्रेजी कुछ नहीं जानती थी। कानूनी कागजों में उसे गूंगी बहरी बनाकर जुर्म कबूल करवाया जा चुका था। धानिक जी ने बताया- प्रशासन और वन विभाग के लोगों की बहादुरी से एक भांग के स्मगलगर गैंग को पकड़ा गया है। यह औरत किरदेई गैंग लीडर है, सो इसकी जमानत नहीं हुई। बाकी 4 जमानत पर छूट गये हैं। धानिक जी बड़े खुश थे- गोया कितनी बड़ी बात बोल रहे हों। कुछ देर की चुप्पी के बाद मैंने कहा- मुझे नहीं लगता यह स्मगलर है । कहीं जरूर कुछ बड़ी गड़बड़ है  आप इसकी शक्ल देखो, क्या ये स्मगलर लगती है? इस वक्‍त मेरे पास किरदेई का कोई साफ फोटो नहीं पर किसी पत्रिका में छपी बड़ी मुश्किल से मिली एक तस्वीर है। आप उसके चेहरे को देखकर खुद तय करें क्या किरदेई स्मगलर हो सकती है
गोष्ठी के बाद किरदेई जेल में बने छुटके से शिव मंदिर के पास खड़ी हो गई। उसके साथ बंदी रक्षक प्रेमा देवी थी। मैं कभी नहीं भूलती हूँ कि किरदेई कैसे एक टांग पर खड़ी आसमान की ओर शून्य में ताक रही थी। उसके हाथ जुड़े थे, उस अदृश्य ताकत के लिए- जिसे लोग भगवान कहते हैं। किरदेई की आँखें बंद थीं। आँखों से बह रही आँसुओं की धार रुक नहीं रही थी। वह ऊँ नमः शिवाय.... बुदबुदा रही थी। मैं अंदर से हिल गई। मैंने प्रेमा को पूछा- जो अनजान मुल्क में जेल की ऊँची दीवारों के बीच आँसुओं के अलावा बेजुबान किरदेई की एकमात्र साथी थी। दयालु प्रेमा ने ही अजनबी माहौल में हौसला और अपनापन देकर चारदीवारी में कैद किरदेई को बार-बार टूटने से बचाया- सिर्फ दिल की संवेदनाओं और आँखों की मौन भाषा से।
किरदेई ने मुझे घृणा और अविश्वास से घूरा- जैसे मैं भी कोई नया षडयंत्र करने आई हूँ। वह झटके से परे हट फिर से महादेव की साधना में लीन हो गई। उसकी उपेक्षा भरी नजर ने मेरे विश्वास को और मजबूत किया कि गोया कुछ तो जरूर गलत है। जेलर श्री दिवेदी और प्रेमा ने मिली जानकारी से मुझे मालूम हुआ कि किरदेई यहाँ महीनों से कैद है। वो ना कुछ बोल पाती है, ना हम कुछ समझ पाते हैं। वो कई-कई दिनों तक खाना नहीं खाती। कभी चप्पल नहीं पहनेगी। कभी सर्द ठंड में गरम कपड़े नहीं पहनेगी। जेल में सब किरदेई से सहानुभूति रख रहे थे। लेकिन उनके पास किरदेई के बाबत कोई ज्‍यादा जानकारी नहीं थी। कह रहे थे, हमारी दिक्कत है कि हम इससे बोल नहीं सकते। इसे समझा नहीं पाते कि हमें तुमसे सहानुभूति है। वो दिन रात इसी शिव मंदिर पर एक टांग पर खड़े हो रोती रहती है। बस एक ही शब्द हमने समझा- ऊँ नमः शिवाय। यह यूं ही बस ऊँ नमः शिवाय बुदबुदाते सूनी आँखों से आसमान में ताकती रहती है।
प्रेमा मेरे नाम और काम से परिचित थीं, उसी दौरान प्रेमा ने कहा- क्या आप वही कुसुम रावत हो जिसने महिला कैदी बलमदेई और कमला को छुड़ाया था? मैंने कहा हाँ। प्रेमा शिवालय पर गहरी श्रध्दा में माथा टेक संतुष्टि से बोली। हे प्रभु अब तो किरदेई जरूर छूट जाऐगी। प्रभु आपने ही कान्वेंट की नन लोगों की प्रार्थना पर कुसुम को जेल भेजा। मैं कुछ नहीं समझी। उसके बाद जो कुछ प्रेमा ने कहा वो बड़ा हैरान करने वाला सत्य है- नई टिहरी कान्वेंट की सिस्टर्स हर रविवार को कैदियों के साथ प्रार्थना करने जेल आती हैं। वो प्रार्थना के बाद बुदबुदाती हैं- हे यीशू कुसुम रावत को जेल भेज दो। हमें पहले कुछ समझ नहीं आया। बाद में पता चला कि सिस्टर लोग आपको जानते हैं। वे लोग ये भी जानते हैं कि आपने बलमा और कमला की मदद की। सो हर रविवार दिल पर क्रॉस बना इस बेचारी को ढांढस देते हैं कि- तू जरूर छूटेगी। यह सिलसिला कई महीनों से चल रहा है। मैं और धानिक जी हैरान रह गये। तो क्या सच में किसी दैविक प्रेरणा से कलक्टर राधा रतूड़ी ने मुझे यह काम सौंपा? और मैं लखनऊ के बजाए आज जेल में हूँ? खैर प्रेमा की बात को परमप्रभु का आदेश समझ मैंने तय किया- किरदेई की मदद करनी है पर कैसे? क्योंकि इसे सजा होने ही वाली थी- वो भी एन.डी.पी.एस.एक्ट में। कलक्टर बाहर थीं, नहीं तो उस दिन जरूर पंगा होता।
मैं सीधे कान्वेंट स्कूल गई। सिस्टर बोलीं- कुसुम किरदेई के आँसुओं और प्रार्थना में गजब की ताकत है। एक दिन हम अचानक जेल गए थे। किरदेई को देखकर हम रो पड़े। उसी दौरान तय किया कि हम हर इतवार को जेल में प्रार्थना करेंगे। यीशू ने ही तुम्हारे दिल में यह प्रेरणा भेजी है। हृदय पर क्रास बना सिस्टर बोलीं- अब ये जरूर छूट जाऐगी। गोया जैसे मुझे कोई वरदान मिला हो औरतों को जेल से छुड़ाने का। मैं दुखी मन से घर गई। किरदेई की पीड़ा महसूस कर मैं कई रात सो ना सकी। सब मुझ पर बहुत हँसते। कोई मुझे पागल ठहराता। मैंने सरकारी वकील से बात की। वह तो आग बबूला हो गये। अरे आप इसे कैसे छुड़ा सकते हो? यह तो स्मगलर है। बाकी मुजरिमों के वकील ने भी बड़ा हतोत्साहित किया। मैंने मामले की हकीकत जाननी चाही। अब मैं किसी तमिलभाषी की तलाश में थी, जो मुझे बता सके कि बात क्या है? अगले दो दिन में हजारों फोन करने के बाद सैंट्रल स्कूल नई टिहरी में तैनात प्रवक्ता हरेन्द्र सिंह ने बताया कि वहीं तैनात टीचर सुनीता वी.कुमार कभी मद्रास में रही हैं। वो तमिल जानती हैं। ईश्वर ने पहली सफलता दी इस राहत भरी खबर के साथ।
होली का दिन था। मैं कभी किसी की बाईक में नहीं बैठी,पर उस दिन ये भी किया। हरेन्द्र ने दो बाईकमैन तैयार किये जो होली खेलने के बजाय मुझे और सुनीता को जेल ले गये। किरदेई का सुनीता से मिलना वरदान साबित हुआ। तमिलभाषी सुनीता को पाकर बेजुबान किरदेई को मानो जुबान मिल गई। पहले तो वह बहुत चिढ़ी पर बाद में उसकी शक भरी निगाहों में मेरे लिए थोड़ा सा भरोसा भी पैदा हुआ, मैं उसकी आंखों में उस भरोसे को पढ़ सकती थी। वह घंटों रोती रही।
सुनीता बड़े धैर्य से किरदेई का हाथ पकड़कर चुपचाप उसे सुनती रही। वह उसे चुप कराती, पानी पिलाती। उसका हाथ सहला ढांढस बंधाती कि फिक्र ना करो। कुसुम को देख डरो मत। ये मेरी दोस्त है। ये तुम्हारी मदद करना चाहती है। तुम सब सच-सच बताओ। किरदेई की महीनों की घुटन उन चार घंटों में सुनीता से बात कर खत्म हुई। सुनीता ने उसे अपने हाथों से खाना खिलाया। किरदेई का सच जानकर मैं ही नहीं पूरा जेल स्टाफ हैरान था। पर लाख टके का सवाल अब भी था कि किरदेई को निर्दोष साबित करें तो कैसे? सुनीता के मुताबिक किरदेई की जुबानी कुछ यूं थी-  
‘’मेरा नाम करपाई है। मैं तमिलनाडू के डंडीकल जिले के चिन्नालपेटी गाँव की हूँ। मेरी उम्र लगभग 65 साल है। मुझे नहीं मालूम किसने मुझे कोर्ट के कागजों में कब और क्यों कैदी किरदेई बना दिया? मेरा एक भरा पूरा परिवार है। घर में मेरी माँ और छोटी बहन है। मेरी शादी 15 साल की उम्र में तय हुई। पर पिता की अचानक मौत ने मुझ पर परिवार की जिम्मेदारी डाल दी। मैंने शादी ना करने का फैसला लिया। मैं माँ और बहन की जिम्मेदारी उठाने लगी। मैं कभी स्कूल नहीं गई। हमारी जिंदगी ठीक ठाक चल रही थी। अचानक मेरी किस्मत ने पलटा खाया। हुआ यूं कि- एक दिन खाना खाते वक्त मेरा छोटी बहन से किसी बात पर झगड़ा हो गया। माँ ने भी बहन का साथ दिया। मैं गलत नहीं थी। मुझे उस झगड़े से ज्यादा माँ-बहन के व्यवहार ने आहत किया। मैंने खाना छोड़ा और तय किया कि अब मैं यहाँ नहीं रहूँगी। मैं काम की तलाश में परदेश जाऊंगी। यहाँ पर काम का दाम कम मिलता है। जो रोज की चिख-चिख का कारण है। माँ-बहन के व्यवहार ने मुझे अंदर से तोड़ दिया था। मैं सोचती रही- इनके कारण मैंने अपनी शादी तोड़ी, आजीवन अकेली रही। जो कमाया इनकी जिम्मेदारी उठाई और आज ये ऐसा व्यवहार कर रहे हैं? आखिर मेरा भी तो आत्म सम्मान है। पर मुझे नहीं मालूम था औरतों का आत्म सम्मान तो हमेशा गिरवी रहता है- कभी पिता, भाई,पति की चैखट पर तो कभी समाज के दरिन्दों के पास?’बड़ी उधेड़बुन के बीच मैंने इस उम्र में घर की चौखट छोड़ दिल्ली जाना तय किया। मैंने पड़ोस के गाँव के सेल्वम से बात की। उसका परिवार हमारा पुराना परिचित था। सेल्वम परिवार के साथ दिल्ली रहता था। सेल्वम ने मुझे भरोसा दिया। आँसुओं की धार के बीच किरदेई बोली- बस मैं ऐसे काम की तलाश में 6 साल पहले दिल्ली आ गई। पर दिल्ली आ मेरे सपनों को ग्रहण लग गया। परदेश में अकेली औरत कितनी लाचार होती है? ये मैंने तब समझा जब मैं तमिलनाडू से नई टिहरी जेल की सलाखों के पीछे पहुँची। पर क्यों?
‘’मैं सेल्वम के परिवार के साथ दिल्ली में पपनकला बस्ती में रहती थी। कुछ घरों में झाडू पोछा करने के बाद बचने वाले समय में मैं कबाड़ा बीनती। कबाडे़ से रोज 50-60रूपये कमा लेती। झाडू-पोछा की आमदनी अलग थी। मैं सारा पैसा सेल्वम के पास जमा करती। मेरा रोज का खर्च10-15 रूपये से ज्यादा ना था। मैंने सोचा घर जाते वक्त सारा पैसा एक साथ लूंगी। माँ और बहन इतना पैसा देख खुश हो जायेंगे। मुझे दिल्ली में 6 साल हो गये। सेल्वम जुआरी था। उसे नशे की लत थी। वह घर में मारपीट करता। मैं परिवार की जरूरतों पर पैसा खर्च करती। बच्चों की देखरेख करती। मेरा 15-20 हजार से ज्यादा पैसा सेल्वम के पास जमा था। मैं जब पैसे मांगती, वह टालता। हमारी कई बार लड़ाई होती। बाद में मैंने पैसे देने बंद कर दिये। मैं सेल्वम के सिवा किसी को नहीं जानती थी। सो चुप रहना मेरी मजबूरी थी। एक दिन वह बोला मेरे साथ टिहरी चलो। वहाँ डाम बन रहा है। वहाँ बहुत कबाड़ा मिलता है। खूब पैसा कमायेंगे। वहीं तुम्हारा पैसा भी लौटा दूंगा।
‘’सेल्वम हम चार पाँच लोगों को टिहरी लाया- किसी चिरबटिया नाम की जगह पर। चिरबटिया से घनसाली तक मेरा सेल्वम से पैसों को लेकर खूब झगड़ा हुआ। मैं उसकी हरकतों से समझ गई थी कि यह किसी और वजह से यहाँ आया है। सेल्वम चिरबटिया के स्थानीय लोगों के साथ मिल कर भांग की पत्तियों की स्मगलिंग करता था।‘’  
सेल्‍वम किरदेई को वाहक की तरह प्रयोग करना चाहता था। 11 नवंबर 2000 को किरदेई के दुर्भाग्य की कहानी शुरू हुई। घनसाली में वन विभाग और राजस्व कर्मियों ने जंगलात की चैक पोस्ट पर बस संख्या- यू.पी. 08-2377की तलाशी ली, बस की छत से बिस्तरबंद, बोरियाँ, बैग,वी.आई.पी. की अटैचियाँ बरामद कीं। सामान के साथ किरदेई और 4 लोग भांगपत्ती रखने के जुर्म में एन.डी.पी.एस. एक्ट में गिरफ्तार कर नई टिहरी जेल पहुँचा दिये गये। आश्चर्यजनक तौर पर सेल्वम गिरफ्तार लोगों में नहीं था। ना ही यह सामान किरदेई से बरामद किया गया था।
हैरानी की बात थी कि किरदेई के साथ गिरफ्तार 4 लोगों की जमानत हुई। जेन से छूटकर वे अपने देश चले गये। रह गई अकेली बूढ़ी किरदेई- अनजान देश में अजनबी लोगों के साथ जेल की चारदीवारी के बीच।
‘’मैं भाषा से लाचार थी। मैंने इशारों और आँसुओं से बोलने की कोशिश की कि यह मेरा सामान नहीं है। मुझे फंसाया जा रहा है। पर किसी ने मेरी ना सुनी। सिर्फ मेरे आँसू मेरे साथी थे। मेरा भगवान- जेल की ऊँची दीवारें और बंदी रक्षक प्रेमा देवी। मुझे नहीं मालूम था कि मेरा जुर्म क्या है?क्यों नहीं कोई मेरी बात सुनता है? मैंने आज तक किसी का दिल नहीं दुखाया। कभी किसी के साथ बुरा नहीं किया। कभी चोरी नहीं की, कभी झूठ नहीं बोला। मैंने जिंदगी भर जड़ी बूटियां देकर हजारों बच्चों और औरतों की जान बचाई। मैंने कभी इस काम का पैसा नहीं लिया। तुम ही बोलो सुनीता क्या मैं कभी ऐसा काम कर सकती हूँ? ‘’
बोलते-बोलते वह जोर-जोर से चीखने लगी। मैं और दयालु सुनीता कई बार जेल आए। कभी-कभी वह मुझ पर बुरी तरह बिगड़ पड़ती कि आखिर मैं क्यों उसे तंग कर रही हूँ?पूरी जानकारी लेकर मैंने अपनी रणनीति बनाई। मुझे पागल कह हंसने-डराने वालों की कमी ना थी। हरेन्द्र और सुनीता हर वक्‍त मेरी मदद के लिए तैयार मिलते। यह बड़ा सहारा था।
सरकारी वकील और सेल्वम एण्ड कम्पनी के पैरोकार बेहद नाराज थे। वे किसी तरह से किरदेई को मुजरिम करार कर असली मुजरिमों को बचाने के जोड़ तोड़ में लगे थे। मैंने हिम्मत नहीं हारी। मेरे साथ महिला समाख्या टीम चट्टान की तरह खड़ी थी। किरदेई का चेहरा मुझे रात को सोने नहीं देता। भगवान बड़ा दयालु है। उसी दिन शाम मुझे अचानक किसी मित्र ने फोन पर कहा कि मैं किरदेई केस में तुम्‍हारी मदद कर सकता हूँ। अगली दो छुट्टियों में मैं तुझे उसकी फाईल ला दूंगा। तू पढ़ और देख क्या हो सकता है? इसे फंसाया गया है। किरदेई से कोर्ट में भी लोग सहानुभूति रखते थे। पर कोई कानूनी दावपेंचों और षडयंत्रों के बीच उलझना नहीं चाहता था। मेरा यह मित्र सालों से मुझसे बहुत नाराज था कि मैंने बलमदेई को जेल से क्यों छुड़वाया? मेरे को तो यकीन ना हुआ। मैंने सोचा आज भाई जी ने जरूर कुछ ज्यादा ही चढ़ा ली होगी? तब तक टिहरी में खबर आग की तरह फैल गई थी कि कुसुम किरदेई का केस लड़ रही है। मेरा सर ईश्वर के चमत्कार के आगे शिद्दत से झुक गया, जब भाई जी ने अपनी नौकरी की परवाह ना कर मेरे हाथ में चुपचाप फाईल रख दी। मैंने रात भर फाईल पढ़ी। कुछ बेहद जरूरी बातें समझ आईं कि- हाँ यह केस पलटा जा सकता है। इसमें बहुत कमियाँ हैं।
फाइल से नोट्स बनाकर अपनी एडवोकेट दोस्त मृदुला जैन से मिली। दीदी ने बलमदेई सहित मेरे कई और केस फ्री में लड़े थे। वह हमेशा हमारी मदद करतीं। पहले तो दीदी ने हमेशा की तरह डांटा। पहले तो नारकोटिक्स एक्ट का डर दिखाया। पर मैं टस से मस ना हुई। कारण- किरदेई ना तो इस मुल्क की थी, ना उसे कोई यहाँ जानता- पहचानता ही था। किसी को उसकी परवाह नहीं थी। उसके घर वालों तक को पता नहीं था कि वह जेल में है। और तो और उसका तो नाम भी जेल दस्तावेजों में गलत लिखा था। मैंने मृदुला दी को धमकी दी- दीदी मुझे केस तो लड़ना ही है। आप चाहे मदद करो या नहीं। पर उसकी नौबत नहीं आई। दीदी को छोड़ हम कहाँ जाते? वो बड़ी दयालु हैं। रात को उनका फोन आ गया कि कुसुम मैं केस लड़ूंगी। तू वकालतनामा साईन करा ले। यह दूसरी जीत थी।
अब नई महाभारत थी- किरदेई से कागज पर अगूंठा लगवाना। उसे यह भरोसा देना कि हम सच में उसके दोस्त हैं। इन हालातों में किरदेई को कानूनी मदद से ज्यादा जरूरत थी- मानवीय संवेदनाओं, भावनात्मक सहारे,अपनेपन, एक अजनबी माहौल में भरोसे की, जो हम उसे अलग-अलग तरीके से देने की कोशिश कर रहे थे। मैं,सुनीता और गुरमीत बार-बार जेल जाते। हमारी कोशिशों में साझीदार थी- बंदी रक्षक प्रेमा देवी। प्रेमा ने किरदेई को मौन भाषा में समझाया कि कुसुम तेरी मदद करना चाहती है। तू अंगूठा लगा दे। वह बुरी तरह चिढ़ती, बैरक में चली जाती।
वह रात मैं कभी नहीं भूलती। बाहर बहुत ठंड थी। हड्डियाँ काँप रही थीं। मेरा ड्राईवर प्रमोद पंत बड़ा नेक लड़का था। हर वक्त काम को हाजिर। शहर में रोशनी गायब थी। खूब आंधी तूफान उस दिन चला था। उसी दौरान जब कलक्टर राधा रतूड़ी लखनऊ से लौटीं थीं। वह लगभग आठ बजे पहुँची। मैंने भी पूरी बेशर्मी से रात में ही उनसे मिलने की ठानी। सोचा, थोड़ा-बहुत डांटेगी, या ज्यादा से ज्यादा मना कर देंगी। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। कलक्टर सर्दी से कांप रही थीं। मैंने कई मोमबत्तियों की रोशनी में उनको कोर्ट की फाईल दिखा कहा- राधा दी यह अन्याय है। मैंने फ्री पैरवी हेतु वकील भी तैयार कर ली है। अपनी अल्प बुदधि से मैंने कलक्टर को समझाया कि केस में क्या-क्या कमियाँ हैं। केस का दिलचस्प पहलू था कि बरामदगी तो बस से भांग की पत्तियों की हुई पर फोरेंसिक रिपोर्ट में बरामद सामग्री को गांजा बताया गया था। ऐसा क्यों? इनके अलावा 10-12 ऐसे चैंकाने वाले तकनीकि बिन्दु थे, जिन्होंने मुझे आश्वस्त किया कि किरदेई बेगुनाह है।
कुछ सवाल मैंने क्‍लेक्‍टर के सामने रखे-
खचाखच भरी बस में भांग की बरामदगी हुई पर बस सीज क्यों नहीं हुई?खचाखच भरी बस में बरामदगी के बावजूद क्यों नहीं किसी यात्री को सरकारी गवाह बनाया गया?अपराधियों को 24 घंटे के भीतर कोर्ट में क्यों नहीं पेश किया गया? 

आपत्तिजनक सामग्री के बारे में प्रभारी नायब तहसीलदार ने उपजिलाधिकारी घनसाली को क्यों नहीं सूचित किया?और तीन दिन तक क्यों बरामद सामान अपनी कस्टडी में रखा ?क्यों केस में अपराधियों व सामान की बरामदगी राजस्व के बजाए वन विभाग के कर्मचारियों ने की?
मैंने कलक्टर से कहा- बस एक बार आप किरदेई की शक्ल देख लें। फिर आप तय करना कि क्या ऐसी दीन-हीन औरत से वी.आई.पी. सूटकेसों की बरामदगी सम्भव है? यदि आप मेरी बात से सहमत नहीं हो पाएंगी तो मैं चुप हो जाऊंगी। एक सुलझे-संजीदे कलक्टर की तरह वे बोलीं- कुसुम परेशान ना हो। लगता है तुम कई रात से सोई नहीं हो। चलो गरमा गरम काफी पिओ, खाना खाओ। कल हम दोनों जेल चलेंगे।
अगले दिन हम जेल गये। किरदेई की शक्ल देखकर दयालु कलक्टर चुप हो बैरक में ही बैठ गईं। जेलर से उसकी हिस्ट्री जानी, फाईल पढ़ी। बंदीरक्षक प्रेमा से उसके आचरण के बारे में पूछा। डरी सहमी किरदेई को गौर से देखा। फिर मेरी ओर देखा। सिर्फ आँखों की भाषा में मेरे हर कथन की पुष्टि की। हम चुपचाप एक दूसरे को देखते रहे। काले चश्मे के पीछे से लुढ़कते कलक्टर राधा रतूड़ी के आँसू मैंने देखे। वह उतनी ही चतुराई से उनको छिपाने की कोशिश में थी। जेल से लौटने से पहले दयालु कलक्टर किरदेई की मोतियाबिंद से पीड़ित आँखों और पाईरिया से सड़ते दांतों के इलाज का आदेश दे चुकी थीं। हम दोनों चुपचाप लौटे। रास्ते में नम आँखों से खामोशी से बोली- कुसुम तुम कुछ करो इसको बाहर निकालने को। यह बहुत ही गलत हुआ है। हम तुम्हारे साथ हैं। तुमको मुझसे जो मदद चाहिए मैं तैयार हूँ। यह बड़ा भरोसा था कलक्टर का मुझ पर। राधा रतूड़ी किरदेई से मिलीं यह बात आग की तरह फैली। अब किरदेई का केस नया मोड़ ले चुका था।  
अगले दिन मैं, मृदुला जैन और सुनीता जेल गए। किरदेई को सुनीता ने बताया कि राधा रतूड़ी कौन हैं? और समझाया कि वे तुमसे सहानुभूति रखती हैं। उस वक्‍त पहली बार किरदेई की पथराई आँखों में हमने उम्मीद की किरण देखी। उसने चुपचाप वकालतनामा साईन किया। मेरी ओर बड़े प्रेम से देखती रही। मानो कहने की कोशिश में हो- हाँ मेरा ईश्वर और मानवता पर भरोसा पूरी तरह टूटा नहीं है। हम बार-बार जेल जाते। दिल की भाषा में बात करते। अब भी उसकी आँखों में आँसू होते पर ये आँसू खुशी के होते। धीरे-धीरे किरदेई सामान्य होती गई। मुझे देख मुस्कराहट के साथ सलामी देना सीख गई थी। कभी मेरा हाथ पकड़ जोर से भरोसे के आँसू रोती। वह खुश रहने लगी थी। अब वो नियमित खाना खाती। जेल में बंदी रक्षक प्रेमा देवी और कांस्टेबिल सविता ठाकुरी, मीना देवी,ऊषा चैहान, कमला शर्मा ने हमारी बड़ी मदद की। हमारी तेज तर्रार वकील साहिबा ने केस की तेजी से पैरवी हेतु हर कोशिश की। केस की कमजोर कड़ियों को पकड़ अब वो हारी बाजी को पलटने की पूरी तैयारी में लगी थीं।
हमारी कोशिशों को पलीता लगाने वालों की भी कमी नहीं थी। हम जितनी कोशिश उसे बरी करवाने की करते, दूसरा पक्ष उतनी ही ताकत से उसे अपराधी घोषित कराने में लगा था। सरकारी वकील और कई नामी गिरामी लोग बड़े डरे हुए थे क्योंकि- दो महीने में ही मृदुला जैन की दमदार पैरवी ने केस का रुख बदल दिया था। कोर्ट में सबकी सहानुभूति इस लाचार औरत से थी। एक दिन मैंने सुना कि देहरादून से कोई एक्सपर्ट आ रहा है जो कोर्ट में इस बात की पुष्टि करेगा कि यह गूंगी बहरी है। इस केस का एक कमजोर पक्ष था कि किरदेई को गूंगा-बहरा बताकर इशारों में ही उसका अपराध स्वीकार करना बताया गया था। खैर हमने जो नहीं करना था वह भी किया। वह एक्सपर्ट अपनी ही रिपोर्ट की पुष्टि हेतु कभी कोर्ट में नहीं आया। क्योंकि उसे पता चल चुका था कि वह गूंगी-बहरी नहीं है। पर इसके बावजूद जेल के अंदर भी षडयंत्रकारी सक्रिय थे। उनसे ज्यादा सक्रिय था किरदेई का भगवान शिव पर- अटल और अखण्ड विश्वास। मुझे जेल से हर खबर पता चल जाती कि कौन सा नया शिगूफा होने वाला है। हम उसका तोड़ खोजते। यह लुकाछिपी का खेल चलता रहा।
अचानक एक दिन मेरी वकील का फोन आया कि कुसुम जल्दी कोर्ट आओ। किसी ने तुम्हारे नाम से एक पर्चा जेल में किरदेई को दिया है कि- यह कुसुम ने भेजा है। इसे कोर्ट में जज साहब को देना है। यह तुम्हारे छूटने का कागज है। तुम इस पर अंगूठा लगा दो। उस वक्त केस निर्णायक मोड़ पर पहुँच गया था। किरदेई वह कागज किसी को देने को तैयार ना थी। जेल से ही किसी नेक बंदे ने यह खबर मेरी वकील तक पहुँचाई। आप हैरान होंगे जानकर कि उस पर लिखा था- मैं मुजरिम हूँ। मैं अपना अपराध स्वीकार करती हूँ। भोली किरदेई इस विश्वास में कि कुसुम ने दिया है, उसे लेकर कोर्ट गई। बड़ी मुश्किल से उस दिन जज साहब के सामने ही वकील ने वह कागज खींचा। सो यह बला टली। यह बात किरदेई ने सुनीता की मदद से खुद कलक्टर और मुझे बताई। सच जानकर किरदेई फिर से बड़ी आहत और गुस्से में थी। उसने चार दिन खाना नहीं खाया। दयालु कलक्टर राधा रतूड़ी को जब यह पता चला तो वह खुद जेल गई। समझा-बुझाकर अपने हाथों से उन्होंने किरदेई को चाय पिलाई।
उतार चढ़ावों के बीच 23 नवम्बर 2001 को किरदेई के भाग्य का फैसला हुआ। किरदेई को निर्दोष करार दिया गया। विद्वान न्यायाधीश माननीय श्री आर.पी.वर्मा जी ने अपने फैसले में कहा कि जाँच अधिकारियों ने एन.डी.पी.एस.एक्ट की धारा 42  50 का अनुपालन नहीं किया है। मुझे मृदुला दीदी ने फोन कर के बुलाया, पर पता नहीं क्‍यों उसके छूटने की खुशी मैंने अकेले ही सैलीब्रेट करना तय किया। मैं वैसे तो नई टिहरी में ही थी। मेरी वकील बता रही थी कि छूटने के बावजूद भी घंटों किरदेई कोर्ट से बाहर नहीं गई। वह मेरा इंतजार करती रही- अपनी टूटी फूटी हिंदी में कुचुम-कुचुम बोल। पर मुझ पर बहुत जिम्मेदारियां थीं। बहुत दिनों से हमारा कार्यालय का जरूरी काम छूटा था। सो आफिस के लोगों को भेजा। मेरी कलक्टर टिहरी डुबाने वाली थीं। सो मुझे अपने घर की लिपाई-पुताई और अपनी गुरू के माई बाड़ा के निर्माण काम के साथ चम्बा अस्पताल में भर्ती बीमार माँ को देखना था। किरदेई केस में मेरा कीमा बन गया था। मैंने बहुत नाराजगी झेली पर मैं संतुष्ट थी। मैंने गुरमीत से कहा छोड़ो किरदेई से मिलने से ज्यादा जरूरी है, उसे घर तक भेजने का इंतजाम कराना। सो पुलिस अधीक्षक अमित सिन्हा व जेलर से मिलकर उसे सरकारी अभिरक्षा में गाँव भिजवाने के प्रबंध में काफी वक्त निकल गया। वह छूट गई थी। यही हमारे लिए काफी था। हाँ मैं किरदेई को गाँव पहुँचाने वाली पुलिस टीम के सम्पर्क में रही।
बाद में किरदेई कथा-व्यथा को अखबारों और भारत सरकार के समाज कल्याण विभाग की पत्रिका संदेश ने महिला सशक्तिकरण वर्ष की लीड स्टोरी के तौर पर छापा। कलक्टर राधा रतूड़ी और महिला समाख्या के लिए यह बड़ा सबक और सौगात थी। यह जीत महिला ब्रिगेड के समन्वित प्रयासों का प्रतिफल था। हमने किरदेई की कथा-व्यथा का विश्लेषण अपने न्यूज लैटर ‘’रंतरैबार’’ में किया। किरदेई पर एक शानदार फ्रलैश कार्ड सीरिज मेरी सहकर्मी अमीता रावत ने तैयार की, जिसको महिला हिंसा पर संवाद हेतु गाँव-गाँव में प्रयोग किया गया।
किरदेई ने ठीक ही कहा था कि- औरतों के साथ लोग परदेश में ठगी करते हैं। कलक्टर राधा रतूड़ी का तबादला हो गया था। कलक्टर राधा रतूड़ी ने हमको ट्रीट देने का वादा किया था। पर मुझे आज तक वक्त ही नहीं मिला ट्रीट लेने का। सो वो आज भी हमारी कर्जदार हैं...। मैं सोचती हूँ ऐसा अन्याय फिर कभी किसी के साथ ना हो। गुमनाम किरदेई का छूटना मेरे जीवन का सबसे संतुष्टि वाला पल है। जहाँ हममें में से कोई भी एक दूसरे को नहीं जानता था। किसी को किसी से कोई अपेक्षा नहीं थी। किसी को किसी से दुबारा नहीं मिलना था। सब कुछ नियति के तयशुदा कालचक्र की तरह खामोशी से चल रहा था। यही तो जीवन के सबसे सुंदर पल हैं ना! जहाँ हर कोई निस्वार्थ भाव से अपने हिस्से की आहुति महादेव के इस- किरदेई यज्ञ में खामोशी से डाल उतनी ही तेजी से खामोश हो गया था। बस यूं ही किरदेई मेरे मन में कवीन्द्र रवीन्द्र की गीतांजली के सार- निर्भय मन, सर ऊंचा और श्रीकृष्ण के उपदेश-जब-जब धर्म की हानि होगी मैं आऊंगा बार-बार आऊंगा.... के व्यवहारिक बोध पर टिका कर अपने देश चली गई। मैं कभी नहीं भूलती हूँ किरदेई केस जीतने पर राधा दी की प्रतिक्रिया- कुसुम हमारा जी करता है हम यूं ही तुम्हारी लाजवाब टीम का मेम्बर बन एक साथ औरतों और कमजोर लोगों के लिए जमीनी काम करें। पर वो दिन फिर कभी नहीं आया।
सो कई कारणों से मैं किरदेई की अहसानमंद हूँ। उसको शुक्रिया बोलने को मेरे पास ना कोई शब्द हैं और ना कोई भाव ही...। परदेशी किरदेई मेरे मन के कोने में कहीं चुपचाप एक बुझी चिंगारी की तरह जीवन का कोई नया सबक सिखाने को बारूद की तरह बैठी है, महिला सशत्तिकरण पर अनुत्तरित इन सवालों के साथ- कि आखिर कब तक असली दोषी के बजाय निर्दोष लोग कानूनी प्रक्रियों का शिकार होंगे? किरदेई को तो दैवीय अनुकम्पा ने बेगुनाह साबित किया पर यहाँ सवाल किरदेई का नहीं, बल्कि एक साफ सुथरी चौकस व्यवस्था के ईमानदार क्रियान्वयन का है? जहाँ कोई और बेगुनाह किरदेई किसी जुल्म का शिकार ना हो? और किरदेई जैसों की जेल प्रताड़ना का हिसाब कौन देगा?
इस अनोखे किरदेई यज्ञ में आहुति डालने वाले हर हाथ की मैं तहेदिल से शुक्रगुजार और कर्जदार हूँ।

जब रात है ऐसी मतवाली फिर सुबह का आलम क्या होगा

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डा. रश्मि रावत


यह दुनिया जिसमें जो कुछ भी हलचल भरा है, वह पुरुषों कीउपस्थिति से ही गुंजायमान दिखायी देता है। यहां तक कि दोस्तियों के किस्‍से भी। स्त्रियों की निरंतर, अबाधित, बेशर्त दोस्तियों के नमूने तो नजर ही नहीं आते, जहाँ वे एक-दूसरे के साथ जो चाहे सो कर सकें और कोई न उंगली उठाए और न बीच में आएबिना ऊँच-नीच सोचे एक-दूसरे के सुख-दुख में सहभागिता कर सकें। सहेलियाँ ही नहीं,एक ही घर में पलने वाली बहनें भी शादी के बाद अलग-अलग किनारों पर जा लगती हैं और नई व्यवस्था से ही खुद को परिभाषित करती हैं। खुद अपनी ही पहली पहचान से एक किस्म का बेगानापन उनकी वर्तमान जिन्‍दगी का भारतीय परिवेश है। इसलिए विवाहित बहनें भी खुद को एक धरातल पर नहीं पातीं हैं। अपनेपन का, परस्परता का वह प्यारा सा साथ जो पिता के घर में मिलता रहा, प्रायः एक औपचारिक रिश्तेदारी में बदल जाता है। हाल ही में रिलीज हुई शंशाक घोष निर्देशित वीरे दि वैडिंगबॉलीवुड मुख्यधारा की सम्भवतः ऐसी ही पहली फिल्म है जो इन स्थितियों से अलग, बल्कि विपरीत वातावरण रचती है।  

फिल्‍म की चार सखियों के बीच बड़ी गहरी बॉंडिंग है। आपस में उन्मुक्त भाव से दुनिया से बेपरवाह हो कर ये सहेलियाँ मौज-मस्ती और मनमर्जियाँ करती हैं। फिल्म के नाम से ही जाहिर है कि इन मनमर्जियों में स्त्री-मन की अद्वितीयता और गहरी परतें नहीं मिलेंगी। बचपन से एक-दूसरे की मनमीत ये सखियाँ छाती ठोक कर अपने को वीरेजो कहती हैं। जीवन-भर साथ चलने वाले ऐसेगहरे याराने पुरुषों के बीच तो आम हैं और घर-परिवार-समाज में इस कदर स्वीकृत कि दोस्तों के बीच कोई नहीं आता। पुरूषों की दुनिया के ये दोस्ताने तो ऐसे सम्बंधतक स्‍वीकृत रहते हैं कि कई बार परिवार के दायरे तक पहुंच जाते हैं। सवाल है कि अटूट यारानों का बिन दरो-दीवार का ऐसा जीवंत परिवार क्या स्त्रियाँ नहीं बना सकतीं?


फिल्‍म में महानगर की चार आधुनिक स्त्रियाँ ऐसा खुला परिवार रचने की यात्रा पर जब निकलीं तो खुद को वीरेमान लेती हैं। वे नाम-मात्र की वीरे नहीं हैं, हर सुख-दुख में, रस्मों-रिवाजों के मॉडर्न रूपों को निभाने में एक-दूसरे के साथ खड़ी हैं। फिल्‍म में गाना बजता है-कन्यादान करेगा वीरा/मत बुलवाना डैडी। वीरा पूछ्यां क्या शादी का मीनिंग/मैं क्या बेटा जेल हो गई।

दिक्‍कत यही है कि फिल्‍म इस तरह का सवाल खड़ा नहीं करती है कि कन्या क्या वस्तु है जिसे दान में दिया जा सकता है ? कन्यादान भी दोस्तों से ही करवा लेना चाहती हैं वे। कन्यादान की परम्परा की तह में जा कर सोचने के लिए फिल्म कोई राह नहीं बनाती है। अतः जिन प्रश्नों को इसमें उठाया गया है, वे स्त्रीत्व के विकास में क्या और कैसे जोड़ते हैं, इसपर चर्चा जरूरी हो जाती है।

स्त्रियों की आजादी में सबसे बड़ी बाधा सदियों से पीढ़ी-दर-पीढ़ी जड़ें जमाए उसके संस्कार ही बनते हैं और ये बाधक समाज फिल्म में लगभग गायब सा है।चारोंकथा पात्र ऐसे किसी भी सवाल कम से कम टकराती तो नहीं ही हैं।

मीरा सूद (शिखा तलसानिया) अमरीकन पुरुष से प्रेम विवाह करके एक बच्चे की माँ भी बन चुकी है।यह विदेशी पुरुष सत्तात्मक रोग से मुक्त है उसके भरोसे बच्चा छोड़ कर न केवल दोस्तों के साथ मौज की जा सकती है, वह एक संवेदनशील, समर्पित पति भी है। फिल्‍म में दिखाये गए इस संबंध को इस तरह भी व्‍याख्‍यायित किया जा सकता है कि शायद ऐसा भारतीय पति पाना मुश्किल रहा होगा तो मीरा के दिल के तार देश की सीमा को पारकरके विदेशी धरती से जुड़े दिखाए गए हैं। जैसे-तैसे अल्हड़, स्वच्छंद याराना के बीच आ सकने वाली किसी भी अड़चन को काँट-छाँट दिया गया है कि सिर्फ इन चार महानगरीय बालाओं के आपसी खिलंदड़पने पर नजर रहे। इस तरह उन्मुक्त, बिना विचारे जिंदगी का लुत्फ लेते रहने से तो गलतियाँ होना लाजमी है। गलतियाँ होती हैं तो हों। यह तो टेक ही है फिल्म की। गाने में भी इस आशय की बात है।

कालिंदी पुरी (करीना कपूर), जिसकी वैडिंग के इर्द-गिर्द कहानी घूमती है, उसकी माँ की भी यही सीख है कि बड़ों के लिए बाद में जो गलत साबित हो गया,उसे अपने लिए गलत मान कर जीना मत छोड़ देना। जो भी तुम्हें मन करे, सही लगे जरूर करना। तुम अपनी गलतियों से सीखना। स्त्री को भी प्रयोग करने का अधिकार है। गलती के डर से जिंदगी का अनुभव कोष खाली रखने के फिल्म सख्त खिलाफ है। यह फलसफा इसकी ताकत है। अपने आवेगों के प्रति ईमानदार रह कही व्यक्ति समृद्ध होता है और समय के साथ परिपक्व होता है। गिरने के डर से सुरक्षा की खोल में दुबके रहने से जिंदगी की घुड़सवारी कैसे होगी। पर जीवन में सक्रिय हस्तक्षेप का संदेश उतनी खूबसूरती से संप्रेषितनहींहो पाता। क्योंकि स्त्री देह पौरुष साँचे में ढल कर आई है। एक-दूसरे को  ब्रो(BRO)’कहने वाले महानगरीय दोस्त जो-जो करते हैं, इन चारों आधुनिक स्त्रियों को सब कुछ वही-वही करना है। घटाघट पीना है, सिगरेट के धुँए उड़ाते जाना है, इरोटिक बातें, गाली-गलौज करनी हैं। किसी भी बात पर ठहर कर सोचे बिना उसे हँसी-मजाक, छेड़-छाड़ में उड़ा देना है। बारहवीं क्लास का अंतिम दिन शैंपेन पीते हुए ब्वाय फ्रैंड, सैक्स की बात करते हुए जिसतरह बिताते हैं। दस वर्ष की छलाँग के बाद जब कालिंदी की शादी के लिए दोबारा मिलते हैं, तब भी बातों में कोई गुणात्मक फर्क नहीं दिखता। आवेगों और गलतियों से सीखने के लिए तो गलतियाँ और आवेग खुद के होने चाहिए। फिल्म के मिजाज को देखते हुए सामाजिक भूमिका को नजरअंदाज कर भी दिया जाए तो भी देह की संरचना बदलने से भी बहुत कुछ बदल जाता है। दिल चाहता हैऔर जिंदगी न मिलेगी दोबाराफिल्मों में भी अलमस्त दोस्ती की मौज-मस्तियाँ हैं। उन्हीं मौजों में वे परिपक्व होते जाते हैं। कॉलेज के समय के अल्हड़ नवयुवक आगे चल कर जिम्मेदार, समझदार व्यक्ति में तब्दील होते हैं। जिंदगी न मिलेगी दोबारामें एक-दूसरे को उनके मन में बसे डर और बंधनों से मुक्त करने में तीनों दोस्त मददगार साबित होते हैं।वीरे दि वैडिंगमें उम्र के साथ व्यक्तित्व में ऐसा उठान तो नहीं दिखता पर दुनिया में हर हाल में अपने साथ खड़े, बेशर्त स्वीकार करने वाले चंद लोगों के साथ होने का आत्मविश्वास लगातार जीवंतता को बनाए रखने और अपनी-अपनी कैद से मुक्त होने की राह जरूर बनाता है।

सगाई की पार्टी में चारों अपनी-अपनी उलझनों में इस कदर घिरी हुई हैं कि सब अपने-अपने द्वीप में कैद सी हो जाती हैं। दुनिया के सरोकारों से तो पहले ही कटे हुए से थे चारों। निजी समस्या के बढ़ने पर एक-दूसरे से भी कट जाती हैं। सच्चे दोस्त नजर नहीं आ रहे थे और फॉर्म हाउस में तड़क-भड़क, शोर-शराबे में होने वाली बेहद खर्चीली झूठे दिखावे वाली सगाई में अकेली पड़ कर दुल्हन को एहसास होता है कि उसे दिखावे के लिए शादी नहीं करनी और वह भाग जाती है और फिर एक-दूसरे की गलतियों के हवाले दे-दे कर थोड़ी देर चीखना-चिल्लाना, रूठना होता है। इस अवरोध को तोड़ता है करोड़पति बाप की बेटी साक्षी सोनी (स्वरा भास्कर) का फोन और चारों निकल पड़ती है फुकेत में गलैमर से भरपूर मौज-मस्ती करने। फिल्म की कहानी के झोल कोई क्या देखे। स्त्रियों के लिए तो मात्र इतनी सी बात काफी रोमांच से भरी है कि एक सबके लिए दिल खोल कर खर्च करे और बाकि बेझिझक स्वीकार करके अकुंठ भाव से छोड़ दें खुद को जिंदगी के बहाव में। वहाँ झकास जगहों पर घूमते-फिरते-तैरते-खाते-पीते, हँसते-गपियाते अपनी वह बातें इतने सहज भाव से एक-दूसरे से बोल देती हैं, जिसने उन्हें भीतर ही भीतर अपनी गिरफ्त में लिया हुआ था। कोई किसी के लिए कभी जजमेंटल नहीं होता। हास-परिहास करते हैं, खुलेपन चुहल और छेड़-छाड़ करते हैं। किसी को कभी किसी भी दूसरे की बात इतनी गम्भीर, इतनी बोझिल नहीं लगती जिसके साथ जिया न जा सके। एक साथ बोलने-बतियाने भर से गाँठें खुल-खुल जाती हैं। एक दूसरे से दूर होने पर जिसे बोझ की तरह छाती पर ढो रहे थे। एक धरातल पर खड़ी चार जिंदगियाँ एक ताल पर एक साथ धड़क कर मानो अपनी धमक भर से उसे रूई की तरह धुन के उड़ा देती हैं। स्त्री की डोर स्त्री से जुड़ते जाने में ही स्त्रीत्व की शक्ति निहित है। यह बहनापा जिस दिन मजबूत हो गया स्त्री को कमतर व्यक्ति बनाने वाली पारम्परिक समाज की चूलें पूरी तरह हिल जाएँगी। हर स्त्री अपने-अपने द्वीप में कैद है, उनके बीच निर्बंध, निर्द्वंद्व आपसदारी के सम्बंध पुरुषों की तुलना में बहुत कम विकसित होते हैं इसलिए समाज में तमाम सामान्यीकरण, कायदे-कानून पुरुषों की अनुकूलता में विकसित होते हैं। पुरुषों की गलतियों पर उंगली नहीं उठाई जाती, उन्हें हर वक्त समाज की निगाहों की बंदिशें, बरजती उंगलियाँ नहीं बरदाश्त करनी पड़तीं। गलतियाँ करते हैं, उससे सबक ले कर अनुभव का दायरा विस्तृत कर आगे बढ़ जाते हैं। लेकिन समाज की निगाहों में गलत एक कदम स्त्री के पूरे जीवन को प्रभावित करता है। फिल्म की ये चार स्त्रियाँ एक-दूसरे से अपने अनुभव साझा न करतीं तो नामालूम सी बात की जीवन भर सजा भोगतीं और यह वास्तविक जीवन में होता भी है क्योंकि स्त्री को कॉमन प्लेटफॉर्म नहीं मिल पाता। हालांकि सशक्त कहानी न होने के कारण बातें असंगत लग सकती हैं कि ये कैसे सम्भव है किसाक्षी जैसी अमीर, मॉडर्न, पढ़ी-लिखी बोल्ड लड़की अपनी यौनिकता की पूर्ति करने के लिए इतना अपराध बोध पालेगी कि सबके ताने झेलती रहे और किसी से कुछ भी न कह पाए, उसकी शादी टूट जाए और उसका नकचढ़ा पति उसे इस एक्शन के लिए ब्लैकमेल करता रहे कि यदि उसे 5 करोड़ न दिए तो वह सबको बता देगा। ऐसे ही आत्मविश्वास से भरी मीरा बच्चे होने के बाद आए मोटापे और शारीरिक बदलावों के कारण दाम्पत्य रस खो दे। दिल्ली जैसे महानगर में वकील सुंदर, स्मार्ट अवनि शर्मा ( सोनम कपूर) अपने लिए उपयुक्त जीवन साथी न खोज पाने और माँ की शादी की रट और उम्र निकली जा रही के बारम्बार उद्घोष से घबरा जाए और कालिंदी तो प्रेम और विवाह के द्वंद्व से हैरान-परेशान है। वह अपने प्रेमी ऋषभ मल्होत्रा से अलग भी नहीं रह सकती और शादी में बँधना भी नहीं चाहती।  पारम्परिक समाज में स्त्री के शोषण की आधार भूमि ही बनता है परिवार तो डर लाजमी भी है। बहनापे की यह डोर कुंजी बनती है जिंदगी में जड़े तालों को खोलने के।


अनगढ़ स्क्रिप्ट और अपरिष्कृत ट्रीटमेंट के बावजूद फिल्‍म से यह संदेश तो साफ मिलता है कि स्त्री के साथ स्त्री का साथ होने मात्र से जिंदगी में बेवजह आने वाली चुनौतियाँ अशक्त हो कर झड़ जाती हैं। समय के साथ स्त्री जब अपने खुद के वजूद के साथ अपने ही साँचे में सशक्त ढंग से बहनापे के रिश्ते बनाएंगी,न कि वीरे के,तब उसमें जिंदगी की वो उठान होगी, आनंद की ऐसी लहरें होंगी कि जिंदगी सार्थक हो उठेगी और वह समाज की एक महत्वपूर्ण कड़ी बनेगी। तब वह अपनी देह के रोम-रोम से जिएगी। इस फिल्म के किरदारों के आनंद के स्रोत तो मुख्य रूप से दो अंगों तक सिमट कर रह गए हैं। जबकि स्त्री के अंग-अंग में सक्रियता की, सार्थकता की अनेकानेक गूँजें छिपी हैं। सदियों के बाद तो स्त्री को ( फिलहाल छोटे से तबके को ही सही) अपने खुद के शरीर पर मालकियत मिली है। उसके पास अवकाश है। मास-मज्जा की सुंदरतम सजीव कृति को वह अपने ढंग से बरत सकती है। क्या न कर ले इससे। रोम-रोम से नृत्य, खेलना-कूदना, दौड़ना-भागना, पहाड़ों की चोटियाँ लाँघना, पानी की थाह पाना, झिलमिलाते तारों का राज खोजना, अपनी ही साँसों का संगीत सुनना, गति-स्थिति, वेग-ठहराव......हर चीज का एहसास करना। अपनी सचेतन जाग से सोई हुई सम्भाव्यता को जगा भर लेना है,जो सचमुच के ‘वीरेनहीं समझ पाएँगे,क्योंकि उनके पास यह शरीर और ये मौके हमेशा से उपलब्ध थे। उन्हें स्त्रियों की तरह अनथक कोशिशों से इन्हें अर्जित नहीं करना पड़ता।


तंग गलियों से भी दिखता है आकाश

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इसलिए नहीं कि ‘तंग गलियों से भी दिखता है आकाश’ यादवेन्द्र जी की पहली किताब है, बल्कि इसलिए कि मेरे देखे हिंदी में यह पहली किताब है जिसमें दुनिया के विभन्न हिस्सों के रचनाकारों की रचनाओं के अनुवाद एक ही जगह पढ़ने को मिल रहे हैं, यह बात भी ध्या्न खींचती है कि यह किताब भारत से इतर दुनिया के स्त्री रचनाकारों के गद्य का नमूना पेश करती है। जहां तक मेरी जानकारी है, किताब में शामिल ज्यादातर अनुदित रचनाएं यादेवन्द्र जी की उस सहज प्रवृत्ति का चयन हैं जिसके जरिये वे अपने भीतर के कलारूप को अपने मित्रों के साथ शेयर करना चाहते रहे हैं। पुस्तक की भूमिका भी इस बात की गवाह है जब वे लिखते हैं, ‘’कोई पन्द्रह साल पहले की बात होगी, ‘द हिन्दू ‘ में प्रकाशित एक युवा भारतीय लेखक की कहानी ‘चॉकलेट’ मुझे बहुत पसन्द आयी भी और मैं उसे अम्मा को सुनाना चाहता था... पहले सोचा सामने बैठ कर हिन्दी अनुवाद करते-करते बोलकर सुना दूंगा पर लगा इससे कथा का तारतम्य टूट जाएगा सो बैठ कर कॉपी पर अनुवाद लिख डाला।‘’ यानी दुनिया के साहित्य से रिश्ता बनाते हुए जब उन्हेंअपने मन के करीब की कोई रचना नजर आयी उसे अपने मित्रों तक ही नहीं, बल्कि बहुत से दूसरे लोगों तक भी पहुंचाने के लिए वे उसे हिन्दी में अनुवाद करने को मजबूर होते रहे। कल्पित रूप में किसी किताब की योजना के साथ तो उनका चयन किया ही नहीं गया। यही वजह है कि अपने चयन में ये रचनाएं इस मानक से भी मुक्त कि भारतीय साहित्य से उनकी संगति एकाकार हो रही है या नहीं। यदि जुदा हैं तो उसके जुदा होने के कारण क्या हैं, विषय की  विविधता से भरी इन  रचनाओं के चयन की आलोचना में यह आरोप नहीं है ।  बल्कि उस बिन्दु की की ओर इशारा करना है कि इस पुस्तक की कुछ रचनाओं का मिजाज हिन्दी की कहानियों से ही नहीं अपितु अन्य भारतीय भाषाओं की कहानियों (यह कथन सीमित जानकारी के आधार पर) से भी भिन्न है और पाठक के अनुभव क्षेत्र को व्यापक बनाता है। 

संग्रह की दो कहानियां का विशेष रूप से जिक्र करना चाहूंगा। पहली, आयरलैंड की रचनाकार मीव ब्रेन की कहानी ‘जिस दिन हमारी पहचान हमें वापिस मिल गयी’। विचार/राजनीति और कला को दो भिन्न रूप और एक दूसरे से जुदा मानने वाले यदि इस कहानी को पढ़ेंगे तो निश्चित है कि किंचित हिचकिचाहट भी यह कहने में महसूस नहीं करेंगे कि बिना विचार के कला का कोई औचित्य नहीं। बहुत महीन बुनावट की यह उल्लेखनीय रचना है। 
दूसरी, ईराक की रचनाकार बुथैना अल नासिरी की कहानी ‘कैदी की घर वापसी’। आजकल ‘राष्ट्र वाद’ का डंका पीटने वाली मानसिकता को आईना दिखाती यह कहानी उस यथार्थ से रूबरू होने का अवसर देती है कि सत्ता किस तरह से लठैती के झूठे तमगे से नवाजती है और जीवन से हाथ धोने को मजबूर एक सैनिक के प्रियजनों को किस तरह की ‘शहादती’ प्रतिष्‍ठा से भर देती है। शहीद घोषित हो चुका कोई सैनिक यदि कई सालों के बाद, जैसे-तैसे बचते-बचाते हुए, सकुशल घर लौटता है तो आत्मीयता को मिले उपहारों में घोल कर पी चुके सगे-संबंधी किस तरह से पेश आ सकते हैं। यह किसी एक देश की सत्‍ता का चरित्र और किसी एक भूगोल का यथार्थ नहीं, बल्कि उसकी व्‍यापाकता सार्वभौमिक है। 

वे कहानियां जिनके मिजाज एक निश्चित भूगोल और समाज के यथार्थ के साथ एकाकार होने के कारण हिन्दी से भिन्न भी हैं, रचनाकारों के परिचय के तौर पर दर्ज बहुत सी बातें, पाठक को उसे अपने संदर्भों के साथ मिलान करते हुए पढने का अवसर प्रदान कर रहे हैं।


इस ब्लाग के पाठक यह फख्र महसूस कर सकते हैं कि संग्रह की कुछ रचनाओं को वे बहुत पहले ही यहां भी पढ़ चुके होंगे। अभी उसी कड़ी को संभालते हुए यादवेन्द्र जी के चयन की दो बानगियां यहां अतिरिक्तं रूप से सांझा की जा रही हैं। संभवत: भविष्य की किसी पुस्तक में ये फिर से दिखायी दें।

अर्जेंटीना की कहानी

अनूठी आदर्श जोड़ी 

                     

   -- एंद्रेस नेओमान  (अर्जेंटीना)








 ( एक)

मेरा नाम मार्कोस है। मेरी  हमेशा से क्रिस्टोबल बनने की ख्वाहिश रही है।  
पर ऐसा नहीं है कि मुझे क्रिस्टोबल कह  पुकार जाए इसकी मंशा है - वह मेरा दोस्त है ,जिसको मैं अपना  बेस्ट फ्रेंड कहता हूँ ... और कोई नहीं है मेरा बेस्ट फ्रेंड ,बस वही है। 
गैब्रिएला मेरी पत्नी है - वह मुझसे बेहद प्यार करती है ... पर सोती क्रिस्टोबल के साथ है। 
क्रिस्टोबल  इंटेलिजेंट है ,खुद पर भरपूर भरोसा है उसे और साथ साथ चुस्त तथा फुर्तीला डांसर है।उसको घुड़सवारी भी आती है ... और तो और वह लैटिन ग्रामर में उस्ताद है। रच रच कर लजीज़  खाना बनाता है जिसे औरतें बड़े चाव से खाती हैं। मैं कहूँगा कि गैब्रिएला उसकी फ़ेवरिट डिश है। 
जो सारे मामले को नहीं जानता वह सोच सकता है कि गैब्रिएला मुझसे धोखा  कर रही है पर सच्चाई इस से ज्यादा परे और कुछ  नहीं हो सकती   
मेरी  हमेशा से क्रिस्टोबल बनने की ख्वाहिश रही है पर वहाँ सामने खड़े होकर टुकुर टुकुर ताकने के लिए नहीं। मैं भरपूर कोशिश करता हूँ कि और कुछ बनूँ पर मार्कोस न बनूँ। डांसिंग की क्लास जाता हूँ और किसी विद्यार्थी की तरह किताबों को छान मारता हूँ। मुझे भली तरह से एहसास है कि मेरी पत्नी मेरा बहुत सम्मान करती है .. इतना कि  वह बेचारी सोती मेरे नहीं  उस आदमी के साथ है बिलकुल जिसके जैसा मैं बनने  का यत्न करता रहता हूँ।क्रिस्टोबल के बलिष्ट सीने में दुबक कर मेरी गैब्रिएला हमेशा अधीर होकर आशाभरी नज़रों से मेरी ओर देखती है... दोनों बाँहें फैला कर। 
उसके अंदर का धीरज देख कर मैं रोमांच और उत्तेजना से भर उठता हूँ .... बस हरदम यही मनाता रहता हूँ कि उसकी उम्मीदों पर खरा उतर पाऊँ जिस से एकदिन हम दोनों का भी संयोग बैठे। वह इस अटल प्रेम को साकार रूप देने के लिए कितनी   लगन  से लगातार प्रयास कर रही है - क्रिस्टोबल की नजर से छुप छुप कर पीठ पीछे  उसके शरीर, स्वभाव और पसंद के बारे में गहराई से पता करती रहती है जिस से वह तब पहले की तरह ही मेरे साथ भी खुश और सहज बनी रहे जब मैं बिलकुल क्रिस्टोबल की तरह बन जाने में कामयाब हो जाऊँ - तब हमें उसकी दरकार नहीं रहेगी हम उसे अकेला उसके हाल पर छोड़ देंगे।    

(दो) 

यह याद रखने वाली बात है कि फूहड़पन कभी कभी जरूरत से ज्यादा समानता से  भी उपजती है। एलिसा और इलियास को देख कर यह बात कही जा सकती है - वे इसके बिलकुल उपयुक्त उदाहरण हैं। इनमें से एक अपनी बाँयी बाँह हवा में ऊपर लहराता है और दूजा दाँयी बाँह तब जाकर वे एक दूसरे को आलिंगन  में ले पाते हैं फिर भी जब वे एक दूसरे की बातें करते हैं तो लगता है जैसे उनके मन तन में कामोत्तेजना दहाड़ें मार रही हो। उन दोनों की आदतें बिलकुल एक समान थीं और अलग अलग घटनाओं पर भी राजनैतिक मतभेदों की दूर दूर तक कोई संभावना नहीं दिखायी देती - झगड़ने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता। संगीत दोनों एक ही सुनते और दोनों ठहाके लगा कर हँसते भी तो एक ही लतीफ़े पर।  जब वे किसी रेस्तराँ में खाने जाते तो बगैर दूसरे से  कुछ पूछे इनमें से एक ऑर्डर दे देता। कभी ऐसा नहीं होता कि उनमें से किसी एक को जिस समय नींद आ रही हो उस समय दूसरा नींद नहीं अलग मूड में हो और यह उनकी सेक्स लाइफ़ के लिए  बड़ा मुफ़ीद था हाँलाकि व्यावहारिक तौर पर इसके अपने नुकसान  भी थे - जैसे सुबह सुबह उठ कर पहले बाथरूम कौन जाये ....  या रात में फ्रिज में रखे  दूध का ग्लास पहले कौन पीने के लिए उठा ले ...  या कि पिछले हफ़्ते मिलजुल कर योजना बना कर खरीदा गया नॉवेल पहले कौन पढ़ कर ख़तम कर ले - इसको लेकर उन दोनों के बीच अदृश्य प्रतिद्वंद्विता रहती। सिद्धांत रूप में कहें तो एलिसा बगैर किसी अतिरिक्त  कोशिश के सेक्स में अपने ऑर्गैज़्म (चरम बिंदु) पर उसी पल पहुँचती जिस समय इलियास वहाँ कदम रखता पर व्यावहारिक जीवन में उन दोनों के शरीरों का एक समय में एक गाँठ में बँध जाना एकदम सहज  और अनायास था। उनके बीच इस तरह की समानता को देख कर एलिसा की माँ अक्सर कहती कि देखो लगता है दोनों जैसे एक ही संतरे की बीच से आधा आधा काट दी गयी दो फाँकें हों। जब भी वे यह कहतीं दोनों के गालों पर लाली छा  जाती और दोनों झुक कर एक दूजे को चूमने लगते। 
उस ख़ास उथल पुथल वाली रात एलिसा बिस्तर से उठ कर बीच सड़क पर जोर जोर से चिल्लाने को आतुर थी: मैं दुनिया में सबसे ज्यादा नफ़रत यदि किसी से करती हूँ तो वह और कोई नहीं तुम हो  ... हाँ ,तुम ... सिर्फ़ तुम। और इलियास था कि गुस्से में बोल वह भी रहा था पर उसकी आवाज़ एलिसा की चीख के सामने मामूली  और कमजोर थी सो अनसुनी रह जा रही थी। इसके बाद वे दोनों सोने की कोशिश करते रहे पर डरावने सपनों ने उन्हें चैन से सोने न दिया ... सुबह उठ कर  बगैर एक शब्द बोले पूरी ख़ामोशी के साथ उन्होंने नाश्ता किया और यह बातचीत करनी भी जरूरी न समझी कि इस घटना के बाद अब आगे क्या और कैसे करना है। शाम को जब एलिसा काम से घर लौटी और बैग में अपने सामान समेटने सहेजने लगी तो उसे पहले से आधा खाली वार्ड रोब को देख कर कोई अचम्भा नहीं हुआ। 
जैसा ऐसे मामलों में दो प्रेमियों के बीच आम तौर पर हुआ करता है , एलिसा और इलियास ने कई बार बीती बातों को भुला कर सुलह कर  लेने की कोशिशें कीं .... पर हुआ कि जब भी एक ने दूसरे से  फ़ोन पर बातचीत करने की कोशिश की उधर का फ़ोन हमेशा बिज़ी आया।इतना ही नहीं उन दोनों ने कई मौकों पर आपस में मिल बैठ कर आमने सामने बात करने की योजना बनाई पर यह सोच सोच कर कि दूसरे ने इस बात को खाम खा इतना तूल दे दिया और मिलने में इतनी देर क्यों लगाई , तय समय और स्थान पर मिलने भी नहीं गए - कोई एक नहींदोनों में से कोई भी नहीं गया।  
   
(स्पैनिश से निक केस्टर व लोरेंजो गार्सिया द्वारा किये अंग्रेजी अनुवाद पर आधारित तथा ओपन लेटर द्वारा 2015 में प्रकाशित "द थिंग्स वी डोंट डू" संकलन से साभार) 

म्हारी छोरियाँ क्या छोरों से कम हैं

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मैं आगे, जमाना है पीछे

डॉ रश्मि रावत


खेलों के महाकुम्भ में विश्व भर की आँखें मेगा प्रतियोगिताओं में लगी रहती हैं। उस वक्त लैंगिक समानता के संदेश प्रभावी ढंग से सम्प्रेषित होते हैं। सितारे खिलाड़ी जो करते, जो बोलते हैं उनका लोगों पर बहुत प्रभाव पड़ता है। इसलिए वे निजी कम्पनियों के ही नहीं सामाजिक प्रगति के भी ब्रांड अम्बेसडर हो सकते हैं। इस दृष्टि से हाल ही में सम्पन्न हुए एशियाड 2018 में भारतीय खिलाडि़यों का कुल प्रदर्शन चाहे पदकों के लिहाज से पूर्व की स्थिति में खास इजाफा करता हुआ न भी दिखा हो तो भी सामाजिक वातावरण में स्‍त्री चेतना के बदलावों की एक झलक जरूर दिखायी दी है। स्वप्ना बर्मन, हिमा दास, द्युतिचंद, हर्षिता तोमर, विनेष फोगट, राही सरनोवत, पी.वी. संधु, सानिया नेहवाल समेत कई अन्य स्त्री खिलाड़ियों ने ट्रेक पर अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज करते हुए इस बात को एक बार फिर साबित कर दिया है कि यह बीत चुके जमाने की बात हो चुकी है जब खेल के मैदान सिर्फ पुरुषों के लिए होते थे।
भारतीय महिला खिलाडि़यों के ऐसे प्रदर्शन को इस दृष्टि से भी देखा जाना जरूरी है कि वै‍श्विक स्‍तर पर स्त्रिायों के प्रति जो सामाजिक बदलाव आ रहे हैं, वे उसके साथ अपनी संगति बैठाने की पुरजोर कोशिश कर रही हैं। सन् 1991 के बाद से केवल वही नए खेल ओलम्पिक में शामिल किए जा सकते हैं जिनमें स्त्री खिलाड़ियों की भागीदारी हो। यह एक तथ्‍य है कि सन् 1900 में पेरिस ओलम्पिक में महिलाओं ने पहली बार हिस्सा लिया था। लेकिन उस वक्‍त कुछ सीमित खेलों में ही उनकी भागेदारी हो पाती थी। लेकिन सन् 2012 वह पहला वर्ष था जब ओलम्पिक में सभी खेलों में स्त्रियों ने भागीदरी की। 2012 के लंदन ओलम्पिक के बाद से कहा जा सकता है कि सफलता से सरपट दौड़ने के लिए मैदान स्त्रियों के लिए उसी तरह खुल चुके हैं जिस तरह पुरुषों के लिए।
इस तरह से देखें तो खेलों में स्त्रियों की हिस्‍सेदारी का यह बनता हुआ नया इतिहास है। गत कुछ वर्षों में महिलाएँ अपनी मजबूत उपस्थिति विभिन्न खेलों में निरंतर दर्ज करती जा रही हैं। उम्‍मीद की जा सकती है कि खेल-जगत में स्त्रियों की उपलब्धि का हर एक कदम समाज में सदियों से व्याप्त लैंगिक विषमता को दमदार धक्का लगाने में सक्षम हो सकेगा। एशियाड 2018 में भारतीय महिला खिलाड़ियों के प्रदर्शन अभूतपूर्व रूप से उल्‍लेखनीय हैं। नए से नए  रिकॉर्ड बनाते हुए वे आगे बढ़ती हुई दिखी हैं। इस सफलता को सिर्फ पदकों से ही नहीं नापा जा सकता। पदक प्राप्‍त न भी कर पायी खिलाडि़यों के प्रदर्शन इस बात की गवाही देते हुए हैं कि प्रतिभा संपन्‍न, जूझारू, शारीरिक रूप से सक्षम,भारतीय स्‍त्री आज अपनी संपूर्ण ऊर्जा के साथ आगे बढ़ना चाहती हैं। विश्व स्तर की सुविधाएँ, प्रशिक्षण, उपकरण इत्यादि मिले तो निश्चित ही वे वैश्विक स्‍तर की ऊंचाइयों को छू पाने में कामयाब होंगी।

हाल के प्रदर्शनों का एक दिलचस्‍प पहलू इस रूप में भी दिखायी दे रहा है कि महिलाओं की उत्कृष्ट उपलब्धियाँ अधिकतर वैयक्तिक स्पर्धाओं में देखने को मिली। एथलेटिक्स, शूटिंग, तीरंदाजी, पहलवानी, बैडमिंटन, मुक्केबाजी जैसी स्पर्धाओं में उनकी उपस्थिति ने आश्‍चर्यजनक रूप से चकित किया है। हिमा दास, स्वप्ना बर्मन जैसे कई नाम हैं जो छोटी-छोटी जगहों से निकल कर मेहनत और संकल्प-शक्ति के बल पर अपना आकाश गढ़ते हुए नजर आयी हैं। एशियाड 2018 से पूर्व में दीपा कर्माकार को याद करें जिसने अपने लाजबाब प्रदर्शन से ओलम्पिक में जिम्नास्टिक्स प्रतिस्‍पर्धा में अपने लिए जगह बनायी थी। साक्षी मलिक, दीपा कर्मकार, पी.वी. सिंधु. अदिति अशोक के उत्कृष्ट प्रदर्शन के कारण ही 2016 के रियो ओलम्पिक को ‘इयर ऑफ इंडियन वुमेन इन स्पोर्ट्स कहा गया था। सानिया नेहवाल, पी.वी.सिंधु, सानिया मिर्जा, अंजली भागवत, फोगट बहनें, ज्वाला गुट्टा, कर्णम मल्लेश्वरी, मैरी कॉम, अश्विनी, मिताली राज, हरमीन प्रीत, रानी रामपाल.........बहुत लम्बी सूची है महिला खिलाड़ियों की जिन्होंने विभिन्न खेलों में विश्व स्तर पर अपनी सफलता के झंडे गाड़े हैं।
एकल प्रदर्शनों के इतर टीम खेलों में स्त्रियां आगे बढ़ती हुई नजर आने लगी हैं। भारतीय महिला हॉकी टीम एशियाड में 20 साल बाद फाइनल तक पहुँची और बेहतर खेली। महिला क्रिकेट भी वैश्विक स्‍तर पर अपनी जगह बनाते हुए दिखने लगी है।
एकल प्रारूप वाले खेलों और टीम प्रारूप खेलों के आंकलन इस बात के भी गवाह हैं कि जितने संसाधन, प्रोत्साहन और लोकप्रियता महिला खिलाडि़यों को मिलनी चाहिए, उसका शतांश भी क्‍या इन्हें मिलता हैजिन खेलों के लिए मजबूत टीम और संशाधनों की दरकार है, वहाँ तो खिलाड़ियों की पूरी कोशिश भी उन्हें ऊँचे मुकाम तक नहीं पहुँचा सकती जब तक संस्थानों का सुनियोजित सहयोग न मिले। दूसरा वह सामाजिक पहलू जो सामूहिक स्‍पर्धा में अवरोध बना हुआ है, उसको दरकिनार नहीं किया जा सकता। सामूहिक स्पर्धाओं में लड़की होने के नाते बहुत से नुक्सान स्‍कूल स्‍तर ही उठाने पड़ते हैं। बॉलीबॉल, फुटबाल, क्रिकेट आदि खेलों में स्कूल और कॉलेजों में टीम ही नहीं बन पाती। खेलने की शौकीन सक्षम खिलाड़ियों को मन मसोस कर लड़कों के खेल का मूक दर्शक बन जाना पड़ता है। उनके लिए अनुकूल माहौल बनाना, उनके मार्ग की बाधाओं को दूर करना सारे समाज की जिम्मेदारी है। स्कूली स्तर पर लड़के-लड़कियों के खेल एक साथ होने से लैंगिक समरसता का माहौल भी उभार ले सकता है। लड़कियों के लड़कों के साथ खेलने का अवसर मिलेगा तो टीम न बनने के कारण उन्हें खेल छोड़ना नहीं पड़ेगा ओर दूसरे उन्हें मजबूत टीम के साथ खेलने और अभ्यास करने का मौका मिलेगा। इससे उनका भरपूर विकास होगा। मनोवैज्ञानिक ढंग से भी उनके भीतर खुद को स्वस्थ व्यक्तित्व के रूप में विकसित करने का दायित्व उपजेगा। उनका खाना-पीना-खुद की भरपूर देखभाल करना सम्भव हो पाएगा। वर्ना अक्सर लड़कियाँ अपने शरीर और जरूरतों के प्रति सहज नहीं रह पातीं और फिर आइरन या किसी अन्य पोषक तत्व की कमी से जूझती हैं। खेलने वालियों की संख्या अभी कम है इसलिए उन्हें स्थानीय स्तर पर अभ्यास करने के लिए बराबर या बेहतर प्रतिद्वंद्वी नहीं मिल पातीं हैं। महावीर फोगट जैसी संकल्प शक्ति की जरूरत है जो हर प्रतिकूलता से टकरा कर भी बेटियों को पहलवान बनाने का सपना पूरा करता है। फोगट परिवार अपनी बेटियों की उपस्थिति से ही चर्चा का केन्‍द्र बनता हुआ है जिसने हरियाणा जैसे राज्य की लैंगिक सोच के ठहरे पानी में हलचल मचा दी और घर-घर में ये विचार उपजा कि “म्हारी छोरियाँ क्या छोरों से कम हैं। अगर महावीर ठान नहीं लेते तो उनकी बेटियाँ तो वैसी ही जिंदगी जी रही थीं जैसी समाज ने लड़कियों के लिए तय की होती है। वैसा ही खाना-पीना-पहनना। लड़कों के साथ लड़कियों को पहलवानी वह न करवाते तो कैसे उनका विकास होता। उन्हें खूब पौष्टिक खिलाना, जरूरत भर नींद, आराम... सुंदरता के मिथक से मुक्त व्यक्तित्व के रूप में विकसित करना। यही हर स्तर पर किए जाने की जरूरत है। शरीर जब स्वस्थ रहता है तो ऊर्जा अपने निकास के लिए स्वस्थ मार्ग खोजती है। आज के उपभोक्तावादी दौर में लड़कियों पर फिर से कोमल, नाजुक, कमसिन, चिकनी बने रहने का इतना अधिक दवाब है कि मध्य-उच्च वर्गीय लड़कियाँ भर पेट खाती नहीं हैं और निम्न वर्ग की लड़कियों को पौष्टिक खाना उपलब्ध नहीं हो पाता। राष्ट्रीय-अतंर्राष्ट्रीय स्तर पर भी 16 वर्ष तक के लड़कों-लड़कियों की स्पर्धा एक साथ होना अच्छा रहेगा। समाज में लैंगिक समानता स्थापित होने पर वह समय आएगा जब स्त्री-पुरुष के प्रदर्शन में अंतराल नहीं रह जाएगा। फिलहाल वह समय दूर है। लेकिन किशोरावस्था तक के प्रदर्शन में इतना अंतर नहीं दिखता कि वे एक साथ न खेल पाँए।
 टेनिस जैसे कुछ खेलों को छोड़ दिया जाए तो स्त्री-पुरुष के वेतन, पुरस्कार राशि, स्पांसरशिप, और मीडिया कवरेज में बहुत अधिक भेदभाव है। इस भेदभाव का काफी नकारात्मक प्रभाव महिलाओं के प्रदर्शन और उन्हें मिलने वाली सुविधाओं तथा प्रशिक्षण में पड़ता है। अमेरिका में जहाँ खिलाड़ियों की 40संख्या महिलाओं की है वहाँ मीडिया में खेलों में इनकी कवरेज की प्रतिशतता 6-8है और सर्वोच्च 4 समाचार पत्रों में केवल 3.5% ही है। भारत में, जहाँ खेलने वाली स्त्रियों का प्रतिशत पुरुषों के अनुपात में बहुत कम है। वहाँ मीडिया और वेतन के अंतराल का अनुमान किया जा सकता है। यदि आर्थिक तौर पर और मीडिया के स्तर पर स्त्रियों को समान महत्व दिया जाए तो समाज में उनके खेल के प्रति सकारात्मक माहौल बनने में बहुत मदद मिलेगी। सामाजिक, परम्परागत रूढ़ियाँ टूटेंगी जिनके कारण लोग लड़कियों को बाहर भेजने में हिचकिचाते हैं। चोटिल होने वाले, तथाकथित सौंदर्य पर नकारात्मक प्रभाव डालने वाली गतिविधियों से लड़कियों को रोका जाता है। सुरक्षा को लेकर हमारा समाज पहले ही अतिरिक्त सजग है। निर्णायक मंडल, कोच की लड़कियों के यौन शोषण की कुत्सा की खबरें आती हैं तो यह लड़कियों की भागीदारी को बहुत हतोत्साहित करता है। 
     खिलाड़ियों की जीविकार्जन की क्षमता और लोकप्रियता समाज में स्टीरियो टाइप को तोड़ेगी और कई अनावश्यक टैबू भी टूटेंगे तो महिलाएँ खुद को अधिक फिट रख पाएँगी। अपने शरीर और उसकी जरूरतों के प्रति सहज रहेंगी तो उनके प्रदर्शन में नई उठान आएगी। एक भीषण समस्या जो स्त्री होने के कारण झेलनी पड़ती है खिलाड़ियों को। अधिकांश स्त्रियों का मानना है कि मासिक स्राव उनके प्रदर्शन को प्रभावित करता है। कई शीर्ष खिलाड़ियों ने महत्वपूर्ण स्पर्धाओं में इसे अपनी हार का कारण माना है। इस तरह के टैबू दूर होने के बाद से समस्याओं और समाधान पर खुल कर बात होती है तो समस्या कम होती जाती है। 26 साल की किरन गाँधी ने लंदन में मासिक स्राव के दौरान बिना नैपकिन प्रयोग किए मैराथन दौड़ सम्पन्न की। वे इस दौरान खुद को संकुचित महसूस करने के चलन को तोड़ते हुए अपने शरीर के प्रति सहज होने का संदेश देना चाहती थी। उन्होंने माना कि महत्वपूर्ण स्पर्धाओं में फोकस अपने प्रदशर्न पर रहे, जिसके लिए जीवन भर तैयारी की है न कि लिहाज करने पर।

    2014 के कॉमन वेल्थ गेम्स में द्युतिचंद को जिन दो प्रतियोगिताओं से बाहर कर दिया था। 4 साल बाद एशियाड में उन्ही दोनों स्पर्धाओं में उन्होंने पदक जीते। आजीवन स्त्री की तरह जिंदगी जीने, सारे क्रिया कलाप सम्पन्न करने के बाद टेस्टोटेरोन हार्मोन का स्तर देख कर अंतर्राष्ट्रीय मानक यह तय करते हैं कि वह महिला वर्ग में भाग ले सकती है या नहीं। इसी को द्युतिचंद ने चुनौती दी थी और अंततः उनके पक्ष में फैसला आया। फिर उन्होंने स्पर्धाओं में भाग भी लिया सफलता भी पाई पर कितना कुछ खोया भी। नए नियमों के अनुसार भी महिलाओं के भीतर हार्मोन का स्तर तय करेगा कि वे किस वर्ग में स्पर्धा में हिस्सा ले सकती हैं और उन्हें दवाइयों की सहायता से अपने हार्मोन के स्तर को मानकों के अनुकूलन में लाना पड़ेगा। द्युतिचंद समेत कई खिलाड़ियों की सख्त आपत्ति है कि हम अपनी स्वाभाविक, प्राकृतिक संरचना को क्यों कृत्रिम साँचे में जबरन ढालें। इसका कोई वैज्ञानिक प्रमाण भी नहीं है कि प्राकृतिक रूप से पाए जाने पर यह हार्मोन प्रदर्शन को प्रभावित करता है या नहीं। करता भी है तो जैसे किसी को अपने कद या किसी भी शारीरिक वैशिष्ट्य का फायदा या नुक्सान होता है उसी तरह यह भी एक विशिष्ट लक्षण की तरह लिया जाना चाहिए और व्यक्ति की गरिमा और निजता की रक्षा करनी चाहिए। यह उसके मानवाधिकारों का भी एक तरह से उल्लंघन है। स्त्रियों के खेल के प्रति समाज में जागरुकता आएगी और अधिकाधिक स्त्रियों खेलों में भागीदारी बढ़ाती जाएंगी, बढ़ाती जाएँगी तो मीडिया भी स्थान बढ़ाने के लिए मजबूर होगा। वर्ना सोशल मीडिया भी है और हमारे जैसी हजारों-लाखों स्त्रियाँ भी। सचेतनता स्त्री विषयक इन समस्याओं पर हस्तक्षेप करके एक आम सहमति बनाएगी तो खेल के इन नए नियमों में स्त्री के गरिमामय समावेशन की पूरी सम्भाव्यता होगी


घटनाओं के समुच्चय में

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हमें कोई गुमान नहीं कि हमने क्या लिखा आज तक। कोई संताप नहीं कि क्या पढ़वाने को मजबूर करती हैं आलोचना। पत्रिकाएं। यह भी हमने नहीं कहा कि सब वैसा ही लिखें जैसा हमें भाता है। पर हम लिखते हैं। लिखना हमारी मजबूरी है। न लिखें तो क्यां करें उन अला-बलाओं का जिनसे अकेले पार पाना संभव नहीं। लिखते हैं कि दूसरे भी पढ़ें । सोचें, और एक से अनेक हो उठे आवाज जालिमों के खिलाफ। हमारा लिखना तब तक एकालाप ही हो सकता है जब तक पढ़ने वाला (ले) उससे सहमत नहीं। यह किसी का वक्तव्य नहीं पर राजेश सकलानी की कहानी ‘जनरल वार्ड’ तो अपने पाठ से ऐसा ही ध्वनित करने लगती है। पारंपरिक पद्धति की कहानी आलोचना की रोशनी में ‘जनरल वार्ड’ को पढ़ा जाएगा तो कहा ही जा सकता है, यह तो कहानी नहीं, कुछ-कुछ कवितानुमा गद्य के रूप में लिखा गया एकालाप-सा है। कहानी में तो घटना होनी चाहिए, पर इसमें तो कुछ घटता ही नहीं। कथित रूप से घटना के न होने को झुठलाती इस कहानी की विशेषता है कि इसे कहानी मानने की जा रही जिदद पर ध्याकन देने वाली निगाह भी इसे हिंदी की कहानी मानने को तो संभवत: तैयार न हो, और उस दायरे में यह आरोप भी मड़ा जाने लगे कि यह तो किसी अन्य भाषा की अनुदित कहानी है, तो उस पर हैरत नहीं करनी चाहिए। क्यों कि शब्द विहीन संगीत की लयकारी के से शिल्प में लिखी गयी यह ऐसी रचना/कहानी है जो पाठक को उसके निजी अनुभवों के संसार में ले जाने मजबूर करते हुए अनेक कथाओं का समुच्चय उसके सामने रख देती है। खास तौर पर तब, जब पाठक कहानी को पूरा पढ़ लेने के बाद दुबारा उसके शीर्षक की ओर ध्यान देता है। लेकिन यहां इस कहानी को शिल्प की वजह से याद नहीं किया जा रहा। क्योंकि कहानी का वह जो शिल्प है] वह भी शिल्प जैसा दिखता कहां है। वह तो कथ्य की स्वाभाविकता में स्वयं उपस्थित हो जा रहा है। 

दिलचस्पप है कि इस कहानी को पढ़ने का सुयोग हिंदी कहानियों की स्थापित पत्रिकाओं की बजाय एक सीमित भूगोल के बीच दखलअंदाजी करती एक नामलूम सी पत्रिका ‘युगवाणी’ ने संभव बनाया है। हिंदी की विस्तृत दुनिया में भी इस बात का पता नहीं चल पाता है कि युगवाणी सरीखी पत्रिकाओं में क्या लिखा गया और क्या छपा। यह कहने में संकोच नहीं कि ऐसी अभिनव रचनाओं को लाने में ‘युगवाणी’ जैसी नामालूम सी पत्रिकाओं की भूमिका ही अग्रणी दिखाई देती रही है, क्योंंकि न तो उनके संपादक को इस बात का कोई गुमान रहता है कि वे कोई बहुत महत्वपूर्ण रचना छाप रहे हैं और न उसके लेखक ही ऐसे मुगालते के शिकार होते हैं। 

‘युगवाणी’ का अक्टूबर 2018 का अंक इस कहानी के साथ-साथ उत्तराखण्ड में पत्रकारिता के इतिहास का पन्ना बनते शेखर पाठक के आलेख से भी महत्वपूर्ण और संजोये रखने वाला है। 
कहानी ‘युगवाणी’ से साभार यहां प्रस्तुत है। 

यदि पढ़ने का मन न हो तो कहानी को सुना भी जा सकता है। या पढ़ते पढ़ते सुनिये। https://www.youtube.com/watch?v=h2jQs-MAHHU&feature=youtu.be
वि.गौ.

जनरल वार्ड 

राजेश सकलानी

जब तक मैं हूँ मेरे सामान में वजन है। उसमें अलगअलग दिशाओं की ओर बिखरते ख़याल हैंअनगिनत संकेत हैं। लगभग कूट भाषा है। यह रहस्यमयी दुनिया नहीं है। बस दुनिया की करोड़ बातों में अनेक गुम्फित बातें हैं। ये हल्के धागों की तरह है। किसी को वे बेहद उलझी हुई और निरर्थक डोरें लग सकती हैं। मुझे तो ये बिल्कुल साफ़पवित्र और पारदर्शी लगती हैं। कुछ पदवाक्य और कहीं अधूरे वाक्य कागजों पर फैले हुए हैं। ये ही मेरा कुल सामान है। 

मेरे बाद यह कुल सामान एक छोटे से गट्ठर में बाँध दिया जायेगा। एकदम फेंका भी नहीं जायेगा। शायद किसी टांड पर फेंक दिया जाय या घर के गैर जरूरी सामानों के साथ अलमारी के किसी खाने में ठूस दिया जाय। जब भी किसी के हाथ जायेगा दिमाग ये उलझन पैदा करेगा। बारबार दुविधा होगी। इसे कहाँ फेंका जाय या जला दिया जाय। देखने की कोशिश में वक़्त खराब होगा।

इन्हें बाद में देखा ही नहीं जाय। यही मैं चाहूँगा क्योंकि इनका पाठ एक तरफ़ीय हो जायेगा। इनका जबावदेह हाजिर नहीं हो पायेगा। मैं यह दावा नहीं कर सकता कि ये खुद में एक जबाब है। ये अप्रकाशित हैं क्योंकि ये मुकम्मल नहीं हो पाये होंगे। यदि गलती से मुकम्मिल भी हो तो उन्हें मेरा आखिरी स्पर्श नहीं मिलेगा। शायद मैं कुछ तब्दील हो गया होऊँ। किसी भी सूरत में ये दुनिया के सन्दर्भ में अन्तिम पाठ नहीं होंगे। जितने अपमान मेरे ऊपर लादे गये वे सब झूठे थे यह बात अन्तिम है और कभी खत्म न होने वाले हमले अर्थहीन हैं। यह पक्का है। यह शहादत का कोई नमूना नहीं है। यह एक आम बात है। जो हमलों के शिकार होते हैं वे नजर भी नहीं आते। यह एक सच्चाई है जिसे बदलने की इच्छा रखने वाला मैं कोई अकेला और अनूठा सिपाही नहीं हूँ। कोई अख़बार मार खाये लोगों की पड़ताल नहीं करता। वे कहाँ चले जाते हैं और कैसे गुम हो जाते हैंइसका कोई ब्यौरा नहीं मिलता। वे बहुमत में है लेकिन उनकी तस्वीर और बयान साझा नहीं किये जाते। 

यह तय है कि ये लोग खूब जिन्दा रहते हैं। ये अनजाने में भी जिन्दा रहते हैं और जिन्दा रहने का मूल्य अदा करते हैं। यह बुनियादी अर्थवता की लौ बचाये रखने का पवित्र उघम है। ये लोग गेंहूँ’ की डाल में सुर्ख अन्न के दाने की तरह चमकदार होकर ही दम लेते हैं।

मैं अस्पताल के जनरल वार्ड के ठीक बीच में कहीं पड़ा हूँ। मैं कुछ देखता नहीं हूँ। मुझे शब्द और वाक्य साफ नहीं सुनाई देते हैं। बस कुछ अस्पष्ट ध्वनियाँ मष्तिष्क के आकाश में बजती हैं। शायद इनमें मेज खिसकाने की या चादर झाड़ने की आवाजें भी हैं। शायद नर्स ने वाइल के ऊपरी हिस्से का काँच खट से तोड़ दिया है। दवा इंजेक्शन में भरी जाने वाली है। कुछ व्यग्र और चिन्ताकुल खुसपुसाहटें हैं। मैं नहीं हूँ या शायद पूरा नहीं हूँ। मैं थोड़ा सा जिन्दा हूँ। मेरे हाथपाँवगर्दनछातीपेट जैसे कहीं दूर होंगे।

मैं होऊँ या नहीं होऊँ यह जैसे मेरे बस में छोड़ दिया गया है। यह तीखा सा दर्द पता नहीं कहाँ पर है। पहली बार में अपने जिस्म के भीतर को जान पा रहा हूँ। यही मैं हूँ जहाँ विस्फोटक दर्द उठ रहा है।

मुझे याद नहीं आ रहा है कि मैं हिन्दू हूँ या मुसलमान। जोर लगा कर भी याद नहीं कर पा रहा हूँ कि वे कौन लोग थे जो भीड़ बना कर मुझ पर टूट पड़े थे। वे लाठियाँ थी जिन्हें सिर्फ हमला करना था। मैं सिर्फ एक जानवर था। मुझे अपने जिस्म पर कम प्यार नहीं है। मैं सारे लोगों के जिस्मों को भी प्यार करता हूँ। बचपन में मैंने लोगों को सुन्दर और असुन्दर लोगों में बाँट लिया था। मैं आकर्षक चेहरों की तलाश किया करता था। बाकी लोगों को अपने दिमाग से हटा लेता था। जल्दी ही मैंने अपनी गलती को जान लिया। हर चेहरा अपने में बेमिसाल है और उसकी अपनी एक अलग कहानी है। उसकी देह का एक राज्य है। उसके पास असंख्य भावनाएँ पल प्रतिपल गति करती हैंजो लोग इस गतिशीलता में थक जाते हैं वे शराब पी लेते हैं या नींद में जाने की कोशिश करते हैं।

मेरे हाथपाँवगर्दनसिरपेट क्या आखिरी तौर पर नष्ट कर दिये गये हैं। मेरी तमाम हड्डियाँ क्या चकना चूर हो गई हैंइस समय मैं सिर्फ तीखा दर्द हूँ और अजीब सी झनझनाहट में हूँ। हर अंग की जगह एक सच्ची अनुभूति ने ले ली है। कोई भी जना अपने भीतर के बारे में कुछ नहीं जानता है। इस वक्त मैं जानता हूँ।

मैंने अपने भीतर की पूरी यात्रा कर ली है। कभी मैं एक ओर बहता हूँकभी दूसरी ओर पानी की तरह चल पड़ता हूँ। मैं कुछ हवा और कुछ पानी की तरह मिलाजुला हूँ। बाहर लोग यही कहते होंगे कि ये मर गया है या मरने वाला है। वे घोषणा किये जाने की बेचैनी से प्रतीक्षा करते होंगे। मैं बताना चाहता हूँ कि मैं परेशान नहीं हूँ। यह पक्का है कि दुनिया में किसी को भी दूसरे के शरीर को गलत इरादे से छूने की इज़ाजत नहीं है। हर आदमी एक देवता की तरह पवित्र है और हर औरत का अपना राज्य है। आप उसमें दख़ल दे कर पाप नहीं कर सकते। वह राज्य हिन्दू या मुसलमान कतई नहीं है जैसे कि पहाड़समुद्रनदियाँखेतजंगलपशु आदि सभी स्वतंत्र होते हैं। वह समूह में भी स्वतंत्र किस्म की स्वायत्तता पाते हैं।

जिन्होंने मेरे साथ बुरा सुलूक कियामेरी भावनाओं को चीथड़ों की तरह बिखरा दियाउनको तो मैं भीतर ही भीतर बहुत चाहता था। उनको मैं आज भी रोकना चाहता हूँ। हमारे पास सबसे कीमती चीज समय है। ये घंटेदिनसप्ताहमहीने और साल बहुत बड़ी पूंजी हैं। इन्हें हमेशा किसी वस्तु को बनाने में ही खर्च करो। हम बढ़ई की तरह सुन्दर कुर्सियाँ और मेजें बना सकते हैं। हम कुम्हार की तरह लुभावने घटे और सुराहियाँ बना सकते हैं। इतने तरह के फल और अन्न के दाने उपजा सकते हैं। कुछ भी बनाने की प्रक्रिया में प्राण की लौ प्रज्ज्वलित रहती है।

अपने महान दर्द के जरिये शरीर के भीतरी अंगों की यात्रा के दौरान मुझे कुछ शान्त और सुकून भरी छोटीछोटी जगहों का पता चलता है। यह शायद रिसते खून से भीगी आँतों के पासशायद यकृत या हृदय के आसपास हो सकती हैं। लोग कितने मूर्ख बनाये जा रहे हैं। उनके दिमागों को कुछ शैतानों ने प्रदूषित कर दिया है। कुछ जहरीले रसायन बातोंबातों में भीतर डाल दिये गये हैं। वे अब भली और बुरी चीजों में ठीक में फ़र्क नहीं कर पा रहे हैं। हत्याओं के समर्थन में नारे लगाते हैं और मासूम लोगों की मौत पर खुशियों का इजहार करते हैं। कहते हैं ये हमारी किताबों में लिखा है। या तो वे किताबें वाहियात हैं या उनके वाहियात मायने बनाने की साजिश की जा रही है।

मेरा सोचना खत्म नहीं हुआ है। यह चकित करने वाली बात है। मैं सिर्फ एक थोड़ी सी बची हुई स्मृति हूँ। यह सारगर्भित स्मृति एक सूत्र की तरह जीबित रह गई है। यह हमेशा कहीं न कहीं गति करती रहेगी। 

मैं एक बूढ़ी के गीत की लयात्मकता में अपनी लहर के साथ आसानी में घुलमिल जाता हूँ। शायद वह बूढ़ी न हो। वह गीत अपने में एक पहाड़ हैएक जंगलएक गीत। वह गीत और गायिका और आसपास  की सारी चीजें एक साथ प्रकाशमान हो जाती हैं। एक ओर भीड़ का खौफनाक शोर है जो लाठी डंडों को लेकर मुझ पर टूट पड़े थे। वे बेतहाशा मुझ पर वार करते हैं। मैं बचने की भरसक कोशिश करता हूँ। तब तक दनादन मुझ पर चोटें जारी रहती हैं। अंत में मैं अपने हाथ पावों को बचाने की कोशिश छोड़ देता हूँ। हर पल एक कड़े और घातक प्रहार की प्रतीक्षा करता हूँ। एक तीखा दर्द उठेगा और सभी दर्दों का अंत हो जायेगा। मुझे बड़ा आश्चर्य है कि मैं भयभीत नहीं हूँ।

मेरे एक दोस्त कई दशकों से पहाड़ों में गाँवगाँव घूम रहे हैं। वे लोकगीतों का संग्रहण करते हैं। थोड़ीथोड़ी आबादियाँ और बहुत सारी प्रकृति उनकी जिन्दगी है। गुजर गये अनाम लोगों की पीड़ाओं और उल्लास को जंगलों से और नदियों से ढूंढ लाते हैं। बहुत सारे बीते अनुभव यहाँवहाँ दबे हुए हैं। वे ढूंढ लाने में कभी कामयाब हो जाते हैं। यह ढूंढना अपने आप में एक विराट अनुभव है। एक अनजान औरत का गायन उन्होंने अपने मोबाइल फोन में रिकॉर्ड कर लिया। वह औरत अब खो चुकी है। गायन का वह पल भी आसमान से गायब हो गया है। वह गीत अपनी करूण ध्वनि के साथ मेरे दोस्त की स्मृति में है और उसकी अनुकृति उस मोबाइल की स्मृति में है। गायिका की आवाज हमारी आदि कालीन माँ की आवाज है। उसमें पीड़ा और लगाव कंपकपाता है। ट्टहे रामाहे परभूचैत का महीना जिकुड़ी में लगता है। कुछ ऐसा बयान उनमें है। यह कितना सुघड़ और पूर्ण संगीत है। जंगल और दिल के सूनेपन को एक मीठी पीड़ा में रचता हुआ।

कुछ पलों के लिए मैं कहीं परम अति सुन्दर जगह में विचरने लग गया था। मेरी सच्चाई तो यह जनरल वार्ड है। यहाँ बेवजह हिंसा के मारे हुए लोग इकट्ठा हैं। यौन हिंसा की मारी बच्चियाँ और बच्चे हैं। तमाम औरतें हैं और आदमी है। उन्हें पता नहीं है कि उनके कोमल जिस्मों को क्यों इतनी पीड़ा दी गई है। उनके सभी अंगों को तोड़फोड़ दिया गया है। ये सभी बेहद नाराज़ हैं और किसी से बात नहीं करना चाहते क्योंकि इन्हें किसी पर भरोसा करने की इच्छा नहीं है। ये देश और जाति की सीमाओं को बिल्कुल नहीं मानते हैं। इन्होंने पृथ्वी से बहुत दूर जा कर ठीक से जान लिया है। इनके जनरल वार्ड के कोई पास भी नहीं फटक सकता। यह बेवजह मारे पीटे हुए लोगों का वार्ड है। पता नहीं क्यों खानेपीनेपहिननेपूजा करने या नहीं करने के कारण लोगों को मारा जा रहा है। हमारे शरीर को कैसे भी कोई छू सकता हैयहाँ देवता सरीखी दैदीप्यमान छोटी बच्चियाँ रोती रहती हैं। 


मुर्गी को भी इंसानी भूत बना देते हैं वे

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पेशे से एक अमेरिकी विश्व विद्यालय की प्रोफेसर एंजेला सोरबी कवि,कथाकार,बाल साहित्यकार और साहित्य की समालोचक हैं।उनके अनेक संकलन प्रकाशित और पुरस्कृत हैं।बर्ड स्किन कोट , डिस्टेंस लर्निंग और द स्लीव वेव्ज़ उनके प्रमुख संकलन हैं। अमेरिका के लोकप्रिय रेडियो एनपीआर के छोटी कहानियों के प्रोग्राम 'थ्री मिनट फ़िक्शन'के राउंड 6 (2011) में यह कहानी शामिल थी और सर्वश्रेष्ठ कहानी के चयन की निर्णायक चिमामांडा अदिची ने इस कहानी की विशेष चर्चा की थी। अमानवीय परिस्थितियों में काम करने वाली श्रमिक चीनी युवतियों को केन्द्र में रख कर लिखी गयी इस कहानी के बारे में वे कहती हैं कि यह बेहद संयम के साथ लिखी गयी कहानी है जिससे भावुकता का अतिरेक हावी नहीं होने पाया। यह व्यक्तियों को केन्द्र में नहीं रखती बल्कि आत्मा तक को मटियामेट कर देने वाली कार्य संस्कृति पर आघात करती है।ऊपरी तौर पर कहानी के किरदार जिंदा दिखते हैं पर राक्षसी काम ने उन्हें मार कर चलता फिरता भूत बना दिया है...यहाँ तक कि बुनियादी इंसानियत तक उनमें नहीं बची।

प्रस्तुति एवं चयन : यादवेंद्र 


                                              लाल पत्तियों वाला पेड़ 

                                                                                - एंजेला सोरबी

लैन काम पर देर से पहुँची तो उसकी बॉस चिल्लाने लगी : 'मालूम नहीं, तुम्हें यहाँ ठीक सात बजे पहुँचना था?'लैन ने पलट कर पूछा :'भला क्यों? सात बजे ऐसा खास क्या होने वाला होता है?' 
कल तो यह हँसी मज़ाक में हुआ था पर आज वैसा नहीं था...यह वाकया खूबसूरत खाल वाले कछुए सरीखा था,ऊपर से चमक दमक पर पलटते ही सड़ा हुआ गोश्त।
जिंग से मेरी कोई खास दोस्ती नहीं है पर फैक्टरी में जहाँ खड़ी होकर मैं काम करती हूँ उसी के पास वह भी खड़ी होकर काम करती है - उसका काम खूबसूरत पॉली बैलेरिना के सिर पर बाल चिपकाना है,मैं उनमें गाँठें बाँधती हूँ।पर हम यह काम अपने हाथ से नहीं करते,रोबोट से करते हैं...ऐसा नहीं कि रोबोट खुद ब खुद सारा काम सम्पन्न कर देता है,उसे भी इंसानी सहयोग चाहिए।काम करते हुए शॉप फ्लोर पर हमें एक दूसरे से कुछ भी बात करने की मनाही है फिर भी बातें छुपी कहाँ रह पाती हैं यहाँ से वहाँ तक फैल ही जाती हैं: अभी महीना भी नहीं हुआ था उसको हुनान के किसी गाँव से यहाँ आये कि ऐन यी लॉन्ड्री वाली छत से नीचे कूद गई...नीचे जहाँ लोगबाग पक्षी और फूल बाजार जाने के लिए 17 नं की बस के लिए खड़े थे,उसकी लाश उनके बीच सड़क पर पड़ी रही।
'मुझे अंदेशा था ऐसा होगा',जिंग ने छूटते ही कहा...'वह रातभर जगी रहती थी,कभी कुछ मिनट के लिए आँख लग जाये तो अलग बात...क्या उसकी आँखों के नीचे थैलियाँ लटकी हुई दिखाई नहीं देती थीं?आधी रात को शतरंज उठा कर वह पीछे के गलियारे में आ जाती और एक भूत के साथ देर तक बैठ कर खेलती - वह जगह कोई दूर थोड़े ही है,यहीं पास की दो फैक्ट्रियों की डॉरमिटरी के बीचोंबीच जो लाल पत्तियों वाला पेड़ है वहीं पर वह बैठ कर शतरंज खेला करती थी।'
'जिंग,यह तो सीरियस बात है।', मैं अपने काम के लिए रोबोट को हिदायत देते हुए बोल पड़ी:'यानि ऐन यी सहज मौत नहीं मरी है,उसने खुदकुशी कर ली।'
'उसी भूत ने उसे ऐसा करने को कहा था',जिंग एक रौ में बोलती गयी:'जानती हो वह भूत कौन था?पिछले साल ऐसे ही कूद कर खुदकुशी करने वाली एक लड़की....उसी ने उसे अपनी तरह कूद कर मर जाने को उकसाया।'
'मुझे यकीन नहीं हो रहा कि तुम भी  इतनी अंधविश्वासी हो सकती हो जिंग।तुम तो हुनान के किसी गाँव की अनपढ़ गंवार जैसी बातें कर रही हो।'गुस्से से मेरे कान गरम हो रहे थे जबकि मैं खुद हुनान से यहाँ आयी हूँ पर ऐसी दकियानूस बातों से कोसों दूर रहती हूँ।
जिंग ने मेरे तेवर देख मुझसे नज़रें मिलायीं...उसका चेहरा पीलापन लिए हुए लम्बोतरा है,किसी पुरानी मोटी सी जड़ सरीखा।बोली:'तुम्हें मालूम हैऐन यी अपने साथ हरदम एक मुर्गी रखा करती थी?'
'मुर्गी?क्या खाने के लिये?'
'धत,खाने के लिए नहीं...पालने के लिए।उसको सीने से चिपका कर रखती थी,इससे उसको सुकून मिलता था।पिछले हफ़्ते जब डॉरमिटरी वाले गैरकानूनी चीजों को हटाने के लिए कमरों की तलाशी ले रहे थे तब मुर्गी को पकड़ कर अपने साथ ले गए।'
जिंग की बातें सुनकर मैं मन ही मन में ऐन यी की छवि निर्मित करने लगी जिसमें वह अपनी पालतू मुर्गी को सीने से चिपकाए हुए खड़ी है...हाँलाकि उसको शायद ही मैं निकट से जानती थी।कल्पना में मुझे वह रोती हुई दिखी और आँसू छुपाने के लिए मुर्गी के पंखों के बीच घुसती हुई...
'चाहे कुछ भी हो उसे नियम नहीं तोड़ना चाहिए था',मैं स्वतःस्फूर्त ढंग से बोल पड़ी...हाँलाकि बोलते हुए मेरा मन वही करने को कह रहा था जिसको न करने की बात मैं कह रही थी - मुझे भी एकदम से एक मुर्गी पालने की इच्छा हो आयी... और मन हुआ कोई भूत आधी रात मेरे पास आये और छत से नीचे छलाँग लगा देने को कहे।
'उसने अपनी मुर्गी का पुकारने का नाम भी रखा हुआ था - पेंग्यू...अपने इलाके की भाषा में वह हर रात पेंग्यू को लोरी गा कर सुनाती थी।'
'पर यह बताओ,तुम्हें इतना सब कुछ मालूम कैसे है? तुम तो उसकी डॉरमिटरी में रहती भी नहीं थी।'
मेरा यह सवाल सुन कर जिंग इतनी जोर से ठहाका लगा कर हँसी कि उसका पूरा शरीर कांप गया...और दूर खड़ी लड़कियाँ उसे घूर घूर कर देखने लगीं।वह बोली: 'मैं यह सब कैसे जानती हूँ?इसलिए जानती हूँ कि मैं भी एक भूत हूँ, जिंदा इंसान नहीं।'
'झूठमूठ गप्पें मत हाँको जिंग',मैं तपाक से बोल पड़ी।वैसे उसको एक के बाद एक किस्से सुनाने की आदत थी...कभी लाल पत्तियों वाले पेड़ का,कभी जादुई अंगूठियों का...कभी हंसों का किस्सा तो कभी बेमौसम फलों का।
'पर तुम भी वही नहीं हो क्या मेरी दोस्त?सच बताना,तुम भूत नहीं तो क्या जिंदा इंसान हो?'
मैं ने कोई जवाब नहीं दिया...वैसे मैं जिंग की नजदीकी दोस्त हूँ भी नहीं कि उसकी तरह खुद को जिंदा इंसान नहीं भूत मानने लगूँ।पर विडम्बना यह है कि हम दोनों यहाँ एक दूसरे से सट कर खड़े हैं।परिस्थितियाँ हर समय एक सी नहीं रहतीं,बदलती रहती हैं।कौन जाने इनके पीछे क्या है,कौन है?
तभी मुझे एहसास हुआ हमारे चारों ओर तमाम लड़कियाँ खड़ी धीमी आवाज़ में बातें कर रही हैं...उनके स्वर स्पष्ट नहीं थे,मशीनों का शोर उन्हें ढाँपे दे रहा था।

इस मुश्किल समय में आशा का आश्ववास देती कविताएँ

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गीता दूबे


आज जहाँ भरोसा शब्द पर से ही लोगों का भरोसा उठता जा रहा है वहां संभवतः कवि या फिर रचनाकार ही एकमात्र ऐसा जीव है जो भरोसे को बचाए रखने की बात करता है। वस्तुतः कभी कभार गंभीरता से सोचने पर ऐसा लगता है कि साहित्य एक ऐसा अजायबघर है जहाँ वे सारी वस्तुएं एक- एक कर अपनी जगह बनाकर सुरक्षित होती जाती हैं जो एक एक कर सचमुच के संसार से गायब हो रही हैं। और इसीलिए कवि निरंतर लुप्तप्राय भरोसे को अपना ही नहीं पाठकों का संबल बनाकर दुनियावी उलझनों को सुलझाने की भरपूर कोशिश करता नजर आता है। अपने पांचवे कविता संग्रह "भरोसे की बात"में कवि शैलेंद्र अतीत की स्मृतियों को संजोने के साथ साथ वर्तमान के सवालों से रुबरु होते हुए भविष्य के सपने भी सजाते दिखाई देते हैं। अतीत की स्मृतियाँ कवि ही नहीं साधारण मनुष्य के लिए भी बहुधा संजीवनी का काम करती हैं जिसकी शक्ति के बल पर वह अपने वर्मान के दुखों और तकलीफों का भरदम सामना करता है। कवि भी इन स्मृतियों को खूबसूरती से अपने दिल ही नहीं अपनी कविताओं में भी संजोते हुए सुकून की सांस लेता दिखाई देता है। यह अतीत हमेशा ही खूबसूरत रहा हो यह जरुरी नहीं पर कवि अपनी स्मृतियों के झोले से अतीत के जिस टुकड़े को निकालकर उसे पाठकों के साथ साझा अरता है वह निस्संदेह अपनी खूबसूरती से सबको मोह लेता है। प्रसाद की कविता "वे कुछ दिन कितने सुंदर थे"का प्रेमिल अहसास या मादकता भले ही इनमें न हो पर रोमानीपन का भला भला सा लगनेवाला संस्पर्श जरूरत मौजूद है जो पाठकों को अंतर्मन को मृदुता से सहलाते हुए उसे वर्तमान की भयावहता से भी परिचित कराता है।"उस वक्त की कहानी"कहते हुए कवि अतीत और वर्तमान के इस फर्क को किस तरह उभारता है यह गौरतलब है-
"रोटियां बांटी थी
बांटी थी किताबें
कपड़े भी बांटे थे
* * * * * * *
मिल- बांट कर
भगाया था दुखों को
हांक ह़ाक कर
यह उस वक्त की कहानी है
जब बंटे नहीं थे घर -आंगन।" (पृ. 59)

हालांकि कहने को तो देश ने एक बंटवारा झेला पर उस बंटवारे की पीठ पर अनगिनत बंटवारों की लाशें लदी हुईं हैं जो वर्तमान को सड़ांध से भर देती हैं और दर्दीले आतंक की खौफनाक परछाइयाँ आज तक आम आदमी को दहलाती हैं। अतीत की ये यादें कवि को लगातार कोंचती और बेचैन बनाए रखती हैं और इसी कारण विकास की दुहाई देनेवाली  इक्कीसवीं सदी की उस अजीब सी घड़ी को भी अपनी कविता में दर्ज करने से नहीं चूकता जब मानवता को शर्मसार करनेवाली घटनाएं घटती हैं -
"अपने ही हाथों में थे
ईंट- पत्थर
लाठी , ड़डे, खंजर भी थे
* * * * * * *
व्‍याभिचार की शिकार बेटियां
और अभियुक्तों की कतार में खड़े पराक्रमी
अपने ही थे
* * * * * * *
पर सबको
 अपनी अपनी ड़ी थी
इक्कीसवीं सदी की।
यह एक अजीब सी घड़ी थी।" (पृ.73)

लेकिन इनके साथ ही कुछ मृदु मृदु स्मृतियाँ भी हैं जो किसी भी व्यक्ति का बहुत बड़ संबल होती हैं। वे स्मृतियां कवि की उदासी और जिंदगी के बासीपन को भी अर्थवत्ता प्रदान करती हैं क्योंकि खुशी और उदासी के योग से ही जिंदगी की लय बनी रहती है।"तुम बिन"ऐसी ही कविता है-
"कल
खुशी टहल रही थी
घर में
आज उदासी
बाकी के सारे किस्से
वही
बासी के बासी।" (पृ.36 )

कवि शैलेंद्र की यह विशेषता है कि वह बहुत लंबी कविताएं नहीं लिखते, उनकी छोटी -छोटी कविताओं में जिंदगी का मर्म लिपटा दिखाई देता है। और कविता का अर्थ बहुधा अंतिम पंक्ति में आकर मुखर ही नहीं होता खिल भी उठता है।  कई मर्तबा तो उनकी छोटी सी कविता अपने में बहुत गहरा अर्थ समेटे नजर आती है जो उसकी ताकत बन जाती है,  'जिंदगी'शीर्षक कविता का उदाहरण देना चाहूंगी- -
"इस किताब के पन्ने
पलटने नहीं पड़ते
फड़फड़ाने लगते हैं
खुद--खुद
नित नये सबक के साथ" (पृ.47)

जिंदगी के इन्हीं सफों को पलटते हुए कवि बहुत से अनुभवों के पन्नों को हमारे साथ साझा करता है। आलोच्य कविता संग्रह की यह विशेषत है कि इसका कोई मूल केंद्रीय स्वर नहीं है ,यह प्रेम, प्रकृति आदि के साथ -साथ अपने समय के सवालों के साथ टकराता है।  कवि की पक्षधरता स्पष्टतः हाशिए के लोगों के साथ है और स्वयं मध्यवर्ग का प्रतिनिधि होते हुए भी वह मध्यवर्गीय लोगों की मानसिकता पर गाहे बगाहे व्यंग्य करने से नहीं चूकता। सत्ता ओर राजनीति के खिलाड़ी हों या नवधनाढ्य वर्ग के विलासी उन सब पर वह हौले से प्रहार करके आगे बढ़ जाता है।विरोधी की इन कविताओं में जरूरत से ज्यादा आक्रमकमता नहीं है जो कविता को नारे में बदल देती है लेकिन साजिशों को समझने और उकेरने की ईमानदारी जरूर है। इसी क्रम में वह अंधाधुंध विकास के नाम पर होनेवाले विनाश को भी वह रेखांकित करना नहीं भूलता। और उसकी समझदारी इस बात से जरूर  स्पष्ट होती है जब वह आज के पाखंडी समय में लोगों को भरमाने और भटकाने वाले मुद्दों की न केवल पहचान करता है बल्कि इनके झूठे रंगों को धोने की हिम्मत भी करता है -
"हम पढ़ते हैं, सफाई से टंकित झूठ
चम-चम चमकते पन्नों पर
और देखते हैं श्याम-सफेद
रंगीन पर्दों पर दोहराए जाते
और पाते हैं उसे
 सच के रूप में स्थापित होते
* * * * * * * * *
यह एक ऐसा खेल है , जिसे खेला जा रहा है अरसे से
अब तो झूठ भी एक उपलब्धि है
बा-जरिए अभिव्यक्ति की आजादी के।" (पृ.58)

जमाने के इन झूठों और फरेबों से बौखलाया कवि कभी कभार अपनी कविता में एक स्टेमेंट देता नजर आता है और वहीं कविता का स्वर सपाटबयानी में ढलता नजर आता है। दरअसल आज के समय के कई ऐसे संवेदनशील मुद्दे हैं जिनपर कुछ कहने या बोलने के मोह से प्राय रचनकार बच नहीं पाते वह मुद्दा चाहे धर्म का हो ता राजनीति का। और इन विषयों पर लिखी कविताएं महज एक बयान बन कर रह जाती हैं , ऐसे बयान जो बार बार दोहराए जाने के कारण अपना अर्थ खो चुके हैं। बल्कि वे कुछ कविताएं ज्यादा विश्वसनीय बन पड़ी हैं जहां कवि बड़ी ईमानदारी से अपनी बेबसी को बयान करता नजर आता है। आज सच में रचनकार सत्ता या राजनीति के सामने बेबस ही है लेकिन फिर भी वह सृजनरत रहकर समाज के प्रति अपना दायित्व जरूर निभाने की कोशिश करता है। इसी कारण वह साफ साफ अपनी बात कहने की कोशिश करते हुए इस साफगोई को जरूरी भी मानता है
"जब साफ-साफ कुछ कहते हैं- च्‍छे लगते हैं।" ( पृ.48)

संग्रह की  इन बहुरंगी और विविध आयामी कविताओं का मूल छोर मनुष्य की संवेदना से जुड़ता है और संवेदना के रेशों से बुनी  गई कविताएँ जीवन के मधुतिक्त अनुभवों का बहुरंगी कोलाज बनाती हैं। वहाँ अगर स्मृतियों का माधुर्य है तो उस माधुर्य के चूक जाने या बीत जाने की पीड़ा भी है । इस सुख दुख की आंखमिचौली के बीच कवि सुख को तो सबके साथ बांटना चाहता है लेकिन दुख की गठरी अकेले ही उठाने की बात करता दिखाई देता है शायद वह इस दुनिया का यह दस्तूर जानता है कि दुख में अक्सर अपनी परछाई भी साथ छोड़ देती है-
 "सुख को बांट लो मिलकर
दुख को मगर चुपचाप अकेले ले लो ।"( पृ.25)

किसी भी रचनाकार के लिए एक बड़ी चुनौती होती है उसकी समकालीन संवेदना। कई मर्तबा  कालातीत कविताएँ लिखने के व्यामोह में अपने समय की छोटी छोटी घटनाओं को नजरअंदाज भी कर देता है। यहां तात्कलिकता में बहने की बात नही बल्कि कुछ दर्ज करने लायक टनाओं को  दर्ज करने की कोशिशों का जिक्र है। कवि अपने जीवन के बेहद छोटे अनुभव को भी अगर महत्वपूर्ण मानता है तो उसे दर्ज करना नहीं भूलता। इसी के साथ एक महत्वपूर्ण सवाल स्थानीयता का भी है। कवि देश के किस हिस्से में सृजनरत है वह हिस्सा अपनी तमाम वशेषताओं के साथ अगर उसकी रचनाओं में अंकित होता है  तो वह भी कवि की एक बड़ी विशेषता है।

रचनाकार अपनी रचनाओं में वही रचत या उकेरता है जो कुछ वह देखता, सुनता या महसूस करता है। कवि शैलेंद्र का रचनकार अपने आस- पास के परिवेश को ही अपनी रचनाओं में उकेरता है और यह अगर उसकी सीमा है तो उसकी विशेषता भी । वस्तुत:  कई मर्तबा एक बड़े यथार्थ को रचने की चाह में हम अपने आस पास के परिवेश को उपेक्षित करते हैं या दूसरे शब्दों में कहें तो राष्ट्रीय अथवा वैश्विक दिखाई देने की होड़ में हम अपनी स्थानीयता को नकारने से भी नहीं कतराते गोया कि स्थानीय होना कमतर होना है लेकिन शैलेंद्र की कविताओं में यह स्थानीय होना बखूबी दिखाई देता है। वह कलकत्ते में रहते हुए अपनी कलकतिया पहचाना पर गर्व करते हुए वहाँ के इतिहास को तो उकेरते ही हैं । इसके साथ ही वह जब जहाँ होते हैं वहाँ की खासियत या खूबसूरती से प्रभावित हुए बिना भी नहीं रह पाते।  
अपनी कलकतिया पहचान को "साल्टलेक"शीर्षक कविता में अभिव्यक्ति देते हुए वह वहाँ समय के साथ आये बदलाव को रेखांकित करना भी नही भूलते और उनका उद्देश्य संभवतः कलकत्ता के सांस्कृतिक ऐतिहासिक परिवेश में आए बदलावों को रेखांकित करना भी रहा हो। जो कलकत्ता किसी समय क्रांति का शहर था, जहाँ कुछ सिरफिरे नौजवान व्यवस्था को बदल देने का सपना देखने की कोशिशों में लगे हुए थे वही अब अन्य विकसित शहरों की तरह विलासिता के छोटे- छोटे द्वीपों में कैसे बदल गया, यह सचमुच सोचने की बात है। कविता की ये पंक्तियाँ विचारणीय हैं -
"कोलकाता में एक जगह है साल्टलेक
जहां न तो साल्ट है न लेक
यानि कि है वह पूरी तरह फेक
* * * * * * * * * * * *
तब झील के आसपास क्रांति के सपने भी बुनते थे कुछ सिरफिरे
और अब वह मालो- माल
तिजोरियों की पुजारी, अलमस्त, दिलफेंक है।" ( पृ. 33)

इसी तरह जब कवि दिल्ली पुस्तक मेले का भ्रमण करता है तो वहाँ के परिवेश में शब्दों की बरसात में भींगते हुए भी कलकत्ता में उस समय हो रही बरसात से अनछुआ नहीं रह पाता। अपनी पहाड़ी यात्रा के अनुभवों को भी वह पूरे हुलास के साथ शब्दबद्ध करता है। लेकिन सैलानी हुलास के बीच भी उसका सजग कवि मन जागृत हो उठता है और वह बांझ सौंदर्य की सीमा को भी समझता और समझाते हुए कह उठता है-
"जहां तुम आए हो
बदलने हवा-पानी
वहां के बहुत से लोग
पहुंच चुके हैं राजधानी
तुम्हें मालूम है सैलानी
खूबसूरती बांझ भी हुआ करती है
और सौंदर्य नपुंसक भी
और यह तो तुम्हें मालूम ही है
कि जिस्म को चाहिए होता है दाना-पानी।" (पृ. 70)

संग्रह की कविताओं में प्रगतिशीलता का ऐसा मृदुल स्वर भी मुखरित होता है जहाँ रूढ़ियों के विरोध या तिरस्कार के साथ साथ परंपरा का सम्मान भी नजर आता है। वह रूढ़ियों के विरोध के द्वारा अपनी आधुनिकता या तार्किकता को स्थापित करने की कोशिश जरूर करते हैं, उदाहरण के लिए ये पंक्तियां दृष्टव्य हैं -
"सारे व्रत
तीज त्योहार
निर्जल उपवास
कब तक करती रहोगी
उनकी सलामती के लिए
जो एक दिन भी नहीं करते
तुम्हारे लिए
अरे, कुछ तो छोड़ो
कुछ तो तोड़ो।" ( पृ.32)

मुश्किल यही है कि कवि जिन रुढियों को तोड़ने या छोड़ने की ख्वाहिश जताता नजर आता है वे सारी रूढ़ियां परंपराओं के नाम पर ही इस देश में फलफूल रही हैं और प्रगतिशीलता के जबर्दस्त पैरोकार भी अपनी -अपनी पत्नियों को इन स्वर्णिम परंपराओं को निभाते हुए देखकर ऊपर -ऊपर चाहे कुछ भी क्यों न कह लें मन ही मन खुश भी होते रहते हैं। वस्तुतः यह एक बड़ा अंतर्द्वंद्व है जो तार्किकता एक अभाव से जन्म लेता है। बहुधा हम प्रगतिशील दिखना चाहते हैं और अपने हाव-भाव, वेशभूषा , बोलचाल आदि से प्रगतिशीलता का छद्म भी रच लेते हैं लेकिन जब तक हमारा मानस पूरी तरह परिष्कृत या परिमार्जित नहीं होता तब तक हमारी प्रगतिशीलता प्रश्नांकित ही रहती है।  

इसके बावजूद इस संग्रह का उल्लेखनीय बिंदु है इसमें व्याप्त सकारात्मकता जिसके कारण अविश्वास के इस घटाटोप में भी कवि भरोसा नहीं खोता। वह आपने साथ- साथ दुनिया पर भी भरोसा रखता है और इस भरोसे को बनाए रखने में बहुत बड़ी -बड़ी नहीं बल्कि बेहद छोटी छोटी चीजें महत्वपूर्ण भूमिका निभाती नजर आती हैं और इसी कारण तमाम छोटी -बड़ी मुश्किलों, विवशताओं और बेचैनियों के बावजूद वह अपनी जिंदगी से खुश और संतुष्ट है-
"जिंदगी गुजर गई
और पूछते हो
क्या मिला
बहुत मिला
बहुत मिला
जो भी मिला
बहुत मिला
यूं ही तो नहीं कटा
दुश्वारियों का सिलसिला।" (पृ. 71)

इस अति महत्वाकांक्षी समय में यह संतोष सचमुच सराहनीय है। कुल मिलाकर कवि शैलेंद्र का आलोच्य संग्रह इंसानियत ही नहीं साहित्य के प्रति भी हमारे भरोसे को कायम करता है। मुक्त छंद में रचित ये कविताएं बेहद सहजता से पाठकों के अंतर्मन में अपनी जगह बना लेती हैं। बहुत सी कविताओं में लयात्मकता भी है जो प्रायः प्रूफ की गलतियों से बाधित होती दिखाई देती है। प्रूफ अगर थोड़ी और सावधानी से देखा गया होता तो संग्रह की खूबसूरती और भी बढ़ जाती।  

भरोसे की बात, कविता संग्रह, शैलेंद्र शांत 
बोधि प्रकाशन, जयपुर 
अक्टूबर 2017, मूल्य 120/- पेपरबैक।

गीता दूबे, पूजा अपार्टमेंट, फ्लैट ए-3, द्वितीय तल
58/1 प्रिंस गुलाम हुसैन शाह रोड
यादवपुर, कोलकाता-700032। 
फोन: 9883224359/ 8981033867



कथाकार पूनम तिवारी की कहानी बेबसी

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नया ज्ञानोदय के एक अंक में कथाकार पूनम तिवारी की कहानी पढ़ने का एक सुयोग हुआ। उससे पहले मैंने पूनम तिवारी जी की कोई भी रचना नहीं पढ़ी थी। वह एक अलग मिजाज की कहानी है। खासतौर पर गंवई आधुनिकता में डूबी कहानियों से कुछ कुछ अलग मिजाज की कहानी। चाहता था कि उस कहानी को ब्लाग में लगा कर अपने अध्ययन के लिए सहेज लूं। यही सोचकर रचनाकार पूनम तिवारी जी से सम्पर्क साधकर उस कहानी को भेजने का आग्रह किया था। संभवत: वह कहानी उनके प्रकाशनाधीन संग्रह का हिस्सा है और पाठक उसे पुस्तक से भी पढ़ पाएंगे। अभी उनके द्वारा भेजी गयी कहानी ‘बेबसी’ को यहां प्रकाशित करना संभव हो पाया है। कथाकार पूनम तिवारी के तीन उपन्याास एवं दो कहानी संग्रह एवं एक नाटक अभी तक प्रकाशित हैं।

बीसवीं सदी के आखिरी दशक तक जिस मन मिजाज की कहानियां अक्सर पढ़ने को मिल जाती थी, ‘बेबसी’ कमोबेश एक वैसी ही रचना है। वे कहानियां जिनमें जीवन की आपाधापी का सच गरीब गुरबों के जीवन संघर्ष से गुंथा रहता था। इस तरह की कहानियों की अपनी एक खास विशेषता होती है कि इनके जरिये पाठक लेखक के उस सच से वाकिफ हो सकने का सुयोग पा जाता है जो लेखक की संवेदनाओं, जीवन दृष्टि और मूल्यपबोध को परिभाषित करते हैं।

बेबसी 


पूनम तिवारी 
मोबाइल - 9236164175   



आज भी पूरा दिन यूँ ही निकल गया। सुबह से दोपहर, दोपहर से शाम, काम की तलाश में मानों शरीर का सारा पानी ही सूख गया हो। पेट के लिए तो वैसे भी पिछले दो दिनों से अन्न का दाना भी नहीं नसीब हुआ था। गाँव में सूखा पड़ने के बाद भुखमरी के हालात में रामलाल ने गाँव से शहर की ओर रुख किया। चार बच्चों और पत्नी के किसी तरह सिर छिपाने वास्ते ठौर बना कर निकल पड़ा, दो जून की रोटी के जुगाड़ में, थोड़ी सी मशक्कत के पश्‍चात् एक चूड़ी के कारखाने में जैसे तैसे पेट भरने का इन्तजाम हो गया। धधकती आग की लौ पर काँच पिघलाने से पेट की आग ठण्डी होने लगी।
अभी कुछ माह ही बीते थे। रामलाल को, कारखाने में काम करते हुए, एक दिन तैयार फैन्सी चूड़ी का बक्सा गोदाम में ले जाते वक्त हाथ से छूट गया। जमीन में बिखरे रंग-बिरंगे काँच के टुकड़ों को रामलाल काँपती टांगों व विस्फरित आँखों से, यूँ देखने लगा, मानों काँच के टुकड़े नहीं, वह स्वयं टूट कर बिखर गया हो। उसे यूँ बुत बना खड़ा देख, वहाँ काम कर रहे रामलाल के साथी एक स्वर में चिल्लाये ‘‘भाग रामलाल जल्दी भाग, बड़ा बेरहम है मालिक, बिना दिहाड़ी दिये, बन्दी बनाकर भरपायी करवायेगा, जल्दी भाग यहाँ से, निकल बाहर।’’ अपने उतारे हुए कपड़े, चप्पल सब छोड़कर भागा वह सिर्फ कच्छा बनियाइन में, हाँफता-डीपता नंगे पाँव, कारखाने के बाहर आकर एक लम्बी सी सांस  ली,  उसे  महसूस हुआ यदि कुछ क्षण कारखाने से बाहर निकलने में और लग जाते तो शायद उसका दम ही घुट जाता।
कारखाने की आग अभी भी धधक रही थी, लेकिन रामलाल के घर का चूल्हा ठण्डा पड़ गया था। बच्चे भूख-भूख की रट लगा कर बेहाल हुए जा रहे थे। बच्चों का मुरझाया सूखा चेहरा देखकर पिता व्याकुल हो रहा था।
उस घड़ी को और अपने आप को कोस रहा था। फर्श पर हाथ पटक-पटक कर उन्हें दण्डित कर चुका था जिन हाथों से चूड़ी का बक्सा छूटा था। रात गहरा गयी थी, लेकिन नींद कोसों दूर थी। बच्चे श्वान निद्रा सो जाग रहे थे, और निरन्तर खाने की गुहार लगा रहे थे ‘‘अम्मा कुछ खाने को दो, बड़ी भूख लगी है।’’ बच्चों के लगातार एक ही राग सुनसुन कर कान थक चुके थे, बच्चों की आवाजें अब रामलाल के कानों में शीषे पिघला रही थी। वह दांत पीसता हुआ उठा। उसे लगा बच्चों का गला ही दबा दे। बन्द हो जाये आवाज, न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी, दूसरे ही पल बच्चों की तरफ से ध्यान हटाकर पत्नी की ओर मुड़ा जो बच्चे को पानी पिलाकर-पिलाकर कर चुप कराने का असफल प्रयास कर रही थी। रामलाल ने अपनी सारी भड़ास बेकसूर पत्नी पर निकाल दी ‘‘कैसी माँ हो तुम ? बच्चों को चुप करवा कर सुला भी नहीं सकती’’ गाँव की सीधी सरल पत्नी जिसने शहर की भीड़ भरी सड़कों पर अभी तक ठीक से चलना भी नहीं सीखा था, पति को अनिमेष मूक देखती रह गयी। रामलाल पत्नी से ज्यादा देर नजरें नहीं मिला सका। बाहर निकल गया। घुटनों पर सिर टिका कर बैठ गया। फुटपाथ में बैठकर भोर होने का इन्तजार करने लगा। पत्नी को डाटने के पश्‍चात स्वयं आत्मग्लानि से भर गया। वह सोचने लगा। जब वह कमा कर भी लाता है, तब भी शायद ही किसी रोज पत्नी पूरा पेट भोजन कर पाती होगी। चार बच्चों और पति से जो बचा कुचा मिलता वह अपने लिए उसे ही पर्याप्त समझती है। उसने कभी शिकायत नहीं की, रामलाल को आज पहली बार अहसास हुआ कि परिवार नियोजन के बारे में सोचा होता। चार बच्चों की जगह दो बच्चे होते तो उसकी मेहनत से कमाया हुआ कुछ हद तक पूरा पड़ जाता। विचारों का जाल बुनते-बुनते वहीं फुथपाथ पर लेट गया। चिन्तातुर करवटें बदलता रहा। नींद तो कोसों दूर थी। भोर के चार बज रहे थे। रामलाल उठा। जिधर रास्ता समझ आया उधर ही चल पड़ा। न रास्ते का ज्ञान था, न मंजिल का पता था, बस चलता जा रहा था। चलते-चलते आ पहुँचा चौरास्ते वाले चौराहे पर। चौराहा दूधिया रोशनी से नहाया हुआ था। कुछ क्षण ठहर गया। चार रास्ते वह भी नितान्त अन्जान, चौराहे पर फैली रोशनी आँखों में चुभने लगी। शरीर का तापमान बढ़ने लगा। उसे महसूस हुआ यदि कुछ क्षण और रुका तो कहीं शरीर में फफोले न पड़ जायें। वह भागा अपने शरीर में मौजूद पूरे दम के साथ, रुक कर पलटा, रोशनी बहुत दूर हो चुकी थी। वह अपने आप से ही बुदबुदाया ‘‘हम गरीब को रोशनी नहीं, रोटी की दरकार है।’’ चलते चलते आ पहुँचा स्टेशन के बाहर शायद कोई गाड़ी अपने गन्तव्य में पहुँची थी। कुछ मुसाफिर अपना सामान स्वयं उठा सकने में समर्थ थे, लेकिन कुछ नजाकतवश और कुछ शारीरिक अक्षमतावश उनकी नजरें कुली की तलाश में थी। रामलाल भी आगे बढ़ा। काम मिलने की सुई नोंक समान उम्मीद से ही उसका मन का मयूर झूमकर नाच उठा। वह लपका कुली.कुली की आवाज दे रहे एक सज्जन की ओर, हाथ जोड़ कर बोला।
‘‘बाबू साहब सामान उठायें ?’’ दो बड़े ब्रीफकेस, एक बड़ा बैग, एक गत्ते का  डिब्बा, कूल जग सब कुछ लाद दिया। शरीर में बिना कुछ खाये पिये जान तो थी नहीं, लेकिन चार पैसे मिल पाने की ललक से, न जाने घोड़े जैसी ताकत कहाँ से आ गयी थी। अभी दस पन्द्रह कदम ही चला होगा। उधर से जिन सज्जन का सामान था उनका बेटा दौड़ता हुआ आ गया। पास आकर बोला ‘‘बिल्ला नं0कितना है ? कहाँ है बिल्ला ?’’ रामलाल तो इन सबका मतलब भी नहीं जानता था। वह भौचक्का सा देखता रहा ‘‘पापा आप भी, ये रेलवे का कुली नहीं है, पलक झपकते ही सामान इधर.उधर कर देते हैं ये लोग। उतारो सामान’’ रामलाल ने लाख समझाने की कोशिश की। वह उठाईगीर नहीं बेहद जरूरतमन्द है, लेकिन यह बात सत्य है कि गेहूँ के साथ घुन भी पिसता है। अचानक अपना जीवन ही निरर्थक लगने लगा। जालिम दुनिया और बेदर्द लोगों के बीच से अपने को समाप्त करने के उद्देष्य से उसके कदम तेजी से प्लेटफार्म की ओर बढ़ रहे थे, और आँखों के सामने पटरी पर दौड़ती तेजरफ्तार की ट्रेन घूम रही थी। वह बढ़ता जा रहा था, तभी दो मासूम बच्चे सामने आकर खड़े हो गये। जिनकी उम्र तकरीबन रामलाल के बच्चों के बराबर थी। ‘‘बाबू, कुछ दे दो, बड़ी भूख लगी है। कुछ खाया नहीं है बाबू।’’ रामलाल के भीतर के जंगल के हारे पक्षी, सब एक साथ फड़फड़ाने लगे, मानों उसका आत्महत्या का यह फैसला उसके जीवन का सबसे बड़ा पराजय बन गया हो। वह अपने आप से ही बड़बड़ाने लगा। मैं एक मेहनती इन्सान हूँ। आज परिस्थितियाँ प्रतिकूल हैं कल अनुकूल होंगी। वह वापस स्टेशन से बाहर निकल कर चल दिया। रास्ते में एक ब्लड बैंक के पास रुका। अन्दर गया। कुछ देर पश्‍चात बाहर निकला शरीर पीला पड़ा था। लेकिन आँखें खुषी से चमक रही थीं। हाथ में पकड़े सौ-सौ के दो नोट देखकर।
जहाँ सामाजिक संस्थाओं से जुडे़ कुछ लोग अपना खून जरूरतमन्दों के लिए दान कर रहे थे। वहीं कुछ शराबी, नषेड़ी, जुआड़ी अपनी बुरी आदतों के चलते अपने शरीर का खून बेच रहे थे किन्तु, रामलाल ने अपने बच्चों की क्षुदा शान्त करने का जुगाड़ किया था अपने शरीर का खून बेचकर। भूख से आँतें सिकुड़ गयी थीं। प्यास के कारण गला सूख रहा था। खून दान देने वालों के लिए वहाँ जूस, ग्लूकोस पानी, व कुछ देर आराम करने के वास्ते बेन्च की व्यवस्था ब्लड बैंक वालों ने कर रखी थी। रामलाल को महसूस हुआ कि वह बिना पानी पिये कुछ कदम भी आगे चलने में असमर्थ है। रामलाल वहीं पास पड़ी बेन्च में अपने को सम्भालता हुआ बैठ गया। पानी के लिए वहीं पास की मेज पर रखे गिलासों में से एक पानी का भरा गिलास उठाने के लिये हाथ बढ़ाया ही था, कि उधर से एक लड़का दौड़ता हुआ आया। जिसकी उम्र तकरीबन उन्नीस बीस की रही होगी शायद अपनी ड्यूटी के बीच ही यहाँ से उठकर किसी काम के लिये गया होगा। रामलाल के हाथ से पानी का गिलास छीन लिया और तेज आवाज में डाँटते हुए बोला।
‘‘बड़े अजीब आदमी हो। यहाँ पहली बार आये हो क्या ?’’ रामलाल ने  पानी के गिलास की ओर ताकते हुए हाँमें सिर हिला दिया।
‘‘इसीलिए तुम्हें यहाँ के कायदे कानून नहीं मालूम हैं। तुम जैसे दारूबाजों को यहाँ ये ग्लूकोस नहीं पिलाया जाता है। ये सारे इन्तजाम उन भले लोगों के लिए हैं। जो मुफ्त में अपना खून दान देते हैं। समझे तुम, तुम्हें तो अपने पैसे मिल गये न ?’’
‘‘हाँ, बस थोड़ा सर घूम रहा था, गला भी सूख रहा था।’’
‘‘उठो यहाँ से जो पैसे मिले हैं। बाहर जाकर उससे अपनी प्यास बुझाओ वैसे भी इस सफेद ग्लूकोस पानी से तुम्हारी प्यास कहाँ बुझेगी। जाओ दो चार पन्नी अपने हलक से उतारो। उठो यहाँ की बेन्च खाली करो।’’ रामलाल उठा बिना कुछ बोले चल दिया। सड़क किनारे सार्वजनिक नल की तलाश में, जानता था अपनी सफाई में कुछ बोलना बेकार है, उसकी हकीकत कौन सुनेगा, यदि सुन भी लिया तो मानेगा कौन ?
रामलाल को किसी तरह कई फाकों के पश्‍चात एक पंसारी की दुकान पर सौदा तौलने का काम मिल गया। रामलाल की खुशियों के पंख फैल गये। दुकान से घुना-फफूंदा ही सही अनाज व कुछ पैसे तो मिलेंगे। जिससे बच्चों की भूख की व्याकुलता तो नहीं देखनी पड़ेगी। एक पिता व पति के लिए बेरोजगारी सबसे बड़ा अभिषाप है। रामलाल मेहनत, लगन व ईमानदारी से सुबह दस बजे से रात्रि के नौ बजे तक काम करता यानि पूरे ग्यारह घण्टे किन्तु मालिक उसके ईमानदारी से सौदा तौलने पर उसे कई बार डाँटता भी रहता। मंगलवार की बन्दी के दिन भी रामलाल को दुकान में बुलाकर सभी खाद्य सामग्री में मिलावट का काम करवाता। यह काम रामलाल को बिल्कुल नहीं भाता, किन्तु पुरजोर विरोध भी न कर पाता।
मालिक ने रामलाल को काली मसूर में काले छोटे कंकर मिलाने को कहा। स्वीकृति में सिर हिला दिया किन्तु मालिक की नजर बचाकर कंकर फेंक दिये। दाल का वजन करने पर जब कंकरों का वजन दाल में नहीं आया। दाल का वजन उतने का उतना ही। रामलाल को मालिक ने धक्के मारकर दुकान से निकाल दिया।
रामलाल फिर से गलियों-गलियों नौकरी की तलाश में भटकने लगा। दूसरी दुकान में नौकरी मांगने गया, वहाँ के मालिक ने उसे पहचानते हुए पूछा ‘‘तुम तो जनरल स्टोर में काम करते थे क्यों छोड़ दिया वहाँ से’’ ?
‘‘साहब-वो....।’’ अभी रामलाल अपनी बात कह भी नहीं पाया था कि वहाँ बैठा दूसरा दुकानदार बोल पड़ा।
‘‘अरे साले ने की होगी वहाँ चोरी, इसीलिए भगा दिया गया होगा।’’ रामलाल की बिना बात सुने ही वहाँ से भी भगा दिया।
‘‘अरे भाई जरूरत होते हुये भी हम तुम्हें यहाँ नहीं रख सकते। हमें कई बार दुकान अकेले भी छोड़नी पड़ती है तुम जैसां को छोड़कर दुकान साफ करानी है क्या ? कोई भरोसे का आदमी चाहिये। चलो आगे देखो हमें अपना काम करने दो। रामलाल की ईमानदारी ही उसपर भारी पड़ गयी। उसे आज समझ में आया कि समय के साथ चलने में ही भलाई है।
रामलाल की सहनशक्ति की मानों परीक्षा हो रही हो। जेब में एक फूटी कौड़ी नहीं। छोटा बेटा बीमार हो गया। सरकारी अस्पताल से मुफ्त में दवा लिख कर दे दी गयी, पर मिली नहीं। पचास रुपये की दवा के लिए सारे प्रयास कर डाले किन्तु असफल व निराश खाली हाथ वापस लौट आया। बुखार तेज होता जा रहा था। डाक्टर के कथनानुसार बुखार बढ़ने नहीं देना था। बच्चा बुखार में तपा जा रहा था। दिमाग पर असर होने का खतरा भी बढ़ता जा रहा था।
रामलाल फिर एक बार सड़क पर निकल पड़ा, मंजिल का पता नहीं था। बस तेज कदमों से चला जा रहा था। चेहरे पर बेचारगी नहीं। इस समय गुस्से व उत्तेजना के भाव थे। एक मैदान में लगे  कार्निवाल  वहाँ लोगों की ऐसी भीड़ मानों  पूरा शहर यहीं एकत्रित हो गया हो। रामलाल ने कूड़े के ढेर से उठाया ब्लेड धीरे से अपनी जेब से निकाल कर अपने हाथ में ले लिया और तेजी से भीड़ में घुस गया। कुछ देर पश्‍चात उतनी ही तेजी से बाहर निकल आया चेहरे पर आवष्यकता और पश्‍चाताप के भाव स्पष्ट दिखायी दे रहे थे। बेहद मजबूरी में चुराया हुआ बटुआ अपनी जेब में रखकर तेज गति से दवाखाने की ओर बढ़ गया। अंततः परिस्थितियों वष एक ईमानदार व्यक्ति के सब्र का बाँध आखिरकार टूट ही गया।



चातुष्वर्णय दायरे के क्षैतिज विभाजन

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‘’शवयात्रा’’ आपकी ऐसी कहानी है जिससे जाति व्‍यवस्‍था के उस मकड़जाल को देखना आसान हो जाता है, जो संकोच में डूबी आवाज का भी कारण बनती है। जाति के मकड़जाल में घिरे हुए लोग ही अमानवीयता को झेलते रहने के बावजूद खुद को दूसरे से श्रेष्‍ठ मानने के मुगालते में जीते रहते हैं। इतना ही नहीं, अक्‍सर खुद को ‘कमतर’ मानने वाली मानसिकता में डूबे लोग भी झूठी श्रेष्‍ठता को ही सत्‍य मानकर खुद के संकोच में डूबे रहते हैं। जातिगत विभाजन की रेखाएं जो चातुर्व्‍णय दायरे के ऊर्ध्‍वाधर खांचों के साथ-साथ क्षैतिज विभाजन के विस्‍तार तक फैली हुई हैं, श्रेष्‍ठताबोध से भरी क्रूरता का नैतिक’ आधार बनी रहती हैं। ऐसे में वे संकोच में डूबी आवाज को चुनौती भी कैसे मान सकती हैं भला। यदि कोई भिन्‍न स्‍वर दिखता भी है तो उसे व्‍यक्तिगत मान लेने की वजह ढूंढी जाती है, ताकि उसके प्रभाव के प्रसारण के विस्‍तार को रोका जा सके।  ‘’शवयात्रा’’ ऐसी कहानी है जिसने दलित बुद्धिजीवियों के बीच भी बहस को गरम कर दिया था और उसमें दलितों में दलित वाले आपके पक्ष को ‘दलित एकजुटता’ के लिए घातक मानने की बात की जा रही थी और आपके पक्ष को आपके जीवन के जाति- यथार्थ के साथ देखने के दुराग्रह खड़े किये जा रहे थे।
  

वह बराबरी का भाव

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आपके व्‍यवहार में बराबरी का भाव, हमारे बीच उम्र के फासले को भी नहीं रहने देता था। फिर चाहे किसी निजी और घरेलू समस्‍या से ही क्‍यों न घिरे हों, आपस में हम उसे शेयर कर पाते रहे और उनसे निपटने के संभावित रास्‍ते भी ढूंढते रहे। यह अलग बात है कि नतीजे हमारी सीमाओं के दायरे में ही रहते थे। समस्‍याएं उन सीमाओं से बाहर बनी रहती थीं। सामाजिक ताना-बाना भी हमारी सीमाओं की परिधि खींचे रहता ही था। सामाजिकता की एक सीख ऐसी भी थी जो  सीमाओं के भीतर बने रहते हुए हमें संकोची भी बना देती थी। आप जैसा बौद्धिक साहस वाला व्‍यक्ति भी अक्‍सर उसकी चपेट में होता तो मुझ जैसे का क्‍या। वह किस्‍सा तो याद होगा।
उस वक्‍त साहित्‍य की दुनिया में आप ‘सितारे’ की तरह चमकने से पहले शाम के धुंधलके में थे। ‘हंस’ का वार्षिक आयोजन था- 30 जुलाई, कथाकार प्रेमचंद की स्‍मृति का दिवस। वर्ष कौन सा था, यह तत्‍काल याद नहीं। बस उस कार्यक्रम से कुछ माह पहले ही आपकी कविताओं को ‘हंस’ ने छापा था। ‘हंस’ के उस आयोजन में आप मुख्‍य वक्‍ता की तरह आमंत्रित थे। आपके जीवन का वह अभूतपूर्व दिन था जब साहित्‍य के ऐसे किसी गौरवमय कार्यक्रम में आप एक वक्‍ता ही नहीं, मुख्‍य वक्‍ता की तरह शिरकत करने वाले थे। अपने संकोच से उबरने के लिए आपने मुझे भी साथ चलने को कहा था, ‘’तुम भी साथ चलो तो अच्‍छा रहेगा। रात को ही लौट आएंगे।‘’ आपने इतने अधिकार से कहा था कि मैं मना कैसे करता। मेरा संकोच मुझे यदि रोक रहा था तो इसी बात पर कि आप तो मंच में बैठ जाएंगे और मैं कहां और किसके साथ रहूंगा। लेकिन दूसरे ही क्षण यह सोच कर श्रोता समूह के बीच खामोश बने रहते हुए तो बैठा ही रह सकता हूं, मैंने हां कर दी थी। आप भी मेरे संकोचपन से वाकिफ थे और इसीलिए आपने रात की बस से ही लौटने पर जोर दिया था। ‘हंस’ के उस आयोजन में संभावित लिक्‍खाड़ों के बीच आप भी तो अपने को अनजान सा ही पाते थे।
दिल्‍ली उतरकर हम सीधे ‘हंस’ कार्यालय पहुंचे थे। ‘हंस’ संपादक राजेन्‍द्र यादव अपने दफ्तर में थे। दफ्तर में कुछ दूसरे लोग भी थे। सामान्‍य आपैपचारिकताओं के बाद ही हम दोनों अकेले हो गए थे। उसी वक्‍त कवि और कलाकार हमारे दून के निवासी अवधेश कुमार भी पहुंचे। यद्यपि अवधेश जी की उपस्थिति हमारे अनाजनेपन  को भुला देने वाली हो सकती थी, लेकिन अवधेश ही नहीं देहरादून के दूसरे साथियों के व्‍यवहार में आप अपने लिए उस आदर को न पाने के कारण उन्‍हें बा्रह्मणी मानसिकता से ग्रसित मानते थे, और उसी प्रभाव में मैं भी अवधेश जी से कोई निकटता महसूस नहीं कर सकता था। कुछ ही समय पहले घटी वह घटना मेरे जेहन में थी जब एक रोज मैंने अवधेश जी से झगड़ा-सा किया था। उस झगड़े के कारणों को रखने से सिर्फ इसलिए बचना चाहता हूं कि अभी की यह बात विषयांतर की भेंट चढ़ जाएगी।  
अवधेश जी का उन दिनों दिल्‍ली आना जाना काफी रहता था। बहुत से प्रकाशकों के लिए पुस्‍तकों के कवर पेज बनाने के करार उन्‍होंने इस वजह से किए हुए थे कि उनकी बेटी का विवाह तय हो चुका था। अवधेश जी गजब के कवर डिजाइनर थे। वे हां कर दें तो काम की कमी उनके पास हो नहीं सकती थी और उस वक्‍त वे उसी तरह की जिम्‍मेदारी के काम से लदे थे।  
अवधेश जी की उपस्थिति आपको तो असहज करने वाली थी ही, मैं भी पिछले दिनों घटी घटना के कारण सामान्‍य नहीं महसूस कर सकता था। ‘हंस’ कार्यालय में हंसी-ठट्टे की आवाजें थी, लेकिन हम दोनों ही अपने को अकेला पा रहे थे। वहां के अकेलेपन से छूट कर हम दोनों एक दूसरे के साथ हो जाने की मन:स्थिति में थे, लिहाजा हंस कार्यालय से बाहर निकल लिए। एक दुकान में चाय पी और फिर यह समझ न आने पर कि कहां जाएं, क्‍या करें, बस पकड़ कर मंडी हाऊस चले गए। कार्यक्रम मंडी हाऊस इलाके की ही किसी एक इमारत में था, लेकिन इस वक्‍त अपनी यादाश्‍त पर जोर देने के बाद भी मैं उसका नाम याद नहीं कर पा रहा। कुछ घंटे मंडी हाऊस के आस-पास बिताने के बाद हम तय समय से कार्यक्रम में पहुंच गए थे। कार्यक्रम हॉल के भीतर घुसते हुए भी हम उसी तरह साथ थे क्‍योंकि वहां मौजूद लोगों में आपको पहचानने वाला कोई नहीं था। कार्यक्रम शुरू होने के साथ बाद में जब आपका नाम पुकारा गया, उस वक्‍त मंच पर जाते हुए हमारे आस-पास बैठे लोगों के लिए भी अनुमान लगाना मुश्किल ही था कि हिंदी में दलित धारा को पूरे दमखम से रखने वाले उस शख्‍स की शक्‍ल वे पूरी तरह से याद रख पाएं। उस रोजही कार्यक्रम की समाप्ति पर आपके प्रशंसक सूरज पाल चौहान से, जो आज स्‍वयं दलित धारा के एक स्‍थापित नाम है,  मेरी मुलाकात हुई। जैसा कि तय था कार्यक्रम की समाप्ति पर हम दून लौट जाएंगे, लेकिन सूरज पाल चौहान जी के स्‍नेह और आग्रह को ठुकराना आपके न आपके लिए संभव हुआ और न ही मैं जिद्द कर पाया कि लौटना ही है। वह रात हमने सूरज जी के घर पर ही बितायी। उनके परिवार के सदस्‍यों के साथ।           
उसी रोज सूरज जी के घर पर उनके एक पारिवारिक मित्र भी पहुंचे हुए थे। रात के भोजन से पहले सूरज जी अपने पारिवारिक मित्र की आवभगत में हमें भी शामिल कर लेना चाहते थे। आप तो पीते नहीं है, सूरज जी यह नहीं जानते थे। उस वक्‍त आपने तत्‍काल सूरज जी यह कह देना भी उचित नहीं समझा और  चार गिलासों में ढल रही पनियल धार को दूसरों की तरह से ही सहजता से देखते रहे। आप जानते थे कि यदि तुरंत ही बता दिया कि पीता नहीं हूं तो दो स्थितियां एक साथ खड़ी हो सकती हैं, क्‍योंकि मेजबान अपने प्रिय लेखक के आत्‍मीयता में कोई कमी न रहने देने के लिए जिस तरह से पेश आ रहे हैं उसका सीधा मतलब है किसी दूसरे पेय की उपलब्‍धता सुनिश्चित की जा सके, उसके लिए शुरु हो जाने वाली भाग दौड़ रंग में भंग डाल सकती है। फिर यह भी तो आप जानते ही थे कि उस स्थिति में आपके साथ चल रहे व्‍यक्ति को तो गिलास में ढलती पनियल धार से यूं तो कोई परहेज नहीं पर अनजानों या सीमित पहचान वालों की महफिल का हिस्सा न हो पाने में उसके भीतर का संकोच तो उभर ही आएगा। खामोशी के साथ आपने कनखियों से देखा, आंखों ही आंखों में संवाद कायम किये रहे। लबालब भरा हुआ आपका गिलास राह देखता रहा कि मैं उसे अब अपने होठों से छुऊं कि तब।  

सबसे लंबा नदी का रास्ता, सबसे ठीक नदी का रास्ता

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एक समय तक मैं नवीन की कहानियों का घनघोर आलोचक रहा। खासतौर पर ‘पारस’ कहानी के छपने से पहले तक। ‘पारस’ कहानी जब पहली बार पढ़ी तो एक बारगी मैं ठिठक गया। वह ऐसी कहानी है जिसने मुझे बहुत गहरे तक प्रभावित किया। उस दिन मुझे अपनी डायरी में दर्ज करना पड़ा, ‘शायद मैंने नवीन की कहानियों के पाठ गंभीरता से करने में कोताई बरती है।‘ हिंदी कहानियों में इतनी कल्पनाशीलता, बल्कि हिंदी में ही क्यों, किसी अन्य भाषा में भी इतनी कल्पनाशीलता की कहानी मैंने पहले कभी नहीं पढ़ी थी और सच कहूं तो उसके बाद भी आज तक नहीं पढ़ी। कहानी का पात्र खोजराम पारस पत्थर खोजने के लिए अपने पांव में घोड़े की नाल ठोक लेता है। वह पारस पत्थर से अनभिज्ञ है। सिर्फ इतना जानता है कि वह एक ऐसा पत्थर है जो छूने मात्र से लोहे को सोने बदल देता है।
मेरे सामने सबसे पहला सवाल यह उभरा था कि आखिर नवीन अपने पात्र खोजराम की मार्फत पारस पत्थर क्यों खोजना चाहता है ? कहानी के पात्र खोजराम के भीतर तो सोने की वैसी चाहत का कोई संकेत भी नहीं कि वह दुनिया की समृद्धि का मालिक हो जाना चाहता हो। जबकि समकालीन दुनिया में सोना तो समृद्धि का प्रतीक है। उधर कहानी में जो संकेत है वे तो खोजराम को जिस चीज से समृद्धी का सुख पहुंचा सकते हैं, वहां तो प्रेम की चाह है। विवाह योग्य कन्या की तलाश है। फिर खोजराम पूंजी के विस्तार के से वैभव को पैदा कर सकने वाले पारस पत्थर की खोज में अपनी लंगड़ाहट के बावजूद ऊबड़-खाबड़ ढंगार की ऊंचाइयों को नापने के से नशे की गिरफ्त में क्यों चला गया आखिर ?
नवीन की कहानी ‘पारस’ ने मुझे ही नहीं बहुतों को प्रभावित किया। बाद में उस कहानी को रमाकांत स्मृंति सम्‍मान से सम्मानित भी किया गया।
‘पारस’ के बाद ही नवीन ने ‘ढलान’ लिखी थी।
'हंस'में प्रकाशित नवीन की सबसे पहली कहानी का शीर्षक चढ़ाई था।
‘ढलान’ कहानी का पहला पाठ करने का अवसर मुझे मिला। मैंने कहानी को ‘पारस’ के पाठ की रोशनी में ही पढ़ा और कहानी पर अपनी राय देते हुए कहा कि नवीन भाई तुम तो गजब के कथाकार हो। यार तुम्हारी इस कहानी में पात्र एक नदी को खोजने जिस तरह से जा रहे हैं, लगभग निरुद्देश्यज से दिखते हुए, उस तरीके का खोजना हिंदी कहानियों में बहुधा दिखाई नहीं देता। दूसरी दिलचस्प बात है कि तुम भी उस खोजने को एक सहज मानवीय जिज्ञासा के तहत रख रहे हो। कहन की यह सादगी जो अर्थ खोल रही है उसे ‘पारस’ के पाठ के साथ ही जोड़कर समझा जा सकता है। यानी,एक नदी जिसका रास्ता सबसे लंबा रास्ताा होता है, तुम्हारी कहानी उस रास्ते की खोज में मिलने वाली असफलताओं के बावजूद बिना थके उसे खोजते रहने की प्रेरणा दे रही है। सच, तुमने दुनिया के बदलाव के रास्ते की खोज पर बहुत ही खूबसूरत ढंग से कहानी कही है।
मेरी बातों को सुनने के बाद खुश होने की बजाय, कमबख्त नवीन सकपका गया। और अपने अंदाज में खिल खिला कर हंसते हुए कहने लगा। इसका मतलब मुझे इस कहानी को अपने लिखे हुए से हटा हुआ मान लेना चाहिए और ऐलानिया ढंग से कहा कि वह ऐसी कहानी को सुरक्षित नहीं रखेगा जो इतनी आसानी से खुल जा रही हो। मुझे नवीन भाई की घोषणा पर आश्चार्य तो नहीं हुआ लेकिन इस जिदद पर गुस्सा आया कि वह इतनी अच्छी कहानी को नष्ट क्यों कर देना चाहता है। मुझे अपने पर भी गुस्सा आया कि मैंने कहानी का ऐसा पाठ ही क्यों किया और यदि कर भी लिया था तो नवीन भाई के साथ शेयर क्यों किया। मुझे इस बात का ध्यान रखना ही चाहिए था कि वह तो उस तरह के फूल के स्वभाव का व्याक्ति नहीं जो अपनी तारीफ से खिल जाए, बल्कि छुई-मुई पत्तियों सा है जो तारीफ की छुअन भर से अपने को सिकोड़ लेने में माहिर हो। बार-बार की मेरी गुजारिशों के बावजूद नवीन भाई ने उस कहानी को कहीं नहीं भेजा छपने के लिए। यह भी सच है कि मेरी उस प्रतिक्रिया और नवीन की घोषणा के बाद कहानी का कोई दूसरा पाठक भी पैदा नहीं हो पाया, क्योंकि लिखी गई वह कहानी फिर कभी सामने नहीं आई। नवीन भाई ने कभी नहीं चाहा उनकी कहानियों के पाठ आसानी से खुल जाएं। वे कुछ अबूझ बनी रहें और आप उनके घोर आलोचक बने रहे तो नवीन सचमुच का सौरी रच सकते हैं। पर उनकी कहानियों के पाठ इतनी आसानी से खुल जाए जैसे पारस में खुल गया था और पाठकों ने नवीन के सौरी को किसी कल्पना के भूगोल में ही नहीं रहने दिया बल्कि उसे उस एक ऐसे गर्भ ग्रह में बदल दिया जहां एक स्त्री बच्चे की चाह कहानी में चमकती हुई दिखने लगी, तो नवीन को असुविधा होने लगती है।
नवीन के पाठक जानते होंगे कि पारस के बाद नवीन ने बहुत ही कम कहानियां लिखी हैं। एक लम्बी खोमोशी में होने की वजह को तलाशने में बेशक वे खुद कोई वजह न तलाश पाएं लेकिन कहीं यह भी एक कारण तो नहीं कि पारस ने उनके भीतर को जिस तरह से समाने रख दिया है अब लाख चाहकर भी वे अपने लेखन में उसे छुपाए नहीं रख सकते। अब देखो न उस पहले ड्राफ्ट वाली ‘ढलान’ को इतने सालों बाद अंत में कुछ बदलाव सा कर देने के बाद भी वे कहां छुपे रह पा रहे हैं।
मुझे खुशी है, नवीन अपने उन वर्षों पहले किए गए ऐलान के बाद ‘ढलान’ कहानी को फिर से लिख पाए। ‘प्रभात खबर’ के दीपावली विशेषांक-2018 में कहानी प्रकाशित भी हुई है।
यहां कहानी अपने पहले ड्राफ्ट के बदले हुए रूप में है, आसानी से खुल नहीं रही है। लेकिन नवीन को जान लेना चाहिए कि खोलने वाले फिर भी खोल देंगे। क्यों कि नदी तक न पहुंच पाने की पहली कोशिश लड़के और लड़की को निराश नहीं कर पा रही है। वे निराशा के साथ नहीं बल्कि इस उम्मीद के साथ वापस लौट रहे हैं कि दोबारा रास्ता खोज पाएंगे। ‘लड़ना है भाई यह तो लंबी लड़ाई है’, भाई निरंजन सुयाल की कविता पंक्तियां याद आ रही है।
खैर, नवीन भाई से गुजारिश कि वे अब अपने भीतर को छुपाने की चेष्‍टा करना छोड़कर सतत लिखना शुरु करें। 

ढलान 

नवीन कुमार नैथानी


दीतकपहुँचनेकीहड़बड़ाहटमेंउन्होंनेगलतपगडंडीपकड़ली.यहसंकरारास्ताथाऔरढलानतेजथी.वेअगल-बगलनहींचलसकतेथे.उन्हेंआगे-पीछेहोनापड़ा.लड़काआगेनिकलगयाऔरलड़कीपीछेरहगयी.
               तुम्हारेहरकाममेंजल्द-बाजीहोतीहै.” इतनाकहतेहीलड़कीरुकगयी. उसनेसामनेदेखा-लड़कागायबथा.
                 ढलानकेदोनोंतरफझाड़ियाँहवाकेस्पर्शसेबहुतसारेसुरोंमेंबजरहीथीं.उनकाबजानादिखायीपड़ताथा.कभीवेतेजीसेऊपरकीतरफउठतींऔरपस्तहोकरनीचेलुढ़कनेलगतीं.कभीवेएकहीजगहखड़ीहोकरऊपर-नीचेडोलनेलगतीं-लड़कीकीतरह!
                कुछदेरतोलड़कीसमझहीनहींसकीकिवहक्याकरे-तेजीसेदौड़तेहुएलड़केकोपकड़ेयापीछेलौटजाये.लौटनेकेखयालसेउसेशर्मिन्दगीमहसूसहुई.नदीतकजानेकाप्रस्तावउसीनेकियाथा.
                  वेपहलेभीकईबारउसजगहपरथे.नदीवहाँएकझीलकीतरहबहतीहै-आहिस्ता-आहिस्तासरकतीहुईझीलकीतरहअते ! बिगड़ते हुए मौसम को देखकर वे वापस लौटने  को थे कि लड़की के मन में एक बेचैन करने वाला खयाल उग आया.शायद नदी उस जगह झील सी न दिखायी दे.शायद बहुत छोटा समन्दर वहाँ भर गया होगा.उसने यह खयाल लड़के के कान में डाल दिया.
            ‘क्या तुम्हें यकीन है?’ लड़के को भरोसा नहीं हुआ.
            ‘चलो, चलकर देख लेते हैं’ लड़की ने कहा था.
             फिर वे वापस लौटना भूल गये थे.मौसम खराब होता जा रहा था और नदी तक पहुँचने की बेचैनी उन पर हावी होती जा रही थी.
            “रुको!” नज़रों से ओझल हो चुके लड़के को रोकने के लिये लड़की ने आवाज दी.
            तभी हवा बहुत तेजी से झाड़ियों को झिंझोड़ने लगी और ऊपर – बहुत छोटे आसमान में – बादल उमड़ घुमड़ करने लगे.लड़की घबरी गयी और वापस लौटने की बात भूलकर ढलान में तेजी से उतर ली.झाड़ियों के ठीक बाद , दोनों तरफ, चीड़ के लम्बे और पतले पेड़ सीटियाँ बजा रहे थे- भागो, भागो!
            लड़की की नज़र चीड़ के हिलते हुए नाज़ुक शरीरों पर पड़ी और उसके मन में लड़के के लिये चिन्ता घुमड़ने लगी – छोटे से आसमान में बादलों की तरह.उसके कदम बेकाबू हो तेज चलने लगे.
            “रुको!” मौसम के बिगड़ते सुरों के बीच उसे एक आवाज सुनायी दी.उसे लगा , शायद यह लड़के की आवाज है.
            वह रुक गयी.उसने सामने देखा.वहाँ ढलान नहीं थी.एक गहरी खाई थी.वह सिहर गयी.वहाँ रास्ता खत्म हो जाता था.लड़का वहाँ नहीं होगा.उसने पीछे मुड़कर देखा – बाँयी तरफ एक बड़ी चट्टान थी.वह उधर बढ़ गयी.नदी तक पहुँचने की बेचैनी में इतनी बड़ी चट्टान उसकी नज़रों से कैसे गुम हो गयी!पतझड़ की आँधी में पत्ते उसके चेहरे से टकरा रहे थे – बेचैन परिन्दों की छटपटाहट में टूटे पंखों की तरह.तभी एक सीटी उसके कानों में बजी – हवाओं में उड़ते पत्तों और महीन मिट्टी के कोलाहल को भेदती हुई.उसने दाहिनी ओर देखा – एक बड़े और चौड़े दरख्त के दरकने से हटी मिट्टी से बनी जगह पर वह दुबका हुआ था.
            लड़का.तीन कदमों के फासले पर.
            लड़की भी उस जगह में समा गयी.उसे अपनी ही साँस अपने सीने पर आसमानों से गिरती सुनायी दी.
            “मैंने तुम्हें नीचे जाते हुए देख लिया था.”लड़के की आवाज सुनते ही लड़की संशय की पिछली यातनाओं से बाहर निकल आयी.
            “तुमने मुझे पुकारा क्यों नहीं?” लड़की फुसफुसाहट के स्वर में बोली – हवा से उठती आवाजों के कारोबार में कुछ चोरी करती हुई.
            “पुकारा तो था,”लड़के ने जवाब दिया,“पर मेरी आवाज दब गयी.जहाँ से तुम लौटीं,मैं भी वहीं से लौटा था.”
            “सच!”लड़की ने लड़के का चेहरा थाम लिया और उसे चूमने लगी.खाई में गिरते पत्तों का दृश्य उसकी आँखों में कौंधता और वह कस कर लड़के का चेहरा थाम लेती.
            “आँधी अभी थम जायेगी.”लड़के ने उसके बालों को सहलाते हुए कहा,“तब हम चलेंगे.”
            “कहाँ?”लड़की अनजान बनी रही.
             “वहीं...नदी तक.”
             “नहीं”
            “क्यों?” लड़का इन्कार से चौंक गया.
             “कोई फायदा नहीं.तब नदी वह नहीं रहेगी जिसे देखने यहाँ तक उतरे.”लड़की की आवाज में गहरी हताशा थी.
             “वह तो अभी होगी.”लड़के की आवाज में थोड़ा संशय उतर आया.इसे दूर करने में उसने जरा वक्त लिया.
             लड़की असमंजस में उसकी आँखों में देखती रह गयी.
            “चलें.” लड़के ने अचानक कहा.वह आदेश का स्वर भी हो सकता था और अनुमोदन की प्रत्याशा भी.
            “चलो.”लड़की ने बहुत धीरे से कहा.शब्द उसके होंठों से बाद में निकले,आँखों से पहले फूट पड़े.
            अब लड़की आगे थी और लड़का पीछे.
            □□□
             खाई के पास पहुँच कर लड़की रुक गयी.
              “मैं भी यहीं से लौटा था.”लड़के ने उसके कन्धों को पीछे से पकड़ते हुए कहा.
             “यहीं से लौटे थे?”लड़की ने पलटकर पूछा.
             “हाँ”
               “अच्छा...”लड़की की आँखें शरारत से चमक उठीं,“तो तुम डर गये थे.”उसने लड़के को हलका धक्का दिया.
                “तुम खाई को देख रही हो?”
               “खाई तुम्हारी सूरत से भी ज्यादा अच्छी तरह दिखायी पड़ रही है.”
               “तुम क्या कह रही हो?”
               “तुम लौट क्यों गये थे?हम नदी तक चलने के लिये उतरे थे.”
               “हाँ”
              “तो!”
               “मैं अकेला था.”लड़के ने हताश आवाज में कहा.
               “आओ!”लड़की पलट गयी.
              अगले ही क्षण लड़की वहाँ नहीं थी.
             □□□
            वह खाई में थी.लड़के को काफी देर बाद दिखायी दी.वह खाई में कैसे पहुँच गयी?कुछ देर वह असमंजस में रहा. तो लड़की ने छलांग लगा ही दी.उसकी जिद के बारे में उसने बहुत सुना था.कुछ देर पहले जब वह इस जगह पहुँचा था तो  अपने पीछे दौड़ती लड़की लगातार उसके ध्यान में बनी  रही थी.लड़की ने खाई में कूदने से पहले उसके बारे में सोचा होगा क्या?फिर उसे लगा कि नहीं,वह खाई में कूदी नहीं है,फिसल गयी है.नहीं,वह फिसली नहीं है.अगर फिसलती तो उसकी चीख सुनायी पड़ती.उसे भरोसा हो गया कि वह एक छलांग थी!जोखिम से भरी हुई.लड़के का दिल जोर से धड़कने लगा.
              ‘‘तुम वहाँ क्यों खड़े हो?”उसे लड़की का उल्लास से भरा स्वर सुनायी दिया.
             “तुम वहाँ क्यों उतर गयीं?”लड़के ने अपनी हथेलियाँ मुँह के सामने कर लीं – आवाज को लड़की तक पहुँचाने के लिये.
               “इतना हैरान क्यों हो?”लड़की का प्रश्न जवाब में उठता हुआ आया.
               “आगे रास्ता कहाँ है?”लड़के ने कहा.
    “आओ!”लड़की का स्वर खीज से भर उठा,“यहाँ बहुत सारे रास्ते हैं.”
                “कहाँ?”लड़के ने फिर कहा,“बहुत खतरनाक ढलान है.”
                “तुम्हें नहीं पता”लड़की ने पुकार लगायी,“यहाँ आकर देखो.थोड़ी देर में आँधी रुक जायेगी.”उसकी आश्वस्त पुकार में चुनौती भरी दृढ़ता थी.
    “कैसे आऊँ?”लड़के को लगने लगा कि वहाँ तक पहुँचा जा सकता है.
    “सीधा छलांग लगा दो.”लड़की का स्वर आत्म-विश्वास से भरा था,“मैं तुम्हें थाम लूँगी.”
     लड़के ने छलांग लगा दी.पैरों के नीचे मिट्टी थी और महीन कंकर थे.क्षण भर को उसे महसूस हुआ कि वह संतुलन खो रहा है.दाहिनी तरफ एक गिरे हुए पेड़ की जड़ दिखायी दी.उसने सहारे के लिये जड़ की तरफ हाथ बढ़ाया.तभी उसे खतरा महसूस हुआ-शायद यह जड़ बहुत कमजोर हो.उसका बोझ न थाम सके और मिट्टी से बाहर निकल आये;तब वह पेड़ के बोझ से खिंचा हुआ नीचे जा गिरेगा.लड़की बहुत पास थी.उसने सहारे के लिये हाथ लड़की की तरफ बढ़ाया और तत्काल पीछे खींच लिया.उसकी चेतना ने ऐन वक्त पर उसे चेता दिया – लड़की मिट्टी में दबी जड़ नहीं है.वह मिट्टी से अलग एक समूची देह है.
                 □□□
     लड़का जब ढलान पर गिरा तो उसके दोनों हाथ और पैर मिट्टी में धंसे हुए थे.उसका चेहरा लड़की की हथेलियों में था.लड़के को अपनी हथेलियों में जलन का अहसास बाद में हुआ- राहत देने वाली नर्म हथेलियों के स्पर्श का अनुभव उसके चेहरे ने पहले किया.वह लड़की को बताना चाहता था कि उसके हाथ बेतरह जल रहे हैं.उसके होंठ लड़की की हथेलियों पर थरथरा कर रह गये-उनसे आवाज नहीं फूटी.
             लड़की  ने महसूस किया कि लड़का उससे कुछ कहना चाह रहा है. आसमान में बादल बज रहे थे और उनकी आवाजों के बीच वह लड़के के होंठों की थरथराहट को सुनने की कोशिश करने लगी.उसे महसूस हुआ कि लड़का उसकी हथेलियों पर होठों से कुछ लिख रहा है.क्षण भर को वह खुश हो गयी.उसकी हथेलियाँ लड़के के होंठों का संसार मापने लगी.वहाँ ताप बहुत ज्यादा था-पृथ्वी के गर्भ के तापमान से लड़की वाकिफ थी.यकायक उसे लगा कि वह लावे में बदल जायेगी.उसने अपनी हथेलियाँ हटा लीं.
                 अगले ही क्षण लड़का जमीन पर था-उसके सर के बाल लड़की के पैरों को छूने लगे.लड़की ने अपने  पैरों से उठती हुई सनसनाहट को महसूस किया.कुछ देर तक वह समझ ही नहीं सकी कि अचानक यह क्या हो गया है!स्थिति की भयावहता को समझ कर उसके भीतर से एक लम्बी चीख निकली-हवा में चीड़ के पेड़ों से निकली सीटियों को दबाती एक बेचैन चीख!समुद्र की लहरों में टूटते जहाज से जीवन के गुम हो जाने की आशंका में एक करुण पुकार!
      लड़के की जीभ यक-ब-यक मुँह में भर आयी मिट्टी के वजूद से चौकन्नी हो लड़ने की मुद्रा खोजने लगी.वह समझ गया कि पूरी तरह से गिर चुका है.हथेलियों की जलन को भूल गया. अब उसके होंठ चिरमिराने लगे.वह मिट्टी से चेहरा उठाने की कोशिश कर ही रहा था कि उसे लड़की की चीख सुनायी दी- उसके नजदीक और सर के ठीक ऊपर!उसका चेहरा मिट्टीसे बाहर निकल आया और आँखों के सामने लड़की की देह का धुंधला सा आकार उपस्थित हो उठा.
                 अपनी ही चीख से डरी हुई लड़की ने नीचे देखा-लड़के का चेहरा ऊपर उठ रहा था.पूरी तरह मिट्टी से पुता हुआ.उस धूसर चेहरे में, होंठों के ऊपर, लाल रंग की एक रेखा बन आयी जो धीरे-धीरे और ज्यादा सूर्ख होती जा रही थी.
     यह खून है!अचानक लड़की के दिमाग में कौंध हुई.
     “अरे!”लड़की के मुँह से एक शब्द फूटा और वह घुटनों के बल जमीन पर बैठ गयी.उसने लड़के के उठते हुए चेहरे को थाम लिया और वहाँ बैठ गयी मिट्टी को हटाने लगी.
    “मुझे उठाओ” लड़के ने कराहते हुए कहा.लड़की बेचैनी के साथ उसके चेहरे से मिट्टी हटाने में जुटी रही.
     “उफ!मुझे उठाओ.”लड़के ने फिर कहा.
     लड़की घबराहट में थी.अब वह असमंजस में पड़ गयी.लड़के को कैसे उठाये.चेहरे से मिट्टी हटाने में जुटी उसकी हथेलियां थम गयीं.बांये हाथ से वह लड़के के चेहरे को थामे रही.लड़के के चेहरे का बांया हिस्सा साफ हो गया था.उसकी आँख के नीचे छोटा तिल साफ दिखायी पड़ रहा था.उस तिल के दिखने से लड़की को लगा कि लड़के का चेहरा साफ हो गया है.वह उस तिल को चूमना चाहती थी.लड़के की कराह सुनकर वह उसे उठाने की युक्ति खोजने लगी.उसने घुटनों को थोड़ा पीछे किया जमीन पर लेट गयी.उसकी दूसरी हथेली भी लड़के के चेहरे पर आ लगी.उसकी हथेलियाँ लड़के के चेहरे का भार महसूस करते हुए थरथरा रही थीं.उसने कोहनियां गीली मिट्टी में धंसायीं,अपने शरीर को थोड़ा आगे बढ़ाया और उसका चेहरा लड़के के चेहरे के पास आ गया.लड़के की आँखों से एक करुण याचना झाँक रही थी.लड़की उसके चेहरे पर ,ठीक तिल के ऊपर बेतहाशा चूमने लगी.
     “मुझे उठाओ!”लड़का फिर कराहा.लड़के की कराह सुनकर लड़की फिर सहम गयी.वह लड़के को कैसे उठाये? इसके लिये उसे खुद उठना होगा.उसने अपनी हठेलियां लड़के के चेहरे से हटाकर जमीन पर टिका लीं. लड़के का चेहरा फिर से जमीन में जा गिरा-मिटी और कंकर के कर्कर स्पर्श में!
     “तुम कैसे गिर गये?”लड़की के मुँह से कुछ शब्द निकले जिन्हें सिर्फ वही सुन सकी.उसकी आवाज लड़के तक नहीं पहुउँच सकी-वह उसके होंठों में ही दब गयी.वह समझ नहीं पायी कि यह सब –इतनी जल्दी और अचानक-क्या हो गया है.तभी आसमान में बिजली देवदार की शाख की तरह कौंधी.लड़की ने अपनी हथेलियां कान पर रख लीं.हथेलियों का परदा नाकाफी था.एक गड़गड़ाहट वहाँ देर तक बनी रही.बिजली के चमकने पर लड़की चौंक जाया करती है.उसे पता भी नहीं चला कि कब और कैसे वह बैठ गयी थी.उसने लड़के के दोनों कन्धे पकड़ लिये.
                 वह लड़के को उठाने की कोशिश कर रही थी.लड़के के बदन का बोझ उसे भारी लगा.अपने कन्धों पर लड़की भारी बोझ उठाने की आदी थी.जंगल में लकड़ी और घास के बहुत भारी बोझ उसके कन्दों पर उठ जाते थे.तब उसकी देह के सभी अंग एक लय में गतिमान हो उठते.वह कन्धों पर बोझ को टिकाती-उसकी हथेलियाँ,घुटने और पैरों के पंजे एक साथ हरकत में आते.धरती उसकी मदद करती और बोझ उसके ऊपर एक मक्खी की तरह बैठ जाता.
    अगर लड़का घास के बोझ की तरह होता तो वह उसे अपने कन्धों पर रख लेती.लड़का घास नहीं है.
    “उठो.”लड़की ने कहा.
     “कैसे उठूँ”लड़के के चेहरे पर दर्द,बेचैनी और छटपटाहट के बादल उतर आये.
     लड़की ने उसे उठाने के लिये जोर लगाया.पैरों के नीचे जमीन का गीलापन बाधा बन रहा था.उसके पैर जमीन में धँस गये.लड़के के कन्धों से उसकी पकड़ ढीली हो गयी और लड़का फिर जमीन पर जा गिरा.
     “उफ!”लड़की जोर से चिल्लायी.उसकी आवाज में कातर प्रार्थना थी,‘‘हे भगवान!ये क्या हो गया!”उसकी आवाज गड़गड़ाहट में दब गयी.आसमान में फिर बिजली कौंधी थी.लड़की के मुँह से एक चीख निकल पड़ी.
               वह चीख लड़के को सुनायी दी.उसने मिट्टी से चेहरा उठाने की कोशिश की.दर्द की तेज लहर उसके बदन से गुजर गयी.अब उसे लगने लगा कि दर्द की अन्तिम सीमा वह झेल चुका है.इससे ज्यादा दर्द और क्या होगा!उसने अपनी हथेलियों को मिट्टी में धंसाया और ऊपर उठने की कोशिश करने लगा.दर्द की लहर उसे नीचे गिराये जा रही थी.उसने जबड़े कस लिये और दर्द को चुनौती देते हुए खड़ा होने का प्रयास किया.दर्द बढ़ गया.लड़के की कोशिश भी बढ़ गयी.तभी उसे महसूस हुआ कि दर्द अब सहन करने की तमाम सीमाओं को लाँघकर उसे नीचे गिराने वाला है.वह एक झटके के साथ उठ खड़ा हुआ.
                 लड़के ने देखा-सामने लड़की खड़ी है.उसकी आँखें बन्द हैं और हाथों से वह कानों को ढके है.लड़के को अब दर्द परेशान नहीं कर रहा था.उसके समूचे शरीर पर अनगिनत सुईयाँ छेद कर रही थीं.लड़की के सामने खुद को खड़ा पाकर उसे राहत महसूस हो रही थी.उसकी इच्छा हुई कि वह लड़की के कानों से हथेलियाँ हटाकर कुछ बात कहे.वह एक कदम आगे बढ़ा और उसकी नजरें लड़की के पीछे चली गयीं.
               वह स्तब्ध रह गया.
     □□□
                लड़की कगार के सिरे पर थी.उसके पीछे एक खड़ी चट्टान थी.लड़की एक कदम भी पीछे हटायेगी तो नीचे जा गिरेगी-वहाँ सहारे के लिये घास तक नहीं है.उसने लड़की को अपनी तरफ खींच लिया.
                किसी सम्मोहन में दो कदम आगे बढ़ने के बाद लड़की को अहसास हुआ कि वह लड़के की लहुलुहान बाहों की गिरफ्त में है.लड़के के धूसर चेहरे से निकलते लहू को लड़की ने बहुत करीब से देखा.लड़के को संभालने के लिये वह अपने पैर गीली जमीन पर मजबूती से टिकाना चाहती थी-तभी उसे अपने चेहरे पर मिट्टी का कंकरीला स्पर्श महसूस हुआ जिसमें खून की गरमी थी.
    “वहाँ देखो” हवा की नमी,मिट्टी की करकराहट और खून की गरमी के बीच उसे लड़के की आवाज सुनायी दी.उसने समझा कि लड़का नदी के पार-दूसरे पहाड़ पर बारिश की सूचना दे रहा है.
     “वहाँ नहीं.उधर...अपने पीछे.”
      लड़की ने थोड़ा खीज के साथ लड़के की तरफ देखा. वह अभी तक लड़के की गिरफ्त में थी.लड़के ने अपना दाहिना हाथ लड़की से अलग किया-उसके ठीक पीछे चट्टान की तरफ संकेत करते हुए.लड़की अब उसकी गिरफ्त से बाहर निकल आयी.
      लड़के की आँखों में भय था, आश्चर्य था और एक राहत थी.लड़की ने सबसे पहले उसकी आँखों में राहत को पढ़ा, फिर उसके मुक्त हाथ का अनुसरण करते हुए पीछे देखा.
               “हे भगवान!” पीछे देखते ही लड़की आश्चर्य और भय से चिल्ला उठी.
     लड़के ने तभी लड़की को अपनी ओर खींच लिया.
     “अब?”लड़के ने लड़की की अवाज को सुना.
     “अब?”लड़की ने लड़के की अवाज को सुना.
      दोनों ने उस दिशा में नहीं देखा जिधर चट्टान थी.दोनों ने उस दिशा में देखा जहाँ से उन्होंने एक दूसरे के पीछे छलांग लगायी थी.
             वह एक बड़ी दीवार थी-मिट्टी और दरकी हुई जमीन से बनी दीवार! उस पर चढ़ना असंभव था.
   एक शब्द भी कहे बिना दोनों जान गये कि अब वापस लौटना संभव न्हीं है.
             “उधर बारिश हो रही है” लड़की ने कहा.
            “अगर बादल फट गया तो?”
            “बादल ऐसे क्यों फटेगा?”
            “अगर फट गया तो?”
            “हम पानी और मिट्टी के रेले में बह जायेंगे.” लड़की ने भय से आँखें बन्द कर लीं.
            “अगर ऐसे ही रुके रहे तो भी मर जायेंगे.”लड़के ने कहा.लड़के को कहीं रास्ता नजर नहीं आया.लड़की के पीछे चट्टानी ढलान थी और बाँयी तरफ खाई.
            छलांग लगाने से पहले लड़की को वह खाई दिखायी नहीं दी थी.अगर दीख जाती तो छलांग नहीं लगाती.उसे तो उस ऊँचायी से वह  जगह दिखायी दी थी जहाँ से एक पगडंडी नदी की तरफ फूटती है.वह पगडंडी लड़के को भी दिखयी दी थी.उसका होना बहुत साफ नहीं दिखता था.वहाँ सिर्फ एक रास्ते का आभास था.किन्हीं ज़मानों में वहाँ से लोग गुजरते होंगे.तब वहाँ कोई रास्ता रहा होगा.
               “अब एक ही रास्ता है”लड़की ने बाँयी उंगली खाई के पार ढलान की तरफ उठायी,“वहाँ!”
              “हाँ.”लड़के ने कहा.
              “हमें वहीं चलना होगा.”लड़की अब शान्त थी.उसकी आवाज में धैर्य था,“हम अब ऊपर नहीं जा सकते”
               कुछ देर तक दोनों एक दूसरे की आँखें पढ़ते रहे.लड़के ने लड़की की आँखों में भय देखा.लड़की ने लड़के की आँखों में लापरवाही देखी.
              “नीचे मिट्टी गीली है” लड़के ने कहा.
                “हाँ गीली है.” लड़की की आंखें आश्चर्य से फैल गयी.लड़के ने खाई में छलांग लगा दी.
                 □□□
                  वह अनायास लगायी गयी छलांग थी.लड़के ने आँखें बन्द कर ली थीं.उसे अपना बदन बहुत हल्का लग रहा था.उसका पूरा शरीर गीली मिट्टी से नरम हो आयी जमीन के ऊपर था.उसने आँखें खोलीं तो नीचे वह पगडंडी दिखायी दे गयी.वहाँ वे फिसलते हुए पहुँच जायेंगे.तभी उसे लड़की का ध्यान आया.उसने ऊपर देखा.लड़की नहीं दिखायी दी.
                 उसे दिखायी दिया कि वह कितनी खतरनाक ऊँचाई से कूदा है!अगर थोड़ा भी इधर-उधर होता चट्टानों से टकराकर बिखर जाता.लड़की कहाँ है? अब वह लड़की के लिये चिन्तित हो गया.
                उस सीधी ऊँचाई के ऊपर कहीं होगी.
               “सुनो!” उसने जोर से आवाज लगायी,“तुम कहाँ हो?”
               थोड़ी देर तक वह जवाब की उम्मीद करता रहा.उसे लगा कि अभी लड़की की आवाज सुनायी दे जायेगी.कुछ क्षण वह टुक लगाकर सुनता रहा –हवा में वृक्षों की सरसराहट के सिवा कुछ सुनायी नहीं दिया.उसकी बेचैनी बढ़ गयी. हो सकता है लड़की ने आवाज न सुनी हो.उसकी आवाज बीच में पहुँचकर खत्म हो गयी हो.हो सकता है हवायें उसकी आवाज को नदी की तरफ ढलानों में खींच ले गयी हो.
               “सुनो!” उसने और ताकत से आवाज दी.एक बार फिर लड़की का नाम पुकारा.उसे चेहरे में मिर्च की तरह एक तीखी जलन महसूस हुई .उसने उंगलियां चेहरे पर लगायीं तो वहाँ एक गरम गीलापन आ टकराया.वह समझ गया, यह खून है.
     थोड़ी देर पहले की तमाम घटनायें उसकी चेतना में एक कौंध की तरह उसकी चेतना में चमक गयीं-उसे हवा में छटपटाते  दिखायी दिये,टूटे हुए रास्ते की ढलान दी,चट्टान से खाई की तरफ बढ़ती हुई लड़की दिखायी दी.भय से वह काँपने लगा.उसे अपने पास की जमीन घूमती दिखायी देने लगी.वह जमीन पर लेट गया और उसने आँखें बन्द कर लीं.
               धप्प!उसके पास कोई चीज गिरी.उसे आँखें खोलनी पड़ीं.ऊपर से मिट्टी सरक रही थी.एक पल वह गिरती हुई मिट्टी को देखता रहा.उसके गिरने में एक लय थी. अचानक यह लय बिगड़ गयी...मिट्टी मलबे की शक्ल में गिरने लगी.उसके गिरने में अजीब सी हड़बड़ाहट थी.आसन्न खतरे को देखकर लड़का उठ खड़ा हुआ.उसे अपने बचाव के लिये फैसला करना था और समय कम था.अब वह जल्दबाजी में छ्लांग नहीं लगायेगा.उसे किसी भी तरह पगडंडी तक पहुँच जाना है.उसने नीचे फिसलते हुए उतर जाने का फैसला किया.
                “ओ माँ!” यह लड़की की आवाज थी.उसके ठीक पीछे.लड़की मलबे के बीच नीचे गिर रही थी-मिट्टी के साथ.
                 लड़की के गिरने के बाद भी बहुत देर तक ऊपर से मिट्टी गिरती रही-बहुत बारीक पर्त के साथ.लड़का उसके नजदीक पहुँचा.वह बेहोश थी और उसका चेहरा मिट्टी से ढका था.वह उसे पुकारने के लिये कोई शब्द ढूँढने लगा.फिर रुक गया.शायद लड़की उसकी आवाज सुनकर डर जायेगी.
               खड़े-खड़े ,कुछ किये बिना-कुछ न कर पाने की बेचैनी के साथ-लड़के को गुस्सा आने लगा.खुद पर झुँझलाहट भी हो उठी.लड़की की बात पर, उसकी जिद के चलते, वे इस मुसीबत में कूद पड़े थे.अब उसे बेहोश लड़की पर गुस्सा आने लगा.वह ऊपर से क्यों कूद पड़ी?अगर मिट्टी के ऊपर कोई पत्थर होता तो उसके वजन तले वह उस ढेर मेम दब जाती.शायद लड़का भी उस मलबे की चपेट में आ जाता.
               हो सकता है लड़की कूदी ही न हो.वह फिसल गयी हो.यह विचार आते ही लड़के का गुस्सा फिसल गया.उसने लड़की के चेहरे पर लगी मिट्टी हटा दी.लड़की ने आँखें खोल लीं.
                “हे भगवान!”लड़के ने आसमान की तरफ देखते हुए एक लंबी सांस ली,फिर उसकी नजरें लड़की की आँखों पर टिक गयीं,“तुम ठीक हो?”
              लड़की कुछ नहीं बोली.वह लड़के के चेहरे को देखती रही.पहले उसे एक धुंधला चेहरा दिखायी दिया-मिट्टी और ताजा जमे खून के बीच झाँकती दो आँखें.चिन्ता और भय की सुरंग से बाहर निकलती हुई रौशनी के दो धब्बे.उस हलकी रौशनी के उजास में लड़के के चेहरे की आकृति पहचान में आयी.लड़की को वह सब एक सपने की तरह दिखायी दिया.
              “तुम ठीक हो?”लड़के ने फिर कहा.
                वह कुछ कह रहा है.लड़की ने सोचा.उसने आँखें बन्द कर लीं.अब लड़का उसके नजदीक है.दोनों एक दूसरे के साथ हैं.अब वे अकेले नहीं हैं.अब थोड़ी देर सो लिया जाये.लड़की की देह शिथिल पड़ गयी.
                 “उठो” लड़के ने फिर कहा.
                 लड़की एक गहरी और निश्चिन्त नींद में चली गयी थी.आसमान से पानी की कुछ बूंदें गिरीं.
                 “बारिश आने वाली है”लड़का ने जोर से कहा.उसका चेहरा आँखों के पास दुखने लगा.तभी बारिश उनके ऊपर गिरने लगी.मोटी-मोटी बूँदों में-धारासार!
                लड़की ने चेहरे पर पानी की आवाज सुनी.उसने आँखें खोलीं.बारिश की चादर के बीच उसे लड़के का धुंधलाया चेहरा दिखायी दिया.वह मुसकरायी.लड़के को वह मुसकराहट पहले दिखायी दी.उसकी खुली आँखों पर नजर बाद में गयी.वह क्या कहे? सोचने में उसने कुछ पल खो दिये.फिर कुछ कहने के लिये उसने होंठ खोले.
              “ओ मां!”लड़के के मुंह से चीख निकली.वह कहना चाहता था,‘जल्दी उठो और चलो.हमें अभी दौड़ना होगा.’ बारिश की मोटी और तेज बूँदें उसके चोट से सूजे चेहरे पर मिर्च की तरह जलने लगीं. लड़की ने उसके चेहरे को हथेलियों से ढक लिया.उसकी उंगलियाँ लड़के के चेहरे को छूने लगी.लड़का फिर दर्द से चीख उठा,“ओ माँ!”
             लड़की हँस दी.फिर खिलखिलाने लगी.मिट्टी पर गिरती बारिश की आवाज के बीच उसकी हँसी लकड़ी के फर्श में गिरते बर्तनों की तरह बजी.
              “पागल हो गयी हो” अब लड़का क्रोध में था.उसकी बेचैनी,झुंझलाहट,पीड़ा और दर्द लड़की की हँसी में एक साथ मिलकर उसकी चेतना में जा गिरे.लड़की की इसी जिद के चलते वह यहाँ तक चला आया था.अब वह लड़की का एक शब्द नहीं सुनेगा.वह मुड़ा और आगे बढ़ गया-उसके कदम दौड़ की हदों तक बढ़ने लगे.
             लड़की उसके पीछे चलने की कोशिश करने लगी.उसे महसूस हुआ कि कदम उसका साथ नहीं दे रहे हैं. उसे अब बैठ जाना चाहिये.बैठते हुए  लड़के को पुकारा,“रुक जाओ!”
            लड़के  ने लड़की की पुकार  सुन ली.लेकिन उसने पीछे मुड़कर नहीं देखा.उसे लगा कि लड़की फिर शरारत कर रही है.अभी उसे रास्ता ढूँढना है.बारिश हलकी होने लगी थी.आगे का धुँधलापन कुछ साफ होता दिखने लगा.उसने आसमान की तरफ देखा.आकाश का बहुत छोटा टुकड़ा उसे दिखायी दिया.वहाँ बादलों का घनापन छितरा रहा था. लगता है थोड़ी देर में बादल चले जायेंगे और आँधियां थम जायेंगी.फिर उसे ध्यान आया कि हवाओं की तेजी तो बहुत पहले गुजर चुकी है!निराशा में उसने बाँयी तरफ देखा.उधर से एक पगडंडी का धुंधला आकार दिखायी दिया.
            “मिल गया.” वह खुशी से चिल्लाया.उसे लगा कि यह बात अभी लड़की को बता देनी चाहिये.फिर उसे ध्यान आया कि लड़की ने उससे रुकने को कहा था.वह पीछे मुड़ा.लड़की की धुंधली आकृति दिखायी दी.दोनों के दर्म्यान एक बड़ा फासला बन गया था. वह उससे बहुत दूर उतर आया था.शायद उसकी आवाज लड़की तक नहीं पहुँची.
            “सुनो”उसने एक बार फिर आवाज दी,“तुम मेरी आवाज सुन रही हो?”         
            लड़की ने उसकी आवाज सुन ली. लेकिन वह उसे जवाब देने की स्थिति में नहीं थी.लड़के की आवाज में रास्ता पाने की खुशी उसकी पकड़ में आ गयी .उसने उठने की नाकाम कोशिश की.
“हाँ...”लड़की कहना चाहती थी,“तुम आगे निकल जाओ.मैं तुम्हारे पीछे आ जाऊँगी”
दर्द भरी कराह उसके गले से निकली.वह उम्मीद करने लगी कि हवायें उसकी आवाज को लड़के तक ले जा लें.बेचैनी में वह उसी जगह बैठकर अपने हाथ हिलाने लगी.
            लड़के ने उसका हिलता हुआ हाथ देख लिया.लड़की शायद फिर किसी मुसीबत में पड़ गयी है.वह असमंजस में पड़ गया कि उसे क्या करना चाहिये?लड़की तक लौटे या पगडंडी तक पहुँचने का रास्ता खोजे...थोड़ी देर तक वह उसी जगह खड़ा रहा.बुत की तरह.अचानक उसे ध्यान आया कि वापस जाने का रास्ता उनके पास नहीं है.उसे पगडंडी तक पहुँचने का रास्ता खोजना होगा.
            “सुनो!”उसने लड़की की तरफ आवाज फेंकी,“वहीं रुकी रहो.हम बस पहुँच गये हैं.मैं रास्ता खोजकर वापस आ रहा हूँ.”
            लड़की तक आवाज पहुँची या नहीं;जानने का कोई जरिया उसके पास नहीं था. अब पगडंडी साफ दिखायी दे रही थी लेकिन उस तक पहुँचने का कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था.गीली मिट्टी के सहारे शायद फिसलते हुए कोई रास्ता मिल जाये.इस बार उसे छ्लांग नहीं लगानी है.बस फिसल लेना है.उसने अपना बदन पीठ के सहारे गीली मिट्टी को सौंपा और आहिस्ता से नीचे की तरफ फिसलने की कोशिश करने लगा.शुरू में उसका बदन उसी जगह स्थिर रह गया.उसके पांव मिट्टी को थामे हुए थे.उसे अभी पाँवों को आजाद करना होगा. उसने पाँवों को आसमान की तरफ उठा लिया.अब वह फिसल रहा था.शुरु में उसे अच्छा लगा.फिर उसके फिसलने की गति बढ़ने लगी.बढ़ती गति के साथ उसका डर भी बढ़ने लगा.उसने आँखें बन्द कर लीं. उसकी आँखें तभी खुलीं जब फिसलना थम गया और  पाँव किसी ठोस चीज से टकराये.
            वह एक टूटे हुए पेड़ के तने से टकराया था. वह उठ खड़ा हुआ .थोड़ा सा नीचे चलकर पगडंडी तक पहुँचा जा सकता था.यह पगडंडी उन्हें नदी तक ले जायेगी...वह थोड़ा पीछे हटा.ऊचाई की तरफ.नदी दिखायी दे रही थी.वह उस जगह के नजदीक था जहाँ नदी झील की तरह बहती है.वह वापस  मुड़ गया ऊपर चढ़ने लगा.अब नदी साफ दिखायी दे रही थी.उस जगह वह उसी झील की तरह दिखायी दे रही थी;आहिस्ता-आहिस्ता सरकती झील की तरह.उसका पानी मटमैला हो गया था.वहाँ कोई समन्दर नहीं था.
□□□
 वह हताश था.उसे अभी वापस लड़की के पास जाना है और उसे लेकर एक बार फिर से इस ढलान पर उतरना है.बाहर निकलने का रास्ता यहीं से कहीं आगे मिलेगा.वह इस बात को लेकर परेशान था कि लड़की  इस जगह उसी तरह शान्त बहती नदी को देखकर निराश हो जायेगी.वह उम्मीद कर रही होगी कि नदी एक घुमड़ते हुए समुद्र की तरह दिखायी देगी.वह कह देगा कि अब हवायें थम गयी हैं.लेकिन हवाओं का क्या भरोसा?हो सकता है वे उस वक्त फिर वैसे ही शोर करती हुई बहने लगें.नहीं.उसे कुछ और कहना होगा.नहीं.वह कुछ नहीं कहेगा.लड़की अगर खड़ी नहीं होगी तो नदी नजर की हद के बाहर रहेगी. इस जगह वह लड़की को खड़ा नहीं होने देगा.यहाँ से वे फिसलते हुए नीचे चले जायेंगे.इस बात से उसे राहत मिली.उसने ऊपर चढ़ने के लिये निगाहें उठायीं.
तभी वह दिखायी दे गयी. लड़की!
वह उसी ढलान से उतर रही थी.धीमे-धीमे.सरकते हुए.नदी उसे जरूर दिखायी दे गयी होगी.
“देखो!”लड़की की आवाज सुनायी दी.वह बीच में रुक गयी थी.
“यह तो वैसे ही बह रही”लड़का निराशा छिपा नहीं सका.
“अभी आंधी आयेगी.”लड़की उसके सामने पहुँच गयी.सूजन भरे नीले चेहरे के बीच उसकी दर्द भरी मुसकराहट लड़के को अच्छी नहीं लगी.
“मौसम साफ हो गया है”लड़के ने कहा.
“अगली बार जरुर दिखेगा!”लड़की की आवाज  पुराने रंग में लौट आयी,“तब हम दूसरे रास्ते से आयेंगे”

नवीन कुमार नैथानी
ग्राम एवं पोस्ट –भोगपुर
जिला देहरादून-248143(उत्तराखण्ड)
फोन:9411139155

कि बस जरा गौर से देखिए

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सहज, शांत से दिखने वाले शैलेंद्र जी आजकल शैलेंद्र शांत के नाम से लिखते हैं। वे एक लम्बे समय से कविता की दुनिया में अपने साथी कवियों के सहयात्री की तरह अपनी उपस्थिति को दर्ज करते रहे हैं, बिना इस बात को ध्यान में रखते हुए कि उनकी कविताओं पर हिंदी का ‘प्रबुद्ध’ संसार क्या राय रखता है।

शैलेंद्र जी की कविताओं में उनके व्यक्तित्व की दृढ़ता की स्पष्ट छाप है। विभिन्न समयअंतरालों पर लिखी गई उनकी कविताओं में सतत बहती एक ऐसी धारा है जो कविताओं में मौजूद उनकी वैचारिकता को श्रृंखला का रूप प्रदान करती है। उनकी एक कविता का शीर्षक ‘कि बस जरा गौर से देखिए’ यहां दी जा रही कविता श्रृंखला के शीर्षक पर कहीं ज्याादा सटीक नजर आ रहा है। इसीलिए अन्य कविताओं को उनके मूल शीर्षक के साथ ही इस शीर्षक के भीतर रखते हुए पढ़ने के लिए प्रस्तुत किया गया है। शैलेन्द्र जी की कविताएं इस ब्लॉग का मान बढ़ा रही है।

शैलेन्द्र जी का आभार कि उन्‍होंने अपनी कविताओं को सांझा करने का अवसर दिया।

      

शैलेंद्र शांत

शंका


तुममें नहीं रही
कि मुझमें ही
वह बात
अब कौन बताये 
तस्वीर बिला शक 
धुंधली सी नजर 
आती है 
राहगीर !
जरा ठहरो 
हमारी दूर करो 
शंका !


घातक



किससे करें
कितनी बार
और क्यों
शिकायत
अनसुनी
जब रह जानी है !
बहुत घातक होता
है यह अहसास
टूट-बिखर जाता है
विश्वास 


बताओ पलाश


कोई टूंक ले पत्तियां
चाहे ले जाये शाख
कोई आए ना आये
सुस्ताने तुम्हारे पास
तुम होते नहीं उदास
तुम होते नहीं हताश
कहां से जुटाते हो तुम
जीवन रस, जीवन गंध
कैसे काटते हो मधुमास
बताओ, बताओ पलाश

जाने क्यों


मुझे शक होता है
जाने क्यों
कभी-कभी
बहुत ज्यादा
कि इतने अच्छे
प्रवचनों
इतनी अच्छी
डिजिटल सदिच्छाओं
इतनी अच्छी
मातृ भक्ति
इतने रसों में डूबे
सुरकारों
तबलचियों
अनंत प्रतिस्पर्धा
में उतरे कलमचियों
के बावजूद
शक की गुंजाइश
बनी ही रहे क्यों
कहीं आवरण तो
नहीं चढ़ाया जा रहा
स्वरों को कोरस से
अलगाया तो नहीं जा रहा
उत्सव के शोर में
जबरन चंदे की उगाही के
जुल्म को तो नहीं छुपाया जा रहा
मुझे शक होता है, जाने क्यों !

निष्कलंक ! 


सवाल थक गये
पहाड़ चढ़ते-चढ़ते
सहरा में भटकते-भटकते
खटखटाते कपाट ईश्वरों के
अरे ! जवाब तो वहां था
उपवास पर बैठा
उसे भी जवाब चाहिये था
मालूम नहीं किससे, मगर
कितनी अच्छी विधि है यह -
निष्कलंक ! निष्पाप !

कबूतर


गिद्धों से भर गया है आकाश
हां, हां, तू है बहुत डरा हुआ
बहुत -बहुत ज्यादा है हताश
फिर भी तू गा, सुना गुटर गू
शायद तब देर -अबेर ही सही
रेंगे उनके कानों में जूँ !

मन की बात


सुन सको तो
सुन लिया करो जी
कभी - कभार
खेतों के
बागानों के
वनों के
खदानों के
छोटे - छोटे
कल - कारखानों के
हाट - दुकानों के
मन की बात !
अपनी ही सुनाते रहोगे
आखिर कब तक ?

तोता



तोता बन
तोता बन
बना रह तोता
हरि-हरि बोल
हरि-हरि बोल
तौबा-तौबा
भूले से ना कभी
खरी-खरी बोल !

बोलो



यह जो झूठ है
बोलता बहुत है
चुप्पी से तो बंद
नहीं किया जा सकता 
इसका मुंह सच बाबू !
अच्छा हो चाहे बुरा 
असर तो होता ही है 
बोलने का, बोलो 
बोलो झूठ के खिलाफ 
कि हालात हो ना जाये बेकाबू !


कब तक ?


कितना मनाएं मातम
कितनी बार जलाएं मोमबत्तियाँ
कितनी बार करें इजहार गुस्से का
लानतें भेजें किस-किस को
नहीं, यह महज दंड का नहीं
मानसिकता का मामला है ज्यादा
अरे वह वस्तु नहीं, वस्तु नहीं
नहीं है महज मांस का लोथड़ा
सोच ही समाज का है भोथरा
सो उस सोच को बदलिए
जुबान को बदलिए
हैवान में तब्दील रहे
इंसान को बदलिए
जैसे भी हो बदलिए
आखिर कब तक मनायेंगे मातम
कब तक जलाते रहेंगे मोमबत्तियाँ !

कि 


देख लूं
दर्पण
एक बार फिर
तो कुछ कहूं !


हिंदी जापानी साहित्य संवाद

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हिंदी की महत्वपूर्ण कथाकार अल्पना मिश्र की 15 दिनों की  जापान कीसाहित्यिक यात्रा, भारत और जापान के साहित्यिक-, सांस्कृतिक सम्बन्ध कीदिशा में एक बड़ा कदम है । हिंदी साहित्य के इतिहास में यह पहला अवसर था, जब कोई हिंदी का लेखक  वैश्विक स्तर पर सीधा संवाद कर रहा था।  यह दोनोंदेशों के बीच एक ऐसा बहु आयामी संवाद था जिसे न सिर्फ लंबे वक्त तक यादरखा जाएगा, बल्कि यह दुनिया के इतिहास में   दर्ज की गई परिघटना है। इसदौरान दुनिया के मशहूर लेखकों  में शुमार हिरोमी इटो के साथ अल्पना मिश्रका  विचारोत्तेजक ढाई घंटे का सीधा संवाद दोनों देशों के लिए एक उपलब्धिबना, जो सहेज कर रखने योग्य है।

इस दौरान अल्पना मिश्र के जीवन और लेखनके विभिन्न पहलुओं पर एक वृत्तचित्र भी दिखाया गया।
 
जापान के चार मुख्य शहरों में आयोजित विभिन्न साहित्यिक कार्यक्रमअल्पना मिश्र के लेखन और जीवन पर फोकस किया गया था।इस कार्यक्रम श्रृंखला की शुरुआत 22 नवंबर को इबाराकी में ओटेमोनविश्वविद्यालय के साथ वहाँ के कल्चरल सेंटर में हुई। यहां अल्पना मिश्रने लम्बा व्याख्यान दिया, जिसमें भारतीय संस्कृति और स्त्रियों की स्थितिपर टिप्पणी के साथ अपनी लेखकीय यात्रा के बारे में भी उन बातों का उल्लेखकिया जो उनके लेखक बनने में सहायक रहीं, जिसमें दुनिया के विभिन्न भाषाओंकी उन पुस्तकों का भी जिक्र आया जिसने उनके जीवन पर प्रभाव छोड़ा था।व्याख्यान के बाद उपस्थित जापान के बौद्धिकों के साथ भारत जापान के साहित्यिक सांस्कृतिक परिवेश से संबंधित खुला संवाद हुआ ।25 नवंबर की सुबह ओसाका विश्वविद्यालय, ओसाका में जापानी छात्रों के साथसंवाद का सिलसिला जारी रहा । यह एक सुखद बात थी कि जापानी छात्रों मेंभारत के सांस्कृतिक परिवेश को समझने की जिज्ञासा तीव्र नजर आई । भारतजापान के रिश्ते की मजबूती के लिए साहित्य और संस्कृति को एक सेतु बनानाचाहते हैं । यहाँ उनकी बातों का जापानी में अनुवाद प्रोफेसर ताकाहाशी नेकिया।दुनिया की सबसे तेज पूर्ण विकसित व्यस्त और इनोवेटिव शहर टोक्यो में,टोक्यो विश्वविद्यालय के प्रांगण में 28 नवंबर को अल्पना मिश्र के कथा साहित्य के बहाने भारत और हिंदी के मन मिजाज को समझने की  उत्कटता अभिभूत करने वाली थी। अल्पना मिश्र के व्याख्यान के बाद जापान के दो प्रखर आलोचकों कोजी तोको और नाकामुरा काजुए ने अल्पना मिश्र के कथा साहित्य की गहन समीक्षा की।



राजकमल से प्रकाशित उनके उपन्यास 'अस्थि फूल'की रचना प्रक्रिया और उसकेसामाजिकराजनैतिक पहलुओं पर विस्तार से बात हुई।01 दिसम्बर को जापान के खूबसूरत शहर कुमामोटो में जापान की विश्व प्रसिद्ध लेखक हिरोमी ईटो से अल्पना मिश्र का सीधा संवाद हुआ। हिरोमी इटो ने संवाद के क्रम में अल्पना मिश्र से उनकी रचनाओं और भारत में औरतों के हालात के संबंध में  तीखे  सवाल किए जिनका उन्हें माकूल जवाब भी मिला ।वह प्रसन्न और  संतुष्ट भी हुई। दोनों लेखकों ने अपनी अपनी रचनाओं के अंशों का पाठ भी किया । अल्पना मिश्र के साहित्य का जापानी में किये गए अनुवाद की बुकलेट श्रोताओं के बीच सभी शहरों में वितरित की गई। यात्रा के दौरान कई प्रमुख हस्तियों ने कथाकार अल्पना मिश्र  से संवादों - साक्षात्कारओं के मार्फत उनके लेखन और हिंदी कथा साहित्य के परिवेश को जानने समझने की कोशिश की, जिनमें जापान में हिंदी विद्वान प्रोफेसर मिजोकामी, प्रोफेसर नाम्बा, प्रोफेसर कोमात्सु, श्री याजीरो तनाका, डॉ चिहिरो कोइसो, श्री रीहो ईशाका, श्री हाईदकी इशीदा के साथ साथ अनेक जापानी मीडिया के लोग, प्रोफेसर, फॉरेन ऑफिसर्स, अर्थशास्त्री,इतिहासकार, रसियन,चीनी, जर्मन भाषा के विशेषज्ञ और बौद्धिक शामिल थे।


चंद्रभूषण तिवारी




होना से ज्यादा दिखना

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चित्र: अरविन्‍द शर्मा

होने से ज्यादा दिखने की चाह भारतीय मिजाज का ऐसा पक्ष रहा है जिसके कारण उत्सर्जित हुए सामाजिक मूल्य और नैतिकताओं का ढोल जब तक फटते हुए देखा जा सकता है। भारतीय राजनीति का विकास भी इस होने और दिखने की जुगलबंदी में ही एक ओर अंग्रेजों की गुलामी का विरोध करते हुए दिखता हुआ रहा, तो उसी के साए में आजादी की परिकल्पना भी करता रहा। यहां तक कि राजनीति का सबसे प्रगतिशील चेहरा जो भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन की पृष्‍ठभमि में आकर लेता रहा और आज तक विद्यमान है, वह भी उस से अछूता नहीं रह पाया। यही वजह है साहित्‍यक सांस्कृतिक क्षेत्र में जो हलचल सांगठनिक जैसी हुईं, उनमें उसके प्रभाव अन्‍तविरोध की टकराहट को जन्‍म देने वाले भी हो जाते रहे। यह बात काफी हद तक जग जाहिर सी है। ज्‍यादा स्‍पष्‍ट तरह से देखना चाहें तो हिंदी भाषी क्षेत्रों से बाहर उसके स्वरूप को पहचानने के लिए लेखक संगठनों की कार्यशैलियों को देखा जा सकता है। ये लेखक संगठन जहां नेतृत्‍व के स्‍तर पर हिंदी भाषी प्रभुत्व राष्ट्रीय दिखते हुए हैं, वही अन्य भाषी क्षेत्रों में एक बड़े छाते के नीचे ही एक ही भूभाग में भाषायी आधारों पर गठित इकाइयों के रूप में कार्यरत रहते हैं। एक ही नाम से दो भिन्न-भिन्न भाषाओं के संगठन आम बात हैं, जिनमें आपस में कभी कोई एकजुटता नहीं दिखायी देगी। यहां तक कि हिंदी वाले उस अमुक भाषायी क्षेत्र के रचनाकारों से अपरिचित बने रहते हैं और अमुक भाषायी स्‍थानिकता तो हिंदी की रचनात्‍मक दुनिया को दोयम ही मानती हुई हो सकती है। कोलकाता के संदर्भ में भी यह उतना ही सच है बल्कि उससे भी कहीं ज्यादा सच ही कोलकाता के साहित्यिक सांस्कृतिक समाज को अपने अपने तरह से गतिमान बनाए हुए है। शासन पर बदलते राजनीतिक प्रभाव के बावजूद उसमें यथास्थिति का बना रहना जहां एक और बांग्ला भाषी साहित्य समाज को विशिष्टताबोध के रसोगुलला-पैटेंट के भावबोध से भरे रहता है तो वही दूसरी ओर मारवाड़ी चासनी को नवजागरण के डंडे से हिलाते रहने वाले हिंदी मिजाज को प्रभावी होने का अवसर देता है। इन दोनों की ही अपनी अपनी कार्यशैली है। बांग्ला भाषी साहित्यिक सांस्कृतिक आवाज में जहां  उच्चतम कलात्मक मूल्यों को स्वीकारने का दिखावा है तो हिंदी में बौद्धिक दिखने के लिए एकेडमिक स्वरूप को धारण करती शोधार्थियों और चेले चपाटों की बड़ी भीड़ है।


यह बातें किन्‍हीं विशेष संदर्भ को ध्यान में रखकर नहीं कही जा रही है बल्कि एक निकट के मित्र द्वारा पूछे गए उस सवाल का जवाब में है जिसमें बहुत सी जिज्ञासाएं मेरे सोचने समझने की धारा की पहचान से वाबस्ता रहीं।


मुक्तिबोध की कहानियों के कथ्य वैचारिक संघर्षों की झलक ही हैं

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हिन्दी आलोचना में आलोचकीय विवेक की एक नयी तस्वीर इधर उभरती हुई दिख रही है। उसका चेहरा इस कारण भी आश्वस्तकारी है कि तथ्य, अनुसंधान के अकादमिक सलीके की बजाय पुन:निरीक्षण पर आधारित विश्ले्षण की पद्धति को प्राथमिकता के साथ बरतने की कोशिशें वहां स्पष्ट नजर आ रही हैं। स्थापित मान्यताओं तक से टकराने की यह कोशिश स्वा‍गत योग्य है। इस निगाहबानी के बाद ही यहां गीता दूबे और रश्मि रावत के आलेख पूर्व में प्रस्तुतत किये गये थे। हाल ही में ‘वाक’(30-31) में प्रकाशित डॉ भारती सिंह का आलेख जिसमें मुक्तिबोध के कहानीकार रूप की चर्चा है, उस कड़ी के हिस्से के तौर पर ही पुन: प्रस्तुत किया जा रहा है। दस्ता‍वेज, वागर्थ, साखी आदि पत्रिकाओं में प्राकशित डॉ भारती सिंह के आलेखों से पाठक पहले से परिचित हैं।



डा. भारती सिंह
शैक्षणिक योग्यता - एम. ए., बर्दवान विश्वविद्यालय (प. बं.) , पी.एच.डी.  राँची विश्वविद्यालय,
संपर्क - नेहरू नगर,  चिनिया रोड,  गढ़वा , झारखंड .822114
मोबाइल नं.- 9955660054
साहित्यिक गतिविधि- दस्तावेज़ , वागर्थ,  पाखी , लहक,  सापेक्ष, सुबह की धूप,  वाक,  साखी आदि पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित ।



डॉ भारती सिंह

हर सिम्त में इक सहरा बसर है ,  साग़र के क़फ़स में इक क़तरा नज़र है




यूँ तो साहित्य के भीतर भी  मौजूद समंदर की तरह  असीमित आवेश एवं आवेग को किसी एक विधा के प्रकोष्ठ में बाँध लेने की क्षमता नहीं होती। लेकिन फिर भी प्रत्येक विधा का साहित्य हर युग में  समय सापेक्ष होता है, और उस कालखंड के क्रियाकलापों, घटनाओं को स्वयं में समादृत कर उसे दस्तावेज़ की तरह आनेवाली पीढ़ियों का दिशानिर्देश करना एक कालजयी रचना की नैतिक ज़िम्मेदारी बन जाती है। और ये रचनाकार के व्यक्तित्व और उसकी संवेदनशीलता के आयतन का पता देती है। नि:संदेह  हिन्दी साहित्य के इतिहास में मुक्तिबोध एक युगपुरुष के रूप में चिन्हित किए जा चुके हैं एवं उनकी रचनाएँ सूक्ष्म अनुभूतियों का जीवंत चित्रण हैं। मुक्तिबोध की कहानियाँ भी उनकी कविताओं की तरह मानवतावादी सरोकार से जुड़ी दस्तावेज़ के रूप में ही स्वीकार की जानी चाहिए। लेकिन उनकी कहानियों पर बहुत कम चर्चा हुई, बहुत कम लिखा गया है। मुक्तिबोध की समग्रता को समझने और उसे परिभाषित करने के लिए ज़रूरी हो जाता है उनकी कहानियों का पुनर्पाठ। उन कहानियों पर चर्चा-परिचर्चा। कहानियों को छोड़कर सिर्फ कविताओं की बात एक तरह से मुक्तिबोध को अधूरेपन के साथ स्वीकार करना होगा, जो एक तरह से न्यायोचित नहीं है। एक ओर जहाँ 'अँधेरे मेंकविता उनकी अन्य रचनाओं का रचना-प्रक्रिया का पड़ाव है, वहीं उनकी कहानियाँ एवं अन्य रचनाएँ उस पड़ाव तक पहुँचने की एक यात्रा है। बल्कि यूँ कहा जाए कि मुक्तिबोध की जो संवेदनाएँ अपनी कहन में अधूरी रह गईं उसकी अभिव्यक्ति के लिए उन्होंने साहित्य के अलग -अलग विधाओं में गुंजाइश को तलाशा और अभिव्यक्ति के सफलतम मकाम को हासिल किया। ग़ालिब को भी अभिव्यक्ति की इस पीड़ा से रू-ब-रू होना पड़ा था "- बकद्र- ए शौक नहीं ज़र्क तंगना -ए-ग़ज़ल /कुछ और चाहिए बुसअत मेरे बयाँ के लिए । "मुक्तिबोध ने अपनी रचनात्मकता में कई अभिनव प्रयोग किया है। कहानियों में कई लेयर हैं जो बार -बार सूक्ष्म समझ एवं अनुभूतियों की माँग करती हैं। एक अनूठे शिल्प का प्रयोग करते हैं। कविताएँ अद्भुत हैं। जो बातें कविताओं में अधूरी रह गयी , वह उन्हें निबंधो में लेकर आते हैं और जो अधूरापन वहाँ रहा वह डायरी में सिमटी और जो डायरी में अभिव्यक्त न हो सकी, वह कहानियों की जानिब पाठकों तक पहुँची । और मुमकीन है यही एक खास वजह रही कि रचनाओं के शीर्षक में दुहराव भी हुआ है ।


मुक्तिबोध की ज़्यादातर कहानियाँ चरित्र-प्रधान नहीं रही हैं। उनके पात्र सामूहिक रूप से अपनी पूरी मौजूदगी के साथ कहानी की रवानगी को बनाए रखते हैं और अपने-अपने स्तर पर मुक्तिबोध के विचारों को उद्घाटित करते हैं। कारण स्पष्ट है कि उनकी कहानियाँ नायक प्रधान नहीं हुआ करती हैं, बल्कि समाज के भीतर ही रहनेवाला आम इंसान रहा है, जो जीवन मूल्यों के सैद्धान्तिकता को जीता हुआ पाठकों के समक्ष यथार्थ की सतह पर खड़ा मिलता है। हाँ, कहानियों में भी अभिव्यक्ति के लिए उन सारी सामग्रियों का सहारा लिया गया है जिनसे ‘अँधेरे में’ कविता गढ़ी गई है, जो हिन्दी साहित्य में एक क्लासिक है।


मुक्तिबोध के जीवन के केन्द्र में संघर्ष ही अधिक प्रबल रहा है। और संघर्षजनित त्रासदियाँ जीवनदृष्टि को अधिक धारदार बनाती गई । दृष्टि की यही धार सृजनात्मकता की पृष्ठभूमि को अधिक मजबूती देता गया। उनका संघर्ष पारिवारिक चौखटे को तोड़ता हुआ, सामाजिक दायरे को लाँघता हुआ देशान्तर पार विश्‍वव्यापी हो उठा। व्यक्ति और समाज के केन्द्र रहीं समस्याएँ दोनों के बीच एक टकराव की स्थिति उत्पन्न करने में अधिक सहायक रहीं। और इनसे रू-ब-रू कराना और मुक्ति का मार्ग तलाशना मुक्तिबोधीय लेखनी का कर्मसूत्र बन गया। उनकी कहानियों की पृष्ठभूमि में जिन सामाजिक चेतना एवं मूल्यों की बात उठाई गई है उसके लिए चार कहानियों में उन संदर्भों को उल्लेखित करने की यहाँ कोशिश की गई है। ये कहानियाँ हैं- समझौता’, ‘ज़िन्दगी की कतरन’, ‘क्लॉड ईथरलीऔर एक दाखिल दफ्तर साँझ। ये कहानियाँ खास समझ और सूझबूझ के साथ लिखी गयी हैं ।यहाँ मौजूद बेचैनियाँ कोरी आत्माभिव्यक्ति या फिर आत्मसंघर्ष की नहीं हैं , बल्कि इनमें इन दोनों के साथ -साथ जनमानस के भीतर भी ये गहरी पीड़ा बनकर संप्रेषित हों , मुक्तिबोध की सृजन की यही प्रतिबद्धता रही है । मुक्तिबोध की  कहानियाँ अपने आकार में छोटी भले ही हों , किन्तु सुगठित एवं विशिष्ठ शैली में गढ़ी गयी ये कहानियाँ प्रभावशाली तथा दूरदृष्टि सम्पन्न नज़र आती हैं ।जो बात बिहारीलाल के दोहो के लिए कही गयी है , वह मुक्तिबोध की कहानियों पर भी सटीक लगती है -"देखन में छोटन लगै घाव करै गंभीर"।                      

मुक्तिबोध की ज़्यादातर कहानियाँ चरित्र-प्रधान नहीं रही हैं। उनके पात्र सामूहिक रूप से अपनी पूरी मौजूदगी के साथ कहानी की रवानगी को बनाए रखते हैं और अपने-अपने स्तर पर मुक्तिबोध के विचारों को उद्घाटित करते हैं। कारण स्पष्ट है कि उनकी कहानियाँ नायक प्रधान नहीं हुआ करती हैं, बल्कि समाज के भीतर ही रहनेवाला आम इंसान रहा है, जो जीवन मूल्यों के सैद्धान्तिकता को जीता हुआ पाठकों के समक्ष यथार्थ की सतह पर खड़ा मिलता है। हाँ, कहानियों में भी अभिव्यक्ति के लिए उन सारी सामग्रियों का सहारा लिया गया है जिनसे अँधेरे मेंकविता गढ़ी गई है, जो हिन्दी साहित्य में एक क्लासिक है। वही तनाव, वही बेचैनी, वही आक्रोश, वही तल्ख़ी, वही विद्रोह, वही व्याकुलता- कुल मिलाकर एक बग़ावती तेवर और अभिव्यक्ति की बेचैनी- मेरे पास एक पिस्तौल है, और मान लीजिए मैं उस व्यक्ति का, जो मेरा अफसर है, मित्र है, बंधु है- अब खून कर डालता हूँ। लेकिन पिस्तौल अच्छी है, गोली भी अच्छी है; पर काम - काम बुरा है।’ (समझौता)

कहानी में पात्र एक ऐसी भाव-भूमि पर खड़ा है जहाँ ऐसे आपराधिक विचारधाराएँ पनपती हैं। हालाँकि उसका विवेकशील मन यह स्वीकारता है कि यह ठीक नहीं है। कई जगहों पर कहानी में फैंटेसी के सहारे कथानक को गति देने के साथ उसे प्रभावशाली बनाया गया है। वह फैंटेसी किशोरवय की भावुकता में गढ़ी गई फैंटेसी नहीं है, बल्कि आत्म-संघर्ष और जीवन-मूल्यों की चरम परिणति के लिए गढ़ी गई फैंटेसी है। ताकि अभिव्यक्ति को पूरी जटीलता एवं परिवेश के स्याहपन के साथ प्रस्तुत किया जा सके। मुक्तिबोध का समूचा साहित्य ही फिक्शन और फैंटेसी के सहारे अभिव्यक्ति के चरम तक पहुँच सका है। क्योंकि जीवन में अगर कल्पनाएँ न हों तो उसकी गतिशीलता अवरुद्ध हो जाएगी। इस बात की पुष्टि मुक्तिबोध की अति प्रसिद्ध उक्ति से की जा सकती है- फैंटेसी अनुभूति की कन्या है और अनुभूति का जन्म कहाँ से होता है, जब इस सवाल पर आते हैं तब उत्तर आता है कि जीवन-यथार्थ से। कल्पना का काम इस जीवन-यथार्थ को अधिक मूर्तता और रंगीनी प्रदान करना है। यही कल्पना की भरोसेमंदी है।इसीलिए इस कल्पना का सहारा लेते हुए कहानी को गति देते हुए  कल्पना की भरोसेमंदी को यहाँ साबित किया है - सबसे अच्छा है कि एकाएक आसमान से हवाईजहाज मँडराए, बमबारी हो, और यह कमरा ढह पड़े, जिससे मैं और वह दोनों खत्म हो जाएँ। अलबत्ता, भूकंप भी यह काम कर सकता है।’ (समझौता)  मध्यमवर्गीय और निम्नवर्गीय सोच ही उन्हें कई समस्याओं से जकड़े रहता है। और ये स्थितियाँ कहीं न कहीं अमानवीयता की हद तक पहुँच जाती हैं। समस्याओं से घिरा व्यक्ति मुक्ति का कोई मार्ग न पा कर वह मुक्ति का  मार्ग आत्महत्या में ही तलाशता है। बेचैनियों की बीहड़ता में फँसा आदमी बार-बार गिरता है, उठता है, हाथों से उम्मीद की रौशनी को थामना चाहता है। लेकिन अंततः ऐसा नहीं होता। उसे अपनी आत्मा का ही कायान्तरण करने को बाध्य होना पड़ता है, क्योंकि समाज में उसे सर्वाइव करना है। -"किन्तु भावनात्मक रूप से अपनी निस्सहायता को पुनः अनुभव कर वह कहने लगा, 'नौकरी में , वर्मा साहबकोई किसी का न दोस्त है, न दुश्मन । जब किसी पर आ बनती है तब कौन अपनी गरदन फँसाकर दूसरों की मदद करता है।" ( एक दाखिल दफ़्तर साँझ )। 

कहानी में कथाकार मुक्तिबोध ने पात्रों के जरिए एक ऐसा मनोविश्‍लेषणात्मक परिवेश रचा है जिसमें साफ़  इशारा किया है कि सैद्धान्तिक लड़ाइयों में व्यक्ति सामाजिक स्तर पर ही नहीं लड़ता है, बल्कि वह अपने भीतर भी मानसिक स्तर पर एक लड़ाई लड़ता है। और वहाँ अपने मानवीय गुणों को कटघरे में खड़ा कर उससे जिरह करता है। उचित-अनुचित का, नैतिक-अनैतिक का। -कौन नहीं जानता कि क्लॉड ईथरली अणु-युद्ध का विरोध करनेवाली आत्मा की आवाज़ का दूसरा नाम है। हाँ! ईथरली मानसिक रोगी नहीं है। आध्यात्मिक अशांति का आध्यात्मिक उद्विग्नता का ज्वलंत प्रतीक है। क्या इससे तुम इनकार करते हो।’ (क्लॉड ईथरली)

छठे दशक में लिखी गई मुक्तिबोध की कहानी क्लाड ईथरलीतत्कालीन सामाजिक एवं आर्थिक बदलाव के परिदृश्य को छूती हुई लिखी गई है। विश्‍व फलक पर उपनिवेशवाद की पकड़ मजबूत हो रही थी। देश लम्बे समय तक गुलामी के दंश को झेल कर आज़ाद हो चुका था। विश्‍व पटल पर आर्थिक-सामाजिक एवं राजनीतिक मूल्यों की पुनर्स्थापना का दबाव झेलता हुआ देश संघर्ष के एक और गलियारे से गुजर रहा था। अमेरिका सरीखे शक्तिशाली देश पूर्वोत्तर विकास के साथ विश्‍व में अपनी प्रभुता के प्रदर्शन में तल्लीन हो चुका था। जिसका खामियाजा जापान को भी भुगतना पड़ा था। शायद इसीलिए वाल्टर बेंजामिन ने लिखा है- विकास का हर नया सोपान बर्बरता के नए रूपों को जन्म देता है।

युद्ध के पीछे कई परिस्थितियाँ वाहक होती हैं अपनी सत्ता को स्थापित करने के लिए। कभी शक्ति प्रदर्शन तो कभी खुद का बचाव भी युद्ध की ओर ढकेलता है। क्लॉड ईथरली में प्रभुता, शक्ति की सम्पन्नता पूरी दुनिया में खुद को स्थापित करने का दंभ जहाँ दिखता है वहीं उसके बाद पश्‍चाताप का घोर विषाद भी नज़र आया है, जो इस बात की ओर इशारा करता है कि विनाश किसी भी सूरत में मानसिक सुख या संतोष का वायस नहीं हो सकता। भले ही यह पछतावा प्रभुता की दावेदारी करनेवाली अमरीकी शासन का नहीं हो पर इस काम में यूज़किया गया एक साधारण नागरिक का है, जिसे वार हीरोअमेरिका घोषित करता है। वह वार हीरोहो गया, लेकिन उसकी आत्मा कहती थी कि उसने पाप किया है, जघन्य पाप किया है। ...उसने नौकरी छोड़ दी। मामूली से मामूली काम किया। लेकिन, फिर भी वह वार हीरोथा, महान था। क्लॉड ईथरली महानता नहीं, दंड चाहता था, दंड।

मानवीय मूल्यों का हनन कर निज अहं की तुष्टि की खातिर विनाश का कोई भी मार्ग किसी भी इंसान को संतोष के शिखर तक नहीं ले जा सकता। इतिहास गवाह रहा है कि सम्राट अशोक जैसा महान शासक भी विश्‍वविजेता के शीर्ष तक पहुँचकर अंततः पश्‍चाताप एवं आत्मग्लानि से भर उठा था। अपराधबोध उसकी आत्मा पर एक शिलापट की तरह जम गया था। युद्ध भूमि के दृश्य ने अशोक के मस्तिष्क पर हावी सत्ता का चतुर्दिक कामना को ध्वस्त कर हृदय में कोमल स्वच्छ करुणाश्रोत को खोल दिया और वह विश्‍व में शांति का अग्रदूत बन बैठा। अतिशयता किसी भी वस्तु का या भाव का अहितकर ही साबित हुआ है। चाहे पद का, पूँजी का, शक्ति का या फिर विशिष्टता का। क्लॉड ईथरली में ऐसी ही अतिशयता का परिणाम और परिमाण देखने को मिलता है। पूँजीवादी स्वायत्तता का चरम और चरम तक पहुँचकर दुनिया को तल में पाना और अपनी विशिष्टता के अट्टाहास में बाकियों की चीखों में सुकून को तलाशना, कुंठित व्यक्तित्व एवं संकीर्ण सोच को ही अभिव्यक्त करता है। परन्तु वार हीरोआत्मग्लानि से भर उठता है। संवेदनाएँ उसके अन्दर जीवित हैं, क्योंकि वह एक आम नागरिक है। वह कहता गया, ‘इस आध्यात्मिक अशांति, इस आध्यात्मिक उद्विग्नता को समझनेवाले लोग कितने हैं! उन्हें विचित्र-विलक्षण विक्षिप्त कहकर पागलखाने में डालने की इच्छा रखने वाले लोग न जाने कितने हैं! इसलिए पुराने जमाने में हमारे बहुतेरी विद्रोही सन्तों को भी पागल कहा गया। आज भी बहुतों को पागल कहा जाता है। अगर वह बहुत तुच्छ हुए तो सिर्फ उनकी उपेक्षा की जाती है। जिससे कि उनकी बात प्रकट न हो और फैल न जाए।मुक्तिबोध की संवेदना को मुक्तिबोधीय संवेदना कहा गया है, क्योंकि कटुता एवं कठोरता के पर्याय में उन्होंने मानवीय संवेदना को संभावित किया है। ये संवेदना ही मनुष्यता एवं पाश्‍विकता के अंतर को परिभाषित करता है। मुक्तिबोध अपनी कहन, अभिव्यक्ति एवं विषय में समय सापेक्ष तो रहे किन्तु फिर भी अपने समकालीन रचनाकारों की तुलना में उनकी दूरदर्शिता उन्हें समय से आगे ले गई है। समय की नब्ज को सीधा पकड़ते हैं। साथ ही आनेवाले दिनों में उसकी भयावहता से भी आगाह करते हैं। इसलिए उनकी कहानियाँ अपने समकालीन रचनाकारों में  उन्हें एक अलग मुकाम पर ले जाती हैं। परम्परागत ढाँचे को नकारती ये कहानियाँ नितांत एक नयी शैली में सजी-बँधी , सामाजिक पृष्ठभूमि में अपनी नैतिक जिम्मेदारियों की गठरी लिए पूरी कर्मठता के साथ अपने समय में प्रवेश करतीं हैं ।एक पूरी साहित्यक जिम्मेदारी के साथ समय से मुठभेड़ करने के लिए ।

मुक्तिबोध की कहानियाँ देश और समाज में फैलती, बल्कि तेजी से जड़ें जमाती जा रही असमानता का, विद्रूपता का जो परिदृश्य खड़ा करती हैं, वह मात्र सोचने विचारने का विषयभर नहीं रह गयी हैं, बल्कि गहन चिन्तन के साथ उन्हें विच्छिन्न करने की सिफ़ारिश करती नज़र आती हैं। कहानियों के रेशे-रेशे को खंगाला जाए तो उनकी ज़िन्दगी की विसंगतियाँ वहाँ पूरे विद्रूपता एवं विदीर्णता के साथ मौजूद मिलती हैं। और सृजनात्मकता में उसकी अभिव्यक्ति मुक्तिबोध की अपनी जवाबदेही रही है। शब्दों, परिवेशों का बार-बार दुहराव मुक्तिबोध का ज़िन्दगी से घुमा फिर कर टकराना ही दिखाता है, क्योंकि कठिनाइयाँ चाहे पारिवारिक रहीं या आर्थिक या फिर अभिव्यक्ति की, बार-बार उनके समक्ष  चुनौती बनकर आन खड़ी हुईं। -"आख़िरकार उसने जोकर बनने का बीड़ा उठाया। भूख ने उसे काफी निर्लज्ज भी बना दिया था।" (समझौता) 

परत-दर-परत कहानियों में ज़िन्दगी की दारुण मर्म ने अभिव्यक्ति पाई है और इन कहानियों को पढ़ते समय कहीं पर भी चेतना शिथिल नहीं होती, बल्कि पाठक एक तरह से दिमागी तनाव और बेचैनी से गुजरता है, जो इन कहानियों के कहन की बड़ी सफलता एवं सार्थकता है। इन्हें एक बार पढ़ लेने के बाद अवचेतन के हाशिए पर नहीं फेंका जा सकता।  कहानियों का आद्योपान्त पठन बेहद सजगता और बौद्धिक समझ की माँग करता है ।  ज़िन्दगी में आती मुश्किलों के दरम्यान ये कहानियाँ अपनी पूरी रचनात्मक-संवेदना के साथ पाठकों के स्मरण में बनी रहती हैं। 'ज़िन्दगी की कतरन'में  बढ़ती पूँजीवादी व्यवस्था, तथाकथित कथित आधुनिकता की लुभावनी दलदल में धीरे-धीरे अपने अस्तित्व को खोती कई ज़िन्दगियाँ अन्जाने ही मौत को दावत दे जाती हैं। कारण स्पष्ट है, अकेलापन, भूख की मारबढ़ती मंहगाईबाज़ारवाद और इनसे उबरने के लिए रात-दिन मशीन की तरह मेहनत में जुटे रहना -"इस तालाब में जान देने वे आएँ हैं जिन्हें एक श्रेणी में रखा जा सकता है। ज़िन्दगी से उकताए और घबराए पर ग्लानि के लम्बे काल में उस व्यक्ति ने न मालूम क्या-क्या सोचा होगा!" (ज़िन्दगी की कतरन)। मुक्तिबोध की कहानियों में ज़िन्दगी का स्याह रंग अधिक गाढ़ेपन के साथ उभरा है। कारण है, कहानियाँ रूमानीयत के फ्रेम में फिट कर नहीं लिखी गयीं, ये कहानीकार के गहन चिन्तन और उससे उपजी बेचैनी से बाहर निकलकर आई हैं।


शहर के बीच में वह तालाब और उसके किनारे बैठकर किसी रूमानीयत के भँवर में बह जाने का खयाल नहीं आता, बल्कि उसके स्याह जल को देख और उसके विवादास्पद कहानी को याद कर आत्महत्या का विचार तो ज़रूर उभरता है-"तालाब के इस श्याम दृश्य का विस्तार इतनी अजीब-सी भावना भर देता है कि उसके किनारे बैठकर मुझे उदासमलिन भाव ही व्यक्त करने की इच्छा होती आई है ।" (ज़िन्दगी की कतरन)

मुक्तिबोध का चिन्तन भी एक प्रकार से द्वंद्व का चिन्तन है। और यह द्वंद्व मानसिक यंत्रणा का परिणाम था । उनके अंतस की बेचैनियाँ मुक्ति का आसरा  टटोलती फिरती रहीं, परन्तु कई जगह पूरी तरह मुक्त होने की कोशिश में भी नहीं जुटीँ- "हमारे अपने-अपने मन-मस्तिष्क में ऐसा ही एक पागलखाना है जहाँ हम उन उच्च पवित्र और विद्रोही विचारों और भावों को फेंक देते हैं, जिससे कि धीरे-धीरे या तो वह खुद बदलकर समझौतावादी पोशाक पहनकर सभ्य, भद्र हो जाए यानी दुरुस्त हो जाए या उसी पागलखाने में पड़ा रहे!" (क्लाड ईथरली)


अंतस के द्वन्द्व को बेहद कलात्मक एवं सहानुभूतिपूर्वक दिखाते हैं, जो आरोपित नहीं बल्कि कहानियों के सौन्दर्यतत्व के रूप में उभरी हैं और यह सौन्दर्यतत्व उनके पात्रों के नैसर्गिक रूप में ही है। लादी गयी आधुनिकता को वह खतरे के रूप में देखते थे, जो मौलिकता को नष्ट करते हैं।उनकी तलस्पर्शिनी दृष्टि आगामी भयावहता से आक्रान्त थी । मानवतावादी मूल्यों के लिए इसे जबरदस्त ख़तरा मानते थे- "भारत के हर बड़े नगर में एक- एक अमेरिका है! विकास के नाम पर अपनी-अपनी सभ्यता एवं संस्कृति को दरकिनार कर खोखली जमीन पर जड़ जमाने की महत् एक अहमकाना ज़िद ही तो है जो सतत् मानवीय मूल्यों को एक-एक कर खोता जा रहा है।" (क्लाड ईथरली)

अपने मूल जड़ से कटता आदमी परिस्थितियों का गुलाम बनता जाता है। और उसका विद्रोही तेवर निस्तेज होने लगता है। "मैं उस शब्द से नहीं डरता, क्योंकि एक समय था जब उस शब्द को मैं अपना विशेषण मानता था।" (एक दाखिल दफ़्तर साँझ) कहानियों के इन संवादों में मुक्तिबोध खुद को ही ध्वनित करते हैं। "मैं किसी शब्द से नहीं डरता। लेकिन अब मैं सरकारी नौकर हूँ। पेट की ग़ुलामी कर रहा हूँ, आत्मा को बेचकर।" (एक दाखिल दफ़्तर साँझ)

आत्महत्या के खयाल के जटिल द्वन्द्व से आदमी बाहर आकर समझौतावादी रुख अख्तियार करता है- "अच्छा, मैं अपने-आपको करैक्ट कर लेता हूँ, अवसर प्राप्त क्रांतिकारी। वर्मा क्रुरतापूर्वक ज़ोर से हँस पड़ा।" (एक दाखिल दफ़्तर साँझ) हालाँकि इन संवादों में दोनों शोषित हैं। दोनों के शोषण के पीछे अफ़सरशाही नीतियाँ ही हैं। और अगला व्यक्ति के पास सब कुछ जानते-समझते हुए भी कोई विकल्प शेष न रह जाए तो वह 'समझौता'करना ही मुनासीब समझता है- "उसने मौखिक व्यायाम-सा करते हुए कहा, "मैं हर शर्त मानने के लिए तैयार हूँ। झाड़ू दूँगा। पानी भरूँगा। जो कहेंगे सो करूँगा।""ज़िन्दगी का एक ढर्रा तो शुरू हो जाएगा'के लिए वह अपने सिद्धांतों, अपने आदर्शों और यहाँ तक कि अपने ज़मीर तक को गिरवी रख देता है और कुछ शब्दों, कुछ वाक्यों के जरिए उसे दार्शनिक भाव से सान्त्वना की कीमत चुका दी जाती है। ऐसा करना आम भाषा में तथाकथित व्यावहारिक समझ कही जाती है। "भाईसमझौता करके चलना पड़ता है ज़िन्दगी में, कभी-कभी जान-बूझकर अपने सिर बुराई भी मोल लेनी पड़ती है। लेकिन उससे फ़ायदा भी होता है। सिर सलामत तो टोपी हज़ार।" (समझौता)

दोनों ही पात्र मुक्तिबोध के विचारों और उससे उपजे द्वन्द्व को ही संप्रेषित करते हैं, भले ही इसके पीछे परिस्थितियाँ वाहक रहीं हों। किन्तु दोनों के हालात एक-से हैं- "अबे डरता क्या है, मैं भी तेरे ही सरीखा हूँ, मुझे भी पशु बनाया गया है, सिर्फ़ मैं शेर की खाल पहने हुए हूँ, तू रीछ की!" (समझौता)। दोनों अपने हालात से वाक़िफ हैं। दोनों हिंसक बनने की क़वायद करते हैं, धोखा देने को विवश होते हैं, ताकि वह जिंदा रह सके। जिंदा रहने की इस क़वायद में उन्हें क़दम-क़दम पर मरना पड़ता है- "यह तो सोचो कि वह कौन मैनेजर है जो हमें तुम्हें सबको रीछ-शेर-भालू-चीता-हाथी बनाए हुए है!" (समझौता)। कहानी में जो शोषक है उसे भी एक लोककथा याद आती है और जो शोषित है उसे भी। क्योंकि वह दोनों किसी तीसरे द्वारा शोषित हैं। किस प्रकार समाज में एक वर्ग शोषक की भूमिका निभाता है। ऐसा करना कभी-कभी परिस्थितिवश भी होता है और प्रायः रूग्ण मानसिकता भी वज़ह बनती है। इसके बीच पिसता व्यक्ति आक्रोश से भर जाता है और सोचने को बाध्य होता है कि आदमी या तो हर जगह है। मैंने ही इंसानियत का अकेले ठेका तो नहीं ले रखा है। और उसे ज़िन्दगी 'बड़ा लम्बा, बड़ा भारी संघर्ष है'लगती है। 'समझौता', 'ज़िन्दगी की कतरन' , 'क्लाड ईथरली' , 'एक दाखिल दफ़्तर साँझ'इन सभी कहानियों के पात्र मध्यमवर्गीय और निम्न मध्यवर्गीय समाज के अभिशप्त वर्ग हैं और इनमें से अधिकांश पात्र अलग-अलग चरित्रों का वहन करते हुए मुक्तिबोध का ही प्रतिनिधित्व करते हैं- ''पता नहीं क्यों मैं बहुत ईमानदारी की ज़िन्दगी जीता हूँ, झूठ नहीं बोला करता, पर-स्त्री को नहीं देखता, रिश्वत नहीं लेता, भ्रष्टाचारी नहीं हूँ; दंगा या फरेब नहीं करता; अलबत्ता कर्ज़ मुझ पर ज़रूर है जो मैं चुका नहीं पाता। फिर भी कमाई की रकम कर्ज़ में जाती है। इस पर भी मैं यह सोचता हूँ कि बुनियादी तौर से बेईमान हूँ। इसीलिए, मैंने अपने को पुलिस की जबान में उठाईगिरा कहा। मैं लेखक हूँ।'' (क्लॉड ईथरली)

कई कहानियों में मुक्तिबोध ने अपने अस्तित्व के दबे-कुचले रूप को दिखाया है, जो आदर्शवाद का बोझ कंधे पर उठाए फिरता है और उसकी मेरुदंड उस बोझ से झुकने लगी है। वह हँस पड़ा! बोला, ''यह एक लोककथा है। इसके कई रूप प्रचलित हैं। कुछ लोग कहते हैं कि वह रीछ  बी. ए. नहीं था हिन्दी में एम. ए. था।'' (समझौता) 

इसमें छिपे गहरे व्यंग्य एवं दंश को महसूस किया जा सकता है। दो पात्रों के भीतर आपसी संवादों में कहीं न कहीं पाठक भी तीसरे पात्र की तरह कहानी मे दाखिल रहता है और उन चरित्रों से तर्क वितर्क करता उन कहानियों का हिस्सा बना रहता है और उसकी ये उपस्थिति लंबे अंतराल तक बनी रहती है , जब तक ये कहानियाँ अंतस में जड़े जमाए रहती हैं ।बल्कि जब -जब इन कहानियों पर जिरह होती है , पाठक भी संवाद की स्थिति में बना रहता है।आधुनिक हिन्दी कहानियों की परम्परा में अपनी मजबूत पकड़ बनाती मुक्तिबोध की ये कहानियाँ मनोविज्ञान का व्यापक प्रभाव से गुथी हुई मिलती हैं  ।अपनी उम्र के बहुत कम समय को मुक्तिबोध ने अपने जीवन में कठोर यथार्थ और झंझावातों को सहा और ये झंझावातें क्रांतिकारी चेतना के रूप में उनमें गहरे पैठती गईं, रचना-कर्म को और प्रखरता देती गईं। श्रीकांत वर्मा ने उनकी कहानी 'सतह से उठता आदमी'के एक पात्र की व्याख्या करते हुए लिखा है- ''वे भारतीय इतिहास के सर्वनाश के जीवित प्रतीक हैं; जिन्हें परिभाषित करने की अनिवार्यता ने मुक्तिबोध को इन कहानियों की रचना के लिए विवश किया।''

महान दार्शनिक अरस्तू ने लिखा है कि 'साहित्य में व्यक्तियों के नामों और घटनाओं के अलावा सब कुछ सच ही हुआ करता है।''लेकिन यहाँ मुक्तिबोध के मामले में व्यक्तियों के नाम बदले हो सकते हैं किंतु घटनाएँ अधिकांश उनके 'भोगे हुए यथार्थ'की ही बानगी है। श्रीकांत वर्मा को मुक्तिबोध की कहानियाँ सार्त्र के नाटक 'नो एक्ज़िट'की याद दिलाती हैं। वास्तव में देखा जाए तो इन कहानियों का सरफेस खुरदरा है। इसका खुरदुरापन रूमानीयत का ख्वाब नहीं बुनने देती, बल्कि पल भर के आलसपन में आई झपकी से भी चोंकन्ना कर देती हैं। परिवेश का चित्रण एवं उनमें तत्त्वों का चरित्रांकन कहानी को घनत्व देता है- ''रात में बुरे बासते पानी के विस्तार की गहराई सियाह हो उठती है, और, ऊपरी सतह पर बिजली की पीली रोशनी के बल्बों का रेखाबद्ध निष्कम्प, प्रतिबिम्ब वर्तमान मानवी सभ्यता को सूखेपन और वीरानी का ही इज़हार करते से प्रतीत होते हैं।'' (ज़िन्दगी की कतरन) ''लेकिन प्रकाश नाराज़-नाराज़-सा, उकताया-उकताया-सा फैला'', ''अफ़सर के चेहरे पर गहरा कड़वा ख़याल जग गया था'' -जैसी पंक्तियाँ मुक्तिबोध के विचारों का प्रतिनिधित्व करने  लगती हैं। मुक्तिबोध ने कहानी में लिखा है- ''मध्यवर्गीय समाज की साँवली गहराइयों की रूँधी हवा की गन्ध से मैं इस तरह वाकिफ़ हूँ जैसे मल्लाह समुन्दर की नमकीन दवा से।''  इन कहानियों के गढ़न के लिए जिस परिवेश को उठाया है एवं परिवेशजनित जिन-जिन समसामयिक घटनाओं को कहानी में दर्शाया है उनके यथार्थपरक चित्रण के लिए शब्दों का चुनाव बेहद संजीदगी और वैचारिक संघर्षों के बाद किया है । कालान्तर मे जब-जब इन  कहानियों पर चर्चा की जाएगी इनमें परत-दर-परत नये सूत्रों एवं तथ्यों को उजागर होने की निश्चित संभावनाएँ हैं । 

जार्ज लुकाज ने टॉमस मान के उपन्यासों के लिए- 'आलोचनात्मक बुर्जुआ यथार्थवाद'शब्द के विशेषण से नवाजा था, श्रीकांत वर्मा को यही विशेषण बिलकुल सटीक लगता है मुक्तिबोध के लिए। वहीं दूधनाथ सिंह ने कहा है- ''मुक्तिबोध की बेहतरीन कहानियों में तो चिलचिलाती दुपहरिया है, बंजर-वीरान में बिजली के खम्भे में टिकाई एक सीढ़ी है, जेल की  लगातार चलती जाती दीवार है, एक ठूँठ पेड़ है जिसमें हरे-हरे नये कंछे निकल रहे हैं।''मुक्तिबोध की उम्दा कहानियों के ये 'हरे-हरे नये कंछे'एक उम्मीद की तरह ही हैं। जिन्हें अभी पल्लवितपुष्पित होना बाकी है, क्योंकि अंधेरा अभी कम नहीं हुआ है , स्थितियाँ अभी भयावह ही हैं, परिवेश अभी भी साँवला और स्याह ही है । बावड़ी के भीतर अब भी सभ्यता का विकास एवं मानवीय मूल्यों का अस्थि-पंजर पड़ा हुआ है । उनकी  समस्या किसी वर्ग या श्रेणी की समस्या नहीं है बल्कि समूची मानवजाति की है ।मनुष्य -विरोधी परिवेश ही चारों ओर बनता जा रहा है ।निरंतर बढ़ती जा रही संवेदनहीनता मौजूदा दौर की मूल समस्या बन गयी है ।अतः मुक्तिबोध का  विरोध किसी खास विचारधारा या व्यक्ति विशेष का  नहीं है वरन् सिस्टम का विरोध है । उनका साहित्य व्यवस्था के खिलाफ जन आन्दोलन की पूरजोर सिफारिश करता हुआ  चेतना को झकझोरता है । 

मार्क्सवाद का पूँजीवादी-विरोधी सूत्रउपभोक्ता वादी संस्कृति, व्यक्तित्व का द्वन्द्व एवं मानवीय मूल्यों का बचाव मुक्तिबोध के विचारों का, उनके चिन्तन का मुख्य हिस्सा बनती हैं। आज भले ही मुक्तिबोध की रचनाओं का वितान जितना भी व्यापक हो, किन्तु अपने समय में मुक्तिबोध को जीवन और रचना की अभिव्यक्ति में  भी जोखिम उठाना पड़ा था । निर्वासन की पीड़ा को सहना पड़ा था। बावजूद इसके, न तो उन्होंने अपनी जीवन दृष्टि बदली और न ही रचनात्मक कथ्य को। कई बार मुक्तिबोध का लेखन अन्योक्ति और अमूर्तता की हद को भी पार करते दिखाई देता है। फिर भी सृजनात्मकता के उस विषय को नकारते हुए आगे नहीं बढ़ा जा सकता, बल्कि पाठक सोचने पर मजबूर होता है और भविष्य को अंधकार की ओर क्रमशः बढ़ते हुए देख विचलित होता है। "किन्तु कल रात का उसका सपना, दु:स्वप्न  के भीतर का एक भीषण दुःस्वप्न रहा है।" (समझौता)

सामाजिक बंदिशें टूटती हैं तो टूट जाएँ, लेकिन व्यक्ति के मुक्ति के मार्ग को अवरुद्ध कर,  उसे कुंठित कर तथाकथित रूढ़िवादी परम्पराओं का निर्वहन होता रहे, मुक्तिबोध इसकी मुखालफत करते नज़र आते हैं। व्यक्ति की अस्मिता, उसके अस्तित्व की रक्षा मुक्तिबोधीय-संवेदना की अनिवार्य शर्त है। उन्हें कुचलकर,  दबा कर उनकी स्वतंत्रता एवं स्वायत्तता का हनन कर किसी भी स्वस्थ समाज का निर्माण मुमकीन नहीं है। मुक्तिबोध समय और समाज में हो रहे परिवर्तनों को पूरी संवेदना एवं बेचैनियों के साथ परख रहे थे, उसे अनुभव कर रहे थे। उनकी 'बौद्धिकता'किसी 'एकेडेमिक कैम्पस'का ही हिस्सा नहीं रही थी, बल्कि जन-साधारण के बीज अधिक क्रियाशील रही। उनकी कार्यशाला समूचा विश्व रहा है। उनकी दृष्टि चेतना-सम्पन्न रही। क्योंकि अपने समय के तनावों और जटिलताओं से बखूबी वाकिफ़ रहे। इसलिए अपने समाज के प्रति नैतिक जिम्मेदारियों से सदैव सतर्क रहे। इन सबके लिए जीवटता, साहस और आत्मविश्वास मुक्तिबोध जीवन के यथार्थ से ग्रहण करते हैं।

मुक्तिबोध पर मार्क्सवादी विचारों का एक निश्चित प्रभाव रहा, किन्तु जीवन-दृष्टि मानवीय-मूल्यों से अधिक सम्पन्न रही। रचनात्मकता में भी द्वन्द्व रहा, और यह द्वन्द्व कहानियों के पात्रों में भी दिखा है। पक्ष-प्रतिपक्ष दोनों में सिद्धान्तवादी विचारों का ही विनिमय होता दिखा है। एक तरह से वैचारिकता का द्वन्द्व भी उनके पात्रों की अभिव्यक्ति से समझा जा सकता है। इसलिए कहानियों की बुनावट जटिलता एवं दुरुहता के साथ संपन्न हुई है।वैसे देखा जाय तो उनकी अलग -अलग कहानियों में मुक्तिबोध का वैचारिक संघर्षों की झलक है और एक एक कहानियों की पृष्ठभूमि में मुक्तिबोध की बेचैनी , ईमानदारी , सच्चाईअधीरता , अकुलाहट सभी कुछ पाठकों के समझ और दुनिया के सामने सकुचाई हुई सी ही  आई हैं । फिर भी इन सभी कहानियों की एक ख़ासीयत रही है कि ये सारी कहानियाँ अलग -अलग पृष्ठभूमि को छूती हुई  भी एक दूसरे में विलय होती महसूस होती हैं । ये कहानियाँ जिन्दगी के विभिन्न रंगों एवं आयोजनों की तरह एक दूसरे से गहरा सरोकार रखी हुईं हैं । एक कहानी एक परिदृश्य को चित्राकित करती हुई जिस छोर पर खत्म होती है , वहीं से दूसरी कहानी बुनियाद रखी जा चुकी होती है । इसीलिए मुक्तिबोध की सभी कहानियाँ एक दूसरे की सीमांत को छूती हुई एक दूसरे से पूरी तरह संपृक्त हैं ।एक दूसरे की पूरक हैं ।हिन्दी कथा-साहित्य में मुक्तिबोध की ये कहानियाँ अपने आप में एक उपलब्धि हैं ।उनका सर्जनात्मक कौशल कहा जा सकता है कि सामान्य परिवेशसाधारण पात्र और समसामयिक घटनाओं के सहारे विशिष्ट एवं व्यापक कहानी का सृजन कर लेते हैं । संभवतः इसीलिए शमशेर बहादुर सिंह के अनुसार मुक्तिबोध की कहानियाँ सहज ही हर स्थिति के अतिसामान्य में असामान्य और अद्भुत का भरम पैदा कर देती हैं। इसे हम तटस्थ-सी काव्यकर्मी कल्पना-शक्ति का कमाल कह सकते हैं। ये कहानियाँ जीवन के ठहरे नैतिक मूल्यों पर सोचने के लिए पाठक को विवश करतीं हैं। 
माना जाता है कि आर्थिक दबाव में आकर कहानियाँ लिखी ।किन्तु उनकी कहानियाँ आर्थिक संकट एवं संघर्ष से मुक्ति पाने के लिए धनोपार्जन निमित्त नहीं लिखी गयी , बल्कि रूढ़िवादी नैतिकता को विखंडित करती , मानवीय मूल्यों की पुनर्स्थापना की पैरोकार बनकर बौद्धिक उत्कृष्टता की बेजोड़ उदाहरण प्रस्तुत करती नज़र आती हैं ।साथ ही अपने सामाजिक दायित्वों के प्रति पूरी तरह सजग एवं तत्पर दिखती हैं ।

मुक्तिबोध का जीवन-यथार्थ और सामाजिक-सरोकार के प्रति गहरा जुड़ाव रहा है और विज़न इतना स्पष्ट रहा है कि सारी सीमाओं और तमाम भाषायी बाधाओं के बावजूद कहानियों का कथ्य या कहन की शैली अपने पूरे प्रभावों के साथ प्रस्तुति पाई है। ज़िन्दगी की ये संवेदनाएँ मुक्तिबोध के समूचे साहित्य का मूल तत्व हैं और इन्हें पाठकों तक संप्रेषित कर ही मुक्तिबोध सच्चे मायने में जनसरोकार से जुड़े आत्मा के शिल्पीकार हैं।

नि:संदेह साहित्यकार युगीन परिस्थितियों से तटस्थ होकर साहित्य-सृजन नहीं कर सकता। युग विशेष की परिस्थितियों में सामाजिक और राजनीतिक स्थितियाँ विशेष रूप से चिन्हित की जाती हैं और रचनाकार इन परिस्थितियों के मद्देनजर ही अपनी सृजनात्मकता को आयाम देता है और उसका साहित्य समय-परिधि तक ही सीमित नहीं रहता बल्कि अपने समय की नब्ज पर उँगली रखते हुए समय के पार जाकर भी मूल्यांकित होता है और कालजयी रचना सिद्ध होता है। मुक्तिबोध की ये कहानियाँ किसी सत्ता तक पहुँचने की सोपान नहीं रहीं बल्कि उनका साहित्य जन-चेतना का समुच्चय और जन-जागरण का व्यापक अभियान है।


सांसारिक चमत्कार की खोज के लिए

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तमाम हरकतों से भरी दुनिया में आम जन मानस की दैनिक गतिविधियों का अनदेखा रह जाना एक सामान्‍य-सी बात है। खूबसूरत इमारतों, विभिन्‍न आकरों की बेहतरीन दिखने वाली गाडि़यों, सौन्‍दर्य के निखार में चार चांद लगा देने वाले प्रसाधनों के विज्ञापनी दौर में ऐसा हो जाना कोई अनोखी बात नहीं। फिर ऐसा भी क्‍या विशेष है उन दैनिक गतिविधियों में जिन्‍हें देखा जाना जरूरी ही है ॽ स्‍वाभाविक है ऐसे सवालों के उत्‍तर उतने सीधे सरल तरह से नहीं दिये जा सकते कि 'विकास'की अंधी दौड़ में झल्‍लाती दुनिया को संतुष्‍ट किया जा सके।      

ब्रश और रंगों के कलाकार बिभूति दास के चित्रों से गुजरने के बाद लेकिन कहना असंभव है कि ऐसे सवालों के जवाब दिये ही नहीं जा सकते। 5 अप्रैल 2019 से 11 अप्रैल 2019 तक ऑल इण्डिया फाइन आर्टस एवं क्राफ्ट सोसाइटी, नई दिल्‍ली में आयोजित बिभूति दास के चित्रों की एकल प्रदर्शनी में ऐसे कितने ही चित्र थे जिनमें दैनिक जीवन की गतिविधियां दर्ज होती हुई थी। दिल्‍ली की सड़कों पर मौजूद तेज रफ्तार के बरक्‍स आईफा के हॉल के माहौल की खामोशी का रंग जूतों को चमकाते मोची की मुस्‍कान पर उभार लेता था। ग्राहक का इंतजार करती गन्‍ना पैर कर रस निकालने वाले कामगार की आंखों में एक आश्‍वस्ति का भाव खामोशी के उस चिंतन के प्रति चेताता था जिसमें चित्रों की भव्‍यता उनके विन्‍यास में नहीं बल्कि उस दृष्टि में मौजूद थी जो उपेक्षित रह जा रहे दैनिंदिन को दर्ज करने पर आमादा है। मीठे नारियल पानी की इच्‍छा जगाता पेड़ पर चढ़कर नारियल तोड़ता कामगार, ढोलक बेचने वाला ढोलकी, अपनी नन्‍हीं बेटी को समुद्र के विस्‍तार से परिचित कराता पिता जलरंगों के माध्‍यम से बने उन चित्रों में दर्ज थे। वस्‍तुएं गहरे रंगों में रंगी होने के बावजूद मानवीय भावों की उजास में हर परिस्थिति से निपट लेने की दृढ़ता इस बात के लिए आश्‍वस्‍त करती हुई थी कि दैनिक जीवन की गतिविधियों का यूं चित्रों में ढल जाना अनायास नहीं, एक सायास प्रयास ही रहा होगा। बिभूति दास की यह पहली ही प्रदर्शनी इन उम्‍मीदों से भर कह जा सकती है भविष्‍य में गहरे रंगों वाले मानवीय चेहरे भी उत्‍साह की लकीरों से दमकते हुए दिखने लगेगें।        
 
विजय गौड़

यह काटता नहीं है

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युगवाणी एक लोकप्रिय व्‍यवसायिक पत्रिका है। लिहाजा ‘स्वप्‍नदर्शी’ समय और ‘दहशतगर्द’ स्थितियों की एकसाथ प्रस्‍तुति उसमें प्रकाशित होना पेशेवर ईमानदारी के दायरे में ही कही जाएगी। ‘स्वप्‍नदर्शी’ समय जिनकी प्राथमिकता हो वे किसी भी स्‍टॉल से युगवाणी खरीद कर पढ़ सकते हैं।
युगवाणी के जुलाई 2019 के अंक में प्रकाशित राजेश सकलानी के कॉलम ‘अपनी दुनिया’ का एक हिस्‍सा यहां प्रस्‍तुत है।   


वो फुर्तीला और चौकन्ना है। उसकी ओर देखो तो डर लगता है। एक सिहरन उठती है और शरीर बचाव के लिए तैयार होने लगता है। एक सुरक्षात्मक प्रतिहिंसा जायज हो जाती है।
ऐसा अक्सर होता है कि हम आत्मीयता की तलाश में अचानक एक खूंखार नजर आने वाले कुत्ते के सामने पड़ जाते हैं। आप तुरन्त अस्थिर हो जाते हैं और दिल की धड़कनें तेज हो जाती हैं। मनःस्थिति घबराहट में चली जाती है। न आगे कदम बढ़ता है और न पीछे। तभी मेजबान मुस्कराते हुए प्रकट होते हैं, आपकी खराब हालत की परवाह न करते हुए सिर्फ एक वाक्य कहते हैं, ‘’यह काटता नहीं है।‘’
यह तो कोई बात न हुई। इतनी बुरी हालत और अनियंत्रित रक्तचाप पैदा करने की जिम्मेदारी तो आखिर उन्हीं की बनती है। जिन्हें किसी से भी सद्भावना और प्रेम न हो वे हमेशा दूसरों को धमकाने के लिये डरावना कुत्ता पाल सकते हैं और उस पशु पर अपने नियंत्रण को ताकत का हथियार बना सकते हैं। पशु का क्या भरोसा। देखते न देखते वह हमला कर काट भी सकता है। अपने मालिक को वपफादारी का सबूत दे सकता है।
कोई समूह या संगठन ऐसी विचारधारा का प्रसार कर सकते हैं जिससे उनकी धाक नागरिकों को बेचैन करती हो। हमेशा एक अनिश्चितता में डाले रहती हो। फिर वे ताकत और अधिकार के भाव से यह कहते हों कि यह काटता नहीं है। लेकिन वह एक दिन काट लेता हो और फिर वे धमका कर कहें जी हाँ,जो हमारे रास्ते नहीं चलता ये उसे काट लेता है।
कुछ तो कुत्तों को काटने के लिये तैयार करते हैं पर कहते जाते हैं कि यह काटता नहीं है। यह प्रवृत्ति संस्थागत भी होती है। लोगबाग ऐसे संगठन बना लेते हैं। अपने सदस्यों को समझा-बुझा देते हैं। काल्पनिक दुश्मनों की तस्वीरें दिखला देते हैं। सामाजिक व्यवस्था के भीतर अपना दबदबा बना लेते हैं। ऐसे संगठनों की गीली जीभ हवा में धमकती है। पैने और नुकीले दांत चमकते रहते हैं। यदि आप उनके समर्थक नहीं हैं तो बस डरते रहिये और उनका रौब स्वीकार कर लीजिये। वे वाचाल होते हैं और कुतर्कशास्त्र में महापण्डित होते हैं। वे इतिहास,भूगोल,राजनीति और समाजशास्त्र को अपनी मनमानी से बदल देते हैं। वे लोकतंत्र की आजादी का मजा लेते हैं और लोकतांत्रिक भावना का कचूमर निकालने में कोई कसर नहीं छोड़ते। जाहिर है वैज्ञानिक पद्धति के तर्क में वे हमेशा कमजोर पड़ते हैं और तुरन्त धर्म और परम्परा के खोल में घुस जाते हैं। फिर जमकर कोलाहल मचाते हैं। परम्परायें निरन्तर प्रवाहमान होती हैं और ऐतिहासिक चरणों में नया रूप लेती हैं। वे अपनी निरर्थक होती कोशिकाओं को छोड़ देती हैं और जीवन की नई धारा को ओढ़ लेती हैं। जो तत्व सामाजिक सहृदयतापूर्ण और मानवीय होते हैं वे बाराबर बने रहते हैं। लेकिन संकीर्ण और अलोकतांत्रिक राजनैतिक संगठन परम्परा को जड़ बना डालते हैं। जो उनकी ताकत से असहमत होता है तो भौंकने की आवाज आने लगती है। वे संविधान और देश के कानूनों से परे जा कर अपनी सेनाएँ बनाने की हास्यासपद और समाजविरोधी हरकत करते हैं। सामाजिक मंचों पर यही कहते हैं कि यह काटता नहीं है।

व्हाईट ब्लैंक पेप

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कहानी

कथा संग्रह ‘’पोंचू’’ प्रकाशित हो गया है। संग्रह में कुल 12 कहानियां है। यह कहानी 2013/14 में पूरी हुई थी और उसके बाद 2015 में वर्तमान साहित्यक के एक अंक में प्रकाशित हुई। संग्रह में यह भी शामिल है।



उस वक्त उसने मुझे पूरी तरह से जकड़ ही लिया था।
मैं उस कागज के पीछे दौडने ही वाला थाजो भागे जा रहे अखबार वाले की साइकिल के पीछे, कैरियर में बंधे अखबारों के बीच से निकलकर, उड़ रहा था। बेशक किसी उत्पाद या, दी जाने वाली सर्विस का विज्ञापन उसमें रहा होगा, लेकिन विज्ञापन की बजाय मुझे उसके पृष्ठ भाग का कोरापन भा रहा था।
उस शख्‍स को भी एक वैसे ही कोरे कागज की जरूरत थी। बल्कि, वह तो बिना रंगीनी वाला व्हाई ब्लैंक पेपर ही खोज रहा था। कागज में छपे विज्ञापन से उसे भी कुछ लेना-देना नहीं था।
अखबार के बीच रखकर लोगों के घरों तक पहुँचाये जाने वाले कागजों में अकसर कोई न काई विज्ञापन ही रहता है। उत्पाद को घर के भीतर पहुँचाने और नागरिकों को ललचाने के, ऐसे कितने ही ढंग बाजार ने ढूँढ निकाले हैं कि लोग-बाग एक दिन खुद ही उसके आदी हुए जाते हैं। वैसे ही ग्लेजी कागजों के रंगीनपन या उनके कोरे पृष्ठ, मैं अपने दोस्त के लिए इकट्ठा करता रहता हूँ। दोस्ताने का प्रतिदान कहें, चाहे कुछ और, पर यह सच है कि ऐसा करते हुए मेरे लिए वह दिन हमेशा खुशियों वाला होता है जब मेरे दिये किसी कागज का कोरापन, या दूसरी ओर छपी तस्वीरों का रँग, मेरे दोस्त को अपने काम का लगता है और वह तह लगाकर उसे भविष्य के उपयोग के लिए संभाल लेता है। बाजार की मुखालफत के लिए हर वक्त धड़कता मेरा मित्र अपने विचारों की अभिव्यक्ति के लिए अकसर ऐसे कागजों के रंगीनपन को ही अपना हथियार बना लेता है। मेरे नये भवन को अपनी पेंटिग्स और कोलाजों से कलात्मक सौंदर्य देने में, दोस्तानेपन के ऐसे ताहफों से, उसने हमें भी नवाजा था। मेरे घर आने वाले मेहमान भौंचक रह जाते हैं जब पेंटिग और कोलाज में बहुत नीचे दर्ज उसके हस्ताक्षरों को पाते हैं। वे हस्ताक्षर उन्हें आश्चर्य में डुबो देते और उनके सामने मेरा कद कुछ ज्यादा ही ऊंचा हो जाता है। मेरे घर में टंगी एक नामी पेंटर की पेंटिंग उनके भीतर ईर्ष्या के बीज बोने लगती है। खबरों के मार्फत उन्होंने जाना हुआ होता है कि उन हस्ताक्षरों वाली पेंटिग्स और कोलाजों की कीमत कितनी है। किसी निम्न मध्यवर्गीय आदमी की जीवनभर की सम्पूर्ण कमाई से भी कहीं ज्यादा। मेरे जैसे मामूली आदमी के घर की दीवारों पर ऐसे काम को टंगा देख वे अपने भीतर की ईर्ष्या को छुपाते हुए वे ऐसे पेश आते हैं मानो मैं कोई अति विशिष्ट व्यक्ति हूँ। मेरी पत्नी तो फूल कर कुप्पा हो रही होती है उस वक्त, जब उसकी कोई सहेली या सहेली का पति हैरान होकर कहते,
‘‘आजकल आर्ट गैलरियों की सैर हो रही है शायद।’’
पूछे गये सवाल का जवाब सीधे तरह से देने की बजाय वे बातों को ऐसे घुमाती हैं कि पूछने वाले को यही नहीं मालूम रह पाता कि उसने पूछा क्या था। पेंटिग्स की व्याख्यायें तक करने लगती हैं। दोस्त ने जिस तरह से उनकी व्याख्यायें कभी यदा-कदा की बातचीत में की होंगी, उन्हीं बातों का तर्जुमा करते हुए पत्‍नी उन्हें ऐसे सुनाती है कि यह भी झलकता रहे कि वाकई हम ऐसे महत्वपूर्ण लोग हैं जिनके घर ऐसी एक नहीं कई पेंटिंग्स हैं। और, उन्हें यहीं हमारे सामने रंगा गया है। एक मशहूर पेंटर के द्वारा। कोई रंगीन विज्ञापनी चित्र कैसे कागज की कतरन हुआ और कैसे कतरनों से निर्मित होता हुआ वह कोलाज अर्थवान हो जाता है, हम इसके गवाह हैं। बाज दफे किन्हीं खास अर्थों के रंगों के ब्रश भी कोलाज पर जहाँ-तहाँ अपना प्रभाव कैसे छोड़ते हैं, यह भी हमसे छुपा नहीं है। जिज्ञासु और भी अचम्भित होते हैं, जब पत्‍नी बताती हैं कि इसमें तो माध्यम ही पुराने रंगीन कागजों की कतरने एवं वाटर कलर हैं।
जमाने की नजर में रद्दी हो गये तमाम ग्लेजी कागजों का रंगीनपन अनेकों कतरनों के बाद कैसे किसी आकर्षक कोलाज में ढलता है, यह तो हम दोनों ही जानने लगे थे। कागज की कतरनों को चिपका कर कोलाज बनाने को कई बार पत्नी मुझे भी उकसा चुकी थी। उस वक्त उसके जेहन में कला से ज्यादा पेंटिग की कीमत मचल रही होती। कहती भी,
‘‘कुछ भी नही तो दस बीस हजार में तो आपका काम भी निकल ही जायेगा .. बनाइये तो सही।’’
लेकिन मैं भी कुछ वैसा ही कारनामा कर सकूं, यह संभव नहीं था। यह बात मैं पत्नी को समझा नहीं सकता था, क्योंकि उसके दिमाग में तो लाखों रूपये कुलबुलाहट ले रहे होते हैं।
मैं क्या, मेरी तरह का सामान्य, कोई दूसरा व्यक्ति भी वैसा नहीं कर सकता। वे कोलाज एक प्रतिभावान कालाकार की कल्पनाओं से आकार लेती तस्वीरें होती हैं।
दोस्तानेपन के उस दान का प्रतिदान चुकाने के लिए ही मैं ऐसे कागजों को, जहाँ दिख जाये, जुटा कर, मित्र के हवाले कर देने की हर चंद कोशिश करने लगा हूँ। संग-साथ के कारण अब वैसे भी कुछ-कुछ  तो मैं भी समझने लगा हूँ कि कौन सा कागज काम का हो सकता है। सड़क के पार उड़ रहे कागज का पृष्ठ जो एकदम कोरा था, मुझे उम्मीद थी कि उसकी सतह पर एक शानदार पेंटिग आकार ले सकती है। मैं यही सोच कर उसे उठा लेना चाहता था। वैसे उसके दूसरी दूसरी ओर भी जो तस्वीर थी, कई सारे आकर्षक रँग उसमें मौजूद थे।  तब भी वह उड़ता हुआ कागज तो अपने कोरेपन की वजह से ही मेरी आँखों में अटक गया था। तेज गति से आ-जा रही गाड़ियों की पट-पटाट से वातावरण को आंदोलित कर देने वाली हवाएं कागज को उड़ाए चली जा रही थीं। सड़क पार करना मुश्किल हो रहा था। मुझे दो मिनट से भी ज्यादा हो गये थे उस कागज को वैसे ही ताकते हुए। वहाँ कोई जेबरा क्रासिंग नहीं था। मेरी ही तरह वहाँ से सड़क पार करने वाले कुछ और भी लोग थे। वे सारे के सारे और उनके साथ मैं भी, कुछ दूर चलकर जेबरा क्रासिंग से सड़क पार करने की बजाय मौके की ताक में रहने वाले ऐसे लोग थे जो हमेशा ही इस फिराक में रहते हैं कि ट्रैफिक कुछ गुँजाइश दे तो झट कहीं से भी पार हो जाएं। वह शख्‍स भी शायद इसी ताक में था लेकिन सड़क पार करने का उतावलापन उसकी आँखों में उतना नहीं था जितना वह मुझे ताक रहा था। कुछ कहना चाहता है, यह सोचकर ही जब मैंने उससे मुखातिब होना चाहा तो उसी क्षण उसने निगाहें दूसरी ओर फेर ली थी। मैं खुद ही झेंप सा गया और अब जितनी जल्दी हो, सड़क पार कर लेना चाहता था। उसका फिर से ताकते रहना मुझे असामान्य किये दे रहा था।
हवा कागज को मेरी पहुँच से काफी दूर कर चुकी थी। कागज को उसने सड़क के दूसरे छोर पर पहुँचा दिया था और अभी भी उड़ाये जा रही थी। अपनी ही जगह पर स्थिर, मैं कागज पर आँखें गड़ाये था और वह शख्स मुझ पर। कागज वैसे ही उड़ता जा रहा था, जैसे मेरा पेंटर मित्र उड़ता रहता था हर उस वक्त जब कोई पेंटिग पिछले सभी दामों से ज्यादा कीमत पर बिक कर नये मानदण्ड खड़े कर देती थी। या, फिर, जैसे मेरे प्रिय लेखक उड़ रहे थे पुरस्कार वितरण समारोह के दौरान। जबकि स्वागत के फूल गले की माला बनकर कंधों को झुका देना चाहते थे। पुरस्कार समारोह की धूम तो किसी को भी उड़ा देती है। मेरी स्मृति में वे पल एकदम साक्षात थे। लेकिन उन पलों की स्मृतियों के गहरे असर के बावजूद न तो मैं घर जाने के रास्ते को भूला था और न ही पिछली स्मृतियाँ धुंधलायीं थीं। लेखक को भी अपने मित्रों की बिरादरी से बाहर करने का कोई मतलब नहीं। बेशक खिलाफ हो जाने वाले बहुत से साथियों के हस्ताक्षरों के बीच विरोध पत्र पर मैंने भी हस्ताक्षर किये हैं। मित्र के प्रति दोस्तानेपन को निभाने वाली स्मृतियाँ और बिना जेबराक्रास से रास्ता पार करते हुए घर जाने की हड़बड़ी में भी सब कुछ ज्यों का त्यों मौजूद था।
तालियों की वह जबरदस्त गड़गड़ाहट थी। हाथों में जब सम्मान-पत्र सौंपा गया था। सम्मानित किये जाने से पूर्व तेज तर्रार युवा ने उसका पाठ किया था। युवापन के जोश की उस साफ आवाज में अपने बारे में दर्ज किये गये शब्दों को सुनते हुए कंधे पर झूल रहा शॉल बार-बार आगे को लटक आता था।
दर्शकों की आँखें शॉल का गिरना  देख न पाईं !!
छुपाए रखने की कोशिश इतनी चुपचाप थी कि शायद ही किसी निगाह की पकड़ में आयी हो। सम्मानित हो रहे लेखक का अपना भीतर तो फिर भी दिख गये की आशंका से भरा था और उभर आई असहजता को आँखों में छुपने नहीं दे रहा था।
बार-बार शॉल को कंधें के ऊपर की ओर फेंकते और कम्बख्त शॉल फिर ढुलक जाता।
दर्शक कहीं सोचने न लगे कि सम्मान लेखक को सहज नहीं रहने दे रहा है !!
एक असहज किस्म की मनःस्थिति में ध्यान रह-रह कर हर क्षण अपने को ही देखने को मजबूर कर रही थी। अपने ही हाव-भाव का अजीबपन खटकने वाला था। बैठने, देखने में सहजता के भाव बने रहें, सचेत कोशिशों के बावजूद खुद को ही लग जाता कि एक असहजता है जो भीतर से बाहर तक फूट रही है। आँखों में वैसे ही भाव लगातार तैर रहे थे।
उत्तेजना का न जाने वह कौन सा क्षण होता कि शॉल नीचे और फिर-फिर नीचे ढुलक जाता।
क्या तो आलोचना और क्या तो सम्मान, लेखक को इन सबसे कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए - ऐसे ही किसी अन्य सम्मान समारोह में दोहराया गया वाक्य याद आता रहा।
भीतर की असहजता को मुस्कराते चेहरे से ही ढका जा सकता है।
हर वक्त खिली-खिली मुस्कराहट ऐसे ही मौकों की देन थी जो व्यक्तित्व को भी गढ़ती चली गई थी। यदा-कदा की असहमतियाँ भी जिसके भीतर ढकी रहतीं।
चेहरे पर हमेशा बनी रहने वाली मुस्कराहट के जरिये होंठों की फांक तक को छुपाये रखा जा सकता है और देखने वाले के लिए खिले-खिले चेहरे के साथ पेश आया जा सकता है। आँखों में आत्मीय सहजता को उभार कर ही द्विचितेपन की भीतरी असहजता से उबरने में भी मद्द मिलती है।
लेकिन वक्त ऐसी बातों को सोचने का न था।


रबर के उजले दस्ताने पहने डाक्टर ने जब कहा था, एक व्हाईट ब्लैंक पेपर लाओ तो वह अकबका गया था। अकबकाहट ऐसी कि तुरन्त कुछ समझ ही नहीं आया। साथी की तबियत विचलित किये थी। रक्त का बहना रुक चुका था। घाव पर स्टिचिंग हो रही थी और वह अर्द्धमूर्च्छित अवस्था में था। डॉक्टर के कहे शब्द फिर भी कहीं भीतर जाकर अटक गये थे। पीछे की जेब से पर्स निकाल कर कागज खोजना चाहा लेकिन ऐसा कोई कागज नहीं मिला कि उसे डॉक्टर के आगे बढा दिया जाये कि लिख दो इस पर। मन ही मन डॉक्टर के ऊपर गुस्सा आने लगा। उपचार का मतलब इंजेक्शन, पट्टी और गले में आला-टाला टांगना ही है क्या ?’ घायल साथी का उपचार मानो व्हाईट ब्लैंक पेपर पर ही लिख दिया जाएगा तुरत-फुरत। तुरत-फुरत की उस हड़बड़ाहट में कुछ आगे को गिरना हुआ था। संभलने की कोशिश में दूसरा कदम कुछ लड़खड़ाया था। उस क्षणांश में ही एक साथ कई सारी ऐसी जगहों की तस्वीरें उभर आईं, जहाँ एक कोरा कागज फौरन मिल सकता था। लेकिन उन स्थानों तक जाना मानो समय जाया करना ही था। घायल पड़े मित्र को अकेला नहीं छोड़ा जा सकता था। कोई निश्चित फैसला लेना संभव न हुआ। इस बात में कोई विचलन नहीं था कि मात्र एक व्हाईट पेपर तो कहीं भी मिल जाएगा और यही सोचकर मरीजों के लिए लिख दी गई हिदायतों के हिसाब से दवा खिलाने वाली नर्स से संकोच और झेंपती हुई आवाज में कहा था,
‘‘सिस्टर...एक व्हाईट पेपर ...।’’
काजल लगी आँखों के भीतर से झांकते सफेद हिस्से पर सिस्टर के भीतर की बहुत सारी झल्लहाट दिखाई देने लगी थी। जिसके मायने साफ थे कि दिखाई नहीं दे रहा मरीजों से उलझी हूँ। यूं दूधियापन के रबर-दस्ताने और नील लगे उजले कपड़ों की सफेदी में वह पूरी की पूरी एक व्हाईट ब्लैंक पेपर नजर आ रही थी।
एक मात्र व्हाईट पेपर की फड़फड़ाहट के लिए क्यों सुनूं किसी की बात, यही सोचकर एमरजेंसी वार्ड के उस छोटे से कमरे में, एक किनारे टेबल पर झुककर किसी रोगी के आवश्यक विवरण को दर्ज कर रहे क्लर्क की गर्दन के उठने का इंतजार करना भी जरूरी नहीं समझा और आगे खड़ी भीड़ के पीछे से ही गर्दन उचकाते हुए ऊंची आवाज में कह दिया,

‘‘एक व्हाईट ब्लैंक पेपर होगा...?’’
‘‘हुं...हूँ...’’

झुकी हुई गर्दन के साथ ही एक हमिंग सी उठी थी, लेकिन बिल्कुल नजदीक खड़ी भीड़ भी नहीं जान सकती थी कि कहाँ से आ रही है आवाज!!
बहुत संभव है कि क्लर्क के होंठ फड़फड़ाए हों, या फिर बँद-दराजों के भीतर छुपे बैठे न जाने कितने ही ब्लैंक पेपरों का सामूहिक गान रहा होगा। दराज में रखे, स्टेप्लर, पिन, पोकर और व्यक्तिगत जैसे कुछ जरूरी कागज भी न जाने कितनी जोर से उस हमिंग में शामिल हुए थे। कागज, जिस पर मरीज का विवरण दर्ज किया जा रहा था, पेन की रगड़ से चर्रा गया और एक खामोशी बिखेरने लगा। क्लर्क की मेज के सामने खड़े रहना अब कतई जरूरी नहीं रह गया था। मन थोड़ा खराब-सा हुआ, पर कुछ कहने की ताकत जुटायी नहीं जा सकी। हर दिन की ऐसी कितनी ही स्थितियाँ तो यूं भी दुनिया भर के लोगों की ताकत को निचोड़ देती है। कभी किसी काल्पनिक मदद की जरूरत में संबंध खराब न कर लेने का वातावरण ऐसे ही नहीं चारों ओर व्याप्त हुआ है। भले-भले बने रहने की ऐसी आदत में न जाने कितनी जलालत खुद ही झेलते रहने की मानसिकता ने हर किसी को जकड़ा है। क्लर्क जिन कागजों में विवरण दर्ज कर रहा था, उनका मटमैलापन और भी ज्यादा मटमैला लगा। एक सादा कागज, हो सकता है वह भी अपनी सफेदी खोया हुआ ही हो, उसके भर के लिए भी ऐसी तौहीन!! भीतरी मन ने अभी हिम्मत पूरी तरह से नहीं हारी थी। लेकिन ऐसा कमजोर उतावलापन अभी नहीं उभर सकता था कि अस्पताल परिसर से ही बाहर निकलना पड़ जाये मात्र एक कागज के लिए और सड़क को इस आवाजाही वाली जगह से पार करने को मजबूर कर दे। मुझ जैसे नाउम्मीद से भी उम्मीद की गुहार लगाना तक हो जाये।

किसी भी घटना-दुर्घटना के वास्तविक कारणों को न जाने पाने की स्थिति में सारा दोष समय पर मढ़ देने की रीत में यह कहना आसान था, ‘‘वक्त बुरा आ गया है।’’ कुछ ऐसा ही कहा था शायद उसने। ठीक से न सुन पाने की स्थिति में भी मैंने अनुमान लगा लिया था वह क्या कह रहा है और अपने आस-पास को मैं ज्यादा ही गौर से देखने लगा था। 
सम्मान की महत्वपूर्ण बेला में लेखक ने भी समय को धन्यवाद दिया था। घड़ी की सुइयाँ जहाँ टिकी थी वहाँ बहुत उजले हाथों में वह सम्मान पत्र था जिसे ग्रहण करते हुए कमर दोहरी हो गई थी। पहले भी ऐसे ही मौकों के कारण दिख जाने वाला कमर का दोहरापन रात-बे-रात लिखने-पढ़ने के लिए जागते रहने और दिन भर जीवन को चलाये रहने वाली गतिविधियों में खटने के कारण हैं, ऐसा मानना मुगालते में रहना था। रक्त-सने उन हाथों से सम्मान ग्रहण करते हुए एक क्षण को उभरी असहमति को हमेशा बनी रहने वाली मुस्कराहट ने ढक दिया था और निगाह उठाकर सामने देखने की स्थिति के रहने पर उनको झुकाये रखने की कवायद में कमर तक को झुकाना पड़ गया था।
यूं, सम्मान थमाने वाले उन हाथों में उस वक्त कोई दाग न था जिसकी वजह से कोई सताने वाला अपराधबोध पैदा हो। उजलेपन का एक दूधिया अहसास था जो रबर के दस्ताने पहने डाक्टर, नर्स, वार्ड ब्वाय और मरहम-पट्टी के रोजानापन में अस्पताल के किसी कर्मचारी के हाथों में होता है।
घायल की मरहम-पटटी करने के बाद डाक्टर, नर्स, वार्ड ब्वाय के धुले-पुंछे हाथों की तुलना किसी मानवीय व्यापार से ही की जा सकती है, घृणा के रक्त से सने प्रपंच से नहीं। भाव-विह्वल होकर सम्मान का जखीरा लेखक को पकड़ाये जाने वाले उन हाथों के उजलेपन से करना तो बेमानी ही है।
वे किसी भी उजलेपन से ज्यादा ही उजले थे... बल्कि उनके उजलेपन की तुलना किसी सचमुच की उजली चीज से भी नहीं की जा सकती थी। तुलना की ऐसी संगत में तो भाषा का बाजारूपन व्याप्त होता है- ‘‘तेरी कमीज मेरी कमीज से उजली कैसी ?’’
एक निर्विवादित सत्य उनके उजलेपन पर फिर भी सवालिया निशाना लगाते हुए था कि प्रकाश जिस रँग से सबसे कम प्रकीर्णित होता है वह उजला नहीं लाल होता है। हत्या दर हत्या से लसलसाये हाथों की लालिमा से प्रकीर्णित होता प्रकाश बहुत दूर बैठे दर्शक की निगाहों में सिग्नल लाइट की तरह अटक ही न गया हो कहीं!! सावधानी बरतने की हद तक, खौफ पैदा करने वाली, रक्त दर रक्त गंदली चिपचिपाहट के प्रकीर्णन की संभावनाओं को नेस्तेनाबूद करने की गतिविधि का नाम ही तो राष्ट्रीय गौरव है। वरना तो एक ही जैसा है रँग। वही सुर्ख लाल। गर्द-गुबार में सन कर जिसकी ललाई को ऐंठन लगाई जा सकती है। धुले-पुंछे होने पर भी जिसकी लालिमा मिटती नहीं। हाँ, भक्त लोग उसे चेहरे और शरीर पर बिखरे हुए तेज की तरह देखने लगते हैं।
चेहरे पर बिखरे उस तेज का समागम, त्रिशूल, बल्लम और भाले लिए, चेलों को उकसाने वाली मुद्राओं से भरे वक्तव्यों वाला तो नहीं ही कहा जा सकता था। उस वक्त तो वह रचनात्मक जगत के चमचमाते सितारे को सम्मानित करते हुए ओज पूर्ण वाणी में कृतित्व की चर्चा भरा ‘ ॐ (ओहम)- ॐ ’ था। बोलने के लिए खड़े ही हुए थे, हाथों को ऐसे उठाया था मानो अभिवादन में उठे हों जैसे, लेकिन उनका फैलाव आर्शीवाद देता हुआ हो गया था। प्रत्युतर में भक्त जनों की जय-जयकार थी। जय-जयकार भरा अभिनन्दन लेखक के चेहरे पर भी बिखर रहे तेज को बहुत निरापद कैसे रहने देता भला। वक्तव्य में कोई हुंकार जरूर ऐसी थी जो बम-बम की आवाजों का सा कोलाहल मचा रही थी।
ऐन उसी वक्त, आने-जाने वाली गाड़ियों का तांता, जब क्षण भर को कुछ थमा था और सड़क पार कर सकना संभव हुआ, पीछे से उसने बाँह पकड़ कर आगे बढ़ने से रोक ही दिया। जमाने के अनजानेपन में भी मुझे कुछ जान पहचान का पाकर मदद की उम्मीद के साथ था वह शायद। यह कहना कतई संगत नहीं कि सिर्फ एक रचनाकार की अभिव्यक्ति में सुनायी देती पंक्तियाँ ही जमाने का सच थी, ‘‘हमको गहरी उम्मीद से देखो बच्चों, हम रद्दी कागजों की तरह उड़ रहे हैं’’, मेरे जैसा साधारणपन भी जब उसकी उम्मीद आसरा हुआ जा रहा हो तो यह अनुमान लगाना तो मुश्किल नहीं कि मदद की कितनी गुहारें सक्षम समझी जाने वाली न जाने कितनी शख्सियतों से की जा चुकी होंगी। ऐसी अवस्था में यकीन के खम्भे को मजबूती से गढ़े रहने का सहारा बेशक मेरे व्यक्तित्व का दलदलापन भी पूरी तरह से नहीं दे रहा होगा, फिर भी उम्मीद की गहराइयों में उतरे पांव मेरा रास्ता रोके थे। हालांकि, उसे रास्ता रोकने के अर्थों में नहीं लिया जाना चाहिए। वह तो कदापि उसका उद्देश्य नहीं रहा होगा। पर ऐसा मानते हुए एक सवाल का जवाब तो मिल ही जाता है कि जरूरी नहीं घटना का परिणाम उद्देश्यों के अनुरूप ही आये। घटना दर घटना और परिणाम दर परिणाम की संगति में ही बनने वाली धारणा वैज्ञानिक कही जा सकती है। कल्पना से विचार तक की यात्रा में घटना और परिणाम महत्वपूर्ण पड़ाव हैं।  
उम्मीदों की व्यापप्ति का आलम घनघोर आदर्शों में डूबे उस युवा कार्यकर्ता की कथा में ज्यादा गहरा रहा है जिसे मैंने गहरे तक टूटे हुए, उस दिन करीब से देखा था जब वह नाउम्मीदों में घिरा हुआ था। सफेद कागज पर लिखे उन पत्रों की भाषा को बांचने की जरूरत उस वक्त शायद उचित न थी जिनमें उसके प्रिय रचनाकारों की लिखावटें आज भी वैसी ही आश्वस्ति के साथ दर्ज है जैसी आश्वस्ति उनको पहली बार पढ़े जाने के वक्त महसूस की गयी थी लेकिन जिनके प्रभाव सिर्फ लिखावटों की स्याही के अलावा किसी भी दूसरे तत्व के रूप में ईमानदार नहीं रहे। लगातार मटमैला होता गया उन कागजों का रँग तक भी अपने को पूर्ववत नहीं रख पाया।
वह एक ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता था और लगातार फंदा कसती नीतियों के विरोध में उन भाषणों की तरह दहकता हुआ, जो प्रतिरोध के रूप में दिन ब दिन सुनी जाने लगी थी।
अपनी शिक्षा के अधूरे परिणामों से व्यथित एक शिक्षाविद की वह ऐसी जिद्द थी जो हर कीमत पर अपने को सही साबित करना चाहती थी। अपनी पेशेवराना भूमिका बदल लेने के साथ उसने पहले-पहल उन नीतियों को लागू करने का मसविदा तैयार किया था। जाने क्यों उसे आर्थिक नीतियों का नया मसविदा कहा जा रहा था जबकि वह इतिहास के गहरे गर्त में वे देश के आर्थिक निर्माण के साथ ही रोपे हुए बीजों से अलग रूप में नहीं थी। बहुत सुप्तावस्था में उसके उस भयानकपन का अँदाज नहीं लगाया जा सकता था। जैसे बीते दिनों में भी नहीं दिखा था कि जब जेब में फूल टांक कर उन्हें लागू किया गया था। दुनिया को तेजी से इक्कसवीं सदी में ले जाने वाले कोमल ख्यालों ने उन्हें जब पूरी तरह से लागू किया तो गति को अतिरिक्त रफ्तार के साथ बढ़ा भी दिया। लोगों का जीना ही दूभर होने लगा था। छूटती नौकरियों के साथ आत्महत्याओं का भयानक मंजर चहुं ओर था। कठिन स्थितियों का मुकाबला कैसे किया जाये, यह स्पष्ट नहीं दिख रहा था। आम जन मानस को लगातार रूदन के लिए मजबूर करते परिणाम उनके गलों तक को सुखा देने वाली उस आक्रामकता के हवाले थे जो हत्यारी स्थितियों से उपजी सहानुभूति की लहर पर चढ़कर चली आयी थी और फिर से एक वैसी ही सहानुभूति के हवाले आगे बढ़ती हुई थी।
ऐसे कठिन समय में यूनियन का कोई समारोह हो, बेशक पचास साला जश्न सही, लेकिन समारोह के समापन पर रंगारग कार्यक्रमों के नाम पर ऑरकेस्ट्रा नहीं बजवाया जा सकता था। यद्यपि यह स्पष्ट है कि एवज में थोड़ा सांस्कृतिक होने के नाम पर फूहड़ हास्य से भरी कविताओं के पाठ के अलावा कोई दूसरा विकल्प तक किसी के पास नहीं था और ऐसे ही किसी आयोजन के लिए एक-एक सदस्य से जुटाई गयी चंदे की रकम को डुबो दिया जा सकता था। युवा कार्यकर्ता के अनुभव बहुत सीमित थे लेकिन जोश और होश का सँयोग उसे ऐसे किसी भी कार्यक्रम का हिस्सा नहीं होने देना चाहता था। वह चाहता था कि भांड-भड़ैती की बजाय जनपक्षधर रचनाओं के जरिए ही कार्यक्रम सम्पन्न हो। प्रस्ताव जब उसने सदन में रखा तो यूनियन के सभी वरिष्ठों को भाया और मान लिया गया था। अपने युवा कार्यकर्ता के उत्साह और चीजों को सही दिशा में रखने की चिंताओं से वे सभी वाबस्ता थे पर ऐसे प्रिय रचनाकारों से वाकिफ न थे जो भाषा की गढ़न के साथ आम जन के पक्ष में ही रचनारत रहते हों। जानते होते तो वे भी उन्हें दिल से प्यार करते। यूं सोवियत संघ से छपने वाली और कम दामों पर खरीदी जा सकने वाली किताबें उन्हें साहित्य की भूमिका से परिचित किये थी। लेकिन अपने जन समाज के वैसे नायकों से उनका वास्ता नहीं था। यह विचारणीय विषय हो सकता है कि ऐसा क्यों था ? क्या इसमें वे एकतरफा दोषी थे ? किसी भी नये सवाल से उलझने की बजाय ऐसे संवेदनशील लोगों से कैसे और कहाँ संपर्क हो सकता है, काम उस अकेले को सौंप दिया गया था।
एक कोरे कागज पर लिख लिया गया नमूना पत्र ही नकल किया जाना शेष रह गया था। पत्र के जरिये ही वे अपने प्रिय रचनाकारों से सम्पर्क कर सकते थे। सामूहिक रूप से लिखे गये उस नमूना पत्र की भाषा आकर्षक और आत्मीय थी। भविष्य के महत्वपूर्ण गद्यकार एवं उस समय भी पूरी सघनता से दखलदांजी करने वाले लेखक का ड्राफ्ट था वह लेकिन उसे एक रूप देने में दूसरे लोगों की भूमिका को भी नजरअँदाज नहीं किया जा सकता था।
बेशक एकल गतिविधि है लेखन, लेकिन सामूहिक चर्चा से ही भिन्न-भिन्न पहलू उजागर होते हैं। भिन्न-भिन्न पहलू को उजागर कर सकने वाले लेखन के ही रूप दुनियावी मसलों से निपटने में महत्वपूर्ण दस्तावेज हो जाते हैं। बहुत घर-घुस्सू होकर लिखना और लेखन को एकल कार्यवाही मानने का दूसरा नाम कलावाद भी हो सकता है। बेशक कलावाद को परिभाषित करने के लिए कितने ही अन्य मानदण्ड भी हैं।
कला और जन के बीच बंटे साहित्य की जनपक्षधर धारा को संबोधित, वह मजूदरों की पुकार थी। खत का मजमून पुकारने वालों की तस्वीर था। सरोकारों में जन का पक्ष चुनता हुआ। जवाब में तपाक-तपाक पहुँचे थे वे पत्र जिनमें कार्यक्रम से सहमति और उपस्थित हो सकने के आश्वासन थे। डाक में पहुँचते पत्रों को वह बार-बार पलटता और खूब उत्साहित था। गहरी उम्मीदों से। यूनियन के हर साथी को हर क्षण की सूचना देते हुए उसके भीतर का उत्साह उछाले मारता हुआ। महीन से महीन चीजों को आकाश की ऊंचाइयों तक उड़ा देने वाली कल्पनाओं से भरी रचनाओं के ताव से भरे वे सारे के सारे पत्र इस बात की उम्मीद जगाते थे कि सिर्फ कोरी कल्पना की उपज नहीं बल्कि अनुभव के ताप से पैदा होने वाले ज्वार का जलजला ही होता है रचना में जो सीधी कार्रवाई को ही बदलाव का सबसे जरूरी अस्त्र मानती है। अपने प्रिय रचनाकारों के प्रति वह इतने गहरे सम्मान से भरा था कि उनकी रचनाओं में दर्ज पंक्तियाँ के उजाले में ही जमाने को अंधकार में डुबोने वाली ताकतों को पहचान पा रहा था।
अपनी उपस्थिति की सहमति देते हुए वे इस कदर विनम्र थे कि ऐसे कार्यक्रम में खुद के होने को एक अवसर की तरह देख रहे थे। बकायदा उनके पत्रों की भाषा और टेलीफोन वार्ताओं में सुनायी देते लफ्जों का कोई दूसरा अर्थ कैसे लगाया जाये। अपनी ही दिक्कतों की वजह से उपस्थित न हो सकने वाले तो पहुँच न पाने की असमर्थता पहले ही जाहिर कर चुके थे। स्वीकृति की संख्याओं का अनुपात जतायी गयी असमर्थताओं का मलाल मिटा देने को काफी था। खिचड़ी खाकर कहीं भी सो जाने वाली आवाज की कोमलता इतनी उम्मीदों भरी थी कि वातानुकूलित द्वितिय शयन यान के टिकट पर ही यात्रा करने वाले उस एक मात्र पत्र का भी मलाल नहीं रह गया था, जिसके जवाब में कहना पड़ा था, ‘किराये के एवज में देने के लिए शयनयान श्रेणी ही हमारी सीमा है।कार्यक्रम वाले दिन भी यदि कहीं कोई आकस्मिकता में फंस ही गया तो भी दूसरे आने वालों की स्थितियाँ कार्यक्रम को गति देने के लिए पर्याप्त थी।
सहमतियों के पत्रों का कागज तो आज भी उस नर्स की ड्रेस-सा सफेद है जो डाक्टर के एकदम करीब ही बनी हुई थी उस वक्त भी, जब डाक्टर ने कहा था, ‘एक सफेद कागज लाओ तो।
समय पर कार्यक्रम शुरू हो, यह चिन्ता उस अकेले युवा की ही नहीं थी बल्कि यूनियन के वरिष्ठ साथियों के स्वर भी उसी अकुलाहट में थे। पहुँचने वाले रचनाकारों की कोई खबर न मिली थी। एकदम अंतिम क्षणों में तय हुआ फोन खड़खड़ा लिए जायें। कितने ही सफेद कागज एक साथ फड़फड़ा उठे थे जिन्हें फिर-फिर पढ़ने पर भी कहीं से भी यह नहीं लगता था कि प्रिय कवि अनुपस्थित हो जाएंगे। हर ओर से अनुपस्थितियों पर क्षमा प्रार्थी होने का औपचारिकता थी। 
            अनुपस्थिति का वह कैसा रँग था, सहमति के पत्रों के कागज पर जो अनुपस्थित हो जाते हुए भी रक्त के से धब्बों के रूप में न चमकता हो! बेशक होता तो वह भी हूबहू उन उजली हथेलियों सा ही है जो सम्मान का टोकरा लिये ऐेसे फिरती हैं कि अति महत्वाकाँक्षाओं के रोगी के सिर को ही ढक देती हैं। अपने ही सवालों को ताक पर रख कर कमर तक को दोहरा करे देने वाली हो जाती हैं। बल्कि उस वक्त उनसे आशीर्वादलेते हुए तो कोई ऐसा ख्याल भी नहीं सताता कि मुखालफत के हस्ताक्षर अभियान में खुद की लकीर को लम्बी करते जाने वाली जनपक्षधरता किस कदर सक्रिय हो सकती है और खुद को किसी दूसरे खेमे में फेंक देने का आधार हो सकती है। 
धुले-धुले, उजले हाथों का स्पर्श़ कैसे-कैसे अहसासों से भर रहा था, सम्मान-पत्र पकड़ाते हुए जब वे पीठ पर और कंधों पर थपकियाँ दे रहे थे। सम्मान की सबसे पहली कार्रवाई में ओढ़ाया गया शॉल, कंधों से पूरी तरह से नीचे ढुलक गया। देह को उघाड़ता हुआ। यौवन की उमंगों से भरी हाना स्मिथ की तांबई देह उघड़ आयी हो मानो। वह युवा नायिका का बदन था। मानवता की हिंसक कार्रवाई की दोषी द रीडरफिल्म की नायिका हाना स्मिथ। एक जघन्य अपराध को चुनौती देती जिसके प्रेम की माँसलता में न्यायालय की दीवारें तक खामोश हो गयी थी।
आई वॉस जस्ट अ गार्ड, डूईंग माय डयूटी। वट वुड यू हैव डन इन माय पोजिशन ?’
वह संवाद जो अपने ऊपर लगे अपराधों को कबूल लेने के बाद भी न्यायाधीश को ही नहीं बल्कि गेस्टापों से बच निकली उन स्त्रियों को भी स्तब्ध कर गया था जो मुकदमे की गवाह थीं और बदले की आग से सुलग रही थीं। कैमरा उनके भीतर घुमड़ रहे अनेकों भावों को फोकस करता हुआ उनके चेहरों पर केंद्रित था। उसी क्षण वह युवा नायक तिलमियलाया था जो कहीं से भी अपनी प्रेमिका को अपराधी मानने को तैयार नहीं था। मात्र देह के नशे भर के सुरूर में नहीं था वह। हालांकि, अपनी किशोर वय को जवां मर्द में तब्दील करते उन कोमल अहसासों और उत्तेजक सांसों के असर को भूल नहीं सकता था। देह के राग में सुनायी देती वह पुर-सुकून खामोशी जो गिरी हुई पलकों के साथ दुनियावी ही नहीं बल्कि किसी आकस्मिक खतरे की भी आशंका का अंदाजा नहीं लगा सकती थी। यद्यपि बाज दफे चैंकने के साथ देर तक घूरती रहने वाली अजनबियत भी उनकी एक अदा थी। प्रेम का राग रँग उम्र के बंधनों के पार था लेकिन दुनियावी मसलों को जानने के लिए वह हर वक्त अपनी प्रेमिका के ही आगोश में नहीं रह सकता था। हाना स्मिथ भी कहाँ परे थी वैसी गतिविधियों के जंजाल से जो जीवन को चलाने के लिए रोजी-रोजगार का बहाना होती है। बस की कंडक्टरी में टिकट काटते-काटते वह भी थक ही जाती थी। लेकिन किसी अनिश्चित समय में अपने ठिकाने वापिस पहुँचने वाली बस में एक रोज बैठ जायेगी, इसकी कल्पना वह कैसे कर लेता भला। मानवता को त्रस्त करती भयावह स्थितियों से बच निकले ज्यूस की संतान होने के बाद भी वह नहीं जान सकता था कि वैसे ही अपराधों से निर्मित मानसिकता में ही देह की हिंसक माँसलता किस रँग में रंगी होती है। उसके भीतर तो हर वक्त भीतर बजता रहता प्रेम का राग हाना- हाना दोहराता था। नहीं जानता था कि यूं मुलाकत होगी उस एकाएक गायब हो गये चांद से जिसके बदन की रोशनी में ममत्व का गहरा सुकून और एक साथी की खुशबू तक के कोमल अहसास लम्बे फासले के बाद भी पीछा करने वाले साबित हुए।
अपराध और और कानूनी जगत के मसलों को निपटाने के लिए उस ऐतिहासिक मुकदमे के आधार पर अपने मास्टर और साथियों से उलझना था उसे। मुकदमा दिलचस्प था और जमाने की नफरत में बदले की आग से धड़कते साथियों को अपराधी के प्रति पहले से ही एक राय में जकड़े था।     
धुले-धुले उजले हाथों पर बेशक भाले, बरछे और त्रिशूल की नोंक पर खींच दी गई अंतड़ियों से निकलने वाले गाढ़े रक्त के निशान दिखाई नहीं दे रहे थे लेकिन हकीकत थी कि वे इतने गहरे थे कि एक सचेत नागरिक के लिए उन्हें देखना कतई मुश्किल नहीं था। संवेदनशील लेखक के लिए तो और भी मुश्किल नहीं। उनकी ललायी के तेजोमय रूप पर ही न्यौछवर थी भक्तों के मन में उमड़ती श्रद्धा। सम्मान पत्र की अपारदर्शी सतह भी उन्हीं के असर से प्रदीप्त हो कर पारदर्शी हो रही थी। लेकिन पीछा ही नहीं छोड़ रहा था उनका वीभत्स रूप।
कैसे न दिख रहा होगा दूसरों को भी यह सब ?’
मन के भीतर ही भीतर उठी थी आवाज और परेशानी के भाव चेहरे पर एकबारगी फिर से उभर आये थे।  ऐन उसी वक्त अदाकारा हाना स्मिथ की स्मृतियाँ तार्किक सहारा देती रही।
अपने ऊपर लगे आरोपों को बेशक अनंत तक इंकार करने वाली दृढ़ता से परे थी हाना लेकिन किसी भी तरह की गिड़गिड़ाहट उससे कोसों दूर थी। उसका यही प्रबल पक्ष लेखकीय चेतना का आधार था। क्या मुझे अपराधी मानने वाले वस्तुगत स्थितियों को नही देखना चाहते ? उस स्थिति के बीच क्या उन्हें खुद का किसी दूसरे अपराध में निर्लिप्त होना दिखायी न देने लगेगा, बेशक ओरोपित भी न हुए हों चाहे ?
अपराध के साबित हो जाने का भय हाना स्मिथ को सता नहीं रहा था। बल्कि उसके व्यक्तित्व की दृढ़ता का प्रभाव इतना गहरा था कि भीतर ही भीतर ढेरों सवालों से उलझ रहा दर्शक भी दीवारों तक को खामोश कर देने वाले सवालों के जद में आ जाये और न्यायधीश एवं अदालत में मौजूद लोगों का अभिनय कर रहे पात्रों की तरह वह स्वतः ही निरूत्तर हो जाये। इसे सिर्फ फिल्मकार के भीतर के उदगार ही नहीं माना जा सकता कि दृश्य में नाटकीय मोड़ देने के लिए उसे एक ऐसे पात्र को भी वहाँ रखना था जो उस वक्त भी तफसीलों के आधार पर चालू बहस मुबाहिसों को झूठा बता सकता था। प्रकृति में मौजूद द्वंदात्मकता इसी का नाम है। पानी की तरलता में ही ठोस बर्फ हो जाने की स्थितियाँ छुपी होती हैं। संभावनाओं के पौधे पृथ्वी के ध्वंस के बाद ही जन्म लेते हैं। अपने समूचे अनुभव सत्य के हवाले से वह बीच मुकदमे के चिल्ला सकता था कि अपराध के कबूले जाने का कारण आरोपित का नाजी कैम्प का गार्ड होना कतई नहीं है।
किसी भी तरह का कोई लिखित आदेश वाला पूर्जा जो अपराध के साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया गया, उसके किसी नाजी कैम्प का गार्ड होने का सबूत हो नहीं सकता मि लार्ड।लगाये जा रहे आरोपों को इस आधार पर ही खारिज किया जा सकता हैं कि पेशे के रूप में ट्राम कन्डेक्टरी करने वाली आरोपिता तो पूरी तरह से अशिक्षित है, किसी भी तरह का कोई लिखित आदेश देना उसके लिए संभव ही नहीं। यकीन न हो तो आप उसे उसकी सबसे पसंदीदा कहानी द लेडी विद डॉगपढ़ने को दे दीजिये चाहे। 
नाजी बर्बरता के युद्ध अपराधी अमेरिकी ऑटो चालक जॉन देमजानजुक की कहानी से फिल्म का कोई संबंध नहीं था। लेकिन उस बर्बरता के गहरे घावों से बिलखते आज तक समय में भी उसे कानून आधार पर उम्र के आखिरी पायदान में होने का लाभ दिया नहीं दिया जा सकता था। सत्ताईस हजार नौ सौ ज्यूस को सोरबीबोर बोर एवं मजडेक नाजी कैम्पों में मौत के घाट उतार देने के जघन्य अपराध में लिप्त उस आरोपी को अदालतें माफ नहीं कर सकती थी। बेशक मृत्यु ही उसे निरपराधी होने का अवसर वरण कर देने वाली हो जाये। अदालतें उसकी पहचान को परत दर परत उतार देना चाहतीं थी। प्रस्तुत होते साक्ष्य बता रहे थे कि नाजी सेना के हाथों गिरफ्तार हो चुके इवान देमजानजुक ने ही भीख में मिले प्राणों के लिए कैम्प गार्ड होना स्वीकारा था और बाद में अपनी पहचान को छुपाने के लिए जॉन देमजानजुक होकर अमेरिकी नागरिक हो जाने में ही अपना भला माना था।  
गाड़ियों की चपेट में उड़ता जा रहा वह कागज अपने रंगीनपन में फिल्म की अदाकारा कैट विंसलेट की तस्वीर होने की संभावना जाता रहा था। हाना स्मिथ के रूप में उसका अभिनय तब भी स्मृतियों को झकझोर दे रहा था।
दैहिक उछाल के वे कितने ही दृश्य थे जिनमें सिर्फ स्पर्श की भाषा में साथ होना उस किशोर को स्कूल में पढ़े गये अध्यायों को दोहराने के लिए उत्सुक किये रहता। द लेडी विद डॉग। खुली हुई किताब में दर्ज कहानी को मुग्ध भाव से सुनती हाना खुद पढ़ने की स्थितियों को टालती जाती। अदालत की खामोशी में सांसे फिर भी अटकी की अटकी रह गई थी, कुछ भी कह पाना संभव नहीं हुआ। जान रहा था कि एक सच की अभिव्यक्ति में दूसरे कितने ही सत्यों को उदघाटित करने के साक्ष्य जुटाने के लिए फिर उसी हाना स्मिथ के बयानों को गवाह होना होगा, जबिक हाना के भीतर बैठा फिल्मकार उसे अपराधी साबित हो जाने की हद तक मजबूर किये था। वह खुद ही अपने अपराध को कबूल चुकी। भीतर मौजूद बदले की यहूदी पहचान भी हिटलर के नाजी कैम्पों के सुरक्षागार्ड को अपराधी नहीं मानने दे रही थी पर।  
मानवता को गैस चेम्बरों में जिन्दा जला देने वाले निर्मम हत्याकाण्ड की दोषी वह, अपनी देह के कटाव से नहीं बल्कि अपने तर्कों से न्यायपालिका की दीवारों तक को खामोश कर रही थी।
उसे फिल्मांकन मात्र नहीं, जमाने की हकीकत का सन्नाटा कहा जाना ज्यादा ठीक होगा।
वह चलचित्र नहीं था और न ही कोई रेडियो रूपक। एक कवि का बयान था, जो फोन में दी जा चुकी स्वीकृति के बाद खुद को एक ही तरह से दोहराता- हम तो जमीन का ही आदमी हूँ... खिचड़ी-पिचड़ी कुछ भी खा लूंगा। यूं कागज का अभाव तो नहीं ही रहा होगा। लेकिन एक अव्यवस्थित जीवनशैली को जीने में खत लिखने जैसे मामूली काम को ही सब कुछ क्यों मान लिया जाये। फिर जिस समाज में जुबान के झूठ हो जाने पर मूँछ कटवा देने वाली मर्दानगी एक मुहावरे के रूप में चहुँ ओर व्याप्त हो, वहाँ कही गयी बात को लिखे से ज्यादा महत्व क्यों न दिया जाये?
गनीमत होती कि बदलती दुनिया जुबान के कोरे पन को व्यवहार की पारदर्शिता तक कायम रखती। यकीनन दुनिया का बड़ा सा बड़ा फैसला भी, पीढ़ी दर पीढ़ी समाज को संचालित करते हुए संस्कृति का हिस्सा हो गया होता। लेकिन चालाक मंसूबो वालों ने संसाधनों पर कब्जे का जो आलम रचा है उसमें कायदे कानूनों के लिखित रूप का महत्व बढ़ा है, उनके अनुपालन की चौकसी के लिए अदालती व्यवस्था में कितनी ही बार झूठ को भी सच की तरह प्रस्तुत करना साक्ष्य हुआ है। सच को सच की तरह दिखा सकने वाली व्यवस्था के कानून, मात्र लिखित दस्तावेज से नहीं बल्कि समाज निर्माण की प्रक्रिया में ही अपना होना साबित कर सकते हैं।
एक सफेद कागज के लिए इतना घमासान !! ऐसा उसने कल्पना में भी कभी नहीं सोचा था। उस वक्त वह डिस्पेंसरी की उस धक्का-मुक्की के साथ था, जहाँ दवाओं के परचे बाहर को सरकते जा रहे थे और अभ्यर्थना के बावजूद मायूस हो जाते चेहरों की गहरी छायाएं, अस्पताल के बाहर दवाओं की दुकानों पर पर्चा आगे बढ़ाने को मजबूर करती जा रही थी। भला कब तक लाइन लगाए!! और कहीं काउंटर के एकदम नजदीक पहुँच जाने पर अन्दर से बाहर की ओर झांकती आँखें गुस्से से तरेरती हुई बिलबिला पड़ें तो...!!
कदम थे कि उस ऑफिस को खोज लेना चाहते थे, जहाँ एक नहीं दर्जनों सफेद कागज यूँही मुड़े-तुड़े से बिखरे पड़े हो सकने की संभावनाओं के साथ थे- किसी क्लर्क के डस्टबिन में भी।
‘‘ऑफिस कहाँ है ?’’
अपने मरीजों की परेशानी में घिरे लोगों को किसी दूसरे के सवाल से जूझने की फुर्सत नहीं थी। मज़ार से लेकर पीपल के पेड़ तक के गोल घेरे का तीसरा चक्कर लगाया जा चुका था। ऑफिस कहीं नजर नहीं आता था। एक बड़ा सा कमरा था जो अपने सामने की चारदीवारी के टूटे होने की वजह से सड़क से ही साफ नजर आता था, साइकिल स्टैण्ड वाले ने उसी ओर इशारा करते हुए कहा था,
‘‘वो तो रहा’’, 
ऑफिस के ठीक सामने की चारदीवारी टूटी हुई थी। सड़क पर खुलते उसके दरवाजे के कारण उसे अस्पताल का हिस्सा नहीं माना जा सकता था। लेकिन हकीकत उसके उलट थी। टूटी हुई दीवार को टाप कर सामने की हलचल भरी सड़क पर सरपट दौड़ा जा सकता था। ऑफिस में बैठा क्लर्क बहुत अक्खड़ था- सीधे जवाब देने की बजाय टका सा जवाब ही उसकी जबान से फूटा,
‘‘खैरात बंट रही है क्या ... दुकानें हैं बाहर ... एक छोड़ दस लो।’’
मन तो हुआ कि सुना दे अभी कि खैरात बटती है क्या उस वक्त जब दोपहर का खाना खाते हुए बड़ी बेरहमी से बिछा लिया जाता है एक नया नकोर कागज यूं ही ? डस्टबिन में पड़े, सब्जी के दाग लगे कागजों ने ध्यान खींचा था। पर घायल साथी के पास तुरन्त पहुँच जाने की जल्दबाजीं ने मुँह को खुलने से रोक दिया। अपनी परेशानी को जाहिर कर दयनीय दिखने की इच्छा भी न थी। गुस्सा क्लर्क पर नहीं अपने पर ही था, एक कागज के लिए इतनी क्यों सुनूं ! टूटी हुई चारदीवारी के बाहर दृश्य उम्मीद जगाने वाला था।
कागज की दुकान में मार-कागजों के बण्डल उतर रहे थे। पल्लेदार बण्डलों को पीठ में रखते और सड़क से कुछ ऊपर उठी हुई उस दुकान में, सीढ़ियों वाले रास्ते से उपर चढ़कर एक ओर पटक देते। दुकान का नौकर उन्हें व्यवस्थित करने में जुटा था और व्यापारी बेफिक्र मुद्रा में फोन पर बतिया रहा था। माल को यहाँ से वहाँ पहुँचने की सूचना लेते-देते हुए वह अपने में ही व्यस्त था। एक फोन पर बात चल ही रही होती कि दूसरा फोन बज ही रहा होता। जरूरी निर्णय शायद उस अकेले को ही लेने थे, उसकी व्यवस्तता को देखकर अँदाज लगाया जा सकता था कि गहमा-गहमी में चलने वाली इस दुनयिां की गतिविधियाँ कैसे मात्र कुछ सीमित लोगों के द्वारा जारी रहती हैं। समय पर आर्डर न पहुँचा पाये ग्राहकों से ढेरों बहाने बनाते हुए वह अगले रोज माल पहुँच जाने के वायदे ही करते जा रहा था। व्यवस्त व्यापारी से तो कुछ भी कहना-पूछना संभव नहीं था और कागजों की इतनी बड़ी दुकान में एक कागज के लिए किसी ने कुछ पूछ जाने पर मिल जाने वाले कैसे भी जवाब की आशंका ने संकोची ही बना दिया था। कागजों के बण्डल को सेट कर रहे नौकर से पूछते हुए खुद को ही लग रहा था कि जैसे मिन्नतें की जा रही हैं। मिन्नतों भरी उस आवाज का ही असर था कि नौकर ने झिड़का नहीं, आराम से ही कहा,
‘‘एक कागज की तो यहाँ कोई गुँजाइश ही नहीं है भैय्या... कोई रिम फट-फटा गया होता तो भी बात थी...‘‘
मायूसी भरे चेहरे पर उभरे वे न जाने कैसे भाव थे जिनका मायने नौकर ने जब अपनी तरह से निकाले तो तसल्ली के दो बोल उसकी जुबान पर आ गये थे,
‘‘...यार एक कागज तो कहीं भी मिल जाएगा...न हो तो किसी पनवाड़ी से ही ले लो।’’
पनवाड़ी की दुकान के बगल में ही टेलीफोन-बूथ था। रात के आठ बज चुके थे और कॉल रेट आधा हो चुका था। यूं ग्यारह बजे के बाद एक चौथाई रेट पर बात की जा सकती थी। लेकिन इतनी रात को किसी शरीफ आदमी और वह भी जिसके कृपा भाव से आप पहले ही खुद को कृतज्ञ महसूस किये हों, फोन नहीं किया जा सकता था। ऐसे में सामान्य वक्त पर ही फोन किया जा चाहिए, बेशक कितना भी खर्च आये। फिर कौन सा बहुत लम्बी चौड़ी बात करनी थी। आदर के साथ सूचना देते हुए डाक पता ही तो माँगना था। ताकि कार्यक्रम की विस्तृत सूचना भेज कर सहमति की दरख्वास्त की जा सके।
यूं ज्यादातर कवियों के पते हासिल हो गये थे लेकिन... ‘‘उनका पता कहाँ से हासिल हो जिन्हें खुद का पता नहीं।’’ कार्यक्रम को योजनाबद्ध तरह से आयोजित करने में सहयोग दे रहे युवा कार्यकर्ता के मित्र कवि ने अपने अँदाज में चुटकी ली थी। चुटीलेपन के बावजूद अभिव्यक्त भावों का सार कवि के प्रति गहरे सम्मान से भरा था। यह एक ऐसे कवि के पते को खोजना था जिसकी कविताओं में दुनिया के महीन से महीन आब्जेक्ट स्वतः दर्ज हो जाते थे और पाठक के भीरत दुनिया को रंगीन बनाने का स्वप्न भरने लगते थे। गहरे आदर और सम्मान से पुकारे जाने वाले ऐसे रचनाकार का जीवन महत्वाकाँक्षाओं के दुनियावी झँझट से परे मेहनतकशों के संग साथ का हिस्सा होने की कथा था। उन गतिविधियों का हिस्सा जहाँ संघर्ष का रूप कुछ हद बदलाव की सीधी कार्रवाइयों में ही बीता हो, मानो। बहुत देर तक फोन में बतियाते ऐसे कवि को साक्षात उसके शब्दों में सुनना एक अदभुत अनुभव था। उधर, कवि भी बातों का लम्बे से लम्बा किये जा रहे थे। जारी बातचीत को बीच में काट कर प्रिय कवि की तौहीन नहीं की जा सकती थी। फिर वे बातें भी कितनी तो आत्मीय थी ! उनके नशे में यह ध्यान भी कहाँ रह सकता था कि कितने पैसे हैं जेब में। उलटनी भर बाकी थी। चेहरे पर लाचारी के भावों को पढ़ कर ही बूथ वाला मामले को समझ गया था,
‘‘कोई बात नहीं भाई साहब... मैं समझ रहा हूँ कि कोई जरूरी बात रही होगी जो इतना लम्बा फोन करते हुए आपको बिल का ध्यान भी नहीं रहा... बाकी पैसे बाद में दे दीजिये... न तो मैं रोजगार बँद कर रहा हूँ और न आप भागे जा रहे हैं।’’
दुकानदार वाकई मासूम इंसान था। नहीं जानता था कि बाजार जिस तरह से हर चीज पर अपना कब्जा किये हैं, उसमें किसी भी उत्पाद और उस उत्पाद से जुडे़ दूसरे पहलू की उम्र, मसलन वह रोजगार भी हो चाहे, कितनी है। तकनीक के सर्वोत्कृष्ट रूप को पूरी तरह से छुपाते हुए और तकनीक के बेहद सूक्ष्म बदलावों से ही उत्पाद को अपग्रेडड कह कर बेचने वाले बाजारू षडयंत्रों की हिफाजत करते विज्ञान का बेड़ा गरक हो जिसने आमजन पर जारी आक्रमणों के लिए हथियार होना स्वीकारा है। रोजगार के लगातार कायम रहने की गहरी उम्मीद से था दुकानदार। एक सज्जन से दिखते व्यक्ति को अपना पक्का ग्राहक बनाये रखना चाहता था।
आत्मीय रचनाकारों की आत्मीय बातचीत के आगे कितनी भी रकम कोई मायने नहीं रखती थी ! लेकिन आत्मीयता के वास्तविक मायने तो व्यवहार से जन्म लेते हैं। उस वक्त यही इहलाम हुआ था जब व्यवहार का धरातल मुसीबत में डाले था। आयोजित कवि सम्मेलन का घोषित समय करीब से करीब आता जा रहा था और प्रिय कवियों की कहीं कोई खबर न थी। यूनियन के पदाधिकारी चिन्तित थे। अपनी सीमाओं को पहचानते हुए जिम्मा उस अकेले युवा कार्यकर्ता को सौंपा हुआ होना उन्हें अब सताने लगा था। जानते थे कि वरिष्ठता के नाते उनकी जिम्मेदारी ज्यादा है। कार्यक्रम संबंधी सवाल जवाब करने वाले भी उन्हीं से मुखातिब थे। लेकिन कार्यक्रम कब और कैसे शुरू होगा, कोई भी सटीक जवाब न दे पाने को वे मजबूर थे। उनकी सीमा युवा कार्यकर्ता की सूचनाओं पर ही निर्भर थी और युवा कार्यकर्ता के पास कवियों के पहुँचने की कोई सूचना नहीं थी। ऐसा वे मान ही नहीं सकते थे कि युवा कार्यकर्ता कैसी भी सूचना से पूरी तरह अनभिज्ञ हो लेकिन उनके कुछ समझ नहीं आ रहा था, माजरा क्या है ! युवा कार्यकर्ता के पास बताने को कुछ नहीं था। उसकी कोशिशें तो कार्यक्रम को निर्धारित समय पर शुरू करने की थी।    
पनवाड़ी के बगल वाले टेलीफोन बूथ के बाहर ही उसकी बेचैनी का जलजला उस वक्त भी अपने घरों में ही बैठे कवियों को कैसे होता भला । हवाई यात्राओं से घर लौट कर थकान मिटा रहे कवि तो जान ही नहीं सकते थे कि सदस्यों से चंदा लेकर जुटाये गये धन से आयोजित किये जाने वाले कार्यक्रमों के प्रति किस तरह की जवाबदेही आयोजकों को जकड़े होती है। सरकारी खर्चे पर यात्रा करते हुए चँदे के दम पर आयोजिम होने वाले किसी कार्यक्रम में उपस्थिति होने की दी गयी सहमति के उनके लिए कोई मायने नहीं थे। लेकिन युवा कार्यकर्ता ऐसा मान नहीं सकता था। प्राप्त हुए पत्रों की भाषा, टेलीफोन में हुई बातें और पढ़ी गयी रचनाओं के तथ्य उसके यकीन को तोड़ नहीं सकते थे। वह अनुामन नहीं लगा सकता था कि जनपक्षधरता के अन्तर्राष्ट्रीय स्तर को हासिल कर चुके कवियों के लिए एक मजदूर यूनियन के कार्यक्रम में उपस्थित होने का कोई आकर्षण शेष नहीं बचा होगा। या, उन कवियों की प्राथमिकता विशिष्टताबोध में ही अपना कवि होना देख रही थी। उसके पास ऐसी कोई सूचना भी नहीं थी कि राजशाही की व्यवस्था को एक सीमित रूप से सत्ता से उतार कर जनतंत्र को कायम करने के लिए आगे बढ़ रही पड़ोसी देश की सरकार ने जनपक्षीय चेतना को विस्तार देने के लिए वैसा ही कोई कार्यक्रम आयोजित किया है जिसमें स्थापित जनपक्षधर रचनाकार का बुलावा सरकारी खर्चं पर निर्धारित है। हवाई उड़ान और दूसरी राजकीय सुविधायें ही नहीं बल्कि खुद को और ज्यादा जनपक्षधर साबित करने का इससे दुर्लभ मौका कोई दूसरा हो नहीं सकता था। कवि कार्यक्रम में सहर्ष उपस्थित होने के साथ थे और यात्रा से घर वापिस लौट आने के बाद परिवार के सदस्यों के बीच अपनी पहली हवाई यात्रा के अनुभव और राजकीय सुविधाओं के किस्सों का लुत्फ उठाना चाहते थे। ऐसी किसी भी सूचना का अनुमान लगा सकने का अधार युवा कार्यकर्ता के पास नहीं था। उसकी स्मृतियों में तो खिचड़ी खाकर कहीं भी रात गुजार लेने जैसी बातों का यकीन था।
कोई गाड़ी दूर से आते हुए दिखायी देती तो निगाह उसी ओर उठ जाती। समय बीतता जा रहा था और युवा कार्यकर्ता की बेचैनी बढ़ती जा रही। सारे के सारे कवि रास्ते में कहाँ अटक गये, उसकी समझ से बाहर था। सूचना के मुताबिक वे राजधानी में एक जगह पर मिलने वाले थे और वहाँ से जरूरत के हिसाब गाड़ी बुक कर सीधे चले आने वाले थे।
सूचनाओं को सत्य मानते हुए, युवा कार्यकर्ता और आयोजन में सहयोग दे रहे स्थानीय रचनाकार अनुमान कर सकते थे कि हो न हो प्रिय कवि इस वक्त रास्ते में लगे हुए किसी जाम में फंसे होगें और समय पर पहुँचने की छटपटाहाट उन्हें भी जरूर बेचैन किये होगी।
कितनी भी विपरीत परिस्थितियों में दोपहर में राजधानी से चली गाड़ी को अब तक पहुँच ही जाना चाहिए था, मुझे तो कुछ और ही लफड़ा लगता है।
हो न हो, शहर में पहुँच ही चुके हों और भटक रहे हों इधर से उधर। हमें मालूम करना चाहिए किसी तरह।
लेकिन हो कहाँ सकते हैं,...
ऐसा कर तू दिल्ली फोन कर, घर पर तो कोई न कोई होगा ही। बस इतना मालूम हो जाये कि वहाँ से कितने बजे निकले तो सोचते हैं
किस गाड़ी से निकले, यदि उसका नम्बर भी मिल जाये तो....
बेशक जिम्मेदारी अकेले युवा कार्यकर्ता की थी लेकिन वह उतना अकेला नहीं था। उस छोटे से शहर के वे सब लिखने पढ़ने वाले उसके साथ थे जिन्होंने ने भी सुना था कि कवि सम्मेलन में उनके ऐसे प्रिय कवि आमंत्रित हैं जिनको सुनना ही नहीं जिनका सानिंध्य ही एक दुर्लभ अनुभव हो सकता है। हर संभव सहयोग देने के साथ वे भी उसी तरह बाट जोह रहे थे जैसे यूनियन के दूसरे साथी।
टेलीफोन बूथ खाली था। समयचक्र के साथ कॉल दरों का वह फुल रेट वक्त था। कुछ ही देर में आधे रेट हो जाने की ओर खिसकती सूइयाँ राहत देने की बजाय आतंक मचाये थी। सुइयों के हाफ रेट बिन्दु तक पहुँचने का इंतजार करना, धैर्यवान कहलाना नहीं हो सकता था। आधे रेट के इंतजार में कॉल करने वालों की धक्क मुक्की में हो न हो बूथ जब खाली मिले तब तक वह चौथाई दर में कॉल  करने तक इंताजर करवाने वाला हो जाये। फुल रेट कॉल  दर वाले उस वक्त में ही टेलीफोन घन-घना दिया गया।
राजधानी की टेलीफोन लाइन से जुड़ती और सीधे कवि महोदय के निर्धारित अध्ययनकक्ष में रखे टेलीफोन में उठती एसटीडी घनघनाहट ने बेसुध होकर सो रहे कवि की नींद में खलल डाल दिया था। प्रत्युतर में दूसरी ओर सुनायी देती खरखराती आवाज का उनींदापन कवि महोदय की ही आवाज का भ्रम देता हुआ था लेकिन उस पर यकीन नहीं किया जा सकता था। आँखों देखे और कानों सुने के बाद भी झूठ हो जाने वाली स्थितियों को पार फेंकता वह टेलीफोन वार्तालाप उस कवि से ही जारी था, राजकीय यात्रा की थकान से जिसका बदन टूटा हुआ था। आवाज में ऐसी तटस्थता थी जो बहुत वाचाल को भी बात आगे बढ़ाने का सिरा नहीं पकड़ने दे। संकोचपन की छायी चादर तो हट ही नहीं सकती। खामोश ही बना देती है। घर छोड़ कर कहीं भी न निकल सकने वाली उनकी व्यस्तता के रूखेपन में जो कुछ सूचनार्थ था वह आश्चर्य में डालने वाला था और क्षणाँश के लिए ही नहीं वर्षों-वर्षों की खामोशी में डूब जाने को मजबूर करने वाला था।
‘‘माफी चाहता हूँ भाई... पहुँच नहीं पा रहा हूँ। घरेलू व्यस्तताओं में घिर गया हूँ, साले को एयरपोर्ट छोड़ने के लिए निकल रहा हूँ... आज ही इंग्लैण्ड जाना है।’’
हवाई यात्रा से लौटे कवि को असमर्थता जाहिर करने के लिए शायद हवाई यात्रा की ही तुकबंदी ज्यादा उपयुक्त लगी हो। वरना इंग्लैण्ड जाना मतलब चावड़ी बाजार जाना नहीं था। न तब न अभी तक। वे कवि थे। सचमुच के कवि। यूँही कहलाने भर वाले कवि नहीं। साहित्य की जनपक्षधर धारा के सर्वमान्य कवि। किसी भी मनःस्थिति में लम्बे समय तक रहने वाला उनका कविपन हवाई यात्रा से बाहर नहीं था।

रास्ते में फँस जाने के कारण नहीं, घर से ही न निकल पाने के लिए क्षमाप्रार्थी थे वे। खिचड़ी खाकर कहीं भी कमर सीधे कर लेने वाले शरीर हवाई जहाज की गुदगुदी गद्दी का मुलायमपन बरदाशत नहीं कर पाये थे शायद और कमर बुरी तरह से दुख रही थी। बिस्तर से उठना मुश्किल था,
वरना कोई वजह नहीं थी कि अपने मजदूर भाई बुलाये और हम न पहुँचे। मार ठेल के निकल भी लेते तो मँच पे तो चढ़ नहीं पाते। का करें बहुते शर्मिंदा हैं हम तो।
पारिवारिक दायरे के कवि, रोग की महामारी की जद में थे। पत्नी और बच्चे की तीमारदारी के लिए महामारी ने केवल उन्हीं के स्वास्थ्य को बख्शा था। इसीलिए मन के भीतर कचोट थी कि यार निकल ही क्यों न लें।
ज्वर से करहाते बच्चे को छोड़ कर निकलना संभव नहीं है कामरेड, आप अन्यथा न लें। मेरी ओर से यूनियन के सभी लोगों से क्षमा माँग ले।
कागज के बण्डलों को दुरस्त करने में जुटे दुकान के कामगार के अलावा किसी ने भी नहीं कहा, क्षमाप्रार्थी हूँ दोस्त, एक भी ब्लैंक पेपर नहीं इस वक्त तो।
तकलीफ से जूझ रहे दोस्त का मामला न होता तो इतना जूझने का सवाल नहीं था। डॉक्टर पर भी गुस्सा आ रहा था, क्या खुद एक कागज जुटा कर उस पर दवा का नाम लिख कर नहीं दे सकता था। डॉक्टर न हुआ, कानून का पुतला हुआ। निर्धारित काम से न इधर न उधर। क्या इतने क्लेरिकल लोगों को चिकित्सा जैसे क्षेत्र में स्वीकृति मिलनी चाहिए?  
मानवता के रक्त सने हाथों का उजलापन तो कोई उजलापन नहीं। उन हाथों से मिलने वाला पुरस्कार मानवीयता के प्रति बेमानी है।
पुरजोर हो विरोध।

कितने ही सवाल युवा कार्यकर्ता को व्यथित किये थे। सार्वजनिक जिम्मेदारी का बोध न होता तो औंधे होकर लेटने के अलावा कोई दूसरा विकल्प न सूझता। उधर मंच तैयार था। श्रोता आतुर थे।
एक व्हाईट ब्लैंक पेपर के मिलने की सभी संभावनाओं से टकराने के बाद भी निराश होकर नहीं लौटा जा सकता था। तकलीफ से पीड़ित साथी को स्वस्थ करने के लिए दवा का लिया जाना जरूरी था।
न सही एक मुकम्मल कागज, साफ-सुथरा सा कोई टुकड़ा ही मिल जाये।
उम्मीदों के रास्ते ही एक कागज की दरकार में वह ऐसी सड़क तक पहुँच गया था जहाँ भागम भाग कुछ ज्यादा थी। एक बड़े गोल चैराहे से आते ट्रैफिक की बाँह कहना ज्यादा सही। गाड़ियों की एक तरफा रफ्तार थमने का नाम न लेती थी। कोई क्षणिक अंतराल भर होता जब किसी एक दिशा से निकलती गाड़ियों के काफिले को रोककर दूसरी दिशा से आने वाली गाड़ियों की रवानगी की हरी बत्ती को ऑन कर चुका ट्रैफिक कन्ट्रोल सिस्टम चालू था। अनगिनत दिशाओं वाले गोल चौराहे की उस बाँह के एक ओर से दूसरी ओर पार करने का मौका ढूढना आसान नहीं था। उड़ते हुए कागज तक पहुँचने में लगातार की रुकावट थी।
सड़क के उस पार उड़-उड़ जा रहे उस कागज पर टिकी मेरी निगाहों से वह इस कदर परेशान था कि अपने से पहले मुझे उस कागज तक पहुँचने नहीं देना चाहता था। मेरा हाथ पकड़ कर उसने ठीक उस वक्त व्यवधान डाला था जब मैंने कदम बढ़ाया ही था। मुझे उसका इस तरह अवरोध पैदा करना अच्छा नहीं लगा। बल्कि मैं गुस्से में भड़क सकता था लेकिन सड़क पार कर लेने का अवसर मैं भी गँवाना नहीं चाहता था। जैसे-तैसे मैंने पहली लेन को पार कर लिया था और सड़क के बीच ऐसी सुरक्षित जगह पर रूक गया था जहाँ आती हुई गाड़ियों से बचने के लिए मैं कुछ सिकुड़ कर खड़ा तो हो सकता था लेकिन वहॉं से पीछे लौट कर अपनी पूर्व स्थिति में जाना भी अब मेरे लिए संभव नहीं था। आगे निकलने के लिए मुझे एक लेन पार करने भर का अवकाश निकालना था। वह भी मेरी तरह, बस एक लेन भर के फासले पर बीच सड़क में दुबका था। कागज की बजाय उसकी निगाहें अब भी मुझ पर ही टिकी थी।   
कोई ऐसा ही वक्फा था, ट्रैफिक कुछ थमा हो माने। पार की जाने वाली लेन पर कोई गाड़ी नहीं थी। लपक कर हम दोनों ने ही सड़क पार कर ली थी और एक साथ ही उस कागज तक पहुँच गये थे। तेज रफ्तार से दौड़ती गाड़ियों के बीच डोलता वह कागज काफी हद तक फट चुका था। चीथड़ों पर रास्ते की धूल और काले से द्रव्य की चिपचिपाहट थी। तस्वीर बनाने के लिए न तो उसका कोरापन शेष बचा था न ही रंगीनी सतह की चिकनाहट। झपट कर हाथ आये टुकड़े को भी, मैंने उसी की ओर उछाल दिया।
उसके हाथ में जो टुकड़ा था, उपचार के लिए लिखी जाने वाली दवा भर की जगह का कोरापन उसमें भी शेष न बचा था लेकिन वह अब भी उम्मीद से था और मेरे द्वारा उछाल दिये गये टुकड़े को हवा में ही पकड़ लेना चाहता था। 

समकालीन आलोचना के दायरे बाहर

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वर्ष 2019 में कवि राजेश सकलानी का कविता संग्रह ‘’पानी है तो फूटेगा’’ राहुल फाउंडेशन ने प्रकाशित किया। हिंदी आलोचना की सीमा, दयनीयता और गैर पेशेवराना रवैये के चलते हिंदी का ज्यादातर पाठक संग्रह से अपरिचित ही रहा। जबकि यह कहना अतिश्योक्ति नहीं कि राजेश सकलानी की कविताएं न सिर्फ भविष्य की हिंदी कविता के लिए बल्कि सामाजिक, राजनैतिक संघर्षों की दिशा के लिए भी एक टर्निंग प्वा‍इंट साबित होने की संभावना से भरी हैं। क्रूर एवं मजबूत होती राज्या व्यंवस्था के विरूद्ध आवाम की जीत कैसे सुनिश्चित हो, राजेश सकलानी के कवि चिंतन की दिशा उसका प्रमाण है। ‘’पानी है तो फूटेगा’’ के प्रकाशन के बाद राजेश सकलानी की कविताओं का स्‍वर किस दिशा में आगे बढ़ता हुआ है, उसे समझने के लिए प्रस्तुत हैं उनकी कुछ नयी कविताएं 
हिन्दी कविता में उदात की अवधारणा से भरे तत्वों को खोजा जाये तो बहुत ही क्षीण उपस्थिति दिखती है। वर्ग विभेद की प्रभावी अवधारणा को धारण करती कविता में भी उनकी उपस्थिति बहुत उल्ले खनीय तरह से उभर नहीं पाती है। जबकि उदात का संबंध ही शोषक विहीन, शोषण विहीन समाज की अवधारणा से है। संघर्ष के रणनीतिक पहलू से दूरी बनाकर चलने के कारण भी ऐसा हुआ हो, ऐसा माना ही जा सकता है। शत्रु की पहचान, उसके आक्रमण एवं अत्यााचारों के विरुद्ध प्रतिरोध तो भरपूर तरह से आता है लेकिन उनकी परिणति संवेदना के जागरण पर पहुंच कर विश्राम करती हुई ही बनी रहती है। शोषित वर्ग की जीत का सपना किस तरह साकार हो सकता है, हिन्दी कविता इस ओर से अपरिचित ही नजर आती है। संघर्ष को अंजाम तक पहुंचने के लिए जिस तरह से मित्र वर्गों के बीच मोर्चेबंदी होनी चाहिए, उसके प्रति कवि के लापरवाह होने के संकेत भी यहां छुपे हुए होते 
हैं। उदात का पक्ष बनती सकलानी की कविता इस दृष्टि से ज्यादा महत्‍वपूर्ण नजर आती है। सकलानी की कविताओं में सम्प्रेषण की सारी ऊर्जा उस वैचारिकी के लिए उत्सकर्जित है जिसका प्रबल गुण उदात का संचरण करना है। जनवाद के सर्वोत्तपम रूप को हासिल करने की यह कोशिश शोषक और शोषण विहीन समाज की स्पष्ट पुकार है। भाव और विचार आपस में संगुम्फित हैं, उन्हें खण्ड-खण्ड तरह से न तो चिह्नित किया जा सकता है और न ही कवि के देखने और दिखाने के तरीके में वे विगलित होकर जगह पाते हैं। काव्यात्मक चमत्काार पैदा करना भी कवि के उद्देश्य से बाहर बना रहता है। जबकि कलात्मक कसौटी पर भी वे खरी-खरी कविताएं होकर सामने हैं। अपने समकाल में विन्यशस्तय उनके कथ्य भविष्य‍ की आशवस्ति से भरे हैं और बीते हुए की वस्तुननिष्ठ आलोचना करने का अवसर प्रदान करते हैं। इस तरह से ये कविताएं एक कवि के आत्मय संघर्ष का बयान बनकर सामने आती हैं। कवि की उन चेष्टाओं का भी साक्षात कराती हैं जो षडयंत्रो के दांव पेंच से हरा दिये जा रहे सर्वहारा की क्षमताओं को निश्चित स्तर तक उठा देने का सहारा हो जाना चाहती हैं। जाहिर है ऐसा तभी संभव है जब सामूहिकता सामाजिक मूल्य के रूप में स्थानपित हो। राजेश सकलानी की कविताएं सामूहिकता का पाठ रचने की हर संभव चेष्टा करती हैं।

राजेश सकलानी की कविताएं


हमें जमीन चाहिए



हमें जमीन चाहिए आसमान चाहिए
ये धरा स्वतन्त्र है हमें समान चाहिए

क्यों किसी को दर्द हो
क्यों झुके कोई नजर
क्यों डगर में शूल हो
क्यों जिन्दगी अगर मगर

हमें सुकून चाहिए
रोजगार चाहिए
ये धरा सभी की है
हमें मुकाम चाहिए

क्यों जुलम किसी पे हो
क्यों बने ख़ुदा कोई
क्यों उपज की लूट  हो
क्यों मान पर बुरी नज़र

हमें भाईजान चाहिेए
आन-बान चाहिए
ये धरा समृद्ध  है
समाजवाद चाहिए

क्यों श्रम रहे दबा दबा
क्यों जन्म से गरीब हो
क्यों उदास फूल हों
क्यों सनम रकीब हों

हमें मजूर चाहिए हमें किसान चाहिए
ये धरा लगाव है न्यायवान चाहिए 

राम सुरेश

राम और सुरेश जब पी चुके तो
राम ने कहा मुझे कह ही देना चाहिए
वास्तव में मैं जात का दलित हूं
तब सुरेश ने कहा इससे क्या फर्क पड़ता है
मेरे लिए तुम जैसे हो वैसे ही हो
राम ने स्थिर होकर देखा
इससे तुम बड़े हो जाते हो
मैं और भी दब जाता हूं, यह गलत है
तुम जो कर चुके हो वह कर चुके हो

मुझ में समुद्र से भारी आवाज उठती रहती है
तट पर हमेशा ठाठे टकराती रहती हैं
तरल उछाले लेता रहता है
मेरा रूप रोज बनता है
एक सुहावनी दृढ़ता मेरे आकार को गढ़ती है
आने वाले हजारों हजार सालों के लिए
मेरा बदन ठोस धातु में बदलने को हैं
अभी वक्त है यदि सूर्य की तरह आभावान होना है तो
मेरी भट्टी में आकर पिघल जाओ ।


विराट घर


मैं अपने घर को छोटा क्यों करुंगा
मैं एक विराट घर में रहता हूं
मेरे अजस्र हाथ है
मैं एक भी हाथ कम नहीं करूंगा
मेरे अनंत दोस्त हैं
मैं एक भी दोस्ती कम नहीं करूंगा

तुम बुद्धू हो क्या
तुम्हें एक भी खिड़की बंद नहीं करने दूंगा

मेरे आसमान के भीतर चुपचाप समा जाओ
वरना बाहर कर दूंगा, समझे।


ज्यादा


ज्यादा ज्यादा ज्यादा
हम मिलजुल कर ज्यादा
मुठिया भी ज्यादा
और बातचीत ज्यादा

अपने खेत ज्यादा ज्यादा
खलिहान ज्यादा ज्यादा
अपनी जिम्मेदारियां हैं ज्यादा
अपने काम ज्यादा ज्यादा

अपनी भूख ज्यादा ज्यादा
अपनी प्यास ज्यादा ज्यादा
आसमान ज्यादा ज्यादा
जमीन ज्यादा ज्यादा

अपने गांव ज्यादा ज्यादा
अपने पांव ज्यादा ज्यादा
ये नगर ज्यादा ज्यादा
ये डगर ज्यादा ज्यादा

पत्ते पत्ते पत्ते
और फूल ज्यादा ज्यादा
धूप ज्यादा ज्यादा
मानसून ज्यादा ज्यादा

अपने काम ज्यादा ज्यादा
अपनी जिम्मेदारियां हैं ज्यादा ।



तंग घरों का मोहल्ला


आप जिस तरफ से आते हो
सरसरी तौर पर पता नहीं कर सकते
कौन आदमी क्या है
सारे के सारे जन किसी मोड़ पर मददगार हैं
जब मौसम खुशगवार हो तो वे बहुत भारी पड़ने वाले हैं
गांधी भी यही हैं और अंबेडकर भी
पैदल चलने वालों को भारी कठिनाई है
बांझ गाय और उपजाऊ कुत्ते खराब सेहत के बावजूद
छोड़कर नहीं जाते हैं
आप जोर से बोलो तभी सुने जाओगे
यहां आओगे तो दोबारा जरूर आओगे
एक दो मूर्ति यहां और लगेंगी
बुरी होंगी तो भी बोलती हुई अच्छी लगेगी
यहां से कुछ सारगर्भित आवाजें लेकर जाओगे
लापरवाही करोगे तो अधूरे रह जाओगे ।


हमसे दशहरा बन पड़ा



जब हम सच्चे थे तो दशहरा बन पड़ा
मेघनाथ कुंभकरण और रावण लुभावने बने
अपने चेहरे हमने मैदान में रुला मिला दिए
कोई बामण बनिया क्षत्रिय नहीं रह गया
ऊपर आसमान दलित जैसा सुंदर हुआ
मुसलमान रावण के मुकुट पर काम करता था
आंख नाक कान जाने हमारी कल्पना से ऊंचा बनाता था
हथियार खुश होकर गत्ते और मांस की खप
 चियों के बन पड़े


सारे रचनाकार गुमनाम हुए
न वो राजा हुए न पुरोहित हुए न मालदार हुए
हतप्रभ पुतले महाकाय हुए
इतने मासूम की अनुकरणीय हुए
पूरे इलाके में दिलों का मेला बन पड़ा ।


कैमरा


माफ करना मैंने चुपके से तुम्हारी सुंदर चीजें
अपने पास रख ली है
मैं उन्हें कभी लौटा नहीं पाऊंगा
तुम्हें मेरी चोरी का पता नहीं चलेगा
मेरा वक्त अच्छा निकल जाएगा
किसी को इसकी भनक नहीं होगी 
यह मेरे साथ चली जाएंगी

सुंदरता के संरक्षण के नियम के अंतर्गत
कहीं दूर देश में बल्ब जगमगा उठेंगे
बहुत जनों के होठों पर तुम्हारी जितनी
अबोध मुस्कान आएगी

अगर तुमने मेरी चोरी पकड़ ली हो
तो 100 गुना ज्यादा रोशनी प्रकाशित होगी
तुम मुझे बता दो तो
मैं खुशी से बर्बाद हो जाऊंगा ।


घोड़े

हरे मैदान में चढ़ते घोड़े
अनूठा भाव जगाते हैं


सुंदर हैं कसे हुए हैं
जाने कैसी याद जगाते हैं

जाने क्या सोचते है
कि हमें अकुलाते है

जिन्हें वास्ता है घोड़े को खूब प्यार करते हैं
चौकड़ी भरते हैं
गिरते हैं


जब तक हम जिंदा है
ज़िन्दा घोड़ों से अपना प्यारा रिश्ता है
यह दिलकश है
विधि सम्मत है
अनुभव सम्मत है

यू घोड़े भी जान गवाते हैं
पर दंगे नहीं कराते हैं ।  


लहसुन का सपना


लहसुन की प्रतिबद्धता पूर्ण है
उसमें नहीं दुराव की गुंजाइश
विनम्र है आवरण बनावट सुगठित
उसकी अंतर्वस्तु दृढ़ता से अर्जित है

कशी बंदी हैं कलियां युक्ति से
हमारे हक के लिए फूटने को तैयार
सुगंधी विस्तारित होने को तत्पर है

हमारे बचपन जैसी खिली हुई है कलियां
सही इरादों से जैसे प्रफुलता खुल जाने को है । 

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