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शंका समाधान

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झूठ की खुल जाए पोल


कितने टंगे हैं कपड़े इन बहुमंजिला इमारतों में
कितनों से चू रहा है पानी
कितने सूखने-सूखने को हैं
लाल रंग के कितने
कितने रंग छोड़ते हुए हो गए धूसर
अच्छा बताओ
सफेद रंग जो दूर तक दिख रहा,
हर बैलकनी में खिंची तार पर टंगा
क्या वह सिर्फ दीवारों का है
या दीवारों पर भी डली हुई चादरों का,
गद्दे रजाईं के लिहाफों
या बच्चों की स्कूली ड्रेस का

टंगे हुए कितने कपड़े हैं बच्चों ंके
बड़ों के हैं कितने
मर्दुमशुमारी करने वालों के लिए
यह कोई तथ्य नहीं

सूख रहे बुर्को को भी दर्ज कर लो
साड़ियां घूंघट के साथ कितनी है
कितने के लहरा रहे पल्ले कंधों पर
बेशक न पता लगा पाओ पहनने वाले की उम्र,
पर दर्ज कर ही लो सूट-सलवार भी

सारे का सारा आंकड़ा करो इस तरह तैयार
कि उनकी मर्दुमशुमारी का आंकड़ा
हो जाए दुरस्त
जो पेज दर पेज भर दे रही
झूठे आंकड़ों को


(यह कविता मुझे पूरी तरह से मेरी मूल अभिव्यक्ति नहीं लग रही है। नहीं जानता किस कवि का प्रभाव मेरे भीतर रहा होगा उस वक्त जब यह लिखी गयी। यदि ऐसा नहीं है तो भी मैं तब तक इसे मूल रूप से अपनी कविता नहीं कह सकता जब तक कि दूसरे भी इसे न पढ़ लें और बता पायें कि किस कवि की संवेदनाओं के प्रभाव में यह लिखी गयी।
विजय गौड़)


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