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यह है राग भोपाल

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दुश्‍मनों से लगातार लड़ते रहने वाले और लड़ते-लड़ते ही शहीद हो जाने वाले कवि पाश की कविता का सूत्र वाक्‍य, ''बीच का रास्‍ता नहीं होता'' , आज यकायक याद आया और याद आयी कवि सिद्धेश्‍वर की वह कविता जिसमें पाश की सिखावन के बावजूद बीच के रास्‍ते को पूरी तरह से अस्‍वीकार न करना अभिष्‍ट है। कविता अंतिका प्रकाशन से प्रकाशित सिद्धेश्‍वर के काव्‍य संग्रह ''कर्मनाशा''में है। संग्रह 2012 में प्रकाशित हुआ था और तब से ही मेरे पास है। उसी आधार पर कह सकता हूं कि उस वक्‍त सिद्धेश्‍वर की कविता के उस पाठ को पकड़ नहीं पाया था जिसमें एक सचेत कवि आखिर क्‍यों उस बीच के रास्‍ते की कामना कर रहा था या, उसको भी एक सहारा मान रहा था जिसका कि पाश पूरी तरह से निषेध करने की सलाह दे गये। पाश ने जिन अर्थों में बीच के रास्‍ते का निषेध किया वह स्थितियां स्‍पष्‍ट हैं कि एक तरफ आवाम के दुश्‍मनों का रैला है और दूसरी ओर उन आक्रमक कार्रवाइयों की मुखालफत के स्‍वर होते स्‍वरों की एकजुटता की कामना है। इन दोनों के बीच एक गली है जो अपने दोनों छोरों से करीबी बनाते हुए चलने में ही अपनी राह बनाती चलती है। सिद्धेश्‍वर, बेशक उस बीच के रास्‍ते पर होते हुए संघर्षरत छोर के साथ चलने वाली रचनाधर्मिता के कवि है और उसके बचे रहने को हमलावरों के परास्‍त होते जाने में ही सुरक्षित मानते हैं। अफसोस, कि उनकी इस चाहना के बावजूद भी जमाना हमलावारों की षडयंत्रकारी जीत की ओर है। सिद्धेश्‍वर की यह कविता और संग्रह की अन्‍य कविताएं भी उसी त्रासदी को दर्ज करते हुए ऐसा ऐतिहासिक दस्‍तावेज होती गयीं हैं, जिसकी भविष्‍यवाणी कथाकार योगेन्‍द्र आहूजा ने भी कहानी मर्सियामें कर दी थी- यह वर्ष 2012 है, हिन्‍दू साहित्‍य का समय। जिसके आचार्य कहते हैं कि.......(मर्सिया योगेन्‍द्र के संग्रह अंधेरे में हंसी को पलटते हुए पढ़ी जा सकती है, या पहल के किसी पुराने अंक में जब 2004 में पहली बार प्रकाशित हुई थी।)। पाश को याद करते हुए सिद्धेश्‍वर खुद ही चौंक जाते हैं और पाते हैं कि स्थितियां तो बीच के रास्‍ते वाली भी नहीं बची हैं। हमलावर पूरी तरह से वातावरण में छा चुके हैं।       

नहीं थी/ कहीं थी ही नहीं बीच की राह
            खोजता रहा/ होता रहा तबाह।
जब तक याद आते पाश
            सब कुछ हो चुका था/बकवास।
अवचेतन में वास करती जा रही बकवास हो गई इन स्थितियों की शिनाख्‍त सिद्धेश्‍वर की कविता में बार बार हुई है। जमाने को लगातार अपने रंग में रंगने वाले हमलावारों की हर धीमी से धीमी पदचाप को अन्‍य कविताओं में भी सुना जा सकता है। अपने आसपास के जनसमाज और प्रकृति में मौजूद बिम्‍बों के मार्फत सिद्धेश्‍वर उसे बयां करने की कोशिश करते रहते हैं।
नदी की /उदासी का हाल/बताएंगी मछलियां
मछलियों की उदासी/ प्रतिबिम्बित होगी जल मे जाल में।
एक ओर चित्र,
यहां सब कुछ शुभ्र है/ सब कुछ धवल है
बीच में बह रही है/ सड़कनुमा एक काली लकीर।

एक और कविता, जिसका संबंध बेशक किसी राग भोपाली से हो या न हो पर उस राग भोपाल को जिसमें याद किया गया है, जिसका क्रंदन नथुनों के रास्‍ते आज भीतर उतरता है और मृत्‍यु-गंध का उच्‍छवास हो जाता है। अफसोस की जालिम जमाना और उसके रहनुमा बने राग भोपालियों के सिपहसलार उस राग भोपाल के पूरी दुनिया में गाते फिर रहे हैं और तमाम जनभूमि को मरघट बनाने देने वाले हालातों से भी विचलित नहीं हो रहे हैं।  

दिलचस्‍प है यह देखना कि लगातार की विपरीत स्थितियों में बीच के उस काले रास्‍ते के निषेध के विचार को सिद्धेश्‍वर आत्‍मसात करते जाते हैं और सब कुछ चौपट हो जाने वाली स्थितियों में भी निराशा की बजाय उम्‍मीदों की बची हुई तस्‍वीरों को देख और रख पाते हैं,
                                    घास पर/ ठहरी हुई ओंस की एक बूंद
                                    इसी बूंद से बचा है/ जंगल का हरापन
                                    और समुद्र की समूची आर्द्रता।


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